मानव अधिकारों के हनन की समस्या दुनिया के सभी समाजों में एतिहासिक एवं सार्वभौमिक रूप से पायी जाती रही है. भारतीय समाज भी कोई अपवाद प्रस्तुत नहीं करता है. यहां भी कई प्रकार के मानव अधिकारों का उल्लंघन पाया जाता रहा है, जिसमें यहां की सामाजिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. भारतीय समाज के सन्दर्भ में यह तार्किक एवं निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कुछ सामाजिक वर्ग एवं संप्रदाय मानव अधिकारों के हनन के ज़्यादा शिकार ऐतिहासिक काल से रहे हैं या वर्तमान में इस समस्या से बुरी तरह प्रभावित हैं. ऐसा ही एक सामाजिक वर्ग जिसके मानव अधिकारों का उल्लंघन निरंतर प्राक् एतिहासिक काल से जारी है; वह है दलित समाज. दलित समाज को यदि हम स्त्री एवं पुरुष वर्गों में बांटकर देखें तो यह पता चलेगा कि दलित महिलाएं सामाजिक संस्तरण में सबसे निचले पायदान पर आती हैं. इस प्रकार दलित महिलाएं न केवल अन्य महिलाओं (उच्च जातियों की महिलाओं) से दयनीय एवं विषम परिस्थितियों का सामना करती हैं, बल्कि दलित वर्ग में भी स्त्री-पुरुष वर्गीकरण एवं पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के कारण उनकी स्थिति और भी कमजोर एवं संवेदनशील है. इस संबंध में कुमार (2009 अ), आलोयिशिस तथा अन्य (2011: xviii) कहते हैं कि वे त्रिस्तरीय शोषण का शिकार हैं जिसका आधार जाति, वर्ग एवं लिंग भेद है. इसी परिपेक्ष्य में यह शोधपत्र दलित महिलाओं के मानव अधिकारों की व्याख्या करने की कोशिश करेगा तथा भारतीय समाज में व्याप्त वास्तविक स्थिति को दर्शाते हुए इसमें बनी रहने वाली निरंतरता और बदलावों की समीक्षा करेगा. इस संदर्भ में किए गए शोध पत्र को हम पत्रिका के जून, 2015 अंक में प्रकाशित कर चुके हैं, यहां पेश है बचा हुआ हिस्सा-
दलित महिलाओं के मानव अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रावधान
यदि हम दलित महिलाओं से संबंधित अंतरराष्ट्रीय प्रावधानों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय संविदा निम्न अधिकार प्रदान करती है. अनुच्छेद 8 द्वारा बंधुआ मज़दूरी का निषेध, अनुच्छेद 14 द्वारा सभी को क़ानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 26 द्वारा नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, राजनैतिक या अन्य राय रखने के कारण, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति, जन्म अथवा अन्य किसी सामाजिक स्थिति के आधार पर भेदभाव को निषेध कर, इसी प्रकार अनुच्छेद 26, 25(c), 19(1), 21, 14(3)(g ), 16(1), 9(1), 9(2)(3)(4) एवं 18(1) ऐसे अधिकार प्रदान करते हैं जो दलित महिलाओं के नागरिक एवं राजनैतिक जीवन से संबंधित हैं (श्रीनिवासूलु 2008: 22-23).
उधर दूसरी ओर दलित महिलाओं से संबंधित आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों की रक्षा के लिए आर्थिक एवं सामाजिक अंतर राष्ट्रीय संविदा के अनुच्छेद 7(a)(i), 7(b), 10(2), 6(1), 10(3), 13(2)(a), 9(a)(ii), 7(d) तथा 11 मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं (वही: 25-26). इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिलाओं की स्थिति को जानने के लिए एक आयोग की स्थापना भी 1946 में की. इसी आयोग के माध्यम से आगे चलकर 1965 में महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव उन्मूलन की घोषणा का मसौदा तैयार किया गया, जिसे संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 1967 में अपना लिया. सन् 1979 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने एक और समझौते को अपनाया जिसे ‘कन्वेन्शन ऑन दा एलिमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्म्स ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेन्स्ट विमन’ कहा गया (युनाइटेड नेशन्स, शॉर्ट हिस्टरी ऑफ CEDAW कन्वेन्शन). इसके द्वारा महिलाओं से संबंधित कई अधिकारों की रक्षा का क्रियान्वयन सुनिश्चित किया गया.
दलित महिलाएं एवं मानव अधिकार: प्रावधान बनाम हनन
उपरोक्त संवैधानिक, राष्ट्रीय एवं अंतर राष्ट्रीय क़ानूनों और प्रावधानों के बावज़ूद वर्तमान समय में भी दलित महिलाओं के अधिकारों का हनन बड़े पैमाने पर जारी है. दलित महिलाओं के अधिकारों के हनन को हम मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं: पहला वे हनन जो सौम्य प्रकृति के हैं या दूसरे शब्दों में जो हिंसात्मक नहीं हैं तथा दूसरे वे जो क्रूरता, हिंसा एवं जघन्य अपराध के रूप में अंजाम दिए जाते हैं. हालांकि यह विभाजन अपने आप में बहुत बारीक अंतर लिए हुए है, तथा कभी कभी इन दोनों के बीच अंतर करना मुश्किल हो जाता है अथवा ये मिश्रित रूप से दलित महिलाओं के मानव अधिकारों के हनन में सहयोगी सिद्ध होते हैं.
यदि हम नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों की बात करें तो पाएंगे कि ग्रामीण एवं शहरी दोनों ही क्षेत्रों में दलितों को बंधुआ मज़दूरी का शिकार आज भी होना पड़ता है (इंटरनेशनल दलित सॉलिडॅरिटी नेटवर्क: दलित्स एंड बॉंडेड लेबर इन इंडिया). भारत सरकार के श्रम एवं रोज़गार मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार हालांकि बंधुआ मज़दूरी को सन 1976 से ही एक क़ानून लाकर निषेध कर दिया गया है किंतु इसके बावज़ूद 30 मार्च 2012 तक 2 लाख 94 हज़ार 155 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गयी, जिसमें से लगभग बीस हज़ार को छोड़ कर बाकी का पुनर्वास कर दिया गया है (भारत सरकार, मिनिस्ट्री ऑफ लेबर एंड एंप्लाय्मेंट, ऐनुअल रिपोर्ट 2012-13: 79-81). सबसे महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि इन बंधुआ मज़दूरों में बहुत बड़ी तादाद दलितों (महिलाओं सहित) की होती है (सर्मा 1981).
आर्या (2014) ने उत्तर प्रदेश के अपने अध्ययन में यह पाया कि दलितों और विशेष कर उनकी महिलाओं को न तो पंचायतों में साथ में बैठने दिया जाता है और न ही उन्हें अपनी बात रखने की अनुमति होती है. यदि कोई दलित महिला अपने अधिकारों को जानते हुए ऐसा करने का प्रयास करती है तो उसे परंपरागत सोच के कारण बदनाम तक कर दिया जाता है. इतना ही नहीं दलित महिलाओं का देवदासी के रूप में यौन शोषण भी निरंतर जारी है, चाहे वह तेलगु प्रदेशों में सुले या समी परंपरा हो या आन्ध्र और कर्नाटक में जोगिन या बसवी. इनसे ज़बरदस्ती वैश्या वृत्ति कराई जाती रही है (विजयश्री 2004).
अभी हाल ही तक दलित महिलाओं को कुछ जगहों पर अपने वक्ष ढकने की भी अनुमति नहीं थी (अरुण 2007). कई इलाक़ों में यह पाया गया है की दलित महिलाएं केवल दो जून रोटी के लिए मैला ढ़ोने का काम करती हैं तथा जूठन खाने को मजबूर हैं (वाल्मीकि 2003). आज भी दलित महिलाओं को अन्य समस्याओं के साथ-साथ मुख्य रूप से अपशब्द सुनने पड़ते हैं, शारीरिक हमले सहने पड़ते हैं. उन्हें यौन हिंसा और अपराध का शिकार बनाया जाता है तथा घरेलू हिंसा के द्वारा उत्पीड़न किया जाता है (इरुदयम एवं अन्य 2011: 95). उपरोक्त वर्णित दलित महिलाओं के मानव अधिकारों के हनन की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इन अपराधों को अंजाम देने वाले प्रमुखत: उच्च जातियों तथा अन्य पिछड़ी जातियों के पुरुष होते हैं (वही: 99)
इसी क्रम में यदि हम दलित महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक अधिकारों का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि दलित महिला वर्ग को मज़दूरी के लिए समान वेतन नहीं दिया जाता है (सोसाइटी फॉर पार्टीसिपेटरी रिसर्च इन एशिया 2013). यदि हम शिक्षा के अधिकार की बात करें तो इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सन 2011 के आंकड़ों के अनुसार जहां कुल आबादी में से 64.6 फीसदी महिलाएं शिक्षित हैं वहीं यदि दलित महिलाओं का प्रतिशत देखें तो यह कई गुना कम होकर केवल 16.7 फीसदी ही है (भारत सरकार, सेन्सस ऑफ इंडिया 2011, प्राइमरी सेन्सस आब्स्ट्रॅक्ट).
यदि केवल दलितों पर होने वाले अत्याचारों पर नज़र डालें तो आंकड़े बताते हैं कि 1997 से 2001 के बीच में प्रति वर्ष औसतन 25,587 मामले दर्ज हुए हैं (अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, सातवीं रिपोर्ट: 118). इन मामलों के विवरण के अनुसार इसी समय अवधि में प्रत्येक वर्ष औसतन 515 हत्याएं, 3493 घोर उपहति, 1024 बलात्कार, 332 मामले आगज़नी के तथा 20223 अन्य घटनाएं दर्ज हुई हैं (गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, नॅशनल कमिशन फॉर शेड्यूल्ड कॅस्ट्स एंड शेड्यूल्ड ट्राइब्स, 2001-02, सातवीं रिपोर्ट: 119). दलितों पर अत्याचार के ये मामले कम साक्षरता दर से लेकर अधिक साक्षरता दर वाले सभी राज्यों में घटित हुई हैं. घटते हुए क्रम में ये राज्य हैं – उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, आंध्रा प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, उड़िसा (ओडिशा), बिहार, केरल एवं महाराष्ट्र (वही: 122).
निष्कर्ष:
इस प्रकार दलित महिलाओं के अधिकारों के सिंहावलोकन द्वारा यह कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक काल से ही दलित महिलाएं कई प्रकार के शोषण का शिकार रही हैं तथा इस भारतीय सामाजिक व्यवस्था में उनके मानव अधिकारों का उल्लंघन होता रहा है. यह भी स्पष्ट होता है कि दलित महिलाओं को हिंदू सामाजिक-व्यवस्था में सिर्फ इतना ही स्थान दिया गया जिससे उनकी सेवाओं का उपभोग उच्च जातियों के लोग कर सकें. ये सेवाएं मुख्यतयः दो भागों में बांटकर देखी जा सकती हैं- पहला शारीरिक श्रम से सेवा (मजदूरी, बेगारी, मैला ढोना इत्यादि) एवं दूसरा उनके शरीर से यौन सेवा (यौन शोषण, बलात्कार, देवदासी प्रथा इत्यादि द्वारा). किन्तु वहीं दूसरी और जब इन्हीं दलित महिलाओं के मानव शरीरों को अधिकार देने की बात आई तो उन्हें जानवरों के समकक्ष रखा गया. मध्य युग भारतीय काल से ही कुछ बहुत बदलाव की आवाज़ें बुलंद हुईं और आज़ादी के बाद डॉ. आम्बेडकर के अथक प्रयासों के फलस्वरूप दलितों और उनकी महिलाओं के अधिकारों ने संवैधानिक दर्ज़ा इख़्तियार किया. किंतु हिंदू सामाजिक-व्यवस्था के धार्मिक लेखों के आधार पर व्यवस्थित और अधिकृत होने के कारण पुरानी परंपरागत और भेदभावपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ सवाल उठाने और उसमें बदलाव करने की कोशिशों को कभी छूट नहीं दी गई और ऐसे कार्यों को हमेशा समाज विरोधी समझा गया.
इसी निरंतरता के आधार पर उच्च जाति वर्ग के लोगों की मनः स्थिति और विचारधारा आज भी उस पुरानी व्यवस्था का अनुपालन करती चली आ रही है जो समाज में सांस्कृतिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत के रूप में प्रवाह हो रही है. इस प्रकार हिंदू समाज व्यवस्था का मूल आधार आज भी वहीं जड़ें जमाए बैठा है और वह मूल-संरचना के रूप में विद्यमान है. अब इसके उपर जो भी उपरी संरचनाएं जिन्हें समाजशास्त्रीय भाषा में ”सूप्रा-इन्स्टिट्यूशन्स” कहा जाता है उनका प्रभाव बहुत कम हो पाता है. क्यूंकि कभी भी आधुनिक सामाजिक व्यवस्था परंपरागत समाज को पूरी तरह बदल कर स्थापित नहीं होती है बल्कि पुरानी व्यवस्था में ही बदलाव के साथ प्रकट होती है. अतः दलित महिलाओं की स्थिति एवं उनके अधिकारों के उल्लंघन भी इसी प्रकार से पुरातन भारतीय समाज की मानसिकता और सामाजिक व्यवस्था में कुछ बदलाव करते हुए आज आधुनिकता के मुहाने तक पहुंची है, किंतु ऐतिहासिक मान्यताएं या दृष्टिकोण आज भी परिलक्षित होते हैं.
दूसरे, यदि विभिन्न सामाजिक आंदोलनों ने दलित महिलाओं के अधिकारों की या मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य और बदलाव किए हैं तो वहीं दूसरी ओर उनपर अत्याचार करने वालों और उनके अधिकारों के उल्लंघन करने वालों ने भी अपने तरीकों में काफ़ी बदलाव कर लिए हैं. और चूंकि दलित वर्ग अभी इतना सक्षम नहीं है कि वह अपना प्रतिनिधित्व इन सूप्रा-इंस्टीट्यूशन्स में पूर्ण रूप से पा पाया हो, अत: वही लोग वहां फिर से मूलभूत सामाजिक संरचना को स्थापित करने की कोशिश करते हैं जिन्हें अब तक उस से फायदा होता चला आया है. इस प्रकार वर्तमान समय में भी दलित महिलाओं के मानव अधिकार सुरक्षित नही हैं और इस समस्या का हल तब तक नहीं निकल सकता जब तक शिक्षा के साथ साथ सत्ता की आधुनिक सात संस्थाओं में दलित महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं होगा. ये सात संस्थाएँ हैं – न्यायपालिका, राजनीति, नौकरशाही, विश्वविद्यालय, मीडिया एवं उद्योग (देखें कुमार 2014 ब).
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