पिछले दिनों गुजरात के ऊना में मरी गाय का चमड़ा उतारने पर गाय को मारने के आरोप में गोरक्षा समिति के गुंडों द्वारा चार दलितों की बुरी तरह से पिटाई की गयी थी जिस पर दलितों ने विरोध स्वरूप मरी गाय को उठाने का बहिष्कार कर दिया है तथा इस के अतिरिक्त गुजरात में बहुत से स्थानों पर विरोध प्रदर्शन तथा सड़क जाम आदि भी किया गया है. दलितों ने इसकी शुरुआत 18 जुलाई को सुरेन्द्र नगर जिले के कलेक्टर के दफ्तर के बाहर मरी गायें फेंक कर की थी. इसके साथ ही दलितों ने 31 जुलाई को अहमदाबाद में एक बड़ा दलित सम्मलेन करके मरे जानवर न उठाने, गटर साफ़ न करने, भूमिहीन दलितों को 5 एकड़ ज़मीन देने,सफाई कर्मचारियों को 7वें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देने तथा सफाई के काम में ठेकेदारी प्रथा समाप्त करने की मांग भी उठाई है.
यह सर्वविदित है कि जाति व्यवस्था के कारण दलितों के साथ जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न किया जाता है. जाति विधानों का अनुपालन करना हरेक हिन्दू का धार्मिक कर्तव्य है. हिन्दू धर्म- शास्त्रों में जाति के विधानों का उलंघन दंडनीय अपराध है. इसलिए जब कभी भी दलित जाति के लोग जाति विधानों को तोड़ने का साहस दिखाते हैं तो हिन्दू धर्म के रक्षक उनका उत्पीड़न करते हैं जिस का मुख्य उद्देश्य दलितों को वर्णव्यवस्था में अपना जाति स्थान दिखाना और यथास्थिति को बनाये रखना है. दरअसल दलित उत्पीडन केवल घटना नहीं बल्कि उत्पीड़न की विचारधारा है जिसे हिन्दू धर्म की स्वीकृति है.
पूरे देश में दलित उत्पीड़न का लगातार शिकार होते हैं. दलितों को समानता का जो संवैधानिक अधिकार मिला है, दलित जब भी उस अधिकार का प्रयोग करने की कोशिश करते हैं तो उन पर अत्याचार होता है. दलितों में जैसे जैसे संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता फ़ैल रही है और वे अधिक मात्रा में अपने अधिकारों का प्रयोग करने लगे हैं वैसे वैसे दलित उत्पीड़न की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं. सरकारी आंकड़े भी यही दर्शाते हैं कि देश में दलितों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं. गृह मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2014 में देश भर में दलितों के उत्पीड़न के 47,000 मामले दर्ज हुए जबकि 2015 में 54,000 के क़रीब मामले दर्ज हुए हैं. यानी एक साल में 7000 घटनाएं बढ़ीं हैं. इसी प्रकार 2014 में गुजरात में 1100 अत्याचार के मामले रजिस्टर किये गये थे, जो 2015 में बढ़कर 6655 हो गये. इस प्रकार अकेले गुजरात में पिछले साल में दलित उत्पीडन में पांच गुना वृद्धि हुयी है. न्यायालय में सबसे खराब स्थिति गुजरात की है जहां दोष सिद्धि की दर 2.9 फीसदी है जबकि देश में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार से जुड़े मामलों में दोष सिद्धि की दर 22 फीसदी रिकॉर्ड की गयी है. इस प्रकार गुजरात में जहाँ एक तरफ दलित उत्पीडन में भारी वृद्धि हो रही है, वहीँ दूसरी तरफ उत्पीडन के मामलों में सजा की दर बहुत निम्न है. इस प्रकार गुजरात के दलितों की स्थिति बहुत खराब है. इसके लिए गुजरात की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था और सरकार की निष्क्रियता जुम्मेदार है.
गुजरात के दलितों ने दलित उत्पीड़न के विरोध का जो तरीका अपनाया है वह बिलकुल नायाब है. इसने हिन्दुओं की गाय के नाम पर चल रही राजनीति और गुंडागर्दी को जबरदस्त चुनौती दी है. अब तक गाय के नाम पर मुसलामानों को निशाना बनाया जा रहा था परन्तु दलितों का गाय के नाम पर उत्पीड़न हिन्दुओं को बहुत महंगा पड़ा है क्योंकि गाय के नाम पर मुसलमानों को दबाया जा सकता है परन्तु दलितों को दबाना उतना आसान नहीं है. गुजरात के दलितों का प्रतिरोध यह भी दर्शाता है कि अब दलित सवर्णों द्वारा उत्पीड़न को खामोश रह कर सहने वाले नहीं हैं बल्कि अब वे इसका सभी प्रकार से प्रतिरोध करने के लिए तैयार हैं. यह परिघटना स्वागत योग्य है. दरअसल दलित अभी तक ख़ामोशी का शिकार रहे हैं परन्तु गुजरात की परिघटना यह दर्शाती है कि अब वे भी प्रतिकार करने की स्थिति में आ गए हैं.
गुजरात में दलितों का प्रतिरोध स्वत स्फूर्त है. इसमें कोई भी दलित राजनेता फ्रंट पर नहीं है. हाँ, कुछ दलित संगठन ज़रूर सक्रिय हैं. इससे से यह भी परिलक्षित होता है कि दलित अब राजनेताओं पर निर्भर न रह कर स्वयं जनांदोलन में उतरे हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकतर दलित नेता केवल जाति के नाम पर राजनीति करते आये हैं. उन्होंने दलित समस्यायों और दलित मुद्दों को अपनी राजनीति का आधार नहीं बनाया है. अतः गुजरात प्रतिरोध में दलितों ने लगभग सभी दलित राजनेताओं को नज़रंदाज़ किया है.
डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू जाति व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए कहा है कि यह केवल सामाजिक व्यवस्था ही नहीं है बल्कि आर्थिक व्यवस्था भी है. यह एक स्पष्ट सत्य है कि हिन्दू समाज में पेशों का निर्धारण जाति के आधार पर किया गया है और इन में बहुत कम गतिशीलता है. यह भी सच्चाई है कि गंदे और कम आमदन वाले पेशे दलितों पर थोपे गए हैं. यह भी विचारणीय है कि दलितों ने यह पेशे स्वेच्छा से नहीं अपनाये होंगे बल्कि उन्हें इन पेशों को करने के लिए बाध्य किया गया होगा. इस सम्बन्ध में मनुस्मृति में स्पष्ट विधान किये गए हैं.
संविधान के लागू होने के 65 वर्ष बाद भी दलितों के पेशों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है. हाँ, आरक्षण के कारण दलितों की राजनीति, सरकारी सेवाएं और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ हिस्सेदारी हुयी है परन्तु वह भी बहुत कम और निम्न स्तर की ही है. परिणामस्वरूप दलितों के जीवन स्तर में बहुत थोडा अंतर आया है. इसका लाभ कुछ पढ़े लिखे नौकरी पेशा और राजनीति में सक्रिय दलितों को ही मिला है. इस का अंदाज़ा गाँव में रहने वाले बहुसंख्यक दलितों के जीवन स्तर से लगाया जा सकता है. यह भी देखा गया है कि उत्पादन के संसाधनों जैसे ज़मींन, उद्योग और व्यापार आदि में दलितों की भागीदारी में कोई इजाफा नहीं हुयी है. कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत की अधिकतर आबादी कृषि से जुड़ी हुयी है. दलितों की बहुसंख्या कृषि मजदूर हैं परन्तु बहुत कम दलितों के पास बहुत थोड़ी ज़मीन है. इस प्रकार गाँव में दलित भूमिधारी जातियों पर न केवल रोज़गार के लिए बल्कि नैतिक क्रियाकलापों जैसे शौच तथा जानवरों के लिए घास पट्ठा आदि लाने के लिए भी आश्रित हैं.
सामाजिक और आर्थिक जनगणना 2011 से यह उभर कर आया है कि देहात क्षेत्र में 42% लोग भूमिहीन हैं और वे केवल शारीरिक श्रम ही कर सकते हैं. जनगणना ने इन दोनों को इन लोगों की बड़ी कमजोरियां होना बताया है. इस श्रेणी में अगर दलितों का प्रतिश्त देखा जाये तो यह 70 से 80 प्रतिश्त हो सकता है. इस प्रकार ग्रामीण दलितों की बहुसंख्या आज भी भूमिधारी जातियों पर आश्रित है. इस पराश्रिता के कारण चाहे मजदूरी का सवाल हो या उत्पीड़न का मामला हो दलित इन के खिलाफ मजबूती से लड़ नहीं पाते हैं क्योंकि सवर्ण जातियों के पास सामाजिक बहिष्कार एक बहुत बड़ा हथियार है. अतः उत्पादन के संसाधनों के पुनर्वितरण के बिना दलितों की पराश्रिता समाप्त करना संभव नहीं है. इसके लिए भूमिसुधार और भूमिहीनों को भूमि वितरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि सौ वर्ष पहले था. यह अच्छी बात है कि गुजरात आन्दोलन में भी दलितों को 5 एकड़ भूमि देने की मांग उठाई गयी है.
दलितों के विकास में दलित राजनीति की एक प्रभावशाली भूमिका हो सकती थी. शुरू में डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ने इसे मजबूती के साथ उठाया भी था. इसी पार्टी ने भूमि वितरण, न्यूनतम मजदूरी, समान वेतन आदि मुद्दों को लेकर 6 दिसंबर 1964 से “जेल भरो” आन्दोलन भी चलाया था जिस में 3 लाख से अधिक दलित जेल गए थे और तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादर शास्त्री को यह सभी मांगे माननी पड़ी थीं. इस के बाद ही कांग्रेस सरकार ने भूमिहीन दलितों को भूमि आबंटन शुरू किया था. परन्तु रिपब्लिकन पार्टी के विघटन के बाद किसी भी दलित पार्टी ने इन मांगों को नहीं उठाया जिस कारण एक तो भूमि सुधार सही ढंग से लागू नहीं किये गए, दूसरे सीलिंग से जो ज़मीन उपलब्ध भी हुयी थी उस का आबंटन नहीं हुआ. केवल बंगाल और केरल की कम्युनिस्ट सरकारों को छोड़ कर किसी भी अन्य राज्य में न तो भूमि सुधार सही ढंग से लागू हुए और न ही कोई भूमि आबंटन हुआ. इसी का दुष्परिणाम है कि पूरे देश में 10% लोगों के पास 80% भूमि केद्रित है. दलितों में भूमिहीनता का प्रतिश्त बहुत अधिक है जो उनकी कमज़ोर स्थिति का सबसे बड़ा कारण है. इसी लिए भूमि आबंटन दलितों के सशक्तिकरण की सब से बड़ी आवश्यकता है. इसके लिए भूमि आबंटन दलित राजनीति का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए.
दलितों की दूसरी सब से बड़ी कमजोरी उनके पास केवल शारीरिक श्रम का ही होना है. उनके पास तकनीकि योग्यता तथा रोज़गार के अवसरों की कमी है. अतः बेरोज़गारी दलितों की सबसे बड़ी समस्या है. इसके लिए ज़रूरी है कि दलितों को शिक्षा और तकनीकि शिक्षा देकर प्रगति के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ परन्तु किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाये हैं. इधर सरकार द्वारा अपनाई गयी निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीति ने आरक्षण के माध्यम से सरकारी उपक्रमों में मिलने वाले रोज़गार के अवसरों को भी कम कर दिया है जिस कारण अन्य वर्गों सहित दलितों में भी बेरोज़गारी निरंतर बढ़ रही है. मोदी सरकार द्वारा रोज़गार पैदा करने के वादे बिलकुल झूठे साबित हुए हैं. अतः रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने की मांग और भी अधिक प्रासंगिक हो गयी है. जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक सरकारें संसाधनों की कमी का रोना रो कर निजी क्षेत्र का पेट भरती रहेंगी.
जैसा कि सर्वविदित है कि ग्रामीण दलितों का बड़ा हिस्सा छोटे किसानों और कृषि मजदूरों के रूप में खेती से जुड़ा हुआ है. इधर सरकारों की किसान विरोधी नीतियों के कारण खेती घाटे का सौदा हो गया है जिस के कारण बड़ी संख्या में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और खेती छोड़ रहे हैं. इसके इलावा सभी सरकारें कृषि भूमि अधिग्रहण करके कृषि भूमि क्षेत्र को कम करने में लगी हुयी हैं. खेती की दुर्दशा का कुप्रभाव केवल किसान पर ही नहीं पड़ता बल्कि उससे जुड़े कृषि मजदूरों पर भी पड़ता है जिस में अधिकतर दलित हैं. अतः दलित कृषि मजदूरों की दशा सुधारने के लिए कृषि में सरकारी निवेश बढ़ाने, किसान को उपज का उचित मूल्य दिलवाने और मजदूरी की दर बढ़ाने की सखत ज़रुरत है.
अब तक की दलित राजनीति केवल दलितों को सम्मान दिलाने और आरक्षण के नारों को लेकर ही चलती रही है. यह अधिकतर अस्मिता की राजनीति है जिस का दलितों के बुनियादी मुद्दों जैसे भूमि सुधार, भूमि आबंटन, गरीबी उन्मूलन, उत्पीड़न और बेरोज़गारी आदि से कुछ लेना देना नहीं है. दरअसल अस्मिता की राजनीति बहुत आसान राजनीति है क्योंकि इसमें किसी मुद्दे के लिए कोई संघर्ष या जनांदोलन करने की ज़रुरत नहीं पड़ती. केवल अस्मिता से जुड़े कुछ नारों से काम चल जाता है. अतः इस बात की ज़रुरत है कि दलित मुद्दों जैसे भूमि सुधार, भूमि आबंटन, रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने, कृषि का विकास करने आदि को दलित राजनीति के केंद्र में लाया जाये. इसके साथ ही दलितों को दलित नेताओं और दलित राजनीतिक पार्टियों को भी मजबूर करना होगा कि वे अस्मिता की राजनीति छोड़ कर मुद्दों की राजनीति अपनाएं और अपना राजनीतिक एजंडा घोषित करें. यह भी देखा गया है राजनीति में दलितों की महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद भी दलित मुद्दे गैर दलित राजनैतिक पार्टियों के एजंडे में भी कोई स्थान नहीं पाते हैं क्योंकि वे भी आरक्षित सीटों पर दलितों को खड़ा करके जाति के नाम पर वोट मांग कर काम चला लेते हैं. अतः यह ज़रूरी है कि दलितों को केवल जाति के नाम पर वोट न देकर दलित मुद्दों के आधार पर वोट देनी चाहिए और सभी पार्टियों को दलित मुद्दों को अपने एजंडे में शामिल करने का दबाव बनाना चाहिए.
दरअसल दलित राजनीतिक पार्टियों को डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के समय बनाये गए संविधान और एजेंडा से सीखना होगा. यह सही है कि एक तो वर्तमान में रिपब्लिकन पार्टी इतनी खंडित हो चुकी है कि उसका एकीकरण तो संभव दिखाई नहीं देता है. दूसरे बसपा का प्रयोग भी लगभग असफल हो चुका है. इससे भारत में दलित राजनीति व्यक्तिवाद, जातिवाद, दिशाहीनता, अवसरवादिता, मुद्दाविहीनता और भ्रष्टाचार का शिकार हो गयी है और अब यह अपने पतन के अंतिम चरण में है. ऐसी दशा में हम लोगों ने आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) नाम के नए दल की स्थापना की है जो सही अर्थों में एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष दल है तथा समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर सभी लोगों का उत्थान करना चाहता है और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर की विचारधारा और आदर्शों का इमानदारी से अनुसरण कर रहा है. आइपीएफ जाति-धर्म की राजनीति न करके दलितों, आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय के साथ साथ अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों, महिलायों और समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों के मुद्दों की राजनीति का पक्षधर है और समान विचारधारा वाली धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील पार्टियों के साथ गठबंधन करने के पक्ष में भी है.
लेखक आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.
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