”संविधान काव्य” का हुआ विमोचन, कविता और दोहे के रूप में पढ़ सकेंगे संविधान

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पुडुचेरी। पुडुचेरी के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (डीजीपी) सुनील कुमार गौतम ने “संविधान काव्य” नाम की पुस्तक लिखी है. इस पुस्तक में उन्होंने संविधान के सिद्धांतों का सार लिखा है. इस पुस्तक में व्याख्या सहित 238 दोहे हैं जोकि संविधान के अनुच्छेद और नीति-निदेशक सिद्धांत को परिभाषित करते हैं. पुस्तक विमोचन के अवसर पर लेखक एस.के गौतम ने कहा कि संविधान बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसे हर नागरिक को पढ़ना चाहिए. मैंने इसे साधारण बनाया है ताकि आम आदमी भी पढ़ सके. इसीलिए इसे कविता और दोहे के रूप में तैयार किया है. उन्होंने आगे कहा कि अब लोग कविता के माध्यम से पूरा संविधान जान सकते हैं. प्रत्येक दोहे को संविधान के एक-एक अनुच्छेद से लेकर तैयार किया गया है. डीजीपी ने कहा कि लोगों को उनके अधिकार, उत्तरदायित्व और कर्तव्य के बारे पता होना चाहिए. लोगों को उनके कर्तव्य का समझदारी और उचित रूप में पालन करना चाहिए. उन्होंने बताया कि “संविधान काव्य” लिखने में उन्हें चार-पांच महीने का समय लगा. लेखक ने इसकी सॉफ्ट कॉपी अपने दोस्तों और सहकर्मियों को दी है, जहां से उन्हें काफी साकारात्मक टिप्पणी मिली है. एस के गौतम इसे अंग्रेजी, तमिल, पंजाबी और बंगाली में अनुवाद करने की योजना बना रहे हैं. “संविधान काव्य” पुस्तक का प्रकाशन ”न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन” ने किया है. पुस्तक का विमोचन 5 अक्टूबर को पुडुचेरी में हुआ. लेफ्टिनेंट गर्वनर डॉ. किरन बेदी ने पुस्तक का विमोचन किया और पहली पुस्तक मुख्यमंत्री वी नारायनसामी को दी गई. मुख्य सचिव मनोज परिदा भी पुस्तक विमोचन में शामिल हुए. गौतम ने अभी तक आठ पुस्तकें लिखी हैं, जिसमें सबसे प्रमुख है ”टर्न योर चाइल्ड इंटू जिनियस.” यह पुस्तक अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में है. इसके अलावा उन्होंने इंटेलीजेंस, ब्रेन फ्यूल, ट्रीटिंग टेंट्रम्स, द फिलोसफर्स स्टोन और साइंटिफिक स्टडी स्कील्स आदि पुस्तकें लिखी हैं.

रक्षक ही बने भक्षकः सुरक्षा बलों ने ही जलाए 250 आदिवासियों के घर, किया महिलाओं से रेप

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raipurरायपुर। दक्षिण बस्तर के सुकमा जिले के ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली गांवों में आदिवासियों के घर जलाने की घटना की जांच कर रही सीबीआई ने पांच साल बाद शुक्रवार को कोर्ट में चार्जशीट पेश की. सीबीआई ने बताया कि आगजनी कांड को सुरक्षा बलों ने ही अंजाम दिया. सुनवाई के दौरान जस्टिस मोहन बी लोकुर व आदर्श गोयल की बेंच ने सरकार को शांति स्थापना के प्रयास करने तथा नक्सलियों से बातचीत शुरू करने को कहा. कोर्ट ने सालिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि 2016 का शांति का नोबेल पुरस्कार कोलंबिया सरकार व वहां युद्धरत गुरिल्ला आर्मी एफएआरसी के बीच समझौता हुआ है. कोर्ट ने मिजोरम और नगालैंड में शांति स्थापना का भी उदाहरण दिया. सॉलिसिटर जनरल ने कोर्ट से कहा कि वे नक्सलियों से बातचीत की जरूरत को सरकार के उच्च स्तर पर जरूर उठाएंगे. हालांकि मेहता ने यह भी कहा कि बातचीत से समस्या का तत्कालीन समाधान ही निकल सकता है. जरूरत स्थायी शांति की है. ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुर गांवों को आग के हवाले करने की घटना 11 से 16 मार्च 2011 के बीच तब हुई, जब फोर्स इस इलाके में गश्त पर थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि दंतेवाड़ा के तत्कालीन एसएसपी और बस्तर के वर्तमान आईजी एसआरपी कल्लूरी के आदेश पर इन गांवों में पुलिस का गश्ती दल भेजा गया था. सुप्रीम कोर्ट ने 5 जुलाई 2011 को मामला सीबीआई को सौंपा था. जांच के दौरान सीबीआई को भी धमकी मिली तथा अफसरों पर हमला किया गया. सीबीआई ने एसपीओ और जुडूम नेताओं सहित 35 लोगों पर आईपीसी की धारा 34, 147, 149, 323, 341, 427 व 440 के तहत मामला दर्ज किया है. सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 357 के तहत पीड़ितों को मुआवजा देने का भी आदेश दिया है. ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली गांवों में आगजनी और हिंसा फोर्स ने की. मोरपल्ली गांव के माड़वी सुला तथा पुलनपाड़ गांव के बड़से भीमा और मनु यादव की हत्या की गई. तीन महिलाओं से रेप किया गया, जिनमें दो मोरपल्ली गांव की हैं और एक ताड़मेटला की. मोरपल्ली में 33 घर, तिम्मापुर में 59 तथा ताड़मेटला में 160 घरों को आग लगाकर नष्ट कर दिया गया. 26 मार्च 2011 को स्वामी अग्निवेश जब मदद लेकर उन गांवों में जाने की कोशिश कर रहे थे तो दोरनापाल में उन पर तथा उनके सहयोगियों पर जानलेवा हमला किया गया. इस घटना में जुडूम लीडर शामिल थे. रेप व मर्डर के मामलों की जांच अभी जारी है. मामले में जुडूम नेताओं पी विजय, दुलार शाह, सोयम मुक्का सहित 26 अन्य तथा सात एसपीओ के खिलाफ सीबीआई कोर्ट रायपुर में चार्जशीट पेश की गई है. मामले में याचिकाकर्ता नंदिनी सुंदर ने कहा कि सीबीआई की जांच ने पुलिस के उस झूठ का पूरी तरह से पर्दाफाश कर दिया है, जिसमें वह कहती रही है कि आगजनी नक्सलियों ने की थी. साफ है कि बस्तर में सब गैरकानूनी काम फोर्स कर रही है. मीडिया रिपोर्ट से आगजनी और रेप तथा मर्डर का खुलासा हुआ तो सुकमा पुलिस ने डीएस मरावी की ओर से एफआईआर दर्ज की, लेकिन उसमें रेप व मर्डर का जिक्र नहीं किया गया. सरकार व कल्लूरी ने तब मीडिया रिपोर्ट को प्रपोगेंडा कहा था.

हरियाणाः दलित के घर में घुस कर की मारपीट, चेहरे और हाथ पर डाला तेजाब

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हिसार। हरियाणा के माथे पर एक बार फिर से दलित उत्पीड़न का बड़ा दाग लगा है. दरअसल, हिसार जिले की नारनौंद तहसील के गुरु रविदास मंदिर मोहल्ला में जातीय रंजिश के कारण एक दलित परिवार के साथ दिल दहला देने वाली घटना सामने आई है. प्राप्त जानकारी के अनुसार पड़ोसी आरोपी ने एक दलित युवक (रोहताश) के घर घुसकर उसे लोहे की रॉड से माथे में चोट मारी और चेहरे व हाथ पर तेजाब उलेड़ दिया. इस जातीय हमले में रोहताश तेजाब से झुलसकर गंभीर रूप से घायल हो गया. पीड़ित के रिश्तेदार सोहन लाल ने बताया कि आरोपी राजेंद्र व उसकी पत्नी और सोनू, कपिल तथा अन्य ने इसी साल जून में पीड़ित के घर ईंटे बरसा दी थी जिसमे रोहताश व इनके परिजनों को चोटें आई थी फिर जुलाई में नारनौंद थाने के पास बिजली की दुकान पर घुसकर 5 लोगों ने रोहताश पर हमला कर दिया था. यही नहीं इसी अक्टूबर माह की 3 तारीख को एक बार और रोहताश पर हमला बोला गया, जिसमे रोहताश का हाथ टूट गया था और वह 3 दिन हिसार के सामान्य अस्पताल में दाखिल रहा था. 4 बार हमला होने व इसकी शिकायत करने के बावजूद पुलिस ने हमलावरों पर कोई कार्रवाई नहीं की. पुलिस आरोपियों को बचाने व उनके दबाव में काम कर रही है जिस कारण इन्होंने चौथी बार तेजाबी हमला कर जान लेने की कोशिश की है. पीड़ितों ने बार-बार पुलिस व एसपी तक को शिकायत की, लेकिन कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई. रोताहश को परिजन आनन-फानन में नारनौंद के सामान्य अस्पताल लेकर गए, जहां उसकी नाजुक हालत को देखते हुए डॉक्टरों ने उसे हिसार के सामान्य नागरिक अस्पताल में रैफर कर दिया था. घटना की सूचना मिलते ही बसपा समर्थक प्रमुख दलित एक्टीविस्ट बजरंग इन्दल टीम के साथ पीड़ित से मिलने शहर के नागरिक अस्पताल पहुंचे. बजरंग इन्दल ने बताया कि नारनौंद स्थित गुरु रविदास मंदिर मोहल्ला में पीड़ित के घर के साथ आरोपियों का घर है. आरोपी व्यक्ति राजेंद्र पुलिस विभाग से रिटायर हुआ है और इसके 2 अन्य परिजन भी पुलिस में है. 4 बार दलितों पर हमला होने के बाद भी पुलिस को तुरन्त हमलावरों पर एससी/एसटी एक्ट और संबंधित धाराओं में केस दर्ज कर उन्हें जेल भेजना चाहिए था, लेकिन पुलिस ने पीड़ितों की सुनवाई नहीं की. पुलिस पीड़ितों को सुरक्षा दें तथा आरोपियों को जल्द गिरफ्तार कर जेल भेजें.

22 अक्टूबर से शुरू होगा भारतीय बौद्ध भिक्षु महासम्मेलन, हजारों लोग लेंगे धम्म दीक्षा

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फिरोजाबाद (यूपी)। सुहागनगरी में आयोजित होने जा रहे दो दिवसीय भारती बौद्ध भिक्षु महासम्मेलन में देश-विदेश के विभिन्न राज्यों के सैकड़ों बौद्ध भिक्षु जुटेंगे. सम्मेलन में मानव जीवन में सुख शांति लाने के साथ बौद्ध दर्शन के प्रचार प्रसार पर मंथन होगा. आयोजन की तैयारी जोरशोर से की जा रही है. यह जानकारी भंते बुद्धशरण महास्थविर ने नगर में आयोजित प्रेसवार्ता के दौरान दी. उन्होंने बताया कि सम्मेलन का आयोजन सुहागनगरी के बौद्ध समाज द्वारा किया जा रहा है. दो दिवसीय सम्मेलन नगर के पीडी जैन इंटर कालेज के मैदान पर 22 अक्टूबर को प्रारम्भ होगा. कार्यक्रम में हजारों अनुयायी बौद्ध दीक्षा ग्रहण करेंगे. उन्होंने बौद्ध अनुयायियों से समारोह में भाग लेकर धम्म लाभ प्राप्त करने का आव्हान किया. कार्यक्रम संयोजक मीतल प्रसाद निमेष ने बताया कि 22 अक्टूबर को रत्नपुंज बिहार नगला मिर्जा बड़ा पर तथागत बुद्ध की प्रतिमा का अनावरण भी किया जाएगा. सम्मेलन में देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु भाग लेंगे. उन्होंने कहा सम्मेलन में नेपाल, श्रीलंका, थाईलैंड, जापान, तिब्बत के भिक्षुओं की सहभागिता रहेगी. इसके अलावा भारतीय बौद्ध स्थलों में- सारनाथ, बौद्ध गया, लुम्बिनी, सिलीगुड़ी, भोपाल, नालंदा, कुशीनगर, राजनगर, सागर, इंदौर, अकोला, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली, चेन्नई, घाटकोपर आदि के बौद्ध भिक्षु भी भाग लेंगे. भिक्षु नागदीप स्थविर ने कहा समारोह का आयोजन देश में विलुप्त होती जा रही बौद्ध विरासत को पुनर्जीवित करने के लिए किया जा रहा है ताकि भावी पीढ़ी को तथागत बुद्ध के जीवन दर्शन का ज्ञान हो सके. साथ ही बौद्ध अनुयायी बौद्ध धम्म की शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन सार्थक बना सकें.

बलिदान दिवस: जानिए, दो बार ब्रिटिश सेना को हराने वाले बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके की कहानी

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यह जंगल में भागकर घास की रोटी खाने वालों की कहानी नहीं है.. न अस्सी घाव खाकर मुंह छुपाने वालों की दास्तान है.. यह रणछोड़, घुटनाटेकू या देश की जनता के साथ गद्दारी करने वाले हिन्दू राजाओं की भी बात नहीं है.. यह ज़िन्दा इतिहास है शौर्य, पराक्रम और अपनी मिट्टी के लिए जान तक न्यौछावर करने वाले एक आदिवासी योद्धा की.. गोँडवाना के उस शूरवीर की, जिसने देशी ब्राह्मणी व्यवस्था के साथ मिलकर यहां अपना हुकूमत चलाने वाले अंग्रेज़ों के आगे कभी अपनी हार नहीं मानी और उनसे लोहा लेता रहा.. यह गौरवशाली बयान है उस मूलनिवासी शूरवीर का, जिसने अपनी धरती की आन-बान-शान को सबसे आगे रखा और खुद शहीद होकर भी गोंडवाना के मान को ऊंचा उठाया…यह हक़ीक़त है- गोँड महाराजा बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके की, जिन्हें 21 अक्टूबर, 1858 को अपने स्वाभिमान को बरकरार रखने के चलते अंग्रेज़ों ने फांसी पर लटका दिया था.. सवर्ण इतिहासकारों ने इस महान घटना को दर्ज़ नहीं किया, लेकिन यह एक ज़िन्दा इतिहास है, जो हमेशा मौजूद रहेगा. बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके  का जन्म 12 मार्च 1833 को हुआ था. वह पुलायसर बापू और जुर्जा कुंवर के बड़े बेटे थे. पुलायर बापू महाराष्ट्र के चंडा ओपी और बेरार जिले के अंतर्गत आने वाले घोट के मोलमपल्ली के बड़े जमींदार थे. गौंड परंपरा के अनुसार शेडमाके की शुरूआती शिक्षा घोटुल संस्कार केंद्र से हुई, जहां उन्होंने हिंदी, गोंडी और तेलुग के साथ-साथ संगीत और नृत्य भी सीखा. इंगलिश सीखने के लिए उनके पिता ने उन्हें छ्त्तीसगढ़ के रायपुर भेजा. रायपुर से शिक्षा प्राप्त करने के बाद शेडमाके वापसी मोलापल्ली आए. 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने आदिवासी परंपरा के अनुरूप राज कुंवर से विवाह किया. 1854 में, चंद्रपुर ब्रिटिश रूल के अंतर्गत आया. शेडमाके ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई. 1857 के दौरन, जब पूरा भारत स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ युद्ध छेड़ा, शेडमाके ने 500 आदिवासी युवाओं को इकट्टा कर सेना बनाई और उन्हें लड़ने के लिए तैयार किया. उन्होंने आदिवासी सेना के साथ मिलकर राजघड क्षेत्र को ब्रिटिशों से छुड़वाकर अपना कब्जा जमाया. जब यह खबर चंद्रपुर पहुंची तो ब्रिटिश कलेक्टर मि. क्रिक्टन ने ब्रिटिश सेना को युद्ध के लिए भेजा, लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही नंदगांव घोसरी के पास ब्रिटिश सेना को हरा दिया. मि. क्रिक्टन ने फिर से सैन्य दल युद्ध के लिए भेजा जोकि संगनापुर और बामनपेट में हुआ लेकिन यहां ब्रिटिश सेना हार गई. इन दोनों जीत से शेडमाके का मनोबल बढ़ा और उन्होंने 29 अप्रैल 1858 को चिंचगुडी स्थित उनके टेलीफोन शिविर पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण में टेलीग्राफ ओपरेटर्स मि. हॉल और मि.गार्टलैंड मारे गए थे जबकि मि. पीटर वहां से भागने में कामयाब रहा और उसने पूरी घटना की जानकारी मि. क्रिक्टन को बताई. मि. क्रिक्टन ने शेडमाके को गिरफ्तार करने के लिए कूटनीतिक चाल चली. एक तरफ वह नागपुर के कैप्टेन शेक्सपियर्स से  उन्हे पकड़ने के लिए पूछ रहे थे और दूसरी तरफ वह अहेरी की जमींदारनी रानी लक्ष्मीबाई से उसे पकड़ने का दवाब बना रहे थे. शेडमाके इससे वाकिफ नहीं थे. 18 सितंबर 1858 को शेडमाके को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें चंडा सेंट्रल जेल लाया गया, 21 अक्टूबर 1858 को बाबूराव पुलेश्वर शेडमाके को चंडा के खुले मैदान में फांसी दे दी गई.

सब बेपेंदी के लोटे

पत्रकारिता और राजनीति की थोड़ी-बहुत समझ होने के बावजूद मुझे आज भी रीता बहुगुणा जैसे दल-बदल पर हैरत और खीज होती है. गुस्सा आता है कि कोई ऐसा अवसरवादी कैसे हो सकता है कि बिल्कुल उलट विचारधारा के साथ चला जाए. हालांकि कांग्रेस और बीजेपी विपरीत विचारधारा नहीं हैं, फिर भी जीवन भर आप जिस पार्टी, उसकी नीतियों का विरोध करते रहे उसी में कैसे और किस मुंह से शामिल हो जाते हैं. जगदम्बिका पाल के बीजेपी में जाने पर मुझे हैरत नहीं हुई थी, सतपाल महाराज या रीता जी के भाई विजय बहुगुणा के भी बीजेपी में जाने पर मुझे हैरानी नहीं हुई. लेकिन रीता बहुगुणा जोशी. एक राजनीतिक और शिक्षक के तौर पर इनका अपना एक अलग मकाम था. हालांकि लंबे समय से रीता जी कांग्रेस में हाशिये पर थीं और इस बार के चुनाव में भी उन्हें कोई बड़ी ज़िम्मेदारी नहीं मिल रही थी, सो उनका दल बदल तय या स्वाभाविक ही था, लेकिन बीजेपी में जाना, कुछ हज़म नहीं हुआ. वैसे सपा-बसपा में उन्हें ठिकाना भी नहीं मिलता. ऐसी अवसरवादिता के लिए हमारी मां एक कहावत कहती हैं कि “जहां देखी तवा-परात, वहीं बिताई सारी रात.” मतलब जहां भी देखा कि रोटी-पानी का इंतज़ाम है, वहीं पड़ जाओ. यही अब ये नेता कर रहे हैं. जहां भी दिखता है कि पद, पैसा या सत्ता मिल सकती है, वहीं पहुंच जाते हैं. बचपन में सुना था कि संघी और कम्युनिस्ट बस ये दो लोग ही ऐसे होते हैं जो कभी अपनी विचारधारा नहीं छोड़ते और इसे आज तक सच होता देख भी रहा हूं. वरना सब बेपेंदी के लोटे हो गए हैं.​

बच्चों को पढ़ाने वाले दलित युवक की जातिवादी गुंडों ने की पिटाई, पुलिस भी दे रही है गुंडों का साथ

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इलाहाबाद। फूलपुर कोतवाली में आने वाले भमई हुसामगंज जमलापुर में दलित युवक प्रमोद कुमार गांव के बच्चों को पढ़ाता है. प्रमोद का यह काम गांव के ही कुछ उच्च जाति के लड़कों को रास नहीं आया. इसीलिए उन्होंने रात में प्रमोद के घर डाका डाल दिया. इस घटना को अंजाम देने के लिए उन्होंने बरसाती डाकू गैंग का सदस्य महरादीन को भी अपने साथ लिया और प्रमोद के घर धावा बोल दिया. प्रमोद ने गुंडों का विरोध किया तो गुंडों ने बंदूक दिखाकर उसके साथ मारपीट की. इसके बाद वे घर में रखे 9 हजार रूपये और एक मोबाइल लूट ले गए. पीड़ित युवक ने घटना की शिकायत फूलपुर थाना में की. पुलिस पर गुंडों के प्रभाव और मिलीभगत होने के कारण अभी रिपोर्ट दर्ज नही हुई है. प्रमोद ने आईजी सहित जिले उच्चाधिकारियों को रजिस्टर्ड डाक से शिकायत पत्र भेजकर न्याय की गुहार लगाई है. साथ ही अनुसूचित जाति आयोग को भी इसकी सूचना दी. प्रमोद ने बताया की थाने में केस दर्ज करने वाला पुलिस कर्मचारी भी मुझे और मेरे परिवार को पुलिस में शिकायत करने पर जान से मारने की धमकी दे रहा है. इस पर युवक ने सीओ फूलपुर रविशंकर प्रसाद से मिलकर इसकी सूचना दी तो सीओ ने उस पुलिस कर्मचारी के खिलाफ मुकदमा लिखने और वैधानिक कार्यवाही करने को एसओ फूलपुर को आदेश दिया है. लेकिन अभी तक पुलिस ने मुकदमा दर्ज नहीं किया.

पटना में आयोजित हुआ ””कांशीराम तेरी नेक कमाई, तूने सोती कौम जगाई”” पर कैडर कैम्प

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पटना। बहुजन समाज पार्टी के बैनर तले मान्यवर कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में एक दिन का राज्य स्तरीय कैडर कैंप आयोजित किया गया. कैडर कैंप का थीम “कांशीराम तेरी नेक कमाई, तूने सोती कौम जगाई” पर आधरित था. कैंप का आयोजन बिहार की राजधानी  पटना के विद्यापति भवन में आयोजित हुआ था. कार्यक्रम का शुभारंभ मान्यवर कांशीराम एवं बाबासाहेब अम्बेडकर की तस्वीर पर माला अर्पण के साथ किया गया. इस अवसर पर मुख्य अतिथि एवं बिहार प्रदेश प्रभारी तिलक चंद अहिरवार ने कहा कि इस कार्यक्रम का उद्देश्य बसपा के विचारधारा को कार्यकर्ताओं एवं पदाधिकारियों को अवगत कराना है. जिससे कि वह प्रशिक्षित हो कर अपने-अपने क्षेत्र में बसपा के कार्यकताओं और सदस्यों को कैडर कैम्प दे सके. बिहार के बसपा प्रदेश प्रभारी डा. लालजी मेंधाकर ने कहा कि हम प्रदेश व देश में सिर्फ एक जाति को जोड़कर सत्ता में नहीं आ सकते है. इसके लिए समाज के 85 प्रतिशत लोगों को बसपा की विचारधारा से जोड़ना होगा. तभी प्रदेश मे बसपा की सरकार बन सकती हैं. उन्होंने मान्यवर कांशीराम एवं बाबासाहेब अम्बेडकर के संघर्षमय सफर को विस्तृत रूप से कार्यकताओं एवं पदाधिकारियों को अवगत कराया. मेंधाकर ने कार्यकताओं एवं पदाधिकारियों को अवसरवादी नेताओं से सजग रहने की सलाह दी. कार्यक्रम को पूर्व कैबिनेट मंत्री कमलाकान्त गौतम, मिठाई लाल भारती, बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भरत बिंद, प्रदेश उपाध्यक्ष राजेश त्यागी, प्रदेश सचिव राज कुमार राम सहित अन्य लोगों ने भी संबोधित किया.

मैं 16 साल का दलित छात्र हूं, क्लास में मुझे प्रताड़ित किए जाने का वीडियो वायरल हो गया है

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मैं 16 साल का छात्र हूं और बिहार के मुजफ्फरपुर में एक सरकारी स्कूल में पढ़ता हूं. पिछले कुछ दिन से हर कोई यह जानना चाहता है कि मुझे स्कूल में उन लड़कों ने इतनी बुरी तरह से क्यों पीटा. मैं काफी समय तक चुप रहा. कभी पुलिसवालों को, कभी स्कूल के साथियों को तो कभी मीडिया को बार-बार अपने पिटने की कहानी बताकर अब मैं निराश हो गया हूं.. थक गया हूं. इन सभी को जब से मेरे पिटने का वीडियो सोशल मीडिया पर मिला, तब से बार-बार पूछ रहे हैं. कुछ लोगों ने मुझे बताया कि मेरे पिटने का वीडियो वायरल हो गया है. बचपन में ही मेरे पिता ने मुझे मेरी नानी के घर मुजफ्फरपुर में पढ़ने के लिए छोड़ दिया था. मेरे पापा मेरी दो छोटी बहनों के साथ गांव में ही रहते हैं और वह एक शिक्षक हैं. उन्होंने मुझे वह नाम दिया, जिसका अर्थ ”बेस्ट” होता है. वे चाहते हैं कि मैं यहां अच्छी शिक्षा ग्रहण करूं. मैं बहुत मेहनत करता हूं. मेरी हमेशा यही कोशिश रहती है कि पापा की अपेक्षाओं पर खरा उतरूं. स्कूल में मारपीट की उस घटना से पहले और उसके बाद भी आज मुझ पर जो बीत रही है वो एक प्रताड़ित छात्र या समाज से निष्कासित व्यक्ति ही समझ पाएगा. मैंने स्कूल में अच्छा करना शुरू किया तो मेरे पिता खुश हुए, लेकिन इसके साथ ही मेरी प्रताड़ना भी शुरू हो गई. मैं पिछले दो साल से अपने स्कूल में अच्छे मार्क्स लाकर दलित होने का नतीजा भुगत रहा हूं. मेरी ही क्लास में पढ़ने वाला एक छात्र और उसका भाई पिछले दो साल से मुझे प्रतिदिन प्रताड़ित करते हैं. मुझे भद्दी-भद्दी गालियां देते हैं. हफ्ते में कम से कम एक बार वे मेरे चेहरे पर थूक फेंकते हैं. मैंने अपने अध्यापक को यह सारी बातें बताई. उन्हें मेरे साथ सहानुभूति तो है, लेकिन साथ ही उन्होंने बताया कि उन दोनों के पिता बहुत ताकतवर क्रिमिनल हैं. इसलिए स्कूल उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता. उन्होंने कहा कि अगर मैंने उनके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई तो मुझे स्कूल से नाम काटे जाने पर मजबूर कर दिया जाएगा. मैं भी चिंतित था कि मुझे प्रताड़ित करने वाले लड़कों के पिता मेरे परिवार के साथ क्या करेंगे. इसलिए मैंने चुप रहना ठीक समझा. वह वीडियो जो वायरल हुआ है और जिसकी वजह से पुलिस केस भी दर्ज हो गया है, मुझे लगता है कि वह 25 अगस्त का है. उनमें से एक ने कहा था कि मुझे मारने में उसे खुशी मिलती है. इसलिए उसने एक अन्य छात्र को फोन देकर मेरे साथ मारपीट का वीडियो बनवाया. वह कक्षा में पीछे बैठता है, जहां आसानी से नकल हो सकती है. मैं हमेशा आगे की बैंच पर बैठता हूं. नकल करने के बावजूद उसके नंबर बहुत खराब आते हैं, जबकि मेरे हमेशा अच्छे नंबर आते हैं. इसी बात से उसे मेरे साथ नाराजगी है. और जब उसे पता चला कि मैं दलित हूं तो उसने मुझे प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. इस वीडियो में भी देख सकते हैं कि मैं कुर्सी पर बैठा था और वह मुझे मार रहा है. उसने मेरे सिर पर मारा. मुझे लात-घूसें मारे गए. मुझे कुर्सी से खींचकर एक दीवार के पास ले जाया गया और मेरे चेहरे पर थप्पड़ मारा गया. किसी ने भी उसे और उसके भाई को रोकने की कोशिश तक नहीं की. मुझे बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया. इस वीडियो के बारे में जानने के बाद मेरे नाना खुद को रोक नहीं पाए और उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी. लेकिन दो-तीन लोग आए और उन्होंने हमें केस वापस लेने की धमकी दी. अब मैंने स्कूल जाना भी छोड़ दिया है. मार्च में मेरी वार्षिक परीक्षाएं हैं. अब आप ही बताएं मैं कैसे इस टॉर्चर का सामना करूं और परीक्षा की तैयारी करूं.
(साभारः एनडीटीवी )

करवा चौथः महिलाओं की भूख से पति को मिलेगी अमरता!

जम्बूद्वीप में दीर्घकाल तक रामराज्य स्थापित रहा, जहां पर पुरूषों को शक करने ,पत्नियों की अग्नि परीक्षा लेने तथा गर्भावस्था में भी उन्हें त्याग देने जैसे विशेषाधिकार प्राप्त थे. रामजी की कृपा से तब पुरूष शक्ति का आज जैसा क्षरण नहीं हुआ था. तब तक पति को परमेश्वर का दर्जा मिला हुआ था. उनके निधन पर महान स्त्रियां अग्नि स्नान करके सती हो जाती थी. फिर उनके मंदिर बनते, सुबह शाम पूजा की जाती. सती स्त्री बहुत सशक्त हो जाती थी, सब कोई उसके समक्ष नत मस्तक हो जाते थे, क्या स्त्री और क्या पुरूष. मर्दानगी की मर्यादा बनाई रखने के कारण ही दशरथनंदन को जम्बूद्वीप का सर्वोत्कृट पितृ पुरस्कार “पुरूषोत्तम” प्रदान किया गया. इससे प्रेरणा प्राप्त कर आर्यपुत्रों ने पत्नियों को त्यागने तथा उनकी अग्निपरीक्षा लेने का आदर्श कार्य शुरू किया. सतयुग, द्वापर, त्रेता एवं कलि काल तक यह व्यवस्था निर्बाध जारी रही. जम्बूद्वीप के अंतिम आर्य सम्राट ने भी रामराज्य के अनुसरण में अपनी विवाहिता को त्याग कर कहीं छुपा दिया. बरसों बाद कुछ राष्ट्रद्रोही नारदों ने युक्तिपूर्वक उक्त आर्यपुत्री को खोज निकाला. पहले तो सम्राट नें माना ही नहीं कि कभी उन्होंने आग के चारो तरफ सात फेरे लिये थे, फिर उनकी स्मृति लौटी तो उन्हें अपने जीवन की वो पहली स्त्री याद हो आई और अंतत: उन्होंने स्वीकार लिया कि उनका विवाह हो चुका है. यह सुनते ही भक्तगणों में भारी निराशा फैल गई. खैर, राष्ट्रीय निराशा से उबरने में देश को कुछ वक्त जरूर लगा, मगर शीघ्र ही सबके अच्छे दिन आए. पति देव कहलाने लगे और पत्नियां देवी के पद पर नियुक्त हुई. अंतत: पुरूषत्व के पर्व को दैवीय और शास्त्रीय शास्वत मान्यता मिली. इस के लिये मिट्टी के लौटे में जल भर कर चन्द्र दर्शन की व्यवस्था की गई. मिट्टी के लोटे को रामराज में  “करवा” कहा जाता था. लंका हादसे के मुताबिक बिछड़े हुये युगल के लिये करवे में पानी भर कर चतुर्थी के दिन चन्द्र को जल अर्पित करने से पुनर्मिलन की आस जगती है और मिले हुये दम्पत्तियों के बिछुड़ने के आसार लगभग क्षीण हो जाते है. चन्द्रमा जिसने गौतम की पत्नि के साथ इन्द्र द्वारा किये गये बलात्संग में सह अभियुक्त की भूमिका निभाई थी, उसे पुरूष होने का लाभ मिला. उसका कुछ नही बिगड़ा. आज भी दागदार चन्द्रमा पूरी शान और अकड़ के साथ निकलेगा, जिसे देख कर दिन भर की भूखी प्यासी व्रता विवाहिताएं उसे जल का अर्ध्य देगी और करवा चौथ का व्रत खोलेंगी. …और इस तरह सम्पूर्ण स्वदेशी भारतीय पति पर्व “करवाचौथ” सानंद सम्पन्न होगा. पुरूषों की उम्र स्त्रियों की भूख की कीमत पर द्रोपदी के चीर की तरह अतीव लम्बी हो जायेगी. पहले से ही कुपोषण की शिकार एनेमिक भारतीय महिलाएं और अधिक एनेमिक हो जायेंगी. खुशी की बात सिर्फ यह होगी कि परराष्ट्रीय पुरूष आज से अल्पजीवी हो जायेंगे, “करवाचौथ” के अभाव में उनकी औसत उम्र अत्यल्प होने से पूरे पृथ्वी लोक में हाहाकार मच जायेगा. दूसरी तरफ आज रात में चांद फिर मुस्करायेगा तथा भारतीय आर्य पतियों को अमरता मिल जायेगी और नासा को भारतीय पत्निव्रता स्त्रियों द्वारा आज चढ़ाया गया सारा जल कल चांद पर मिल जायेगा. भूमण्डल के जम्बूद्वीप पर “करवाचौथ माई” की जय जय कार होने लगेगी… और इस तरह ” राष्ट्रीय पति दिवस ” सानंद सम्पन्न हो जायेगा. जै हो करवा वाली चौथ की पतियों की कभी ना होने वाली मौत की..!! लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

पढ़िए, बिग बॉस के प्रतिभागी ओम जी महाराज के बारे में एक पत्रकार का खुलासा

इसे पहचानिये, यह है ओम जी महाराज बिग बॉस का प्रतिभागी है. इसे मैं तबसे जानता हूं जबसे इसका दिल्ली में अवतरण हुआ था. उस वक्त मैं नई दुनिया दिल्ली में स्टेट कोआर्डिनेटर हुआ करता था. यह ओम जी महाराज जंतर-मंतर पर आशाराम बापू की रिहाई को लेकर अनिश्चितकालीन धरना शुरू किया हुआ था. मुझे याद है रोज बेहद आपत्तिजनक भाषा में विज्ञप्तियां लेकर मेरे कार्यालय आ जाता था. एक दिन जब अति हो गई तो मैंने इसे धक्का देकर ऑफिस से निकाल दिया. बाद में पता लगा कि इसके रिश्ते युगांडा के एक ड्रग पैडलर से हैं. आशाराम जब इलाज के लिए दिल्ली लाया गया तो यह उनके साथ था. एक दिन टीवी पर देखा एक लाइव कार्यक्रम में एक महिला को गाली देते हुए उसके साथ मारपीट कर रहा था. सर्वाधिक आश्चर्य तब हुआ जब इस घटना के कुछ ही दिनों बाद यह निर्भया की मां के साथ रेप आरोपी की रिहाई के खिलाफ हुए धरने में इंडिया गेट पर बैठा नजर आया. अब यह बिग बॉस में है, क्यों हैं ? यह आप अंदाजा लगा सकते हैं. मनोरंजन उद्योग की निगाह में भारत के टीवी दर्शक सूअरों के झुण्ड की तरह है. देखते रहिये बिग बॉस- -आवेश तिवारी के फेसबुक वॉल से​

मीडिया से अछूता है आदिवासी समाज

पिछले महीने आई एक खबर ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा. ये खबर थी एक आदिवासी दाना माझी की. वीडियो में अपनी पत्नी की लाश ढोता हुआ दाना मांझी अचानक से ही पूरे देश का सबसे अभागा और चर्चित व्यक्ति बन गया. नींद से जागी हुई मीडिया को अचानक ही ये महसूस हुआ की आदिवासी भी इस देश के नागरिक हैं और उनके दुख और तकलीफें भी “प्राइम टाइम” में जगह पाने की हकदार हैं. फिर क्या था? जोश से लबरेज मीडिया ने दाना मांझी के बहाने सिस्टम की खूब खटिया खड़ी की. बुद्धिजीवियों के हुजूम को मानो नवजीवन मिल गया. कोई सिस्टम को गालियां दे रहा था तो कोई दाना माझी के भाग्य को कोस रहा था. सारे चैनलों में खुद को सबसे ज्यादा संवेदनशील दिखाने की होड़ सी मच गयी. हर बुद्धिजीवी अपनी जंग खाती बौद्धिक क्षमता का परिचय देने पर तुला हुआ था. मैने भी मीडिया में आयी इस नवचेतना का “देर आयद दुरुस्त आयद” वाले अंदाज में दिल खोल के स्वागत किया. समय बीतता जा रहा था और चैनलों पे आदिवासी विमर्श अपने चरम पे पहुंच गया. लेकिन इस सारे शोर में चैनल्स ने असल मुद्दे को छुआ तक नहीं. क्या किसी ने ये सोचने का कष्ट किया की आदिवासियों की और क्या-क्या समस्याएं हैं? किसी चैनल वाले ने ये सोचा की उन्हें आदिवासियों और उनसे जुड़े हुए मुद्दों की याद कभी-कभी ही क्यों आती है? सच तो ये है मीडिया जैसे सशक्त माध्यम पे कब्ज़ा उन लोगों का है जो इन मूलनिवासियों और इनसे जुड़े हुए मुद्दों को तब तक खबर मानता ही नहीं जब तक की ये घनघोर टीआरपी वाली ना हों. इनके महंगे कपडों और मेकअप से लबरेज संवाददाता जंगलों का रुख तब तक नहीं करते जब तक वहां कोई नक्सली घटना ना हो जाये. बाकी बची हुए मीडिया वालों के लिये ये असभ्य और जंगली हैं जिनका कुछ नहीं हो सकता. जब तक मीडिया पर ऐसे लोगों का कब्ज़ा है तब तक वंचित तबके की ख़बर का सच में ख़बर बन पाना लगभग असम्भव है. वैसे भी आज-कल मीडिया पर “राष्ट्रवाद” का बुखार चढ़ा है. ऐसे में किसी और मुद्दे के बारे में सोचना भी “देशद्रोह” के समान है. मीडिया का बाकी बचा टाईम मोदी, क्रिकेट, अंधविश्वास, और सिनेमा के लिये रिजर्व है. अब इन जरूरी मुद्दों के आगे आदिवासियों को कौन पूछे? वैसे हम और आप चाहें तो हज़ारों दाना माझी ढूंढ सकते है जो अपने मेहनती कंधों पर अपनी उम्मीदों की लाश ढोते हुए आसानी से मिल जायेंगे. बस उनके नाम और शक्लें अलग होंगी.

मंदिर में दलित ने झुकाया सि‍र तो पड़े डंडे, कुशवाहा समाज के लोगों ने कहा- तूने भगवान को भगा दि‍या

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झांसी। मंदिर में प्रणाम करने पर एक दलि‍त परिवार की पि‍टाई का मामला सामने आया है. आरोप है कि कुशवाहा समाज के लोगों ने लाठी-डंडों से पि‍टाई के बाद गाली देकर उस परिवार से कहा, ”तूने भगवान को भगा दि‍या. आगे से गांव के आसपास भी दिखे तो गोली मार देंगे.” मामला उत्तर प्रदेश के झांसी से करीब 85 किलोमीटर दूर लहचूरा थानाक्षेत्र का है. 13 अक्टूबर को कारसदेव मंदिर में रामेश्वर कुशवाहा भंडारा करवा रहा था. भंडारे में ढांके (ढोलक की तरह होती है, जिसे लकड़ी की दो डंडियों की सहायता से बजाया जाता है) बज रही थी. मंदिर में उत्सव का माहौल था. इसी बीच गांव के ही रहने वाले लखन लाल कोरी अपनी पत्नी पुष्पा कोरी के साथ वहां से निकल रहे थे. लखन कोरी ने मंदिर में भक्तिमय माहौल को देखकर मंदिर के चबूतरे पर अपना सि‍र रखकर देवता को प्रणाम किया. इसी बीच वहां बैठे कुशवाहा समाज के 6-7 जातिवादि गुंडों ने उसे देख लिया और लाठी डंडों से लखन और पुष्पा की पिटाई कर दी. जातिवादियों ने दलित परिवार को जातिसूचक गाली देते हुए कहा कि उनकी वजह से हमारे देवता चले गए. इतना ही नहीं उच्च जाति के लोगों ने धक्के देकर दलित परिवार को गांव से भगा दिया और धमकी दी की गांव के आसपास भी दिखे तो गोली मार देंगे. घटना से डरकर दलित परिवार ने घटना के दूसरे दिन 14 अक्टूबर को इसकी शिकायत लहचूरा थाने में की, लेकिन उनकी वहां कोई सुनवाई नहीं हुई. आरोप है कि पुलि‍स भी इनकी नहीं सुन रही. दलित परिवार शनि‍वार को एसएसपी से शि‍कायत करने पहुंचे, लेकि‍न उनसे मुलाकात नहीं हुई. डर के मारे दलित परिवार अपना घर छोड़कर रिश्तेदार के यहां रह रहा है.

कौन कहता है बच्चों को जाति का ज्ञान नहीं होता

मैं मुजफ्फरपुर (बिहार) का रहने वाला हूँ, मेरी स्कूली शिक्षा इंग्लैंड में नहीं बल्कि मुज़फ्फरपुर में ही हुई. दिवंगत रघुनाथ पांडे द्वारा बनवाए गए- विद्या बिहार स्कूल में. दसवीं तक वहीँ पढ़ा. जाहिर है, उम्र नाबालिग थी और मेरे साथ पढ़ने वाले छात्र भी नाबालिग थे. लेकिन ज्यादातर नाबालिग छात्रों में जातिगत सोच कूट-कूट कर भरी हुई थी. आखिर नाबालिग उम्र के बच्चों को कौन सिखलाता है कि किस (जाति) के लोगों के साथ मित्रता रखनी है, किसके साथ बैठना है इत्यादि .. जाहिर है यह ट्रेनिंग घर से ही मिलती होगी. कई बार मैंने कई अभिवावकों को यह भी कहते सुना कि फलां छोटी जात का है, उसके साथ मत रहो इत्यादि. मुजफ्फरपुर लंगट सिंह कॉलेज का छात्र हुआ, जातिवाद का एक खूुनी, भयावह कॉलेज. बचपन से विद्रोही प्रवृति का था, आप समझ ही गए होंगे. इसलिए पिताजी नाम कटवाकर मोतिहारी के मुंशी सिंह कॉलेज ले गए, वहां भी कमोबेश वही आलम. उबकर दिल्ली चला आया, देशबंधु कॉलेज, यहाँ भी पहले दिन जाति पूछी गई. यही नहीं सवर्णों की आपसी जातिगत गुटबंदी भी थी. फिर एम. ए. और उससे आगे, दिल्ली विश्वविद्यालय, उत्तरी परिसर, हॉस्टल भी सवर्ण जातियों ने आपस में बाँट लिया था और बिहार की तरह ही गुंडई का केंद्र. कौन कहता है, बच्चों को जाति का ज्ञान नहीं होता ? स्कूल से लेकर बी.ए., कितनी उम्र होती है, सोलह से अठारह साल, कहाँ से सीखता है बच्चा जातीय ज्ञान, नफरत और भेदभाव? – निः संदेह परिवार ही पहली पाठशाला है. कहानी और भी है, धीरे-धीरे विस्तार से बयां करेंगे…. लेखक के फेसबुक वॉल से साभार.  लेखक दिल्ली विवि में प्रध्यापक हैं.

भारतीय समाज में दलित साहित्य और राजनीति

भारतीय समाज में चातुर्वर्ण व्यवस्था भारतीय संस्कृति का आधार मानी जाती है. परन्तु दलित समाज के लिए एक सामान संस्कृति जैसी कोई चीज कभी नहीं रही. चतुर्वर्ण व्यवस्था से अधिक निकृष्ट और कोई सामाजिक संगठन कभी नहीं पनप पाया, बल्कि इस व्यवस्था ने तो दलित समाज के लोगों को मृत, पंगु तथा अशक्त बनाकर अच्छा कर्म करने से रोकने का आधार तैयार किया. हिन्दू धर्म ने तो दलितों को युगों से गुलाम बनाकर रौंदा है. एक वर्ग दूसरे वर्ग से श्रेष्ठ है, इस श्रेष्ठतम के अहंकार से लिप्त हिन्दू धर्म सभ्यता की झूठी आडम्बरी संस्कृति ने दलितों को हाशिए पर धकेलकर बहिष्कृतों की तरह जीने के लिए मजबूर किया है. ब्राह्मणवादी सभ्यता के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में दलितों का प्रवेश निषेध कर दिया गया. उसे उत्पादनों के तमाम संसाधनों के हकों से वंचित कर दिया गया. जिस कारण से उसके लिए आर्थिक सत्ता को प्राप्त करने के सब सुलभ रास्ते बंद कर दिए गए. केवल बाकी बचा अस्पृश्यता का अदृश्य अदद शरीर. लेकिन उस अदद शरीर को भी नहीं छोड़ा गया, उस पर भी कब्जा कर लिया गया. कब्जा करके गुलामी की बेड़ियों से जकड़कर सदियों तक गुलाम बनाकर रखा गया, जिसके आज भी ताजा उदाहरण हमारे ग्रामीण परिवेश में नज़र आते हैं. हिन्दू समाज ने दलित समाज को अपने में समेटता हुआ अधिकारहीन, अपवित्र करार दिया, जो राजसत्ता की मोहर की तरह जिन्दा और आज तक कायम है. समाज में जातिगत अपमान और उत्पीड़न की जड़ें गहरी हैं. एक लम्बे ऐतिहासिक काल से सामाजिक संरचना में इसकी मौजूदगी की निरन्तरता के कारण उसकी जटिल संश्लिष्ट प्रकृति सामने आती है. उसे देखकर इसके अस्तित्व का कभी खात्मा हो पाएगा, यह बात असम्भव प्रतीत होता है क्योंकि बहिष्कृत समाज गांव, कस्बों एवं नगरों की दक्षिण दिशा में अंधकारमय बस्तियों में सिसकता रहा है. ऐसी गुमनाम जिन्दगी, जिसमें अभाव, अपमान, अवहेलना, पीड़ा और तिरस्कार के अलावा और कुछ नहीं. इसको तो जन्म से ही अपवित्र माना जाता रहा है. अपवित्रता का अभिशाप झेलने की विवशता और उत्पीड़न के साथ जी रहा है. सर्वप्रथम इस जातिवादी-ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर कट्टर प्रहार तथागत गौतम बौद्ध ने किया. समतामूलक समाज की स्थापना करने के लिए उन्होंने एक नये युग का सूत्रपात किया. दलितों एव स्त्रियों के लिए बौद्ध विहारों में प्रवेश के माध्यम से ज्ञान का मार्ग प्रस्शत किया. थेर और थेरी गाथाओं में रचित साहित्य दलितों और स्त्रियों के दुख दर्द की अभिव्यक्ति दिखायी देती है जिसे सर्वप्रथम दलित साहित्य (काव्य) की श्रेणी में रखा जाता है. बौद्ध काल को स्वर्णकाल कहा गया परन्तु भारतीय हिन्दूवादी संकीर्ण राजनीति ने अपने कपटतापूर्ण व्यव्हार से बौद्ध-विहारों को नष्ट कर वैदिक संस्कृति की नींव रखने में सफलता प्राप्त की. शंकराचार्य जैसे लोगों ने बौद्ध विहारों को नष्ट करने के लिए उनमें प्रवेश कर गंदी राजनीति का खेल खेला और बौद्धों के विहारों को नष्ट करने के लिए एकजुट होकर उनके द्वारा रचित साहित्य को खत्म कर दिया. तक्षशीला जैसे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को तीन दिन तक जलाकर विपुल बौद्ध साहित्य को खत्म कर दिया गया. यही वजह रही कि आज हमे बौद्ध साहित्य प्राप्त नहीं होता जो बचा वह विदेशों में मिलता है. इस समय ही दलित साहित्य की नींव पड़ गयी थी जिसे आगे चलकर दलित संत-परम्परा ने जिंदा रखा. उन्होंने उसी ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर चोट की जिसकी नींव तथागत बुद्ध ने डाली थी. संत कबीर, संत रैदास, संत सवता माली ने अपनी रचनाओं में मानवीय मूल्यों की स्थापना की. भारतीय मुख्यधारा के साहित्य में इनकी रचनाओं और संदेश को भक्तिवादी साहित्य ही माना गया. उन्हे एक युगंतकारी मूलगामी परिवर्तक के तौर पर न देखना राजनीति का ही परिणाम रहा. संत सविता माली जो नामदेव के समकालीन थे, इसी परंपरा से महात्मा ज्योतिबा फूले पैदा हुए जिनको सारा राष्ट्र आदर, श्रद्धा सम्मान और स्नेह से ज्योतिबा कहता है. हिन्दू समाज में अछूत”” मानी जाने वाली जातियों के लिए सम्भवतः सबसे पहले उन्नीसवी सदी में जोतिराव फुले ने ‘दलित’ शब्द का प्रयोग किया. उन्हें जाति विरोधी आन्दोलनों का अग्रदूत कहा जा सकता है. 1840 में उन्होंने मुम्बई में खास तौर पर अछूतों”” के लिए एक स्कूल खोला और 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य ‘शूद्र और अतिशूद्र”” कही जाने वाली जातियों को अपने मानवाधिकारों के प्रति जागरूक बनाना और उन्हें ब्राह्मण धर्मशास्त्रा में प्रतिपादित विचारधारा के प्रभाव से मुक्त कराना था. महात्मा फूले ने हिन्दू विधवा स्त्रियों के लिए, उनके बाल काटने का विरोध करने के लिए नाइयों की हड़ताल करवा दी थी जो भारतीय ढांचे का एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था. उन्होंने गुलामगिरी के माध्यम से दलितों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत किया. शिक्षा पर अत्यधिक जोर दिया और सबसे पहले अपनी पत्नी को पढाया जो कालान्तर में भारत की पहली शिक्षिका बनी. मुक्ता बाई जैसे महिलाएं उनकी छात्राएं बनी. मुक्ता बाई जब 14 साल की थी तब उसने महार जाति की महिलाओं की सामाजिक स्थिति को लेकर एक निबंध लिखा जो अहमनगर से प्रकाशित एक अखबार में विस्तार से छपा. यह दलित छात्रा की पहली रचना थी जो स्त्रियों के दयनीय जीवन पर आधारित रचना थी. ये सब भी उसी राजनीति का शिकार हुए और एक युग का अन्त हुआ. तथागत बुद्ध से लेकर महात्मा ज्योतिबा फुले तथा सावित्री बाई फुले के कार्यों को आगे बढाते हुए डॉ. बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर ने दलित एकता, समानता, स्वतंत्रता, समान नागरिक अधिकार और गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आजीवन संघर्ष किया. राजनीतिक अधिकारों के लिए उन्होंने पूना-पैक्ट किया और संविधान के माध्यम से सभी अधिकारों में सामानता दी. स्त्रियों के लिए हिन्दू कोड बिल बनाया जो संसद में उस रूप में पारित नहीं हो पाया जिस रूप में बाबासाहेब ने इसे बनाया था. इसके कारण उन्होंने संसद में कानून मंत्री पद से इस्तीफा कर दिया था. मनुस्मृति जो दलितों और स्त्रियों के लिए हिन्दू कानून के रूप में काम करती थी उसका दहन कर उस व्यवस्था को खत्म किया जो सदियों से दलितों को गुलाम बनाने के लिए बनी थी.  उन्होंने वर्णाश्रम के अनुसार हो रहे इस सामाजिक उत्पीड़न को एक के ऊपर एक रखे उन मटकों के समान माना है, जिनमे सबसे नीचे के मटके में दलित और आदिवासी है. वर्ण व जाति के इस मानव निर्मित जाल की बुनतर को बाबासाहेब बखूबी समझते थे इसलिए उन्होंने जाति-व्यवस्था को पूर्ण रूप से खत्म करने का बीड़ा उठाया. उन्होंने कहा- “मैं हिन्दू समाज में पैदा हुआ पर इसमे मरुंगा नही”. सन 1956 में दस लाख लोगों के साथ बाबासाहेब ने नागपुर में हिन्दू धर्म का त्याग कर और बौद्ध धर्म ग्रहण कर दलितों के लिए एक नया रास्ता तैयार कर दिया था. लोकतंत्र के माध्यम से सता प्राप्ति का अधिकार दलितों और आदिवासियों के लिए दिया. बाबासाहेब शिक्षा को शेरनी का दूध कहते थे. इसलिए उन्होंने हमेशा पैन और प्रैस पर जोर दिया. दलितों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने बताया कि अपने अनुभव अपनी कलम से लिखो ताकि आने वाली पीढ़ियां उस साहित्य को पढे. उस दौर में लिखा गया साहित्य दलित साहित्य के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. दलित महिलाओं ने अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से अपने दुख-दर्द एक दूसरे से सांझा किये . उस दौर से प्रेरणा लेकर अम्बेडकरी साहित्य आज विपुल मात्रा में लिखा जा रहा है. दलित, जिसमें दलित महिलाएं भी शामिल हैं, आज मुख्यधारा के साहित्य को टक्कर देकर भूमंडलीकरण साहित्य के रूप में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए है. आज दलित साहित्य को स्कूलों और कालेज तथा विश्वविद्यालय के पाठयक्रमों में पढाया जाना इस साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है. फिर भी इतने संघर्षों और कुर्बानियों के बावजूद भी आज दलितों और आदिवासियों के साहित्य को मूल रूप से नहीं पढाया जाता बल्कि उसमें राजनीति एक अहं रोल अदा करती दिखाई देती है. राजनीति उस दलित काव्य को नजरादंज करती है जो उस व्यवस्था पर चोट करती है जो मूलगामी परिवर्तन व दलित तथा बहुजन एकता की बात करते हैं. राजनीति कभी नहीं चाहेगी कि बहुजन समाज की एकता स्थापित हो जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया था . – लेखिका मोतीलाल नेहरू कॉलेज में संस्कृत विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

नहीं दिया दलित बच्चों को दाखिला, स्कूलों ने हड़पी 100 करोड़ की स्कॉलरशिप

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चंडीगढ़। आम आदमी पार्टी (आप) ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की निगरानी में दलित छात्रों के नाम पर हो रहे घोटाले की उच्च स्तरीय जांच की मांग की है. आप की पंजाब इकाई के संयोजक गुरप्रीत सिंह वडैच ने आज यहां कहा कि शिक्षा माफिया इस फर्जीवाड़े के जरिये सरकारी खजाने से करोड़ों रुपए डकार रहा है. पार्टी ने इस पूरे भ्रष्टाचार की जांच की मांग की है. निजी शिक्षा संस्थाओं में वर्ष 2014-15 के लिए 30 हजार फर्जी दाखिले दिखाकर सरकार से 100 करोड़ रुपए हड़पे गए. उन्होंने कहा कि यह राशि दलित छात्रों के पोस्ट-मैट्रिक स्कॉलरशिप के लिए थी. वडैच ने कहा कि करोड़ों के इस घोटाले के लिये अकाली भाजपा गठबंधन सरकार जिम्मेदार है. सरकार की शह पर यह फर्जीवाड़ा चल रहा है. कांग्रेस ने भी मजबूत विपक्ष की भूमिका नहीं निभाई क्योंकि निजी शिक्षा माफिया में अकाली-भाजपा नेताओं के साथ कांग्रेसी भी शामिल हैं. आप नेता के अनुसार इस घोटाले के कारण दलित छात्रों को लाभ नहीं मिल पा रहा. दलितों के अलावा गरीब छात्रों को भी दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं.

भारत में जानवर हत्या पाप है और दलित हत्या पुण्य !

जिस समाज में हम रहते हैं वह उत्सव प्रेमी है, ईश्वर प्रेमी है, पशु प्रेमी तो है मगर मानवता प्रेमी नहीं है. ऐसा इसलिए कि मरे हुए पशु की खाल को रोजी-रोटी का साधन बनाने वाले गुजरात के ऊना शहर में दलित युवकों की तालीबानी अंदाज में खाल उधेड़ दी गयी, जो ब्रिटिश हूकूमत की दमन की नीति को ताजा कर देती है. आज विश्व में 90 प्रतिशत चमड़ा उद्योग गोवंशीय पशुओं की खाल पर ही निर्भर है. चमड़े के उत्पादों की विश्व बाजार में बड़ी मांग है. इन उद्योंगों/फैक्टरियों में क्या गाय की खाल नहीं जाती होगी पशु प्रेमियों से यही प्रश्न है कि आपने अभी तक कितने चमड़े की फैक्टरियों को बंद कराया है? दलित जो आजादी के 70 वर्ष बाद भी शोषण और प्रताड़नाओं, छुआछूत, हिन्दू धर्म की आंतरिक संरचना की गुलामी से स्वतंत्र नहीं हो पाया है. इसमें दोष किसका माना जाये धर्म का या राजनीति का? दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए मरी हुई गाय की खाल ले जाने पर गरीब दलित युवको की खाल उधेड़ दी जाती है और आटा छूने पर उत्तराखण्ड में एक ब्राह्मण शिक्षक द्धारा दलित युवक की गर्दन काट दी जाती है आखिर क्यों? हल जोतकर दिन रात पसीना बहाकर जो दलित ब्राहमण के घर में अनाज का ढेर लगाता है और खुद भूखा-प्यासा रहता है, तब वो ब्राह्मण क्यों उसकी पैदा की गयी फसल और अनाज को अपवित्र नहीं मानता? इतना ही नहीं जो शिल्पकार उनके मकानों को बनाता है तब उनके बनाये मकानों में क्यों निवास करते हैं? वंचितों को उत्पीड़ित करने का यह नया तरीका हिन्दुस्तान के सामाजिक ताने-बाने को अवश्य ही बिगाड़ने का काम कर रहा है, जिसकी कटु से कटु शब्दों में निंदा की जानी चाहिए. गौरक्षा अच्छी पहल है शास्त्रों में गाय को माता का दर्जा दिया गया है, मगर एक दलित युवक का सरेआम हलाल किया गया तब अहिंसा के पुजारी और मानवता के पुजारी तथा सनातन धर्म के ठेकेदार चुप क्यों? आज हकीकत मालूम हो गयी कि भारत में जानवर हत्या पाप है और दलित हत्या पुण्य है. भारत की विडंबना ही कही जायेगी कि वेदों से लेकर मनुस्मृति तक सभी धर्म ग्रंथ दलितों के खिलाफ हैं. भारतीय शास्त्र और धर्म इंसान को अछूत मानता है. जबकि संविधान सभी ग्रंथों से ऊपर है संविधान की मर्यादा को लांघकर किया गया अमानवीय कृत्य देश को विकास की ओर नहीं विनाश की ओर धकेल देगा! गौरक्षा ही क्यों प्राणी मात्र की रक्षा और सेवा करना सच्चे मानव धर्म की पहचान होनी चाहिए. धर्म और जाति के नाम पर उन्माद और गुंडा गर्दी, कानून की अवहेलना करना सब संविधान के विरूद्ध किया गया आचरण है. भारत ने मंगल ग्रह की दूरी तो नाप दी है जो गर्व की बात है मगर देश को जिन बातों पर अभिमान है उनमें जातपांत भी एक है. जातिवाद की खाई को मिटाने या कम करने में समाज और देश की राजनीति और देश का धर्म अवश्य ही विफल रहा है. देश के प्रधानमंत्री मोदी जी जब विदेशों में भाषण देते हैं तो भारत को बुद्ध की धरती कहकर संबोधित करते है मगर अमेरिका, जापान, फ्रांस सब जानता है कि भारत प्राचीन काल में बुद्ध की भूमि अवश्य थी मगर अफसोस अब अगड़ों और पिछड़ों की युद्ध भूमि बनती जा रही है. सबका साथ सबका विकास नहीं वरन देश में अगड़ों का सम्मान और दलितों का अपमान हो रहा है जो चिंता का विषय है. गाय से मंदिर तक, नल से जल तक, स्कूल से कॉलेज तक, गांव से श्मशान तक, शिक्षक से डॉक्टर तक, चपरासी से अफसर तक बच्चे से बूढ़े तक, बेटी-बहन से मां तक हर रोज देश का वंचित समाज दलित होने का दंश झेल रहा हैं और उत्पीडन का शिकार हो रहा और अपमानित हो रहा है. दलितों के वोट तो कीमती हैं मगर उनका लहू पानी से भी सस्ता. बागेश्वर जनपद के भेटा गांव (उत्तराखण्ड) की घटना ने देश को शर्मसार तो किया ही है लेकिन इस घटना ने एक क्रांतिकारी संदेश भी दिया है कि अब देश का दलित अपने ऊपर हो रहे जुल्म और शोषण को सहन नहीं करेगा. जिस तरह 1921 में बागेश्वर में कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ था जिसमें कुली बेगार के रजिस्टरों को सरयू में बहा दिया गया था उसी प्रकार 12 अक्टूबर 2016 को उत्तराखण्ड के शिल्पकार समाज ने जिसकी अगुवाई शिक्षक संगठन ने की, ब्राह्मणवाद के प्रतीक टीका चंदन को त्यागने का संकल्प लिया और मनुवाद से आजादी, ब्राह्मणवाद से आजादी के नारे लगाये और डा. अम्बेडकर के नीले रंग को धारण करने की भीम प्रतिज्ञा की. संगठित होकर पूरे उत्तराखण्ड के दलित  समुदाय विरोध प्रदर्शिन करने सड़कों पर उतर आया और डॉ. अम्बेडकर के शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो के मार्ग पर चलने लगा है जिसके दूरगामी परिणाम अवश्य ही दिखाई देंगे. लेखक प्रवक्ता (भौतिक विज्ञान) हैं. अल्मोडा़ (उत्तराखण्ड) में रहते हैं. संपर्क- iphuman88@gmail.com

दीक्षाभूमि पर उमड़ा भीम सैलाब, 20 हजार लोगों ने ली बौद्ध धम्म की दीक्षा

नागपुर। बाबासाहेब भीम राव अम्बेडकर की धम्मक्रांति भूमि नागपुर की पवित्र दीक्षाभूमि पर 60वें धम्मचक्र प्रवर्तन के दिन लाखों बौद्ध अनुयायियों ने तथागत बुद्ध और बाबासाहेब को श्रद्धा सुमन अर्पित किए. अशोक विजयदशमी 14 अक्तूबर को धम्मचक्र प्रवर्तन दिन समारोह मनाया गया. बाबासाहेब ने 14 अक्तूबर 1956 को बौद्ध धम्म अपनाया था. इस दिन लाखों अनुयायियों ने दीक्षा भूमि पर महामानव को नमन किया. भारत और विश्व के बौद्धों के लिए दीक्षाभूमि आधुनिक तीर्थ स्थल है. भारत में बौद्धगया, सारनाथ, कुशीनगर, लुंबिनी की तरह ही दीक्षाभूमि भी पूजनीय है. हाथ में पंचशील और नीले झंडे लेकर देशभर से लाखों लोग इस वर्ष भी दीक्षाभूमि पहुंचे थे. धर्मांतरण की यह 60वीं वर्षगांठ होने के कारण पहले से भी अधिक संख्या में अम्बेडकरी अनुयायी इस वर्ष नागपुर आये थे. उनमें कुछ विदेशी मेहमान भी थे. बौद्ध देश के लोग तो दीक्षाभूमि पर आते ही है. अब पश्चिमी देशों के लोग भी इस समारोह को देखने के लिए आने लगे है. धम्मचक्र प्रवर्तन समारोह में उमड़े भीम सैलाब को देखकर उन्हें (विदेशियों को) बाबासाहेब अम्बेडकर के महान कार्य की महत्ता ज्ञात हुई. डॉ. अम्बेडकर के साथ पांच लाख लोगों ने हिंदू धर्म त्यागकर समता, करुणा, शांति का संदेश देने वाले महान बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी. विश्व में शांतिपूर्वक हुए इस धम्म क्रांति ने इतिहास रच दिया है. 1956 के धर्मांतरण समारोह के बाद से हर वर्ष अशोक विजयदशमी को लाखों अम्बेडकरी अनुयायी दीक्षाभूमि पर पहुंचकर तथागत बुद्ध और बाबासाहेब को स्मरण कर उनके विचारों पर चलने का संकल्प लेते हैं. यह परंपरा 60 वर्षों से लगातार जारी है. हर वर्ष इस भूमि पर बौद्ध धर्मांतरण कार्यक्रम भी होता है. आयोजकों ने दावा किया है कि इस वर्ष करीब 20 हजार लोगों ने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली है. त्रिशरण-पंचशील ग्रहण कर तथा 22 प्रतिज्ञाओं का पालन करने की शपथ लेकर उन्होंने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली. धम्मचक्र प्रवर्तन दिन पर दीक्षाभूमि के साथ ही पूरा नागपुर नमो बुद्धाय-जय भीम के नारों से गुंज उठा था. नीले झंडे, पंचशील झंडे, बैनर, होर्डिंग से शहर भीममय हो गया था. शहर के हर रास्ते केवल और केवल दीक्षाभूमि की ओर जाते हुए प्रतित हो रहे थे. विभिन्न राज्यों के अम्बेडकरी अनुयायी अपनी परंपरागत वेषभूशा और वाद्यों के साथ भीम-बुद्ध का जयघोष करते और गीत गाते हुए दीक्षाभूमि पहुंच रहे थे. शहर के कोनो-कोनो से जुलूस निकालकर लोग जय भीम करते दीक्षाभूमि पर पहुंचे. समता सैनिक दल की विभिन्न प्रदेश शाखाओं ने दीक्षाभूमि तक मार्च निकाले. दीक्षाभूमि पर चारों और से भीम सैलाब उमडा था. जगह-जगह भीम-बुद्ध गीतों के स्वर गुंज रहे थे. दीक्षाभूमि स्मारक पर तथागत बुद्ध की मूर्ति को नमन कर बाबासाहेब की अस्थियां और प्रतिमा को श्रद्धा सुमन अर्पित कर लाखों लोग धन्य महसूस कर रहे थे. लाखों लोग केवल तथागत बुद्ध और महामानव डा. अम्बेडकर को नमन करने के लिए ही इस ऐतिहासिक दिन दीक्षाभूमि पर आते हैं. इस भूमि पर पहुंचकर नमन करना और लौटते वक्त विचार, पुस्तकों के साथ ज्ञानामृत साथ ले जाना ही अनुयायियों का मुख्य लक्ष्य होता है. दीक्षाभूमि पर डॉ.अम्बेडकर की किताबें, ग्रंथ, उनके विचारों के संग्रह, भाषण संग्रह, बुद्ध विचार, ग्रंथ, संविधान के साथ ही विभिन्न विषयों पर पुस्तकों के विविध प्रकाशकों के स्टॉल लगते है. इस वर्ष 300 से अधिक स्टॉल लगे थे. बुद्ध और अम्बेडकर की मूर्तियों की खूब बिक्री हुई. गीत- नाटकों की सीडी भी हर वर्ष की तरह बिके. दीक्षाभूमिपर आनेवाले लोगों के निःशुल्क भोजन की व्यवस्था इस वर्ष भी सामाजिक संगठनों ने की थी. करिब 500 संस्थाओं ने भोजनदान किया था.  हर वर्ष की तरह अत्यधिक शांतिपूर्ण तरीके से यह समारोह संपन्न हुआ.

सर्वेक्षणों पर संदेह का घेरा

bspबसपा सुप्रीमो, उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री एवं राज्यसभा की सदस्या एडवोकेट मायावती ने अपने समर्थकों को समाचार पत्रों एवं निजी टीवी चैनलों द्वारा चुनाव से पहले सर्वेक्षणों से सावधान रहने की चेतावनी दी है. उनका मानना है कि ये समाचार पत्र एवं टीवी चैनलों का स्वामित्य पूंजीपतियों के पास है और वे बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में होने वाले 2017 के चुनाव के संदर्भ में नकारात्मक वातावरण पैदा कर रहे हैं. उन्होंने अपने समर्थकों को जोर देकर यह समझाया है कि चुनाव के पहले ये सर्वेक्षण बहुजन समाज का मनोबल तोड़ने की पूंजीपतियों की साजिश का नतीजा है. बसपा सुप्रीमो के उपरोक्त संदेह पर एक समाजशास्त्री के रूप में मेरा यह मानना है कि पद्धति शास्त्र, ज्ञान मिमांसा एवं सत्ता मिमांसा के आधार पर भारत में चुनाव सर्वेक्षणों ने अभी वह वैज्ञानिक तटस्थता नहीं प्राप्त की है, जैसा कि अमेरिकी और यूरोपिय देशों ने. इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय सामाजिक संरचना में जाति के आधार पर भेदभाव. यही भेदभाव चुनाव सर्वेक्षण की वैज्ञानिक तटस्थता को प्रमाणित करता है. सर्वेक्षण में पूछे जाने वाले प्रश्नों को बनाने वाले तथा सर्वेक्षण के दौरान जमीनी स्तर पर किस समाज से कैसे प्रश्न पूछे जाए और जिनसे प्रश्न पूछे गए हैं वो कैसे उत्तर देंगे, यह सब का सब तथ्य जाति अस्मिता द्वारा ही निर्धारित होते हैं. उदाहरण के लिए ज्यादातर सर्वेक्षण करने वाले सवर्ण समाज के शहरी क्षेत्र के रहने वाले युवा और युवती होते हैं, जिनकी चेतना में दलित, पिछड़े एवं मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज के लोगों की बस्ती में जाकर कैसे प्रश्नों का उत्तर लिया जाए, इसका नितांत अभाव होता है. बहुत से प्रश्नकर्ता दलितों एवं मलिन बस्ती में जाने से ही घिन्न महसूस करते हैं. और इसलिए वे उधर का रुख ही नहीं करते. दूसरी ओर ग्रामीण अंचल में दलित एवं अल्पसंख्यक समाज का व्यक्ति सामंतों एवं उच्च जातियों से भयभीत रहता है. इसलिए वह सर्वेक्षण में पूछे गए प्रश्नों का जानबूझ कर सही-सही उत्तर नहीं देता. ऐसी स्थिति में प्रश्नकर्ता एवं चुनाव अनुसंधानकर्ता के पास ऐसी कोई पद्धति नहीं होती; जिससे वह इस भोली-भाली सहमी एवं डरी जनता के अंदर की सत्यता को निकाल कर अपने परिणाम में शामिल कर सके. ऐसी स्थिति में सर्वेक्षण की वैद्यता अपने आप ही संदिग्ध हो जाती है. वैज्ञानिक पद्धति शास्त्र के आधार पर चुनाव सर्वेक्षणों की दूसरी बड़ी संदिग्धता; एक अन्य तथ्य के आधार पर प्रमाणित की जा सकती है. वह तथ्य है, सर्वेक्षण के दौरान किसी भी दल को मिले मत प्रतिशतों को उस दल को मिलने वाली सीटों में तब्दील करना. यह स्थापित सत्य है कि किसी राजनैतिक दल द्वारा सर्वेक्षण के दौरान प्राप्त मत प्रतिशत को सीट में बदलने का कोई भी वैज्ञानिक फार्मूला अभी तक सामने नहीं आया है. विशेष कर विविधता भरे इस भारतीय समाज में कोई भी यह सही-सही नहीं बता सकता कि अगर एक राजनैतिक दल को इतने मत मिलेंगे तो उसको इतनी सीट मिल जाएगी, क्योंकि अक्सर यह देखने में आया है कि कम प्रतिशत वोट पाने वाले दलों को ज्यादा सीट मिल जाती है और ज्यादा मत पाने वाले को कम. उदाहरण के लिए 2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में बसपा को यद्यति 27.5 प्रतिशत वोट मिले थे, परंतु उसको सीट मिली थी बीस. इसके समानान्तर कांग्रेस को 2009 में 18.3 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन उसने 21 सीटों पर चुनाव जीता था. इसी कड़ी में अगर हम 2014 के लोकसभा चुनाव को देखें तो उत्तर प्रदेश में बसपा को 19.8 प्रतिशत वोट मिले, परंतु उसको कोई भी सीट नहीं मिली. दूसरी ओर कांग्रेस को सिर्फ 7.5 प्रतिशत वोट मिलने के बावजूद उसने दो सीटों पर चुनाव जीत लिया. अतः उपरोक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि किसी भी दल को सर्वेक्षण में मिले मतों के आधार पर उसको कितनी सीटें मिलेंगी, यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. शायद इसीलिए बसपा को अक्सर सर्वेक्षणों में पीछे दिखाया जाता है और उसको सर्वेक्षणों में कम मत प्रतिशत और सीटें मिलती दिखायी जाती हैं. यद्यपि वास्तविकता में परिणाम इससे बिल्कुल अलग और बेहतर होते हैं. 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम इसकी पुष्टि करते हैं. सर्वेक्षणों में मिले मत प्रतिशत के आधार पर उसे सीटों में कैसे बदला जाता है, और उसका क्या वैज्ञानिक फार्मूला है इसका खबरिया चैनल आज भी रहस्योदघाटन नहीं करते. वे किस पद्धति शास्त्र से यह गणना करते हैं कि कितने प्रतिशत वोट पर व्यक्ति एक सीट जीत जाएगा, वे इसका कोई भी आंकलन अपने दर्शकों को नहीं बतातें. शायद इसके पास कोई फार्मूला है ही नहीं. और इसीलिए सर्वेक्षण संदेह के घेरे में आ जाता है. चुनाव सर्वेक्षण केवल व्यापारिक प्रक्रिया बन जाती है जिसमें राजनीति के गरीब राजनैतिक दल पिछड़ जाते हैं और धनाढ्य राजनैतिक दल अपने पक्ष में निर्णय लाकर जनता के निर्णय को प्रभावित करते हैं. शायद इसीलिए पाश्चात्य देशों में मत प्रतिशत को सीटों में परिवर्तित करने की परंपरा नहीं है. जो कि एक साधारण अनुसंधानिक प्रक्रिया लगती है. और यही प्रक्रिया भारत में भी अपनायी जानी चाहिए. तब कहीं जाकर के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण संदेह के घेरे से कुछ बाहर निकल पाएंगे.

नास्तिक सम्मेलन पर हिंदू संगठनों ने की पत्थरबाजी, महिला पत्रकार को भी थप्पड़ मारे

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मथुरा। वृन्दावन में आज से शुरू हुआ नास्तिक सम्मेलन हिन्दू संगठनों के विरोध की भेंट चढ़ गया. हिन्दू समुदाय के कुछ लोगों ने इस सम्मेलन का विरोध किया और सम्मेलन में शामिल होने आये लोगों के साथ मारपीट और बदसलूकी की. स्वामी बालेन्दु ने इस सम्मेलन का आयोजन अपने घर पर किया था, जहां देश के 18 राज्यों से करीब 500 लोग जुटे थे. कई साधू हाथों में झण्डा लेकर आयोजन स्थल के बाहर धरने पर बैठ गए और सम्मेलन करने वालों पर धर्म का अपमान करने का आरोप लगाया. हालात इतने खराब हो गए कि प्रदर्शनकारियों ने मीडिया कर्मियों से भी मारपीट शुरू कर दी. देश की एक वरिष्ठ महिला फोटो पत्रकार को बीच सड़क पर घेर कर थप्पड़ मारे गए. महिला पत्रकार के मुताबिक पुलिस वालों ने भी उन्हें बचाने की कोशिश नहीं की. एबीपी न्यूज के पत्रकार सुमित चौहान के साथ भी बदसलूकी की गई. हालात को देखते हुए प्रशासन ने इलाके में भारी पुलिस बल तैनात कर दिया है. प्रदर्शन के कारण प्रशासन के आग्रह पर इस सम्मेलन को रद्द कर दिया गया है. लेकिन देश के दूर-दराज के क्षेत्रों से आये नास्तिक और प्रगतिशील लोग अभी भी आश्रम में डटे हुए हैं. देश में ऐसा पहली बार हुआ है जब इतनी बड़ी संख्या में नास्तिक लोग एक साथ जुटे हैं. वृंदावन सिटी के एसपी ने सम्मेलन में शामिल होने आये लोगों को सुरक्षा का भरोसा दिया है लेकिन किसी हमले की आशंका के कारण कई लोग अभी भी आश्रम में ही हैं. प्रदर्शनकारियों ने आयोजकर्ता के घर और रेस्टोरेंट पर पत्थरबाजी भी की जिसमें रेस्टोरेंट को काफी नुकसान पहुंचा है. स्वामी बालेन्दु का कहना है कि नास्तिक होना कोई गुनाह नहीं है और उन्होंने प्रशासन से भी लिखित अनुमति ली थी. ऐसे में इस तरह से हिंसक प्रदर्शन करना हमारे वाक् और अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है. देश का संविधान हमें अपनी बात रखने की आजादी देता है और हम शांतिपूर्ण ढंग से ईश्वर और उसकी सत्ता के बारे में चर्चा कर रहे थे. आपको बता दें कि ये कार्यक्रम 14 से 15 अक्टूबर तक चलने वाला था. सम्मेलन में आये लोगों ने इस तरह के हिंसक प्रदर्शन को लोकतंत्र पर हमला बताया है.