आज ‘दलित पैंथर’ का स्थापना दिवस है. आज से प्रायः साढ़े चार दशक पूर्व,1972 में 9 जुलाई को नामदेव लक्ष्मण ढसाल और उनके लेखक साथियों ने मिलकर इसकी स्थापना की थी. इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान अपमान से बोधशून्य आकांक्षाहीन दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया. इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलित समुदाय में जोश भर दिया, जिसके फलस्वरूप दलितों को अपनी ताकत का अहसास हुआ और उनमे ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई. इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही 15 अगस्त 1972 को राजा ढाले ने ‘साधना’के विशेषांक में ‘काला स्वतंत्रता दिवस’ लेख लिखकर तथा ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे, शासक दलों में हडकंप मचा दिया.
दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक अधिकारों को दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था. इस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और राजा ढाले जैसे जैसे क्रांतिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम ‘दलित पैंथर’ रख दिया. जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैंथरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित किया,जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ.
उसके घोषणापत्र में कहा गया,’दलित पैंथर आरपीआई के नेतृत्व की सौदेबाजी के खिलाफ एक विद्रोह है. अनुसूचित जातियां,जनजातियां,भूमिहीन श्रमिक, गरीब किसान हमारे मित्र हैं…वे सब लोग जो राजनीतिक और आर्थिक शोषण के शिकार हैं,वे सभी हमारे मित्र हैं. जमींदार,पूंजीपति,साहूकार और उनके एजेंट तथा सरकार जो शोषण के समर्थक तत्वों का समर्थन करती है, वे पैंथरों के दुश्मन हैं’. उसमें यह भी कहा गया,’हम आर्थिक ,राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में नियंत्रणकर्ता की हैसियत का प्राधान्य चाहते है…हम ब्राह्मणों के मध्य नहीं रहना चाहते.हम पूरे भारत पर शासन के पक्षधर हैं. मात्र ह्रदय परिवर्तन अथवा उदार शिक्षा अन्याय और शोषण को समाप्त नहीं कर सकते. हम क्रान्तिशील जनता को जागृत करेंगे और उन्हें संगठित करेंगे ताकि परिवर्तन हो सके. हमें विश्वास है कि जनसमूह में संघर्ष द्वारा क्रांति की ज्वाला जरुर जलेगी. क्योंकि हम जानते हैं कि कोई भी समाज-व्यवस्था मात्र रियायतों की मांग,चुनाव और सत्याग्रह के जरिये नहीं बदली जा सकती. हमारी सामाजिक क्रांति का विद्रोही विचार हमारे लोगों के दिलों में उत्पन्न होगा तथा तुरंत ही वह गर्म लोहे की भांति अस्तित्व में आयेगा.अंत में हमारा संघर्ष दासत्व की जंजीरों को तोड़ डालेगा.’
दलित पैंथर के घोषणापत्र ने जहां जागरूक दलितों और प्रगतिशील आम युवा पीढ़ी में हलचल पैदा की,वहीँ समाजवादी,साम्यवादी,प्रगतिशील लेखकों-विचारकों को झकझोर दिया.किन्तु तमाम खूबियों के बावजूद यह अपना घोषित लक्ष्य पाने में विफल रहा.’दलित पैंथर आन्दोलन’ पुस्तक के लेखक अजय कुमार के शब्दों में-‘यह आन्दोलन देश में दलित नेताओं और गैर-दलित नेताओं द्वारा अनुसूचित जाति के उद्धार के लिए चलाये गए अन्दोलनों से बिलकुल हट कर है तथा अपनी एक अमिट छाप छोड़ता है. दलित पैंथर आन्दोलन के प्रतिनिधियों ने पैंथरों की भांति ही काम किया तथा सरकार को अपनी मांगे मनवाने के लिए पूर्णतः तो नहीं लेकिन सर झुकाने को मजबूर जरुर कर दिया.परन्तु आंदोलनकारियों के आपसी मतभेदों के कारण यह संगठन अपने चरम बिंदु तक नहीं पहुँच सका. जो चिंगारी के रूप में भड़का वह जंगल में फैलनेवाली आग का रूप धारण नहीं कर सका क्योंकि इसके अंदर संगठनात्मक,संरचनात्मक, वित्त सम्बन्धी, सामंजस्य सम्बन्धी तथा विचारधारा विरोधी कमियां थी. यदि यह आन्दोलन इन सभी विरोधों को समाप्त करके एकल विचारधारा पर चलता तो शायद एक ऐसा आन्दोलन बन जाता कि भारतवर्ष से छुआछूत, अलगाव, अमीर-गरीब, नीच-उच्च, नैतिक-अनैतिक, पवित्र-अपवित्र का वैरभाव मिट जाता.’
यह सही है कि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुँच सका,तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक डॉ.आनंद तेलतुम्बडे,’इसने देश में स्थापित व्यवस्था की बुनियादों को हिला कर रख दिया और संक्षेप में यह दर्शाया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है. इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी हुई थी. अपने घोषणापत्र पर अमल करते हुए दलित पैंथरों ने दलित आन्दोलन के लिए राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थों में नई जमीन तोड़ी. उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की और उनके संघर्षों को पूरी दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्षों से जोड़ दिया.’ बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज भी कर सकता है, किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रअंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है.
दलित पैंथर आन्दोलन और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही दलित साहित्य से जुड़े हुए थे. दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया. परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित मराठी दलित साहित्य ,हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया.
बहरहाल जिन दिनों नामदेव ढसाल और उनके साथियों ने दलित पैंथर की स्थापना की, उन दिनों देश में विषमता की आज जैसी चौड़ी खाई नहीं थी.देश अपनी स्वाधीनता की रजत जयंती ही मनाया था और यह उम्मीद कहीं बची हुई थी कि देश के कर्णधार निकट भविष्य में उस आर्थिक और सामाजिक असमानता से पार पा लेंगे, जिसके खात्मे का आह्वान संविधान निर्माता ने 25 नवम्बर,1949 को किया था.लेकिन आज आजादी के प्रायः सात दशक बाद विषमता पहले से कई गुना बढ़ गयी है और भारत इस मामले में विश्व चैम्पियन बन गया है. भारत में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी का आलम यह है कि परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न और और विशेषाधिकारयुक्त अत्यन्त अल्पसंख्यक तबके का जहां शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, धार्मिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रत्येक क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है, वहीं परम्परागत रूप से तमाम क्षेत्रों से ही वंचित बहुसंख्यक तबका, जिसकी आबादी 85 प्रतिशत है, 15-20 प्रतिशत अवसरों पर आज भी जीवन निर्वाह करने के लिए विवश है. ऐसी गैर-बराबरी विश्व में कहीं और नहीं है. किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक-राजनीतिक–सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बंटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है. इस असमानता ने देश को ‘अतुल्य’ और ‘बहुजन’-भारत में बांटकर रख दिया है. चमकते अतुल्य भारत में जहां तेज़ी से लखपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीँ जो 84 करोड़ लोग 20 रूपये रोजाना पर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं,वे मुख्यतः बहुजन भारत के लोग हैं. उद्योग-व्यापार, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से लगभग पूरी तरह बहिष्कृत बहुजनों के लिए रोजगार के नाम पर अवसर मुख्यतः असंगठित क्षेत्र में है,जहाँ न प्राविडेंट फंड, वार्षिक छुट्टी व चिकित्सा की सुविधा है और न ही रोजगार की सुरक्षा.
इस मामले में 2015 के अक्तूबर में क्रेडिट सुइसे नामक एजेंसी ने वैश्विक धन बंटवारे पर जो अपनी छठवीं रिपोर्ट प्रस्तुत की है वह काबिले गौर है. रिपोर्ट बताती है कि सामाजिक-आर्थिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद भारत में तेजी से आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है. रिपोर्ट के मुताबिक 2000-15 के बीच जो कुल राष्ट्रीय धन पैदा हुआ उसका 81 प्रतिशत टॉप की दस प्रतिशत आबादी के पास गया. जाहिर है शेष निचली 90 प्रतिशत जनता के हिस्से में 19 प्रतिशत धन गया. 19 प्रतिशत धन की मालिक 90 प्रतिशत आबादी में भी नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के 4.1 प्रतिशत धन है. इस रिपोर्ट पर राय देते हुए एक अखबार ने लिखा-‘गैर-बराबरी अक्सर समाज में उथल-पुथल की वजह बनती है.सरकारी और सियासी पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए. संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण पुनर्वितरण कैसे हो,यह सवाल अब प्राथमिक महत्व का हो गया है.’इस बीच रोहित वेमुला की सांस्थानिक, प्रोफ़ेसर और एसोसियेट प्रोफ़ेसर के पदों पर ओबीसी आरक्षण का खात्मा सहित एसटी छात्रों के राजीव गांधी फेलोशिप पर रोक जैसी अन्य कई घटनाएं यह स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि हजारों साल से शिक्षालयों से बहिष्कृत रहे समुदायों को उच्च शिक्षा से दूर रखने का सुनियोजित प्रयास हो रहा है. यह सब हालात देखकर बहुजनों में वह सामाजिक असंतोष चरम पर पहुँच गया है, जो क्रांति को जन्म देता रहा है. विषमताजनित इसी उग्र सामाजिक असंतोष के चलते अमेरिका में ब्लैक पैंथर वजूद में आया, जिसके आंदोलनों के परिणामस्वरूप कालान्तर में अश्वेतों को अमेरिका के संपदा-संसाधनों सहित सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों,फिल्म-मीडिया सहित हार्वर्ड और नासा जैसे हाई-प्रोफाइल शिक्षण संस्थानों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी मिली.क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए आज भारत जैसे हालात कहीं नहीं है.किन्तु सब कुछ देखकर बहुजन समाज के नेता आँखे मूंदे हुए हैं. 70 के दशक में दलित नेतृत्व की यही अकर्मण्यता देख कर नामदेव ढसाल और उनके साथी दलित पैंथर की स्थापना के लिए आगे बढे थे. क्या वर्तमान भारत के बहुजन समाज का कोई छात्र, गुरुजन या लेखक भी नामदेव ढसाल की ऐतिहासिक भूमिका में अवतरित होगा?
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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