सम्राट असोक ने धरती पर समता और शांति का साम्राज्य स्थापित करने हेतु बौद्ध धम्म को अपना कर तलवार के विकल्प के रूप में धम्म को चुना। उन्होंने ईसा पूर्व 266 में विधिवत आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी के दिन बौद्ध धम्म ग्रहण किया था । सम्राट असोक ने बौद्ध धम्म में दीक्षित होने और शस्त्र त्याग करने की ऐतिहासिक घटना को धम्म का सबसे बड़ा विजय माना था। ‘प्रियदर्शी असोक अनुसार शस्त्रों की विजय सबसे बड़ी विजय नहीं है, सबसे बड़ी विजय धम्म की विजय है। यदि धम्म के सदाचार और भाईचारा सत्ता की बुनियाद को मजबूत करता है तो फिर शस्त्र की क्या आवश्यकता?’ चूंकि असोक ने युद्ध (शस्त्र) द्वारा राज्य विजय का मार्ग छोड़कर धम्म द्वारा विजय का संकल्प लिया था इसीलिए उनके द्वारा बौद्ध धम्म ग्रहण करने की तिथि को ‘धम्म-विजय दिवस’ कहा जाता है। उस दिन हिन्दी तिथि के अनुसार आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी पड़ता था इसीलिए इसे ‘असोक विजयादशमी’ कहा जाता है। अतः सम्राट असोक के बौद्ध धम्म में धर्मान्तरण की तिथि को असोक धम्मविजय दशमी कहा जाता है जो आगे चल कर एक महोत्सव के रूप में में स्थापित हो गया। आश्विन शुक्ल पक्ष अष्टमी को सम्राट असोक विशाल बौद्ध-जुलूस निकालते थे और उसमें में भाग लेते थे। असोक द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने के 2222 सौ साल तथा महामानव बुद्ध के जन्म के 2500 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में बाबासाहेब डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को अपने पांच लाख से ज्यादा अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी। यह दिन भी आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी था। बाबासाहेब ने बौद्ध धम्म ग्रहण कर अपने पूर्वजों की मंगलकारी श्रमण परम्परा की जड़ों में पानी डाल कर उसे पुष्पित और पल्लवित कर दिया।
सम्राट असोक (ईसा पूर्व 304 से ईसा पूर्व 232) विश्वप्रसिद्ध एवं शक्तिशाली भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। असोक बौद्ध धर्म के सबसे प्रतापी राजा थे। सम्राट असोक का पूरा नाम देवानांप्रिय असोक था। उनका राजकाल ईसा पूर्व 269 से, 232 प्राचीन भारत में था। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट असोक राज्य का मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश, तक्षशिला की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी, सुवर्णगिरी पहाड़ी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश, पाटलीपुत्र से पश्चिम में अफगानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान तक पहुँच गया था। सम्राट असोक का साम्राज्य आज का सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार के अधिकांश भूभाग पर था, यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है। चक्रवर्ती सम्राट असोक विश्व के सभी महान एवं शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पंक्तियों में हमेशा शीर्ष स्थान पर ही रहे हैं। सम्राट असोक ही भारत के सबसे शक्तिशाली एवं महान सम्राट हैं। सम्राट असोक को ‘चक्रवर्ती सम्राट असोक’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है – ‘सम्राटों के सम्राट’ और यह स्थान भारत में केवल सम्राट असोक को मिला है। सम्राट असोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भी जाना जाता है।
सम्राट असोक के नाम के साथ संसार भर के इतिहासकार ‘महान’ शब्द लगाते हैं। सम्राट असोक का राज चिन्ह ‘असोक चक्र’ भारतीय अपने ध्वज में लगाते हैं एवं सम्राट असोक का राज चिन्ह ‘चारमुखी शेर’ को भारतीय ‘राष्ट्रीय प्रतीक’ मानकर सरकार चलाया जाता हैं और साथ ही ‘सत्यमेव जयते’ को भी अपनाया है। भारत देश में सेना का सबसे बड़ा युद्ध सम्मान, सम्राट असोक के नाम पर, ‘असोक चक्र’ दिया जाता है। सम्राट असोक से पहले या बाद में कभी कोई ऐसा राजा या सम्राट नहीं हुआ जिसने ‘अखंड भारत ‘ (आज का नेपाल, बांग्लादेश, पूरा भारत, पाकिस्तान, और अफगानिस्तान) जितने बड़े भूभाग पर एक-छत्र राज किया हो।
सम्राट असोक के ही समय में ’23 विश्वविद्यालयों’ की स्थापना की गई। जिसमें तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, कंधार, आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों में विदेश से छात्र उच्च शिक्षा पाने भारत आया करते थे। सम्राट असोक के शासन काल को विश्व के बुद्धिजीवी और इतिहासकार, भारतीय इतिहास का सबसे ‘स्वर्णिम काल’ मानते हैं। सम्राट असोक के शासन काल में भारत ‘विश्व गुरु’ था। ‘सोने की चिड़िया ́था। जनता खुशहाल और भेदभाव-रहित थी। उनके शासन काल में, सबसे प्रख्यात महामार्ग ‘ग्रेड ट्रंक रोड’ जैसे कई हाईवे बने। 2,000 किलोमीटर लंबी पूरी ‘सड़क’ पर दोनों ओर पेड़ लगाये गए। ‘सरायें’ बनायीं गईं। मानव तो मानव, पशुओं के लिए भी, प्रथम बार ‘चिकित्सा घर’ (हॉस्पिटल) खोले गए। पशुओं को मारना बंद करा दिया गया।
असोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और साम्राज्य के सभी साधनों को जनता के कल्याण हेतु लगा दिया। असोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए निम्नलिखित साधन अपनाये-
(क) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, (ख) धर्म महापात्रों की नियुक्त, (ग) धर्म श्रावण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, (घ) धर्मलिपियों का खुदवाना, (च) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्त, (छ) दिव्य रूपों का प्रदर्शन, (ज) लोकाचारिता के कार्य, (झ) विदेशों में धर्म प्रचार को प्रचारक भेजना आदि।
प्रियदर्शी मौर्य सम्राट असोक के द्वारा तथागत गौतम बुद्ध व इनके धम्म को विश्व में लोकगुरू स्थापित करने का योगदान
हालांकि सम्राट असोक अपने साम्राज्य के लिए शासन प्रशासन और नीतियों के लिए बहुत ही काबिल व्यक्ति रहा परंतु साथ ही साथ में भारतवर्ष में जब हम बौद्ध धर्म के प्रसार और स्थायित्व की बात करते हैं तो सबसे पहले मौर्य सम्राट असोक का नाम स्वगर्णिम अक्षरों से लिया जाता है। दीपवंश और महावंश के अनुसार असोक अपने शासन के चौथे वर्ष ही बौद्ध धम्म में दीक्षित हो गया था। उसने 84 हजार स्तूपों का निर्माण किया। साँची के लघु स्तम्भ लेख से पता चलता है कि बौद्ध संघ में फूट डालने वाले 60,000 भिक्खुओं को संघ से निष्कासित कर दिया और उनके लिए नियम था वे श्वेत वस्त्र पहनकर किसी अयोग्य स्थान पर रहेंगे। तीसरी बौद्ध संगीति पाटलीपुत्र (पटना) में असोक द्वारा कराई गयी। इस संगीति की अध्यक्षता मोग्गिलिपुत्त तिष्य ने की थी उसके बाद ही बौद्ध धम्म के अंदर त्रिपिटक स्थापित हुआ जिसमें ( सूत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक)। सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में असोक एक मात्र ऐसा उदाहरण था कि जिसने अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा का उनके भरपूर यौवन काल में राज्य एवं सुख-सम्पत्ति या वैभव से न जोड़कर राजपाट छुड़वाकर धम्मविजय एवं धम्मप्रसार के लिए संसार के कोने-कोने में भेजा। आज हम प्रमाण के साथ कह सकते हैं कि विश्व मे कई बुद्धिस्ट देश हैं तो उसमें सम्राट असोक का ही योगदान है। प्रियदर्शी सम्राट असोक ने ही भगवान बुद्ध को लोक गुरु / विश्व गुरु में स्थापित कर चुके हैं।
सम्राट असोक द्वारा प्रवर्तित कुल 33 अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिन्हें असोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफाओं की दीवारों में अपने 269 ईसापूर्व से 231 ईसापूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। ये आधुनिक बंगलादेश, भारत, अफ़्गानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं।
इन शिलालेखों के अनुसार असोक के बौद्ध धर्म फैलाने के प्रयास भूमध्य सागर के क्षेत्र तक सक्रिय थे और सम्राट मिस्र और यूनान तक की राजनैतिक परिस्थितियों से भलीभाँति परिचित थे। इनमें बौद्ध धर्म की बारीकियों पर जोर कम और मनुष्यों को आदर्श जीवन जीने की सीखें अधिक मिलती हैं। पूर्वी क्षेत्रों में यह आदेश प्राचीन मगधी भाषा में पाली भाषा के प्रयोग से लिखे गए थे। पश्चिमी क्षेत्रों के शिलालेखों में भाषा संस्कृत से मिलती-जुलती है और खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया। एक शिलालेख में यूनानी भाषा प्रयोग की गई है, जबकि एक अन्य में यूनानी और अरामाई भाषा में द्विभाषीय आदेश दर्ज है। इन शिलालेखों में सम्राट अपने आप को ‘प्रियदर्शी’ (प्राकृत में ‘पियदस्सी’ ) और देवानाम्प्रिय (यानि देवों को प्रिय, प्राकृत में ‘देवानम्पिय’) की उपाधि से बुलाते हैं।
असोक के बारे में जानने का प्रामाणिक स्रोत उनके ही लिखवाए अभिलेख हैं। ये अभिलेख शिलाओं पर कहीं स्तंभों पर और कहीं गुफाओं में लिखवाए गए हैं। असोक का शायद ही कोई अभिलेख हो, जिनमें धम्म शब्द का प्रयोग न हो। वहां दान भी धम्म दान है, यात्रा भी धम्म यात्रा है, मंगल भी धम्म मंगल है, लिपि भी धम्म लिपि है, विजय भी धम्म विजय है। असोक – राज में सत्ता के केंद्र में धम्म था । धम्म से गृह-नीति संचालित थी और धम्म से ही विदेश नीति भी संचालित थी। पड़ोसी देशों के साथ असोक ने जो मैत्री, शांति और सह-अस्तित्व की नीति अपनाई थी, उसके केंद्र में धम्म था। भारी फौज के बावजूद भी असोक ने पड़ोसी देशों में राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने की बात कभी नहीं सोची। वे धम्म विजय के हिमायती थे। इसीलिए उन्होंने पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण- पूर्व यूरोप से लेकर दक्षिण के राज्यों तक में धम्म के सिद्धांत और कल्याणकारी कार्यक्रम फैलाए। असोक धम्म-मार्ग के राही थे । गौतम बुध के वचनों में उनकी आस्था थी । असोक के अभिलेख गौतम बुद्ध के काल से सर्वाधिक निकट हैं और शिलाओं पर अंकित होने के कारण उनमें मिलावट भी संभव नहीं है। भानु के लघु शिलालेख में असोक ने लिखवाए हैं कि बुद्ध, धम्म और संघ में मेरी आस्था है। तब बौद्ध गया का नाम संबोधि था। देवान पियेन का अर्थ है- बुद्धप्रिय । बुद्ध हों प्रिय जिसके, वह है देवान पियेन । देव यहां बुद्ध का प्रतीक है। पियदसिन का अर्थ है- प्रियदर्शी। प्रिय दिखने वाला पियदसिन है। दसिन से ही दास संबंधित है। अशोक चक्र को कर्तव्य का पहिया भी कहा जाता है. ये 24 तीलियाँ मनुष्य के 24 गुणों को दर्शाती हैं। दूसरे शब्दों में इन्हें मनुष्य के लिए बनाये गए 24 धर्म मार्ग भी कहा जा सकता है। अशोक चक्र में बताये गए सभी धर्म मार्ग किसी भी देश को उन्नति के पथ पर पहुंचा देंगे। शायद यही कारण है कि हमारे राष्ट्र ध्वज के निर्माताओं ने जब इसका अंतिम रूप फाइनल किया तो उन्होंने झंडे के बीच में चरखे को हटाकर इस अशोक चक्र को रखा था।
आइये अब अशोक चक्र में दी गयी सभी तीलियों का मतलब (चक्र के क्रमानुसार) जानते हैं-
- पहली तीली:- संयम (संयमित जीवन जीने की प्रेरणा देती है), 2. दूसरी तीली:- आरोग्य (निरोगी जीवन जीने के लिए प्रेरित करती है), 3. तीसरी तीली:- शांति (देश में शांति व्यवस्था कायम रखने की सलाह), 4. चौथी तीली:- त्याग (देश एवं समाज के लिए त्याग की भावना का विकास), 5. पांचवीं तीली:- शील (व्यक्तिगत स्वभाव में शीलता की शिक्षा), 6. छठवीं तीली:- सेवा (देश एवं समाज की सेवा की शिक्षा), 7. सातवीं तीली:- क्षमा (मनुष्य एवं प्राणियों के प्रति क्षमा की भावना) 8. आठवीं तीली:– प्रेम (देश एवं समाज के प्रति प्रेम की भावना), 9. नौवीं तीली:- मैत्री (समाज में मैत्री की भावना), 10. दसवीं तीली:- बन्धुत्व (देश प्रेम एवं बंधुत्व को बढ़ावा देना), 11. ग्यारहवीं तीली:- संगठन (राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत रखना), 12. बारहवीं तीली:- कल्याण (देश व समाज के लिये कल्याणकारी कार्यों में भाग लेना), 13. तेरहवीं तीली:- समृद्धि (देश एवं समाज की समृद्धि में योगदान देना), 14. चौदहवीं तीली:- उद्योग (देश की औद्योगिक प्रगति में सहायता करना), 15. पंद्रहवीं तीली:- सुरक्षा (देश की सुरक्षा के लिए सदैव तैयार रहना), 16. सौलहवीं तीली:- नियम (निजी जिंदगी में नियम संयम से बर्ताव करना), 17. सत्रहवीं तीली:- समता (समता मूलक समाज की स्थापना करना), 18. अठारहवी तीली:- अर्थ (धन का सदुपयोग करना), 19. उन्नीसवीं तीली:- नीति (देश की नीति के प्रति निष्ठा रखना), 20. बीसवीं तीली:- न्याय (सभी के लिए न्याय की बात करना), 21. इक्कीसवीं तीली:- सहकार्य (आपस में मिलजुल कार्य करना), 22. बाईसवीं तीली:- कर्तव्य (अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करना), 23. तेईसवी तीली:- अधिकार (अधिकारों का दुरूपयोग न करना), 24. चौबीसवीं तीली:- बुद्धिमत्ता (देश की समृधि के लिए स्वयं का बौद्धिक विकास करना)
यह आलेख गौतम बुद्ध कल्चरल एंड वेलफेयर ट्रस्ट, ग्रेटर नोएडा द्वारा असोक विजयदशमी के इतिहास पर तैयार करवाया गया है।
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