भीमा-कोरेगांव आज ऐसा नाम है, जिसे हर कोई जान गया है. देश में आज हर कोई यह जान गया है कि भीमा-कोरेगांव की लड़ाई क्या थी, और इसमें क्या हुआ था. खासकर दलित-बहुजन तबका जो आज तक अपने इस इतिहास से अंजान था, आज इस पर फख्र कर रहा है. वह अब इस बात को जान गया है कि जिस मूलनिवासी तबके को भारत में लगातार दबाने की कोशिश की गई थी, उसी के 500 पुरखों ने 28 हजार अत्याचारियों को रौंद डाला था. 1 जनवरी 2018 को भीमा-कोरेगांव की 200वीं बरसी पर जो भी हुआ, इस घटना के बाद बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर का वह सपना पूरा हो गया, जो उन्होंने 1927 में इस जगह को देखने के बाद देखा था.
असल में बाबासाहेब इस स्तंभ को दलितों के स्वाभिमान के रूप में स्थापित करना चाहते थे. महारों ने पेशवाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई 1818 में की थी. महार रेजीमेंट ने इस लड़ाई में जमकर बहादुरी दिखाई थी. भीमा-कोरेगांव में जो विजय स्तंभ है उस पर इस रेजीमेंट के लोगों के नाम हैं. बाबा साहेब अम्बेडकर जब 1927 में भीमा-कोरेगांव गए तो उन्होंने ये सारी चीज़ें वहां देखीं. उन्होंने देखा कि 1818 के बाद का जो इतिहास है उसमें दलितों के लिए भीमा-कोरेगांव एक प्रतीक बन सकता है. यही वजह रही कि उन्होंने इस लड़ाई को प्रतीक बनाने के लिए प्रयास शुरू किया.
बाबासाहेब देश के वंचित तबके के मन में स्वाभिमान और अस्मिता की भावना पैदा करना चाहते थे. बाबासाहेब जानते थे कि देश के दलितों के लिए इस लड़ाई का महत्व क्या है. वो यह जानते थे कि अगर इस लड़ाई के इतिहास के बारे में दलित समाज को पता चल जाए तो फिर उनमें आत्मविश्वास आ जाएगा. इस इतिहास के बूते वो आगे की लड़ाई लड़ने के लिए खुद को तैयार कर पाएंगे.
डॉ. अम्बेडकर की मेहनत का नजीता यह हुआ कि पूरे महाराष्ट्र के लोगों को इस युद्ध के इतिहास की जानकारी हो गई. लेकिन चूंकि प्रचार के माध्यम सवर्णों के हाथ में थे औऱ इतिहास के लेखक भी सवर्ण थे, इसलिए यह इतिहास देश भर में नहीं पहुंच सका. देश के मूलनिवासियों के इस इतिहास की लगातार अनदेखी हुई. हालांकि आखिरकार स्थिति ऐसी बन गई कि उसी प्रचार तंत्र को पूरे देश में इस इतिहास का प्रचार करना पड़ा. हालांकि उन्होंने महारों को अंग्रेजों के पाले में खड़ा कर इस युद्ध के महत्व को कम करने की कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हो सके.
1 जनवरी 2018 को भीमा-कोरेगांव के 200 साल पूरा होने पर वहां मौजूद देश के बहुजनों पर पत्थरबाजी की जो घटना हुई, वह अचानक नहीं थी. वह एक सुनियोजित चाल थी. हालांकि इस घटना से उतना नुकसान नहीं हुआ, जितना इस घटना के साजिशकर्ताओं ने सोचा होगा. हां, इससे एक फायदा यह जरूर हुआ कि इसकी आग इतनी भड़की कि देश भर की मीडिया को इसका संज्ञान लेना पड़ा. और बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर जिस भीमा-कोरेगांव के विजय स्तंभ को देश के मूलनिवासियों के स्वाभिमान के रूप में स्थापित करना चाहते थे, वह हो चुका है.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।
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