“ये कितना दुखद है कि पार्टियों को ये समझ में आ गया है कि सिर्फ जय भीम बोलने, बाबा साहेब की फ़ोटो और मूर्ति लगाने, उनका नाटक दिखाने, उनकी जयंती मनाने से भारत के 20 करोड़ अनुसूचित जाति के वोट लिए जा सकते हैं। इतना सस्ता सौदा कौन करता है? अपनी महत्वाकांक्षा बड़ी कीजिए। चाहत बड़ी कीजिए।”
सोशल मीडिया पर यह सवाल वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने पिछले दिनों उठाया। सवाल जायज है, और इस पर चर्चा करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अप्रैल का महीना अंबेडकर माह है। दुनिया भर में लोग बाबासाहेब को याद करते हैं, उनकी कही-लिखी बातों को दोहराते हैं। अक्सर जब लोग बाबासाहेब को याद करते हैं तो एक बात जरूर कहते हैं कि बाबासाहेब ने व्यक्ति पूजा से मना किया था। लेकिन अभी तक का जो राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य है, वह व्यक्ति पूजा पर आकर टिक गया है। तमाम लोगों के लिए अंबेडकरी आंदोलन की परिभाषा यह होती जा रही है कि जो जितनी तेज आवाज में ‘जय भीम’ बोले, वह उतना बड़ा अंबेडकरवादी। जिसने बाबासाहेब का जितना बड़ा पोस्टर लगा दिया, वह उतना बड़ा बाबासाहेब को मानने वाला। और हाँ, जय भीम बोलने वाला और बाबासाहेब के पोस्टर लगाने वाला अगर गैर दलित है, तब तो दलित समाज झूम उठता है।
दलित समाज का व्यक्ति अगर अपने शरीर को नीला कर ले, अपना जीवन बाबासाहेब के मिशन में लगा दे, तब भी वो समाज के ज्यादातर लोगों की नजर में कोई खास इज्जत हासिल नहीं कर पाता। क्योंकि लोगों को लगता है कि ऐसा करना दलित समाज के व्यक्ति की ड्यूटी है। लेकिन हाँ, अगर वही व्यक्ति जब दूसरी धारा के बारे में जरा सी भी बात कर ले तो यही लोग उसे दलित समाज का दुश्मन और एजेंट करार देने में कोई देर नहीं लगाते हैं।
हाल ही में बीते चुनाव के परिणामों की तपीश अभी भी समाज के भीतर से गई नहीं है। अंबेडकरी आंदोलन की पार्टी होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल भले मंथन न करें, आम जनता खूब मंथन कर रही है। पंजाब में कांग्रेस पार्टी ने पहली बार दलित समाज का मुख्यमंत्री बना दिया था और उसे फिर से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया था। बावजूद इसके कांग्रेस पार्टी पंजाब में नहीं जीत सकी। बहुजन समाज पार्टी ने अकाली दल से गठबंधन कर रखा था और माना जा रहा था कि वह बड़ी ताकत बनकर उभरेगी, लेकिन वह भी बुरी तरह हार गई। शानदार जीत आम आदमी पार्टी को मिली, जिसने पिछले तमाम चुनावों के परिणामों को ध्वस्त करते हुए रिकार्ड जीत दर्ज की। हो सकता है कि आम आदमी पार्टी ने जमीनी तैयारी की हो, लेकिन क्या कांग्रेस और बसपा – अकाली गठबंधन इतने कमजोर थे कि उनका सूपड़ा ही साफ हो जाए। क्या कई दफा चुनाव जीतने वाले जमीनी नेता और मुख्यमंत्री रहे चरणजीत सिंह चन्नी इतने कमजोर थे कि वह एक अंजाने इंसान से चुनाव हार जाएं। क्या अकाली दल के कद्दावर नेता अमरिंदर सिंह इतने कमजोर प्रत्याशी थे कि बसपा से गठबंधन के बाद भी वह अपनी सीट न जीत पाएं?
तो आखिर पंजाब के लोगों के दिमाग में क्या चल रहा था? पैंतीस प्रतिशत आबादी वाले पंजाब को दलित मुख्यमत्री क्यों नहीं चाहिए था? या फिर एक वक्त में जिस बसपा-अकाली गठबंधन को लोगों ने अपना खूब समर्थन दिया था, उसी गठबंधन से लोगों का मोह क्यों भंग हो गया? यह समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए बड़े शोध का विषय है।
अब आते हैं राजनीतिक सवाल पर। कांग्रेस ने अपने शासनकाल में बाबासाहेब आंबेडकर को कभी भी उचित सम्मान नहीं दिया। उन्हें भारत रत्न देने से भी कांग्रेस कतराती रही। और आखिरकार जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी और वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बनें तो उन्होंने बाबासाहेब को भारत रत्न सम्मान दिया। भाजपा ने केंद्र के अपने अब तक के आठ साल के कार्यकाल में बाबासाहेब को लेकर कई बड़े काम किये। 15 जनपथ की जिस जमीन को कांग्रेस ने जंगल बनने के लिए छोड़ दिया था, भाजपा ने उस पर डॉ. आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर जैसा भव्य इमारत बनवाया। 26 अलीपुर रोड; जहां बाबासाहेब का परिनिर्वाण हुआ था, भाजपा ने वहां भी डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय स्मारक बनवाया। देश के ऱाष्ट्रपति पद पर दलित समाज के ही रामनाथ कोविंद को बैठाया गया। तमाम राज्यों में दलितों नेताओं को सांकेतिक तौर पर आगे बढ़ाने की रणनीति पर काम किया। अपने इन कामों के बूते भाजपा ने दलितों के भीतर भी सबका साथ सबका विकास के संदेश को दिया। दलित भी ये सब देखकर फुल कर कुप्पा हो गए।
यानी दलितों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और कम जागरूक होने का फायदा उठाकर कांग्रेस ने जहां बाबासाहेब को अनदेखा किया, उनकी शख्सियत को सामने नहीं आने दिया तो कांशीराम के बहुजन आंदोलन के बाद जब दलितों-पिछड़ों का एक बड़ा तबका जागरूक हो गया और इसके बाद भाजपा का दौर आया तो उसने सबसे पहले दलितों या यूं कहें कि दलितों और अति पिछड़ों के जीवन में सबसे अधिक मायने रखने वाले बाबासाहेब को स्वीकार करने की रणनीति अपनाई। भाजपा ने बाबासाहेब से जुड़ी इमारतें बनाई और वंचित समाज खुश हो गया। उसने मकान, अनाज और शौचालय जैसी चीजें जो देश के हर नागरिक का हक है, देने की बात कही और वंचित समाज खुश हो गया।
लेकिन अंबेडकरवादियों को यह नहीं दिखा कि भाजपा पीछे दरवाजे से इसकी कीमत भी वसूल करने लगी है। संविधान बदलने की बात हो या एससी-एसटी आरक्षण को खत्म करने की बात हो, भाजपा कीमत वसूल करने पर अमादा हो गई। उसने खाली सीटों का बैकलॉग नहीं भरा, न ही नौकरियां दी। महंगाई आसमान छू रही है, लेकिन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता।
तो सवाल है कि आखिर दलितों-पिछड़ों को चाहिए क्या? उनके हितैषी आखिर क्या करें जो लोगों की समझ में आए। मैं ऐसे दर्जनों संगठनों को जानता हूं जो अपने-अपने शहर में या प्रदेश में समाज को आगे बढ़ाने के लिए शिक्षा से लेकर सामाजिक क्षेत्र तक में शानदार काम कर रहे हैं। उनके प्रयास से सैकड़ों बहुजन युवाओं की जिंदगी बदली है। देश भर में ऐसे काफी बुद्धिजीवि हैं जो लोगों को अपनी बातों से, अपनी लेखनी से जागरूक करने की कोशिश करते रहते हैं। अपना काम करते हुए अपने समाज को कैसे और बेहतर बनाया जा सके, इस कोशिश में जुटे रहते हैं। यू-ट्यूब पर बोलते हैं, पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं, सैकड़ों किलोमीटर सफर कर के उनके बीच जाते हैं। उन्हें बाबासाहेब की बातों के बारे में, बहुजन आंदोलन के बारे में समझाते हैं, वोट की कीमत बताते हैं। लेकिन जब अपनी ताकत दिखाने का मौका आता है तो वह सब भूलकर सांकेतिक चिन्हों के लिए काम करने वाले को ज्यादा तरहीज देते हैं। आज सोशल मीडिया का दौर है और कहा जा रहा है कि लोग खूब जागरूक हुए हैं। लेकिन क्या जागरूकता इसी को माना जाए कि कोई आपको बहका ले जाए? इससे बेहतर तो पहले के कम जागरूक लोग ही थे जो अपने नेताओं और समाज के हित के लिए संघर्ष करने को तैयार रहते थे। समाज नेताओं पर सवाल उठाता है कि नेता ठीक नहीं है, क्या एक सवाल समाज पर भी नहीं है? क्या समाज को अपने भीतर नहीं झांकना चाहिए? क्या समाज को बेहतर ढंग से एक बार फिर अंबेडकरवाद का सही पाठ पढ़ने की जरूरत नहीं है?
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।