आदमी कम शिक्षित हो या ज्यादा शिक्षित, गरीब हो या अमीर, उसे लगता है कि जाति से बाहर निकला, तो आफत आ जाएगी. व्यवहार में, जाति तोड़ने का एक ही मौका आता है विवाह का. शायद इसीलिए डॉ. अंबेडकर को अंतर-जातीय विवाहों से बहुत उम्मीद थी. भारत के सवर्ण समाज में कुछ सामाजिक सुधार अरसे से बकाया हैं. वे शिक्षित हैं, संपन्न हैं, और कुछ हद तक आधुनिक भी. चाहें तो भारतीय समाज में क्रांति ला सकते हैं. सब प्रकार की कूपमंडूकताओं को अलविदा कह सकते हैं. लेकिन वे ही जाति प्रथा से सब से ज्यादा बंधे हुए हैं. ‘जाति चली जाएगी, लोग क्या कहेंगे, मैं ही क्यों नक्कू बनूं’ की भावना ने उनके हाथ-पैर को निष्क्रिय कर रखा है. वे पहल करना भूल गए हैं. वे भारत पर गर्व करना चाहते हैं, पर कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते, जिससे भारत पर गर्व करने की स्थितियां बनें. इक्का-दुक्का प्रयास जरूर होते रहते हैं, लेकिन वे बिजली की कौंध की तरह हैं, जिससे अंधेरे की वास्तविकता और ज्यादा नजर आती है.
सच तो यह है कि सवर्ण समाज पढ़त-लिखत में आगे है, किंतु परिवर्तनशीलता में सब से पीछे. शिक्षा और जीवन के बीच दूरी को मिटा कर ही यूरोपीय जातियां आगे बढ़ सकी हैं. लेकिन भारत का सवर्ण समाज जैसे-जैसे आधुनिक हो रहा है, इस दूरी को और बढ़ाता जा रहा है. आधुनिकता और प्रगतिशीलता के बीच की दूरी को जब तक कम नहीं किया जाता, भारत में किसी भी तरह का सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है. माना जाता है कि मंडल कमीशन ने 90 के दशक में भारत को झकझोर दिया था. यह एक तरह की क्रांति थी, जिससे भारतीय समाज ने अपने आप से बहस करना सीखा. उन दिनों जो बहस शुरू हुई थी, उसकी प्रतिध्वनियां आज भी सुनी जा सकती हैं. लेकिन जैसे भारत की आजादी एक असमाप्त परियोजना है, वैसे ही मंडल क्रांति का संदेश भी बहुत दूर तक नहीं जा पाया है. मंडल आयोग का तीर ज्यादातर गलत निशानों पर लगा है. सच कहा जाए तो इस समय देश के दलित समुदाय में ही सबसे ज्यादा सुगबुगी है. रोहित वेमुला की घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि एक भी दलित के साथ नाइंसाफी हुई, तो यह राष्ट्रीय घटना बन सकती है. यही समुदाय जाति, रोजगार, आत्मसम्मान, सामाजिक समानता आदि को ले कर रोज नई-नई बहसें खड़ी कर रहा है. इसलिए आज के भारत में किसी समुदाय से सब से ज्यादा आधुनिकता और प्रगतिशीलता की उम्मीद की जा सकती है, तो वे दलित ही हैं.
जब हम दलितों की बात करते हैं, तो उन्हें एक समुदाय के रूप में देखते हैं. वह एक समुदाय है भी. लेकिन भारत के हर समुदाय की तरह इसमें भी ऊपर-नीचे कई स्तर हैं. हर स्तर अपने को विशिष्ट मानता है, सिवाय भंगी के, जो दलित जाति प्रथा के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है. हिंदी में कुछ दिनों पहले चमार बनाम भंगी की बहस चली थी. जब साहित्य में संवेदना का हाल यह है, तो समाज में कितना बुरा होगा. इसे हम उपनिवेश के भीतर उपनिवेश का मामला कह सकते हैं. मेरा निवेदन है कि सवर्ण बनाम दलित में जो उपनिवेशवाद अंतर्निहित है, वैसा ही उपनिवेशवाद दलितों के भीतर मौजूद है. इसे कौन तोड़ेगा? जाहिर है, सवर्णो को इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है. यह दलित समाज का आंतरिक मामला है. दलितों के प्रवक्ताओं का ज्यादा समय सवर्णो के नुक्स निकालने और उन्हें कोसने में खर्च होता है. मेरा प्रस्ताव है कि इसमें से कुछ समय बचा कर दलित एकता का निर्माण करने में लगाना चाहिए. यह जिस तरह बनिये की शादी ब्राह्मण से होने में अड़ंगे आते हैं, उसी तरह लड़की पासी हो और लड़का चमार, तो शादी होना मुश्किल हो जाता है.
दलित समाज को अपनी आंतरिक ऊर्जा से यह बैरियर क्यों नहीं तोड़ देना चाहिए? इस प्रस्ताव की तह में एक तरह का आदर्शवाद है. आदर्शवाद यह है कि पीड़ित की संस्कृति को पीड़क की संस्कृति से बेहतर होना चाहिए. यह इस प्राचीन समझदारी का आधुनिक अनुवाद है कि बुराई से बुराई नहीं मिटती, वह अच्छाई से मिटती है. इसमें एक सैन्यवाद भी है. शत्रु को पराजित करने के लिए अपनी सेना को ऐक्यबद्ध और मजबूत करना चाहिए. अपने भीतर का जातिवाद समाप्त कर दलित अपने को शक्तिशाली और सवर्ण समाज को कमजोर ही करेंगे.
जब दलितवाद का सूर्य उगेगा, उसके सामने ब्राह्मणवाद के तारे अपने आप अस्त हो जाएंगे. कुछ लोग कहेंगे, यह दलितों को बांटने का एक और नुस्खा है. यह दलितों के बीच काम करने वालों या दलित विचारकों और कार्यकर्ताओं का कर्तव्य है कि वे अपने समाज के भीतरी अंर्तद्वंद को ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक बनाएं. ये अंर्तद्वंद वास्तव में हैं नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ते हैं. प्रयास में गंभीरता और ईमानदारी हो, तो ये थोड़े ही समय में उड़न छू हो जाएंगे. इससे दलित समाज की स्वतंत्रता का विस्तार होगा और उसकी शक्ति भी बढ़ेगी. पांचों उंगलियां मिल कर मुट्ठी का रूप ले लें, तो इस ताकत के सामने कौन ठहर पाएगा?
मई के समय लाइव से साभार

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