हिंदी पट्टी में बॉलीवुड के अस्पृश्य व अस्पृश्यता पर फिल्मों का भीषण अकाल रहा है. किसी भी सुपरस्टार जैसे दिलीपी कुमार, राजकुमार, राजेश खन्ना, मनोज कुमार या आज के हिंदी सिनेमा जगत के सुपरस्टार सलमान, आमिर, अमिताभ, धर्मेंद्र किसी ने भी अस्पृश्य समाज के व्यक्ति का किरदार नहीं निभाया है. ना ही किसी निर्देशक ने फिल्म बनाने की हिम्मत की और ना ही सवाल तक उठाया.
काला, आक्रोश, दामूल जैसी फिल्मों ने सामंतवाद की ज्यातदी पर फिल्म बनाई लेकिन कभी अस्पृश्य व अस्पृश्यता (सामाजिक व्यवस्था) पर फिल्म नहीं बनाई. पहली बार 1930 में सुजाता एवं अछूत कन्या जैसी फिल्म बनतीं हैं इनमें नायिकाएं अछूत हुआ करतीं थीं लेकिन नायक सवर्ण समाज का होता था. यह भी समाज में स्थापित मूलसंगत था क्योंकि समाज में अनुलोम विवाह जायज था. इससे स्थापित हुआ कि निम्न वर्ग की कन्याओं का उत्थान उच्च वर्ग का पुरुष कर सकता है.
यही धर्म सम्मत व्यवस्था 1980 में सौतन जैसी फिल्म में देखने को मिली. इसमें निम्न जाति की लड़की सवर्ण जाति के लड़के लिए न्यौछावर कर देती है. किंतु कोई भी सुपरस्टार निम्न जाति के रोल में नहीं दिखता है. 1980 के दशक फिल्म गुलामी में पुलिस वाला था जिसके बच्चे को घोड़े पर बारात नहीं निकालने दी क्योंकि वह निम्न वर्ग का था. हालांकि साफ तौर जाति तो नहीं दिखाई लेकिन फिल्म में कुलभूषण खरबंदा एक साइड कैरेक्टर थे जबकि लीड रोल में धर्मेंद्र थे.
नब्बे के दशक में पहली बार बाबा साहेब बीआर अंबेडकर पर ममूति ने किरदार निभाया जो कि साउथ के हीरो थे और वह फिल्म बनी लेकिन मुख्यधारा के सिनेमाघरों में लगाई ना जा सकी. मुझे याद है कि 1992-93 में रिलीज होने यूपी में आई जब मायावती का शासन था लेकिन काफी कोशिश के बाद उत्तर प्रदेश के कुछ सिनेमाघरों में लगाई गई लेकिन सिनेमा मालिकों के साजिशन जल्द ही उतार दी गई. यानी कुछ ही हफ्तों में निकाल दी गई. अस्पृश्य समाज के नायक पर जब फिल्म बनती है तो समाज कैसे उसे स्वीकार नहीं करता है. 2000 के आसपास लगान फिल्म के अंदर आमिर खान ने कचरा एक अस्पृश्य कैरेक्टर को दिखाया लेकिन वह मुख्य किरदार नहीं था यहां पर भी साइड कैरेक्टर के तौर दिखाया गया.
एकलव्य फिल्म बनी जिसमें पन्नालाल जौहार जिसमें पहली बार किसी उत्तर भारत के सुपरस्टार ने अस्पृश्य नायक का किरदार निभाया था लेकिन यहां पर मुख्य कलाकार के तौर अमिताभ बच्चन व सैफ अली खान को दिखाया गया और संजय दत्त के रोल को साइड हीरो के तौर पर प्रस्तुत किया गया. आक्रोश एक ऐसी पिक्चर है जिसमें जिसमें विधिवत सुपस्टार अजय देवगन अस्पृश्य समाज के हीरो हैं व कैरेक्टर हैं. लेकिन यहां भी अजय देवगन अपने शिक्षक की लड़की को छोड़ देते हैं तो यहां पर भी दिखाया गया कि अस्पृश्य समाज को हीं कुर्बानी देनी पड़ी. लगातार हमनें देखा कि फिल्म के आरंभ से धर्म, परंपरा, राजा-रजवाड़ों, सामंतवाद पर अधारित फिल्म बनीं लेकिन अस्पृश्य समाज के किरदार पर फिल्मों का भारी अकाल रहा है.
21 वीं सदी में पहली बार साउथ का सुपस्टार रजनीकांत फिल्म काला में दलित समाज के चिन्हों (बुध्द धम्म, नीला झंडा, काला निशान) को लिए हुए आता है. आरक्षण में सैफ अली खान छोटी जात को प्रदर्शित करते हैं और दलित चिन्हों के साथ दिखाए जाते हैं लेकिन उनको साम्यावाद का रंग दे दिया जाता है. लेकिन लीड रोल में अमिताभ बच्चन का रोल इसे छुपा देता है. दलितों को आज भी नेपथ्य में रखा जाता है. काला फिल्म को आज भी दलितों या निम्न समाज को दिखाती है लेकिन सवर्ण समाज को नागवार गुजर रहा है. इससे पता चलता है कि आज भी उच्च जाति वाला समाज दलितों को किस नजरिए से देखता है.
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प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।