बढ़ती आर्थिक असमानता अर्थशास्त्र में विकास के सकारात्मक सूचक के रूप में मानी जाती है। परंतु यह सिद्धान्त केवल पश्चिमी देशों में लागू होता है। भारत जैसे सोपानिक, जातीय रूप से विखण्डित समाज में आय और संसाधनों का असमान वितरण जातीय रूप धारण कर अलगाववाद को जन्म दे सकता है, जिसका प्रमाण नक्सलवाद है। यहीं से डॉ. आंबेडकर का चिंतन प्रासंगिक होता है। डॉ. आंबेडकर इस परिस्थिति से परिचित थे, इसलिए उन्होंने ‘सकारात्मक विभेद’ की अनुक्रियाओं का सहारा ले कर एक समता मूलक समाज की स्थापना का प्रयास किया।
एक तरफ जहाँ तमाम स्वतन्त्रता सेनानी 20वीं सदी के प्रारम्भ में राजनीतिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे थे। वहीं डॉ आंबेडकर का संघर्ष ‘सामाजिक स्वतन्त्रता’ का था। वे समाज में मौजूद जातीय-लैंगिक शोषण को समाप्त कर ‘सामाजिक- आर्थिक लोकतंत्र’ की स्थापना करना चाह रहे थे। इसी दिशा में सकारात्मक विभेद की प्रक्रियाओं के द्वारा ‘अवसर की समानता’ लाने का प्रयास किया गया। पर नव उदारवादी तब भी और आज भी सकारात्मक विभेद की आलोचना कर रहे हैं। यहाँ नॉजिक का विचार महत्वपूर्ण है जो अवसर की समानता और राज्य द्वारा अपनाई जाने वाली सकारात्मक विभेद की क्रियाओं की आलोचना करते हुए कहते हैं कि “प्रकृति ने सबको समान बनाया है अतः व्यक्ति के पास मौजूद सम्पत्ति उसकी मेहनत और क्षमता का परिणाम है। ऐसे में सकारात्मक विभेद व्यक्ति की प्रतिभा पर चोट है” और कमोवेश यही बात भारत में कई सकारात्मक विभेद की प्रक्रिया के आलोचक कहते हैं, परंतु नॉजिक का यह विचार भारतीय समाज की प्राकृतिक अवस्था की सही व्याख्या नहीं करता, क्योंकि भारत में व्यक्ति के पास मौजूद सम्पत्ति उसकी क्षमता और प्रतिभा का परिणाम न होकर उसकी जातीय श्रेष्ठता का परिणाम है।
उदाहरण के तौर पर भारत में कुछ जातियां हैं जो जातीय श्रेष्ठता, धार्मिक एकाधिकार के बल पर हजारों वर्षों से सम्पत्तिशाली भी है और आज लोकतांत्रिक भारत में भी प्रभावशाली है। भारत में जातीय व्यवस्था और आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण दोनों जुड़े हुए हैं। डॉ आंबेडकर का दर्शन इसी ‘सामाजिक अलोकतांत्रिक व्यवस्था’ को समाप्त करने की बात कहता है, जहाँ व्यक्ति अपनी प्रतिभा नहीं जातीय श्रेष्ठता के बल पर समाज में स्थान प्राप्त करता है। किसी देश की एकता, अखण्डता तभी बनी रह सकती है, जब देश मे संशाधनों का वितरण सभी वर्गों में समान रूप से हो और शासन तंत्र में सभी की सहभागिता हो और इस सहभागिता और वितरण की समानता प्रदान करने के क्रम में जातीय रूप से शोषित निम्न वर्गों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए ही आरक्षण अनिवार्य तत्व बन जाता है। यह प्रतिभा का अपमान नहीं बल्कि सभी को साथ ले चलने की अनुक्रिया है, जो राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए अनिवार्य है और ‘वितरणात्मक न्याय’ का साधन भी है।
डॉ आंबेडकर यहाँ शिक्षा को प्लेटो से ज्यादा महत्व देते हुए शिक्षा को सामाजिक क्रांति का जरिया मानते हुए वंचितों को अपना सबसे पहला संदेश ‘शिक्षित बनो’ देते हैं। यहां डॉ आंबेडकर के दर्शन में शिक्षा का वही महत्व है जो मार्क्स की विचारधारा में ‘सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व’ का है। अर्थात बाबा साहब ने शिक्षा को बदलाव का क्रांतिक साधन माना है।
दूसरी तरफ डॉ आंबेडकर जातीय शोषण के भी अन्दर मौजूद ‘लैंगिक शोषण’ को समाप्त करने और आधी आबादी को आज़ाद करने के लिए हिन्दू कोड बिल ले कर आते हैं। महिलाओं को जो पुरुष की ‘संपत्ति का हिस्सा’ मानी जाती रही हैं उसे आज़ाद कर ‘सम्पत्ति का हिस्सेदार’ बनाते है। महिलाओं की आज़ादी के लिए वे और भी उग्र रूप धारण करते है और हर संभव प्रयास करने के क्रम में महिला स्वतंत्रता के लिए आज़ाद भारत के पहले मंत्रिमंडल से इस्तीफा तक दे देते हैं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि उनका दर्शन मात्र जातीय शोषण तक सीमित न होकर, शोषण के हर रूप की समाप्ति का है, ताकि कल के सशक्त भारत में सबकी सहभागिता हो और भारत में किसी भी आधार पर अलगाव जन्म ही ना ले सके।
वे वर्ण नहीं वर्गीय शोषण को भी स्वीकार करते हैं और किसानों के हित में सामूहिक खेती की बात करते हैं, जिसे डॉ आंबेडकर से प्रभावित हो कर सोवियत रूस अपनाता है। खेती पर मानसून की निर्भरता को समाप्त करने के लिए डॉ आंबेडकर 1931 में नदी जोड़ो की बात करते हैं, जिसे बाद में जा कर चीन अपनाता है और भारत आज भी इस पर विचार कर रहा है। वे सर्वांगीण नहर प्रणाली की बात करते हैं, जो भारत में आज भी प्रारंभिक चरण में है। डॉ आंबेडकर के विचारों पर ही रिज़र्व बैंक की स्थापना होती है। और यही सब मिलाकर डॉ आंबेडकर की ‘सामाजिक आर्थिक लोकतंत्र’ की अवधारणा बनाते हैं। यहाँ किसी भी प्रकार का शोषण न हो और सभी नागरिक मिल कर देश के विकास में योगदान दे सकें। पर इस सब के बीच में भारत में तब भी जब डॉ आंबेडकर दलितों और महिलाओं को अधिकार दिलाने की बात कर रहे थे, उनसे नफरत करने वाले लोग थे और आज भी यह नफरत करने वाले लोग मौजूद हैं। मेरा मानना है, डॉ आंबेडकर की आलोचना होनी चाहिए। कई मुद्दे ऐसे हो सकते हैं, जहां उनकी आलोचना हो सकती है।
जैसे अनुच्छेद 16(4) पर बहस के दौरान वे महिलाओं को सरकारी सेवाओं में आरक्षण की मांग नहीं रखते, जिसकी उम्मीद उन्हीं से की जा सकती है। वहीं लोकसभा व विधान सभा में वे महिला आरक्षण की बात नहीं करते जो आज तक संभव नहीं हो पाया है। परन्तु महिला आरक्षण के मुद्दे पर डॉ आंबेडकर की आलोचना करने से पहले हमें यह ध्यान रखना होगा कि 1950 में भारत में गिनी चुनी महिलाएं ही शिक्षित थीं औऱ वे भी तथाकथित उच्च वर्णों से थी, ऐसे में महिला आरक्षण का सम्पूर्ण लाभ वे ही ले जातीं। यह सच है कि महिलाएं मनुवादी शोषण से पीड़ित हैं पर जब वे जातीय शोषक वर्ग का हिस्सा होतीं हैं तव वे भी पुरुषों के समान शोषक होने के साथ जातिवाद की पोषक और संरक्षक की भूमिका में भी होती हैं। ऐसे में बाबा साहब महिलाओं की समस्या का हल हिन्दू कोट बिल में देख रहे थे, उनका प्रयास था कि पहले महिलाएं पुरुषवादी तंत्र से मुक्त हों, तब कहीं उनका विकास सम्भव होगा।
दूसरी डॉ आंबेडकर की आलोचना पिछड़ा वर्ग के संदर्भ में की जाती है कि उनका पूरा ध्यान दलितों के उद्धार पर था पिछड़ा वर्ग के लिए उन्होंने कुछ नही किया। पर यह सतही आलोचना है। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 340 जिसमे पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए आयोग की बात कही गई है, बाबा साहब के प्रयास से ही संविधान में शामिल किया गया। बाबा साहब ने मंत्री पद छोड़ने के कारणों का उल्लेख करते हुए अपने इस्तीफे में अनुच्छेद 340 के तहत पिछड़ा वर्ग के लिए आयोग का गठन ना होने को भी कारण बताया है। यहां बाबा साहब और अखिल भारतीय पुछडा वर्ग संघ के नेता आर. एल. चांदापुरी के संबंधों के बारे में लिखना सम्भव नही है इस विषय पर अलग से पूरा लेख लिखा जा सकता है।
पर समस्या यह है कि बाबा साहब की आलोचना की जगह उनसे नफरत की जाती है, उनकी मूर्तियाँ तोड़ी जाती है, उस वर्ग को नुकसान पहुचाया जाता है जो डॉ आंबेडकर के कारण मानवीय जीवन प्राप्त कर पाया है। यही भारतीय समाज का जातीय स्वरूप है, वह मुद्दों पर न होकर जातीय कारणों से डॉ आंबेडकर से नफरत करता है। एक दूसरा वर्ग भी है जो बिना डॉ आंबेडकर को पढ़े केवल जातीय कारणों से उनका समर्थन करता है, या उनका भक्त बना बैठा है। यह नवोदित वर्ग है जो जोर जोर से जय भीम बोलने को, हर समस्या को ले कर किसी एक जाति को ही रात दिन कोसने को आंबेडकरवाद समझता है और बाबा साहब के नाम पर सेना बनाता है। यह वर्ग बाबा साहब के गंभीर चिंतन को हल्कापन प्रदान कर रहा है, अम्बेडकरवाद को The Great Chamar में परिवर्तन करने में लगा है, यह और भी ज्यादा गलत है। जरूरत दोनों के बीच में संतुलन की है।
लेखक बुद्ध प्रिय सम्राट शोधकर्ता हैं।

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