बलिया। क्या आप बता सकते हैं कि दस रुपये की कीमत कितनी होती है? जी हां, बस इतना सा, कि इसमें एक पैकेट बिस्किट आ जाए. या फिर एक छोटा सा चॉकलेट, तीन सूखी रोटी या फिर एक नमक का पैकेट, जिसके साथ एक गरीब अपनी रोटी खा लेता है. कुल मिलाकर दस रुपये की कीमत इतनी ज्यादा तो नहीं ही होती है की किसी की जान ले ली जाए. लेकिन भारत जैसे देश में यह संभव है.
अपना झूठा रसूख, खोखली इज्जत और भोथड़ा चुके जातीय दंभ के कारण भारत का एक तबका दस रुपये के लिए किसी की जान लेने से नहीं चूकता. भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां आज भी अगर एक गरीब और दलित समाज का आदमी स्वघोषित किसी ऊंचे रसूखदार के खेत में काम करने से मना कर देता है तो उसकी इज्जत चली जाती है. और वह इसे लोकतांत्रिक देश में एक गरीब का हक न समझ कर अपना अपमान समझ बैठता है.
भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है, जहां एक गरीब इंसान हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी अपनी मजदूरी को हक से मांगने की बजाय हाथ जोड़कर मांगता है. और यहां यह भी गुंजाइश रहती है कि सामने वाला उसे दूसरे दिन आने के लिए कह कर टाल देता है. और कई बार यह दूसरा दिन कभी नहीं आता. और जब कभी कोई गरीब इंसान अपनी मजदूरी को लेने की जिद्द कर बैठता है तो कभी उसे चारा काटने की मशीन में डालकर काट दिया जाता है तो कभी घर के दरवाजे पर पेड़ से बांधकर पीटा जाता है. और कभी उसे अपनी मेहनत और पसीने की कमाई मांगने की गुस्ताखी करने पर इतना पीटा जाता है कि उसकी मौत हो जाती है.
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के गृह जिले उत्तर प्रदेश के बलिया में एक ऐसी ही घटना घटी है. जहां जातीय दंभ में डूबे एक शख्स ने रिक्शा चालक को इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई. बलिया के बैरिया थाना स्थित चांदपुर गांव में महज 10 रुपये के विवाद में अहंकार में डूबे नंदू पाण्डेय नाम के इंसान ने वृद्ध रिक्शा चालक खखनू पासवान को इतना पीटा की उसकी मौत हो गई.
विवाद मजह दस रुपये का था, वृद्ध रिक्शा चालक खखनू पासवान अपना मेहनताना मांग रहा था लेकिन रिक्शा वाले का हक से पैसा मांगना नंदू पाण्डेय को अपना अपमान लग गया और उसने वही किया जो सनातन धर्म के कथित रक्षक मानवता को ताक पर रखकर हजारों सालों से करते आए हैं.
खखनू पासवान की हत्या के बाद पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया है और छानबीन कर रही है, लेकिन खखनू पासवान ने जीते जी कभी यह नहीं सोचा होगा कि उसे कभी दस रुपये की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पर जाएगी.
दलित दस्तक (Dalit Dastak) एक मासिक पत्रिका, YouTube चैनल, वेबसाइट, न्यूज ऐप और प्रकाशन संस्थान (Das Publication) है। दलित दस्तक साल 2012 से लगातार संचार के तमाम माध्यमों के जरिए हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज उठा रहा है। इसके संपादक और प्रकाशक अशोक दास (Editor & Publisher Ashok Das) हैं, जो अमरीका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दलित दस्तक पत्रिका इस लिंक से सब्सक्राइब कर सकते हैं। Bahujanbooks.com नाम की इस संस्था की अपनी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुकिंग कर घर मंगवाया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को ट्विटर पर फॉलो करिए फेसबुक पेज को लाइक करिए। आपके पास भी समाज की कोई खबर है तो हमें ईमेल (dalitdastak@gmail.com) करिए।