वो तस्वीरें आपके सामने भी घूम रही होंगी, जो पिछले तीन दिनों से खबरों और खासकर सोशल मीडिया के जरिए देश भर में फैल चुका है। जी हां, बेतहाशा अपने घरों की ओर भागते लोगों के झुण्ड की तस्वीरें। इन्हें आप गरीब कह लिजिए, मजबूर कह लिजिए, लाचार कह लिजिए, या फिर आप थोड़ा सोचने-समझने की ताकत रखते हैं तो इन्हें ‘इंसान’ मान लिजिए। आज जब ये सड़क पर हैं तो कई तरह की बहसें चल रही हैं।
बहस दो तरह की है। एक वर्ग इस पक्ष का है कि इन्हें घरों में रहना चाहिए, जैसा कि सरकार ने कहा था। जबकि दूसरा वर्ग वह है, जो इन्हें सड़कों पर देख कर चिंतित है और अपने गांव की सरहद पर लट्ठ लेकर बैठा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब लॉकडाउन की घोषणा के बाद ही पुलिस सक्रिय हो गई थी, तो आखिर इतने सारे लोग सड़कों पर कैसे आ गए। क्या यह अचानक हो गया कि लाखों लोग दिल्ली-यूपी की सीमा पर दिखने लगे। क्या ये एकदम से अपने घरों से निकल कर सीधे बार्डर पर पहुंच गए? अगर सरकार इतनी सचेत थी तो आखिर इन लोगों को सड़कों पर आने से रोका क्यों नहीं गया?
इस भगदड़ की एक गुनहगार बिहार और उत्तर प्रदेेश की सरकारें भी है। क्योंकि दिल्ली-यूपी बार्डर पर सड़कों पर जिनका हुजूम दिख रहा है, वह इसी दोनों राज्यों के हैं। जी हां, ये वही पूर्वांचली हैं, जो दिल्ली की सियासत चलाते हैं। ये दिल्ली में जब जिसे चाहें गद्दी पर बैठा दें, जब चाहें कान पकड़ कर उठा दें। दिल्ली में हर चौथा-पांचवा वोटर पूर्वांचल का है। दिल्ली में पूर्वांचल के 35 फीसदी वोटर हैं। दिल्ली के 70 विधानसभा सीटों पर पूर्वांचल के मतदाता 20-60 प्रतिशत तक हैं।
पूर्वांचल के लोग दिल्ली, पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में सबसे ज्यादा विस्थापित होकर पहुंचते हैं। आज सड़कों पर भी वही हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर उनका राज्य उन्हें आज तक कोई रोजगार क्यों नहीं दे पाया। या फिर बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड की सरकारों ने अपने राज्य के लोगों का पलायन रोकने के लिए अब तक कोई उपाय क्यों नहीं किया। और इसका कसूर किसी एक नेता या एक पार्टी का नहीं है, बल्कि इसकी जिम्मेदार सभी पार्टियां और सभी नेता हैं।
बिहार में कांग्रेस से लेकर गरीबों का मसीहा कहे जाने वाले लालू यादव की भी सरकार रही, तो झारखंड में भी कई बार आदिवासी मुख्यमंत्री रहे हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता पर मायावती, मुलायम और अखिलेश यादव भी बैठें। इसलिए सिर्फ कांग्रेस या भाजपा को कोसने भर से काम नहीं चलेगा। सवाल इन लोगों पर भी उठते हैं। और उनकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा बनती थी, क्योंकि शहरों से गांवों की ओर पलायन सबसे ज्याद पलायन कमजोर वर्गों के लोग ही करते हैं। लेकिन आज जिस तरह गरीब अपने गांव और शहर के बीच बिना छत और रोटी के सड़कों पर मौजूद है, उसमें इन तमाम बहुजन नेताओं पर भी उंगली उठती है।
एनएसओर के आंकड़े के मुताबिक बिहार में बेरोजगारी दर 8.3 फीसदी है। उत्तर प्रदेश में तो भाजपा की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सारे रिकार्ड ही तोड़ दिए। योगी के सीएम बनने के बाद पिछले दो सालों में यहां 12.5 लाख लोग बेरोजगार हुए हैं। प्रदेश के लेबर डिपार्टमेंट की ओर से संचालित ऑनलाइन पोर्टल के मुताबिक 7 फरवरी 2020 तक करीब 33.93 लाख लोग बेरोजगार रजिस्टर्ड हुए हैं। और झारखंड में हर पांच युवा में से एक युवा बेरोजगार है।
लोगों के सामने यह आपदा भले ही आचनक आई है। लेकिन केंद्र सरकार को पता था कि वह लॉक डाउन करने जा रही है।ऐसे में उसे सारे इंतजाम पहले से करने चाहिए थे। ताकि लोग घरों से न निकले। तो राज्य सरकारों को भी सोचना चाहिए कि आखिर वह आज भी अपने लोगों को स्थानीय तौर पर अपने राज्यों में ही रोजगार दिलाने में क्यों विफल रही है। सवाल के घेरे में केंद्र से लेकर राज्य सरकारें तक हैं। कांग्रेस से लेकर भाजपा तक है। तो सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेता भी। पिस रहा है तो सिर्फ गरीब।
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।
Good morning
Very nice your news