देश के बड़े विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय में इन दिनों दाखिले का दौर चल रहा है। देश भर से तमाम युवा दिल्ली विश्वविद्यालय में एडमिशन की चाह लिए अपने भविष्य के सपने बुन रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रों के सपने पूरे भी कर रहा है, लेकिन सिर्फ एक खास जाति वर्ग के। जबकि यही विश्वविद्यालय कमजोर वर्ग के युवाओं के डीयू में पढ़ने के सपने को कुचलने पर अमादा है।
8 जुलाई को एडमिशन की तीसरी कट ऑफ लिस्ट जारी होने के बाद विश्वविद्यालय के इंफर्मेशन बुलेटिन के मुताबिक दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले में 61.11 फीसदी सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों को प्रवेश दिया गया है, जबकि आरक्षण होने के बावजूद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग का कोटा तक पूरा नहीं किया गया है।
इस खबर को समाचार पत्र द हिन्दू ने भी प्रकाशित किया है। उसकी रिपोर्ट के मुताबिक अब तक हुए दाखिले में दलित, आदिवासी वर्ग और पिछड़े वर्ग के साथ बहुत बड़ा धोखा सामने आया है। अनुसूचित जनजाति के लिए संविधान में 7.5 फीसदी आरक्षण दिया गया है लेकिन डीयू ने इस वर्ग के सिर्फ 3 फीसदी विद्यार्थियों को ही दाखिला दिया है।
इसी तरह अनुसूचित जाति के लिए संविधान के तहत नौकरियों और विश्वविद्यालयों में दाखिले में 15 फीसदी आरक्षण दिया गया है, लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय ने नियमों को ताक पर रख कर इस वर्ग के सिर्फ 10.94 फीसदी विद्यार्थियों को ही मौका दिया है। पिछड़े वर्ग का हाल भी इससे जुदा नहीं है। नियम के मुताबिक पिछड़े वर्ग को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण को भी विश्वविद्यालय ने नजरअंदाज किया है और इस वर्ग के सिर्फ 20.96 फीसदी छात्रों को दाखिला दिया है। यानि दिल्ली विश्वविद्यालय ने अनुसूचित जनजाति यानि शिड्यूल ट्राइब के हक का साढे चार (4.5) प्रतिशत, अनुसूचित जाति यानि शिड्यूल कॉस्ट का चार प्रतिशत (4.06) और पिछड़े वर्ग यानि ओबीसी समाज का 6 फीसदी आरक्षण हड़प कर दूसरे वर्ग को दे दिया है।
‘द हिन्दू’ की खबर में अनुसूचित जनजाति की खाली सीटों को लेकर जब डीन ऑफ स्टूडेंट वेलफेयर राजीव गुप्ता से पूछा गया तो उनका कहना था कि देश भर में कई विश्वविद्यालय हैं और तमाम तरह के प्रोफेशनल कोर्सेस हैं, इसलिए यह नंबर पूरा नहीं हो पाता। हालांकि अगर एक पल को उनकी बात पर यकीन कर भी लिया जाए तो अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग को लेकर उनकी यह दलील काफी कमजोर लगती है। क्योंकि इस वर्ग के तमाम छात्र डीयू में दाखिला न मिल पाने के कारण परेशान हैं।
आखिर आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों की अनदेखी की वजह क्या है, इसे वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल की उस प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है जो उन्होंने अपने फेसबुक पर लिखा है, दिलीप मंडल कहते हैं-
दिल्ली यूनिवर्सिटी खास है क्योंकि इसी से देश भर के विश्वविद्यालयों की नीति तय होती है. ये देश की सबसे बड़ी सेंट्रल यूनिवर्सिटी है जिसमें रेगुलर कोर्स में हर साल 52,000 से ज्यादा सीटें आती हैं. यहां के ग्रेजुएट कोर्स से अक्सर तरक्की की राह खुलती है. कई कॉ़लेजों में शानदार प्लेसमेंट होता है. विदेश जाने का रास्ता भी यहां से आसान हो जाता है. इसलिए जातिवाद का सबसे निर्मम खेल यहीं होता है ताकि एससी-एसटी-ओबीसी के स्टूडेंट यहां न आ पाएं. ज्यादा खेल यहां के टॉप 10 कॉलेजों में है. वहां सबसे ज्यादा जातिवाद है.
दिलीप मंडल का सवाल जायज है। हालांकि इस खबर के सामने आने के बाद भी बहुजनों के खेमें में छाई चुप्पी और बड़े विरोध की कमी चिंता की बात है।
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।