दलित समाज के प्रखर बुद्धिजीवि और बिहार कैडर में 1973 बैच के आईएएस अधिकारी डॉ. ए. के. बिस्वास का 28 फरवरी को निधन हो गया। डॉ. बिस्वास लंबे समय से बीमार थे। उन्होंने कोलकाता में अपनी अंतिम सांस ली। उनके जीवन की कहानी संघर्ष भरी रही। उनका जन्म जैसोर जिले (अब बांग्लादेश) में हुआ था। देश विभाजन के फलस्वरूप वो अकेले नंगे पैर पैदल चलकर सीमा पार कर अपनी बहन के घर बोगांव पहुँचा। छोटे बालक ने अपने बहन के परिवार के बच्चों के बीच उन्हें भी शिक्षा देते हुए अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की।
प्रतिकूल परिस्थितियों में उन्होंने अपनी स्नातक की डिग्री और अर्थशास्त्र में एम.ए. की डिग्री कोलकाता विश्वविद्यालय से प्राप्त की। फिर पश्चिम बंगाल प्रांतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में उत्तर बंगाल में डिप्टी कलेक्टर के रूप में कार्य किया। इसके बाद उन्होंने यू.पी.एस.सी. पास किया और बिहार कैडर में 1973 बैच के आई.ए.एस. में शामिल हुए।
जब वे मुजफ्फरपुर के आयुक्त के रूप में कार्यरत थे, तब उन्होंने अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. की। वह बिहार के डॉ. बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के पहले कुलपति नियुक्त किये गए। वो इस पद पर लंबे समय तक रहें। एक ईमानदार, प्रभावशाली और सक्षम नौकरशाह के रूप में कई चुनौतीपूर्ण विभागों में सेवा देने के बाद वे 2007 में विद्युत और ऊर्जा विभाग के प्रधान सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
अपने चुनौतीपूर्ण नौकरशाही जीवन के बावजूद वे हमेशा बहुजन समाज की सेवा के लिए आगे बढ़ते रहे। एक बार उनके रिपोर्टिंग अधिकारी ने उनकी एसीआर में नकारात्मक टिप्पणी की थी कि वे केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकारियों की मदद करने के लिए आगे बढ़ते हैं, जिसे संप्रेषित किया गया था, और उन्हें इसका बचाव करना पड़ा था। वह लेखन के जरिये भी सक्रिय थे। उन्होंने ईपीडब्ल्यू, अदल बदल, मेनस्ट्रीम, दलित वॉयस आदि सहित विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में दलित मुद्दों पर कई बौद्धिक लेख लिखे थे। वह ‘अन्नेसन’; “अंडरस्टैंडिंग बिहार” जैसी किताबों के लेखक भी थे।
डॉ. बिस्वास अंबेडकरी विचारधारा से ओत प्रोत थे। खबर है कि अपने जीवन के अंतिम दिन 28 फरवरी, 2025 की दोपहर को जब उन्हें घर ले जाने के लिए कोलकाता के अपोलो अस्पताल से छुट्टी दी गई, तो नर्सिंग अर्दली ने उन्हें अस्पताल के बाहर स्थित मंदिर में हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का अनुरोध किया। डॉ. बिस्वास ने ऐसा करने से सख्त लहजे में मना कर दिया। इससे उनके वैचारिकी प्रतिबद्धता को समझा जा सकता है। उनके परिवार में दो बेटे हैं, जिनमें से एक अमेरिका में बसा हुआ है और दूसरा दिल्ली में भारत सरकार की सेवा में है, साथ ही उनकी बहुएँ और उनकी पत्नी हैं।
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इं. राजेन्द्र प्रसाद सामाजिक चिंतक हैं। वे निरंतर लेखन के जरिये सक्रिय हैं। ‘संत गाडगे और उनका जीवन संघर्ष’ और ‘जगजीवन राम और उनका नेतृत्व’ उनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं। वे पटना में रहते हैं।