नई दिल्ली- हमारे समाज में यौन शिक्षा और खुल कर बोलने की आजादी होना, आज भी बहस का बड़ा मुद्दा है और कई बार ये बहसें हिंसात्मक भी हो जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये मसले समाज में आज ही, विवाद का कारण नहीं बने हैं बल्कि ये साल 1934 से ही समाज की आँखों में खटकते आ रहे हैं।
हम उस समय की बात कर रहे हैं जब दलितों और वंचितों की आवाज़ उठाने वाले डॉ भीमराव आंबेडकर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को न सिर्फ अपना समर्थन देते थे बल्कि उसके लिए क़ानूनी लड़ाई भी लड़ा करते थे।
ये मामला एक पत्रिका से जुड़ा है जिसकी क़ानूनी लड़ाई डॉ आंबेडकर ने लड़ी थी। ये बात 20वीं सदी की शुरुआत की है जब महाराष्ट्र के रघुनाथ धोंडो कर्वे अपनी ‘खुले विचारों वाली’ पत्रिका के लिए रूढ़िवादियों के निशाने पर रहते थे। कर्वे अपनी इस ‘समाज स्वास्थ्य” नामक पत्रिका में यौन शिक्षा, परिवार नियोजन, नग्नता और नैतिकता जैसे उन विषयों पर लिखा करते थे जिस पर भारतीय समाज में खुले तौर पर चर्चा करना नामुमकिन था।
कर्वे अपनी पत्रिका में सेफ सेक्स लाइफ और इसके लिए मेडिकल एडवाइस से जुड़े सवालों के जवाब तर्कसंगत और वैज्ञानिक रूप से दिया करते थे। कर्वे की इस पहल, उनकी सोच और उनकी इस पत्रिका से समाज के रूढ़िवादी लोग बेहद चिढ़ते थे और इसी वजह से उनके कई दुश्मन भी बन गये थे लेकिन कर्वे कभी निराश नहीं हुए और उन्होंने लिखने के साथ ही अपनी लड़ाई जारी रखी।
फिर वो दिन भी आया जब कर्वे को 1931 में पहली बार रूढ़िवादी समूह ने उनके “व्यभिचार के प्रश्न” से जुड़े लेख को लेकर उन्हें अदालत में घसीटा। इसके लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया और दोषी ठहराए जाने के बाद 100 रुपये जुर्माना भी लगाया गया।
इसके बाद एक बार फिर फरवरी 1934 में कर्वे गिरफ़्तार किए गए। इस बार पत्रिका में पाठकों द्वारा उनकी पर्सनल सेक्स लाइफ से जुड़े, हस्तमैथुन और समलैंगिकता के सवालों के जवाबों पर रूढ़िवादीयों ने हंगामा मचा दिया और उन्हें फिर कोर्ट में घसीटा गया लेकिन इस बार कर्वे अकेले नहीं थे। इस बार उनके साथ थे मुंबई के वकील बैरिस्टर बीआर आंबेडकर।
डॉ आंबेडकर का कर्वे के साथ आना और इस लड़ाई को लड़ना भारत के सामाजिक सुधारों के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण क़ानूनी लड़ाई में से एक है जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ा गया था।
आंबेडकर सिर्फ दलितों और वंचितों के नेता ही नहीं थे बल्कि वो पूरे समाज के लिए एक बेहतरीन सोच रखते थे। सभी वर्गों से बना आधुनिक समाज उनका सपना था और वो उसी दिशा में आगे बढ़ रहे थे। समाज स्वास्थ्य पत्रिका को लेकर शायद उन्होंने ये महसूस किया कि कट्टरपंथी ब्राह्मणवाद। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के ख़िलाफ़ खड़ा था और इसलिए उन्होंने कर्वे का साथ देना सही समझा। इस बात को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि आंबेडकर ने 1927 में मनुस्मृति को जलाया था। क्योंकि वो मानते थे कि मनुस्मृति जैसा साहित्य व्यक्तिगत आज़ादी को दबाता है।
कर्वे का मामला 28 फरवरी से 24 अप्रैल 1934 के बीच बॉम्बे हाई कोर्ट में चला और उस दौरान लंबी दलीलें चलीं। कर्वे के खिलाफ मुख्य आरोप, सवाल जवाब के जरिए अश्लीलता फैलाना था। जिस पर तर्क रखते हुए डॉ आंबेडकर ने कहा था कि अगर कोई यौन मामलों पर लिखता है तो इसे अश्लील नहीं कहा जा सकता। हर यौन विषय को अश्लील बताने की आदत को छोड़ दिया जाना चाहिए। इस मामले में हम केवल कर्वे के जवाबों पर नहीं सोच कर, सामूहिक रूप से इस पर विचार करने की ज़रूरत है।
वहीँ, जब न्यायाधीश ने उनसे पूछा कि हमें इस तरह के विकृत सवालों को छापने की जरूरत क्यों है और यदि इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं तो उनके जवाब ही क्यों दिये जाते हैं? इस पर आंबेडकर ने कहा कि विकृति केवल ज्ञान से ही हार सकती है। इसके अलावा इसे और कैसे हटाया जा सकता है? इसलिए कर्वे को सभी सवालों को जवाब देने चाहिए थे।
जरा सोचिए कि उस दौर में जब कोई भी यौन संबंधों पर बात करने से डरता था तब आंबेडकर समलैंगिकता पर अपने विचार रख रहे थे। भले ही कर्वे और डॉक्टर आंबेडकर 1934 की वो लड़ाई कोर्ट में हार गये थे लेकिन आज भी ऐसी लड़ाईयां हमारे आज और आने वाले कल को प्रभावित करती हैं और उनका असर किसी भी परिणाम से परे होता है।
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