इनेलो से अलग होकर जजपा ने जींद उपचुनाव में शानदार प्रदर्शन करके प्रदेश में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है, वहीं भाजपा के बागी सांसद राजकुमार सैनी के उम्मीदवार ने भी 13000 वोट लेकर दिखाया कि प्रदेश की राजनीति में उनका भी अहम स्थान है. इन दोनों वजहों से बसपा ने इनेलो से अपने 10 महीने के गठबंधन को आज खत्म कर लिया, पिछले वर्ष अप्रैल की गर्मियों से हरियाणा की राजनीति में इनेलो बसपा गठबंधन से शुरू हुई गरमा गरमी रुकने का नाम नहीं ले रही. हरियाणा की राजनीति में एक नया तूफान आया और इनेलो को उड़ा ले गया, अभय सिंह मैदान में अकेले नजर आ रहे है पहले उनके भतीजे और अब उनकी बहन उनसे अलग हो गई है.
पिछले वर्ष जब इनेलो ने बसपा के साथ समझौता किया था तब इनेलो को साफ तौर पर लग रहा था कि प्रदेश में आने वाली सरकार उनके गठबंधन की है परन्तु धीरे धीरे ये धुंधला होता गया और आज लगभग खत्म ही हो गया. इनेलो का प्रदेश में मुख्यत जाट वोट बैंक है वहीं बसपा के साथ दलित है, जाटों का वोट प्रतिशत 25% के आस-पास है वहीं दलितों का 19%. दोनों दलों ने ये सोच के गठबंधन किया था कि यदि ये वोट बैंक आपस में मिल गया तो प्रदेश में उन्हें कोई भी अन्य दल रोक नहीं पाएगा और पिछले विधानसभा चुनावों में इनेलो 17 सीटें केवल 3000 वोटो से हारी थी और प्रदेश में कोई विधानसभा सीट ऐसी नहीं है जहां बसपा के 3000 वोट ना हो, इनेलो बसपा को प्रदेश में इस बार इन 17 सीटों पर जीत मिलने की पूरी संभावना थी और इन सीटों को मिलाकर गणित कुछ ऐसा था 19 सीटें जिन पर इनेलो जीती हुई है और 1 सीट बसपा की ये कुल 37 हो गई और यदि हम थोड़ा गहन और करे तो पाएंगे कि 23 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जिन पर गठबंधन हर बार 30000 से ज्यादा वोट लेता है तो इस प्रकार कुल 60 सीटें ऐसी थी जिन पर गठबंधन आसानी से जीत सकता था, और चौटाला साहब को प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री बन ने का मौका मिलता परंतु अफसोस ये हो नहीं पाया और ये सोच केवल सोच ही रह गई.
अब बात करते है गठबंधन टूटने से किसे ज्यादा नुकसान है, यदि हम बात बसपा की करे तो ना के बराबर नुकसान होने की सम्भावना है, क्योंकि प्रदेश की राजनीति बसपा कभी भी अहम भूमिका में नहीं रही उसे हर बार 5–6% वोट मिलता है और वो उसे इस बार भी मिलने की पूरी संभावना है. वहीं दूसरी तरफ इनेलो को ज्यादा नुकसान होता दिख रहा है क्योंकि इनेलो का कुछ वोट प्रतिशत तो उनके भतीजे ले गए और उस कमी को बसपा द्वारा पूरा करने की कोशिश थी,दूसरा अब उनके पास केवल जाटों के वोट बचे है और वो कई धडो में बंटे हुए है तो ऐसे में इनेलो को काफी नुकसान होता दिख रहा है. वहीं यदि इस गठबंधन के टूटने से सबसे ज्यादा अगर किसी को फायदा होने की संभावना है तो वह भाजपा को.
अब प्रदेश की राजनीति में एक नया समीकरण देखने को मिलेगा जहा भाजपा, कांग्रेस मजबूती दिखा रही है वहीं जजपा और आप भी मुकाबले में आ गई है और बसपा भी अपने बहुजन के नारे पर दलितो–पिछड़ों के गठजोड़ के रास्ते पर निकल गई है और राजकुमार सैनी के नए नवेले दल लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया है.
कयास ये लगाए जा रहे है कि लोसपा के साथ पिछड़े तथा बसपा के साथ दलित वोट बैंक मिल कर ये गठबंधन प्रदेश में बहुजनो की सरकार देयेगा. इस नए गठबंधन से बसपा को नुक्सान होने के पूरी संभावना है क्योंकि एक तो ये दल बिल्कुल नया है अभी तक ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़ों तक पहुंचा ही नहीं है ये केवल प्रदेश के कुछ हिस्से तक सीमित है और एक महत्वपूर्ण कारण ये है कि आज तक के चुनावी इतिहास में पिछड़ों ने कभी बसपा को वोट नहीं दिया लगभग कभी छुया ही नहीं तो अब भी पिछड़े वोटो का बसपा की तरफ स्थानांतरण होना मुश्किल ही लग रहा है और ऐसा प्रतीत हो रहा है एक बार फिर बसपा को चुनावों में हार का सामना करना पड़ सकता है.
लेखकः राजेश ओ.पी. सिंह
(पूर्व छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय)
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