रमाबाई आंबेडकर, जिनकी भीमा को डॉ. आंबेडकर बनाने में महती भूमिका थी

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 रमाबाई के परिनिर्वाण दिवस (27 मई) पर उनको सादर नमन
 डॉ. आंबेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते थे, इसका अंदाज इन शब्दों से लगाया जा सकता है- “उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।”

डॉ. आंबेडकर अपनी जीवन-संगिनी रमाबाई आंबेडकर को प्यार से रामू कहकर पुकारते थे और उनकी रामू उन्हें साहेब कहकर बुलाती थीं। दोनों ने 27 वर्षों तक जीवन के सुख-दुख सहे। दुख ज्यादा, सुख बहुत कम। दोनों की शादी 1908 में उस समय हुई थी, जब डॉ. आंबेडकर की उम्र 17 वर्ष और रमाबाई की उम्र 9 वर्ष थी। रमाबाई का मायके का नाम रामीबाई था। शादी के बाद उनका नाम रमाबाई पड़ा। आंबेडकर के अनुयायी माता रमाबाई को ‘रमाई’ कहते हैं।

जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, आंबेडकर उन्हें प्यार से रामू कहकर पुकारते थे। उन्होंने रामू के निधन (1935) के करीब 6 वर्ष बाद 1941 में प्रकाशित अपनी किताब ‘पाकिस्तान ऑर दी पार्टिशन ऑफ इंडिया’ को रमाबाई को इन शब्दों में समर्पित किया है– ‘रामू की याद को समर्पित।

उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।’ (आंबेडकर, 2019)
समर्पण के इन शब्दों से कोई भी अंदाज लगा सकता है कि डॉ. आंबेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते हैं और उनके जीवन में उनकी कितनी अहम भूमिका थी। उन्होंने उनके हृदय की उदारता, कष्ट सहने की अपार क्षमता और असीम धैर्य को याद किया है। इस समर्पण में वे इस तथ्य को रेखांकित करना नहीं भूलते हैं कि दोनों के जीवन में एक ऐसा समय रहा है, जब उनका कोई संगी-साथी नहीं था। वे दोनों ही एक दूसरे संगी-साथी थे। वह भी ऐसे दौर में जब दोनों वंचनाओं और विपत्तियों के बीच जी रहे थे।

जब आंबेडकर ने रमाबाई को लंदन से लिखा, दाने-दाने को हूं मोहताज
ऐसे दौर उनके जीवन में कई बार आए। पहली बार तब जब आंबेडकर 1920 में दूसरी बार अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए। जाने के पहले उन्होंने रमाबाई को घर का खर्च चलाने के लिए जो रकम दी थी, वह बहुत कम थी और बहुत ही जल्दी खर्च हो गई। उसके बाद उनका घर का खर्च रमाबाई के भाई-बहन की मजदूरी से चला। रमाबाई के भाई शंकरराव और छोटी-बहन मीराबाई-दोनों छोटी-मोटी मजूरी कर तक़रीबन आठ-दस आने (50-60 पैसे) रोज कमा पाते थे। उसी में रमाबाई बाजार से किराना सामान खरीद कर लातीं और रसोई पकाकर सबका पेट पालती थीं। इस तरह मुसीबत के ये दिन उन्होंने बड़ी तंगी में बिताए। कभी-कभी उनके परिवार के सदस्य आधे पेट खाकर ही सोते, तो कभी भूखे पेट ही। (वंसत मून, 1991 पृ.25)

इधर रमाबाई बच्चों और भाई-बहन के साथ आधे-पेट या भूखे रहकर जीवन गुजार रहीं थीं, तो उधर कमोवेश यही हालात डॉ. आंबेडकर के लंदन में भी थे। रमाबाई ने घर की इस आर्थिक हालात का वर्णन करते हुए एक पत्र उन्हें लिखा। जिसका जवाब इन शब्दों में आंबेडकर ने दिया–
लंदन, दिनांक 25 नवंबर 1921
प्रिय रामू,
नमस्ते।
पत्र मिला। गंगाधर (आंबेडकर पहला पुत्र) बीमार है, यह जाकर दुख हुआ। स्वयं पर विश्वास (भरोसा) रखो, चिंता करने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारी पढ़ाई चल रही है, यह जानकर प्रसन्नता हुई। पैसों की व्यवस्था कर रहा हूं। मैं भी यहां अन्न (दाने-दाने को) का मोहताज हूं। तुम्हें भेजने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी कुछ-न-कुछ प्रबंध कर रहा हूं। अगर कुछ समय लग जाए, या तुम्हारे पास के पैसे खत्म हो जाएं तो अपने जेवर बेचकर घर-गृहस्थी चला लेना। मैं तुम्हें नए गहने बनवा दूंगा। यशवंत और मुकुंद की पढ़ाई कैसी चल रही है, कुछ लिखा नहीं?
मेरी तबियत ठीक है। चिंता मत करना। अध्ययन जारी है। सखू और मंजुला के बारे में कुछ ज्ञात नहीं हुआ। तुम्हें जब पैसे मिल जाएं तो मंजूला और लक्ष्मी की मां को एक-एक साड़ी दे देना। शंकर के क्या हाल हैं? गजरा कैसी है?
सबको कुशल!
भीमाराव
(शहारे, अनिल, 2014, पृ. 57)

रमाबाई और डॉ. आंबेडकर ने एक साथ मिलकर समाज के लिए कितना और किस कदर कष्ट उठाया इसका वर्णन उन्होंने बहिष्कृत भारत की एक संपादकीय में भी किया है। उन्होंने इस बात विशेष जोर दिया है कि जिंदगी के एक बड़े हिस्सें में (जब आंबेडकर विदेशों में पढ़ाई कर रहे थे) गृहस्थी का सारा बोझ रमाबाई ने अपने कंधे पर उठा रखा था। जब आंबेडकर विदेश में पढ़ाई करके वापस आए। तब उसके बाद भी सामाजिक कामों में इस कदर लग गए कि उनके पास 24 घंटे में से आधा घंटा भी रमाबाई के लिए नहीं बचता था। रमाबाई उस वक्त भी गृहस्थी का सारा बोझ अकेले उठाती थीं। बस फर्क यह पड़ा था कि अब आंबेडकर आर्थिक सहायता करने की स्थिति में थे।

‘बहिष्कृत भारत’ के संपादकीय में रमाबाई को आंबेडकर ने किया याद
दोनों ने सामाजिक कार्यों के लिए अपने सुख-चैन की कितनी कुर्बानी दी, इसका वर्णन आंबेडकर ने इन शब्दों में किया है– “कौड़ी का फायदा न होते हुए जिसने एक वर्ष तक बहिष्कृत भारत के 24-24 कॉलम लिखकर जनजागृति का काम किया तथा उसे याद करते समय जिसने (आंबेडकर) अपने स्वास्थ्य, सुख, चैन व आराम की चिंता न करते हुए अपने आंखों की बाती बनाया, इतना ही नहीं, इस लेखक (आंबेडकर) के विदेश में रहते समय जिसने (रमाबाई) रात-दिन अपनी गृहस्थी का भार संभाला तथा आज भी वह संभाल रही है। यह लेखक (आंबेडकर) के परदेस से वापस आने पर अपनी (रमाबाई) विपन्नावस्था में अपने सिर पर गोबर के टोकरे ढोने के लिए जिसने आगे-पीछे नहीं देखा, ऐसी अत्यन्त ममतामयी, सुशील तथा पूज्य पत्नी के संपर्क में जिसे चौबीस घंटे में आधा घंटा भी साथ बिताने को नहीं मिला।” (प्रभाकर गजभिये, 2017 पृ.152)

यह संपादकीय ‘बहिष्कृत भारत’ समाचार-पत्र के एक वर्ष पूरे होने पर 3 फरवरी, 1928 ‘बहिष्कृत भारत का यह ऋण क्या लौकिक ऋण नहीं है?’ शीर्षक से लिखी गई थी।

इस संपादकीय में आंबेडकर ने रमाबाई को ममतामयी के मूर्त रूप में देखा है और उन्हें पूज्य जीवन-संगिनी के रूप में याद किया है। साथ ही इस बात पर दुख जताया है कि ऐसी पत्नी के साथ कुछ घंटे भी बिताने के लिए उनके पास नहीं हैं, जिसने जिंदगी में असह्य कष्ट उठाए हैं और असीम कुर्बानिया दी हैं।

आंबेडकर दंपति ने सहा चार-चार बच्चों के खोने का दर्द
रमाबाई और डॉ. आंबेडकर ने तीन पुत्रों और एक पुत्री को भी खोया। जब वे अमेरिका में अध्ययनरत थे, तब उनके पुत्र गंगाधर की मृत्यु हुई थी। उसके बाद यशवंत का जन्म हुआ। फिर रमेश, इंदू और राजरत्न का जन्म हुआ, लेकिन बाद की ये तीनों बच्चे भी काल के गाल में समा गए। चार-चार बच्चों की मौत ने रमाबाई और आंबेडकर को भीतर से तोड़ दिया। दोनों तड़प उठे और दुख के अथाह सागर में डूब गए। इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति डॉ. आंबेडकर द्वारा अपने मित्र दत्तोबा पवार को लिखे पत्र में हुई है। यह पत्र अंतिम संतान राजरत्न की मत्यु के बाद लिखा गया है। इस पत्र में आंबेडकर लिखते हैं– “पुत्र निधन से हम दोनों (रमाबाई और आंबेडकर) को जो आघात पहुंचा है, उसे अतिशीघ्र भूल पाना संभव नहीं है। अभी तक तीन पुत्र और एक पुत्री को श्मशान पहुंचाने का काम इन हाथों ने किया है। जब भी ये यादें सताती हैं, तो मन दुख से विचलित हो उठता है। उनके भविष्य के बारे में जो सोचा था, वह सब धराशायी हो गया। हमारे जीवन (रमाबाई और आंबेडकर) पर दुख के बादल मंडरा रहे हैं। बच्चों के निधन से हमारा जीवन ऐसे निस्वाद हो गया है, जैसे भोजन बिना नमक के हो जाता है। बाइबिल में कहा गया है, ‘तुम धरती का नमक हो। नमक का स्वाद ही गया तो, उसे खारा (नमकीन) कैसे बनाया जा सकता है? मेरे शून्य जीवन में इस वचन की सार्थकता सिद्ध होती है। मेरा अंतिम पुत्र असामान्य था। उसके जैसा पुत्र मैंने शायद ही देखा हो। उसके जाने से जीवन कांटों भरे बगीचे के समान हो गया। दुखी-पीड़ित अवस्था के कारण कुछ ज्यादा लिखा नहीं जा रहा है। दुख से व्यथित तुम्हारे मित्र का तुम्हें नमस्कार।” (शहारे, अनिल, 2014 पृ. 70)

मुंबई के मछली बाजार में हुई आंबेडकर और रमाबाई की शादी
“रमाबाई से डॉ. आंबेडकर की शादी 1908 में आंबेडकर के मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण होने के थोड़े ही दिनों के बाद हो गई थी। तब वे एल्फिंस्टन हाई स्कूल के छात्र थे। इसी दौरान ही उनके पिता रामजी सूबेदार ने भीमा की शादी भिकू वलंगकर की पुत्री रामीबाई के साथ संपन्न कर दी।… विवाह स्थल बम्बई (अब मुंबई) का भायखले बाजार (मछली बाजार) था। वहां के एक कोने में घराती इकट्ठा हुए। दूसरे कोने में बाराती इकट्ठा हुए। छप्पर के नीचे नाली से गंदा पानी बह रहा था। चबूतरे का इस्तेमाल बेंच के रूप में किया गया। बाजार के पूरे स्थल का इस्तेमाल-विवाह स्थल के रूप में किया गया।… रमाबाई अपने माता-पिता की सबसे छोटी बेटी थीं। उनके पिता का नाम भिकु धुत्रे था। दाभोल के समीप स्थित वनंद गांव के वह निवासी थे। वे दाभोल बंदरगाह में कुली का काम करते थे। रमाबाई के बचपन में ही उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। उनका और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी चाची और मामा ने किया था। उनके भाई का नाम शंकर धुत्रे था।” (धनंजय कीर, 2018 पृ. 23)

भले ही आंबेडकर का विवाह सन् 1908 में संपन्न हो गया था, लेकिन सही मायने में उनकी गृहस्थी बहुत बाद में शुरू हुई। जब आंबेडकर 1917 में लंदन से लौट कर मुंबई आए। घर में खुशी छा गई। उनकी पत्नी रमाबाई को लगा कि हम लोगों ने अब तक जो भी दुख भोगा है। वह समाप्त हो चुका है। हमारे साहेब नौकरी करके पैसा कमाएंगे और सभी को खुशहाली में रखेंगे।… रमाबाई को लगा था कि हमारे और भी बच्चे होंगे (पहला बच्चा गंगाधर की मृत्यु हो चुकी थी) और हमारा घर-संसार सुख-सुविधाओं से भरपूर होगा। (खैरमोड़े, 2016, पृ. 112)
लेकिन आंबेडकर कुछ और ही सोच रहे थे। वे इस बात से दुखी थे कि उन्हें अपनी पढ़ाई छोड़कर बीच में ही लंदन से वापस आना पड़ा। परिवार में आने के कारण उनको जो आनंद मिला, उस पर उपरोक्त दुख (बीच में पढ़ाई छोड़कर आने का दुख) की काली छाया पड़ी हुई थी। (वही)

आंबेडकर के लंदन जाते ही रमाबाई पर टूटा दुखों का पहाड़
करीब दो-ढाई वर्षों तक रमाबाई के साथ रहने के बाद पुन: आंबेडकर अपनी पढ़ाई पूरी करने 1920 में लंदन चले गए। रमाबाई के साथ रहते हुए भी उनके साथ कितना रह पाए, इसका अंदाज तो इस बीच आंबेडकर की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता से लगाया जा सकता है। 1920 में दुबारा पढ़ाई के लिए लंदन जाने के बाद रमाबाई के जीवन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, जिसका पता उनके पत्र के जवाब में 1921 आंबेडकर द्वारा लिखे पत्र से होती है, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। वे 1923 में भारत लौटे तब दोनों की जिंदगी थोड़ी पटरी पर लौटी। लेकिन आंबेडकर की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता बढ़ती गई, उन्हें संघर्ष के कई मोर्चों पर सक्रिय होना पड़ा। उनके पास रमाबाई के साथ बिताने के लिए 24 घंटे में आधे घंटे भी नहीं मिल पाते। इसका जिक्र उन्होंने बहिष्कृत भारत की संपादकीय में किया है।

रमाबाई के निधन के बाद बच्चे की तरह फूट-फूटकर रोए आंबेडकर
आंबेडकर के भारत आने के बाद भी उनके पास घर-गृहस्थी के लिए वक्त नहीं रहता। हां आर्थिक हालात थोड़ी संभली। लेकिन रमाबाई का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। इसके कारणों का जिक्र करते हुए आंबेडकर के जीवनीकार धनंजय कीर लिखते हैं– “बाबासाहब की पत्नी श्रीमती रमाबाई बीमार थीं। पिछले दस वर्षों में अपने परिवार का ध्यान देने के लिए बाबा साहब को समय कभी मिला ही नहीं। जब-जब उन्हें थोड़ा समय मिल जाता, तब-तब वे पारिवारिक बातों की ओर ध्यान देते। एक बार रमाबाई को हवा बदली करने के लिए धारवाड़ ले गए थे। लेकिन उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो पा रहा था।… पत्नी के स्वास्थ्य में कुछ सुधार हो इसके लिए बाबा साहब ने काफी प्रयास किए।” (धनंजय कीर, 2018 पृ. 237)। लेकिन इलाज का असर नहीं हो रहा था। धीरे-धीरे उनका शरीर कमजोर पड़ता गया। मृत्यु से पहले वे छह महीने तक बिस्तर पर रहीं। वैवाहिक जीवन के शुरुआती वर्षों में उन्हें लंबे समय तक भूखे या आधा पेट खाकर जीना पड़ा था। इस स्थिति ने उन्हें शारीरिक तौर पर तोड़ दिया चार-चार बच्चों की मौत ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था। अंत में साहेब की रामू उन्हें सदा-सदा के लिए छोड़कर 27 मई, 1935 को चली गईं। रमाबाई की मृत्यु के एक रात पहले ही आंबेडकर लौटे थे। उनकी मृत्यु के समय उनकी शैय्या के पास बैठे थे। भारी दिल से, गंभीर मुद्रा, विचार और दुख से व्याकुल मन: स्थिति के साथ वे शवयात्रा के साथ धीमे-धीमे चल रहे थे। श्मशान यात्रा से लौटने पर वह दुख से व्याकुल होकर कमरे में अकेले पड़े रहे। एक सप्ताह तक छोटे बच्चे की भांति वे फूट-फूटकर रोते रहे। (धनंजय कीर, 2018 पृ.239)।

रमाबाई के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर कई फिल्में बनाई गई हैं और नाटक भी लिखे गए हैं। मराठी में कुछ चर्चित किताबें भी उनके व्यक्तित्व पर रोशनी डालती हैं। जो निम्न हैं–

  • 2011 में प्रकाश जाधव के निर्देशन में मराठी में ‘रमाबाई भीमराव आंबेडकर’ फिल्म बनी। जो पूरी तरह रमाबाई के व्यक्तित्व पर केंद्रित है।
  • 2016 में एम. रंगानाथ के निर्देशन में कन्नड़ में ‘रमाई’ फिल्म बनी। इस फिल्म का केंद्रीय चरित्र भी रमाबाई हैं।
  • शशिकांत नालवाडे के निर्देशन में 1993 में बनी मराठी फिल्म ‘युगपुरुष डॉ. आंबेडकर’ में भी रमाबाई की भूमिका को रेखांकित किया गया है।
  • अंग्रेजी में जब्बार पटेल ने सन् 2000 में डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर नामक फिल्म बनाई। जिसमें रमाबाई के व्यक्तित्व को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
  • 1990 में मराठी फिल्म ‘भीम गर्जना’ बनी। जिसका निर्देशन विजय पवार ने किया। इसमें भी आंबेडकर के जीवन में रमाबाई की भूमिका को प्रस्तुत किया गया है।
  • 1992 में अशोक गवाली के निर्देशन में मराठी में चर्चित नाटक ‘रमाई’ सामने आया।

संदर्भ :
1. आंबेडकर, बी. आर.(2019). पाकिस्तान ऑर दी पार्टिशन ऑफ इंडिया। इन डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर राइटिंग्स एडं स्पीचेज, वाल्यूम,8, बाम्बे : गर्वमेंट ऑफ महाराष्ट्र
2. डॉ. बाबा साहब, आंबेडकर, वसंत मून, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, नई दिल्ली,1991
3. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की संघर्ष-यात्रा एवं संदेश, डॉ.म.ला. शहारे, डॉ. नलिनी अनिल, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
4. बहिष्कृत भारत’ में प्रकाशित, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के संपादकीय. अनुवादक, प्रभाकर गजभिये, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017
5. डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर जीवन–चरित, धनंजय कीर, पापुलर प्रकाशन, मुबई, 2018
6. बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, जीवन और चिंतन, भाग-1, चांगदेव भगवानराव खैरमोडे, अनुवाद,डॉ. विमलकीर्ती, सम्यक प्रकाशन, 2016, नई दिल्ली

(बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर: बहुजन नायक और नायिकाएं शीर्षक मेरी किताब का एक अध्याय है।)

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