कल ट्रेन में सफर के दौरान चार युवा इंजीनियर्स से बात करने का मौका मिला. चारों एक दूसरे से परिचित होते हुए अपनी पढ़ाई, कमाई, अनुभव, कम्पनी आदि का बखान कर रहे थे. जाहिर हुआ कि चारों देश की सबसे अच्छी सॉफ्टवेयर कम्पनियों में कार्यरत हैं, दो पुणे में एकसाथ है दूसरे दो मुंबई एकसाथ काम करते हैं. अगली कुछ छुट्टियों में चारों दिल्ली की तरफ जा रहे थे.
बातचीत करते हुए हमने साथ मे चाय ली, उन्होंने उत्सुकता से मुझसे पूछा कि आप क्या करते हैं? मैंने उत्तर दिया कि मैं सोशल रिसर्च का काम करता हूँ. वे अधिक अंदाजा नहीं लगा सके और पूछने लगे कि इसमें क्या काम होता है और इसको करने से क्या फायदा होता है?
उनकी दुविधा समझते हुए मैंने प्रतिप्रश्न किया कि आप बताएं कि कम्प्यूटर साइंस में क्या काम होता है और उससे क्या फायदा होता है? उन्होंने बताया कि कम्प्यूटर साइंस सब तरह के यांत्रिकरण, ऑटोमेशन और गणनाओं का आधारभूत टूल बन गया है, हर विषय मे हर काम में हर तरह की खोज में कम्प्यूटर की भूमिका बढ़ गयी है.
मैंने पूछा कि कम्प्यूटर साइंस की जानकारी से आप क्या क्या समझ या समझा सकते हैं? वे बोले कि हम बता सकते हैं कि किस तरह के काम के लिए कैसा सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर लगेगा, कैसे काम किया जा सकता है. अधिक एफिशियंसी के लिए किस नई तकनीक का कैसे उपयोग हो सकता है इत्यादि.
मैने उन्हीं के उत्तर को आधार बनाते हुए कहा कि ठीक इसी तरह समाज विज्ञान है उससे हम बता सकते हैं कि कोई समाज सभ्यता, विज्ञान और तकनीक पैदा कर सकेगा या नहीं, या कि कोई समाज आने वाले समय मे सभ्य और अमीर होगा या और अधिक बर्बर या गरीब होता जाएगा?
मैंने एक उदाहरण देते हुए बात रखी कि एक तरह से ये माना जा सकता है सोशल साइंस किसी देश मे समाज की वास्तविकता, उसकी समस्याओं, संभावित समाधानों और बदलाव के तरीकों की रिसर्च करता है. जैसे आपके कम्प्यूटर साइंस का अपना विस्तार है वैसे ही समाज विज्ञान भी है. वे समाज विज्ञान शब्द सुनकर चौंके, उन्हें समझने में दिक्कत हो रही थी कि समाज का अध्ययन विज्ञान कैसे हो सकता है? सामाजिक नियम, भोजन, रहन सहन, सामाजिक संरचना, परम्परा, जाति, वर्ण, धर्म आदि का अध्ययन विज्ञान कैसे हो सकता है?
विज्ञान शब्द को तकनीक के अर्थ में समझने की उनकी ट्रेनिंग के कारण वे सामाजिक “विज्ञान” को समझ नहीं पा रहे थे. इसीलिये उन्हें यह भी अजीब लग रहा था कि इस “विज्ञान” पर पढ़े-लिखे से नजर आने वाले ये सज्जन क्या काम करते होंगे?
उन्होंने सीधे से पूछ लिया कि कोई उदाहरण देकर समझाएं कि इस तरह की रिसर्च में होता क्या है? मैंने उन्हें उन्ही के विषय मे समझाने की कोशिश करते हुए कहा कि समाज विज्ञान आपको यह बताता है कि किस तरह का समाज सभ्य, वैज्ञानिक और विकसित होगा और किस तरह का समाज असभ्य, गरीब और अवैज्ञानिक होता जाएगा. जैसी मैंने उम्मीद की थी वे गरीबी, सभ्यता, संस्कृति आदि की बजाय विज्ञान में रुचि लेने लगे और पूंछने लगे कि समाज विज्ञान किसी देश के भौतिक विज्ञान और तकनीक के विकास पर क्या जानकारी देगा? या भविष्यवाणी कर सकता है?
ये विषय उनके पसन्द का था सो वे उत्सुकता से सुनने लगे. मैंने कहा कि सभी समाज विज्ञान और तकनीक को पैदा नहीं कर सकते, कुछ समाज दूसरों से बेहतर विज्ञान और सभ्यता की समझ रखते हैं इसलिए वे सारा विज्ञान और तकनीक पैदा करते हैं और शेष अविकसित असभ्य और पिछड़े समाजों को तकनीक और विज्ञान बेचते हैं. इसपर वे पूछने लगे कि कौनसे समाज विकसित और वैज्ञानिक हैं और कौन से पिछड़े हैं?
मैंने उदाहरण दिया कि बहुत मोटे तौर पर यूरोपीय, अमरीकन समाज जो कि आस्तिकता और धर्म की गुलामी से आजाद हो रहे हैं, उनको तुलनात्मक रूप से विकसित और वैज्ञानिक रुझान का माना जा सकता है और अरब, अफ्रीका, एशिया के वे सभी समाज जो किसी काल्पनिक ईश्वर और स्वर्ग नरक को मानते हैं उन्हें पिछड़ा हुआ माना जा सकता है.
ये सुनते ही उन्हें धक्का लगा, वे कहने लगे कि वैसे तो भारत में हमारा समाज भी आस्तिक है, धार्मिक है, ईश्वर और स्वर्ग नरक को मानता है तो क्या भारत पिछड़ा और असभ्य है? मैंने कहा कि इस बात को दूसरे ढंग से समझने की कोशिश करते हैं, क्या आपको लगता है कि सभ्यता, विज्ञान, संपन्नता और तरक्की का आपस में सीधा संबंध है?
थोड़े विचार के बाद वे मानने को राजी हो गए कि सभ्य समाज ही अपने परिश्रम और साहस से वैज्ञानिक और अमीर हो सकता है. असभ्य समाज अंधविश्वासी गरीब और पिछड़े रहने को बाध्य हैं. इस सभ्यता का सीधा संबंध लोकतंत्र और सुशासन और विकास से कैसे जुड़ता है इसे वे थोड़ा-थोड़ा देख पा रहे थे लेकिन धर्म और आस्तिकता से इसका संबंध बिल्कुल नहीं जोड़ पा रहे थे.
मैंने पूछा कि जिन व्यक्तियों ने विज्ञान में मौलिक खोजे की हैं उनमें से अधिकतर लोग किस रुझान के थे? क्या वे ईश्वर स्वर्ग नरक, देवी देवता, आत्मा, पुनर्जन्म और इनसे जुड़े किसी तरह के कर्मकांड में भरोसा रखते थे या नास्तिक थे? उन्होंने कहा कि ज्यादातर लोग नास्तिक ही थे, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वैज्ञानिक होने में ईश्वर आत्मा या कर्मकांड से कोई रुकावट पैदा होती है. वे सभी इस बात का दावा कर रहे थे कि धार्मिक, पूजा पाठी और श्राद्ध तर्पण आदि करते हुए भी वैज्ञानिक हुआ जा सकता है.
मैंने कहा अगर ऐसा है तो फिंर आप ऐसे श्राद्ध तर्पण कर्मकांड करने वाले चार पांच वैज्ञानिकों और उनकी मौलिक खोजों के नाम बताइये. एक ने उदाहरण दिया कि रामानुजन हुए हैं जिन्होंने गणित में नई खोजें कीं. वे शाकाहारी, मन्त्रपाठी और कर्मकांडी ब्राह्मण थे. रामानुजन के अलावा वे किसी और का नाम न बता सके.
मैंने पूछा कि इस कर्मकांड, शाकाहार और धर्म ने रामानुजन को मदद की या इसी ने उनकी जान ले ली? वे चौंके, बोले इस धर्म ने उनकी जान कैसे ली? क्या मतलब है आपका? मैंने कहा कि रामानुजन छुआछूत मानते थे वे ईसाई मांसाहारी रसोइए के हाथ का खाना नहीं लेते थे, सर्द मौसम में भी शराब या ब्रांडी नहीं पीते थे, सिर्फ अपने हाथ का पका दाल चावल खाते थे और पवित्रता की सनक ऐसी थी कि लंदन की सर्दी में भी दिन में कई कई बार नहाकर पूजा पाठ करते थे. कुपोषण और निमोनिया से उनकी मौत हो गयी. अब बताइये धर्म ने उन्हें फायदा किया या नुकसान किया? क्या धर्म और पूजा अर्चना ने उन्हें विज्ञान को आगे बढ़ाने योग्य बनाया या उनकी हत्या कर दी? उनकी तरह रोज कर्मकांड करने वाले कितने लोग गणितज्ञ बने?
इस सवाल पे वे एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. लेकिन फिर भी वे स्वीकार नहीं कर रहे थे कि धर्म और विज्ञान में विरोध का संबंध हैं. उनमें से एक युवक जिसके हाथ मे ढेर सारी अंगूठियां थी और लाल-पीले धागे बंधे थे. वो बोला कि धार्मिक और पूजापाठी लोगों ने भी साइंस और तकनीक बनाई है. हमारे ऋषि मुनि अपनी तकनीक के बल पर एक से दूसरे स्थान पर पहुंच जाते थे. उनके पास भी एटॉमिक टेक्नोलॉजी थी. वे पशु पक्षियों से भी बात कर पाते थे.
इस पर उस युवक का मित्र बोला कि उसने भी महाभारत में पढ़ा है कि मंत्र की शक्ति से लोग हवा में भी उड़ सकते थे. फिर वे चारों बताने लगे कि साउंड वेव्स बहुत ताकतवर होती हैं शायद प्राचीन काल मे हमारे ऋषि मुनियों के पास कोई टेक्नोलॉजी थी जिसके जरिये वे एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाते थे, मंत्र के जरिये ब्रह्मास्त्र जैसे एटॉमिक मिसाइल जैसा कोई बम छोड़ सकते थे.
अब चौंकने की बारी मेरी थी. अब तक जो युवक (इनमे से दो IIT से पढ़े हुए हैं) क्लाउड टेक्नोलॉजी, नैनो टेक्नोलॉजी और क्वान्टम कम्प्यूटर की बात कर रहे थे वे एकदम से तंत्र-मंत्र और महाभारत कालीन एटॉमिक मिसाइल तक पहुंच गए.
मैंने कहा चलो मान लिया कि महाभारत के समय में क्वांटम टेलीपोर्टेशन और एटॉमिक टेक्नोलॉजी थी. अब ये बताइये कि ऐसी टेक्नॉलोजी उन्होंने किस तरह के मकानों प्रयोगशालाओं या विश्वविद्यालयो में बैठकर बनाई होगी? किस तरह की धातु या प्लास्टिक आदि का इस्तेमाल किया होगा? इतनी उन्नत टेक्नोलॉजी को बनाने या चलाने के लिए उन्नत धातुविज्ञान, रसायन, कम्युनिकेशन, ट्रांस्पोर्टेशन, सड़कें, कार, ट्रेन मोटर वाहन आदि चाहिए या नहीं? लेकिन आपके ऋषि मुनि तो लकड़ी की खड़ाऊ पहनकर बिना सिले कपडे लपेटकर पैदल या बैलगाड़ी या घोड़े के रथ पर यात्रा कर रहे हैं? तीर कमान, गदा, तलवार फरसा आदि लेकर घूम रहे हैं. कागज या लैपटॉप की बजाय केले के या ताड़ के पत्तों पर लिख रहे हैं. ये कैसे संभव है?
अब उनके जवाब सच मे चकरानेवाले थे. एक युवक बोला कि हो सकता है कि उन्होंने अपने ज्ञान से ये समझ लिया हो कि ट्रांसपोर्ट, मोटर कार मशीनें आदि पर्यावरण के लिए खतरनाक है इसलिए वे “ईको फ्रेंडली” तरीके से जीते रहे हों. इसीलिए शायद उन्होंने बायो-डिग्रेडेबल मकान, यूनिवर्सिटी, रथ, सड़कें, कपड़े, बर्तन, आदि बनाये हो जिनके सबूत आजकल की खुदाई या पुरातत्व को नहीं मिलते. हो सकता है कि वे सादा जीवन उच्च विचार वाले लोग हों और ज्यादा सुविधापूर्ण मकान, यंत्र आदि न बनाये हो, वे सिर्फ कंद मूल खाते रहे हों, एनर्जी और पर्यावरण को बचाते रहे होंगे.
मैंने उनकी आंखों में झांकते हुए पूछा कि क्या आपको हकीकत में ये लगता है कि ऋषि मुनियों के पास ऐसी टेक्नोलॉजी रही होगी जिसका आज कोई सबूत कोई निशान तक नही है? वे चारों पूरे आत्मविश्वास से बोले कि ये एकदम संभव है उन्होंने कुछ डॉक्यूमेंट्रीज के नाम गिनाए जिसने पिरामिड की टेक्नॉलिजी, माया सभ्यता, द्वारिका, सुमेरियन सभ्यता जैसी प्राचीन विकसित सभ्यताओ और उनकी तकनीकी उन्नति की बात की गई थी.
मैंने अंत मे पूछा कि चलो मान लेते हैं कि ये सब तकनीक और साइंस ऋषि मुनियों के पास था, तो आज उनके वंशज विज्ञान तकनीक के मामले में यूरोप-अमेरिका का मुंह क्यों ताकते हैं? इसका जवाब और भयानक दिया उन्होने. वे बोले कि हम लोग अपने पुराने साइंस को भाषा को इतिहास को भूल चुके हैं, बीच के समय में मुसलमानों, अंग्रेजों ने हमारे ज्ञान-विज्ञान को नष्ट कर दिया. इसीलिए न हमारा विज्ञान बचा न तकनीक के कोई सबूत. इसीलिए हम दूसरों पर निर्भर हैं.
इस चर्चा के बाद मैं सोचता रहा कि ये उच्च शिक्षित मोटी तनख्वाह वाले शहरी युवा हैं या कि गांव के किसी मंदिर के सामने बैठे तोते वाले ज्योतिषी और पंडित हैं? मैं बार बार उनकी शक्लें और उनके महंगे मोबाइल और कपड़े जूते आदि देखता रहा. ऐसा लग रहा था जैसे कि चार पाषाण कालीन जीवाश्मों से बात कर रहा हूं. फिर बार-बार यही ख्याल आता रहा कि ये युवक या इनके जैसे युवक भारत मे कोई साइंस या तकनीक पैदा कर सकते हैं?
संजय श्रमण गंभीर लेखक, विचारक और स्कॉलर हैं। वह IDS, University of Sussex U.K. से डेवलपमेंट स्टडी में एम.ए कर चुके हैं। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) मुंबई से पीएच.डी हैं।
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