भारत का मतदाता हमेशा से चहाता रहा है कि आपराधिक छवि वाले लोगों को किसी भी प्रकार के चुनाव में प्रत्याशी न बनाया जाए, लेकिन होता हमेशा इसके विपरीत ही है, सभी राजनीतिक दलों द्वारा आपराधिक और दबंगई की छवि रखने वाले लोगों को ही विधान सभा/लोकसभा हेतु चुनावों में प्रत्याशी बनाया जाता है/जाता रहा है. कारण ये है कि सभी राजनीतिक दल सत्ता हथियाने के ही पक्षधर होते हैं, स्वच्छ और लोक्तांत्रिक आचरण के समर्थक नहीं होते. ऐसा नही है कि राजनीतिक दलों के लिए यह करना नामुमकिन है किंन्तु नजर तो सबकी कुर्सी पर होती है…जनता के भले-बुरे से किसी को कुछ लेना – देना होता ही नही. यदि सभी द्ल स्वच्छ छवि वाले लोगों को अपना-अपना प्रत्याशी बनाने की ठान लें तो आपराधिक छवि वाले लोग राजनीति में आ ही पाएंगे. धनी लोग लोकसभा में आने के बजाय राज्यसभा में जाना पसंद करते हैं, जिसके लिए आम मतदाता से वोट नहीं मांगने पड़ते…बस! राजनीतिक दलों को चन्दे के रूप में धन मुहैया करना होता है.
नवभारत टाइम्स (22.01.2019) के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुनाव में प्रत्याशी नहीं बनाने संबंधी याचिका पर सुनवाई से इंकार कर दिया है. चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली बेंच ने कहा कि याचिकाकर्ता इस मामले को चुनाव आयोग के सामने उठा सकता है. याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने अर्जी दाखिल कर चुनाव आयोग को प्रतिवादी बनाया था. उन्होंने अपनी अर्जी में अनुच्छेद-32 का सहारा लिया था. इसमें कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक पार्टियों को उन लोगों को उम्मीदवार नहीं बनाने का निर्देश दे, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं. अदालत को राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए कदम उठाना चाहिए. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या याचिकाकर्ता चुनाव आयोग के सामने गए हैं. इस बारे में इंकार करने पर अदालत ने सुनवाई से मना कर दिया.
पिछले वर्ष (2018) भी सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर करके मांग की गई थी कि गंभीर अपराधों में, यानी जिनमें 5 साल से अधिक की सजा संभावित हो, यदि व्यक्ति के खिलाफ आरोप तय होता है तो उसे चुनाव लड़ने से रोक दिया जाए. 26.09.2018 के नवभारत टाइम्स में छपी एक खबर के अनुसार तब दागी नेताओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दागी विधायक, सांसद और नेता आरोप तय होने के बाद भी चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान उन्हें खुद पर निर्धारित आरोप भी प्रचारित करने होंगे. अदालत ने यह भी कहा था कि केवल चार्जशीट के आधार पर जनप्रतिनिधियों पर कार्रवाई नहीं की जा सकती. अदालत ने इस मामले में एक गाइडलाइन भी जारी की थी, जिसके अनुसार राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के नामांकन के बाद कम से कम तीन बार प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए उनके आपराधिक रेकॉर्ड मतदाताओं के सामने रखेंगे. सभी पार्टियां वेबसाइट पर दागी जनप्रतिनिधियों के ब्यौरे डालेंगी ताकि वोटर अपना फैसला खुद कर सकें…किसको वोट दें, किसको न दें.
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने कहा था कि वक्त आ गया है कि संसद कानून बनाकर आपराधिक छवि वालों को जनप्रतिनिधि न बनने दे. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी राय स्पष्ट कर दी है कि उसका यह तय करना कि कौन चुनाव लड़े, कौन नहीं, जनतंत्र के मूल्यों पर आघात होगा. सबसे आदर्श स्थिति यही होगी कि मतदाताओं को इतना जागरूक बनाया जाए कि वे खुद ही आपराधिक छवि वाले कैंडिडेट को रिजेक्ट कर दें. लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक ऐसे लोगों को जनप्रतिनिधि न बनने देने की जिम्मेदारी संसद की है. तब भी यह बात सामने आई थी कि इस प्रकार के मामले चुनाव आयोग के दायरे में आते हैं. (यहाँ सवाल ये है कि भला संसद में बैठे लोग ऐसा कानून क्यों लाएंगे)
जाहिर है कि यदि सुप्रीम कोर्ट के सुझाव के अनुसार राजनीतिक दल अपनी साइटों पर और मीडिया में अपने उम्मीदवारों का आपराधिक रेकॉर्ड डाल भी दें तो क्या गारंटी है सही आंकड़े ही प्रस्तुत किए जाएंगे. शतप्रतिशत कहा जा सकता है कि राजनीतिक दल ऐसे मामलों में केवल और केवल खानापूरी करेंगे और सही जानकारी जनता तक नहीं पहुंच पाएगी. (अब सुप्रीम कोर्ट को ये कौन बताए कि ज्यादातर मतदाताओं की पहुँच अखबारों या मीडिया तक है ही नहीं) ऐसे में चुनाव आयोग को इन सभी कामों के लिए कुछ ठोस मानक तय करके उन पर अमल सुनिश्चित करना चाहिए. कई दागी नेता आज कानून-व्यवस्था के समूचे तंत्र को प्रभावित करने की स्थिति में हैं. उनके खिलाफ मामले थाने पर ही निपटा दिए जाते हैं. किसी तरह वे अदालत पहुंच भी जाएं तो उनकी रफ्तार इतनी धीमी रखी जाती है कि आरोप तय होने से पहले ही आरोपी की सियासी पारी निपट जाती है. इसका हल फास्ट ट्रैक कोर्ट के रूप में खोजा गया, लेकिन कई राज्यों में ये कोर्ट बने ही नहीं और जहां बने भी वहां कागजों से नीचे नहीं उतर पा रहे हैं.
ये कहना अतिशयोक्ति नहीं कि देश की सियासत में राजनेताओं और अपराध का ‘चोली-दामन’ का साथ रहा है. देश में ऐसी कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं, जो पूरी तरह से अपराध मुक्त छवि वाली हो. यानी उनके किसी भी एक नेता पर अपराध के मामले दर्ज नहीं हों. यही वजह है कि राजनीति में अपराधीकरण के मामले पर अपने फैसले में भले ही सुप्रीम कोर्ट ने दागी सांसदों, विधायकों को अयोग्य ठहराने से इनकार कर दिया, मगर कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि अब संसद के भीतर कानून बनाना इसकी जरूरत है. दरअसल, राजनीति में अपराधीकरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने अयोग्य ठहराने से इनकार कर दिया. इस मामले पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वक्त आ गया है कि संसद ये कानून लाए ताकि अपराधी राजनीति से दूर रहें. राष्ट्र तत्परता से संसद द्वारा कानून का इंतजार कर रहा है. अब यहाँ सवाल उठता है कि जिन आपाराधिक छवि वाले दबंगों के कन्धों पर बैठकर राजनीतिक दल सरकार बनाने तक पहुँच पाते हैं, उन पर चुनाव में प्रत्याशी न बनाने की कौन सा राजनीतिक दल मन बना पाएगा?
एडीआर ने 2019 में नवनिर्वाचित 542 सांसदों में 539 सांसदों के हलफनामों के विश्लेषण के आधार पर बताया कि इनमें से 159 सांसदों (29 फीसदी) के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं. इसी मामले पर चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी शोध संस्था ‘एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक अलायंस’ (एडीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, आपराधिक मामलों में फंसे सांसदों की संख्या दस साल में 44 प्रतिशत बढ़ गई है. पिछले तीन लोकसभा चुनाव में निर्वाचित होकर आने वाले सांसदों में करोड़पति और आपराधिक मामलों में घिरे सदस्यों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है. पिछली लोकसभा में गंभीर आपराधिक मामलों के मुकदमों में घिरे सदस्यों की संख्या 112 (21 फीसदी) थी, वहीं 2009 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 76 (14 फीसदी) थी. स्पष्ट है कि पिछले तीन चुनाव में गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या में 109 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है.
बीजेपी के 303 में से 301 सांसदों के हलफनामे के विश्लेषण में पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह सहित 116 सांसदों (39 फीसदी) के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. वहीं, कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद (57 फीसदी) आपराधिक मामलों में घिरे हैं. दोबारा सत्तारूढ़ होने जा रहे एनडीए की हिस्सेदार पार्टी लोजपा के निर्वाचित सभी 6 सदस्यों ने अपने हलफनामे में उनके खिलाफ आपराधिक मामले लंबित होने की जानकारी दी है. इसके अलावा एआईएमआईएम के दोनों सदस्यों और 1-1 सांसद वाले दल आईयूडीएफ, एआईएसयूपी, आरएसपी और वीसीआर के सांसद आपराधिक मामलों में घिरे हैं.
रिपोर्ट में नए चुने गए सांसदों के आपराधिक रिकॉर्ड के राज्यवार विश्लेषण से पता चलता है कि आपराधिक मामलों में फंसे सर्वाधिक सांसद केरल और बिहार से चुन कर आए हैं. केरल से निर्वाचित 90 फीसदी और बिहार के 82 फीसदी सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. इस मामले में पश्चिम बंगाल से 55 फीसदी, उत्तर प्रदेश से 56 और महाराष्ट्र से 58 फीसदी नए चुने गए सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं. वहीं सबसे कम 9 फीसदी सांसद छत्तीसगढ़ के और 15 फीसदी गुजरात के हैं. रिपोर्ट के अनुसार पिछली 3 लोकसभा में आपराधिक मुकदमों से घिरे सांसदों की संख्या में 44 फीसदी का इजाफा दर्ज हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक, 2009 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक मुकदमे वाले 162 सांसद (30 फीसद) चुनकर आए थे, जबकि 2014 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 185 (34 फीसदी) थी.
नए सांसदों में कांग्रेस के डीन कुरियाकोस पर सबसे ज्यादा आपराधिक मामले दर्ज हैं. केरल के इडुक्की लोकसभा क्षेत्र से चुनकर आए एडवोकेट कुरियाकोस ने अपने हलफलनामे में बताया है कि उनके खिलाफ 204 आपराधिक मामले लंबित हैं. इनमें गैर इरादतन हत्या, लूट, किसी घर में जबरन घुसना और अपराध के लिए किसी को उकसाने जैसे मामले शामिल हैं. इनके अलावा बसपा के 10 में से 5, जदयू के 16 में से 13 (81 फीसदी) , तृणमूल कांग्रेस के 22 में से 9 (41 फीसदी) और माकपा के 3 में से 2 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. इस मामले में बीजद के 12 निर्वाचित सांसदों में सिर्फ एक सदस्य ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले की हलफनामे में घोषणा की है.
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपराधिक मामलों के लिप्त लोगों को प्रत्याशी न बनाने वाली याचिका को चुनाव आयोग के पाले में डाल देने से समस्या का समाधान नहीं होने वाला. समस्या ये है कि चुनाव आयोग घोषित रूप से तो एक स्वतंत्र इकाई है किंतु ऐसा है नहीं. चुनाव आयोग पर सरकार का खासा दबाव रहता है. शायद आपराधिक रेकॉर्ड वालों को जनप्रतिनिधि न बनने देने के आदेश देना चुनाव आयोग के बूते से बाहर है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि वक्त आ गया है कि संसद ये कानून लाए ताकि अपराधी राजनीति से दूर रहें. राष्ट्र तत्परता से संसद द्वारा कानून का इंतजार कर रहा है. अब यहाँ सवाल उठता है कि जिन आपाराधिक छवि वाले दबंगों के कन्धों पर बैठकर राजनीतिक दल सरकार बनाने तक पहुँच पाते हैं, उन पर चुनाव में प्रत्याशी न बनाने का मन कौन सा राजनीतिक दल बना पाएगा? कदापि कोई नहीं. आखिर निश्कर्ष यह निकलता है कि आपराधिक छवि वाले लोगों से राजनीतिक दलों का दामन बचने वाला नहीं है. यहाँ यह भी सवाल उठता कि जनता आपराधिक छवि वाले अपने प्रतिनिधियों से न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है.
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