नहीं रहें ‘ब्राह्मणों’ को चुनौती देने वाले दलित कवि मलखान सिंह

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मलखान सिंह जी

कमलेश वर्मा ने फारवर्ड प्रेस में लिखा है कि मलखान सिंह की कविताएं आत्मकथा है। वे आत्मकथा हैं, इसलिए सच्ची हैं। इनकी शैली आत्मकथात्मक है, इसलिए कथन में विश्वसनीयता है। मलखान जी पर भरोसा हो जाता है कि इनकी कविताओं के चित्र सच्चे हैं। सच्ची कविता कहने वाले मलखान सिंह आज सो गए। हमेशा के लिए। न टूटने वाली नींद में। आज 9 अगस्त 2019 को सुबह 4 बजे उनका निर्वाण हो गया। वह आगरा में रहते थे।

मलखान सिंह के गुजर जाने के बाद तमाम दलित लेखकों और साहित्यकारों ने उनको याद करते हुए सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलि दी है। तमाम दिग्गज दलित साहित्यकारों ने मलखान सिंह के निधन को दलित साहित्य के लिए एक बड़ी क्षति कहा है।

हमारे बीच से जब कोई ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसी राम या फिर मलखान सिंह चला जाता है तो अचानक से समझ में नहीं आता कि उनके बारे में क्या कहा जाए। इसलिए बेहतर है कि उन्हीं की कही बातों को दोहरा दिया जाए। अपनी रचनाओं से वो समाज को जो देना चाहते थे, वही बात एक बार फिर कह दी जाए। वही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

मलखान सिंह की ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता ने दलित साहित्य में जो प्रतिष्ठा अर्जित की है वह अपने आप में एक उपलब्धि मानी जाएगी. ये कविता वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी, सामंती–व्यवस्था पर तीखेपन के साथ हमला करती है. साथ ही उन तमाम मिथकों, बिम्बों और प्रतीकों को भी चेतावनी देती है जो साहित्य में जड़ जमाए बैठे हैं.

सुनो ब्राह्मण / मलखान सिंह
सुनो ब्राह्मण,
हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें।
तुम, हमारे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे दोनों मिल-बैठकर।
शाम को थककर पसर जाओ धरती पर
सूँघो खुद को
बेटों को, बेटियों को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को
बलवती होती है जो
देह की गंध से।

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ज्वालामुखी के मुहाने
तुमने कहा —
‘मैं ईश्वर हूँ’
हमारे सिर झुका दिए गए।

तुमने कहा —
‘ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या’
हमसे आकाश पुजाया गया।

तुमने कहा —
‘मैंने जो कुछ भी कहा —
केवल वही सच है’

हमें अन्धा
हमें बहरा
हमें गूँगा बना
गटर में धकेल दिया
ताकि चुनौती न दे सकें
तुम्हारी पाखण्डी सत्ता को।

मदान्ध ब्राह्मण
धरती को नरक बनाने से पहले
यह तो सोच ही लिया होता
कि ज्वालामुखी के मुहाने
कोई पाट सका है
जो तुम पाट पाते !

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आजादी
वहाँ वे तीनों मिले
धर्मराज ने कहा पहले से
दूर हटो —
तुम्हारी देह से बू आती है
सड़े मैले की
उसने उठाया झाड़ू
मुँह पर दे मारा ।

वहाँ वे तीनों मिले
धर्मराज ने कहा दूसरे से
दूर बैठो —
तुम्हारे हाथों से बू आती है
कच्चे चमड़े की
उसने निकाला चमरौधा
सिर पर दे मारा

वहाँ वे तीनों मिले
धर्मराज ने कहा तीसरे से नीचे बैठो —
तुम्हारे बाप-दादे
हमारे पुस्तैनी बेगार थे
उसने उठाई लाठी
पीठ को नाप दिया

अरे पाखण्डी तो मर गया !
तीनों ने पकड़ी टाँग
धरती पर पटक दिया
खिलखिलाकर हँसे तीनों
कौली भर मिले
अब वे आज़ाद थे।

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पूस का एक दिन
सामने अलाव पर
मेरे लोग देह सेक रहे हैं।

पास ही घुटनों तक कोट
हाथ में छड़ी,
मुँह में चुरट लगाए खड़ीं
मूँछें बतिया रही हैं।

मूँछें गुर्रा रही हैं
मूँछें मुस्किया रही हैं
मूँछें मार रही हैं डींग
हमारी टूटी हुई किवाड़ों से
लुच्चई कर रही हैं।

शीत ढह रहा है
मेरी कनपटियाँ
आग–सी तप रही हैं।

मलखान जी ने अपनी जाति और अपने टोले-मुहल्लेवाले गाँव को ‘सफ़ेद हाथी’ शीर्षक कविता तथा अन्य कविताओं में याद किया है। उनकी माँ मैला कमाती थीं और यह भी लिखा है कि मेरी जोरू मैला कमाने गयी है। गाँव के अपने टोले के बारे में लिखा है कि ‘यह डोम पाड़ा है’। आप खुद सुनिए।

सफेद हाथी
गाँव के दक्खिन में पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है –
जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है।

यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-
सूरज बीमार है या यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है।
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।
इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूँ ।
कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए है।
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है
हमारे बदन गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं।
हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है, झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है।
इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं।
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे
हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं / हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है।

मलखान सिंह का जाना दलित साहित्य के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर का चले जाना है। उनको विनम्र श्रद्धांजलि। साहित्य जगत आपके निशान ढूंढ़ेगा।

कविता संदर्भ-  रश्मि प्रकाशन से प्रकाशित कविता संग्रह से

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