Sunday, February 23, 2025
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उत्तर प्रदेश में पंचायतों में उभरता नया दलित नेतृत्व

 हाल ही के पंचायत चुनावों में उत्तर प्रदेश में दलितों के पक्ष में कुछ अच्छी खबरें आ रही हैं। गांव की प्रधानी के चुनाव हमेशा ही स्थानीय स्तर पर शक्ति संतुलन की नई एवं ठोस इबारत लिखते आए हैं। राष्ट्रीय स्तर की राजनीति से परे स्थानीय स्तर की अपनी राजनीति होती है। इस राजनीति में भारत के दलितों को स्तर पर प्रतिनिधित्व के अवसर मिलना भविष्य में आने वाले परिवर्तन की सूचना देता है। इस परिवर्तन की सूचना देने वाली दो महत्वपूर्ण खबरें उत्तर प्रदेश से आ रही हैं। समाजवादी पार्टी के काडर एवं पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव का गढ़ माने जाने वाले सैफई गांव में 48 साल के लंबे अंतराल के बाद पहली बार हुए चुनाव में एक दलित व्यक्ति ने गांव की प्रधानी का चुनाव जीता है। वाल्मीकि समाज से आने वाले रामफल बाल्मीकि जो मुलायम कुनबे के विश्वासपात्र माने जाते हैं, वे अब क्षेत्र से मुलायम सिंह यादव समर्थित राजनीति का चेहरा बनेंगे।

 वहीं दूसरी तरफ कानपुर के ‘बिकरू’ गांव में मधु नाम की एक दलित महिला ने गांव की प्रधानी का चुनाव जीता है। यह वही गांव है जहां पर पिछले साल गैंगस्टर विकास दुबे ने उत्पात मचाया था। मधु के द्वारा चुनाव जीतने के बाद इस इलाके में लोकतांत्रिक व्यवस्था के बहाल होने की उम्मीद की जा रही है। विशेष रूप से महिलाओं की सुरक्षा की दिशा में बेहतर काम की यहा बड़ी आवश्यकता बताई जा रही है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्तर पर सामाजिक ताने-बाने एवं बदलती भी राजनीति का एक संकेत प्राप्त होता है। बहुत सारे नकारात्मक बातों के बीच में उत्तर प्रदेश से आने वाली यह खबरें बहुजन समाज के लिए एक उम्मीद की किरण दिखाती हैं। हालांकि ये सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें हैं, लेकिन इसके बावजूद बीते कुछ सालों में दलितों के खिलाफ बढ़ते हुए अत्याचार के बीच एक तरफ समाजवादी पार्टी द्वारा समर्थित दलित उम्मीदवार का उभरना और दूसरी तरफ युवा दलित महिला का एक नेता के रूप में उभरना अंधेरे में एक दीपक जलने के समान है।

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1 COMMENT

  1. अफसोश की बात यह है कि अधिकांश दलित समाज के चुने हुए लोग गांव के दबंगों के प्रतिनिधि होते हैं।गांव के दबंग कमजोर व्यक्ति को चुनाव में जिताने की जिम्मेदारी लेते हैं और 5 साल उसको अपने ढंग से इस्तेमाल करते हैं।ऐसा ही विधान सभाओं और सांसद में भी हो रहा है।यही कारण है की सवर्ण राजनेतिक आरक्षण का विरोध नहीं करता पर नौकरियों के आरक्षण के विरोध में सड़क पर आ जाता है।

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