विमर्शों की दुनिया में “दलित विमर्श” अर्थात् “दलित साहित्य” का लगभग पिछले चार- पाँच दशकों से परचम लहरा रहा है। बोधिसत्व बाबासाहब की वैचारिकी पर आधारित दलित समाज की अन्तर्वेदना-आक्रोश तथा उत्पीड़न, इच्छा, आकांक्षा को इस साहित्य में समाविष्ट किया गया है। इस समय वैश्विक पटल पर दलित साहित्य, सुर्खियाँ बटोर रहा है। देश-विदेश के तमाम विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य का अध्ययन-अध्यापन और गंभीर शोध कार्य हो रहे हैं। सैकड़ों शोधार्थी, डाक्टरेट कर अकादमिक दुनिया में अपनी धाक जमा चुके हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली द्वारा सैकड़ों अध्यापकों तथा शोध अध्येताओं को शोध परियोजनाओं के नाम पर करोड़ों रुपए अनुदान के रूप में दिए जा चुके हैं, साथ ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों के लिए भी लगातार वित्तीय अनुदान दिया जा रहा है। देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित पुस्तक प्रकाशकों द्वारा दलित साहित्य का व्यापक प्रकाशन किया जा रहा है। देश-विदेश के पुस्तकालय, दलित साहित्य की पुस्तकों से अटे पड़े हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने बड़ी संख्या में दलित साहित्य पर केन्द्रित विशेषांक प्रकाशित किए गए हैं।
दलित साहित्य ने हिन्दी साहित्य के साथ ही भारतीय भाषाओं के साहित्य को जीवंतता प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। विदेशी भाषाओं में दलित साहित्य तथा अन्य विमर्श मूलक साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों के बड़ी संख्या में अनुवाद किए जा रहे हैं। कुल मिलाकर इस समय दलित साहित्य, साहित्य की दुनिया में केंद्रीय विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। इस साहित्य के माध्यम से भारतीय समाज को संविधान के अनुरूप ढालने की भरपूर कोशिश जारी है।
कुछ लोग, ऐसे वक्त में दलित साहित्य के नामकरण को लेकर अनेक भ्रम फैला रहे हैं तथा कृतिम बहस चलाने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं, उन से सचेत रहने की आवश्यकता है। एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि- “सरजी, अब हम दलित नहीं हैं, हमें दलित शब्द, अपमानजनक लगता है, इसलिए इसका नाम बदल दिया जाए।” मैंने उनसे कहा है कि आपके पिता जी का क्या नाम है? उन्होंने बताया कि मेरे पिता जी का नाम कड़ोरे लाल है। मैंने पूछा और आपके दादा जी का नाम क्या है? वे बोले मेरे दादा जी का नाम राम गुलाम है। मैंने उनसे कहा कि क्या आपको यह नाम सम्मानजनक लगते हैं?
वे बोले नहीं। तो मैंने कहा कि क्या आप इन नामों को बदल सकते हैं? वे बोले नहीं। मैने कहा क्यों?? उनका उत्तर था, सर जी उनके नाम तो जो खेती योग्य जमीन तथा अन्य सम्पत्ति है, उसमें यही नाम दर्ज है, यदि हम नाम बदलेंगे तो उस सबसे बेदखल हो जाएँगे। तब मैंने कहा कि यही हाल इस समय ‘दलित’ या “दलित साहित्य” का नाम बदलने से हो जाएगा। आप अपनी साहित्यिक विरासत से बेदखल हो जाएँगे।
मैंने उनसे अपना नाम बताते हुए कहा कि देखो, मेरा नाम “काली चरण” है। मेरे पोते-पोतियाँ कहते है कि दादा जी, आप तो काले नहीं हैं, ना ही आप काली माँ को मानते हैं। आप एक प्रोफेसर भी हैं, आपका यह नाम हमें अच्छा नहीं लगाता है। अब बताओ, मैं उन्हें क्या उत्तर दूँ????
मेरे एक कट्टर अंबेडकरवादी मित्र हैं- राम गुलाम जाटव। रेलवे में बड़े अधिकारी हैं। वे राम और राम चरित्र, दोनों को कतई पसंद नहीं करते हैं। हाँ, उन्होंने अपने नाम को अंग्रेजी के “आर.जी” अक्षरों से ढँकने की कोशिश की है, पर उनके सरकारी अभिलेखों में तो रामगुलाम ही है, तथा उनके जानने वाले उन्हें रामगुलाम के नाम से ही जानते-पहचानते हैं। आरजी कहने पर उनके लोगों को अटपटा सा लगता है।
कुछ लोगों के नाम में व्याकरणिक दोष होता है, पर वह उनकी हाई स्कूल की मार्कसीट में अंकित हो चुका होता है, इसलिए वे उसे अब नहीं बदल सकते हैं। जबकि “दलित साहित्य”, नामकरण तो हमारे पूर्वजों ने सुविचारित तरीके से ही रखा है। इसे हम नहीं बदल सकते हैं। अब यह नाम, हमारे दलित समुदाय की अस्मिता का प्रतीक बन चुका है, हमारे साहित्य की वैश्विक पहचान, दलित साहित्य के रूप में ही स्थापित हो चुकी है। ऐसे में अब इसको कोई नया नाम देना पूरी तरह से असंभव और बेमतलब है।
लेखक जाने-माने शिक्षाविद हैं। उत्तर प्रदेश स्थित लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर एवं पूर्व विभागाध्यक्ष हैं।
बिल्कुल सही सर हम अपनी विरासत को भूल नहीं सकते
Bilkul dalit ko dalit hi rahne do. Mai bhi chamar hi hun, hamare kuchh kam padhe likhe dost mujhe harijan bolne ko kahte hai lekin jab mai bhi unse puchhta hun ya harijan ka matlab samjhata hun to ye bolte hai ki PhD kar lene se tum kuchh aur nahi ho jaoge.