सबसे पहले भड़ास 4 मीडिया को 10 वर्ष पूरा करने की बधाई। आज उन्होंने मुझे यहां देश के दिग्गज पत्रकारों के बीच में खड़ा होने का मौका दिया है, इसके लिए भी मैं उनका आभारी हूं। असल में मुझे कुछ कहना नहीं है, मुझे पूछना है। जो अक्सर कई सालों से मेरे जेहन में है। और उन सवालों को मुझे आप पत्रकारों से ही पूछना है। भड़ास ने हमेशा मीडिया से सवाल पूछा है, मीडिया पर सवाल उठाया है। इसलिए उन सवालों को पूछने के लिए भड़ास का यह मंच सबसे बेहतर मंच है।
कल मैंने एक खबर पढ़ी। नवभारत टाइम्स में- उसकी हेडिंग थी-
“दलित व्यक्ति ने ससुराल वालों पर पत्नी से अलग करने का आरोप लगाया, आत्मदाह किया”
मैंने उस हेडिंग को दुबारा पढ़ा, और मैंने खुद से पूछा कि क्या उस खबर में यह बताना जरूरी था कि वह व्यक्ति दलित था। क्योंकि मामला पारिवारिक था और यहां जातीय पहचान उजागर करने का मुझे मतबल समझ में नहीं आया. इसी तरह तकरीबन 7-8 साल पहले मैंने एक खबर जागरण में भी पढ़ी थी, हेडिंग थी…
“आदिवासी युवक को करंट लगा”
पिछले आठ सालों में मैं वह हेडिंग नहीं भूल पाया। क्या वहां यह बताना जरूरी था कि युवक आदिवासी है।
इसी तरह जब भी दलित समाज से ताल्लुक रखने वाली किसी बच्ची या महिला से बलात्कार होता है तो उसे जरूर लिखा या बताया जाता है। दलित महिला के साथ बलात्कार, दलित युवती के साथ बलात्कार, दलित बच्ची के साथ बलात्कार। वहीं दूसरी ओर किसी अन्य समाज की महिला का बलात्कार होने पर उसकी जाति का जिक्र नहीं होता, क्यों? अमूमन तो किसी दूसरे समाज की महिला के साथ ऐसी दुर्घटनाएं काफी कम होती है, और ये किसी के साथ नहीं होना चाहिए। लेकिन अगर हो भी जाती है तो यही मीडिया उसकी पहचान नहीं बताता। आखिर क्यों?? क्या वह एक समाज की इज्जत उछालता है और दूसरे की बचाता है। वो दोनों को एक नजर से क्यों नहीं देखता??
मीडिया की दुनिया में एक शब्द गढ़ा गया है.. “दबंग”… इस शब्द से जो खबरे आती है, वो देखिए।
– दबंगों ने दलित को पीटा
– दलित ने मटका छू लिया तो दबंगों ने हाथ काट डाला।
– दबंगों ने दलित के साथ ये किया.. वो किया…. ऐसे किया… वैसे किया..
कौन है ये दबंग?? किसने बनाया है ये दबंग.. ऐसी हेडिंग क्यों?
आंकड़े और सर्वे ये साफ बताते हैं कि मीडिया में किसका वर्चस्व है। मीडिया के शीर्ष पदों पर किस जातीय पहचान के लोग बैठे हैं?
तो क्या कहीं ऐसा तो नहीं है कि खबरों की ऐसी हेडिंग देकर कमजोरों को डराया जाता है कि अगर तुमने हमारे खिलाफ जाने की हिम्मत की, अगर तुमने हमारा कहा नहीं माना तो तुम्हें पीटा जाएगा, तुम्हारे घर की औरतों का बलात्कार किया जाएगा??
क्या ऐसा कर समाज के एक विशेष वर्ग को …जिसे दबंग कह कर प्रचारित किया जा रहा है, प्रोत्साहित नहीं किया जाता? और अगर ऐसा नहीं है, संपादकों का, पत्रकारों का मन साफ है तो ऐसे लोगों के लिए दबंग शब्द की जगह जातिवादी और गुंडे शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता?
वो क्राइम करता है न… वो तो गुंडा हुआ। उसे दबंग होने का सर्टिफिकेट क्यों दे दिया जाता है?
मेरा सवाल है कि दलित और आदिवासी समाज देश का एक चौथाई है। लेकिन मीडिया उनके साथ खड़ा क्यों नहीं होता। जब हरियाणा में मिर्चपुर होता है, जब महाराष्ट्र में खैरलांजी होता है और जब आदिवासी समाज अपनी आवाज़ उठाता है तो ये मीडिया पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए सामने क्यों नहीं आता, मुहिम क्यों नहीं चलाया जाता? क्या ये लोग अखबारों के पाठक नहीं हैं? क्या ये चैनलों के दर्शक नहीं हैं?
ये लोग भी अखबार खरीद कर पढ़ते हैं, ये लोग भी आपका चैनल सब्सक्राइब करते हैं। भाई उन्हें अपना ग्राहक समझ कर ही उनकी बात कर लो।
जब हम किसी दुकान पर जाते हैं तो दुकानदार को पैसे देते हैं, उससे समान मांगते हैं। वो हमें पैसे के बदले सामान देता है, लेकिन मीडिया ऐसा इकलौता दुकान है, जो देश के वंचित तबके से पैसे तो लेता है, लेकिन बदले में उन्हें कुछ नहीं देता। भला हो मार्क जुकरबर्ग का जिसने फेसबुक बना दिया, भला हो व्हाट्सअप बनाने वालों का। वरना न तो इस देश के अखबार और चैनल न तो रोहित वेमुला को छापते और न ही ऊना की घटना बताते।
भाई आप जिस धूम से गांधी जयंती, दशहरा और रामनवमी मानते हो, उस धूम से अपने अखबारों में आम्बेकर जयंती क्यों नहीं मानते। सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले, संत गाडगे महाराज, कबीर और रैदास की जयंती क्यों नहीं मनाते। क्या इनका समाज निर्माण में कोई योगदान नहीं है?? इन खबरों को इन बहुजन नायकों को आपने ब्लैकलिस्टेड कर के क्यों रखा है??
माफ करिएगा लेकिन आपलोग अपने इस बड़े ग्राहक समुदाय का विश्वास खोने लगे हैं। वैकल्पिक मीडिया इसी का परिणाम है।
इसी तरह जब नारायणन साहब भारत के राष्ट्रपति बने थे तो ये हैडिंग हिंदी और अंग्रेजी के तमाम अखबारों में प्रकाशित हुए थे। हैडिंग थी- “K.R Narayanan is the first dalit president of india”.. राष्ट्रपति बन के भी वो दलित रहें। चलिए मान लेते हैं कि पहली बार एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ था तो उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि का जिक्र करना जरूरी था। तो मेरा सवाल है कि फिर जब मुक्केबाज मैरीकॉम ने ओलंपिक में देश को किसी एकल खेल में पहला स्वर्ण पदक दिलवाया तो आपलोगों ने ये क्यों नहीं लिखा कि एक आदिवासी महिला ने देश के लिए पहला ओलिम्पिक पदक जीता है। अगर आप नारायणन के राष्ट्रपति बनने पर हैडिंग में ही उनकी जाति बताना जरूरी समझते हैं तो आपको मैरीकॉम की जाति भी बतानी पड़ेगी। वरना आपके नजरिये पर सवाल उठेंगे। जब किसी दलित और आदिवासी महिला के साथ बलात्कार होता है तो दलित और आदिवासी की बेटी होती है, लेकिन जब वो ओलंपिक में मैडल लाती है तो वो देश की बेटी बन जाती है। ये कैसा दोहरा रवैया है, ये दोहरा रवैया ठीक नहीं है।
पटना में मेरे एक मित्र हैं- संजय कुमार। उन्होंने एक किताब लिखी है, मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे। मैं इस मंच से पूछना चाहता हूँ, की सच मे ये लोग कहाँ खो जाते हैं। मैंने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन से पढ़ाई की है। जब मैंने कोर्स किया तो वहां हिंदी जर्नलिज्म में 40 बच्चे थे। अंग्रेजी में भी इतनी ही सीटें थी। तो अगर वहां रिजर्वेशन ठीक से मिला हो तो माना जाए कि 15-20 बच्चे पत्रकारिता के लिए आये थे। मैं उनमे से बस 4-5 को जनता हूँ जो मीडिया में काम कर रहे हैं। और जो आते भी हैं वो सब एडिटर या फिर सीनियर सुब एडिटर के आगे क्यों नहीं बढ़ पाते।
मैं अपनी बात कहता हूँ, 2 साल तक काम करने के बावजूद मेरे संपादक ने मुझे सब एडिटर लायक नहीं समझा। खैर ये तो अच्छा हुआ, क्योकि मैं आज आपलोगों के सामने खड़ा हूँ।
मैंने अपनी तमाम बातें रखी.. हो सकता है कि आप उसे याद रखें और ये भी हो सकता है कि इस कार्यक्रम से बाहर निकलने के बाद आप उसे बेकार समझकर भूल जाएं, लेकिन आपके भूल जाने से वो सवाल खत्म नहीं हो जाएंगे। वो सवाल बने रहेंगे और अपना जवाब मांगते रहेंगे। अंत में भड़ास4मीडिया और उसके शानदार व्यक्तित्व वाले संपादक यशवंत जी का धन्यवाद की उन्होंने मुझे अपनी बात रखने का मौका दिया।
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।
Very Nice Artical with true and bitter facts
Excellent view, praiseworthy.