बाबासाहेब आंबेडकर भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनीतिक चिंतकों में से एक माने जाते हैं। भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पी होने के नाते भारतीय संविधान एवं शासन व्यवस्था में लोकतंत्र से जुड़े जितनी भी बातें हम देखते हैं उनकी मूल कल्पना बाबासाहेब आंबेडकर के मस्तिष्क से निकली है। अमेरिका में अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने विश्व के एक महान दार्शनिक एवं अपने शिक्षक जॉन डूवी के साथ गुजारे अपना समय के दौरान लोकतंत्र की अपनी समझ को शिखर पर पहुंचाया था। जॉन डूवी स्वयं राजनीतिक चिंतन और दर्शनशास्त्र की दुनिया में एक जाना माना नाम थे, बाबासाहेब आंबेडकर को और उनके विचारों सहित भारत के दलितों की मुक्ति की उनकी योजना को बहुत सम्मान देते थे।
जान डूवी के समय पूरी दुनिया में विश्व युद्ध के कारण उथल-पुथल मची हुई थी, और साम्यवाद, समाजवाद, लोकतंत्र, पूंजीवाद, तानाशाही, धर्मनिरपेक्षता और अराजकता इत्यादि से जुड़े हुए बहुत सारे राजनीतिक विचार विश्व धर्म राजनीतिक चिंतन में उछल रहे थे। ऐसे समय में डॉक्टर आंबेडकर ने भारत के करोड़ों दलितों की मुक्ति के लिए लोकतंत्र को एक सर्वाधिक कारगर उपाय के रूप में देखा। यूरोप और अमेरिका में विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि के बीच लोकतंत्र के पक्ष में वातावरण बनता जा रहा था। इस समय स्वयं ब्रिटेन में एक विशेष किस्म की लोकतांत्रिक चेतना स्थापित हो चुकी थी और लोकतंत्र का एक राजनीतिक स्वरूप अमल में आ चुका था। ब्रिटेन में संसदीय प्रणाली एवं लोकतंत्र की अन्य आधारभूत प्रक्रियाओं को काफी सफलता मिल चुकी थी।
इन सबके बीच डॉक्टर आंबेडकर अमेरिका और ब्रिटेन में अपनी पढ़ाई के दौरान गुलाम भारत रहने वाले अपने करोड़ों दलितों के लिए सामाजिक और राजनीतिक मुक्ति की योजना बना रहे थे। डॉक्टर आंबेडकर का मानना था कि गुलाम भारत की राजनीतिक मुक्ति के लिए जो आंदोलन चल रहा है वह अपने आप में जरूरी है, लेकिन इसी के साथ यह भी जरूरी है कि लोग जातिवाद से मुक्ति आंदोलन चलाएं। वे सामाजिक आजादी को राजनीतिक आजादी से बड़ा मानते थे (Ambedkar 1994)। वे लोकतंत्र की अपनी विशिष्ट कल्पना के अनुसार सामाजिक मुक्ति के उपकरण के रूप में देखते थे। वे बार-बार कहा करते थे कि अगर भारत को राजनीतिक मुक्ति मिल जाती है सभी लोगों को एक वोट डालने का अधिकार मिल जाता है तुमसे कुछ खास बदलने वाला नहीं है। इसलिए वे उपनिवेशवाद ब्रिटिश गुलामी को खत्म करने की योजना में जातिवाद को खत्म करने की योजना को अनिवार्य रूप से शामिल करते थे (Dwivedi and Sinha 2005)
उनके साथ जो अन्य राजनीतिक विचारक एवं नेता काम कर रहे थे वे स्वतंत्र भारत की जो कल्पना कर रहे थे उसमें राजनीतिक आजादी, और उपनिवेशवाद का खात्मा प्रमुख लक्ष्य थे। लेकिन इन विचारकों के लिए भारत के करोड़ों दलितों और महिलाओं की सामाजिक मुक्ति की योजना भारत की आजादी की योजना में शामिल नहीं थी (Khilnani 2016)। इसीलिए डॉक्टर आंबेडकर को अपनी पूरी ताकत जाति से मुक्ति के आंदोलन में लगानी पड़ी। अगर ठीक से देखा जाए तो यह अंतर गुलाम भारत में आजाद एवं लोकतांत्रिक भारत की योजना में अंतर के गर्भ से आता है। ठीक इसी समय रामास्वामी पेरियार भी जान चुके थे कि भारत आज नहीं तो कल आजाद होने वाला है। इसीलिए उन्होंने भी डॉ आंबेडकर की तरह भारत की सामाजिक मुक्ति की योजना में अधिक ऊर्जा और समय लगाया।
जाति के विनाश की योजना पर काम करते हुए गुलाम भारत में डॉक्टर आंबेडकर कुछ नए ढंग के सामाजिक आंदोलन की शैलियों का प्रयोग कर रहे थे। महाड़ चवदार आंदोलन और काला राम मंदिर आंदोलन के दौरान उन्होंने तत्कालीन बॉम्बे प्रोविंस लोगों को आंदोलन के माध्यम से लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया था। इन आंदोलनों पर बहुत शोध हो चुका है, अधिकांश शोधकर्ता यह मानते हैं कि मंदिर प्रवेश का आंदोलन वास्तव में मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार हासिल करने के लिए नहीं था (Omvedt 1993), बल्कि यह आंदोलन वास्तव में एक तरकीब थी जिसके जरिए भारत के अछूत एवं सवर्ण हिंदू समाज सहित तत्कालीन भारत के ब्रिटिश आकाओं को भारत की जाति व्यवस्था के बारे में पता चले। ठीक से देखा जाए तो महाड चावदार आंदोलन एवं कालाराम आंदोलन भारत के सबसे गरीब लोगों से लेकर ब्रिटेन की महारानी तक को भारत के सामाजिक लोकतंत्र की वास्तविक तस्वीर दिखाने का एक कारगर उपाय था।
गुलाम भारत में आजादी के पश्चात स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की जो कल्पना उभर रही थी उसमें राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सामाजिक समानता, नागरिक अधिकार, मानव अधिकार और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य लगातार चर्चा में बने हुए थे। इतने भारी भरकम शब्दों की लगातार चर्चा होती रहती। लेकिन डॉक्टर अंबेडकर और रामास्वामी पेरियार दोनों अपने-अपने लोगों के बीच यह महसूस करते थे कि भारत के ब्राह्मण नेता यूरोप से आयातित किए गए इन शब्दों की चर्चा करते हुए भारत के दलित और महिलाओं के बारे में बिल्कुल बात नहीं करते हैं (Anaimuthu 1980)।
रामास्वामी पेरियार दक्षिण भारत में द्रविड लोगों की सामाजिक और धार्मिक मुक्ति की बात करते हुए जाति उन्मूलन के बारे में बड़ा आंदोलन चला रहे थे। एक ही आंदोलन महाराष्ट्र में और उत्तर भारत में बाबासाहेब आंबेडकर चला रहे थे। इन दोनों के आंदोलन एक ही दिशा में जाते हुए नजर आते हैं, और ठीक से देखा जाए तो आजाद भारत में एक जिंदा लोकतंत्र की स्थापना के लिए ये आंदोलन चलाए गए थे। इन दोनों महापुरुषों के बीच में एक स्वर्णिम सूत्र काम कर रहा था दोनों मानते थे कि अगर भारत में सामाजिक लोकतंत्र नहीं आता है तो राजनीतिक लोकतंत्र किसी काम का नहीं होगा।
एक और जरूरी बात यहां यह भी है कि डॉक्टर आंबेडकर लोकतंत्र में भारत अछूतों के अलावा भारत के महिलाओं को भी समान अधिकार देना चाहते थे। उनका कहना था कि एक लोकतंत्र में एक इंसान का एक वोट होगा और वह आपस में बराबर होंगे। इतना ही नहीं बल्कि स्त्री और पुरुष का वोट भी बराबर होना चाहिए। आगे बढ़कर वे कहते थे कि सिर्फ वोट की बराबर नहीं होना चाहिए बल्कि वोट डालने वाले भी आपस में बराबर होने चाहिए। यही विचार दक्षिण में रामास्वामी पेरियार भी निर्मित कर रहे थे। उन्होंने सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट और सेल्फ रिस्पेक्ट मैरिज का नया विचार देकर दक्षिण भारत में सामाजिक लोकतंत्र की एक नई आवाज उठाई थी (Saraswathi 1994)।
इन दोनों के ठीक पहले महामना ज्योति राव फुले और सावित्रीबाई फुले इसी दिशा में अपना जीवन समर्पित कर चुके थे। फुले दंपत्ति ने जिस प्रकार बालिका शिक्षा और महिला शिक्षा के लिए काम किया वह गुलाम भारत में ही नहीं बल्कि भारत के हजारों साल के इतिहास में एक नई घटना थी। फूले दंपत्ति के आंदोलन को भी ठीक से समझा जाए तो यह लोकतंत्र की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होता है। लोकतांत्रिक चेतना एक शिक्षित समाज में ही संभव है। इसीलिए भारत को और भारत के करोड़ों ओबीसी, दलितों एवं महिलाओं को शिक्षित बनाने का बीड़ा उठाने वाले ज्योति राव फुले एवं सावित्रीबाई फुले ने पहली बार गुलाम भारत में शिक्षा के जगत में लोकतंत्र की बात उठाई थी। (Keer 1997)। उनका कहना था कि अगर भारत के करोड़ों दलित, पिछड़े और स्त्रियां अशिक्षित रहते हैं तो भारत एक विकसित समाज और एक लोकतंत्र नहीं बन सकता।
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इस अंबेडकर माह में हमें इन बातों पर गौर करना चाहिए। पूरे बहुजन समाज की राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मुक्ति के लिए इस बहुजन विचारधारा की हम कल्पना करते हैं, वास्तव में फूले अंबेडकर पेरियार विचारधारा है। हालांकि इन तीनों में आपस में बहुत मतभेद हैं, लेकिन यह बिल्कुल स्वाभाविक बात है। तीन महान विचारक सामाजिक राजनीतिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक मुद्दों पर एक ही जैसा सोचेंगे इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उनके विचारों में भिन्नता होने के बावजूद उनके लक्ष्य एक समान है। हमें अंबेडकर माह में ना केवल बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों को बल्कि रामास्वामी पेरियार हो ज्योति राव फुले के विचारों पर भी ध्यान देना चाहिए। बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों के जरिए रामास्वामी पेरियार और ज्योति राव फुले को समझना बहुत आसान है। इसलिए अंबेडकर माह में इस विशेष लेखों की श्रंखला के माध्यम से हम फुले-अंबेडकर-पेरियार विचारधारा से जुड़े मुद्दों को स्पष्ट करते रहेंगे।
संदर्भ ग्रंथ
Ambedkar, B. R. 1994. Dr Babasaheb Ambedkar Writings & Speeches. Vol. 2. 17 vols. New Delhi: Ministry of Social Justice & Empowerment, Government of India.
Anaimuthu, V. 1980. Contribution of Periyar E.V.R. to the Progress of Atheism. Chennai: Periyar Nūl Veliyittakam.
Dwivedi, H.S., and Ratan Sinha. 2005. ‘Dr. Ambedkar : The Pioneer of Social Democracy’. The Indian Journal of Political Science 66 (3): 661–66.
Keer, Dhananjay. 1997. Mahatma Jotirao Phooley: Father of the Indian Social Revolution. Mumbai: Popular Prakashan.
Khilnani, Sunil. 2016. Incarnations: History of India in 50 Lives. New Delhi: Penguin India.
Omvedt, G. 1993. Reinventing Revolution: New Social Movements and the Socialist Tradition in India. New York: M. E. Sharpe Incorporated.
Saraswathi, Srinivasan. 1994. Towards Self-Respect: Periyar EVR on a New World. Chennai: Institute of South Indian Studies.
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।