अगड़ा-पिछड़ा केन्द्रित हुआ चुनाव का पहला चरण

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फाइल फोटो

सात चरणों में पूरा होने वाले 17 वीं लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 18 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों की 91सीटों पर मतदान संपन्न हो चुका है. कुछ जगहों पर छिटफुट हिंसा की घटनाओं के बावजूद जम्मू कश्मीर सहित सभी क्षेत्रों में चुनाव मोटामोटी शांतिपूर्ण रहा. पहले चरण में कुल 90 करोड़ वोटरों में से 14 करोड़ मतदान के पात्र रहे, जिनमें लगभग 60 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. बहरहाल पहले चरण के मतदान से विपक्ष एकाधिक कारणों से खासा उत्साहित है. खासकर जिस यूपी से देश की राजनीति की दिशा तय होती है, वहां के विपक्षी गठबंधन के नेता और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं है. पहले चरण के रुझान को देखकर उन्हें ऐसा लगता है मानो बहुजनवादी गठबंधन सत्ता में आ रहा है. उनकी ख़ुशी का सबसे बड़ा कारण यह है कि पश्चिमी यूपी की जिन सीटों पर भाजपा 2014 में विजयी रही, वहां इस बार चुनाव धर्म और सम्प्रदाय: हिन्दू –मुस्लिम की जगह अगड़ा-पिछड़ा पर केन्द्रित नजर आया जिसमें जातीय समीकरण ज्यादा प्रभावी नजर आया.

 यहाँ दस जिलों के आठ संसदीय क्षेत्रों में गत वर्ष के 65.76 के मुकाबले दो प्रतिशत कम, 63.69 मत कम पड़े, किन्तु मतदान की क़तार में खड़े लोगों की शक्लें देखने के बाद प्रतीत होता है कि जो दो प्रतिशत कम लोग बूथों पर पहुंचे वे अगड़े वर्गों के थे. बहरहाल यदि पश्चिमी यूपी में जातीय समीकरण काम कर जाता है, जिसका कयास राजनीति के अधिकांश जानकार लगा रहे हैं तो बसपा-सपा और रालोद गठबंधन चमत्कार घटित कर सकता है. यूपी की भाँति ही बिहार में भी चुनाव अगड़ा  बनाम पिछड़ा पर केन्द्रित होने जा रहा है, इसका साक्ष्य पहले चरण में 40 में से चार सीटों पर हुए चुनाव में दिखा. वहां पहले चरण के मतदान के बाद जिस तरह मौसम विज्ञानी के पुत्र के जमुई के बाद अब हाजीपुर से भी परचा भरने की खबर आई है, उससे लागता है एनडीए के लिए 17 वीं लोकसभा चुनाव दु:स्वप्न बनने जा रहा है. ऐसा कयास लगाने के पीछे भाजपा के कद्दावर नेता नितिन गडकरी में पहले चरण के चुनाव के बाद उपजा असुरक्षाबोध भी सहायक हो रहा है. कुल मिलाकर पहले चरण के चुनाव के बाद राजनितिक विश्लेषकों की जो राय सामने आ रही है उससे लग रहा है कि विपक्ष यदि इवीएम की गड़बड़ियों पर काबू पा ले तो उसके अच्छे दिन आना तय हैं.

                    विपक्ष को सोचना होगा इवीएम् से आगे 

बहरहाल इसमे कोई शक नहीं कि पहले चरण के मतदान के बाद विपक्षी गठबंधन के नेताओं और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को लगता है कि यदि इवीएम की गड़बड़ियों को रोक लें तो 23 मई को जो चुनाव परिणाम निकलेगा, उसमें वे विजेता के रूप में दिखेंगे. वैसे इवीएम को लेकर विपक्ष की चिंता जायज है ,क्योंकि कई जगह से ऐसी खबरे आई हैं. लेकिन इस लेखक का मानना है कि विपक्ष यदि सारा ध्यान-ज्ञान मुख्यतः इवीएम पर ही केन्द्रित करेगा तो गच्चा खा जायेगा. पहले चरण का रुझान सामने आने के बाद भाजपा सर्वशक्ति से अगले चरणों में उतरने का प्रयास करेगी. इसलिए जब पहले चरण के चुनाव विपक्ष के लिए सकारात्मक सन्देश लेकर आये हैं तब उसे चाहिए कि भाजपा के शक्ति के स्रोतों का नए सिरे से आंकलन कर बाकी के शेष चरणों में उसके अनुरूप रणनीति बनाये.

                    आरएसएस: भाजपा की शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत

 अब जहाँ तक भाजपा की शक्ति के स्रोतों का सवाल है, विपक्ष को यह बात धयान में रखना होगा कि जिस  भाजपा के पास विश्व में सर्वाधिक,10 करोड़ से ज्यादे सदस्य हैं, उसके वर्तमान में 12 राज्यों में खुद के एवं 4 में गठबंधन के मुख्यमंत्री सरकार चला रहे हैं. केंद्र से लेकर राज्यों तक इतनी मजबूती से जिस भाजपा की सत्ता कायम है, उसका मातृ-संगठन आरएसएस ही उसकी शक्ति का प्रमुख स्रोत है, इससे हर कोई वाकिफ है. अपने किस्म के विश्व के इकलौते संगठन आरएसएस के भारतीय मजदूर संघ, सेवा भारती, राष्ट्रीय सेविका समिति, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, बजरंग दल, अनुसूचित जाति आरक्षण बचाओ परिषद, लघु उद्योग भारती, भारतीय विचार केंद्र , विश्व संवाद केंद्र, राष्ट्रीय सिख संगठन, विवेकानंद केंद्र और खुद भारतीय जनता पार्टी सहित दो दर्जन से अधिक आनुषांगिक संगठन हैं, जिनके साथ 28 हजार, 500 विद्यामंदिर, 2 लाख 80 हजार आचार्य, 48 लाख,59 हजार छात्र, 83 लाख,18 हजार, 348 मजदूर, 595 प्रकाशन समूह, 1 लाख पूर्व सैनिक, 6 लाख 85  हजार वीएचपी-बजरंग दल के सदस्य जुड़े हुए हैं. यही नहीं इसके साथ बेहद समर्पित व ईमानदार 4 हजार पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता हैं, जो देश भर में फैले 56 हजार, 859 शाखाओं में कार्यरत 55 लाख, 20 हजार स्वयंसेवकों के साथ मिलकर इसके राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को बल प्रदान करते हैं. आज संघ के उसी राजनीतिक संगठन के मुखिया नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा अप्रतिरोध्य बनकर उभरी है. संघ के बाद भाजपा के दूसरे प्रमुख शक्ति के स्रोत में नजर आते हैं, वे साधु-संत जिनका चरण-रज लेकर देश के कई पीएम-सीएम और राष्ट्रपति-राज्यपाल तक खुद को धन्य महसूस करते रहे हैं.

मंडलोत्तर काल में गृह-त्यागी प्रायः 90 प्रतिशत साधु समाज का आशीर्वाद भाजपा के साथ रहा है. चूँकि संघ का लक्ष्य अपने राजनीतिक संगठन के जरिये ब्राह्मणों के नेतृत्व में सवर्ण-हित का पोषण करना रहा है और साधु-संत प्रधानतः सवर्ण समुदाय से आते हैं, इसलिए उन्होंने स्व-जाति हित के लिए परलोक सुख से ध्यान इहलोक की ओर करने में कोताही नहीं की, जिसका भरपूर लाभ  आजतक भाजपा को मिलता रहा है . अगर भाजपा साधु-संतों के प्रबल समर्थन से भाजपा पुष्ट नहीं होती,अप्रतिरोध्य बनना शायद उसके लिए दुष्कर होता. इन साधु-संतों में इतना दम है कि यदि ये चाह दें तो रातो-रात चुनाव अगड़ा-पिछड़ा के बजाय हिन्दू-मुस्लिम पर केन्द्रित कर भाजपा के अनुकूल हालात बना दें.

             विपक्ष को पार पाना होगा भाजपा का प्रवक्ता बने चैनलों से

    शक्ति के स्रोत के रूप में रूप में तीसरे नंबर पर मीडिया (प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक्स) को चिन्हित किये जाने से भी शायद कम ही लोगों को आपत्ति होगी. हालाँकि पिछली सदी में मीडिया मुख्यतः अख़बारों-रेडियो तक सीमित रहने के कारण बहुत प्रभावी भूमिका अदा करने में सक्षम नहीं थी.किन्तु नयी सदी में चैनलों के विस्तार के बाद  मीडिया ने सत्ता को प्रभावित करने की बेइंतहा शक्ति अर्जित कर ली है. चूँकि मीडिया में सवर्णों का एकाधिकार है और भाजपा सवर्ण हितों की चैम्पियन पार्टी के रूप में उभरी है, इसलिए आज चैनल भाजपा के प्रवक्ता की भूमिका में आ गए हैं. ऐसे में जनमत निर्माण में बेहद सक्षम सवर्णवादी मीडिया से भी निपटने के लिए विपक्ष को तैयार रहना होगा. शुरू से ही भाजपा की पहचान मुख्यतः ब्राहमण-क्षत्रिय –बनियों की पार्टी के रूप में  रही है. इनमें बनिया कौन! भारत का धनपति वर्ग ही तो ! भाजपा से बनियों के लगाव में आज भी रत्ती भर कमी नहीं आई है. ऐसे में कहा जा सकता है कि आज की तारीख में भारतीय पूंजीपति वर्ग से प्रायः 90 प्रतिशत उपकृत होने वाली राजनीतिक पार्टी भाजपा ही है. सिर्फ साधु-संत, लेखक-पत्रकार और पूंजीपति ही नहीं, खेल-कूद,फिल्म-टीवी जगत के प्रायः 90 सेलेब्रिटी भाजपा के साथ ही हैं. यह भाजपा की शक्ति का कितना बड़ा स्रोत है, इसका अंदाजा वे ही लगा सकते हैं, जिन्होंने अतीत में शत्रुघ्न सिन्हा,विनोद खन्ना,नवजोत सिंह सिद्धू के साथ हेमा मालिनी, चेतन चौहान, मनोज तिवारी, स्मृति ईरानी इत्यादि की सभाओं में जुटने वाली भीड़ का जायजा लिया है.

हालाँकि अब शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, सिद्धू की सेवाएँ भाजपा के साथ नहीं हैं, पर अब इसके साथ हिंदी पट्टी का निरहुआ जुड़ गया है. भाजपा की शक्ति का एक बड़ा स्रोत सवर्ण मतदाता हैं, जो एकाधिक मतदाताओं प्रभावित करने की क्षमता रखता है. इस मतदाता वर्ग का प्रायः 90-95 प्रतिशत हिस्सा इसी के साथ है, जो यह सोचकर साथ देता है कि भाजपा सत्ता में आयेगी तो आरक्षण का खत्मा कर देगी. मोदी ने उनकी यह प्रत्याशा पूरी करने के साथ, जिस तरह सवर्णों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण सुलभ कराया है, उससे यह वर्ग और मजबूती से उसके साथ खड़ा हो गया है. भाजपा के शक्ति के स्रोतों की तलाश में निकलने पर कोई भी उसके वक्ता-प्रवक्ताओं को नजरंदाज नहीं कर सकता. गोएबल्स सिद्धांत में निपुण संघ द्वारा प्रशिक्षित भाजपा के प्रवक्ता इतने कुशल होते हैं कि लोग उनके कुतर्कों को भी मुग्धभाव से सुनने के लिए बाध्य हो जाते हैं. संघ शाखाओं में सबसे ज्यादा जोर उन्हें इतना कुशल वक्ता बनाने पर दिया जाता है कि असत्य को भी सफलता से सत्य में परिणित कर लेते हैं. इनके समक्ष विपक्षी प्रवक्ता करुणा पात्र लगते हैं. लेकिन भाजपा की शक्ति के स्रोत के रूप में देश-विदेश का कोई भी व्यक्ति जिसकी अनदेखी नहीं कर सकता, उसका नाम है नरेंद्र मोदी. मोदी संघ से निकले ऐसे दुर्लभ रत्न हैं, जिन्हें अद्विति कहना कहीं से भी ज्यादती नहीं होगी. हालाँकि लोगों के खाते में 15 लाख जमा कराने,हर साल युवाओं को दो करोड़ नौकरियां सुलभ करने इत्यादि के मोर्चे पर बुरी तरह विफल होने के बाद मोदी पहले की तरह प्रभावी नहीं रह गए हैं. बावजूद इसके आज भी वे विपक्ष के नेताओं से मीलों आगे हैं.

भाजपा को खिलाना होगा सामाजिक न्याय की पिच पर   

भाजपा की शक्ति के उपरोक्त स्रोत बताते हैं कि अंतिम चरण का चुनाव शेष होने के पहले तक विपक्ष को संतुष्ट होने का जरा भी अवसर नहीं है, भले ही पहले चरण का रुझान उसके पक्ष में जाता क्यों न दिखाई दे रहा हो. दुनिया की सबसे शक्तिशाली पार्टी कभी भी चुनावी फिजा बदल सकती है. ऐसे में आज जबकि लगभग एक दशक बाद चुनाव अगड़ा-पिछड़ा अर्थात सामाजिक न्याय पर केन्द्रित होता दिख रहा है, विपक्ष को चाहिए अपनी सारी शक्ति भाजपा को सामाजिक न्याय के उस चुनावी पिच पर खिलाने में लगा दें, जिस पर स्कोर करने में वह कभी सफल नहीं हो पाई है. बिहार विधानसभा-2015 इसका एक उज्जवल मिसाल है. उस चुनाव में आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत ने सिर्फ आरक्षण की समीक्षा की बात उठाई थी, जिस पर लालू प्रसाद यादव ने पलटवार करते हुए कहा था, ’तुम आरक्षण का खात्मा करना चाहते हो, हम सत्ता में आयेंगे तो संख्यानुपात में आरक्षण बढ़ाएंगे.’ मोदी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर रहकर भी लालू के उस पलटवार का योग्य जवाब न दे सके और शर्मनाक हार झेलने के लिए विवश रहे. आज भाजपा के लिए स्थितियां और बदतर हुई हैं. पांच साल के अपने कार्यकाल में आरक्षण को कागजों की शोभा बनानेवाले मोदी की लोकप्रियता निम्नतर बिंदु पर पहुँच चुकी है.

 सवर्ण और विभागवार आरक्षण लागू कर वह सामाजिक न्याय के सबसे बड़े खलनायक बन चुके हैं. खासकर 9 जनवरी को संसद में पारित सवर्ण आरक्षण की प्रतिक्रिया में आरक्षित वर्गों के बुद्धिजीवियों से लेकर आमलोगों में रातो-रात संख्यानुपात में आरक्षण की तीव्र चाह पैदा हुई है, जिसका अनुमान लगाते हुए बहुजनवादी दलों के नेताओं ने जिसकी जितनी सख्या भारी के आधार पर आरक्षण की मांग उठाई. बात वहीँ तक सीमित नहीं रही. आज सामाजिक न्याय की सबसे बड़े प्रतीक तेजस्वी यादव ने जिसकी जीतनी संख्या भारी पर अपना घोषणापत्र केन्द्रित करते हुए निजीक्षेत्र, प्रमोशन और न्यायपालिका इत्यादि सहित अन्य कई क्षेत्रों में संख्यानुपात में आरक्षण की मांग उठा दी है. पूरा बहुजन समाज ही चाहता है कि तेजस्वी यादव की भाँति दूसरे बहुजनवादी नेता भी आरक्षण को विस्तार देने की बात करें. समय के मांग है कि लोगों की चाह का अनुमान लगाते हुए तमाम बहुजनवादी दल ही निजीक्षेत्र, प्रमोशन, न्यायपालिका, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों इत्यादि में संख्यानुपात में आरक्षण की बात उठावें. अगर वे ऐसा करते हैं, पहले चरण के चुनाव का जो रुझान आया है, वह अंत तक बना रहेगा, इसमें रत्ती भर भी संदेह ही नहीं है.

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क: 9654816191     

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