देश में प्रमोशन में आरक्षण को खत्म करने का षड्यंत्र 2012 से चला था. उस वक्त देश में सबसे पुरानी और ऐतिहासिक पार्टी कांग्रेस की सरकार थी. जिसको दलितों और पिछड़ों की मसीहा पार्टी माना जाता था. मगर ये सरकार नहीँ सरकाट होगी अब पता चला है. चलो गैरों से क्या शिकवा. जब अपनों ने ही मुंह मोड़ दिया तो ये तो होना ही था.
जिस महापुरूष ने अंतिम सासों तक दलित समाज के लिए संघर्ष किया. आज उनके संघर्ष से उपजे नेताओं ने समाज को अंधेरे मे धकेल दिया है. सुरक्षित सीटों से जीते सांसद और विधायक सिर्फ पार्टियों के बहुमत के लिए ही साबित होते हैं वरना गूंगों और बहरों की तरह एक कोने मे सदन का बोझ बन कर रह गए हैं. क्या इनके अंदर का स्वाभिमान मर चुका है? इनको अपने समाज की कोई चिंता नही रह गई है?
शायद पूना पैक्ट के बाद बाबासाहेब समझ गए थे कि ये जन प्रतिनिधि सिर्फ सवर्ण पार्टियों के मोहरे बन कर रह जाएंगे. इसलिए उन्होंने संविधान में राजनैतिक आरक्षण को सिर्फ 10 साल के लिए रखा था. मगर वोट बैंक की राजनीति के कारण इसको आगे बढ़ाया जाता रहा है और भ्रम फैला रखा है कि नौकरियों मे आरक्षण को बढ़ाया गया जबकी संविधान मे इसकी कोई समयसीमा निर्धारित नहीँ है.
देश मे जातिगत शोषण के शिकार लोग आजाद भारत मे भी गुलामों से बदतर जिंदगी जीने को मजबूर हैं. छुआछूत और भेदभाव जारी है. स्कूलों में आज भी मिड डे मील के तहत मिलने वाले भोजन के दौरान दलित बच्चों को सवर्ण बच्चों से अलग बैठाया जाता है. आज भी दलित सार्वजनिक स्थान से पानी नहीँ भर सकते. दलितों की बारात सवर्णों के गांव से जाने पर दूल्हे को घोड़ी पर नहीँ बैठने दिया जाता. क्या ऐसे ही देश बढ़ेगा? ऐसे ही देश का विकास होगा?
यहां तो दलित जैसे हिन्दू नहीं काफिर हैं. ऐसा व्यव्हार क्या देश को सभ्यता और विकास के शिखर पर ले जा पायेगा? इतिहास गवाह है कि भारत की आंतरिक अशांति और कमजोरी का लाभ उठाकर इस्लाम से लेकर अंग्रेजों ने सदियों से देश को गुलाम बनाया. 100 साल भी आजादी के नहीँ हुए फिर से गिद्ध नजरें भारत की ओर गड़ने लगी हैं. राजनेता हैं कि कुर्सी को ही अपना खुदा मान बैठे हैं. 21वी सदी और कंप्यूटर इंटरनेट और स्पेस क्रान्ति के दौर मे भी भारत अगर जातिवाद को खत्म नहीँ कर पाया तो इतिहास पुनः दासता की दास्तां लिखने को तैयार होगा. इसलिए…
सोच बदलो.
समाज जगाओ.
अनेक नहीँ
एक बनो, नेक बनो. जय भीम
यह लेख आई.पी ह्यूमैन का है.
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