आपने कल क्या किया? दीपावली मनाई या फिर दीपदानोत्सव, या फिर एक बार फिर त्यौहारों को लेकर द्वंद में पड़े रहें? अच्छा दोनों में फर्क क्या है, और दोनों को मनाने का आपका तर्क क्या है? बीते हफ्ते भर से अम्बेडकरवादियों के फोन दीपावली Vs दीपदानोत्सव की बहस से फट रहे थे। दीपदानोत्सव वाले इसे लगातार बौद्ध त्यौहार बता रहे थे। उनके मुताबिक जिस पर बाद में हिन्दुओं ने कब्जा कर लिया। अच्छा दीपावली भी मजेदार त्यौहार है। यह हिन्दू समाज भी मनाता है, सिख धर्म वाले भी मनाते हैं, जैन धर्म वाले भी और कुछ भारतीय बुद्धिस्ट भी। मैंने भारतीय बुद्धिस्ट इसलिए कहा क्योंकि थाईलैंड और श्रीलंका सहित तमाम अन्य बौद्ध देश दीपावली नहीं मनाते। दीप दानोत्सव वाले पक्ष के विरोधियों का तर्क है कि उन्होंने कहीं भी बाबासाहब या फिर बौद्ध साहित्य में दीप दानोत्सव के बारे में नहीं पढ़ा। दीप दानोत्सव के पक्षधरों द्वारा सम्राट अशोक द्वारा जो 84 हजार बौद्ध स्तूपों पर दीया जलाने की बात की जाती है, या फिर तथागत बुद्ध के उनके नगर में लौटने के दौरान नगर को दिये से रौशन करने की जो बात कही जाती है, उसे भी दीपदानोत्सव मनाने का विरोधी पक्ष मनगढ़ंत कहता है। विरोधी पक्ष का कहना है कि कहीं बौद्ध साहित्य में इसका प्रमाण नहीं है। उनका दूसरा तर्क यह है कि अगर दीप दानोत्सव बौद्ध त्यौहार है तो आखिर यह अन्य बौद्ध देशों में क्यों नहीं मनाया जाता। मैंने बौद्ध साहित्य की सभी पुस्तकें नहीं पढ़ी इसलिए पहले तर्क के बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कह सकता, लेकिन मुझे दूसरा तर्क दमदार लगता है। एक सवाल यह भी आता है कि दीप दानोत्सव कब मनेगा, इसका आधार हिन्दू पांचांग और कैलैंडर ही क्यों होता है? बौद्ध धम्म का कोई विद्वान भंते क्यों नहीं बताता कि दीप दानोत्सव कब है।
दूसरी बात, मान लिजिए कि अम्बेडकरवादियों का एक धड़ा अगर दीपदानोत्सव मनाना चाहता है तो दिक्कत क्या है? उनके तर्क के मुताबिक अगर वो इसी बहाने घर के कोने-कोने की सफाई कर लेते हैं, सालों से पड़ा हुआ बेकार सामान नष्ट कर लेते हैं, घरों की पुताई करवा लेते हैं और इस दिन तथागत बुद्ध और बाबासाहब के आगे दीप जला लेते हैं तो किसी को क्यों दिक्कत होनी चाहिए, क्योंकि आखिर उन्होंने किसी अन्य काल्पनिक ईश्वर के सामने तो माथा नहीं टेका। इस दिन को मुस्लिम भी दीये जलाते पाते गए हैं, क्रिश्चियन में भी कई लोग जलाते हैं। फिर अगर बुद्धिस्टों ने दीया जलाया तो इतनी हाय तौबा क्यों?
तीसरी बात, हिन्दू नहीं होने और बौद्ध होने के द्वंद में फंसे समाज के लिए यह कितना आसान है कि वह ऐसा त्यौहार नहीं मनाए जो उसी के घर-परिवार में 99 फीसदी लोग मना रहे होते हैं। मुस्लिम कोई हिन्दू और अन्य धर्मों का त्यौहार नहीं मनाते, क्रिश्चियन भी किसी अन्य धर्म का त्यौहार नहीं मनाते। और उनके लिए ऐसा करना आसान होता है, क्योंकि उनका हिन्दू धर्म से वास्ता नहीं होता। उनके नाते-रिश्तेदार सभी उसी धर्म के लोग होते हैं। उनके हक में जो बात सबसे ज्यादा होती है कि वह अपने ही समाज के लोगों के बीच रहते हैं। एक मुसलमान का या फिर एक क्रिश्चियन का पड़ोसी और नाते-रिश्तेदार भी इसी समाज का होता है। जबकि अम्बेडकरी समाज की दिक्कत यह है कि इस समाज का तकरीबन 95 फीसदी आदमी जो आज अम्बेडकरवादी बुद्धिस्ट होने की राह में है, कल तक उसके परिवार के लोगों का संबंध उसी धर्म से था, जिससे आज वो दूर भागना चाहता है। जिनकी पिछली पीढ़ी अम्बेडकरवादी या बुद्धिस्ट नहीं है, ऐसे लोगों की बात करे तो अम्बेडकरवाद को समझने और बुद्धिज्म को अपनाने के वक्त तक उनकी तकरीबन आधी जिंदगी निकल चुकी होती है। यह खुद को अपने उस पुराने धर्म से तभी बेहतर तरीके से और जल्दी काट पाएगा जब वो उन लोगों के बीच रहे जिनसे उनकी सांस्कृतिक एकरूपता है। यानि वह भी मुसलिम, क्रिश्चियन और सिख समाज की तरह एक साथ एकजुट रहे।
आखिरी बात, दीपावली और दीपदानोत्सव के द्वंद के बीच बेहतर यह होगा कि बौद्ध समाज के विद्वान जिनमें विद्वान भंतेगण, पुराने बुद्धिस्ट और बौद्धाचार्य शामिल हैं, उनको एक साथ बैठकर धम्म सम्मेलन करना चाहिए। दीपदानोत्सव होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए, इस विषय पर सबका पक्ष सामने आने के बाद आपसी सहमति से एक फैसला ले लें, जिसे पूरा अम्बेडकरी समाज और बौद्ध समाज माने। ध्यान रहे, मैंने अम्बेडकरी और बौद्ध समाज कहा। बाकी जो लोग खुद को इस दायरे से अलग रखना चाहते हैं और दीवाली मनाना चाहते हैं तो यह उनकी स्वतंत्रता होगी। उन्हें हमको बुद्धिज्म की तरफ लाने की कोशिश करते रहना चाहिए। हां, लेकिन फिर वो खुद को बौद्ध समाज या अम्बेडकरी समाज का हिस्सा मानने का दावा करना छोड़ दे। अब अम्बेडकरी-बुद्धिस्ट समाज को हर साल होने वाली इस थकाऊ और परेशान करने वाली बहस से छुटकारा मिलना चाहिए। और इसका दायित्व अम्बेडकरी-बुद्धिस्ट समाज के बुद्धीजिवियों के ऊपर है।
नोटः मैंने कोशिश की है कि इस विषय पर मैं हर तरह के लोगों की मनःस्थिति का ध्यान रखूं। मैं इस विषय में किसी भी पक्ष के साथ खड़ा नहीं हूं, सिर्फ तथ्यों के साथ खड़ा हूं और सही तथ्य क्या है, इसका फैसला विद्वानजन करेंगे।
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।