अभिजात वर्गीय चरित्र से आज़ाद होता हिंदी सिनेमा

सिनेमा परिभाषित रूप से समाज का आईना है, पर साथ ही साथ ये मनोरंजन का साधन और एक व्यवसाय भी है। भारतीय सिनेमा इन तीनो अवधारणाओं के बीच कहीं झूलता रहा है। एक तरफ जब सिनेमा समाज को प्रस्तुत करता है तब वह कई बार मनोरंजक नहीं रह जाता। साथ में व्यवसायिक रूप से सफल भी नहीं होता। इसी पसोपेश में भारतीय सिनेमा लंबे समय तक आर्थिक लाभ को ज्यादा महत्व देता रहा है। इसके चलते करण जौहर, सूरज बड़जात्या की अलग आलीशान अभिजात वर्ग की दुनिया की कहानी सिनेमा के माध्यम से परोसी जाती रही।

ये मनोरंजक होने के साथ व्यवसायिक रूप से सफल भी थीं, पर भारत के किसी छोटे शहर- कस्बे में रहने वाला व्यक्ति इनसे खुद को जोड़ नहीं पाता था। उदाहरण के लिए करण जौहर की कभी खुशी कभी गम, कुछ कुछ होता है, कभी अलविदा ना कहना, ये सिनेमा मनोरंजक तो थे; पर हीरो का जीवन, उसका घर, स्कूल, कॉलेज का भारत के किसी भी स्कूल, कॉलेज या घर से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था। इससे भारत का बहुसंख्यक मध्यमवर्ग बॉस की डांट और आर्थिक मजबूरियों से उपजे अपने दिन भर की थकान को कुछ समय के लिए भूल कर एक आभासी दुनिया में खो जाता था। लेकिन वह खुद को उस सिनेमा और उसके हीरो से जोड़ नहीं पाता था।

दूसरा 90 के दशक में एक अलग ही सिनेमा चल रहा था जहां फ़िल्म में बहुत ज्यादा गाने होते थे, महिला को उसके शरीर से ऑब्जेक्टिफाई किया जाता था और यही चलन विकसित हो कर 2005 के बाद कि फिल्मों में ‘आइटम सोंग’ के रूप में सामने आता है। हीरो हीरोइन के संबंध में एक रटी रटाई स्क्रिप्ट लगभग हर फिल्म में फॉलो की जाती थी कि पहले हीरो हीरोइन को छेड़ेगा, उसका पीछा करेगा, उसके लिए कुछ गुंडों से लड़ेगा फिर एक गाना होगा अंत में हीरोइन को हीरो से प्यार हो जाएगा।

समान कहानी होने के बाद भी इस तरह का सिनेमा व्यवसायिक तौर पर भारत में बहुत सफल रहा। इस बीच कुछ गम्भीर सामाजिक विमर्श से जुड़ी फिल्में भी आईं पर वे इस चकाचौंध भरे सिनेमा के सामने नहीं टिक पाईं। जिसके कारण तिग्मांशु धूलिया, अनुराग कश्यप, शेखर कपूर, गुलज़ार जैसे गम्भीर सिनेमा बनाने वाले निर्देशक बॉलीवुड में कहीं नेपथ्य में रहे।

भारतीय सिनेमा का ये दौर गैंग्स ऑफ वासेपुर के आने तक चलता रहा पर जैसे ही ये फ़िल्म आई भारतीय सिनेमा हमेशा के लिए बदल गया। इस फ़िल्म में पात्रों की भाषा, कपड़े, घर, स्कूल, कॉलेज, जीवन की समस्याएं सब कुछ बहुसंख्यक मध्यमवर्गीय लोगों की तरह थे। इस मूवी में फैजल खान नाम का किरदार बदलते भारत की कहानी बयां करता है। इस फ़िल्म ने ना सिर्फ भारतीय सिनेमा को उसके ‘अभिजातवर्गीय चरित्र’ से आज़ाद कराया बल्कि सिनेमा में खूबसूरत गुलदस्ते की तरह उपयोग होने वाली हीरोइन को भी स्वतंत्रता दिलाई।

इस फ़िल्म की सफलता के बाद छोटे शहरों- कस्बों से निकलने वाली कहानियों की ओर भारतीय सिनेमा मुड़ गया जिसमें मशान, मांझी द माउंटेन मैन, नील वटे सन्नाटा प्रमुख हैं। जब सिनेमा में यह मध्यमवर्गीय क्रांति चल रही थी उसी समय ओटीटी प्लेटफार्म भी आते हैं जिसने भारतीय सिनेमा का सम्पूर्ण स्वरूप ही बदल दिया मिर्जापुर, गुल्लक, पंचायत, कोटा फैक्ट्री, ये मेरी फैमिली है जैसी वेब सीरीज के गुड्डू पंडित, बबलू पंडित, मुन्ना भैया, दीपक जैसे पात्र आम भारतीय से पहनावा, रहनसहन, सोच व भाषाई स्तर पर बहुत नजदीक थे। इन में से हर पात्र को हमने अपने छोटे शहर, कस्बे, गांव में देखा हुआ है ये पात्र 90 के दशक के राहुल और राज की तरह काल्पनिक नहीं लग रहे थे।

हाल ही में आई लापता लेडीज भारतीय सिनेमा के विकास का चरम है। एक सरल और सहज कहानी। घूंघट के कारण बदल गई दुल्हनों की कहानी के जरिये जिस तरह अलग-अलग किरदारों की कहानी कहती औरतों की दुनिया को नए तरीके से दिखाया गया है, वह लाजवाब है। एक औरत का आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है, यह फिल्म बड़ी सहजता से कह जाती है। फिल्म में हर पात्र का कहा गया एक-एक वाक्य गम्भीर सामाजिक विमर्श की गुंजाइश रखता है। एक सीन में दीपक की माँ अपनी सास से कहती है कि “अम्मा हम महिलाएं सास, बहु, देवरानी तो बन जाती हैं पर कभी सहेली क्यों नहीं बन पाती”। यह डायलाग भारत के संयुक्त परिवारों की ऐसी सच्चाई बताती है जिस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया।

 कहानी में प्रेम भी है पर वो फिल्मी नहीं, पवित्र और मीठा है। इसमें इंतज़ार है, चिंता है, अनिष्ट का भय है और अटूट विश्वास है। फ़िल्म देखते समय कई बार हम कहानी को बिना संवाद के भी महसूस कर सकते हैं। आखिर में जब फूल और दीपक मिलते हैं तो दर्शकों की आंखों गिली कर जाते हैं।

 फ़िल्म में हर पात्र की वेशभूषा, भाषा, रहन-सहन एकदम साधारण है। किरण राव के निर्देशन में फिल्म ने हर फ्रेम में बिना विवाद के कई गम्भीर मुद्दों को छुआ है। ये फ़िल्म भारत में ना केवल महिलावादी आंदोलन को आगे ले जाएगा बल्कि भारतीय सिनेमा को भी नई दिशा देगी। अब कहानीकार, निर्देशक और फ़िल्म निर्माता फ़िल्म की व्यवसायिक सफलता, असफलता की चिंता के परे सिनेमा को उसके परिभाषित अवधारणा “सिनेमा समाज का आईना है” के तौर पर दिखा रहे हैं।


लेखक बुद्ध प्रिय सम्राट रिसर्च स्कॉलर हैं। अस्तित्वहीन आस्था एवं भगवान और उदुम्बरा नाम से दो किताबें भी लिख चुके हैं।

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