वनों के विनाश की क्षतिपूर्ति के लिए एकप्राधिकरण बनाया गया था, जिसका नाम है – प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण(सीएएमपीए). बांध, खनन और कारखाने आदि परियोजनाओं की मंजूरी से पहले केंद्रीय पर्यावरणमंत्रालय इसप्रकार की परियोजना से होने वाली वन्य क्षतियों का आंकलन करके उस नुकसान का एक वर्तमान शुद्ध मौद्रिक मूल्य तय करता है और क्षतिपूर्ति के रूप में इसकी वसूली करता है. इस राशि का इस्तेमाल वैकल्पिक भूमि के वनीकरण के लिए किया जाता है. केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री महेश शर्मा द्वारा संसद में जो आधिकारिक सूचना दी गई है, उसके मुताबिक केंद्रीय प्रतिपूरक वनीकरण कोष के अंतर्गत उनकेमंत्रालय ने पचास हजार करोड़ से भी ज्यादा रुपये एकत्रित कर लिये हैं. इस पैसे का इस्तेमालप्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम 2016 के प्रावधानों के अनुसार होना अपेक्षित है.
प्रतिपूरक वनीकरणके तहत पिछले एक दशक में इतनी बड़ी राशि का वसूलीकरण अपने आप में इस बात का सूचक है कि हमारे देश में विकास परियोजनाओं के लिए व्यापक पैमाने पर जंगलों का विनाश जारी है. यह वसूलीकरण इस बात का भी व्यंजक है कि वनों में और वनों के इर्दगिर्द रहने वाले आदिवासी और वनवासी जैसे हाशिये के समुदायों के प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट भी बड़े स्तर पर चल रही है जिसे राज्य की स्वीकृति प्राप्त है. उदाहरण हेतु 2014-2017 के दौरान केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा 1419 विकास परियोजनाओं को मंजूरी दी गई जिनके तहत 36575 हैक्टेयर वन भूमि को गैर वन भूमि में रूपांतरित कर दिया गया और बदले में 9700.50 करोड़ वसूले गये.प्रतिपूरक वनीकरणअधिनियम अपने आप में कानून का मखौल उड़ाता है क्योंकि यह विकास परियोजनाओं से प्रभावित आदिवासी और दूसरे वनवासियों के विस्थापन, दु:ख-दर्द, आजीविका के विनाश और खाद्यान्न संसाधनों की छीनत आदि को मौद्रिक मूल्य के तराजू पर तोलता है और यह मौद्रिक मूल्य भी राज्य के खजाने में क्षतिपूर्ति के रूप में जमा होता है
प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण अधिनियम और इसके तहत अभी हालिया जारी प्रावधानों के अध्ययन से पता चलता है कि राष्ट्र राज्य अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए राज्य नियंत्रित वन प्रबंधन के जाल में ही फिर फंस गया है. निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों के वन प्रबंधन पर वह आदिवासियों और वन आधारित ग्रामवासियों की अपेक्षा ज्यादा भरोसा कर रहा है.गैर वन प्रयोजन के लिए आवंटित वन भूमि के एवज में प्रतिपूरक वनीकरण कोषके तहत क्षतिपूर्ति के नाम पर जुटाई जाने वाली राशि को इस हस्तांतरण से प्रभावित आदिवासियों और स्थानीय ग्रामवासियों के पुनर्वास आदि पर खर्च किया जाना चाहिए था किंतु इस बावत कोई बात नई वन नीति के मसौदे में नहीं रखी गई है. ध्यातव्य है कि अभी हाल में देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जमा की गई राशि के दुरुपयोग और इस्तेमाल न किये जाने पर विधायिका को फटकार लगाई है कि वह वन संरक्षण के नाम पर मूर्ख बना रही है. केंद्र और राज्य सरकारों के पास लंबित यह धन राशि कुल मिलाकर एक लाख करोड़ बताई जाती है.इस अधिनियम का आदिवासी और वनवासी विरोधी चरित्र यहीं खत्म नहीं होता अपितु प्रतिपूरक वनीकरण के नाम पर वनाधिकार कानून को ताक पर रखकर हाशिये के लोगों की जमीन हड़पी जा रही है.
2006 में लागू किया गया वनाधिकार कानून वनों पर निर्भर समुदायों का वन्य संसाधनों पर अधिकार स्थापित करता है. वनों के संरक्षण और प्रकृति विषयक परंपरागत अनुभव और ज्ञान को भी इसमें स्वीकार किया गया है. इसनेवन भूमि को वनों पर आधारित समुदायों को हस्तांतरित करने का एक ऐतिहासिक अवसर मुहैया कराया था. महाराष्ट्रऔर उड़ीसा में वनाधिकार कानून ने आदिवासियों और वनों पर निर्भर ग्रामीणों के सशक्तिकरण में काफी प्रगतिशील भूमिका निभाई भी है. सामुदायिक वन संसाधन वाले इसके प्रावधान ने वनों तक पहुँच और वनों पर नियंत्रण का अधिकार वनों पर निर्भर समुदायों को दिया. किंतु एक दशक के बाद भी वनाधिकार कानून का क्रियान्वयन मोटे तौर पर अब भी लंबित है. ग्रामीण समुदायों को आज भी वन भूमि के वैधानिक अधिकार हस्तांतरित नहीं किये जा सके हैं. प्रतिपूरक वनीकरणअधिनियम वनाधिकार कानून के मार्ग में अलग रोड़ा बना हुआ है. जंगलात विभाग की नौकरशाही को इकतरफा ढंग से प्रतिपूरक वनीकरण कोष का अधिकार सौंप देना और निजी या सामूहिक भूमि पर प्रतिपूरक वनीकरण का असीमित अधिकार दे देना वास्तव में संस्थाबद्ध रूप में वनाधिकार कानून को निष्क्रिय करने का काम है.
प्रतिपूरक वनीकरणअधिनियम में नौकरशाही की मनमर्जी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के प्रावधान रखे ही नहीं गये हैं. अध्ययनों से पता चलता है कि वनाधिकार कानून के तहत जिन सघन वन क्षेत्रों में वन संसाधनों और वन भूमि पर आदिवासी लोगों और वनों पर निर्भर दूसरे लोगों ने अपने दावे किये होते हैं, उन्हीं सघन वन क्षेत्रों में वन विभाग के अफसर प्रतिपूरक वनीकरणकी परियोजनाओं का क्रियान्वयन करने लगते हैं. जहाँ वनाधिकार कानून में वनों पर निर्भर ग्रामीण समुदायों की सहमति को अनिवार्य रखा गया था, वहींप्रतिपूरक वनीकरणअधिनियम में स्थानीय समुदायों से परामर्श मात्र की बात कही गई है. स्पष्ट है कि वनाधिकार कानून की अनिवार्य सहमति सेप्रतिपूरक वनीकरणअधिनियममें पीछे हटा गया है.भूमि अधिग्रहण, पुनर्स्थापना और पुनर्वास अधिनियम के अंदर भी अधिग्रहण से पूर्व सहमति की अनिवार्यता है. इसका मतलब साफ है किप्रतिपूरक वनीकरणअधिनियमभूमि अधिग्रहण कानून का भी सम्मान नहीं करता. प्रतिपूरक वनीकरणकी हर परियोजना में परामर्श का भी अनुबंध नहीं किया जाता और प्राय: प्रभावित लोगों को इस परामर्श में आमंत्रित ही नहीं किया जाता.
प्रतिपूरक वनीकरणके इस कार्यक्रम में जहाँ व्यापक भ्रष्टाचार है, वहीं विभिन्न प्रकार के पारिस्थितकीय और सामाजिक दुष्परिणाम भी सामने आये हैं. इसके कारण वनों के अंदर की विविधता को अपूर्णनीय क्षति पहुँची है. पहले भी हिमालय में मिलने वाले ओक के प्राकृतिक जंगलों की जगह चीड़ के पेड़ लगाये गये, मध्यभारत में साल के प्राकृतिक जंगलों की जगह सागौन लगा दिया गया, पश्चिमी घाट के सदाबहार आर्द्रता वाले जंगलों में सफेदा और बबूल लगा दिया गया. उत्पादन केंद्रित इसप्रकार केएकल वृक्षारोपण से जहाँ जैव विविधता खत्म होती है, वहीं स्थानीय लोगों की आजीविका खतरे में पड़ जाती है. जंगल से जिस व्यक्ति का थोड़ा भी संबंध है, वह भी जानता है कि सागौन, सफेदा और जंगली पीपड़ जैसे वाणिज्यिक महत्व के वृक्षों का रोपण प्राकृतिक जंगल का विकल्प नहीं हो सकता. इस संदर्भ में यहाँ ध्यातव्य है कि ताजा भारतीय वन सर्वेक्षण में वन गणना की पद्धति बदलते हुए निजी जमीन पर किये गये वृक्षारोपण को भी वन अंतर्गत शामिल किया गया है जबकि यह कोई छिपी बात नहीं है कि निजी जमीन पर उन्हीं वृक्षों को लगाया जाता है, जो व्यावसायिक संभानाओं की दृष्टि से लाभप्रद समझे जाते हैं. कैसी विडंबना है कि जंगलात के जिन अधिकारियों के ऊपर वैज्ञानिक ढंग से वन संरक्षण और वन गणना की जिम्मेदारी है, वही अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए वन गणना की पद्धति ही बदल देते हैं.
जंगल की जमीन पर नियंत्रण को लेकर जारी आदिवासियों के संघर्ष और तद्विषयक विद्यमान तनाव की जानबूझकरप्रतिपूरक वनीकरणअधिनियम में उपेक्षा की गई है. वन विभाग एकपक्षीय ढंग से बिना स्थानीय लोगों के परामर्श के सामुदायिक वन भूमि कोप्रतिपूरक वनीकरणके लिए चिह्नित कर देता है. इसप्रकार के वृक्षारोपण का विरोध करने वाले लोगों पर राज्य द्वारा कानूनी-गैर कानूनी हिंसा की जाती है. जेलों में डालना और जबर्दस्ती भूमि छीनना आम है. पुराने विकसित वन क्षेत्रों तक को नहीं छोड़ा जाता. वास्तव में एक तरफ तो वन भूमि के गैर वन्य गतिविधियों के लिए इस्तेमाल से पहले वन विभाग से जुड़े मंत्रालय की स्वीकृति अनिवार्य है और इस स्वीकृति के लिए प्रतिपूरक वनीकरण भी जरूरी है जबकि दूसरी तरफ इस वनीकरण के लिए अपेक्षित जमीन है ही नहीं.
वनीकरण के नाम परप्रतिपूरक वनीकरणअधिनियम के तहत जो तंत्र राज्य ने खड़ा किया है, वह इतना ज्यादा भ्रष्ट और अमानवीय है कि ढाई हजार से भी ज्यादा ग्राम सभायें प्रतिपूरक वनीकरणअधिनियमका विरोध कर चुकी हैं. लेकिन खेद की बात है कि आदिवासी औरदूसरे वनवासियों के आंदोलनों को मुख्यधारा का मीडिया कोई तवज्जो ही नहीं देता. सरकार भी हाशिये के लोगों के अधिकारों की उपेक्षा करती है. प्रतिपूरक वनीकरणअधिनियमभी आदिवासियों और वनों पर आधारित दूसरे समुदायों के अस्तित्व को कुचलने वाला अन्यायी अधिनियम है. इससे पारिस्थितीकीय असंतुलन की अन्यान्य समस्याएँभी उठ खड़ी हुई हैं. जैव विविधता खत्म हो रही है. प्रदूषण और पर्यावरण असंतुलन के कारण वैश्विक स्तर पर जलवायु में आ रहे बदलाव आज गंभीर खतरों के व्यंजक बन चुके हैं. प्राकृतिक जंगलों की रक्षा और पुनर्स्थापना इस पर्यावरण संकट से पार पाने का एकमात्र कारगर उपाय है किंतु प्रस्तावित नई वन नीति में प्राकृतिक जंगलों के स्थान पर निजी क्षेत्र द्वारा की जाने वाली व्यावसायिक वानिकी को स्वीकृति दी गई है. और सफेद झूठ देखिए कि वन संरक्षण के क्षेत्र में पैसे की कमी का रोना रोते हुए निजी क्षेत्र से निवेश की आवश्यकता पर बल दिया गया है जबकि देश भर में प्रतिपूरक वनीकरण कोष के तहत कुल मिलाकर वसूले गये 7 अरब बिना इस्तेमाल के यों ही पड़ेहैं. आज आवश्यकता इस पैसे के माध्यम से आदिवासी और वनवासी समुदायों के सशक्तिकरण की है.आज जरूरतवनाधिकार कानून के तहत जंगलों के संरक्षण और पुनर्स्थापन के लिए इन समुदायों की ग्राम सभाओं को संवैधानिक अधिकार प्रदान करने की है, न कि प्रस्तावित नई वन नीति के तहत वनों के प्रबंधन की राज्य नियंत्रित औपनिवेशिक व्यवस्था को नवउदारीकरण के झाड़ू-पोछे से झाड़-पोंछकर फिर खड़ा करने की.
डॉ. प्रमोदमीणा,
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