आज ही सुबह ही कंवल भारती जी की एक फेसबुक पोस्ट से चिंतित हो उठा था. आरएसएस के कुछ लोग उनके घर आए थे और उन्हें लगा था कि क्या मौत ने उनका घर देख लिया है?
शाम में गौरी लंकेश की हत्या की सूचना आयी. मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से परिचित नहीं था, लेकिन लिखने-पढ़ने की दुनिया मे हम एक-दूसरे को प्रायः बिना मिले भी जानते हैं.
अभी कल ही ईमेल से योगेश मास्टर से बात हुई थी. गत मार्च में आरएसएस के लोगों ने योगेश के चेहरे पर कालिख मल दी थी. जिस कार्यक्रम के दौरान यह घटना हुई, वह साप्ताहिक ‘लंकेश पत्रिके’ का था. आयोजक गौरी लंकेश थीं. उस दिन लंकेश ने अन्य लेखकों के साथ मिलकर योगेश के पक्ष में मार्च निकाला और आरोपियों को गिरफ्तार करने की मांग की थीं. मुख्यमंत्री सिद्धरामय्या का भी तुरंत बयान आया कि आरोपी बख्शे नहीं जाएंगे, लेकिन जैसा कि लेखकों के मामले में होता है, कोई करवाई नहीं हुई. लंकेश खुद भी कई बार कह चुकीं थीं ‘वे’ उन्हें चुप करवा देना चाहते हैं.
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योगेश मास्टर कर्नाटक के चर्चित लेखक हैं. 2013 में उनके उपन्यास ‘ढूंढी’ को लेकर श्रीराम सेना के नेता प्रमोद मुतालिक और उसके सहयोगियों ने हंगामा मचा दिया था. उस मुकदमे में योगेश को गिरफ्तार कर लिया गया था. मुतालिक ने उन पर हिन्दू देवता गणेश का अपमान करने का आरोप लगाया था. पिछले तीन सालों से वे महिषासुर पर एक उपन्यास लिख रहे हैं, जो अब लगभग पूरा हो चुका है.
गौरी प्रसिद्ध लोहियावादी कवि, लेखक, पत्रकार पी.लंकेश की पुत्री थीं. पी. लंकेश को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था. उन्होंने ही ‘लंकेश पत्रिके’ की स्थापना की थी. कन्नड़ का यह टैबलायड ब्राह्मणवाद-जातिवाद विरोधी विचारों का सबसे मुखर मंच रहा है. पिता के मृत्योपरांत गौरी लंकेश इसका संपादन-प्रकाशन करतीं थीं. पिता की वैचारिक विरासत के अतिरिक्त लिंगायत समुदाय की ब्राह्मणवाद विरोधी समृद्ध सांस्कृतिक-सामाजिक विरासत भी उन्हें मिली थी. उनके नाम के साथ लगा ‘लंकेश’ भी ध्यातव्य है.
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पिछले साल उन्होंने बैंगलोर मिरर में ‘रिकलेमिंग महिषासुर’ शीर्षक से एक जोरदार रिपोर्ट लिखी थी. वे कर्नाटक के अतिरिक्त उत्तर भारत मे चल रहे बहुजनों के सांस्कृतिक आंदोलनों की समर्थक थीं.
क्या यह महज संयोग है कि 2015 में मारे गए एम. एम. कलबुर्गी भी लिंगायत परिवार से आते थे और जितने मुखर विरोधी ब्राह्मणवाद और मूर्तिपूजा के थे, उतने ही वंचित तबकों में सांस्कृतिक जागरण लाने वाले आंदोलनों के समर्थक भी.
पिछले साल मैसूर के मित्र दलित आलोचक प्रोफेसर महेश चंद्र गुरु पर भी मुकदमा हुआ, जान से मारने की धमकियां दी गयीं और गिरफ्तार भी किया गया. उनपर आरोप था कि उन्होंने एक भाषण में राम का अपमान किया. प्रोफेसर गुरु कर्नाटक में महिषासुर आंदोलन करते रहे हैं और पिछले तीन-चार सालों से मैसूर में अन्य लेखक साथियों के साथ महिषा-दशहरा मानते हैं.
पता नहीं, मौत ने हममें से किस-किस का घर देख लिया है! बहरहाल, वह कितनों को मारेगी?
यह लेख प्रमोद रंजन ने लिखा है.

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