Monday, February 3, 2025
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राम मंदिर की आरती में दलितों का आरक्षण

दलितों और आदिवासियों को छोड़कर देश के तमाम मंदिरों के दरवाजे आम तौर पर हिन्दू समाज के सभी लोगों  के लिए हर दिन खुले रहते हैं। लेकिन अयोध्या में बन रहे राम मंदिर में प्रवेश और आरती के लिए हर दिन अलग-अलग जातियों के लोगों के लिए आरक्षित करने की एक दिलचस्प मांग सामने आई है। इसमें दो दिन दलितों के लिए भी आरक्षित करने की मांग की गई है। यह मांग है जगतगुरु परमहंस आचार्य की।

 नए साल 2024 में मकर संक्रांति के बाद अयोध्या के राम मंदिर के गर्भ गृह में राम लला कि प्राण प्रतिष्ठा होनी है। इसके बाद से राम मंदिर के दरवाजे आम जनता के लिए खुलने हैं। इसको देखते हुए जगतगुरु परमहंस आचार्य ने श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट को एक पत्र भेजा है। इसमें उन्होंने अलग-अलग दिन अलग-अलग जाति और वर्ग के लोगों द्वारा राम लला की आरती कराए जाने की मांग की है।

परमहंस आचार्य ने राम मंदिर ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय को एक पत्र भेजा है। इसमें एक साप्ताहिक कैलेंडर चार्ट दिया गया है और बताया गया है कि राम लला मंदिर में हर दिन किस जाति और क्षेत्र के लोगों के लिए आरक्षित हो।

चार्ट के मुताबिक जगतगुरु परमहंस आचार्य का कहना है कि राम मंदिर में रविवार के दिन क्षत्रिय समाज के लोग पूजा और आरती करें। सोमवार का दिन पिछड़े समाज के लिए आरक्षित हो, मंगलवार के दिन राममंदिर में ऐसे लोगों को पूजा और आरती करने दिया जाए जो पराक्रमी हैं और जिन्होंने गोल्ड मेडल जीतकर देश का नाम रोशन किया है। बुधवार के दिन अंतरिक्ष वैज्ञानिक, और बड़े लेखक, साहित्यकार, कवि आदि साहित्यिक दुनिया के लोग आरती करें। बृहस्पतिवार का दिन जगतगुरु, शंकराचार्य समेत धर्माचार्य और साधु-संतों एवं ब्राह्मणों के लिए आरक्षित हो। जबकि शुक्रवार और शनिवार को दलित समाज द्वारा आरती कराई जाए।

 जगतगुरु का तर्क है कि ऐसा करने से छुआछूत का भाव खत्म होगा। उनका कहना है कि उनकी मांग नहीं मानी गई तो वह अन्न-जल त्याग देंगे और बड़ा आंदोलन करेंगे।

 हालांकि राम मंदिर ट्रस्ट ने फिलहाल ऐसे किसी पत्र के मिलने से इंकार किया है। लेकिन जगतगुरु परमहंस आचार्य की अजीबो गरीब मांग से बहस शुरू हो गई है कि आखिर ऐसी मांग से समाज में छूआछूत का भाव कैसे खत्म हो जाएगा? अगर कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति जैसे लेखक, साहित्यकार, गोल्ड मेडेलिस्ट खिलाड़ी दलित या पिछड़े समाज का होगा, तो उसे दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षित दिन पर जाना होगा या फिर प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए आरक्षित दिन पर? बाबा रामदेव को ये लोग शूद्र मानेंगे या फिर संत? राष्ट्रपति को प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाएगा या आदिवासी समाज का व्यक्ति?

 दरअसल इस तरह के तमाम धर्माचार्य असल में हिन्दू धर्म की बुराईयों को दूर करने के चाहे जो दावे करें, जमीन पर वह हिन्दू धर्म में फैली कुरितियों और छूआछूत पर वो कुछ भी कहने से परहेज करते हैं। आए दिन दलितों पर जाति के कारण होने वाले तमाम अत्याचार पर ये कभी भी खुल कर नहीं बोलते। दलितों को मंदिरों में जाने पर मारने-पीटने जैसी घटना पर भी ऐसे संतों ने कभी भी आंदोलन करने या फिर अनशन करने की धमकी नहीं दी। इसी तरह दलित समाज से संबंध रखने वाले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के साथ ओडिशा के जगन्नाथपुरी मंदिर में जब धक्का-मुक्की की गई थी, तब हिन्दू धर्म के धर्माचार्यों ने इसकी कड़ी निंदा नहीं की, न ही इसे गलत बताते हुए इसके खिलाफ आंदोलन करने को कहा।

 ऐसे में राम मंदिर मामले में इस तरह का शिगूफा छोड़ना समझ से परे है। बेहतर यह होता कि जगतगुरु परमहंस आचार्य और उन जैसे अन्य धर्माचार्य जाति के कारण हर दिन दलितों पर हो रहे अत्याचार को लेकर ऊंची जाति और अन्य मजबूत जातियों के खिलाफ आवाज उठाते और अनशन और आंदोलन की घोषणा करते, तब शायद बेहतर संदेश जाता।

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