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हिन्दू धर्म ग्रंथ और महिला सम्मान का प्रश्न

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मैं बाबासाहेब की बहुत बड़ी फॉलोअर हूं- टीना डाबी
टीना डाबी सिर्फ 22 साल की आर्ट्स ग्रेजुएट हैं और उन्होंने यूपीएससी 2015 में टॉप किया है. टीना दलित समुदाय से आती हैं. टीना दो बहन हैं और माता पिता दोनों इंजीनियर हैं. टीना ने पहली बार में ही यूपीएससी में टॉप किया है. टीना की इस सफलता को बहुजन समाज के लिए बड़ी बात मानी जा रही है क्योंकि अबतक दलित समुदाय से किसी महिला ने यूपीएससी में टॉप नहीं किया था. टीना के जो शुरुआती इंटरव्यू आएं उसको लेकर वह विवादों में भी रहीं. कई लोगों ने इस पर आपत्ति जताई की टीना ने बाबासाहेब का नाम नहीं लिया. तो फेसबुक और ट्विटर पर उनके फेक प्रोफाइल के जरिए आने वाले आरक्षण विरोधी संदेश और पीएम मोदी को आदर्श मानने की बात से भी वो विवादों में रही. हालांकि दलित दस्तक को दिए इंटरव्यू में टीना ने इन बातों को साफ कर दिया है. टीना खुद को बाबा साहेब अंबेडकर की बहुत बड़ी फॉलोअर बताती हैं. वहीं वह महिला उत्थान के लिए काम करने की बात कहती हैं. टीना डाबी से बात की शंभु कुमार सिंह ने-
टीना दलित दस्तक की तरफ से बधाई
– थैंक्स
22 साल की उम्र में पहला अटैंप्ट और सीधा टॉप, भरोसा था?
– रिजल्ट जानने के बाद बहुत खुशी हुई. परीक्षा देने के बाद इतनी उम्मीद थी कि चयन तो हो जाएगा. लेकिन ये उम्मीद नहीं थी कि टॉप करूंगी. टॉप करने के बाद से लग रहा है कि कोई सपना जी रही हूं.
आपकी मम्मी ने बताया कि आपको पांचवीं क्लास से ही वर्ल्ड ग्लोब की पूरी जानकारी थी.
– मम्मी पढ़ाती थी और मैं इंटरेस्टेड रहती थी कि जितना ज्यादा हो सके देश और दुनिया के बारे में सीख सकूं. हमेशा कोशिश रहती थी कि जितना ज्यादा हो सके पढ़ाई कर सकूं.
आपके घर में इंजीनियरिंग बैक ग्राउंड है लेकिन आपने आर्ट्स को क्यों चुना ?
– घर में इंजनियरिंग का माहौल था. लेकिन मुझे इंजीनियरिंग समझ नहीं आई. मैंने 10+2 में साइंस लिया था, लेकिन दो महीने बाद ही आर्ट्स में चली गई. शुरू से ही तय कर लिया था कि जब सिविल सर्विस में ही जाना है तो फिर सोशल साइंस की ही पढ़ाई की जाए. यूपीएससी में आर्ट्स वाले ज्यादा सफल रहे हैं. फिर तय किया कि आर्ट्स ही पढ़ना है.
बहुत लोग सोचते हैं कि यूपीएससी करनेवाले लोग स्पेशल होते हैं. यह कितना सच है ?
– ऐसा कुछ नहीं है. मैं तो बिल्कुल साधारण लड़की हूं. सुपर टैलेंट की बात मैं नहीं मानती. हां, आपको मेहनत करते रहना पड़ता है. लगकर आप मेहनत करेंगे तो सफलता तय है. लगातार मेहनत करने पर सफलता मिलती ही है. बस लगे रहने पड़ता है वही मैंने किया.
टीना को आईएएस ही क्यों बनना था ?
– मेरा शुरू से ही सोशल काम में मन लगता था. मैं हमेशा से लोगों की भलाई के लिए काम करना चाहती थी. मैं कॉलेज में भी अपने ही क्लास की लड़कियों को इंग्लिश पढ़ने में मदद करती थी ताकि वह भी बेहतर कर सकें. सिविल सर्विस आपको बेहतर जिंदगी और अलग करने का मौका भी देता है. आईएएस की नौकरी प्रेस्टिजियस और अच्छी है.
जॉब के लिहाज से आईएएस अच्छा है. लेकिन सिविल सर्विस में आए लोग बहुत सोशल चेंज कर पाए हैं ऐसा ज्यादा नहीं दिखता है. पत्रकारिता में तो मशहूर है कि एसडीएम, डीएम और एसपी बाघ होते हैं जिनके बारे में आम लोग कहते हैं कि वो आपको खा जाएगा.
– ऐसा नहीं है लेकिन जो बदलाव हो रहे हैं उसमें ब्यूरोक्रेट्स और सिविल सर्वेंट्स का बहुत योगदान है. काफी लोगों ने बेहतर काम किया है.
आईएएस को पैसा और पावर के लिए जाना जाता है. लेकिन आप कह रही हैं कि सोशल चेंज लाना है. पहली प्राथमिकता क्या होगी ?
– कई बार लगता है कि आईएएस के बारे में एक निगेटिव इमेज बन गई है. लेकिन अब जो लोग सिविल सर्विस ज्वाइन कर रहे हैं उनकी जिम्मेदारी है कि वह बेहतर और ईमानदारी से काम करके दिखाएं और दूसरे के लिए उदाहरण बन सके. अगर आप अच्छे अधिकारी की तरह काम करेंगे तो दूसरे भी मजबूर होंगे कि वो ईमानदारी से बेहतर काम करें.
आपकी नजरों में समाज में किस तरह के भेदभाव हैं. आप सोशल साइंस की छात्रा हैं तो इन बातों को बेहतर जानती होंगी.
– अगर भेदभाव की बात करें तो जेंडर के आधार पर काफी भेदभाव है. जाति और धर्म के आधार पर भी भेदभाव होता है. सुधार हुआ है लेकिन और तेजी से सुधार की जरूरत है.
आपने इसलिए हरियाणा को कैडर चुना है कि वहां ज्यादा असमानता है. ज्यादा भेदभाव है.
– हरियाणा में समस्याएं हैं लेकिन तेजी से सुधार भी हुआ है. हां ये सच है कि लिंग अनुपात में हरियाणा की हालत ज्यादा खराब है. ये भी सच है कि महिलाओं का मुद्दा मेरे लिए ज्यादा जरूरी हैं ऐसे में मैं काफी तेजी से वहां काम करूंगी. कोशिश करूंगी की बेहतर हालात बने.
आपने कहा कि जाति को लेकर भेदभाव है. किस तरह का भेदभाव है?
– देश में जाति को लेकर भेदभाव एक सच है. यह एक गंभीर मुद्दा है. इस पर बात करनी भी जरूरी है. लेकिन जितने सुधार हुए हैं उसपर भी बात करनी जरूरी है. इसी से आगे किस तरह सुधार हो सकता है इसे तय किया जा सकता है. मेरी कोशिश होगी कि भेदभाव को खत्म किया जा सके. सरकारी नीतियों के तहत जितने भी सुधार के कदम उठाए जा सकते हैं उसे उठाए. जिन लोगों के पास लाभ पहुंचना है उनके पास पहुंचाया जाए ताकि जल्द से जल्द भेदभाव खत्म हो.
आप सोशल साइंस की छात्रा हैं. कोई ऐसा समाज वैज्ञानिक जो भारत का हो और जिसने आप पर असर डाला हो.
– बहुत सारे समाज वैज्ञानिक हैं जिनको पढ़ती हूं. अमर्त्य सेन ने मुझे काफी प्रभावित किया है. जिस तरह से उन्होंने गरीबी, आरक्षण और सोशल जस्टिस पर लिखा है वो मुझे ज्यादा सही लगते हैं. उनकी बातों से सहमत हूं. भारत की ग्रोथ रेट पर उन्होंने बेहतरीन लिखा है.
तैयारी के लिए कोचिंग कितनी जरूरी है ?
– कोचिंग जरूरी है लेकिन कोचिंग की बदौलत ही सफल हुआ जा सकता है ये सही नहीं है. लेकिन कोचिंग से मदद जरूर मिलती है. जो कोचिंग नहीं अफोर्ड कर सकते वह अखबार पढ़कर या फिर जमकर किताबें पढ़कर सफल होते हैं. बिना कोचिंग किए भी लोग सफल होते हैं. कोचिंग जरूरी है लेकिन अंतिम सत्य नहीं है.
दिल्ली के सीएम केजरीवाल और केंद्रीय संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद से मुलाकात हुई. क्या बात हुई ?
– दोनों नेताओं ने बेहतर भविष्य के लिए शुभकामनाएं दी. दोनों इतने व्यस्त होते हैं कि उनके पास खुद के लिए भी समय नहीं होता, फिर भी मिले और शुभकामनाएं दी उसके लिए दिल से दोनों का शुक्रिया.
फैमिली का सपोर्ट कितना जरूरी है? घर का माहौल कैसा होना चाहिए ?
– परिवार का साथ बहुत जरूरी है. यूपीएससी की तैयारी एक चुनौती है. हर तीसरे दिन लगेगा का नहीं होगा. लेकिन आपको घर से और परिवार से समर्थन मिलता है तो फिर आप हिम्मत से जुट जाते हैं. इसलिए परिवार का साथ और सपोर्ट बहुत जरूरी है.
टीना मोर्डन एजुकेशन की बात करें तो सावित्री बाई फुले 1848 में पहली बार महिलाओं के लिए स्कूल खोलती हैं. उससे पहले हिंदू धर्म में महिलाओं के लिए शिक्षा का कोई प्रावधान नहीं था. इस बदलाव को आप किस तरह देखती हैं?
– मुझे गर्व होता है कि एक वंचित समाज जो हमारा समाज है उसी समाज की महिला ने ही महिलाओं के लिए शिक्षा की शुरुआत की और उसे आगे बढ़ाया. सबसे बड़ी बात है कि जब आप महिला को शिक्षित करते हैं तो पूरे परिवार को शिक्षित करते हैं तो ये बहुत ही बड़ा कदम था.
आपको क्या लगता है, अगर महिलाओं की शिक्षा की शुरुआत और पहले होती तो उनकी हालत और बेहतर होती ?
– हमारा समाज आज भी पुरुष प्रधान है. लेकिन धीरे-धीरे बदलाव हो रहे हैं. बदलाव धीरे-धीरे ही होता है. लेकिन हम बेहतर हो रहे हैं. लड़कियां मौका मिलते ही बेहतर करने लगी हैं. बदलाव हो रहा है.
आप महिला सुधार की बात करती हैं. कुछ लोगों का सवाल है कि भारत में अंबेडकर ने महिलाओं के अधिकार के लिए हिंदू कोड बिल की नींव रखी. वो बराबरी के पक्षधर थे. लेकिन आपने उनका जिक्र नहीं किया, या फिर किसी ने इस बारे में पूछा ही नहीं.
– आपने बिल्कुल सही कहा. मुझसे सीधे इस तरह के सवाल ही नहीं पूछे गए. पहली बार आपने ही पूछा है. बाबा साहेब के योगदान को तो भूला ही नहीं जा सकता. उन्होंने कितनी तकलीफों के बाद भी पढ़ाई की. उनकी वजह से बदलाव आए. उन्होंने ही पहले वीकर सेक्शन और महिलाओं के अधिकार की बात की. कितनी परेशानी में होने के बाद भी पढ़ाई पूरी की. कहां-कहां नहीं पढ़े. बाबा साहेब से मैं बहुत प्रभावित हूं. उनका पूरा जीवन ही विचारों से भरा है. मैं खुद उनकी बहुत बड़ी फॉलोअर हूं. उनको तो भूलाया ही नहीं जा सकता.
बाबा साहेब ने जो महिलाओं के लिए काम किया. उसे टीना कैसे आगे बढ़ाएगीं?
– बिल्कुल. बाबा साहेब का शिक्षा और महिलाओं के अधिकार पर जोर था. मैं भी महिलाओं की शिक्षा और लिंग अनुपात को लेकर काम करना चाहूंगी. सरकार की नीतियों को ठीक से लागू करवाने पर बदलाव जरूर आएगा.
आप खुद दो बहन हैं. आपने टॉप किया है. मतलब क्या समझा जाए कि ये बदलाव देश को दिशा देनेवाली है. महिलाओं का समय आ गया है.
– (टीना हंसते हुए) आज महिलाएं तेजी से ऊपर आ रही हैं. अब समय बदल गया है. मेहनत से वो आगे आ रही हैं. मैं खुद टॉपर बनी हूं. पहले भी टॉपर हुई हैं. तो बस अब समय महिलाओं का है. मेहनत कीजिए और समाज को बदलिए. लड़कियां लड़कों से कम नहीं हैं.
क्या आपको कभी महसूस हुआ कि आप उस कैटेगरी से आती हैं जो हाशिए पर है. या आपको कभी महसूस कराया गया कि आप उस समाज से आती हैं जो आज भी मेन स्ट्रीम से दूर हैं ?
– सीधे कभी भेदभाव तो नहीं हुआ लेकिन यह भी सच है कि आज भी लोगों का इंटरेस्ट जाति में जरूर रहता है. जब स्कूल, कॉलेज में टॉप करती थी तो लोग यह जानने की कोशिश करते थे कि मैं किस जाति की हूं, और जानने के बाद कहते थे कि अरे वाह, इस जाति के लोग भी इतने बेहतर होते हैं. हां लेकिन उन लोगों ने फिर बाद में अपनाया कि अरे तुम तो बेहतर हो.
शहरों में हालात बदले हैं. आपको क्या लगता है.
– हां, शहर में अब जात-पात खत्म हो रहे हैं. लोग एक दूसरे को अपनाने लगे हैं. लेकिन हां, जाति एक मुद्दा तो है लेकिन धीरे-धीरे खत्म हो रहा है.
लड़कियों के साथ जिस तरह से हिंसा बढ़ी है उसे लेकर आप क्या सोचती हैं. इसके लिए कैसे काम करेंगी.
– हां, महिलाओं के खिलाफ हिंसा बढ़ी हैं. मैं जरूर इसके लिए काम करना चाहूंगी. छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिया जाए तो इसे कम किया जा सकता है. मैं जरूर महिलाओं की सुरक्षा को पर खास ध्यान दूंगी.
यूपीएससी की तैयारी करनेवाले छात्रों को क्या सलाह देंगी ?
– मैं तो इतना ही कहूंगी कि जो भी तैयारी कर रहे हैं वो जमकर मेहनत करें. भरोसा बनाए रखिए. मेहनत का कोई और दूसरा विकल्प नहीं है. खुद पर भरोसा कीजिए. हां, लगातार मेहनत कीजिए. सफलता जरूर मिलेगी.
और तैयारी करने वालों के मम्मी पापा के लिए क्या सलाह है?
– मम्मी-पापा के लिए यही कहूंगी कि आप अपने बच्चों पर भरोसा रखिए. उनके साथ बात कीजिए. क्योंकि जब हम तैयारी होते हैं तो अपने दोस्तों और तमाम लोगों से दूर होते हैं. तब एक घर वाले ही साथ रहते हैं. उन्हें भरोसा दिलाना चाहिए, सफलता जरूरी मिलेगी.
हमसे बात करने के लिए बहुत धन्यवाद
मैं अस्थायी बदलाव नहीं चाहता- कांशीराम

गौरक्षा बनाम वंचित समाज और मुस्लिम

बहुजन छात्र- युवाओं पर पुलिस दमन के निहितार्थ
बिहार की राजधानी पटना में 3 अगस्त, 2016 को अपने हक-हकूक के लिए सड़क पर आवाज बुलंद करने उतरे दलित छात्रों पर पुलिसिया दमन की बर्बर कार्रवाई दुखद है क्योंकि दलितों का वोट सभी लेना चाहते हैं लेकिन उनको बराबरी का हक कोई भी वाकई दिल से नहीं देना चाहता.जेडीयू- बीजेपी की कमंडल समर्थक ‘विकास के साथ न्याय’ वाली सरकार में अनेकों बार शिक्षकों- छात्रों- दलितों के खिलाफ पुलिस की यही नीति थी और अब जेडीयू- आरजेडी की ‘सामाजिक न्याय’ की मंडलवादी सरकार में भी पुलिस की यही नीति है जो अफसोस की बात है. खास बात की धरना- प्रदर्शन के दौरान पुलिस-प्रशासन के द्वारा की गई इस प्रकार की बर्बर कार्रवाई हमेशा समाज के वंचित-शोषित और हाशिये के संघर्षरत लोगों के खिलाफ ही रही है.
ऐसी घटनाओं से कई बातें साफ होती है. पहला, सरकार बदलने से पुलिस- प्रशासन का असंवेदनशील रवैया और कामकाज के तौर-तरीके नहीं बदलते है. दूसरा, सरकार में आने के बाद राजनीतिक दलों- नेताओं का रवैया असंवेदनशील हो जाता है. संख्या बल के आधार पर या फिर राजनीतिक दलों की मजबूरी में कई बार दलित-आदिवासी-ओबीसी समाज के हाथ नेतृत्व की कमान आ जाती है लेकिन सत्ता संचालन के केंद्रों व सहयोगी तंत्रों में समुचित बहुजन भागीदारी का न होना भी बदलाव की प्रतिगामी शक्तियों को आक्रमक बना देती है. इस कारण नीति बनाने, उसे लागू करने व जन-जन तक पहुँचाने में कहीं भी सरकार के नेतृत्वकर्ता की सोच काम नहीं करती है. यानि सरकार की कमान चाहे किसी बहुजन के हाथ में भले ही हो एक सवर्णवादी शासन व्यवस्था उसके समानांतर पुलिस-प्रशासन के माध्यम से चलने लगती है। इस कारण बहुजन नेता समय के अंतराल में मनोवैज्ञानिक तौर पर टूटकर- मजबूर होकर ऐसे निर्णय लेने लगते हैं जो उनके राजनीतिक सोच व विचारधारा से परे हो।
पुलिस की बर्बरता का यह ताजा मामला तो शिक्षा में भागीदारी के सवाल पर स्कॉलरशिप की माँग से जुड़ा था जिसपर दलित छात्र प्रदर्शन कर रहे थे. सरकार के लोगों को जबकि उसके शिक्षामंत्री अशोक चौधरी दलित ही हैं, उनकी बात सुनकर संज्ञान लेना चाहिये था क्योंकि यह प्रदर्शन आकस्मिक नहीं था बल्कि पूर्व घोषित- सूचित था. अगर एससी छात्रों के स्कॉलरशिप में गड़बड़ी, कोताही या कमी थी तो शिक्षामंत्री इसपर जन संवाद या प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सरकार की स्थिति खुलकर स्पष्ट कर सकते थे. केन्द्र सरकार ने दलित- आदिवासी समाज के छात्रों के लिये दी जाने वाली राजीव गाँधी फेलोशिप इसलिये खत्म कर दी क्योंकि उसके पास महज 85 करोड़ रूपये सलाना का जुगाड़ नहीं था. उसी तर्ज पर बिहार में भी स्कॉलरशिप से समाज के वंचित समूह के छात्र वंचित है. अब सरकारें बहुजन छात्रों की शिक्षा के सवाल पर भी समय से राशि मुहैया नहीं करा पायें तो वाकई चिंता की बात है. दलितों को तो स्कॉलरशिप मिल भी नहीं रही है और उपर से पिटाई भी हो रही है. वहीं पिछड़ा- अति पिछड़ा को भी स्कॉलरशिप तो दूर उनकी बात- आवाज न कोई उठा रहा है, न ही ये लोग सड़क पर उतरने को तैयार है बल्कि मंडलवादी सरकार के मायाजाल में मंत्रमुग्ध होकर लालू-नीतीश के भजन गा रहे हैं. वैसे बिहार में स्कूल-कॉलेज के शिक्षकों को भी हर महीने का रेगुलर वेतन नहीं मिल पाता है. बिहार में स्कूल-कॉलेज- विश्वविद्यालय स्तर के लगभग सभी शिक्षण संस्थान सवर्ण मठाधीशी के केन्द्र बने पड़े हैं जहां बहुजन छात्रों को न तो ज्ञान व बौद्धिकता का सहारा मिल रहा है न ही संगठन व संघर्ष के रास्ते पर चलने के लिये कोई वैचारिक मार्गदर्शन या प्रेरणा. जाहिर है कि बहुजन अपनी सरकार में मार खाने को बाध्य हैं.
पुलिस- प्रशासन को इस तरह के विरोध प्रदर्शन में थोड़ा संयम से काम लेना चाहिए था लेकिन कालांतर में अंग्रेज जमाने से लेकर अबतक विरोध प्रदर्शनों को पुलिस एक सेट पैटर्न अंदाज में निपटाती है. प्रदर्शन के दौरान बैरिकेडिंग, वाटर कैनन या अन्य ऐहतियातन तैयारी तो दूर लाठी मारकर सर फोड़ देना, पैर तोड़ देना और दम फुलने लगे तो गोली चला देने पर उतर जाना एक सामान्य सी बात हो गई है. जबकि खुफिया और अन्य तंत्रों के इस्तेमाल से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रशासन-पुलिस चाहे तो मजबूत करने में मदद कर सकती हैं. इससे पुलिसिंग के तकनीकी ट्रेनिंग पर सवाल तो उठता ही है उनके सामाजिक- मनोवैज्ञानिक तौर पर वंचित समाज के प्रति असंवेदनशील रूख का अंदाजा लगता है. विभिन्न राज्य सरकारें और उनके मुखिया लोग भी विभिन्न छात्र-युवा, जाति-समुदाय के सामाजिक संगठनों से लगातार संवाद व सरोकार की परंपरा शुरू करें तो बेहतर हो कि सभी जाति-वर्ग- समाज के लोगों के सवाल गवर्नेंस का मुद्दा बने लेकिन प्रैक्टिकली ऐसा नहीं होता दिखता है. यानि की मामला सरकार की बातों को जनता में कम्युनिकेट करने की अक्षमता और जनता से सीधे सरकार द्वारा फीडबैक प्राप्त न कर सत्ता परस्त प्रशासनिक बिचौलियों के माध्यम से जन-भावना को जानने से भी जुड़ा है.
भारत भर में दलितों के खिलाफ प्रताड़ना-दमन-हिंसा की घटनायें बढ़ी है. कई लोग इस तरह के दमन के मामले पर बिहार या अन्य राज्य सरकारों के खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी करने में लगे हैं. गुजरात में विपक्ष में कांग्रेस है वहीं बिहार में बीजेपी विपक्ष है, तो जाहिर सी बात है कि दोनों आचार-व्यवहार में घोर सामंती मानसिकता वाली सामाजिक न्याय विरोधी पार्टियाँ है तो ताड़ से गिरे और खजूर पर अटके वाली बात से भी दलित समाज सतर्क दिख रहा है. गुजरात में दलितों के जनाक्रोश से भारत भर के दलित-आदिवासी समाज को सीख लेना चाहिये कि किसी पार्टी व नेता से नहीं गैर-राजनीतिक आंदोलन में भी दम है जिसके बूते आप एजेंडा सेटिंग कर सकते हैं. फिर सभी दलों के नेता आपकी ओर दौड़ेंगे जैसे कि राहुल गाँधी, केजरीवाल, मायावती भी उना गईं. अगर किसी समुदाय में वैचारिक-बौद्धिक बुनियाद पर एकजुट होकर आन्दोलन करने का जज्बा है तो किसी भी सरकार और नेताओं के आगे-पीछे घूमने की जरूरत नहीं है. इससे साफ है कि दलित-आदिवासी समाज को किसी भी राजनीतिक दल के दलदल में न फँस कर और किसी भी वर्तमान नेता (दलित-आदिवासी नेताओं सहित) का पिछलग्गू न बन कर अपने भविष्य के लिये नया नेतृत्व तैयार करना चाहिये.
भारत, खासतौर से उत्तर भारत में बहुजन समाज की दिक्कत है कि सारी गतिविधियाँ राजनीति घेरेबंदी और गिरोहबंदी की शिकार हो गयी हैं जिसके कारण जनता का हर सवाल राजनीतिक दलों के समर्थन की बाट जोहता है और लोग राजनेताओं के वरदहस्त होने के मोहताज दिखते हैं. यह भी है कि नॉन- पॉलिटिकल सोशल मूवमेंट और इनिशियेटिव का सरकार, उसके सिपहसलार व मुलाजिम लोग बहुत नोटिस या तवज्जो नहीं देते हैं. इन कारणों से छात्र-युवा जो आंदोलन करते हैं वे भी संवाद-सेमिनार वगैरह रचनात्मक गतिविधियों की बजाय सड़क पर उतरने को मजबूर है और हंगामा खड़ा करने को उतावला भी दिखाई देते हैं. इन दिनों अक्सर आंदोलन को धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल कर लम्बा खींचने की बजाय झड़प-विवाद-पत्थरबाजी में संलग्न होकर वन-डे वंडर की तर्ज पर अपनी माँगे मंगवाने की कोशिश में भी रहते हैं. छात्र-युवाओं के लिये चिंता की बात है कि राजनीति से वैचारिक-बौद्धिक संवाद एवं ट्रेनिंग-ग्रूमिंग का कल्चर अब खत्म हो गया है तो उनका आमतौर पर बिहेवियर पैटर्न संयम की बजाय आक्रमकता में जल्दी तब्दील होती दिखती है. नेता भी बहुत भरोसे के काबिल नहीं है क्योंकि वे दलाल- ठेकेदार व चाटुकार- चापलूस छोड़ दे तो छात्र- युवाओं से संवाद- विमर्श का रिश्ता नहीं बना पाते है और उनको महज भीड़ का हिस्सा समझते हैं. इन नेताओं में रोल-मॉडल की कमी है और धन अर्जित करना, सत्ता में किसी तरह बने रहना व परिवारवाद को बढ़ाना ही मुख्य मकसद दिखाई देता है. ऐसे में एक प्रकार का नैतिक-वैचारिक-बौद्धिक संकट भी है जिससे समाज गुजर रहा है जिसका भुक्तभोगी एससी- एसटी-ओबीसी समाज खासतौर से है.
बिहार की सरकार ने जिस तरीके से कोर्ट की आड़ में एससी-एसटी प्रोमोशन मुद्दे पर चुप्पी साधकर मुँह छुपा लिया है वह गजब है. जबकि होना तो यह चाहिये था कि एससी-एसटी प्रोमोशन के मुद्दे पर सरकार समर्थन में कोर्ट की मजबूरी के बावजूद खुलकर नैतिक तौर पर मुखर होती और साथ ही ओबीसी के प्रोमोशन में आरक्षण के सवाल पर भी आक्रमक होती. लेकिन नवम्बर, 2015 में बहुजन जातियों का बड़ा समर्थन लेने के बावजूद भी बिहार की नई सरकार चुप रहकर सवर्णों के प्रति स्ट्रैटेजिकली सॉफ्ट होने की नीति पर काम करती दिख रही है. दलित-आदिवासी समुदाय को समस्त सत्ता केंद्रों-संसाधनों और सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक क्षेत्रों के सभी स्तरों पर कमोबेश 25 फीसदी भागीदारी मुहैया कराना भारत के सभी राज्यों की सरकारों का मूल कर्तव्य होना चाहिये. इसी तरह समस्त बहुजन (एससी-एसटी- ओबीसी-पसमांदा) समुदाय के 85 फीसदी आवाम के लिये विशेष अवसर मुहैया कराना, उचित-त्वरित न्याय, सर्वांगीण विकास और समुचित भागीदारी का सवाल भी सरकारों के लिये भी बहुत जरूरी है.
निखिल आनंद एक सबल्टर्न पत्रकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. उनसे nikhil.anand20@gmail.com और 09939822007 पर संपर्क किया जा सकता है.
मेरे इस कुर्सी पर बैठने से अंतिम व्यक्ति का दर्द कम हो जाए तो यह बड़ी बात है- राकेश पटेल

असल में यह पहला मौका नहीं था जब राकेश पटेल ने अपने गांव घर के लोगों का नाम ऊंचा किया था. सन् 1998 में राकेश जब 10वीं में 82 प्रतिशत अंक लाकर कॉलेज टॉपर बने थे, तब भी पूरे क्षेत्र में खुशी मनी थी. हालांकि राकेश की पृष्ठभूमि वाले बहुत कम लोग अफसर बनने का सपना देख पाते हैं. परिवार के हालात बहुत अच्छे नहीं थे लेकिन राकेश की जिद थी कि वह कुछ बनकर दिखाएंगे. गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए करने के बाद राकेश वहीं रहकर नौकरी की तैयारी करने लगे. 2005-06 में नेट क्वालीफाइ हो गए. उसी साल पहले ही प्रयास में उन्होंने सिविल सर्विस और पीसीएस के प्रारंभिक (प्री) की परीक्षा पास कर ली और जेएनयू का इंट्रेंस भी पास कर लिया. 2006 में जुलाई में राकेश प्रो. विवेक कुमार के अंडर में समाजशास्त्र में एम.फिल करने जेएनयू आ गए. राकेश का टॉपिक था, ‘प्रवासी भारतीयों का सिनेमाई प्रस्तुतिकरणः एक समाजशास्त्रीय अध्ययन’. एक्सपर्ट ने इस अध्ययन को सोशियोलॉजी के लिए योगदान कहा. एम.फिल के बाद राकेश अपनी पी.एच डी जमा कर चुके हैं. विषय है, ‘ग्रामीण सामाजिक संरचना में निरंतरता एवं परिवर्तन’. इसके लिए उन्होंने लक्ष्मीपुर गांव को चुना है. राकेश का कहना है कि मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से आता हूं, गांव के बारे में स्टडी करना चाहता था, इसलिए मैंने यह विषय चुना.

11 फऱवरी, 2016 को उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना पहला राजस्व दिवस मनाया. इस दौरान बेहतर काम करने के लिए पूरे प्रदेश से 18 डीएम, 18 एसडीएम और 18 तहसीलदार को सम्मानित किया गया. इस सूची में जौनपुर के एसडीएम सदर राकेश पटेल का भी नाम था. पटेल को जौनपुर में राजस्व से जुड़े मुकदमों के अधिकतम निस्तारण, राजस्व वसूली एवं उत्कृष्ट प्रशासकीय कार्यों के लिए सम्मानित किया गया. सरकार ने उन्हें प्रशस्ती पत्र देकर सम्मानित किया. महाराजगंज जनपद के लक्ष्मीपुर एकडंगा गांव के लोगों के लिए यह फख्र की बात थी. उन युवाओं में खुशी थी, जिन्हें उनके ‘राकेश भइया’ ने ‘अफसर’ बनने का सपना दिया है.
पीसीएस अधिकारी बनने के अपने सफर के बारे में राकेश कहते हैं, “हम जिस माहौल में पले पढ़े हैं, वहां अधिकारी बनने के बारे में बहुत कम सोच पाते हैं. हमें बस नौकरी चाहिए होती है, जिससे हमें आर्थिक सुरक्षा मिल सके. लेकिन जेएनयू पहुंचने से काफी फर्क पड़ा. यहां आकर ज्ञानार्जन की भूख और समाज हित में उसका इस्तेमाल करने की सीख मिली. इसी का नतीजा था कि मैं ऐसे फिल्ड में जाना चाहता था जिसमें समाज को मदद कर सकूं. 2007-08 और 2010 में सिविल सर्विस का मेन्स दिया. दो बार इंटरव्यू में भी पहुंचा. पीसीएस में पहली बार में ही सेलेक्शन हो गया. 2007 की वेकेंसी थी. 2010 में इसका रिजल्ट आया. 2010 में ही संविधान दिवस 26 नवंबर के दिन मैंने मेरठ में प्रोबेशन पर डिप्टी कलक्टर के रूप में ज्वाइन किया. ” इसके बाद राकेश फर्रुखाबाद और लखीमपुर में रहे. फर्रुखाबाद में रहने के दौरान उन्होंने 26 गांवों में ग्राम पंचायत पुस्तकालय की शुरुआत की ताकि ग्रामीण बच्चों को अच्छी और उपयोगी किताबें मिल सके.
अपने संघर्ष और समाजिक भेदभाव का जिक्र करते हुए राकेश कहते हैं, “मेरे पिताजी एक सामान्य किसान हैं. वह बी.ए पास हैं. वह हमेशा अपने बच्चों को बढ़ाना चाहते थे. आज मैं जो भी हूं उसमें मेरे माता-पिता का सहयोग और मेरे भाईयों के प्रोत्साहन की बड़ी भूमिका है.” रिजर्वेशन का लाभ कुछ खास जातियों को मिलने की बहस को पटेल अलग तरीके से देखते हैं. कहते हैं, “रिजर्वेशन और स्कॉलरशिप से हजारों बच्चों की जिंदगी संवरती है. अगर रिजर्वेशन नहीं रहता तो आज मैं जो हूं, वह कैसे होता. ओबीसी जातियों में भी बहुत गरीबी है. अगर एक आदमी संपन्न है तो 1000 लोग जरुरतमंद हैं.” राकेश आगे जोड़ते हैं. कहते हैं कि किसी कमजोर पृष्ठभूमि से जब कोई आगे निकलता है तो पूरा गांव यहां तक की आस-पास के गांवों में पढ़ने वाले बच्चों और उनके गार्जियन के बीच काफी साकारात्मक संदेश जाता है. जैसे मैं अपने गांव के और आस-पास के क्षेत्र में उदाहरण बना कि मेहनत से पढ़ाई करने और बिना पैसे दिए भी सरकारी नौकरी मिल सकती है. लोगों ने हमें काम करते देखा है. हमने खेतों में काम किया. साथ-साथ पढ़ाई भी करते रहे.

लेकिन राकेश सिर्फ नौकरी तक सीमित नहीं है. वह वंचित तबकों से जुड़े मुद्दों पर लेखन के जरिए भी लगातार सक्रिय हैं. ‘नदियां बहती रहेंगी’ नाम से उनका एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है, जो इसमें उठाए गए मुद्दों के कारण काफी चर्चा में रहा. संघर्ष से निकलकर पहुंचे राकेश पटेल ‘पे बैक टू सोसायटी’ में विश्वास करते हैं. कहते हैं, “पढ़ाई को लेकर जो भी मदद मांगता है, मैं जितनी मदद कर सकता हूं जरूर करता हूं. मैं अपने तीन-तीन रिश्तेदारों को पढ़ाता हूं. कमजोर पृष्ठभूमि का जो भी जरूरतमंद विद्यार्थी मेरे पास पहुंचता है उनकी मदद करता हूं.” राकेश कहते हैं कि मेरे आगे बढ़ने से मेरे गांव और आस-पास के गांव में लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया है. उत्साहित राकेश कहते हैं, ‘मैंने भी उनकी मदद के लिए गांव में बुद्धा लाइब्रेरी खोली है.’ जौनपुर शहर के एसडीएम सदर के रूप में भी राकेश पटेल जरूरतमंदों का ख्याल रखते हैं. कहते हैं, ‘अगर मेरे इस कुर्सी पर बैठने से अंतिम व्यक्ति का दर्द कम हो जाए तो यह बड़ी बात है.’ इस युवा अधिकारी की यह सोच सलाम करने लायक है.
दलित अस्मिता यात्रा का दूसरा दिन, 15 अगस्त को पहुंचेगी उना

रियो ओलंपिक में दलित-आदिवासी भागेदारी

रियो में झारखंड की बेटियां करेगी “चक दे इंडिया”
रियो ओलंपिक में झारखंड से तीन बेटियां जा रही हैं. इसमें निक्की प्रधान हॉकी में जबकि दीपीका कुमारी और लक्ष्मी रानी मांझी तीरंदाजी प्रतियोगिता में हिस्सा लेंगी. निक्की प्रधान- (हॉकी) झारखंड की राजधानी रांची से 30 किलोमीटर दूर हेसेल गांव के साधारण परिवार की असाधारण बेटी निक्की का चयन महिला ओलंपिक हॉकी टीम में हुआ है. निक्की प्रधान बचपन के दिनों में खेल के नाम से डरती थी. वहीं आज झारखंड राज्य की पहली महिला हॉकी ओलंपियन बनने जा रही है. निक्की के स्कूली जीवन के प्रारंभिक कोच और राजकीय मध्य विद्यालय पेलौल के शिक्षक दशरथ महतो बताते हैं कि प्रधान की बड़ी बहन शशि प्रधान हॉकी खेला करती थी, जबकि निक्की खेलने से बहुत डरती थी. उसे डर लगता था कि कही स्टिक से लगकर पैर न टूट जाए. लेकिन बाद में निक्की का मन हॉकी में ऐसा रमा कि वह ओलंपिक जा पहुंची है. निक्की का कहना है कि मुझसे देश के सवा सौ करोड़ लोगों की अपेक्षाएं होंगी. मैं बेहतर से बेहतर प्रदर्शन करने की कोशिश करूंगी. हर खिलाड़ी का सपना होता है कि देश के लिए पदक जीते. मेरा भी एक सपना है कि मैं देश के लिए पदक हासिल करूं और देश का नाम रौशन करूं. निक्की झारखंड से ओलंपिक में पहुंचने वाली छठी हॉकी खिलाड़ी है, हालांकि यह कारनामा 24 साल बाद हो पाया है. लेकिन अगर महिलाओं की बात करें तो वह झारखंड से ओलंपिक पहुंचने वाली पहली महिला हॉकी खिलाड़ी बन गई हैं. निक्की की इस सफलता से उसकी सहेली बिरसी मुंडू और शिक्षक सुजय मांझी सहित पूरा गांव खुश है. निक्की पिछले दो साल से भारतीय महिला हॉकी टीम की नियमित सदस्य है. निक्की हटिया स्थित रेलवे के डीआरएम कार्यालय में नौकरी करती है. जानकारी के मुताबिक निक्की जनजाति समाज से ताल्लुक रखती हैं. एक तथ्य यह भी है कि ओलंपिक में जाने वाली प्रधान के गांव में कोई खेल का मैदान भी नहीं है. वह स्कूली समय में सुबह शाम गांव के खेत में स्टीक लेकर अभ्यास किया करती थी. निक्की की सहेली बिरसी बताती है कि प्रधान में एक जुनून है. वह हमेशा अपने गांव और देश का नाम रोशन करने की बात किया करती थी. लक्ष्मी रानी मांझी- (तीरंदाजी) भारतीय तीरंदाजी टीम में शामिल जमशेदपुर की रहने वाली लक्ष्मीरानी मांझी का मानना है कि रियो ओलंपिक में बेहद कड़ा मुकाबला होने की उम्मीद है. फिर भी वह यहां मेडल जीतना चाहती हैं. वह इससे पहले कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकती. मांझी रियो ओलंपिक की तैयारी में दिन-रात जुटी रही. उसने दवाब से निपटने के लिए योग भी किया. मांझी पहली बार ओलिंपिक में शामिल होने जा रही हैं. उनका प्रदर्शन कंपीटिशन वाले दिन पर निर्भर करता है. वहां हर कोई मेडल जीतना चाहेगा. मांझी का मानना है कि ओलंपिक शुरू होने से 25 दिन पहले वहां जाने का फायदा मिलेगा. हमारा प्रदर्शन शानदार होगा. दीपिका कुमारी (तीरंदाजी) रियो ओलिंपिक में शामिल होने वाली झारखंड की राजधानी रांची की रहने वाली भारत की स्टार तीरंदाज दीपिका कुमारी का मानना है कि साल 2012 लंदन ओलिंपिक में किया गया उनका प्रदर्शन अब बीते दिनों की बात हो चुकी है. दीपिका ने शूटिंग और स्कोरिंग में काफी सुधार किया है. दीपिका ने मानसिक दबाव से किस प्रकार निबटा जाता है इसका गुर भी सीख लिया है. दीपिका ओलंपिक से 25 दिन पहले ही रियो पहुंच चुकी हैं, जिससे की वहां के मौसम के अनुकूल वह खुद को ढाल सकें. देविंदर वाल्मीकि (हॉकी) अलीगढ़ में ब्लॉक धनीपुर के गांव अलहादपुर के देविंदर वाल्मीकि का चयन रियो ओलंपिक में खेलने वाली भारतीय हॉकी टीम में हो गया है. टीम में मिड फिल्डर के तौर पर वे देश के लिए पसीना बहांएगें. देविंदर के पिता सुनील वाल्मीकि पेशे से ड्राइवर हैं. गरीब परिवार में जन्में देविंदर ने आर्थिक तंगी समेत कई समस्यओं से जूझते हुए रियो ओलंपिक तक का सफर तय किया है. देविंदर ने नौ साल की उम्र में हॉकी के राष्ट्रीय खिलाड़ी अपने बड़े भाई युवराज से प्रेरित होकर स्टिक थामी थी. मुंबई के चर्च गेट में प्रैक्टिस करते हुए 24 साल की उम्र में ओलंपिक में स्थान पक्का कर अपना लोहा मनवाया है. देविंदर ने 2014, 2015 व 2016 में हुए हॉकी इंडिया लीग में मिड फिल्डर के तौर पर हिस्सा लिया. 2015 में बेल्जियम में हुई हॉकी वर्ल्ड लीग राउंड थ्री में दो गोल दागे. इसमें टीम इंडिया टॉप-4 में रही. 2016 में चैंपियन ट्रॉफी में एक गोल दागकर रजत पदक जीता, फिर 2016 के छठी नेशनल हॉकी प्रतियोगिता में एक गोल किया.देविंदर के पिता सुनील वाल्मीकि काम की खोज में पांच दशक पहले मुंबई गए थे. वहां उन्होंने ड्राइविंग कर परिवार का पालन-पोषण किया. मां मीना ने मुंबई में ही 28 मई 1992 में देविंदर को जन्म दिया. खिलाड़ी के तीन भाई राकेश, रवि व युवराज यहां गांव अलहादपुर में ही पैदा हुए. देविंदर ने आर्थिक तंगी समेत तमाम समस्याओं से जूझते हुए रियो ओलंपिक तक का सफर तय किया है.बीबी अम्बेडकर यूनिवर्सिटी खत्म करेगी दलित छात्रों का आरक्षण, धरने पर बैठे छात्र
