इलेक्टोरल बाण्ड रद्द होने से किसे लगेगा सबसे बड़ा झटका

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 एक वक्त था जब मान्वयर कांशीराम जैसे नेता एक नोट और एक वोट की बात करते थे। उस दौर में जनता के पैसे से चुनाव लड़ने पर जोर दिया था। तब लोकतंत्र मजबूत था और सरकारें स्वतंत्र। दौर बदला और बीते एक दशक में राजनीति 360 डिग्री घूम गई। राजनेताओं और बड़े-बड़े उद्योगपतियों के बीच दोस्ती होने लगी। लोकतंत्र कमजोर होने लगा और सरकारों के काम-काज में धन्नासेठों की दखल बढ़ने लगी।
इसी बीच ना खाऊंगा न खाने दूंगा का नारा देने वाले नरेन्द्र मोदी की सरकार साल 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को लेकर आई। इस स्कीम से राजनीतिक दलों को यह सुविधा मिली की उनको मिलने वाले पैसों का सोर्स बताने को वो बाध्य नहीं हैं। इसको आरटीआई से भी बाहर रखा गया। नतीजा यह हुआ कि तमाम पूंजीपति राजनीतिक दलों को सैकड़ों करोड़ रुपये पार्टी फंड में देने लगे। इस व्यवस्था ने जनता और नेताओं के रिश्ते को कमजोर किया और धन्नासेठों और सरकार की दोस्ती बढ़ा दी। चुनावी खर्चे बेहिसाब बढ़ने लगे। जनता से जुड़े नेताओं का चुनाव लड़ना मुश्किल हो गया। इसका सबसे ज्यादा नुकसान कमजोर वर्गों की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों और आम जनता को हुआ। तब मांग उठने लगी कि इलेक्टोरल बाण्ड के जरिये राजनीतिक दलों को कौन धन्नासेठ कितना पैसा देता है, यह जानकारी सामने आनी चाहिए। आठ साल के लंबे इंतजार के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अहम फैसला सुनाते हुए इस व्यवस्था को रद्द कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार की इलेक्टोरल बांड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द किया। इलेक्टोरल बॉन्ड् पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि “जनता का यह अधिकार है कि वह यह जान सके कि सरकार के पास पैसा कहां से आता है और कहां जाता है, चुनावी बॉन्ड सूचना के अधिकार का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा, चुनावी बॉन्ड योजना, अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है।”

कुछ दिन पीछे चलते हैं। हाल ही में बिहार में नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल का साथ छोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लिया। शक्ति परीक्षण के दौरान राष्ट्रीय जनता दल के तीन विधायक भाजपा-जदयू के खेमे में बैठे दिखे। आरोप लगा कि इन्हें लालच देकर अपने में मिला लिया गया है। महाराष्ट्र याद है न, रातों रात एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना से तमाम विधायक टूट कर अगल हो गए और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना लिया। पिछले कुछ सालों में भाजपा ने बिहार और महाराष्ट्र के अलावा मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा, हरियाणा और कर्नाटक में जोड़-तोड़ कर सरकार बनाई है। इसी तरह कांग्रेस ने राजस्थान में बहुजन समाज पार्टी के छह विधायकों को तोड़ कर बसपा को जीरो कर दिया था।
राजनीतिक दल चाहे जो दलील दें, ऐसे तमाम मामलों में हजारों करोड़ रुपये का खेल होता है। विधायकों को अपने में मिलाने की कीमत कई सौ करोड़ों में लगाई जाती है। राजनीतिक दलों के पास ये बेहिसाब पैसा इलेक्टोरल बाण्ड के जरिये पहुंचता है। यह वो पैसा है जो बड़े उद्योगपति राजनीतिक दलों को देते हैं और इसके बारे में जानकारी छुपा कर रखी जाती है कि राजनीतिक दलों को किस उद्योग घराने से कितने पैसे मिले। इन पैसों को सार्वजनिक करने की मांग लंबे समय से उठ रही थी।
कोर्ट ने कहा इलेक्टोरल बांड असंवैधानिक है। चुनावी चंदे में पारदर्शिता और जनता के राइट टू इनफार्मेशन अधिकार का हनन है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी बैंकों को तत्काल प्रभाव से इलेक्टोरल बांड ना जारी करने का आदेश दिया। साथ ही स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को आदेश दिया है कि वह 31 मार्च तक आज की तारीख तक जारी किए गए सभी इलेक्टोरल बांड की पूरी जानकारी चुनाव आयोग को दे जिसे चुनाव आयोग 13 अप्रैल तक अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक करेगा।
यह रकम कितनी बड़ी होती है, इसको जानने के लिए यह आंकड़ा देखिए।

 

2018-19 में इलेक्टोरल बाण्ड के जरिये भाजपा को 1450 करोड़ रुपये और कांग्रेस को 383 करोड़ रुपये मिले थे।
2019-20 में भाजपा को 2555 करोड़ रुपये और कांग्रेस को 318 करोड़ रुपये मिले थे। 2020-21 में भाजपा को 22.38 करोड़ औऱ कांग्रेस को 10.07 करोड़ रुपये मिले थें। 2021-22 में भाजपा को 1032 करोड़ और कांग्रेस को 236 करोड़ रुपये मिले थे। इसी तरह एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट के मुताबिक 2022-23 में भाजपा को 90 फीसदी कॉरपोरेट डोनेशन मिला है।
साफ है कि इलेक्टोरल बॉन्ड ने राजनीति के भीतर भ्रष्टाचार को बेलगाम बढ़ाने का काम किया। इसने राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता को खत्म किया और सत्ताधारी पार्टियों खासकर भाजपा को सीधे लाभ पहुंचाया। साफ है कि इस फैसले के बाद राजनीतिक दलों और धन्नासेठों के बीच का रिश्ता अब जनता के सामने आ जाएगा।

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