- अभय कुमार
ईद का मतलब होता है जो “बार बार आए”. मगर इसका मतलब “ख़ुशी मनाना” और “जश्न मनाना” भी होता है. महीने भर रोज़ा रखने के बाद ईद मनाई जाती है. यह ख़ुशी का दिन होता है. दरअसल ख़ुशी कोई अकेले मना नहीं सकता. अगर कोई मना भी ले तो वह बेमज़ा और बेरंग होगा. एक सच्चा इंसान दूसरों की ख़ुशी देखकर ज़्यादा ख़ुश होता है. वह जानता है कि समाज में सब की ख़ुशी में ही ख़ुद की ख़ुशी है.
कल मेरे एक कश्मीर के सीनियर दोस्त से बात हुई. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों वहां की लोकल मस्जिद ने उनको एक मशविरा के लिए बुलाया. उनसे पूछा कि “क्या मस्जिद का पैसा किसी जरूरतमंद को दिया जा सकता है जो मुसलमान नहीं है?”
बात यह थी कि मस्जिद कमेटी के पास कुछ पैसे थे. कश्मीर में बहुत सारे प्रवासी मज़दूर काम करते हैं. लॉकडाउन में उनकी हालत ठीक नहीं है. मस्जिद कमेटी उनको इस शर्त पर पैसा देने के लिए विचार कर रही थी कि जब भी उनको सहूलियत हो वह इसे लौटा दें.
मेरे कश्मीरी दोस्त ने बग़ैर वक़्त लिए अपनी राय दी: “जरूरतमंदों और मोहताजों की मदद करने और उनके चेहरे पर मुस्कान लाने से बेहतर अमल और कुछ हो ही नहीं सकता. इस से बेहतर ईद मनाने का कोई दूसरा तरीक़ा हो ही नहीं सकता”.
इस तरह कश्मीर की एक मस्जिद ने मज़हब से ऊपर उठ कर इंसानों की मदद की.
मेरे गांव के भी बहुत सारे मज़दूर कश्मीर में पेंटर का काम करते हैं और उन्होंने मुझे ख़ुद बतलाया है कि कश्मीरी लोग न सिर्फ उन्हें मज़दूरी ज़्यादा देते हैं बल्कि उनके लिए खाने पीने और सोने का भी इंतेज़ाम करते हैं. मगर जब ये मजदूर अपने घर लौट कर आते हैं और आसपास में काम करने जाते हैं तो इनके साथ गांव के लोग भेदभाव बरतते हैं. पानी पीने के लिए मालिक अपना बर्तन नहीं देते.
अभी कोरोना की आफत में मुस्लिम समाज अपनी संख्या और ताक़त से कहीं ज़्यादा मानवता की सेवा कर रहा है. दो दिन पहले मुझे बिहार के कुछ सिलाई का काम करने वाले कारीगरों ने फोन किया और कहा कि ईद से पहले उनका हाथ खाली है. मैंने बग़ैर कुछ सोचे जामिया इलाक़े में रहने वाले एक साहेब को फोन किया. अगले रोज कारीगरों को राहत पहुंचाई गई.
इन दिनों जब लाखों करोड़ों मज़दूर बेहाल हैं, तब भी मुसलमानों ने रोज़े रखते हुए उनके खाने पीने का इंतेज़ाम किया. राह चलते मुसाफिरों के लिए पानी, बिस्कुट, पावरोटी, केला लिए मुस्लिम बस्तियां तैयार रहती थी. बहुत सारे मुसलमानों ने लॉकडाउन के दौरान दिन रात ज़रूरतमंदों को राशन और खाना पहुंचाया.
मेरे लिए ईद का यह सब से बड़ा पैग़ाम है कि “ख़ुश रहने के लिए ख़ुशियां बांटो”. अगर यह बात महलों में रहने वालों को समझ में आ जाए तो पीड़ा से रो रही धरती स्वर्ग बन जाए.
आइए हमसब मिलकर एक दूसरे को ईद की मुबारकबाद दें. जैसे रोशनी बांटने से रोशनी बढ़ती है वैसे ख़ुशी बांटकर ख़ुशियां बढ़ाएं.
(अभय कुमार जेएनयू से पी.एच.डी. हैं. इनकी दिलचस्पी माइनॉरिटी और सोशल जस्टिस से जुड़े सवालों में हैं. आप अपनी राय इन्हें debatingissues@gmail.com पर भेज सकते हैं)
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