भारतवर्ष आरक्षण का देश है.कारण,धर्माधारित जिस वर्ण-व्यवस्था के द्वारा यह देश सदियों से परिचालित होता रहा है,वह वर्ण-व्यवस्था मुख्यतः शक्ति के स्रोतों-आर्थिक ,राजनीतिक और धार्मिक- के बंटवारे की व्यवस्था रही है.चूंकि वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक विदेशागत आर्य थे इसलिए उन्होंने इसमें ऐसा प्रावधान रचा कि शक्ति के स्रोतों में मूलनिवासी समाज (शुद्रतिशूद्रों) को रत्ती भर भी हिस्सेदारी नहीं मिली और यह समाज चिरकाल के लिए पूर्णरूपेण शक्तिहीन होने को अभिशप्त हुआ.ऐसे शक्तिहीन समाज को सदियों बाद किसी व्यक्ति ने पहली बार शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी दिलाने का सफल दृष्टान्त कायम किया तो वह थे कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहू जी महाराज.
26 जून 1874 को कोल्हापुर राजमहल में जन्मे शाहू जी छत्रपति शिवाजी के पौत्र तथा आपासाहब घाटगे कागलकर के पुत्र थे.उनके बचपन का नाम यशवंत राव था.तीन वर्ष की उम्र में अपनी माता को खोने वाले यशवंत राव को 17 मार्च 1884 को कोल्हापुर की रानी आनंदी बाई ने गोंद लिया तथा उन्हें छत्रपति की उपाधि से विभूषित किया गया.बाद में 2 जुलाई 1894 को उन्होंने कोल्हापुर का शासन सूत्र अपने हाथों में लिया और 28 साल तक वहां का शासन किये.19-21 अप्रैल 1919 को कानपुर में आयोजित अखिल भारतीय कुर्मी महासभा के 13 वें राष्ट्रीय सम्मलेन में उन्हें राजर्षि के ख़िताब से नवाजा गया.
शाहू जी की शिक्षा विदेश में हुई तथा जून 1902 में उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से एल.एल.डी. की मानद उपाधि प्राप्त हुई जिसे पानेवाले वे पहले भारतीय थे.इसके अतिरिक्त उन्हें जी.सी.एस.आई.,जी.सी.वी.ओ.,एम्.आर.इ.एस. की उपाधियाँ भी मिलीं.एक तेंदुए को पलभर में ही खाली हाथ मार गिराने वाले शाहू जी असाधारण रूप से मजबूत थे.उन्हें रोजाना दो पहलवानों से लड़े बिना चैन नहीं आता था.
शाहू जी ने जब कोल्हापुर रियासत की बागडोर अपने हाथों में ली उस समय एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद तो दूसरी तरफ ब्राह्मणशाही जोर शोर से क्रियाशील थी .उस समय भारतीय नवजागरण के नायकों के समाज सुधार कार्य तथा अंग्रेजी कानूनों के बावजूद बहुजन समाज वर्ण-व्यवस्था सृष्ट विषमता की चक्की में पीस रहा था.इनमें दलितों की स्थिति जानवरों से भी बदतर थी.शाहू जी ने उनकी दशा में बदलाव लाने के लिए चार स्तरों पर काम करने का मन बनाया .पहला,उनकी शिक्षा की व्यवस्था तथा दूसरा, उनसे सीधा संपर्क करना.तीसरा ,प्रशासनिक पदों पर उन्हें नियुक्त करना एवं चौथा उनके हित में कानून बनाकर उनकी हिफाजत करना.अछूतों की शिक्षा के लिए एक और जहाँ उन्होंने ढेरों पाठशालाएं खुलवायीं, वहीँ दूसरी ओर अपने प्रचार माध्यमों द्वारा घर-घर जाकर उनको शिक्षा का महत्व समझाया.उन्होंने उनमें शिक्षा के प्रति लगाव पैदा करने के लिए एक ओर जहाँ उनकी फीस माफ़ कर दी, वहीँ दूसरी ओर स्कालरशिप देने की व्यवस्था कराया.उन्होंने राज्यादेश से अस्पृश्यों को सार्वजनिक स्थलों पर आने-जाने की छूट दी तथा इसका विरोध करने वालों को अपराधी घोषित कर डाला.
दलितों की दशा में बदलाव लाने के लिए उन्होंने दो ऐसी विशेष प्रथाओं का अंत किया जो युगांतरकारी साबित हुईं.पहला,1917 में उन्होंने उस ‘बलूतदारी-प्रथा’ का अंत किया,जिसके तहत एक अछूत को थोड़ी सी जमीन देकर बदले में उससे और उसके परिवार वालों से पूरे गाँव के लिए मुफ्त सेवाएं ली जाती थीं.इसी तरह 1918 में उन्होंने कानून बनाकर राज्य की एक और पुरानी प्रथा ‘वतनदारी’ का अंत किया तथा भूमि सुधार लागू कर महारों को भू-स्वामी बनने का हक़ दिलाया.इस आदेश से महारों की आर्थिक गुलामी काफी हद तक दूर हो गई.दलित हितैषी उसी कोल्हापुर नरेश ने 1920 में मनमाड में दलितों की विशाल सभा में सगर्व घोषणा करते हुए कहा था-‘मुझे लगता है आंबेडकर के रूप में तुम्हे तुम्हारा मुक्तिदाता मिल गया है .मुझे उम्मीद है वो तुम्हारी गुलामी की बेड़ियाँ काट डालेंगे.’उन्होंने दलितों के मुक्तिदाता की महज जुबानी प्रशंसा नहीं की बल्कि उनकी अधूरी पड़ी विदेशी शिक्षा पूरी करने तथा दलित-मुक्ति के लिए राजनीति को हथियार बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान किया.किन्तु वर्ण-व्यवस्था में शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत तबकों के हित में किये गए ढेरों कार्यों के बावजूद इतिहास में उन्हें जिस बात के लिए खास तौर से याद किया जाता है,वह है उनके द्वारा किया गया आरक्षण का प्रावधान.
हम जानते हैं भारत सिर्फ आरक्षण का ही देश नहीं है,बल्कि दुनिया के अन्य देशों के विपरीत यहाँ के वर्ग संघर्ष का इतिहास भी आरक्षण पर केन्द्रित रहा है.खास तौर से दलित –पिछड़ों को मिलनेवाले आरक्षण पर देश में कैसे गृह-युद्ध की स्थिति पैदा हो जाती है,यह हमने मंडल के दिनों में देखा .तब मंडल रिपोर्ट के खिलाफ देश के शक्तिसंपन्न तबके के युवाओं ने जहां खुद को आत्म-दाह और राष्ट्र की संपदा-दाह में झोंक दिया,वहीँ सवर्णवादी संघ परिवार ने राम जन्मभूमि –मुक्ति आन्दोलन के नाम पर स्वाधीन भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दिया,जिसके फलस्वरूप राष्ट्र की बेशुमार संपदा तथा असंख्य लोगों की प्राण हानि हुई.बाद में मंडल-2 के दिनों (2006 में जब पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश में आरक्षण लागू हुआ) में पुनः गृह-युद्ध की स्थिति पैदा कर दी गई. 21वीं सदी में जहाँ सारी दुनिया जिओ और जीने दो की राह पर चल रही है,वहीँ भारत के परम्परागत सुविधासंपन्न लोग आरक्षण के नाम पर बार-बार गृह –युद्ध की स्थिति पैदा किये जा रहे हैं.ऐसे हालात में 1902 के उस हालात की सहज कल्पना की जा सकती जब शाहू जी महाराज ने चित्तपावन ब्राह्मणों के प्रबल विरोध के मध्य 26 जुलाई को अपने राज्य कोल्हापुर की शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में दलित-पिछड़ों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया.यह आधुनिक भारत में जाति के आधार मिला पहला आरक्षण था.इस कारण शाहू जी आधुनिक आरक्षण के जनक कहलाये.ढेरों लोग मानते हैं कि परवर्तीकाल में बाबासाहेब डॉ.आंबेडकर ने शाहू जी द्वारा लागू किये गए आरक्षण का ही विस्तार भारतीय संविधान में किया.
लेकिन भारी अफ़सोस की बात है कि जिस आरक्षण की शुरुआत शाहूजी जी ने किया एवं जिसे बाबा साहब में विस्तार दिया , वह आरक्षण आज लगभग पूरी तरह कागजों की शोभा बन चुका है. यदि आरक्षण पूरी तरह कागजों की शोभा बनकर अपनी उपयोगिता खो देता है तब फिर लोग शाहूजी या बाबा साहेब ही नहीं, इस दिशा में योगदान करने वाले दूसरे महापुरुषों को भी भूल जायेंगे. ऐसे में यदि आप शाहूजी जैसे अपने महापुरुषों को याद रखना चाहते हैं तो आपको सिर्फ आरक्षण बचाने का नहीं बल्कि बढ़ाने की सफल लड़ाई लड़नी होगी. और आज की तारीख में वह लड़ाई अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका से प्रेरणा लेते हुए सर्वव्यापी आरक्षण अर्थात डाइवर्सिटी लागू करवाने के लिए लड़नी होगी. इससे बेहतर विकल्प और कोई नहीं है.
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