हिन्दू धर्म की किताबों को प्रकाशित कर देश भर में बहुत कम कीमतों पर अपने पाठकों को उपलब्ध कराने वाली गीता प्रेस को साल 2021 के गांधी शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली समिति ने सर्व सम्मति से गीता प्रेस को इस अवार्ड के लिए नामित किया। गीता प्रेस 1923 में स्थापित हुई थी। और अपने 100 साल के सफर में उसने 1 हजार 850 धार्मिक पुस्तकों की 93 करोड़ कॉपी बेची है। इसकी वेबसाइट के अनुसार, “इसका मुख्य उद्देश्य गीता, रामायण, उपनिषद, पुराण, प्रख्यात संतों के प्रवचन और अन्य चरित्र-निर्माण पुस्तकों को प्रकाशित करके सनातन धर्म के सिद्धांतों को आम जनता के बीच प्रचारित करना और फैलाना एवं कम कीमतों पर पुस्तकें उपलब्ध कराना है।”
गीता प्रेस साल 1926 से लगातार कल्याण नाम से एक मासिक पत्रिका भी प्रकाशित करती है। गीता प्रेस ने अब तक तुलसी दास द्वारा लिखी गई रामचरित मानस की साढ़े तीन करोड़ कॉपी बेची है, जबकि श्रीमद भगवद गीता की 16 करोड़ प्रतियां बेची है। इसकी वेबसाइट बताती है कि 14 भाषाओं में वो 41.7 करोड़ से ज्यादा किताबें छाप चुकी है।
गीता प्रेस को अवार्ड मिलने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बदाई दी है तो यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी खुश हैं क्योंकि गीता प्रेस का प्रकाशन गोरखपुर से होता है। गीता प्रेस के मैनेजर लालमणि त्रिपाठी भी खुश हैं। उन्होंने मीडिया से बातचीत में बताया है कि गीता प्रेस की किताबों की जितनी डिमांड है, हम उसे पूरा नहीं कर पातें। उनका कहना है कि पिछले फाइनेंसियल ईयर में प्रेस की विभिन्न किताबों की 2 करोड़ 40 लाख प्रतियां बिकी हैं, जिनका मूल्य 111 करोड़ रुपये है। लालमणि त्रिपाठी के मुताबिक गीता प्रेस हर साल रामचरित मानस की दस लाख प्रतियां बेचती है।
लगे हाथ आपके लिए एक और जानकारी यह है कि हर साल दिये जाने वाले गांधी शांति पुरस्कार में 1 करोड़ रुपये की पुरस्कार राशि, एक प्रशस्ति पत्र, एक पट्टिका और एक पारंपरिक हस्तकला की वस्तु दी जाती है। हालांकि गीता प्रेस ने घोषणा की है कि वह पुरस्कार की राशि नहीं लेगी।
अब एक दूसरी कहानी यहां से शुरू होती है। गीता प्रेस न तो चंदा मांगती है और न ही विज्ञापन लेती है। इसका सारा खर्च समाज के लोग ही उठाते हैं। ये वो लोग और संस्थाएं हैं जो छपाई में लगने वाले सामान किफायती कीमतों में उपलब्ध करवाते हैं। प्रेस घोषित करे या न करे, यह समझा जा सकता है कि सनातन धर्म को बढ़ाने में लगे तमाम सेठ-साहूकार और नेता-मंत्री भी गीता प्रेस को सहायता जरूर करते होंगे। भाजपा-संघ के राज में गीता प्रेस को इतना बड़ा सम्मान अकारण नहीं मिला है, बल्कि इसलिए मिला है कि गीता प्रेस की पुस्तकें उस विचारधारा को सालों से बढ़ा रही है जिस पर सवार होकर भाजपा केंद्र की सत्ता में पहुंची है।
यानी साफ है कि गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तकों ने सनातन धर्म को घर-घर पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। तो उस विचारधारा की पोषक राजनीतिक दल ने उसे सम्मान देने में देरी नहीं की। लेकिन यहां चिंतित करने वाली बात यह है कि इन किताबों में जिन दलितों-पिछड़ों के बारे में तमाम अपमानजनक बातें लिखी गई हैं, वो किताबें यह समाज भी खरीदता है। चिंता की बात यह है कि जिस दलित-पिछड़े और आदिवासी समाज के घरों में संविधान, बुद्ध का धम्म और अंबेडकरी साहित्य होना चाहिए, उनके घरों में रामचरित मानस और श्रीमद भगवत गीता है।
सवाल बहुजन समाज के नेताओं, अधिकारियों और आम जनता पर भी उठता है। गीता प्रेस को इस मुकाम तक लाने में उस समाज के तमाम सेठ-साहूकारों के अलावा, आमजन से लेकर नेताओं, मंत्रियों का भी परोक्ष समर्थन रहा है। लेकिन न तो बहुजन समाज के दिग्गज नेताओं को और न ही ज्यादातर बड़े अधिकारियों को अंबेडकरवादी साहित्य की फिक्र है। अब तक किसी अंबेडकरवादी- बहुजन नेता ने अंबेडकरवादी साहित्य रचने वाले लेखकों को प्रोत्साहित करने में रुचि नहीं ली। न ही सरकार में रहते हुए उन्हें सम्मानित करना जरूरी समझा। न ही वो घर-घर संविधान पहुंचाने की मुहिम चलाते हैं और न ही अंबेडकरी साहित्य को बढ़ाने में ही रूचि लेते हैं।
कुछ जागरूक नेता, अधिकारी जरूर इसकी जरूरत समझते हैं, लेकिन वो मुट्ठी भर हैं। बहुजन समाज का आम व्यक्ति भी अब तक सही-गलत की पहचान नहीं कर सका है। वह यह नहीं जानना चाहता कि उसके लिए कौन सी विचारधारा और साहित्य जरूरी है और कौन सा साहित्य खतरनाक। यही वजह है कि जिन धार्मिक किताबों में इस समाज के सम्मान की धज्जियां उड़ाई गई है, उन्हें अपमानित किया गया है, वह उन्हें गले लगाए घूमता है। जब तक वो अंबेडकरवादी साहित्य को नहीं अपनाता, जब तक इस समाज के नेता, अधिकारी अंबेडकरी साहित्य को बढ़ाने में मदद नहीं करते, तब तक स्थिति नहीं बदलेगी। तब तक दलितों, पिछड़ों को धार्मिक गुलामी से मुक्ति नहीं मिलेगी।
गीता प्रेस को मिले इस सम्मान के बहाने यह सवाल फिर से हमारे सामने है। दलित दस्तक समूह मासिक पत्रिका से लेकर प्रकाशन और यू-ट्यूब के जरिये बाबासाहेब की विचारधारा को घर-घर तक पहुंचाने में लगा है। हम कोशिश जारी रखेंगे। हमसे जुड़िये। हमें आर्थिक मदद करिये, ताकि हम विचारधारा की इस लड़ाई को लगातार जारी रख सकें।
जय भीम।
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।