देश में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान चलाया जा रहा है, ऐसे अभियानों का समाज पर प्रभाव भी पड़ता है. परिणामस्वरूप समाज में बेटियों के प्रति नजरिया बदल रहा है. आज देश में ऐसे सैकड़ों स्कूल मिल जाएंगे, जहां लड़कों की अपेक्षा लड़कियां अधिक पढ़ रही हैं. यानि कि बेटियां बचने के साथ-साथ पढ़ने भी लगी हैं. बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि ‘‘अगर किसी समाज की तरक्की को देखना हो तो, उस समाज की महिलाओं और बहन-बेटियों की सामाजिक स्थिति को देखना चाहिए. क्योंकि महिलाओं के बिना परिवार और परिवार के बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती.‘‘ फिर भी यह सच है कि हम आजादी का कितना भी जश्न क्यों न मनाएं, महिला सशक्तिकरण के चाहें लाख दावे क्यों न करें, पर दिन-ब-दिन महिला उत्पीड़न, खास तौर पर डायन प्रथा के नाम पर दलित एवं आदिवासी महिलाओं की बढ़ती हत्याओं को देखकर लगता है कि हमारे आधुनिक समाज के एक कोने में कहीं पाशुविक प्रवृति का एक ऐसा वर्ग भी मौजूद है, जो महिला सशक्तिकरण के पक्ष खड़ा होने के बजाए मनुवादी व्यवस्था के पक्ष में खड़ा नजर हा रहा है. यही वर्ग महिलाओं उक्त वर्ग की महिलाओं के लिए जानलेवा तक साबित हो रहा है.
जमशेदपुर की एक घटना ने सोचने को मजबूर कर दिया कि जब भारत “आजादी 70 साल, जरा याद करो कुर्बानी” थीम के साथ आजादी दिवस मनाने के जश्न में डूबा है, इसी बीच तंत्र-मंत्र या डायन प्रथा के नाम पर बर्बरता से महिलाओं की जानें क्यों ली जा रही हैं. रूढ़िवादी परंपराओं और अंधविश्वास के नाम पर दलित एवं आदिवासी महिलाओं को क्यों कुर्बान किया जा रहा है. खबर है कि जमशेदपुर में डायन या चुड़ैल आदि होने के आरोप में एक महिला को जान से मार दिया गया. कई दिनों बाद महिला की लाश पांच टुकड़ों में पुलिस ने बरामद की. खबर है कि गांव वालों ने पुलिस टीम की जांच प्रक्रिया में बाधा डालने के प्रयास भी किए. झारखण्ड के तीन जिलों में ही केवल आठ महीनों में डायन या चुड़ैल आदि के नाम पर करीब 30 महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया. सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में प्रतिमाह डायन प्रथा के नाम पर महिला उत्पीड़न के सैकड़ों मामले दर्ज होते हैं. प्रत्येक दिन कहीं न कहीं डायन समझकर महिलाओं को मार दिया जाता है. अधिकांश मामले आादिवासी बाहुल्य इलाकों में घटित होते हैं. उदाहरण के लिए अकेले झारखण्ड में ही वर्ष 2013 में करीब 50, वर्ष 2014 में 46 और वर्ष 2015 में करीब तीन दर्जन महिलाओं को डायन के नाम पर मार दिया गया.
आदिवासी बाहुल्य राज्यों छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक और उड़ीसा में सामाजिक विकास के विज्ञापन समय-समय पर विभिन्न समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलते रहते हैं. सवाल है कि जहां डायन प्रथा या चुड़ैल के नाम पर महिलाओं की हत्याओं का सिलसिला आज भी जारी हो, उन राज्यों में सामाजिक विकास के दावे कैसे किए जा सकते हैं. हमारे पुरूष प्रधान समाज में हजारों पुरूष अंधविश्वास को बढ़ावा देने के लिए तंत्र-मंत्र या विभिन्न कर्मकाण्डों को अंजाम देने के लिए विभिन्न समाचार पत्रों में विज्ञापन तक देते हैं. जिनसे प्रभावित होकर कभी-कभी बड़ी घटनाएं घटित हो जाती हैं, फिर भी समाज का नजरिया तथाकथित मर्द तांत्रिकों के प्रति वैसा नहीं होता, जैसा डायन समझी जाने वाली महिलाओं के प्रति होता है. बल्कि ऐसे तमाम तांत्रिकों को सम्मान के साथ तांत्रिक बाबा कहा जाता है. यह समाज का लिंगभेदी नजरिया नहीं तो और क्या है.
देश के प्रत्येक नागरिक का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वह समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पूर्ण व्यवहार करते हुए उसका प्रचार-प्रसार भी करें. ताकि किसी महिला को डायन के नाम पर मारा न जा सके. इस संवैधानिक कर्तव्य को पूरा करने की जिम्मेदारी देश का मीडिया भली-भांति निभा सकता है. लेकिन पिछले करीब दो वर्षों से टी वी चैनलों पर भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र को बढ़ावा देने वाले धारावाहिकों की बाढ़ सी आ गयी है. और हमारा समाज और सेंसर बोर्ड मूक दर्शक बना हुआ है. यही कारण है कि अंधविश्वास और ढ़ोंग की इस बाढ़ में अंधविश्वास के खिलाफ अलख जगाने वाले समाज सुधारकों की जिन्दगियां बही जा रही हैं. मसलन महाराष्ट्र में वर्षों तक अंधविश्वास के खिलाफ आन्दोलन चलाने वाले अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की अंधविश्वास के पोषकों ने हत्या कर दी. समाज सुधार की खातिर शहीद होने वाले दाभोलकर सरकार से अंधविश्वास के खिलाफ कानून बनाने की मांग कर रहे थे. पर ताज्जुब देखिए कि उनकी हत्या के चंद दिनों बाद ही महाराष्ट्र में वही कानून बना दिया गया.
लेकिन दाभोलकर के हत्यारों को सरकार अभी तक सजा नहीं दिला पायी है. जहां तक डायन के नाम पर महिलाओं की हत्याओं की बात है, तो आखिर इस प्रथा के बहाने अधिकांशतः आदिवासी, दलित एवं अति पिछड़ी जातियों की महिलाओं को ही शिकार क्यों बनाया जाता है. यह कैसी विडम्बना है कि एक तरफ हिन्दुओं से अधिक बच्चे पैदा करने की अपीलें की जा रही हैं, तो दूसरी तरफ उक्त वर्गों की जननियों यानि कि माताओं को डायन के नाम पर मारा जा रहा है. समाज में डायन प्रथा किस कदर गहरी पैठ बनाए हुए है. वर्ष 2014 में विभिन्न राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अनेकों पदक जीतने वाली असम के कार्बी अलंगा जिले में चेरेकुली गांव की रहने वाली एथलीट देबजानी को गांव वालों ने डायन होने के आरोप में बांधकर बड़े दर्दनाक तरीके से पीटा था. दूसरी तरफ लोगों को याद होगा कि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एवं लाखों भारतीय युवाओं के रॉल मॉडल माने जाने वाले क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी ने ईष्ट देवी-देवता को खुश करने के लिए झारखण्ड में पशु बलि चढ़ाई थी. आंकड़े बताते हैं कि झारखण्ड में डायन के नाम पर सबसे अधिक महिलाओं की हत्याएं होती हैं.
अंधविश्वास खास तौर पर डायन प्रथा के मामलों में समय-समय पर माननीय न्यायालय विभिन्न राज्यों को फटकार लगाते रहे हैं. परिणामस्वरूप कई कानून भी बने हैं. डायन प्रथा के नाम पर महिलाओं को मौत के घाट उतारने के आरोपियों को दोषी पाए जाने पर सात साल तक की सजा का प्रावधान है. अगर कुछ क्षेत्रों को अपवाद के रूप में मान लिया जाए तो, पूरे देश में पंचायती राज चल रहा है. सरकारी पैसे से गांवों में नाली-खड़ंजे, सड़कें यहां तक कि मनरेगा जैसी योजनाएं भी चल रही हैं. हमने पंचायती राज के जरिए गांवों को पैसा देकर उनके आर्थिक विकास का बंदोबस्त तो कर दिया है. पर पंचायतों के जरिए सामाजिक विकास को हम सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं. यही वजह है कि पंचायती राज के नुर्माइंदों यानि कि पंचों की उपस्थिति मे गांव वालों द्वारा किसी भी महिला को डायन के नाम पर मार दिया जाता है. क्योंकि हमने पंचायती राज में ऐसी सामाजिक बुराईयों को दूर करने की कोई सुनिश्चितता तय नहीं की है. यह जरूरी है कि डायन प्रथा जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिए भी पंचायतों की भूमिका तय करनी चाहिए. दलितों, आदिवासियों एवं अति पिछड़ी जातियों में शिक्षित वर्ग को चाहिए कि वह समाज में डॉ. अम्बेडकर एवं डॉ. दाभोलकर की तरह अंधविश्वास के खिलाफ जन आन्दोलन चलाकर अपने समाज को इस जानलेवा परंपरा से बजाए.
सुनीता सोनिक लेखक हैं.
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