आज के दिन बर्बस साहिर लुधियानवी का शेर याद आता है. मैं तो अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर लोग साथ आते गए, कारवां बनता गया. साथियों दलित दस्तक के पांच वर्ष पूरे होने पर पूरे बहुजन समाज को बहुत-बहुत साधुवाद. बहुजन समाज को इसलिए साधुवाद क्योंकि अगर बहुजन समाज ने दलित दस्तक का सहयोग न किया होता तो शायद यह पत्रिका वजूद में न आई होती. अतः बहुजन समाज के उन लोगों को अपनी पीठ थपथपानी चाहिए जिन्होंने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पत्रिका का सहयोग किया है.
पत्रिका का क्या बल्कि उन्होंने अपना और अपने समाज का सहयोग किया है. और एक छोटी सी शुरुआत को पांच वर्षों तक अपनी सोच, अपने जज्बे और खून पसीने की कमाई से सींच कर एक आंदोलन में परिवर्तित कर दिया है. आज हम सभी बहुजन समाज के लोग सर उठा कर यह कह सकते हैं कि दलित दस्तक आंदोलन पढ़े-लिखे बहुजनों के योगदान का आंदोलन है, जो बाबासाहेब के कारवां को आगे बढ़ा रहा है. यह बात और है कि दलित आंदोलन को अभी और बड़ा आंदोलन बनने की आवश्यकता है. अक्सर बहुजन समाज के लोग सहाल देते हैं कि हमें मनुवादी मीडिया के समकक्ष अपना मीडिया खड़ा करना चाहिए. ई-मेल, फेसबुक, एसएमएस एवं व्हाट्सएप पर भी मैसेज लिखे दिखाई देते हैं. ऐसे प्रश्नों के लिए दलित दस्तक छोटा सा ही सही पर पुख्ता और मजबूत जवाब है. पांच वर्षों तक हमने लगातार दलित दस्तक की पहुंच बढ़ाने का काम किया है. हमने दो हजार कॉपियों से मैगजीन शुरू की थी जो आज पंद्रह से बीस हजार तक छापी जा रही है. साथ ही साथ दलित दस्तक अब www.dalitdastak.com नाम के वेब पोर्टल पर भी मौजूद है, जिसे हर हफ्ते तकरीबन एक लाख से ज्यादा लोग देख-पढ़ रहे हैं. इसका मतलब है कि बात कुछ बनी है और दलित दस्तक आंदोलन आगे बढ़ा है.
अब आप सोच रहे होंगे कि दलित दस्तक को हम आंदोलन क्यों कह रहे हैं? हम बार-बार इसे आंदोलन इसलिए कह रहे हैं क्योंकि दलित दस्तक पांच वर्षों से निरंतरता लिए हुए एक सामूहिक प्रयास है. जो विचारधारा के धरातल पर समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, धार्मिक आदि विषमताओं को दूर करने का प्रयास कर रहा है. यही आंदोलन की परिभाषा है, अर्थात आंदोलन एक सामाजिक प्रक्रिया है जो सामूहिक प्रयास द्वारा निरंतरता से यथास्थितिवाद को बदलने का प्रयास करती है. साथ ही साथ आंदोलन की अपनी आत्मनिर्भर विचारधारा होती है, नेतृत्व होता है और संगठन. दलित दस्तक इन सभी कसौटियों पर खड़ा उतरती है और इसलिए दलित दस्तक एक आंदोलन है.
दलित दस्तक आंदोलन ने अपनी विचारधारा के साथ-साथ अपनी अस्मिता (पहचान) को भी आगे बढ़ाया है. बहुजन विचारधारा के तहत कोई एससी/एसटी/ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यक के साथ काम करते हुए दलित दस्तक ने आज तक अपने मुख्यपृष्ठ पर किसी भी गैर बहुजन व्यक्ति या आंदोलन का चित्र तक नहीं छापा है. दलित दस्तक के संपादक मंडल का यह प्रयास रहा है कि हम अपने बहुजन नायकों एवं नायिकाओं की ही तस्वीर पत्रिका के मुख्य पृष्ठ पर छापें. या उसके आंदोलन से संबंधित एपिसोड को ही छापा जाए. दलित दस्तक के मुख्य पृष्ठ पर गौतम बुद्ध, संत रैदास महाराज, संत कबीर, घासीदास, ज्योतिबा फुले, नरायणा गुरु, अछूतानंद महाराज, शाहूजी महाराज, पेरियार, बाबासाहेब अम्बेडकर, मान्यवर कांशीराम सहित रोहित वेमुला, टीना डाबी, गिन्नी माही, तरन्नुम बौद्ध, हेमंत बौद्ध एवं राजू भारती जैसे बहुजन युवाओं को दलित दस्तक के मुख्य पृष्ठ पर जगह देकर अपनी पहचान स्थापित करने का अनूठा प्रयास किया है. और यह प्रयास आगे भी जारी रहेगा.
रही बात अपनी अस्मिता या अपनी पहचान की तो यह बताते हुए हमें हर्ष होता है कि दलित दस्तक ने ‘दलित अस्मिता’ से कभी मुंह नहीं चुराया. डंके की चोट पर अपने मंचों एवं प्रकाशन में इसी पहचान के आधार पर काम किया है. यद्यपि बहुत से लोग संपादक मंडल को आरंभ से ही यह सलाह देते रहे हैं कि हमें दलित अस्मिता से नहीं बल्कि किसी सामान्य पहचान से पत्रिका चलानी चाहिए. उनका मानना था कि दलित नाम होने से पत्रिका को कोई नहीं खरीदेगा और न पढ़ेगा. इस नाम से विज्ञापन नहीं मिलेगा. परंतु साथियों आज पांच वर्ष बाद हमें संतोष है कि हमारी पत्रिका हमारी अस्मिता के साथ ही चल रही है. पत्रिका ही नहीं अब तो वेबसाइट भी आगे बढ़ रही है. साथियों हमें सोचना चाहिए कि जब हिन्दू नाम से राष्ट्रीय समाचार पत्र कामयाब हो सकता है तो दलित नाम से पत्रिका क्यों नहीं कामयाब हो सकती है! अवश्य ही हो सकती है. शर्त बस इतनी सी है कि प्रयास निरंतर और ईमानदारी से किया जाए. और पांच वर्षों में दलित दस्तक ने निरंतर एवं ईमानदारी से यह प्रयास किया है.
कुछ साथियों ने यह प्रश्न उठाया है कि दलित दस्तक के लिए विचारधारा एवं अपनी अस्मिता (पहचान) क्यों आवश्यक है? इसका उत्तर जानना हमारे लिए जरूरी है. दलित दस्तक अपने आप में तो आंदोलन है ही परंतु दलित दस्तक वृहत बहुजन आंदोलन का भी हिस्सा है. छोटा ही सही, थोड़ा ही सही, दलित दस्तक व्यापक बहुजन आंदोलन की धार को तेजी देने में प्रयासरत है. यह काम विचारधारा एवं अस्मिता के बगैर नहीं हो सकता. बहुजन आंदोलन का सहयोग केवल और केवल विचारधारा और अस्मिता के खुलेपन से ही किया जा सकता है. दलित दस्तक का ध्येय मुनाफा कमाना नहीं है. दलित दस्तक का मुख्य लक्ष्य है कि किसी तरह अपने छोटे से प्रयास से बहुजन समाज में व्याप्त ज्ञान की भूख को कैसे पूरा किया जाए. अपने प्रयास से कैसे बहुजन आंदोलन के नायक और नायिकाओं से बहुजन समाज का निरंतर साक्षात्कार कराया जाए. कैसे उसकी विचारधारा को आगे बढ़ाया जाए और गाढ़ा किया जाए. कैसे बहुजन समाज की पहचान को साकारात्मक बनाया जाए? और कैसे बहुजन समाज के युवाओं का उत्साह बढ़ाया जाए. हमें आशा है कि इन सभी कृत्यों से बहुजन आंदोलन की नीवों को सींचने का बीड़ा दलित दस्तक ने उठाया है.
इन पांच सालों में बात इतनी आगे बढ़ी है कि दलित दस्तक की धमक विदेशों तक में पहुंच गई है. भारत के बाहर भी तमाम देशों में रहने वाले बहुजनों के बीच दलित दस्तक सराही जाने लगी है. अब वहां भी लोग हर महीने पत्रिका का इंतजार करते हैं. यह अपने आप में एक बड़ी बात है कि दिल्ली के एक छोटे से हॉल से शुरू होकर बीते पांच वर्षों में पत्रिका देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों से होते हुए देश के बाहर भी अपनी पहचान बनाने में सफल रही है.
दलित दस्तक एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता है कि कैसे छोटे से प्रयास से बहुजन आंदोलन को मजबूती दी जा सकती है. इसलिए साथियों आज अपनी मीडिया के पांच वर्ष के सुअवसर पर हम जब 24 जून को मावलंकर हॉल में एकत्र होने जा रहे हैं तो हम आपसे विनती करेंगे कि आप बहुजन समाज के इस प्रयास की नियत को समझते हुए इसे मजबूती प्रदान करें. चाहे पत्रिका का सदस्य बनकर, या अपनी रचनाएं भेजकर या फिर किसी खबर को हम तक पहुंचा कर या सुझाव भेजकर इस आंदोलन को मजबूत कर सकते हैं. मेरा पूरा विश्वास है कि दलित दस्तक अब तक के बहुजन पत्रकारिता के नवीन प्रतिमान स्थापित करने में अवश्य कामयाब होगी. आइए हम सब मिलकर दलित दस्तक को बहुजन आंदोलन का और मजबूत सिपाही बनाएं.
जय भीम- जय भारत
नोट- सभी फोटो 27 मई 2012 के दलित दस्तक की लांचिग के हैं.
– लेखक जेएनयू में सामाजिक विज्ञान के प्रोफेसर हैं। दलित दस्तक से शुरुआत से ही जुड़े हैं और संपादक मंडल के महत्वपूर्ण सदस्य हैं।
प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।