कई बार व्यवहारिक जीवन के उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए इस बात का एहसास हुआ कि फर्राटेदार अँग्रेजी ना बोल पाना पिछड़ापन है बरक्स हिन्दी बोलने के. बहुत बार तो इस बात की कसीस दोस्तों-रिश्तेदारों के साथ बिताए गए पलों में ज्यादातर समय देखने को मिले. बहुतेरे मित्र यह बात समझते हुए वाद-संवाद हिन्दी में ही करने की कोशिश करते हैं. कुछ लोगों के लिए अँग्रेजी ना बोल पाना तो उन्हें सीधे कॉलर पकड़ कर मूर्खों के कतार में ले जाकर खड़ा कर देना जैसा ही है. मतलब आप अंग्रेजी भाषा का बात-बात पर प्रयोग करते हुए दिख रहे हैं तो आप बहुत बड़े विद्वेषी हैं वरना मूर्ख. आज तक यह बात नहीं समझ पाया कि जो सहज होकर अंग्रेजी भाषा का प्रयोग नहीं कर पाते या फिर नहीं बोल पाते हैं वो वाकई ऐसे प्रबुद्धजनों के नजरिए में मूर्ख हैं या फिर उनके प्रति इस तरह की नजरिया रखने वाला ही तो मूर्ख नहीं. अंग्रेजी को लेकर खास तरह का टेबू बना हुआ है.
बहुत उधेड़बुन टाइप महसूस होने लग जाता है. जानने की जिज्ञासा बढ़ जाती है. कभी-कभार तो सोचने लग जाता हूं. प्रबुद्ध से पूछ ही लिया जाए क्या? फिर ठहरकर खुद को नकारात्मकता के तरफ से सकारात्मकता की तरफ ध्यान केंद्रित करने में समय खर्च कर देता हूं. किसी ऑफिस में प्रवेश करते ही प्रायः किसी बड़े पद पर विराजमान अधिकारी जब अंग्रेजी से ही अपनी बात की शुरुआत करते हैं तो थोड़ी देर के लिए अचंभित हो उठता हूं. मुझे महसूस होने लगता है आखिर साहेब के टेबल के सामने खड़ा इंसान उस अधिकारी के प्रति क्या सोच रहा होगा. जिसे अंग्रेजी के शब्दों से कभी भेंट ही नहीं हुई हो. अंग्रेजी ही क्यों व्यक्तितौर पर मुझे किसी भी भाषा से कोई कोफ्त नहीं है बल्कि आधा भारत जो गांवों में रहता है उनके बारे में चिंतित हो जाता हूं. उनको सोचने के बाद व्यथित हो उठता हूं.
गांव में रहने वाले मुझे वो बच्चे याद आने लगते हैं और कई बार तो जहन से चेहरा तक नहीं उतरता जो अपने गांव का सरकारी स्कूल के कमरे में नीचे बैठकर बार-बार छत को निहार रहा होता है. मुझे वो आदमी का चेहरा जहन से नहीं उतर पाता है जो कड़ाके व मुसलाधार बारिश के बीच अपने खेतों में काम कर रहा होता है और अचानक किसी दिन उसका कृषि पदाधिकारी से मुलाकात हो जाती है और वो अपने संबोधन में प्रणाम करता है और साहब प्रणाम का उत्तर गुड मार्निंग से देते हैं. अंग्रेजी ना बोल पाने या फिर किसी कारणवश ना समझने के वजह से कई बार हम उस शख्सियत का भरे महफिल या फिर सार्वजनिक स्थानों पर हंसी उड़ाते हैं. उस पर तरह-तरह का व्यंग बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.
अंग्रेजी ना बोल पाने वालों का मजाक उड़ाते हैं. कोई अंग्रेजी नहीं बोल पाता है तो अंग्रेजी ना बोलने के लहजे में मजाक उड़ा कर खुश हो लेते हैं. यह हमारे दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बन चुका है. अंग्रेजी ना बोल पाने वालों के इस कमी का फायदा उठाकर बड़े-बड़े अंग्रेजी इंस्टीच्यूट ने अपने विज्ञापन व प्रचार-प्रसार करने तक का हिस्सा तक बना लिया है. बाजार के दबाव के बीच ऐसे मासूम लोग फंस भी जाते हैं.चंद महीनों में ही फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने की गारंटी के साथ अंग्रेजी कोचिंग इंस्टीच्यूट अच्छी खासी रकम भी कमाती है. चंद महीने में अंग्रेजी सीखा देने वाला कोचिंग का बड़े-बड़े महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक बड़े-बड़े विज्ञापन-हार्डिंग यंत्र-तंत्र दिवारों पर, सार्वजनिक स्थानों पर चिपका मिलेगा.
खैर,इस भेड़चाल में अंजाने में कुछ समझदार लोग भी शामिल हो जाते हैं. मतलब शहर से जब लोग गांव आते हैं तो धोती-कुर्ता या फिर अपने पूर्वजों के परंपरा का निर्वहन नहीं करने वालों पर यही समान्य बात लागू हो जाता है. गांव के बड़े-बुजुर्ग लोग भी इस परंपरा को निर्वाह ना करने पर मजाक बनाते हैं. उन्हें विलायती बाबू और ना जाने क्या-क्या उपमा देने लग जाते हैं. उनपर जहां-तहां तल्ख टिप्पणियां शुरू हो जाती है. मतलब जो धोती-कुर्ता या फिर पूर्वजों के संस्कृति का पालन नहीं कर रहा है तो वो इंसान बेअक्ल है. इस तरह की आदत तो अब राष्ट्रीय आदतों में बेशुमार हो चुका है. इसे तो अब तो पुरूस्कार मिल जाना चाहिए था. हम इसके आदी हो चुके हैं.
जो अंग्रेजी धाराप्रवाह बोलता है वही केवल विद्वान के श्रेणी में कैसे शामिल किया जा सकता है? क्या अंग्रेजी बोलना विद्वान होने का मापदंड हो सकता है? यह प्रवृत्ति बहुत तेजी के साथ निर्विघ्न होकर फल-फूल रहा है. यह भी एक तरह की मानसिकता है. क्या जो अंग्रेजी बोलेगा वही केवल समाज के गिने-चुने नामचीन लोगों के बीच स्थापित होगा? यह कुछ भी नहीं, बस अपने आप में श्रेष्ठताबोध की निशानी है. खुद पर अंग्रेजी बोलने का गुरूर सवार है. हिन्दीहीन भावना और अंग्रेजी मतलब उच्च संस्कार और मार्डन युग. मुझे ऐसे लोगों पर बस तरस आता है जो श्रेष्ठताबोध के बीच अगले को हीनताभाव से देखता है. खैर, भारत में हिन्दी पट्टी के लोगों के साथ संभावित यह दोष कह लीजिए या फिर कुछ भी लेकिन अधिक पाया जाता है. वे धाराप्रवाह अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं. ज्ञानार्जन का उपलब्धि अंग्रेजी तो कतई नहीं हो सकता.
नोट- मुझे देश के तमाम भाषाओं से सान्निध्य प्रेम है आप इस पोस्ट से अंग्रेजी को लेकर मेरे प्रति कोफ्त का नजरिया मत पाल लीजिएगा. मैं किसी भी भाषा का उतना ही सम्मान करता हूं जितना दूसरों से खुद का सम्मान चाहता हूं.
आशुतोष आर्यन की फेसबुक वॉल से

दलित दस्तक (Dalit Dastak) साल 2012 से लगातार दलित-आदिवासी (Marginalized) समाज की आवाज उठा रहा है। मासिक पत्रिका के तौर पर शुरू हुआ दलित दस्तक आज वेबसाइट, यू-ट्यूब और प्रकाशन संस्थान (दास पब्लिकेशन) के तौर पर काम कर रहा है। इसके संपादक अशोक कुमार (अशोक दास) 2006 से पत्रकारिता में हैं और तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं। Bahujanbooks.com नाम से हमारी वेबसाइट भी है, जहां से बहुजन साहित्य को ऑनलाइन बुक किया जा सकता है। दलित-बहुजन समाज की खबरों के लिए दलित दस्तक को सोशल मीडिया पर लाइक और फॉलो करिए। हम तक खबर पहुंचाने के लिए हमें dalitdastak@gmail.com पर ई-मेल करें या 9013942612 पर व्हाट्सएप करें।