अशोक विजयदशमी : दशहरा

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mmaदशहरा पूरे देश में बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है. मुख्यतःइस पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में रावन का वध और अयोध्या पति राम की जीत के रूप में मनाया जाता है. ये बात और है कि कौन बुरा था और कौन अच्छा इस पर सभ्य समाज में एक लम्बी बहस की जरुरत है. जब पूरा देश रावण को जलाए जाने पर ढोल ताशे बजा-बजा कर खुशी मनाता है तब एक शहर इस उत्सव से दूर दीक्षाभूमि में लाखों लोग बौद्ध धम्म प्रवर्तन हेतु अपनी दस्तक देते है. महाराष्ट्र के विशाल नगर नागपुर में हर वर्ष दशहरा के उपलक्ष में अपने ऐतिहासिक दिन को याद करने और बौद्ध धर्म अपनाने हेतु लाखों की संख्या में एकत्र होते है. माना जाता है कि इस दिन मोर्यवंशीय सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध की विजय के बाद हुए रक्तपात से खिन्न हो कर शान्ति और विकास के लिए बौद्ध धम्म स्वीकार किया और दस दिन तक राज्य की ओर से भोजन दान एवं दीपोत्सव किया. 14 अक्तूबर 1956 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने पांच लाख अनुयायियों के साथ हिन्दू धर्म को त्याग कर, बौद्ध धम्म में विश्वास करने वाले पूर्वज नागो की जमीन नागपुर में बौद्ध धम्म स्वीकार किया. आधुनिक भारत के इतिहास में दुबारा से बौद्ध धम्म की पताका फहराई गयी. बौद्ध धम्म को मानने वाले देश चीन, जापान, थाईलैंड से प्रति वर्ष हजारो की संख्या में अक्तूबर के महीने में सैलानी नागपुर की दीक्षाभूमि में दर्शन के लिए आते है. डॉ. अम्बेडकर ने दीक्षा लेते समय 22 प्रतिज्ञाएं ली, जिसका सार था ईश्वरवाद-अवतारवाद, आत्मा स्वर्ग- नर्क, अंधविश्वास और धार्मिक पाखंड से मुक्ति और जीवन में सादगीपूर्ण सदव्यवहार का संचार. हिन्दू धर्म की मान्यताओं से दूर जाति-उपजातियो से उपजे भेदभाव को समाप्त करके बाबासाहेब ने एक प्रबुद्ध भारत की ओर एक कदम उठाया था. नागपुर स्थित दीक्षाभूमि में तीन दिन बड़ा उत्सव होता है. महाराष्ट्र के दूर दराज जिलों, गावो कस्बों से नंगे पांव लाखों लोग दीक्षा भूमि के दर्शन करने आते है, न केवल महाराष्ट्र से बल्कि पुरे भारत के कोने-कोने से लाखों लोग दीक्षाभूमि में धम्म की वंदना करने आते है. इस उत्सव में सबसे खुबसूरत चीज जो देखने को मिलती है की भीड़भाड़ में कोई छेड़छाड़ नहीं होती न ही कोई फसाद. दलित आन्दोलन की झलक पल-पल पर देखने को मिलती है. महिलाओं के मंडप, छात्रों के मंडप, पुस्तकों के मंडप, अंधविश्वास निवारण मंडप, बुद्धिस्ट विचारों के कैम्प, कर्मचारियों के कैम्प, पत्रिकाओं के स्टाल, समता सैनिक दल का मार्च, आरपीआई का मार्च, महिलाओं का मार्च, युवाओं का मार्च नारे लगाते लोग दिखते हैं, तो नागपुर की सड़कों पर जहां-जहां से लोग गुजरते है. उनके लिए भोजन की व्यवस्था वहीं के लोग करते है. महिलाएं भोजन दान करती हैं. जितना विशाल उत्सव  होता है, उतना ही विशाल पुस्तकों, पोस्टर, बिल्लो का बाजार होता है जो अपनी विशिष्ट छाप छोड़ता है. यह उत्सव अब पूरे देश में मनाया जाता है. अम्बेडकरवादी विचारधारा को मानने वाले संगठन, संस्थाएं, पार्टी, समूह दल अपने-अपने राज्यों में दशहरा के दिन अशोक विजयदशमी मनाते है. बनारस, आगरा, दिल्ली , हरियाणा, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कानपुर, लखनऊ में धूमधाम से मनाया जाता है. अफसोसजनक बात है कि लाखों कि संख्या में दस्तक लेनेवाले उत्सव के बारे में मिडिया, टीवी चैनल में कोई उत्साह नहीं है न ही उसके बारे में कोई रिपोर्टिंग ही होती है. मुख्यधारा के अखबार दुर्गा पूजा, रावणदहन से भरे हुए मिलेंगे लेकिन हमारी मूल सभ्यता और विचारधारा पर कोई लेख टिप्पणी भी देखने को नहीं मिलेगी. अशोक विजयदशमी की याद में आज हम बौद्ध, दलित आदिवासी, घुमंतू जातीय लोगों और उनकी महिलाओं की अस्मिताओं के प्रति सजग हो कर पितृसत्तात्मक पर्व और मिथकों पर बहस चलानी होगी, बहस हमें इस बात पर भी चलानी चाहिए एक लोकतान्त्रिक देश में त्योहारों के नाम पर हम हिंसात्मक अभिव्यक्तियों को क्यों अभ्यास करे?

भुखमरी और कुपोषण के दौर में परमाणु युद्ध की सोच!

भूख के ग्लोबल सूचकांक के ताजा आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में हर तीन बच्चे में से एक बच्चे का विकास बाधित है. इस देश में अब भी आबादी के पंद्रह फीसद लोग कुपोषण के शिकार है. दुनिया के जिन 118 देशों में भुखमरी सबसे बड़ी समस्या है, उनमें भारत का स्थान 97वां है. दुनियाभर में जिन सैंतालीस देशों में भूख का लेवल अत्यंत गंभीर है, उनमें भारत शामिल है. इनमें हमारा जानी दुश्मन पाकिस्तान भी शामिल है. इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीच्युट ने ये आंकडें जारी किये हैं. इस वक्त भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के लिए दुनियाभर की ताकतें जुगत लगा रही हैं. युद्ध और हथियारों के काराबर का सारा दांव इस संभावित परमाणु युद्ध पर लगे हैं तो पाकिस्तान में फौजी हुकूमत पर फौज का भारी दबाव है. वह युद्ध का मौका बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है. दूसरी ओर, भारतीय फौज भरातीय मजहबी सियासत के मुताबिक केंद्र सरकार की कमान में है जिसपर काबिज सत्ता के राजनीतिक समीकरण इसी युद्धोन्माद के राष्ट्रवाद से बनते हैं. विकास का जो फर्जीवाड़ा है और अच्छे दिनों के जो ख्वाब है, उसकी हकीकत यह है कि खेती चौपट करके जल-जंगल-जमीन से किसानों को बेदखल किया जा रहा है. अंधाधुंध औद्योगीकीकरण हो रहा है. हकीकत यह है कि पिछले दस सालों में औद्योगिक उत्पादन दर इस वित्तीय वर्ष में सबसे कम हुई है. जो लगातार कम होती जा रही है. मसलन औद्योगिक उत्पादन के आकंड़ों में लगातार दूसरे महीने यानी अगस्त में भी गिरावट आई. अगस्त में ये आर्थिक उत्पादन -0.7 फीसदी घटा. जुलाई में ये गिरावट -2.5 फीसदी रही थी. गौरतलब है कि पिछले साल अगस्त में इसमें 6.3 फीसदी की तेजी देखने को मिली थी. केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) आंकड़ों में बताया गया है कि औद्योगिक उत्पादन में गिरावट का मुख्य कारण कारखाना क्षेत्र के उत्पादन में 0.3 फीसदी की गिरावट है. इस क्षेत्र की पूरे आईआईपी इंडेक्स में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी है. किसानों और खेती की तबाही से अनाज की पैदावर कम से कम होती जा रही है और भूख का भूगोल लगातार सीमाओं के आरपार विस्तृत होता जा रहा है और हमारा ध्यान उस पर जा ही नहीं रहा है. हालत यह है कि भुखमरी से निपटने में हम चीन से तो पीछे हैं ही, बल्कि हमारे पड़ोसी देश नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश भी हमसे कहीं आगे हैं. दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान में भुखमरी और कुपोषण संकट सबसे भारी है, जहां कश्मीर को लेकर हमेशा युद्ध का माहौल है. नेपाल और श्रीलंका में लगातार राजनीतिक उथल पुथल है. म्यांमार में भी फौजी हुकूमत है, तो बांग्लादेश भी लहूलुहान है. वहां भी आतंकवाद ने जड़ें गहरा जमा ली है और लोकतंत्र के लिए लगातार लड़ाई जारी है. इन समस्याओं के बावजूद हमसे कम विकसित इन देशों में औद्योगीकीकरण और शहरीकरण अंधाधुंध नहीं हैं. ना ही यहां व्यापक पैमाने पर किसानों की बेदखली हुई है. यहां भुखमरी और कुपोषण से बेहतर ढंग से निपटने की तैयारी है. दूसरी ओेर, हमारे यहां विकास का मतलब किसानों की बेदखली और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट है. दुनिया का तापमान करीब दो डिग्री सेल्सियस बढ़ने को हैं और हरियाली आहिस्ते-आहिस्ते खत्म होती जा रही है. ग्लेशियर भी पिघलने लगे हैं. नदियां सूखने लगी हैं और जंगलों का सफाया हो रहा है. समुद्रतटों को भी हमने रेडियोएक्टिव बना दिया है. ऐसे में बचे-खुचे खेत कब तक उपजाऊ रहेंगे, कहना मुश्किल है. जल संसाधन नहीं रहेंगे तो हम फिर खेती के लिए मानसून के भरोसे होंगे. हमारे आधुनिक महानगरीय सभ्यता ने भूगर्भीय जल का भी काम तमाम कर दिया है. हिमालय से अबाध जलधारा को हम बांधकर बिजली बना रहे हैं. लेकिन हिमालय से पानी आना बंद हो गया तो बिजली पानी का क्या होगा, हमने अभी सोचा नहीं है. खेती चौपट करके प्राकृतिक संसाधनों को तबाह करके अंधाधुंध जो शहरीकरण हो रहा है, उसे भी बहुत जल्द बिजली पानी से मोहताज होना होगा. अनाज और सब्जियों की मंहगाई आसमान छूने लगी हैं. जिनके पास पैसे हैं वे खरीद पा रहे हैं. बहुत जल्द ऐसे दिन भी आने वाले हैं जब जेब में पैसे होंगे लेकिन बाजार में ऩ अनाज मिलने वाला है और न सब्जियां मिलने वाली है. न पीने को पानी होगा और न कंप्यूटर, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन चलाने के लिए बिजली होगी. दूसरी तरफ, औद्योगिक उत्पादन भी लगातार घट रहा है. ये हमारे सबसे अच्छे दिन हैं. जिस कश्मीर को लेकर यह हंगामा कायम है, उसकी जनता की परवाह न तो पाकिस्तान के हुक्मरानों को है और न ही भारत के हुक्मरानों को. लगातार डेढ़ महीने से कश्मीर में युद्ध के हालात है. लगातार डेढ़ महीने से कश्मीर में नागरिक और मानवाधिकारों पर अंकुश है. हालात यहां तक है कि कश्मीर में बहुसंख्य मुसलमान आबादी को मुहर्रम की आजादी भी नसीब नहीं है. ऐसा पाक फौजी हुकूमत की हरकतों की वजह से हो रहा है. तो भारत की सरकार और भारत की जनता को कश्मीर की जनता की रोजमर्रा की तकलीफों की कोई परवाह नहीं है. इन्हीं युद्ध परिस्थितियों में कश्मीर, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में भारत पाक सीमाएं सीलबंद हैं. सीमावर्ती तमाम गांवों से किसान जनता को उनके घर बार, खेती बाड़ी छोड़कर शरणार्थी बनने को मजबूर किया जा रहा है. पंजाब में खेती सबसे समृद्ध है. हम अपने अनाज के भंडार को युद्ध की आग में झोंकने पर अमादा हैं.

आवासीय स्कूल में हर साल होती है 71 आदिवासी छात्रों की मौत

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childमुंबई। महाराष्ट्र सरकार के आदिवासी विकास विभाग की एक आंतरिक रिपोर्ट के अनुसार, बीते दस वर्षों में महाराष्ट्र के आवासीय स्कूलों में पढ़ रहे 740 से अधिक छात्रों की कुपोषण और स्वास्थ्य संबंधी अन्य कारणों से मौत हुई. विभाग द्वारा राज्य में आदिवासी बच्चों के लिए कुल 552 आवासीय स्कूल संचालित किए जाते हैं. आदिवासी जनसंख्या मुख्य रूप से धुले, नांदुरबार, जलगांव, नासिक, पालघर, रायगढ़, अहमदनगर, पुणे (सहयाद्रि क्षेत्र) जैसे क्षेत्रों और चंद्रपुर, गढचिरौली, गोंदिया, नागपुर, अमरावती, यवतमाल तथा नांदेड (गोंडवाना क्षेत्र) जैसे पूर्वी वन्य जिलों में केन्द्रित हैं. विभाग के एक अधिकारी ने कहा कि आदिवासी विकास विभाग की आंतरिक रिपोर्ट में पाया गया कि औसत रूप से आदिवासी आवासीय स्कूलों के 70.80 छात्रों की हर साल मौत होती है और बीते 10 साल में 740 से अधिक की मौत हुई. उन्होंने कहा कि सरकार ने इस मुद्दे पर गौर करने और स्थिति सुधारने के तरीके सुझाने के लिए एक समिति बनाई है. इस रिपोर्ट का इंतजार है. आदिवासी क्षेत्रों में कार्यरत कार्यकर्ताओं का आरोप है कि सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं और मूलभूत चीजों की कमी इन मौतों का मुख्य कारण है.

टीचर ने नहीं लिखने दिया बाबासाहेब का नाम तो 200 छात्रों ने दी स्कूल छोड़ने की अर्जी

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जैसलमेर। दलितों पर हो रहे अत्याचार और भेदभाव के मामले भाजपा नीत की राज्य सरकारों में बढ़ते जा रहे हैं जिसके बाद दलित समुदाय अब एकजुट होकर विरोध कर रहे हैं. गुजरात के बाद अब राजस्थान में भी दलित  जागरूक हो गए हैं. राजस्थान में जैसलमेर के 200 छात्रों ने स्कूल छोड़ने की सामूहिक अर्जी दी है. बताया जा रहा है कि इन छात्रों को बोर्ड पर बाबासाहेब का नाम नहीं लिखने दिया गया. इसी वजह से छात्रों ने स्कूल छोड़ने का फैसला किया है. सोशल मीडिया पर लोग छात्रों के इस कदम को एक नए आंदोलन की चिंगारी मान रहे हैं. राजस्थान की इस घटना को गुजरात में घटे घटनाक्रमों से जोड़कर देखा जा रहा है. लोग लिख रहे हैं कि अगर दलित छात्रों के इस कदम ने आंदोलन का रूप ले लिया तो क्या आनंदीबेन की तरह ही वसुंधरा राजे को इस मामले की भरपाई करनी पड़ेगी. गौरतलब है कि दलित छात्रा डेल्टा मेघवाल रेप केस के बाद देशभर में दलित समुदायों के द्वारा राजस्थान की राज्य सरकार और केंद्र सरकार की जमकर किरकिरी हुई थी.

…क्योंकि रावण अपना चरित्र जानता है

रामचरितमानस मध्ययुग की रचना है. कथा का तानाबाना तुलसीबाबा ने कुछ ऐसा बुना की रावण रावण बन गया. हर युग के देशकाल का प्रभाव तत्कालीन समय की रचनाओं में सहज ही परीलक्षित होता है. रावण के पतन का मूल कारण सीताहरण है. पर सीताहरण की मूल वजह क्या है? गंभीरता से विचार करें. कई लेखक, विचारक रावण का पक्ष उठाते रहे हैं. बुरी पृवत्तियों वाले ढेरों रावण आज भी जिंदा हैं. कागज के रावण फूंकने से इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. पर जिस पौराणिक पात्र वाले रावण की बात की जा रही है, उसे ईमानदार नजरिये से देखे. विचार करें. यदि कोई किसी के बहन का नाक काट दे तो भाई क्या करेगा. आज 21वीं सदी में ऐसी घटना किसी भी सच्चे भाई के साथ होगी, तो निश्चय ही प्रतिशोध की आग में धधक उठेगा. फिर मध्य युग में सुर्पनखा के नाम का बदला रामण क्यों नहीं लेता. संभवत्त मध्ययुग के अराजक समाज में तो यह और भी समान्य बात रही होगी. अपहृत नारी पर अपहरणकर्ता का वश चलता है. रावण ने बलात्कार नहीं किया. सीता की गरिमा का ध्यान रखा. उसे मालूम था कि सीता वनवासी बन पति के साथ सास-ससुर के बचनों का पालन कर रही है. इसलिए वैभवशाली लंका में रावण ने सीता को रखने के लिए अशोक बाटिका में रखा. सीता को पटरानी बनाने का प्रस्ताव दिया. लेकिन इसके लिए जबरदस्ती नहीं की. दरअसल मध्य युग पूरी तरह से सत्ता संघर्ष और नारी के भोगी प्रवृत्ति का युग है. इसी आलोक में तो राजेंद्र यादव हनुमान को पहला आतंकवादी की संज्ञा देते हैं. निश्चय ही कोई किसी के महल में रात में जाये और रात में सबसे खूबसूरत वाटिका को उजाड़े तो उसे क्यों नहीं दंडित किया जाए. रावण ने भी तो यहीं किया. सत्ता संघर्ष का पूरा जंजाल रामायण में दिखता है. ऋषि-मुनि दंडाकारण्य में तपत्या कर रहे थे या जासूसी. रघुकुल के प्रति निष्ठा दिखानेवाले तपस्वी दंडाकारण्य अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह क्यों करते थे. उनका कार्य तो तप का है. जैसे ही योद्धा राम यहां आते हैं, उन्हें अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति प्रदान करते हैं. उन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से राम आगे बढ़ते हैं. मध्ययुग में सत्ता का जो संघर्ष था, वह किसी न किसी रूप में आज भी है. सत्ताधारी और संघर्षी बदले हुए हैं. छल और प्रपंच किसी न किसी रूप में आज भी चल रहे हैं. सत्ता की हमेशा जय होती रही है. राम की सत्ता प्रभावी हुई, तो किसी ने उनके खिलाफ मुंह नहीं खोला. लेकिन जनता के मन से राम के प्रति संदेह नहीं गया. तभी एक धोबी के लांछन पर सीता को महल से निकाल देते हैं. वह भी उस सीता को जो गर्भवती थी. यह विवाद पारिवारिक मसला था. आज भी ऐसा हो रहा है. आपसी रिश्ते के संदेह में आज भी कई महिलाओं को घर से बेघर कर दिया जाता है. फिर राम के इस प्रवृत्ति को रावण की तरह क्यों नहीं देखा जाता है. जबकि इस तरह घर से निकालने के लिए आधुनिक युग में घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाओं को सुरक्षा दे दी गई है. बहन की रक्षा, उनकी मर्यादा हनन करने वालों को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा, पराई नारी को हाथ नहीं लगाने का उज्ज्वल चरित्र तो रावण में दिखता है. लोग कहते भी है कि रावण प्रकांड पंडित था. फिर भी उसका गुणगणान नहीं होता. विभीषण सदाचारी थे. रामभक्त थे. पर उसे कोई सम्मान कहां देता है. सत्ता की लालच में रावण की मृत्यु का राज बताने की सजा मिली. सत्ता के प्रभाव में चाहे जैसा भी साहित्य रचा जाए, इतिहास लिखा जाए, हकीकत को जानने वाला जनमानस उसे कभी मान्यता नहीं देता है. तभी तो उज्ज्वल चरित्र वाले विभीषण आज भी समाज में प्रतिष्ठा के लिए तरस रहे हैं. सत्ता का प्रभाव था, राम महिमा मंडित हो गए. पिता की आज्ञा मानकर वनवास जाने तक राम के चरित्र पर संदेह नहीं. लेकिन इसके पीछे सत्ता विस्तार की नीति जनहित में नहीं थी. राम राजा थे. मध्य युग में सत्ता का विस्तार राजा के लक्षण थे. पर प्रकांड पंडित रावण ने सत्ता का विस्तार का प्रयास नहीं किया. हालांकि दूसरे रामायण में देवताओं के साथ युद्ध की बात आती है. पर देवताओं के छल-प्रपंच के किस्से कम नहीं हैं. काश, कागज के रावण फूंकने वाले कम से कम उसके उदत्ता चरित्र से सबक लेते. बहन पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए हिम्मत दिखाते. उसकी रक्षा करते. परायी नारी के साथ जबरदस्ती नहीं करते. ऐसी सीख नई पीढ़ी को देते. समाज बदलता. मुझे लगता है कि राम चरित्र की असंतुलित शिक्षा का ही प्रभाव है कि 21वीं सदी में भी अनेक महिलाएं जिस पति को देवता मानती है, वहीं उन पर शक करता है, घर से निकालता है. संभवत: यहीं कारण है कि आज धूं-धूं कर जलता हुए रावण के मुंह से चीख निकलने के बजाय हंसी निकलती है. क्योंकि वह जानता है कि जिस लिए उसे जलाया जा रहा है, वह चरित्र उसका नहीं आज के मानव रूपी राम का है.

सर्जिकल स्ट्राइक : मोदी का इलेक्शन मिशन

अपको नहीं लगता कि पीओके में हुए कथित सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देश की वर्तमान स्थिति आम भारतीय को आतंकित करने वाली है. वैसे तो ऐसा कोई भी समय नहीं रहा जब आम भारतीय आतंकित न रहा हो. आम जनता कल भी भूखी थी, आज भी भूखी है. कल अंग्रेजों से यानी कि गैरों से आतंकित थी तो आज अपनों से. कल विदेशियों की कपट का शिकार थी तो आज अपनों की अनदेखी का. आम आदमी की सोच कल भी सार्थक नहीं मानी जाती थी और आज भी. क्यों? इस पर विचार करने की जरूरत है.
वर्तमान में हुए सर्जिकल स्ट्राइक के आलोक में याद आ रहा है जब-जब भी भारत या पाकिस्तान में बड़े विधान सभाई अथवा लोकसभाई चुनाव होने वाले होते हैं… तो भारत पाकिस्तान सीमा पर अक्सर युद्ध जैसे हालात बन जाते हैं. भारत और पाकिस्तान एक दूसरे को पानी पी-पीकर कोसते हैं. क्या इसे नूरा कुश्ती की संज्ञा नहीं दी जा सकती? और तो और दोनों देशों के टीवी चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए युद्धोन्माद को भड़काने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता. ऐसे सर्जीकल स्ट्राइक/आपरेशन तो पहले भी होते रहे हैं किंतु कभी भी कोई शोर और ना ही कोई इस प्रकार का प्रचार और प्रसार नहीं किया गया. किंतु भाजपा सरकार ने सर्जीकल स्ट्राइक/आपरेशन का खुलासा करके राजनीतिक हित साधने का पूरा काम किया है. जिससे विपक्ष को मुंह खोलने को मजबूर कर दिया. अगले साल कई बड़े राज्यों में चुनावों के मद्देनजर भाजपा अपनी कमर खुजलाने का काम कर रही है, चुनाव से पहले ही उत्तरप्रदेश के कई शहरों में सर्जिकल स्ट्राइक के पोस्टर लगाकर अपनी पीठ थपथपा रही है… क्या यह भाजपा के मुखिया के उस बयान का विरोध नहीं है, जिसमें उन्होंने अन्य राजनीतिक दलों से इस घटना से राजनीतिक लाभ न लेने की बात की थी.
भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व केन्द्रीय मंत्री रह चुके अरुण शौरी का a Parody Accouont होने का दावा करने वाले एक ट्विटर उपभोक्ता Arun Shourei@MirrerShourie ने  भारत द्वारा किए गए सर्जिक्ल स्ट्राइक पर दावा किया है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन ने पाक के कब्जे वाले कशमीर में कम से कम छह बार सर्जिकल स्ट्राइक किए थे, लेकिन किसी को भी भनक तक नहीं पड़ी और न ही उन्होंने इन सर्जिकल स्ट्राइक्स का उपयोग कभी राजनीतिक लाभ के लिए किया. शौरी के नाम का प्रयोग कर रहे इस टिवटर-उपभोक्ता ने आरोप लगाया कि भाजपा सरकार पंजाब, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में होने वाले आगामी चुनावों में राजनीतिक लाभ लेने के लिए भारतीय सेना का उपयोग कर रही है.
अब राजनीतिक दलों को याद रखना चाहिए कि आज का वोटर पहले जैसा नादान नहीं रहा है. राजनेताओं को भी याद रखना चाहिए कि काठ की हांडी एक बार ही चूल्हे पर चढ़ पाती है. अफसोस की बात तो ये है हमने हमारी रक्षा के लिए सतर्क सैना कर्मियों की बहादुरी को भी सियासत के दायरे में ले लिया है. प्रचार का भी इतना घटिया स्तर कि भाजपा के कार्यकर्ताओं ने अपने ईष्ट भगवान “राम” की बराबरी मोदी से कर डाली और नवाज शरीफ की बराबरी “रावण” से.
यहां सवाल यह उठता है कि 2013 में सर्जिकल स्ट्राइक (क्रॉस बॉर्डर ऑपरेश) करके भी चुप थे मनमोहन, फिर मोदी और उनके नेता इतना क्यों बोल रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी की फेसबुक वाल से पता चलता है कि मनमोहन जी के समय में जब-जब भी ऐसे सर्जिकल स्ट्राइक हुए, तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा से यूपीए ने इस बाबत सारी की सारी जानकारी सांझा की थी, ऐसा होने के बाद भी भाजपा नेता मनमोहन सिंह को बराबर कायर तक कहा. कहना अतिशयोक्ति नहीं कि मनमोहन सिंह का दो टुक फैसला होता था कि देशहित में शांत रहना चाहिए. उनके सामने भी न तो कोई संचार व्यवस्था कम थी और न ही जनता से संपर्क करने के साधन कम थे. उनका मानना था कि देशभक्ति चिल्लाने, ललकारने और सफलता मिलने पर अपनी पीठ खुद ठोकने का नाम नहीं होती. देश की खातिर अक्सर चुपचाप कुर्बानी देनी पड़ती है और बहुत कुछ सहना पड़ता है. मनमोहन सिंह की समझ यह थी कि यूद्धोन्माद पैदा होने से देश के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. यदि मनमोहन सिंह ने भी भाजपा सरकार की तरह युद्धोन्माद को तरजीह दी होती तो शायद विकास का मार्ग और दोनों देशों के आपसी रिश्तों में खटास को ही बढ़ावा मिलता.
भाजपा को यह बात ध्यान में रखनी होगी कि अपने पूज्य ‘शिव’ की तरह सृष्टि की रक्षा के लिए विष को अपने गले में उतारना ही होगा. भाजपा और पार्टी को यह समझना होगा कि यदि पाकिस्तान भारत के विकास में बाधक बनने में कामयाब हो जाता है तो यह पाकिस्तान की विजय ही मानी जाएगी. मजबूत राष्ट्र की यह पहचान होती है कि वो अपने खिलाफ प्रश्नों के जवाब और समस्याओं के हल शांति से देते/खोजते हैं… किसी प्रकार का ढिंडोरा नहीं पीटते, जैसा कि भाजपा के नेता कर रहे हैं. जहां तक पाकिस्तान की हरकतों की बात है, नजर-अंदाज करने लायक नहीं है, किंतु पाकिस्तान के भड़कावे में आकर युद्ध छेड़ दिया जाय. यह दोनों देशों के ही हक में नहीं. वह इसलिए कि भारत और पाकिस्तान में गरीबों की संख्या अन्य देशों के मुकाबले ज्यादा है.
इसमें कोई शंका नहीं कि यदि भाजपा इस सफलता का राजनीतिकरण न करती तो शायद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर सबूत की मांग न की होती. अब भाजपा राजनीतिक चक्रव्यूह में जैसे फंस गई है. 04.05.2016 दिन मंगलवार को केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सवाल उठाया कि केजरीवाल को सेना के पराक्रम पर भरोसा है या नहीं? केजरीवाल, पाकिस्तान में सुर्खियों में बने हुए हैं. बीजेपी नेता ने केजरीवाल से सवाल पूछा- “क्या दिल्ली के सीएम का भारतीय सेना पर भरोसा पाकिस्तान के दुष्प्रचार से प्रभावित हो रहा है?” उल्लेखनीय है कि यहां रविशंकर प्रसाद यह भूल गए कि केजरीवाल ने जो सवाल उठाया वो सरकार पर उठाया था न कि सेना के हौसले पर. सेना की तो उन्होंने तारीफ ही की थी. दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए, सर्जिकल स्ट्राइक को नकार रहे पाकिस्तारन को अंतरराष्ट्रीय मंच पर बेनकाब करने की अपील की थी. वहीं कांग्रेस नेता संजय निरूपम ने इसे सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जी बताया था, जो सैनिकों के सम्मान को ठेस पहुचाने वाला बयान है …वह इसलिए भी कि सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा सीधे सरकार ने नहीं अपितु सेना के प्रतिनिधियों द्वारा की गई थी. राहुल गांधी ने भी पहले सर्जिकल स्ट्राइक की सराहना करते हुए इसे मोदी द्वारा किया गया प्रधानमंत्री वाला पहला काम बताया गया था. किंतु भाजपा के सर्जिकल स्ट्राइक के तुरंत बाद फौजी कार्रवाई की चुनावी ब्रांडिंग और मार्केटिग की जाने लगी, तो राहुल भी कह उठे कि भाजपा हमारे जवानों शहादत के खून की दलाली न करें. सत्तारूढ़ राजनीतिक दल इस बयान को सैनिकों के अपमान के रूप में रोपित कर रहा है तो कांग्रेस इस बयान को सरकार विरोधी करार दे रहा है. वोटों की राजनीति के चलते किसी भी सही अथवा गलत मत पर सभी राजनीतिक दलों का एकमत होना स्वाभाविक भी नहीं.
लबोलुबाव यह निष्कर्ष निकलकर सामने आता है कि तमाम के तमाम के राजनीतिक दल प्रत्यक्ष में तो इस सर्जिकल स्ट्राइख के मामले में सरकार के साथ खड़े होने का दावा कर रहे हैं किंतु सबके पेट में कुछ काला छुपा हुआ है. इंटनेशनल स्तर पर एकता का संदेश जाए, इसके लिए तो सबकी प्रसंशा की जा सकती है किंतु भाजपा द्वारा किला जीतने की मुनादी करने के साथ ही राजनीतिक हित साधने की प्रक्रिया ने अपने विरोधियों को भी राजनीतिक अखाड़े में उतरने को मजबूर कर दिया है. कहा जाता है कि ऐसे सर्जिकल आपरेशन सीक्रेट मिशन का हिस्सा होते हैं, किंतु हालिया सर्जिकल आपरेशन मोदी जी का “इलेक्शन मिशन” बनकर रह गया है.  29.09.2016 से पहले जनता मोदी जी के विदेशों में जमा कालेधन की वापसी के वादे पर सवाल उठाती थी, अच्छे दिनों के आने की याद दिलाती थी, विकास के आंकड़े मांगती थी, और न जाने कितनी योजनाओं के किर्यांवयन की बात उठाती थी किंतु सर्जिकल स्ट्राइक के तुरंत बाद ये सवाल जैसे जनता की आवाज न होकर पाकिस्तान के खिलाफ युद्धोन्माद में बदल गए.
किंतु हालिया सर्जिकल स्ट्राइक को केन्द्र में रखकर भाजपा की ताजपोशी की कोशिश ने इन सवालों को फिर जिन्दा कर दिया है. अब यह भी सवाल उठने लगा है कि 2017 में होने वाले राज्य विधानसभाओं के चुनावों से ठीक पहले जनता का मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए वर्तमान केन्द्रीय सरकार ऐसे सर्जिकल आपरेशन फिर करा सकती है जो नवभारत टाइम्स दिनांक 07.10.2016 के हवाले से भारतीय रक्षामंत्री पर्रिकर के इस बयान “जरूरी हुआ तो और करेंगे सर्जिकल स्ट्राइक” से साफ झलकता है. अब सर्जिकल स्ट्राइक की जरूरत देश के हितों को केन्द्र में रखकर आंकी जाएगी या चुनावों में सफलता हासिल करने के लिए, यह एक जीवंत सवाल है. युद्ध की प्रक्रिया शायद 2019 के लिए टाल दी जाय ताकि लोकसभा के चुनावों को आगे खिसकाया जा सके. कभी-कभी तो लगता है कि सर्जिकल इस्ट्राइक न हुआ, मानो आगामी चुनावों के लिए राजनीतिक दलों का घोषणा-पत्र का मुख्य भाग हो गया. सर्जिकल स्ट्राइक को केन्द्र में रखकर सारे-सारे दलों ने “आओ सरकार सरकार खेलें” का खेल खेलना शुरु कर दिया है. लेकिन जरूरत तो इस बात है कि सभी राजनीतिक दल राजनीति से उठकर शांति की बहाली के लिए काम करें क्योंकि जिस प्रकार इस प्रकरण को सियासी मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है, उसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गलत संदेश जा सकता है. पर राजनीतिक दलों को इस बात की चिंता कहां… उन्हें तो केवल और केवल सत्ता हासिल करने की चिंता सता रही है.
– लेखक  लेखन की तमाम विधाओं में माहिर हैं. स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक के संपादन के साथ स्वतंत्र लेखन में रत हैं. संपर्क- 9911414511

कानपुर प्रशासन ने तोड़ी वीरांगना उदा देवी पासी की मूर्ति, बवाल

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कानपुर। 1857 की क्रांति के दौरान 32 अंग्रेजो को मौत के घाट उतारने वाली वीरांगना उदा देवी पासी की मूर्ति को कानपुर प्रशासन ने तोड़ दिया है. और मूर्ति को उठवाकर फिकवा दिया है. कानपुर प्रशासन ने यह कायराना हरकत तब किया है, जब महज दो हफ्ते बाद ही इस महान स्वतंत्रता सेनानी का शहीदी दिवस है. क्रांतिकारी वीरांगना उदा देवी देश की रक्षा के लिए 16 नवंबर 1857 को लखनऊ के सिकंदर बाग पार्क में अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गई थीं. घटना के बाद बहुजन समाज के लोगों में काफी रोष है. स्थानीय और बहुजन समाज के लोगों द्वारा घटना का विरोध करने पर पुलिस ने उनपर लाठी चार्ज किया. कुछ पत्रकारों ने जब जानकारी लेनी चाही तो उनका कैमरा तोड़ दिया और उनके साथ भी दुर्व्यवहार किया गया. जिस पार्क में वीरंगना उदा देवी पासी की प्रतिमा थी, वह पार्क पासी समाज के लोगों ने स्थापित करवाया था और जमीन भी पासी समाज की है. इसमें सार्वजनिक कार्य़क्रम के उत्सव हुआ करते थे. प्रशासन ने पार्क में स्थित उदा देवी पासी की मूर्ति तोड़ने से पहले कोई सूचना नहीं दी थी. बहुजन समाज के लोगों का कहना है कि यह प्रशासन की तरफ से एक असंवेदनशील कृत्य है. घटना के कारण बहुजन समाज के लोगों में प्रशासन के प्रति आक्रोश है. स्थानीय जनता का कहना है कि मूर्ति के साथ जो व्यवहार किया गया उससे उन लोगों के आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंची है. लोगों ने कहा कि यह प्रशासन और भूमाफियाओं की  सोची समझी साजिश है. लोगों का कहना है कि उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद के अधिकारी, लेखपाल, तहसीलदार, उपजिलाधिकारी, स्थानीय थाना (नौबस्ता) पुलिसकर्मी और अधिकारी आदि सब भूमाफियों से मिलकर खाली जमीन को चिन्हित कर उनके खसरा नंबर को गलत तरीके से दिखा कर जमीनों पर कब्जा करते हैं. इसी क्रम में इन लोगों ने मिलकर वीरांगना उदा देवी की प्रतिमा को तोड़ा है और प्रतिमा गायब कर दी है. इस सिंडिकेट में मुख्य भूमिका कार्यकारी इंजीनियर प्रबोध कुमार और परिषद का ठेकेदार सूर्यपाल सिंह की है. इसीलिए परिषद ने कोई नोटिस पार्क को संचालित कर रहे संगठन पासी प्रगति संस्थान या अन्य किसी क्षेत्रीय लोगों को नहीं दिया, जोकि संदेहास्पद है. इस सम्बंध में क्षेत्रीय लोगों ने कई बार लिखित शिकायत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा आवास विकास परिषद के आयुक्त से की. लेकिन आज तक इस पर कोई कार्यवाई नहीं हुई है. पासी प्रगति संस्थान की अध्यक्षा वीरमती राजपासी ने बताया की यह जमीन लगभग 30 वर्ष पुरानी है. तब से इस पार्क की देखरेख हमारा संगठन करता आ रहा है.

बागेश्वर दलित हत्याः दलित बच्चों को जानवरों के नाम से बुलाता आरोपी का शिक्षक भाई

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dalitबागेश्वर। चक्की छूने पर दलित सोहनराम की हत्या की घटना के बाद भेटा गांव के लोग दहशत में हैं. डर के मारे दलितों के बीस बच्चे पिछले पांच दिनों से स्कूल नहीं गए हैं. छात्रों के आरोप है आनंद कर्नाटक उन्हें उनके वास्तविक नाम से नहीं पुकारता है. वह जानवरों के नाम लेकर उन्हें बुलाता और पढ़ाता है. अभिभावकों का कहना है कि बच्चे उससे बेहद डरते है. भेंटा में अनुसूचित जाति के लोग रहते हैं. गांव के इंटर कॉलेज में दलितों के 20 बच्चे पढ़ते हैं. सोहन राम की हत्या के केस में राज्यसभा सांसद प्रदीप टम्टा ने कहा कि दलितों के साथ भेदभाव करने वाले शिक्षकों का पूरा डाटा तैयार किया जाए. भेटा के स्कूल में अनुसूचित जाति के बच्चों को मवेशियों के नाम से पुकारने की जांच होनी चाहिए. टम्टा ने फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित करने की मांग की. उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री पीड़ित परिवार को अन्य प्रदेशों की तरह मुआवजा दें. उन्होंने कहा कि मृतक की पत्नी आठवीं पास हैं, उसे सरकार नौकरी दे. गौरतलब है कि 5 अक्टूबर को दलित समाज से ताल्लुक रखने वाला सोहन राम कुंदन सिंह भंडारी (35 वर्ष) की चक्की पर गेहूं पिसवाने आया था. इसी दौरान भेटा गांव निवासी पेशे से शिक्षक ललित कर्नाटक भी आटा चक्की पर आ गया. वहां पहले से मौजूद सोहन राम को देखकर जातीय दंभ से भरे ललित कर्नाटक ने उसे जाति सूचक शब्द कह दिया. साथ ही उसने यह भी कहा कि सोहन के आने से चक्की अशुद्ध हो गयी है. सोहन राम ने सवर्ण शिक्षक का विरोध किया. दलितों के प्रति जन्मजात घृणा से भरे उस शिक्षक को यह बर्दास्त नहीं हुआ और उसने पास ही पड़ी दराती उठाकर सोहन की गर्दन पर वार कर दिया. दराती के वार से सोहन की गर्दन एक तरफ लटक गई. जमीन पर गिरकर वह तड़पने लगा और तुरंत ही उसकी मौत हो गई.

उच्च जाति के लोगों ने सैनिक को मारी गोली, न्याय के लिए धरने पर बैठी मां सहित 15 दलित महिलाएं

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गांधीनगर। गुजरात के गांधीनगर में दलित महिलाएं भूख हड़ताल पर बैठ गई हैं. सुरेंद्रनगर जिले की 65 वर्षीय जेठीबेन राठौड़ ने सत्‍याग्रह छावनी में अपने बेटे की हत्‍या के खिलाफ सोमवार से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर जाने का ऐलान किया. उनका बेटा दिनेश भारतीय सेना का जवान था और वीरता के चार अवार्ड जीत चुका था. उसे कथित तौर पर कुछ अगड़ी जातियों के लोगों ने मार डाला था, जब उसने उन्‍हें अपने घर के नजदीक जुआ खेलने से मना किया. जेठीबेन ने राज्‍य सरकार को हत्‍या का मामला फिर से खोलने, सीबीआई से जांच कराने और 10 लाख रुपए मुआवजे की मांग की. मामले में सभी पांच आरोपियों को अदालत से इस आधार पर छोड़ दिया गया कि पुलिस द्वारा बरामद किए गए हथियार का दिनेश पर चली गोलियों से मिलान नहीं हो पाया था. जेठीबेन के साथ सौराष्‍ट्र से 15 और दलित महिलाएं 10 दिन से ज्‍यादा वक्‍त से गांधीनगर में न्‍याय की मांग को लेकर धरने पर बैठी हैं. रविवार दोपहर, दलितों ने एक आम सभा की. जिसमें जेठीबेन ने कहा, ”मेरा बेटा फौज से छुट्टी पर लेकर घर आया था. कुछ ऊंची जाति के लोग (दरबार) हमारे घर के पास जुआ खेलकर हंगामा मचा रहे थे. मेरे बेटे ने उनको ऐसा करने से रोका. अगले दिन, वही लोग आए, मेरे बेटे पर गोलियां चलाईं और हमारे घर के बाहर जुआ खेलने से रोकने पर मार डाला. पांच लोग गिरफ्तार हुए लेकिन बाद में अदालत ने उन्‍हें छोड़ दिया. जिस दिन उन्‍हें निर्दोष करार दिया गया, उन्‍होंने जुलूस निकाला और पटाखे जलाए. और अब हम इन लोगों की धमकियां सह रहे हैं. वो रोज हमें परेशान करते हैं, हम बाहर निकलते हैं तो हमें घूरते रहते हैं.” दिनेश की हत्‍या मार्च 2010 में हुई थी और अदालत ने आरो‍पियों को सितंबर 2014 को निर्दोष करार दिया. जेठीबेन ने कहा, ”हम यहां पिछले 10 दिन से ज्‍यादा से धरने पर हैं, सिर्फ एक वक्‍त खाते हैं. मगर हम सोमवार से खाना छोड़ देंगे. अगर न्‍याय नहीं मिलता है तो हम यहीं मरना पसंद करेंगे.” जेठीबेन और उन जैसी 15 अन्‍य पीड़ि‍ताओं की मदद कर रहे मानवाधिकार कार्यकर्ता राजू सोलंकी ने कहा, ”दिनेश को दिनदहाड़े अगड़ी जाति के लोगों ने उसके घर के बाहर जुआ खेलने से मना करने के लिए मार डाला था. और पांच लोग इसलिए बरी हो गए क्‍योंकि पुलिस को जो हथियार मिला, वह उस पर चली गोलियों से मैच नहीं हुआ. इसमें गलती किसकी है? क्‍या इस तरह हम अपने जवानों की इज्‍जत करते हैं?” गृ‍ह राज्‍य मंत्री प्रदीप सिंह जडेजा ने कहा, ”सरकार दलितों के मुद्दों के प्रति संवेदनशील है. उनकी (सत्‍याग्रह छावनी के धरने पर बैठे दलित) कई मांगें हैं, जिन्‍हें पूरा करने में लंबा समय चाहिए. हमने उनकी मांगें सरकार के विभिन्‍न विभागों को भेज दी हैं.

प्रधानमंत्री मोदी का दशहरा और देशभक्ति

9 अक्टूबर को बसपा सुप्रीमों मायावती ने अपने संबोधन में एक गंभीर मुद्दा उठाया. उन्होंने राष्ट्र का ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट कराया कि उरी में शहीद हुए भारत के 18 जवानों की चिता की आग अभी भी ठंडी नहीं हो पाई है. उनके परिवार वाले अभी भी अपनों को खोने के गम से उबर नहीं पाए हैं, ऐसी परिस्थिति में भारतीय जनता पार्टी के लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में लखनऊ में रामलीला मैदान पर दशहरा मनाने की तैयारी कैसे कर सकते हैं? भाजपा की संवेदन शून्यता पर प्रश्न उठाते हुए बसपा प्रमुख ने 29 सितंबर को पीओके (विवादित क्षेत्र) के अंदर सेना द्वारा सफल सर्जिकल स्ट्राइक के लिए कहा कि इसके लिए सेना को बधाई दी जानी चाहिए न कि किसी दल को. बसपा प्रमुख के दोनों सवाल जायज हैं, क्योंकि उरी में भारतीय सैनिकों पर हमले से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक होने तक राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति का सबसे ज्यादा ढिंढ़ोरा पीटने वाली भाजपा और भारत सरकार अब इस मामले का राजनैतिक लाभ लेने को आतुर दिख रही है. साफ नजर आ रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष एवं जमीनी कार्यकर्ता दोनों ही सेना के त्याग और पराक्रम को भुनाते हुए जनता की देशभक्ति की भावना को भाजपा के पक्ष में दोहन करने में जुटे हुए हैं, ताकि उनको आने वाले पंजाब और उत्तर प्रदेश चुनाव में फायदा मिल सके. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी मोदी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि अगर चुनाव बिहार में होते तो मोदी रावण जलाने पटना जाते. वास्तविकता में उपरोक्त संपूर्ण परिस्थिति से सेना के राजनीतिकरण की बू आती है. अतः सभी राजनीतिज्ञों, राजनैतिक दलों एवं राष्ट्रवादियों को इस चुनौती से निपटने के लिए गंभीरता से सोचना होगा. एक तथ्य यह भी है कि तकनीकी रूप से सर्जिकल कार्रवाईयां किसी भी देश के खिलाफ सीधे युद्ध नहीं होती है, न ही उनकी सेना से कोई टकराहट होती है, जैसा कि सरकार प्रचारित कर रही है. सर्जिकल स्ट्राइक को पाकिस्तान के विरोध में युद्ध नहीं समझना चाहिए. कांग्रेस के प्रवक्ताओं ने भी वर्तमान सरकार के इस रवैये पर सवाल उठाया है. साथ ही कांग्रेस ने अपने शासन काल के दौरान किए सर्जिकल स्ट्राइक का भी सबूत दिया है, जिसको उसने गुप्त रखा. लेकिन भाजपा जिस तरह से इस सर्जिकल स्ट्राइक को प्रस्तुत कर रही है, वह उसकी मंशा पर सवाल उठा रहे हैं. एक सवाल यह भी है कि जब देश शहीद सैनिकों की शहादत में गम में डूबा हुआ है और उनकी वीरता को सलाम कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा है तो ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी लखनऊ में जाकर विशेष तैयारियों के बीच रावण को दहन कर क्या संदेश देना चाहते हैं? आखिर लखनऊ में प्रधानमंत्री द्वारा दशहरे का त्यौहार मनाने से पाकिस्तान को कौन सा ‘कड़ा’ संदेश जाएगा? प्रधामंत्री की इस ‘देशभक्ति’ के पीछे की राजनीतिक मंशा साफ दिख रही है.

हिन्दुत्व से बुद्धत्व की ओर जाने से मिलेगी दलितों को मुक्ति

पदार्थ की तीन अवस्थाएं होती हैं. ठोस, द्रव और गैस. लेकिन इसके साथ ही चौथी अवस्था जिसको प्लाज्मा कहा गया है, उसको खोज लिया गया है. समुद्र की गहराई से लेकर आसमान की ऊंचाई तक, चांद से लेकर मंगल ग्रह तक विज्ञान ने कदम रख दिया है. ह्रदय प्रत्यारोपण, किडनी प्रत्यारोपण और नयी-नयी औषधियों की खोज से जीवन प्रत्यासा बढ़ी है. सूचना क्रांति, बुलेट ट्रेन से लेकर अब डिजिटल इंडिया और स्किल इंडिया की ओर हम अग्रसर हो चुके हैं. शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहे है. भारत अब कृषि प्रधान से कंप्यूटर प्रधान देश बनने की ओर अग्रसर है. भारत विश्व का सबसे बडा़ लोकतंत्र है और संविधान पर सबकी आस्था ही नहीं विश्वास भी है. अनेकता में एकता यहां की पहचान है, मगर मौजूदा दौर में देश में संसद से लेकर सड़क तक, शहर से लेकर गांव तक एक ही गूंज और चिल्लाहट सुनाई दे रही है. वह है दलित उत्पीड़न. इसके तहत दलितों को मारा गया, उन्हें जिंदा जलाया गया, उनके घर जला दिये गये, दलित युवाओं को सड़क पर कार से बांधकर बेरहमी से पीटा गया आदि-आदि. इन पीड़ितों का दोष हमेशा यही होता है कि या तो ये किसी मंदिर में प्रवेश करने का गुनाह कर बैठते हैं या किसी नल या कुएं से प्यास बुझाने की गलती कर रहे होते हैं. कभी इनका दूल्हा मंदिर या ‘विदेशियों’ के गांव में घोडी़ पर बैठकर जाने का दुःसाहस कर बैठता है या हालिय ऊना शहर गुजरात की घटना की तरह मृत पशु की खाल ले जा रहे होता है जो उनके व्यवसाय और आजिविका से जुड़ी होती है. हाल ही में उत्तराखण्ड के बागेश्वर जिले में एक दलित युवक की ब्राह्मण शिक्षक ने गर्दन दराती से इसलिए काट डाली कि उसने सवर्ण की चक्की को छू डाला. देश में दलित और महिला होना जैसे अभिशाप बन गया हो. ये सच है कि जब तक सृष्टि या सूर्य है नारी भी रहेगी और शायद दलित भी रहें क्योंकि मात्र कानून बनाने से इनकी दशा और दिशा बदलने वाली नहीं है जब तक समाज अपनी मानसिकता में बदलाव न कर ले. भौतिक शास्त्र से लेकर रसायन शास्त्र ने विश्व समाज को प्रगतिशील बना दिया है, मगर समाज शास्त्र अभी भी बहुत पीछे है. हमारे पास हजारों नीति शास्त्र और धर्म ग्रंथ मौजूद हैं लेकिन हम ज्यादा अधर्मी और समाज विरोधी बनते जा रहे हैं. इस समाज को सिर्फ और सिर्फ वोट की फसल के रूप बोया जाता है और सत्ता प्राप्ति के बाद  इस फसल को या तो रौंद दिया जाता है या काट दिया जाता है. इतना तय माना जाये कि वोट रूपी जाति के बीज को कोई भी राजनैतिक दल इतनी जल्दी मिटाना नहीं चाहेगा और न हीं हमारा हिंदू समाज इनको बराबर का दर्जा देगा क्योंकि जब दलित हैं तभी दूसरा वर्ण श्रेष्ठ बना हुआ है और श्रेष्ठ रहना भला कौन नहीं चाहेगा? देश के 16-18 फीसदी दलितों को खुद ही दलितपन से मुक्ति के लिए एक ऐसी अवस्था से गुजरना होगा जिसको रसायन विज्ञान में विलयन की संतृप्त अवस्था कहा जाता है. दलित वर्ग को संतृप्त की अवस्था प्राप्त करने के लिए उन कारकों को पहचान कर त्यागना होगा जो उनके दलितपन के प्रतीक हैं. गुजरात की ताजा घटना ने दलितों को संतृप्त अवस्था में लाने के लिए प्रेरित कर दिया है. दलित अब जाति के आधार पर थोपे गये कार्य को नहीं करेंगे और न हीं मरे जानवरों को उठाएंगे. इसके लिए एक मात्र उपाय है शिक्षित बनना, संगठित रहना और संघर्ष करना, जो बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा बताये गए सूत्र हैं. जिस दिन वंचित/दलित हिंदुत्व से बुद्धत्व की ओर मुड़ने लगेगा, मंदिर से स्कूल की तरफ मुड़ जायेगा मंत्रों से यंत्रों की ओर देखने लग जायेगा और जाति आधारित कार्यों को त्याग कर अन्य व्यवसाय की तरफ झांकने लग जायेगा, अपने वोट के सही प्रयोग और महत्व को समझने लग जायेगा, उसी दिन से यह समाज प्रगति की ओर बढ़ने लग जायेगा और दलित बनने और कहलाने के रास्ते जब बंद हो जाएंगे तो ये दलितों की संतृप्तावस्था होगी. स्वच्छ समाज, सभ्य समाज और संवैधानिक समाज की अवधारणा के लिए दलितों को इस अवस्था को प्राप्त करने की भरसक कोशिस करनी चाहिए. हिन्दुत्व को छोड़ बुद्धत्व की ओर जाने का मार्ग ही दलितों को शोषण से मुक्ति दिला सकता है. लेखक प्रवक्ता (भौतिक विज्ञान) हैं. अल्मोडा़ (उत्तराखण्ड) में रहते हैं. संपर्क- 7599189297

तब हीरो बनना चाहते थे कांशीराम

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किसी ”महामानव” के बारे में सबकुछ जान पाना असंभव होता है. लेकिन जैसे-जैसे आप उनके जिंदगी के करीब जाते हैं, कुछ अनछुई-अंजानी सी बातें भी सामने आती जाती है. मान्यवर कांशीराम जी के व्यक्तित्व का भी एक ऐसा ही पहलू है. इसमें, उनके मन में भी किसी भी आम इंसान की तरह कई सपने थे. एक सपना मुंबई जाकर हीरो बनने का भी था. लेकिन जिसे महानायक बनना था, वह आखिर सिर्फ नायक बनकर कैसे रह जाता. सतनाम सिंह द्वारा लिखे एक ऐसे ही लेख के संपादित अंश. जब मैं मान्यवार कांशीराम जी की जीवनी ”बहुजन नायक कांशीराम” लिखने के सिलसिले में 10 जनवरी 2004 को पंजाब में उनकी जन्मभूमि पिरथीपुर बुंगा (बुंगा साहब) गया था तो वहां मैं उनकी माता बिशन कौर जी से भी मिला था. भेंटवार्ता के दौरान कांशीराम जी के बचपन की यादों को कुरेदते हुए उन्होंने यह भी बताया था कि वे कॉलेज टाईम में अलग-अलग मुद्राओं में फोटों खिंचवाने के बड़े शौकीन थे. तस्वीरों को दिखाकर पूछते, ”मां देख, मैं हीरो जैसा लग रहा हूं न? फिर कहते ऐसी तस्वीरें इकठ्ठी करके बंबई जाऊंगा, फिल्म कंपनियों में. इन्हें देखकर वे मुझे जरूर फिल्मों में काम देंगे.” जब मैने माताजी से वे तस्वीरें दिखानें के लिए मांगी तो उन्होंने कहा था कि ”वह उन्हें तभी अपने साथ ले गया था, जब उसकी पूना में नौकरी लगी थी.” इस प्रसंग का कांशीराम जी के जीवन से कोई तालमेल भी नहीं बैठ रहा था तथा वे तस्वीरें भी मौजूद नहीं थीं. इसलिए मैने इस प्रसंग का जिक्र अपनी पुस्तक में नहीं किया था. लेकिन साहब कांशीराम जी के इस शौक का खुलासा इससे भी पहले उनके चाचा सरदार बिशन सिंह जी भी कार्तिक लोटे को दी अपनी भेंटवार्ता में कर चुके थे. अपनी पुस्तक लिखने के दौरान यह इंटरव्यूह मैने नहीं पढ़ा था. कांशीराम जी के संपादन में छपने वाले ‘बहुजन नायक’ दैनिक के बहुजन दिवस विशेषांक 1999 में यह जानकारी छपी थी तथा मुझे मेरे बुजुर्ग मित्र, मध्यप्रदेश के जे.बी.कठाणें जी, जो जाने-माने लेखक हैं, ने जानकारी उपलब्ध कराई थी. इस भेंटवार्ता में साहब के चाचा जी ने कहा था, ”देहरादून की नौकरी ज्वाइन करने से पहले कांशीराम जी को फिल्मी दुनिया में जाने की धुन सवार हुई थी. वे घर में बराबर फिल्मी पत्रिकाएं लाते थे. देहरादून जाना उन्हें पसंद नहीं था. वे मुंबई के आस-पास ही नौकरी ज्वाइन करना चाहते थे, क्योंकि इससे वह अपने शौक को परवान चढ़ा सकते थे.” कुछ ही दिनों बाद उनकी नौकरी पूना में लग गई और वो अपने सपने के करीब पहुंच गए. लेकिन ऐसा नहीं है कि कांशीराम जी को अचानक फिल्म स्टार बनने की सूझी हो. उनके चाचा बिशन सिंह ने बहुजन नायक के लिए कार्तिक लोटे को दिए अपने इंटरव्यूह में इसका खुलासा किया था. उनके शब्दों में ”उस समय कांशीराम बीएससी कर रहे थे. उस समय मुंबई से एक फिल्म कंपनी वाले शूटिंग के सिलसिले में रोपड़ के उसी कॉलेज में आए थे, जहां कांशीराम पढ़ा करते थे. उस दौर में शाम सिंह नाम का एक फिल्म अभिनेता था. उसी की फिल्म की शूटिंग थी. शूटिंग के दौरान एक स्टंट सीन देते हुए घोड़े से गिरने से उसकी मौत हो गई. फिल्म को पूरा करने के लिए उसी कद-काठी का हीरो चाहिए था. फिल्म से जुड़े लोग रोपड़ कॉलेज पहुंचे. प्रिंसिपल की अनुमति से फिल्मवालों के सामने लड़कों की परेड कराई गई, तो उन्हें कांशीराम पसंद आ गए. उन्होंने कांशीराम को हीरो बनने के लिए कहा लेकिन तब उन्होंने पढ़ाई की बात कह कर इंकार कर दिया. कॉलेज के शिक्षक और दोस्तों के समझाने पर भी वो नहीं माने. बाद में दोस्तों के लानत-मलानत के बाद उन्हें फिल्म छोड़ने का अफसोस भी हुआ था. लेकिन इस घटना के बाद से उन्होंने फिल्म स्टार बनने के सपने बुनने शुरू कर दिए.” बात आई-गई हो गई. उनके जीवन की दिशा भी राजनीति की तरफ बदल गई थी. लेकिन बॉलीवुड बाद तक उनका पीछा करता रहा. जब उन्होंने नकली हीरो बनने की बजाए असली हीरो बनने का प्रण करते हुए नौकरी छोड़ दी तथा अपने बामसेफ, डी.एस.फोर संगठन बनाकर 6 दिसंबर 1982 को चार विशाल साईकिल रैलियां शुरू की. उसी समय एक फिल्म कंपनी को अपनी एक फिल्म में ढ़ेर सारे साईकिल सवारों का दृश्य फिल्माना था. उन्होंने कांशीराम जी की साईकिल रैलियों के बारे में सुना. उन्होंने कांशीराम जी से इसे फिल्माने की अनुमति मांगी तो वो तैयार हो गए. वह सिनेमा को जनजागरण का महत्वपूर्ण हथियार मानते थे. इसका प्रमाण है, उनके द्वारा बनवाई गई फिल्म ”इंसाफ की आंधी”. कांशीराम जी ने स्वयं क्लैपिंग करके इस फिल्म की शूटिंग का उदघाटन किया. इस फिल्म का दृश्य देखते हुए वह किस तरह रो पड़े थे, इसका संस्मरण लेखक एवं कांशीराम जी के सहयोगी रहे आनंद रहाटे जी के लिखे ”नारी का दर्द देखा नहीं गया… और वो रो पड़े” में मिलता है. रोहाटे लिखते हैं ”छत्तीसगढ़ बिलासपुर जिले के अंतर्गत आने वाले शिवरीनारायण गांव के मेले में मीनाकुमारी खुंटे नामक आदिवासी महिला पर मंदिर के पुजारी, गांव के ठाकुर एवं लाला केसरवानी नामक बनिया ने मिलकर बलात्कार किया था. मीना कुमारी खुंटे जब इंसाफ की गुहार करती जब थाने पहुंची तो बजाए उसकी शिकायत सुनने के थानेदार ने सर्वणों का पक्ष लेते हुए उसे डांट कर भगा दिया. इंसाफ नहीं मिलने से थककर पीड़िता ने जान देने की कोशिश भी की लेकिन पति महादेव खुंटे ने उसे बचा लिया.” खुंटे दंपत्ति को कानून से न्याय नहीं मिलने पर बहुजन समाज पार्टी की छत्तीसगढ़ इकाई ने इस घटना को लेकर तीव्र आंदोलन किया, सारे छत्तीसढ़ में ”इंसाफ की आंधी” का निर्माण हुआ, आखिरकार बसपा कार्यकर्ताओं ने मीनाकुमारी से दुष्कर्म करने वालों को जेल की सलाखों के भीतर पहुंचा कर ही दम लिया. इसी घटना पर आधारित फिल्म ‘इंसाफ की आंधी’ का निर्माण कांशीराम ने करवाया था. फिल्म की शूटिंग के दौरान नायिका की इज्जत लुटने के बाद थाने का दृश्य फिल्माया जा रहा था. नायिका इंसाफ के लिए चिल्ला रही थी. कांशीराम जी यह दृश्य देख रहे थे और पल-पल उनके चेहरे के भाव बदल रहे थे, मानों वह दृश्य जिंदा होकर अपने जेहन को डस रहा हो. चेहरे पर वेदना की लकीर गहरी होती जा रही थी. वह पीड़िता मीनाकुमारी के बेबस आंसू देख चुके थे और उससे काफी आहत हुए थे. उनकी आंखे डबडबा गई और वो अपने आंसू रोक नहीं पाए. लेकिन जिन लोगों को वास्तविक जीवन में महानायक बनना होता है, वे पर्दे के ”नकली नायक” बनकर संतुष्ट नहीं हो जाते. कच्ची उम्र की दहलीज को जैसी ही उन्होंने पार किया वे ठोस बातों की तरफ ध्यान देने लगे थे और असली नायक बनने की दिशा में प्रयास करने लगे थे. आज हम सोचते हैं कि यदि बहुजन नायक कहीं सच में ही फिल्मी जगत के नायक मात्र बनकर रह गए होते तो आज दलित बनकर बिखरे इस समाज को बहुजन समाज में कौन बदलता. गहरी नींद में सोई हुई बेफिक्र कौम को कौन जगाता. बहुजनों के भीतर  राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक चेतना को कौन उभारता. जो महान कार्य उन्होंने कर दिए वे कार्य किसी नायक के नहीं बल्कि ”महानायक” के हैं.

यहां दुर्गा की नहीं, महिषासुर की होती है पूजा

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जहां पूरा देश नवरात्रि की खुशी मना रहा है. दुर्गा की पूजा कर रहा है, वहीं देश के कई हिस्सों में महिषासुर की भी पूजा की जा रही है. बंगाल और झारखंड में कई ऐसे जिले हैं जहां हजारों लोग महिषासुर का त्योहार मनाते हैं और उन्हें पूजते हैं. आईए हम आपको आज असुरों की पूजा के इतिहास से जुड़े कुछ तथ्यों से रू-ब-रू कराते हैं. ये तो हम सब जानते हैं कि असुरों का नाश मतलब ही बुराई पर अच्छाई की जीत होती है. लेकिन महिषासुर कोई दैत्य नहीं थे, वे पूजनीय थे ये बात कितनों को मालुम है. असुर कौन होते हैं हाल ही की एक रिपोर्ट से पता चला है कि झारखंड और बंगाल में असुर आदिवासी प्रजाति के 26 हजार लोग हैं, जो महिषासुर को अपना देवता मानते हैं. उनका मानना है कि महिषासुर उनके राजा थे और देवी ने अपने हाथों से उनका वध किया था. जहां एक ओर हम दुर्गा पूजा को जश्न के साथ मनाते हैं, वहीं दूसरी ओर असुरों के गांव में मातम फैला होता है. वे अपने राजा को याद करके गम में डूबे रहते हैं. अब तक हमें ये पता था कि महिषासुर एक दैत्य हैं, लेकिन सच ये है कि पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड समेत पांच राज्यों में फैली कुछ जनजातियां महिषासुर को एक महान राजा मानती हैं और ””असुर”” जैसी कुछ जनजातियां खुद को उनका वंशज मानती हैं. असुर जनजाति झारखंड के गुमला, लातेहार, लोहरदग्गा और पलामू जिलों में और उत्तरी बंगाल के अलीपुरद्वार जिलों में पाई जाती है. असुर और सांथल रीति रिवाजों में महिषासुर की पूजा की जाती है. दुर्गा पूजा में महिषासुर को एक असुर बताकर मां देवी के चरणों में झुका दिया जाता है. लेकिन कई प्रजाति ऐसी हैं जो महिषासुर की पूजा करती हैं. संथाल जनजाति भी महिषासुर के नाम के लोकगीत गाती हैं. पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में महिषासुर की पूजा के लिए एक भव्य मेला आयोजित किया जाता है. कई राज्यों में पूजनीय हैं महिषासुर बंगाल के संथालों में महिषासुर को एक वीर के रूप में दिखाया जाता है. ये जाति इसका विरोध करती है कि महिषासुर को दैत्य क्यों बनाया जाता है और देवी दुर्गा उनका नाश क्यों करती हैं. दुर्गा पूजा में महिषासुर को दुर्गा के चरणों में झुके हुए दिखाया जाता है और देवी को उन्हें मारते दिखाया जाता है लोग इसका भी विरोध करते है. संथाल जनजातियां लंबे समय से महिषासुर को श्रद्धेय मानती रही हैं और पिछले 12 सालों से वे उसी प्रकार महिषासुर की सामाजिक पूजा का आयोजन कर रही हैं, जिस प्रकार समाज की मुख्यधारा में दुर्गा पूजा का आयोजन किया जाता है. कई जिलों में महिषासुर की पूजा होती है. हिंदू धर्म की कथाओं के अनुसार, ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शक्तियों ने असुर महिषासुर के संहार के लिए देवी दुर्गा को उत्पन्न किया था, जिन्होंने दैत्य का नाश करने के लिए धरती पर जन्म लिया. झारखंड की असुर जनजातियां भी खुदको महिषासुर का वंशज मानती हैं. कर्नाटक के मैसूर का नाम भी महिषासुराना ऊरू (महिषासुर का देश) से ही पड़ा है. बंगाल में देवी की पूजा के दौरान महिषासुर को भी पुष्पांजलि अर्पित की जाती है.

अंधविश्वासः माता-पिता ने 13 साल की लड़की से रखवाया उपवास, 68 दिन बाद हुई मौत

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13-yrsहैदराबाद। हैदराबाद में एक 13 साल की मासूम की मौत का अजीबो-गरीब मामला सामने आया है. मृतका परिवार को बिजनेस में हो रहे घाटे से उबारने के लिए पिछले 68 दिनों से उपवास रख रही थी. 13 साल की मासूम का स्वास्थ्य ज्यादा बिगड़ने की वजह से उसकी मौत हो गई. पुलिस मामले की जांच कर रही है. तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में अंधविश्वास का बेहद ही चौंकाने वाला मामला सामने आया है. पुलिस के मुताबिक, 13 साल की कुमारी आराधना पिछले 68 दिनों से उपवास रख रही थी. जिसकी वजह से उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया और उसकी मौत हो गई. उपवास रखने के पीछे की कहानी बेहद ही चौंकाने वाली है. दरअसल जैन समुदाय से ताल्लुक रखते लक्ष्मीचंद का शहर में ज्वैलरी का बिजनेस है. लक्ष्मीचंद को पिछले काफी वक्त से बिजनेस में घाटा हो रहा था. जिसके बाद चेन्नई के किसी संत ने लक्ष्मीचंद को बिजनेस में हो रहे घाटे से उबरने का अजीबो-गरीब उपाय बताया. संत ने लक्ष्मीचंद और उनकी पत्नी से कहा कि अगर उनकी बेटी चर्तुमास उपवास रखेगी तो बिजनेस में मुनाफे के साथ ही उनके परिवार का भाग्योदय हो जाएगा. अंधविश्वास के फेर में फंसे लक्ष्मीचंद ने अपनी 10वीं में पढ़ने वाली बेटी आराधना से चार माह का उपवास रखने के लिए कहा. जिसके बाद आराधना पिछले 68 दिनों से उपवास रख रही थी. बीते 2 अक्टूबर को आराधना की हालत बिगड़ी तो उसे फौरन अस्पताल में भर्ती करवाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. घटना की खबर फैलते ही चाइल्ड राइट एसोसिएशन ने शुक्रवार को हैदराबाद पुलिस कमिश्नर महेंद्र रेड्डी से मामले की शिकायत की. कमिश्नर महेंद्र रेड्डी ने घटना की गंभीरता को देखते हुए परिजनों के खिलाफ फौरन कार्रवाई के आदेश दिए. मामले के तूल पकड़ते ही कई दूसरी संस्थाओं ने भी परिजनों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की. फिलहाल पुलिस मामले की जांच कर रही है. बहरहाल कार्रवाई से इतर सच तो यहीं है कि अंधविश्वास के चलते एक 13 साल की मासूम को अपनी जान गंवानी पड़ी. बाल अधिकारों की कार्यकर्ता शांता सिन्हा का कहना है कि इस मामले की पुलिस में शिकायत दर्ज की जानी चाहिए और बाल अधिकार आयोग को कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए. सिन्हा ने कहा ”एक नाबालिग से हम ऐसे किसी फैसले को लेने की उम्मीद नहीं कर सकते जो कि उसकी जिंदगी के लिए खतरा है. धार्मिक नेताओं को भी देखना होगा कि किस बात की अनुमति की जाए और किसकी नहीं.” जैन समुदाय की सदस्य लता जैन का कहना है कि ”यह एक रस्म सी हो गई है कि लोग खाना और पानी त्यागकर खुद को तकलीफ पहुंचाते हैं. ऐसा करने वालों को धार्मिक गुरु और समुदाय वाले काफी सम्मानित भी करते हैं. उन्हें तोहफे दिए जाते हैं. लेकिन इस मामले में तो लड़की नाबालिग थी. मुझे इसी पर आपत्ति है. अगर यह हत्या नहीं तो आत्महत्या तो जरूर है.”

यूपीः पुजारी ने किया दलित लड़की और उसके पिता पर त्रिशूल से हमला

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सम्भल।  दलितों से संबंधित घटनाएं रोजाना बढ़ रही हैं. कभी शहर में तो कभी गांव में आए दिन दलितों पर अत्याचार किया जा रहा है. इस बार मामला उत्तर प्रदेश के सम्भल का है. जहां एक दलित लड़की को आश्रम में पानी भरने से पुजारी ने रोक दिया, जिसका लड़की ने विरोध किया तो पुजारी ने त्रिशूल से उसके पिता और उस पर हमला कर दिया. इस घटना का पता चलते ही दलित संगठनों ने इसकी निंदा की और रोष व्यक्त किया. बहुजन समाज पार्टी के जिलाध्यक्ष धर्मेंद्र कुमार सोमवार की शाम गंगुर्रा गांव पहुंचे और पीड़ित परिवार से मिलेय उन्होंने घटना की निंदा करते हुए अधिकारियों से कड़ी कार्रवाई की मांग की है। दूसरी ओर इस घटना की घोर निंदा करते हुए दलित एकता मंच, धर्मार्थ सेवा संस्थान के सदस्य, जनता युवा जागृति मंच ने अलग-अलग बैठक की और दलितों पर हो रहे उत्पीड़न को रोकने की मांग की है. युवा जागृति मंच ने तो चेतावनी देते हुए कहा कि दलित उत्पीड़न की घटनाएं नहीं रुकी तो अलग प्रदेश की मांग होगी. तमाम दलित संगठनों के विरोध के बाज पुलिस ने पुजारी और उसके सहयोगी को गिरफ्तार कर लिया है.

अस्सी और नब्बे के दशक में अनबुझ पहेली जैसे थे कांशीराम

मान्यवर कांशीराम का जन्म पंद्रह मार्च1934 को हुआ. प्यार से लोग उन्हें साहब या आदरवश मान्यवर कहते हैं. वह अभी तक के एक ऐसे नायक रहे हैं, जिनका समग्रता से आंकलन होना बाकी है. अस्सी और नब्बे के दशक में उनका व्यक्तित्व अनबुझ पहेली की तरह रहा. परंतु नब्बे के दशक के बाद से उन्होंने भारतीय राजनीति को अकेले दम पर एक नई दिशा दी. उन्होंने गरीबों, मजलूमों, अशिक्षित, ग्रामीण अंचल के लोगों का एक ऐसा आंदोलन किया, जो पढ़े-लिखे शहरी तथा पूंजीपतियों द्वारा समर्थित दलों को मुंह चिढ़ाता है. मान्यवर कांशीराम का व्यक्तित्व साधारण मनुष्य का था. जो कि एक सामान्य समाजिक परिवेश से उठकर भारतीय राजनीति में सूर्य की तरह चमके. वह गांधी नेहरू, टैगोर, सर्वपल्ली राधाकृष्णन आदि नेताओं की तरह द्विज नहीं थे. और न ही उनको ब्राह्मणवाद की सामाजिक संरचना का सपोर्ट था. इसके विपरीत वो मनुवाद एवं ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था के घोर निंदक रहे. उन्होंने अपनी इसी सोच के तहत भारतीय समाज को मनुवादियों और बहुजनों के दो फाड़ में बांट दिया. मनुवादियों को उन्होंने मनु धर्मशास्त्र का पोषक बताया और उनकी जनसंख्या का प्रतिशत पंद्रह. इसके साथ ही बहुजन समाज का प्रतिशत 85 तथा मनु धर्मशास्त्र का विक्टीम बताया. इसीलिए उन्होंने यह नारा दिया, ‘ठाकुर-ब्राह्मण-बनिया छोड़ बाकी सब हैं, डीएस-4’ वह न ही विदेश में पढ़े थे, न ही बहुत बड़े बुद्धिजीवी थे और न ही एक कुशल वक्ता. परंतु एक अपार दूरदृष्टि वाले संगठनकर्ता थे. वह अपने श्रोताओं को जानते थे अतः अत्यंत सरल भाषा का प्रयोग कर, लाखों-लाखों की जनता को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे. लोग उनकी रैली में पैसे या गिफ्ट के माध्यम से नहीं आते थे परंतु उनके व्यक्तित्व एवं कृतृत्व के प्रति समर्पण की भावना से रैलियों में उनके कार्यक्रमों को सुनकर उत्साह लेने के लिए आया करते थे. मान्यवर ने बहुजन समाज को जोड़ने के लिए पहली बार कुछ नवीन प्रयोग किए. सर्वप्रथम उन्होंने एक सशक्त एवं ईमानदार संगठन का निर्माण किया और कैडर के रूप में अनुशासित सिपाही तैयार किए. और इसके पश्चात अपना आंदोलन अपनी मदद से ही चलेगा, जैसी धारणा उनके मन में पैदा की. फिर क्या था, लोगों का विश्वास जीता और संगठन आगे निकल पड़ा. मान्यवर का दूसरा प्रयोग बहुजन समाज के खोए हुए इतिहास का पुर्ननिर्माण था. उन्होंने चुन-चुन कर बहुजन समाज के एक वृहत इतिहास की चादर बुनी, जिसमें आंदोलन को बुद्ध से शुरू होते हुए पंद्रहवी शताब्दी के रैदास, कबीर, गुरु घासीदास आदि तक लाए. आधुनिक काल में 1848 में जोतिबा फुले द्वारा ब्राह्मणवादी संस्कृति के खिलाफ क्रांति के फूंके गए बिगुल का संज्ञान लिया और उसके पश्चात दक्षिण में नारायणा गुरु के आंदोलन को अपनी उर्जा के लिए प्रयोग किया. इसके पश्चात आरक्षण के जनक साहूजी महाराज, ब्राह्मणवाद के घोर निंदक ई.वी रामास्वामी नाइकर (पेरियार) तथा बाबासाहेब अंबेडकर को अपने पांच गुरुओं में शामिल किया. इन सभी महापुरुषों एवं बहुजन समाज के सुधारकों के आंदोलनों को उन्होंने अपनी विचारधारा का आधार बनाया और संगठन में उनके द्वारा किए गए आंदोलनों का बार-बार उदघोष कर मायूस, अत्याचार से निढ़ाल एवं हजारों वर्ष से सतायी हुई बहुजन जनता में भरपूर जोश भरा. जिससे कि देखते ही देखते 1971 में बना पहला संगठन, 1978 तक बामसेफ के रूप में अखिल भारतीय हो गया. यह पहला कर्मचारी संगठन था जो उन्होनें अखिल भारतीय स्तर पर बनाया. अपने आंदोलन को गतिशील बनाने के लिए उन्होंने 1981 में बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर (बीआरसी) और 6 दिसंबर 1981 को डीएस-4 की स्थापना की. यद्यपि बामसेफ ‘पे बैक टू सोसायटी’ यानि समाज का कर्ज उतारने के लिए बना था. परंतु यह गैर राजनैतिक, नॉन एजीटेशनल एवं गैर धार्मिक संगठन था. लेकिन इस संगठन से मान्यवर संपूर्ण समाज के दुख एवं दर्द को दूर नहीं कर सकते थे. इसलिए उनको बहुजन समाज के सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक उत्थान के लिए एक संगठन बनाना पड़ा. और यह संगठन डीएस-4 के रूप में स्थापित किया गया. इस संगठन के माध्यम से मान्यवर ने लोगों को राजनीति के कुछ आरंभिक मंत्र सिखाए और इसकी सफलता को देखते हुए उन्होंने 14 अप्रैल 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. और इसी से ‘राजनैतिक सत्ता दलितों के सभी दुखों की चाभी है’ के मूलमंत्र को जनता तक पहुंचाया. अपनी जनता को ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा’ नारा देकर अपने वोट का अपने हक में इस्तेमाल करना सिखाया. फिर क्या था, सत्ता के दहलीज पर उन्होंने पहली बार 1993 में दस्तक दी. और फिर 1995 में एक दलित महिला को भारत के जनसंख्या के आधार पर सबसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री बनाकर भारतीय राजनीति में ही नहीं बल्कि विश्व की राजनीति में अजूबा कर दिया. मान्यवर द्वारा एक दलित महिला को मुख्यमंत्री बनाया जाना अनायास नहीं था. मान्यवर ने यह सब अपने महापुरुषों के महिला सशक्तिकरण के आंदोलनों से शिक्षा लेकर किया. हमें महात्मा जोतिबा फुले, नरायणा गुरु, साहूजी महाराज एवं बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर द्वारा महिला सशक्तिकरण हेतु उठाए गए अनेक कदमों को यहां याद करना होगा. और इसीलिए शायद मान्यवर ने बहन मायावती को अपने आंदोलन का उत्तराधिकारी घोषित किया. थोड़े ही समय में बहुजन समाज पार्टी भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय दल का मुकाम पा गई. और फिर मान्यवर कांशीराम एक नया इतिहास लिखा. क्योंकि इससे पहले बहुजनों के किसी भी दल को राष्ट्रीय दल का दर्जा नहीं मिला था. अपने आंदोलन को गतिशीलता देने में मान्यवर ने कभी भी प्रजातांत्रित मूल्यों का साथ नहीं छोड़ा. उन्होंने सदैव प्रजातांत्रिक मूल्यों पर ही अपनी राजनीति को कायम रखा. प्रजातंत्र के प्रति उनका यह समर्पण उनके द्वारा प्रतिपादित सभी नारों में दिखाई पड़ता है. यथा, ‘वोट से लेंगे पीएम-सीएम, आरक्षण से लेंगे एसपी-डीएम’ यहां वोट और आरक्षण दोनों ही दलितों के संवैधानिक अधिकार हैं, जिसके माध्यम से मान्यवर सत्ता अर्जित करना चाहते हैं. एक और नारा, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागेदारी’ के द्वारा प्रजातंत्र में सबसे बड़ा हथियार लोगों की जनसंख्या होती है, मान्यवर इसी बात को अपनी भोली-भाली जनता को बताना चाहते थे. उन्होंने कभी भी अपने राजनैतिक जीवन में अपनी सत्ता के लिए किसी दूसरे दल के एमएलए को नहीं तोड़ा, जैसा कि अमूमन राजनैतिक दल किया करते हैं. कभी भी उन्होंने बूथ कैप्चरिंग और दबंगई का सहारा नहीं लिया. बल्कि अपने संगठन की क्षमता एवं अपने लोगों के वोटों पर ही भरोसा किया. उन्होंने भावनावश अल्पसंख्यक समाज को कभी नहीं भड़काया, बल्कि वह उस समाज में नेतृत्व पैदा करना चाहते थे और कहा करते थे कि आपको अपनी मदद स्वयं करनी है. इसलिए मान्यवर की प्रजातंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपार प्रतिबद्धता थी. मान्यवर को मीडिया हमेशा मनुवादी लगा. और इसलिए उनको बहुजन समाज का एक स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर मीडिया या प्रचार माध्यम विकसित करने की हमेशा लालसा रही. इसी प्रयोग में उन्होंने पहले द अनटचेबल (मासिक पत्रिका) निकाला, फिर अप्रैस्ड इंडियन (मासिक पत्रिका) निकाली. इसके पश्चात उन्होंने बहुजन टाइम्स को हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में दैनिक समाचार पत्र निकाले. परंतु धनाभाव में इन सभी समाचार पत्रों की अकाल मृत्यु हो गई. परंतु मान्यवर इससे भयभीत नहीं हुए. इसके पश्चात उन्होंने बहुजन संगठक (हिंदी साप्ताहिक) का अनवरत 22 वर्षों तक प्रकाशन किया. और इसके साथ ही साथ पंजाबी, मराठी, गुजराती, तेलुगू आदि भाषाओं में भी साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करते और करवाते रहे. परंतु अफसोस यह सब बहुत आगे नहीं बढ़ सका और इसलिए स्वतंत्र एवं आत्मनिर्भर बहुजन प्रचार-तंत्र का उनका सपना अभी भी अधूरा है. जैसा कि प्रबुद्ध भारत, जो बुद्ध धर्म पर चल रहा हो, उसका सपना भी अधूरा है. मान्यवर कांशीराम के कृतृत्व एवं व्यक्तित्व के आंकलन के पश्चात ये कहा जा सकता है कि मान्यवर ने बाबासाहेब के सैद्धांतिक पक्ष को व्यवहारिक स्वरूप दिया. उन्होंने उनके मूलमंत्र, ‘सामाजिक क्रांति के माध्यम से राजनैतिक सत्ता प्राप्त की जा सकती है’, को आगे बढ़ाया. बाबासाहेब ने जिस तरह अपने आंदोलन को गतिशीलता प्रदान करने के लिए सामाजिक संगठनों, समाचार पत्रों, राजनैतिक संगठनों एवं संवैधानिक अधिकारों के प्रयोग का सहारा लिया, मान्यवर कांशीराम ने भी अपने आंदोलन में समायोजित कर उसे गतिशीलता दी. शायद इसीलिए बहुजन समाज के लोग एवं बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता बाबासाहेब के अधूरे आंदोलन को पूरा करने के लिए उनसे आस लगाए बैठी थी. ‘बाबा तेरा मिशन अधूरा- कांशाराम करेंगे पूरा’ सरीखे कुछ नारे उस तथ्य को प्रमाणित करते हैं. बहुजन समाज मान्यवर कांशीराम के प्रति अपनी कृतज्ञता को कुछ इस तरह प्रकट करता है, ‘कांशी तेरी नेक कमाई- तूने सोती कौम जगाई’ पर अफसोस, जगाने वाला ही सो गया. लेकिन महापरिनिर्वाण से पहले मान्यवर ने सामाजिक परिवर्तन एवं आर्थिक उत्थान की जो प्रजातांत्रिक क्रांति भारतीय समाज में पैदा की है, वह आने वाले हजारों वर्षों में तो पुनः नहीं होने वाली. उन्होंने अपने पूरे सामाजिक एवं राजनैतिक आंदोलन के माध्यम से केवल दलित, पिछड़े एवं अल्पसंख्यक समाज को ही नहीं जगाया, परंतु सर्वसमाज को जागृत किया है. और उन्होंने अपने आंदोलन के माध्यम से समाज में सबसे आखिरी पायदान पर खड़े हुए व्यक्तियों का सशक्तिकरण किया. उन्होंने उन शब्दहीन, शक्तिहीन एवं सत्ताविहिन समाज को संगठित कर भारतीय प्रजातंत्र को और भी सबल बना दिया है. आने वाला युग कल्पना भी नहीं कर सकता कि एक सामान्य सामाजिक पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति भारतीय समाज में इतना बड़ा योगदान कर सकता है. मान्यवर को शत्-शत् नमन.

कांशीराम ने की थी सौ पत्र-पत्रिकाओं की कल्पना

कांशीरामजी से मेरी पहली मुलाकात 21 अगस्त 1977 को बामसेफ के तात्कालिन केंद्रीय कार्यालय, करोल बाग के रैगरपुरा के मकान में हुई थी. उसके पश्चात उनसे मेरी दूसरी मुलाकात ठीक दस दिन के बाद हुई. यह वह दौर था जब कांशीरामजी को जानने और पहचानने वाले लोग नहीं के बराबर थे. आज मैंने कई लोगों को यह कहते हुए और दम भरते हुए देखा है कि वो कांशीरामजी को बहुत पहले से जानते हैं. अपनी अहमियत बढ़ाने के लिए वो उनसे करीबी होने का दावा भी करते हैं. खैर, यह सार्वभौम सत्य है कि कोई आदमी जब अपने कर्मों से बड़ा हो जाता है और जनता में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है तो हर कोई उनसे जुड़ कर वाहावाही लूटना चाहता है. मैंने दिल्ली में ऐसे कई लोग देखें जो किसी समय कांशीरामजी को गालियां देते थे, उनपर ताने कसते थे, परंतु जैसे ही राजनीति में उनका कद बढ़ने लगा, वे उनसे मिलने के लिए दौड़ कर पहली कतार में खड़े हो गए. बामसेफ की सोच और संकल्पना कांशीरामजी ने 6 दिसंबर 1973 को नई दिल्ली के पंचकूईयां रोड पर स्थित बापू भवन में पूना से आए अपने 40 साथियों के सामने रखी (बाद में वो इन्हीं बापू की विचारधारा के खड़े हो गए). इस मौके पर 40 साथियों ने यह प्रण किया था कि अगले पांच वर्ष में वे देश के आधे से अधिक राज्यों में और 100 से अधिक जनपदों में बामसेफ के कार्यालयं की स्थापना करेंगे और कम से कम एक लाख दलित शोषित समाज के कर्मचारियों को बामसेफ के बैनर तले संगठनत करेंगे. इस कठिन कार्य के लिए उन्होंने अपने ऊपर पांच वर्ष की एक समय सीमा भी निश्चित कर दी थी. पांच वर्ष के भीतर बामसेफ द्वारा अपना ध्येय प्राप्त कना असंभव तो नहीं परंतु कठिन अवश्य था. उसी समय उन्होंने यह भी निर्णय लिया ता कि 6 दिसंबर 1978 को दिल्ली में ही वे बामसेफ नामक नए संगठन की घोषणा करेंगे. बामसेफ के तीन दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन जिसका नाम “BIRTH OF BAMSEF” था, 6-8 दिसंबर तक दिल्ली के प्रसिद्ध बोट कल्ब मैदान पर आयोजित किया गया था. विशाल पंडाल और बामसेफ द्वारा निर्मित प्रदर्शनी का दूसरा पंडाल भव्यतम थे. अधिवेशन का प्रवेश द्वार लोगों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र था, जिसे बहुजन समाज के ही उभरते प्रसिद्ध चित्रकार प्रकाश पाटिल ने बनाया था. पाटिल को मैंने ही बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से इस काम के लिए दिल्ली बुलाया था. तब प्रकाश बीएचयू में मास्टर ऑफ फाइन आर्ट की स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे. बाद में प्रकाश ने बामसेफ के लिए एक विशाल प्रदर्शनी का निर्माण किया. उन्होंने बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले, नरायणा गुरु और पेरियार के जीवन प्रसिद्ध घटनाओं पर आधारित तमाम चित्र बनाए. इसके साथ ही दलितों पर होने वाले अन्याय-अत्याचार से संबंधित घटनाओं पर भी लगभग 25-30 चित्र बनाए गए, जिसमें बेलची, कफलता, कंझावला, पिपरवाह आदि कई घटनाएं शामिल थी. इस प्रदर्शनी का नाम रखा गया- ”भारत में सामाजिक क्रांति का इतिसाह”. कांशीराम जी इसी प्रदर्शनी को लेकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश आदि में ”आम्बेडकर मेला” का आयोजन कर लोगों को संगठित करने का प्रयास करते रहे. आम्बेडकर मेला देखने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. बहुजन समाज के आंदोलन को गति और प्रेरणा देने में इस प्रदर्शनी का बहुत बड़ा योगदान रहा. प्रकाश पाटिल फिलहाल दिल्ली से सटे फरीदाबाद में रहते हैं. बामसेफ के इस तीन दिवसीय अधिवेशन, में रोज हजारों की भीड़ इकट्ठा हो रही थी. इस अधिवेशन को तात्कालीन सांसद खुर्शीद आलम खान, के. कुसुम कृष्णामूर्ति (आंध्र प्रदेश), रामलाल कुरील, एस.डी. सिंह चौरसिया आदि कई नेताओं ने संबोधित किया. दिल्ली में उस समय इतना बड़ा विशाल कार्यक्रम किसी और स्थान पर नहीं हुआ था. परंतु फिर भी समाचार पत्रों ने इस कार्यक्रम का समाचार प्रकाशित नहीं किया. हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि देश की राजधानी में आयोजित इस विशाल कार्यक्रम का समाचार अखबारों ने क्यों नहीं प्रकाशित किया, जबकि साधु-संतों से लेकर बलात्कार के समाचार तक आए दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं. मैंने कांशीरामजी से कहा कि हम प्रेस कांफ्रेंस करेंगे और पत्रकारों को अधिवेशन की जानकारी देंगे. कांशीरामजी ने मुझे बहुत समझाने का प्रयास किया कि इसका कोई लाभ होने वाला नहीं है. उन्होंने कहा था कि इस देश का मीडिया ब्राह्मणवादी लोगों के हाथ में है और उसका संचालन इस देश के पूंजीपति बनिया लोग करते हैं. इसलिए वे उन्हीं समाचारों को प्रकाशित करेंगे जो उनके हित में हो. क्योंकि देश के दलितों का संगठित होना उनके हित में नहीं हो सकता. लेकिन मैं लगातार उनसे आग्रह करता रहा. अंत में उन्होंने मेरा आग्रह मानकर प्रेस कांफ्रेंस के लिए हामी भर दी. बोट क्लब के निकट ही प्रेस क्लब ऑफ इंडिया है, जहां दिल्ली के पत्रकारों का जमघट हमेशा बना रहता है. मैंने बकायदा प्रेस कांफ्रेंस के आयोजन के लिए क्लब के सेक्रेटरी के पास 500 रुपये का शुल्क अदा किया. प्रेस कांफ्रेंस के लिए शाम को 5.30 का समय निश्चित किया गया था और सभी पत्रकारों को क्लब के माध्यम से निमंत्रण भी भेजा गया था. शाम को ठीक 5 बजे मै और कांशीरामजी प्रेस क्लब पहुंचें. बैठने की व्यवस्था का निरीक्षण किया और पत्रकारों के आने की प्रतीक्षा करने लगे. एक घंटा बीत गया, डेढ़ घंटा बीत गया और सात बज गए लेकिन एक भी पत्रकार नहीं पहुंचा. वैसे तो हर शाम को वहां खाने-पीने और बतकही करने के लिए पत्रकारों का जमघट लगा रहता था लेकिन उस दिन वहां एक भी पत्रकार नहीं पहुंचा था. कांशीरामजी ने मुझसे कहा- ”देखा, मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि अपने समाज के संगठित होने के समाचार कोई भी ब्राह्मणवादी समाचार पत्र नहीं छापेगा, क्योंकि वह उनके हित में नहीं होगा.” इसके विपरीत एक दूसरा प्रसंग भी है. बात बामसेफ के राष्ट्रीय अधिवेशन की है. बाबासाहेब के धर्मांतरण की 25वीं वर्षगांठ के अवसर पर अक्तूबर 1981 में चंडीगढ़ में आयोजित किया गया था. बामसेफ का उस समय का वह सबसे बड़ा और विशाल अधिवेशन था, जिसका उदघाटन दिवंगत कर्पूरी ठाकुर ने किया था और रामविलास पासवान, जगपाल सिंह (हरिद्वार के तात्कालिन सांसद), जयपाल सिंह कश्यप (तात्कालिन सांसद), एस.डी. सिंह चौरसिया, बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम समाज के कुछ प्रमुख धर्मगुरू, रिपब्लिकन पार्टी के नेता और अन्य नेताओं ने बी अधिवेशन को संबोधित किया. 1978 के नई दिल्ली के हमारे बुरे अनुभव के कारण हमने चंडीगढ़ के अधिवेशन के लिए प्रेस को आमंत्रित न करने का निर्णय लिया था. परंतु अधिवेशन की विसालता को देखते हुए और हमाजारों लोगों का जमघट दखकर चंडीगढ़ के पत्रकारों ने तुरंत पंजाब यूनिट के बामसेफ अध्यक्ष सरदार तेजिन्दर सिंह झल्ली से संपर्क किया और उनसे अनुरोध किया कि वे कांशीरामजी का साक्षात्कार करना चाहते हैं. सबसे पहले इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने कांशीरामजी से मुलाकात का आग्रह किया. पहले तो कांशीरामजी ने मना कर दिया परंतु बहुत आग्रह करने पर वे राजी हो गए. जब इंडियन एक्सप्रेस में समाचार प्रकाशित हुआ तब दैनिक ट्रिब्यून सहित अन्य समाचार पत्र वाले कैसे पीछे रहते. दूसरे दिन वह भी आए और कांशीरामजी का इंटरव्यू और कार्यक्रम की खबर दोनों छापा. अधिवेशन के पश्चात जब हम दिल्ली लौट आए और अधिवेशन की चर्चा करने लगे तब कांशीरामजी ने मुझसे कहा, ”देखा खोब्रागडे, मैं तुमसे पहले ही कह रहा था ना कि जब तक उन्हें उचित लगा, उनके हित में लगा तब तक वे हमारी गतिविधियों को ब्लैकआउट करते रहे परंतु अब जब उन्हें यह एहसास होने लगा है कि अब दलितों की बढ़ती शक्ति की जानकारी उनके अपने आकाओं को देना उनके लिए आवश्यक ह गया है, तब उन्होंने हमारी खबरों का छापना शुरू कर दिया. परंतु हमें सावधान रहना होगा. जब तक उनके हित में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती वे हमारे संगठन के, दलित शोषित समाज के बनते और बढ़ते संगठन के समाचार को ब्लैक आउट करते रहेंगे, परंतु जब वे यह जान जाएंगे कि अब दलितों का संगठन शक्तिशाली होता जा रहा है और उनके लिए समस्या बन सकता है तब वे हमारे समाज को ब्लैकमेल करेंगे. वे ब्लैकआउट और ब्लैकमेल के हथियारों से हमारे आंदोलन को कुचलने का प्रयास करेंगे.” बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर के पश्चात दलित-शोषित समाज के संगठन की संकल्पना करना, उसकी योजना बनाना और उसे मूर्त रूप देकर अंतिम छोर तक पहुंचाने की सोच और प्रयास अगर किसी ने किया है तो वह कांशीरामजी ने किया. देश के भूगोल और जनसंख्या तथा विभिन्न जातियों का प्रतिशत आदि का उन्हें पूरा ज्ञान था. अगर मैं यह कहूं कि देश में बाबासाहेब के पश्चात संगठन की ऐसी सोच रखनेवाला दूसरा कोई नेता नहीं था तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी. केवल बहुजन समाज में ही नहीं, बल्कि अन्य राजनीतिक दलों में भी ऐसी सोच का एक भी नेता मुझे नजर नहीं आया (आर.एस.एस के अतिरिक्त). समाचार पत्र और पत्रिकाओं का आंदोलन में कितना महत्व और उपयोगिता हो सकती है, यह बाबासाहेब के पश्चात केवल कांशीरामजी ही समझ सके थे. इसीलिए उन्होंने The Oppressed India के अपने पहले ही संपादकीय में 55 दैनिक समाचार पत्र और पत्रिकाएं मिलाकर 100 से अधिक प्रकाशनों की बात कही थी. उनका यह निर्णय और ऐलान तब का था जब बामसेफ की जेब में फुटी कौड़ी बी नहीं थी और पत्रिकाओं को चलाने के लिए प्रशिक्षित पत्रकार भी नहीं थे. उनके इस साहस और सोच की मैं आज भी तारीफ करता हूं. परंतु ऐलान करना और उसको अमलीजामा पहनाना दो अलग बाते हैं. उत्तर प्रदेश ेमं राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति के पश्चात और हजारों, करोड़ों रुपये की उपलब्धि के पश्चात भी वह अपनी योजना के मुताबिक दैनिक समाचार पत्र नहीं चला सके. यह दलित-शोषित समाज के लिए दुर्भाग्य की बात रही. हालांकि उन्होंने इस दिशा में कोशिश तो की परंतु उन्होंने समाचार पत्र और पत्रिकाओं को चलाने के लिए एक भी कार्यकर्ता नहीं मिल सका और उनका 55 दैनिक समाचार पत्रों को चलाने का सपना/एलान अधूरा ही रह गया. संगठन, संस्था और किसी भी आंदोलन को चलाने के लिए मिशनरी कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती है. मिशनरी संगठन केवल मिशनरी लोगों के समर्थन के भरोसे ही चल सकता है. यह तो कांशीराम स्वयं ही कहते थे, परंतु बहुजन समाज पार्टी की स्थापना के पश्चात मिशनरी भावना कम होती चली गई. आज हम प्रजातांत्रिक माहौल में रहते हैं. प्रजातंत्र में विचारों का संघर्ष और युद्ध होता है. जो जितने अधिक से अधिक संख्या में जनमानस को अपने विचारों के साथ जोड़ पाएगा वही अपने ध्येय की प्राप्ति कर सकता है. यह लड़ाई हथियारों की नहीं बल्कि बुद्धि और कलम की है. इस युद्ध में कलम की शक्ति और बुद्धि चार्तुय ही प्रभावी शस्त्र हैं. कांशीरामजी ने कलम की ताकत को पहचाना तो था परंतु कलम चलानेवालों को दूर कर दिया था. बहुजन समाज के लिए यह बहुत ही दर्दनाक हादसा था, जिसकी क्षति कभी भी पूरी नहीं की जा सकेगी. आर.एस.एस इस बात को अच्छी तरह समझता है, तभी तो आज वह देश पर राज कर रहा है और वह भी निरंकुश शासन चला रहा है. आज बहुजन समाज की कई पत्रिकाएं और साप्ताहित चल रहे हैं. आज हमारे समाज में पत्रकारों की संख्या भी बढ़ रही है. इन प्रयासों को एक निश्चित योजना के तहत जोड़ना जरूरी है. ”दलित दस्तक” की पहल सराहनीय और प्रभावी है. इसका हर अंक एक नए विषय पर परंतु समाज और आंदोलन से संबंधित होता है. दलित दस्तक दलित एवं शोषित समाज का उचित मार्गदर्शन करता रहेगा और कांशीरामजी के मीडिया के सपने को आगे बढ़ाएगा, मेरी ऐसी अपेक्षा है. लेखक बामसेफ/डीएस4/बसपा के संस्थापक सदस्य हैं. संपर्क- 09970869665

भारत में जाति की उत्पत्ति और उसका सच

मैं सबसे पहले यह बता दूं की दुनिया में किसी भी समाज, व्यवस्था और धर्म का निर्माण किसी भी ईश्वर, अल्लाह या गॉड ने नहीं किया है. इससे साफ जाहिर होता है की जाति को भी ईश्वर ने नहीं बनाया है. दुनिया की सभी व्यवस्थाओं को मनुष्य ने बनाया है. यानि जाति की व्यवस्था को भी मनुष्य ने ही बनाया है. भारत में जाति की उत्पत्ति आर्यों के आगमन के बाद हुई. प्रत्येक कार्य और व्यवस्था के पीछे एक कारण और सम्बन्ध होता है. ऐसा ही सम्बन्ध जाति और उसकी व्यवस्था के पीछे है.

जाति व्यवस्था को आर्यों ने बनाया. यहाँ एक सवाल यह उठता है की आर्यों ने जाति व्यवस्था बनाई क्यों? और आर्य हैं कौन? यह सभी जानतें है की आर्य मध्य एशिया से भारत में आएं. आर्यों का मुख्य काम युद्ध और लूट-पाट करना था. आर्य बहुत ही हिंसक प्रवृत्ति के थे और युद्ध करने में बहुत माहिर थे. युद्ध का सारा साजो सामान हमेशा साथ रखते थे. अपने लूट-पाट के क्रम में ही आर्य भारत आए. उस समय भारत सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध था. इस समृद्धि का कारण भारतीय मूलनिवासियों की मेहनत थी. भारतीय मूलनिवासी बहुत मेहनती थे. अपनी मेहनत और उत्पादन क्षमता के बल पर ही उन्होंने सिन्धु घाटी सभ्यता जैसी महान सभ्यता विकसित की थी. कृषि कार्य के साथ-साथ अन्य व्यावसायिक काम भी भारत के मूलनिवासी करते थे. मूलनिवासी बेहद शांतिप्रिय, अहिंसक और स्वाभिमानी जीवन यापन करते थे. ये लोग काफी बहादुर और विलक्षण शारीरिक शक्ति वाले थे. बुद्धि में भी ये काफी विलक्षण थे. अपनी इस सारी खासियत के बावजूद ये अहिंसक थे और हथियारों आदि से दूर रहते थे. आर्यों ने भारत आगमन के साथ ही यहाँ के निवासियों को लूटा और इनके साथ मार-काट की. आर्यों ने उनके घर-द्वार, व्यापारिक प्रतिष्ठान, गाँव और शहर सब जला दिया. यहाँ के निवासियों के धार्मिक, सांस्कृतिक प्रतीकों को तोड़कर उनके स्थान पर अपने धार्मिक, सांस्कृतिक प्रतीक स्थापित कर दिया. मूलनिवासियों के उत्पादन के सभी साधनों पर अपना कब्जा जमा लिया. काम तो मूलनिवासी ही करते थे लेकिन जो उत्पादन होता था, उस पर अधिकार आर्यों का होता था.

धीरे-धीरे आर्यों का कब्जा यहां के समाज पर बढ़ता गया और वो मूलनिवासियों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य करने की कोशिश करने लगे. बावजूद इसके मूलनिवासियो ने गुलामी स्वीकार नहीं की. बिना हथियार वो जब तक लड़ सकते थे, तब तक आर्यों से बहादुरी से लड़े. लेकिन अंततः आर्यों के हथियारों के सामने मूलनिवासियों को उनसे हारना पड़ा. आर्यों ने बलपूर्वक बड़ी क्रूरता और निर्ममता से मूलनिवासियों का दमन किया. दुनिया के इतिहास में जब भी कहीं कोई युद्ध या लूट-पाट होती है तो उसका सबसे पहला और आसान निशाना स्त्रियाँ होती हैं, इस युद्ध में भी ऐसा ही हुआ. आर्यों के दमन का सबसे ज्यादा खामियाजा मूलनिवासियों कि स्त्रियों को भुगातना पड़ा. आर्यों के क्रूर दमन से परास्त होने के बाद कुछ मूलनिवासी जंगलों में भाग गए. उन्होंने अपनी सभ्यता और संस्कृति को गुफाओं और कंदराओं में बचाए रखा. इन्हीं को आज ‘आदिवासी’ कहा जाता है. यह गलत रूप से प्रचारित किया जाता है कि आदिवासी हमेशा से जंगलों में रहते थे. असल में ऐसा नहीं है. आदिवासी हमेशा से जंगलों में नहीं रहते थे. बल्कि उन्हें अपनी सुविकसित संस्कृति से बहुत प्यार था, जिसे उन्होंने आर्यों से बचाने के लिए जंगलों में शरण ली थी. बाद में आर्यों ने झूठा प्रचार करके उन्हें हमेशा से जंगल में रहने वाला प्रचारित कर दिया और उनकी बस्तियों और संपत्ति पर कब्जा कर लिया था. जो मूलनिवासी भाग कर जंगल नही गए, उनसे घृणित से घृणित अमानवीय काम करवाए गए. मरे हुए जानवरों को रस्सी से बांधकर और उन्हें खींचकर बस्ती से बाहर ले जाना फिर उनकी खाल निकालना, आर्यों के घरों का मल-मूत्र साफ करना तथा उसे हाथ से टोकरी में भरकर सिर में रखकर बाहर फेंकना आदि काम मूलनिवासियों से आर्य करवाते थे. मूलनिवासी इन घृणित कामों से काफी परेशान थे. इसके खिलाफ मूलनिवासी संगठित होकर विद्रोह करने लगे. हालाँकि आर्यों कि लूट-पाट एवं मार-काट से सभी बिखर गए थे, फिर भी समय-समय पर संगठत होकर वे अपनी जीवटता और बहादुरी से आर्यों को चुनौती देते रहते थे.

इसके परिणामस्वरुप आर्यों और अनार्यों (मूलनिवासियों) के कई भयंकर युद्ध हुए. मूलनिवासियों के इस तरह के बार-बार संगठित विद्रोह से आर्य परेशान हो गए. तत्पश्चात आर्य इससे निपटने के लिए दूसरा उपाय ढूंढ़ने लगे. उत्पादन स्रोतों और साधनों पर हमेशा अपना कब्ज़ा बनाये रखने को लेकर वो षड्यंत्र करने लगे. इसके लिए आर्यों ने रणनीति के तहत मनगढंत धर्म, वेद, शास्त्र और पुराणों की रचना की. इन शास्त्रों में आर्यों ने यहाँ के मूलनिवासियों को अछूत, राक्षस, अमंगल और उनके दर्शन तक को अशुभ बता दिया. धर्म शास्त्रों में आर्यों का सबसे पहला वेद ‘ऋगुवेद’ है, जिसके ”पुरुष सूक्त” में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख है. इसमें समाज व्यवस्था को चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बांटा गया. पुरुष सूक्त में वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा नाम के मिथक (झूठ) के शरीर से हुई बताई गई. इसमें कहा गया कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मणों की, भुजाओं से क्षत्रियों की, पेट से वैश्यों की तथा पैर से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है. इस व्यवस्था में सबके काम बांटे गए. आर्यों ने बड़ी होशियारी से अपने लिए वो काम निर्धारित किए, जिनसे वो समाज में प्रत्येक स्तर पर सबसे ऊंचाई पर बने रहें और उन्हें कोई काम न करना पड़े. आर्यों ने इस व्यवस्था के पक्ष में यह तर्क दिया कि चूंकि ब्राह्मण का जन्म ब्रह्मा के मुख से हुआ है इसलिए ब्राह्मण का काम ज्ञान हासिल करना और उपदेश देना है. उपदेश से उनका मतलब सबको सिर्फ आदेश देने से था. क्षत्रिय का काम रक्षा करना, वैश्य का काम व्यवसाय करना तथा शूद्रों का काम इन सबकी सेवा करना था. क्योंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से हुई है. इस प्रकार आर्यों ने शूद्रों को पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ नौकर बनाये रखने के लिए वर्ण व्यवस्था बना लिया.

इस प्रकार आर्यों ने अपने आपको सत्ता और शीर्ष पर बनाए रखने के लिए अपने हक में एक उर्ध्वाधर (खड़ी) समाज व्यवस्था का निर्माण किया. समाज संचालन और उसमें अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए समाज के प्रत्येक महत्वपूर्ण संस्थान जैसे शिक्षा और व्यवस्था पर अपने अधिकार को कानूनी जामा पहना कर अपना अधिकार कर लिया. वर्ण व्यवस्था को स्थाई और सर्वमान्य बनाने के लिए आर्यों ने झूठा प्रचार किया कि वेदों कि रचना ईश्वर ने की है और ये वर्ण व्यवस्था भी ईश्वर ने बनाई है. इसलिए इसको बदला नहीं जा सकता है. जो इसे बदलने की कोशिश करेगा भगवान उसको दंड देंगे तथा वह मरने के बाद नरक में जाएगा. आयों ने प्रचार किया की जो इस इश्वरीकृत व्यवस्था को मानेगा वह स्वर्ग में जाएगा. इस प्रकार मूलनिवासियो को ईश्वर, स्वर्ग और नरक का लोभ एवं भय दिखाकर अमानवीय एवं भेदभावपूर्ण वर्ण व्यवस्था को मानने के लिए बाध्य किया गया. मूलनिवासी अनार्यों ने इस अन्यायपूर्ण सामाजिक विधान को मानने से इंकार कर दिया. तत्पश्चात वर्ण व्यवस्था मृतप्राय हो गई और आर्यों की शक्ति और प्रभाव कमजोर होने लगा.

अपनी कमजोर स्थिति को देखकर मनु नाम के आर्य ने ”मनुस्मृति” नामक एक और सामाजिक विधान की रचना की. इस विधान में वर्ण व्यवस्था की श्रेणीबद्धता को बनाए रखते हुए एक कदम और आगे बढ़कर वर्ण में जाति और गोत्र की व्यवस्था बनाई. यानि मनु ने एक वर्ण के अन्दर अनेक जातियां बनाई और गोत्र के आधार पर उनमे उनमे उच्च से निम्न का पदानुक्रम निर्धारित किया गया, जिससे जातियों के भीतर उच्च और नीच की भावना का जन्म हुआ. मनु ने यह बताया कि चार वर्णों में से किसी भी वर्ण कि कोई भी जाति अपने से नीचे वर्ण कि जाति में कोई रक्त सम्बन्ध यानि शादी विवाह नहीं करेंगे अन्यथा वह अपवित्र और अशुद्ध हो जाएगा. सिर्फ समान वर्ण वाले ही आपस में रोटी-बेटी का रिश्ता कर सकते हैं . लेकिन मनु ने यहां भी चलाकी दिखलाई. उसने इस नियम को ब्राह्मणों के लिए लागू नहीं किया. ब्राह्मणों को इसकी छूट दी गई कि एक निम्न गोत्र का ब्राह्मण उच्च गोत्र के ब्राह्मण के यहाँ रोटी-बेटी का रिश्ता कर सकता था. इस तरह ब्राह्मणों की आपस में सामूहिक एकता बनी रही. यही नियम क्षत्रिय वर्ण में भी लागू रखा गया, जिससे क्षत्रिय भी एकजुट रहें. वैश्य में यह नियम लागू नहीं हुआ, जिसका परिणाम यह हुआ कि ये आपस में एकजुट नहीं हो सके और उच्च-नीच की भावना के कारण बिखरते रहे.

ऋगुवैदिक वर्ण व्यवस्था में जिसमें सभी मूलनिवासियों को रखा गया था. इसलिए उनमे सामुदिक भावना थी. वो अक्सर संगठित होकर आर्यों की वर्ण व्यवस्था और अमानवीय शोषण का विरोध करते रहते थे. मनु ने मूलनिवासियों की संगठन शक्ति को कमजोर करने के लिए नई चाल चली. उसने मनुस्मृति नामक वर्ण व्यवस्था के नए विधान में शूद्र वर्ण को जातीय पदानुक्रम के साथ-साथ दो जातीय समुदायों में बाँट दिया. शूद्र, समाज की सीढ़ी नुमा वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर था इसलिए इस वर्ण की जातियों को अछूत भी कहा गया था. ऋगुवैदिक वर्ण व्यवस्था में तो इनसे जबरदस्ती गंदे और अमानवीय काम करवाए जाते थे इसलिए इनको अन्य वर्णों के लोग छूते नहीं थे अर्थात वहां पर कर्म के कारण मूलनिवासियों की स्थिति निम्न थी लेकिन आर्यों ने इस स्थति को स्थिरता प्रदान करने के किए शास्त्रों में पुनर्जन्म के सिद्धांत की रचना की और मनु ने सभी मूलनिवासियों को जिन्हें आर्यों ने अछूत बनाया था को कमजोर, अछूत और गुलाम बनाए रखने के लिए वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था में बदल दिया. इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आर्यों ने समय-समय पर झूठे और आधारहीन धर्मंशास्त्र लिखें. आर्य भारत में मुग़लों के आने के बाद अपने आपको हिन्दू कहने लगे थे ताकि इससे उनके भारतीय मूलनिवासी होने का बोध हो. इस तरह भारत में जाति पैदा करने का श्रेय वर्तमान हिन्दुओं के पुरखों को जाता है. मनु की जाति व्यवस्था में जातियों की जनन क्षमता इतनी अधिक है कि आज जातियों की संख्या हजारों में पहुँच गई है और जाति का यह रोग भारत की सीमाएं लांघकर अमेरिका और ब्रिटेन तक पहुँच गया है.

यूपीः पैर नहीं छूने पर भड़का पंचायत सदस्य, दलित को नंगा कर पीटा

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बांदा। यूपी में दलितों के उत्पीड़न की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं. ऐसा ही एक मामला बांदा में सामने आया है, जहां दलित बाप-बेटे को दबंग जिला पंचायत सदस्य की प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा है. परिवार के मुखिया का गुनाह सिर्फ इतना था कि सड़क से गुजर रहे पंचायत सदस्य के उन्होंने पैर नहीं छुए थे. जिसके बाद अपने गुर्गों के साथ दलित बस्ती में पहुंचकर तांडव मचाया और एक दलित को अपने साथ ले जाकर नंगा कर पीटा, उसके बाद जूतों की माला पहनाकर घुमाने की कोशिश की. पीड़ित ने बताया कि उसे नंगा कर पीटा गया और जूते की माला पहनाकर गांव में घुमाने की कोशिश की गयी और बाद में थाने में भी पिटवाया गया. पुलिस वालों ने पिटाई करने के बाद फर्जी मुकदमे में जेल भेजने की धमकी देकर राजीनामे पर अंगूठा भी लगवा लिया. दरअसल, बांदा देहात कोतवाली क्षेत्र के जमुनीपुर गांव के मजरा गढ़ुवा के डेरा में रहने वाले पंचू का कुसूर सिर्फ इतना था कि रात में अपनी चमचमाती गाड़ी में आ रहे बांदा जिला पंचायत सदस्य जितवा यादव से राम-राम तो किया, लेकिन आगे बढ़कर पैर नहीं छुआ. बस इसी गुनाह के लिए दबंग ने उसे बांधकर पीटा. पीड़ित परिवार का आरोप है कि अगली सुबह जितवा यादव अपने दर्जनों गुर्गों के साथ उनके घर पर हमला बोल दिया, पंचू को गाड़ी में लादकर ले गया और घर में बंद कर बुरी तरह से पिटाई की और निर्वस्त्र कर जूतों की माला पहनाकर अपने साथ घुमाने की भी कोशिश की. बाद में इसे गाड़ी में लादकर देहात कोतवाली ले गए और वहां भी पूरे दिन और रात पुलिस से उसे पिटवाया. फिर अगली सुबह जबरन राजीनामे पर अंगूठा लगवाकर छोड़ दिया. वहीं उसी गांव के हरिचरण पर भी यादव और पुलिस ने साझा अत्याचार किया है. इसका गुनाह भी पंचू जैसा था. उच्च जाति के जितवा यादव को इसने राम-राम तो किया, लेकिन पैर नहीं छुआ था. रात के वक्त इसके घर में भी जितवा यादव अपने गुर्गों के साथ हमला बोल दिया और इसके साथ ही घर की महिलाओं की भी पिटाई कर दी. पीड़ित हरिचरण को भी जबरन गाड़ी में लादकर इस दबंग ने देहात कोतवाली पहुंचा दिया और फिर देहात कोतवाली ने पूरा दिन और पूरी रात टॉर्चर किया. जब गांव वाले एसपी के पास शिकायत करने पहुंचे, तब उसे भी राजीनामे पर अंगूठा लगवाकर छोड़ दिया गया. (साभारः ईनाडू इंडिया)

कितनी गहरी हैं सामाजिक भेदभाव की सदियों पुरानी दीवारें

भारत के मूलनिवासी दलित समाज की दशा और दिशा किसी से छुपी नहीं है. आए दिन दलितों पर भंयकर जुल्म से हाथ रंग कर अपने आप को उच्च जाति बताने वाले लोगों का देश में अपराध की श्रेणी में ग्राफ कम होता नजर नहीं आ रहा हैं. आखिर क्या अपराधों में लिप्त मानव भी उच्च जाति का हो सकता है. असलियत तो यह कि कोई जाति उच्च और निम्न नहीं हो सकती है. केवल इन्सान के कार्य ही उच्च एवं नीचे हो सकते है. कुछ अमानवता की सोच से ग्रहस्त  लोगों ने एक ऐसे से मूलनिवासी समाज से घृणा की जो हमेशा ही कड़ी मेहनत करता आया हैं. मानव जीवन से जुड़े किसी भी कार्य को करने में कभी पीछे नहीं रूका, जो मानव जीवन के यापन में अतिआवश्यक माना जाता है. दरअसल देश में ऐसे योगदान को महानता की संज्ञा दें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. ऐसे ही मावन को तिरस्कृत कर निम्न जाति की संज्ञा दे दी गई. जो दलित वर्ग के रूप में अब पहचान रखता हैं. दलित समाज किसी भी कार्य को करने में सक्षम है. उसे निम्न किस आधार पर कहा जा सकता हैं. वर्षो से अत्याचार की मार सहन करते आए दलित समाज में अब नई चेतना की लहर पैदा हो रही है. जिसका का बीजारोपण ज्योतिबा फुले जैसे महान पुरूषों ने कर दिया था. लेकिन दलित समाज को अपने अधिकरों की असली दिशा में लाने का काम डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने किया और भारत देश में समानता की राह दिखाई. इतना ही नहीं, दलित समाज को असली अधिकार दिलाएं जो एक मानव होने के नाते मिलने चाहिए. सवाल यह कि क्या दलित समाज जिस सामाजिक भेदभाव से पीड़ित था, उस वजह को जान पाया हैं? शायद पूर्णरूप से नहीं. क्योंकि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने जीवन में कठिनाईयों को सहन कर दलित समाज को भारतीय समाज की मुख्य धारा में लाकर तो खड़ा कर दिया. लेकिन दलित समाज के लोगों में आज भी चेतना की कमी हैं. मानवता के आपसी रिश्ते को तोड़कर धार्मिक अन्धविश्वास में दलित समाज को जकड़ कर हमेशा ही कुछ स्वार्थी लोगों ने इंसानियत के बीच भेदभाव की जड़ो को गहरा करने का काम किया. मगर आधुनिक दौर में लोगों में शिक्षा का संचार तेजी से हो रहा है. इसी दौर में भी दलित समाज पूर्ण रूप से जागरूक नहीं हुआ और सवर्णों के अन्धविश्वास से निकलने के बजाय उन्ही की राग में राग मिलाने में लगा है. जो एक सोचनीय विषय तो बनता ही है. क्योंकि दलित वर्ग को आज सभी अधिकार प्राप्त होने के बाद भी अमानवीय अत्याचार सहन करने को मजबूर हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय समाज में संस्कृति की विभिन्नता के साथ धर्म-जाति के नाम पर भी काफी असमानताएं पाई जाती है. जो मानव जीवन के लिए एक अभिशाप तो है ही बल्कि एक इंसान से दूसरे इंसान के बीच दरार भी है. हमारे देश में मजहब के नाम पर हमेशा मानव के बीच असमंजस की स्थिति रही हैं. लेकिन इससे भी बड़ी समस्या बनी हुई दलित वर्ग की, जो हमेशा ही अत्याचारों की मार झेलता आ रहा है. लेकिन सवाल यह है कि क्या दलित वर्ग हमेशा ही अपने अधिकार से अनजान रहेगा? क्या दलित वर्ग स्वयं अपने आपको वहां नहीं रख सकता? जहां उन्हें किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़े. वैसे आज के दौर में दलित समाज के लोगों ने भी शिक्षा के क्षेत्र मे कदम रख दिया है जो निरंतर आगे बढ़ रहे हैं. वे किसी भी बन्धन में नहीं जीना चाहते हैं. वे अपना भाग्य खुद लिखना चाहते हैं. वर्षो से दलित समाज पर कई तरह के अत्याचार होते आए हैं, जो आज भी रूके नहीं है. उन्हें धार्मिक बन्धन के नाम पर अन्धविश्वास ने जकड़ा  हुआ हैं. लेकिन दलित समाज की वर्तमान पीढ़ी जो अपने अधिकारों को पहचानने लगी हैं. मैनें कुछ दलित वर्ग के सोच- विचारों को बयां करने का प्रयास किया है जो डॉ. अम्बेडकर की मुख्य धारा से हटकर भेदभाव के खिलाफ असफल प्रयास कर रहे हैं. राजस्थान में दलित समाज के लोगों का कहना है कि ब्राह्मणों द्वारा बनाए गए रीति-रिवाजों से वे स्वयं निकालना चाहते हैं. अब दलित समाज भी अपने आप को छोटा या नीचा कहना पंसद नहीं करता है. राजस्थान में दलितों का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक, पारिवारिक और धार्मिक कार्यों के लिए जो पहले ब्रह्माणों पर आश्रित थे, अब वे खुद अपने दलित समाज के बीच से ही पंडित (पुरोहित) तैयार कर लिए हैं. राजस्थान में दलित समुदाय के ये पुरोहित अपने समाज में कर्मकाण्ड और धार्मिक अनुष्ठान कराते हैं. वैसे भारत में अब भी धार्मिक कर्मकांड मुख्यतः ब्रह्माणों का ही काम माना जाता है. ये दलित पुरोहित वैसे ही कर्मकाण्ड सम्पन्न करते हैं जैसे ऊंची जाति के ब्राह्मण कराते हैं. दलितों का कहना है कि इससे उनके साथ ऊंची जाति के लोगों द्वारा किए जाने वाले सामाजिक भेदभाव कम होंगे. लेकिन कुछ दलित पंडितों का कहना है इतना सब करने के बाद भी उनके सामाजिक दर्जे में कोई सुधार नहीं हुआ है। शादी-विवाह के दिनों में इन दलित पंडितो की अपनी बिरादरी में बड़ी मांग रहती है. राजस्थान कोटा के नाथूलाल वाल्मीकि समाज से हैं. मगर वे अपने नाम के आगे पंडित लिखते है. पंडित नाथूलाल की ध्वनि और भाव भंगिमा में पंडित होने के दर्शन इस कदर होते है जब वे वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हैं. क्योंकि मन्त्र इन्सान की तरह ये नहीं देखते कि उसे स्वर देने वाला किस जाति धर्म से है. नाथूलाल ने सभी तरह के कर्मकाण्ड, यज्ञ-हवन और मंत्रोच्चार तब सीखा जब दलितों को धार्मिक अनुष्ठान के लिए पंडित नहीं मिले. नाथूलाल को अपमानकारी तब लगा जब दलितों के एक वैवाहिक समारोह में पंडित वादा करके भी नहीं आए. इसके बाद उन्होंने पुरोहिताई का काम सीखने की ठान ली. पंडित नाथूलाल ने न केवल खुद पुरोहिताई का काम सीखा बल्कि अपने समुदाय के करीब एक दर्जन लोगों को इस काम में प्रशिक्षित कर दिया. वह कहते हैं- मैं अब गृह प्रवेश, पाणिग्रहण संस्कार, गृह शांति हवन जैसे काम संपन्न करता हूं. किसी के बच्चा पैदा होने पर कुंडली बना देता हूं. मुंडन संस्कार के लिए मुहूर्त का भी काम भी करता हूं. मैं भी हिन्दू हूं, पूरी तरह सात्विक जीवन जीता हूं, फिर भी हमें अछूत समझा जाता है. इससे मेरा दिल दुखता है. कुछ पंडित इसे ठीक नहीं मानते. वो सामने दिखावे के तौर पर सम्मान देते हैं मगर पीठ पीछे बुराई करते हैं. वहीं दलितों के पुरोहिती करने पर जयपुर में धर्म शास्त्रों के जानकार पंडित के. के. शर्मा कहते हैं- शास्त्रों में समाहित ज्ञान जाति बिरादरी में नहीं बंधा है. कोई भी व्यक्ति इस ज्ञान का इस्तेमाल कर पूजा पाठ और अनुष्ठान सम्पन्न करा सकता है. अगर दलित समाज के लोग ये कर रहे हैं तो कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन दलित अधिकार संगठन के प्रवक्ता पी.एल मीमरोठ इसे एक अच्छी शुरुआत मानते हैं. वह कहते हैं इससे समाज में बड़ा बदलाव आएगा, ””””बिलकुल इससे बड़ा फर्क पड़ा है. पहले लोग जुबान नहीं खोलते थे. चेतना की कमी थी. दरअसल भूमंडलीकरण से चीजें बदली हैं. दलित पहले गांव तक सीमित थे. भूमंडलीकरण के साथ वो शहरों में आने लगे. उनकी आर्थिक हालत सुधरी है और सोच में बदलाव आया है. न केवल वाल्मीकि समाज बल्कि दलितों में जाटव, बैरवा और धोबी समाज में भी इस तरह प्रयास हुए है और उनके अपने लोग पंडित बनकर कार्य सम्पन कराते हैं.” यह एक मात्र उदाहरण था. मगर आज दलित वर्ग देश के हर विकास के कार्य करने में भागीदारी निभा रहा है. किन्तु उसे सामाजिक भेदभाव की पीड़ा हर क्षेत्र में दस्तक देती हैं. वो कहते है ना कि अन्धविश्वास की जड़े उतनी ही गहरी होती है जितनी विश्वास की. लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि अन्धविश्वास मानव जीवन के खिलाफ काम करता है जबिक विश्वास मानव के पक्ष में काम करता है. इसी तरह के कई उदाहरण दलित समाज में देखे जा सकते हैं, जो आज बड़ी संख्या में दलित वर्ग वही कार्य कर रहे हैं जो सामान्य वर्ग के लोग करते आए हैं. दलित वर्ग के शिक्षित एवं अशिक्षित सभी अपने सम्मान को ही सर्वोच्च समझते हैं. कहा जाता है कि दलित वर्ग से भेदभाव सिर्फ इसलिए होता आ रहा कि उसके समाज के कार्य अच्छे नहीं. वह सही तरीके से नहीं रहते हैं. अब हम सोच सकते है कि दलित समाज अगर पूर्ण रूप से वही कार्य करने में लग जाता है. जो ब्रह्माण (सामान्य) वर्ग के लोग करते आए हैं। इस तरह के प्रयास से क्या दलित वर्ग को भी सामान्य वर्ग की दृष्टि से देखा जाएगा. शायद नहीं. क्योंकि हम भारतीय समाज में ये प्रत्यक्ष रूप से देख सकते है कि आज दलित समाज के साथ इसलिए भेदभाव नहीं किया जाता कि वह अच्छे कार्य नहीं करता है. बल्कि सिर्फ इसलिए भेदभाव किया जाता है कि उसके नाम पर दलित होने की मुहर लगी हुई है. चाहे वह कोई हो किसी पद पर क्यों ना कार्य कर रहा हो.इसे विडम्बना ही कहेगें कि अगर दलित समाज भी ब्रह्माणों के विचारों में उलझता रहेगा तो वह देश में फैले भेदभाव के जहर को खत्म नहीं कर सकता हैं. दलित समाज चाहे कितना ही विकास की सीड़ियां क्यों ना पार कर लें, दलित समाज के लिए सामाजिक भेदभाव की बेड़िया तोड़ना मुश्किल होगा .हम यह मामने के इनकार नहीं कर रहे कि भारतीय संविधान के बदोलत आज भेदभाव में कमी जरूर आई है. लेकिन वह दिन कब होगा जब मानव की पहचान उसके मानव होने से मिलेगी. बल्कि किसी धर्म या जाति से नहीं. दलित समाज को इस बात से वाकिफ होना होगा, कि उन्हें वर्षो की सामाजिक भेदभाव की बेड़ियों को तोड़ने के लिए समाज को दिशा देने वाले दलित समाज के प्रेरणास्रोत व्‍यक्ति डॉ. भीमराव अम्बेडकर, संत कबीर, ज्योतिबा फुले, पेरियार, गाडगे बाबा, गुरू रविदास, जगजीवन राम, के. आर. नारायणन व मान्यवर कांशीराम जी के विचारों को समाज में जनसंचार कर ही, देश में फैले ऊंच-नीच और छुआछूत के जहर की सदियों पुरानी दीवार तोड़ने में सफल होगें. डॉ. अम्बेडकर के प्रयासों का ही ये परिणाम है कि दलितों के अधिकारों को भारतीय संविधान में जगह दी गई. यहां तक कि संविधान के मौलिक अधिकारों के जरिए भी दलितों के अधिकारों की रक्षा करने में ध्यान दिया गया. मोहन जयपाल जयपुर में पत्रकार हैं. इनसे 918432550709 पर संपर्क किया जा सकता है.