गुजरात में दलित प्रतिरोध और दलित राजनीति की नयी दिशा

पिछले दिनों गुजरात के ऊना में मरी गाय का चमड़ा उतारने पर गाय को मारने के आरोप में गोरक्षा समिति के गुंडों द्वारा चार दलितों की बुरी तरह से पिटाई की गयी थी जिस पर दलितों ने विरोध स्वरूप मरी गाय को उठाने का बहिष्कार कर दिया है तथा इस के अतिरिक्त गुजरात में बहुत से स्थानों पर विरोध प्रदर्शन तथा सड़क जाम आदि भी किया गया है. दलितों ने इसकी शुरुआत 18 जुलाई को सुरेन्द्र नगर जिले के कलेक्टर के दफ्तर के बाहर मरी गायें फेंक कर की थी. इसके साथ ही दलितों ने 31 जुलाई को अहमदाबाद में एक बड़ा दलित सम्मलेन करके मरे जानवर न उठाने, गटर साफ़ न करने, भूमिहीन दलितों को 5 एकड़ ज़मीन देने,सफाई कर्मचारियों को 7वें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देने तथा सफाई के काम में ठेकेदारी प्रथा समाप्त करने की मांग भी उठाई है. यह सर्वविदित है कि जाति व्यवस्था के कारण दलितों के साथ जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न किया जाता है. जाति विधानों का अनुपालन करना हरेक हिन्दू का धार्मिक कर्तव्य है. हिन्दू धर्म- शास्त्रों में जाति के विधानों का उलंघन दंडनीय अपराध है. इसलिए जब कभी भी दलित जाति के लोग जाति विधानों को तोड़ने का साहस दिखाते हैं तो हिन्दू धर्म के रक्षक उनका उत्पीड़न करते हैं जिस का मुख्य उद्देश्य दलितों को वर्णव्यवस्था में अपना जाति स्थान दिखाना और यथास्थिति को बनाये रखना है. दरअसल दलित उत्पीडन केवल घटना नहीं बल्कि उत्पीड़न की विचारधारा है जिसे हिन्दू धर्म की स्वीकृति है. पूरे देश में दलित उत्पीड़न का लगातार शिकार होते हैं. दलितों को समानता का जो संवैधानिक अधिकार मिला है, दलित जब भी उस अधिकार का प्रयोग करने की कोशिश करते हैं तो उन पर अत्याचार होता है. दलितों में जैसे जैसे संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता फ़ैल रही है और वे अधिक मात्रा में अपने अधिकारों का प्रयोग करने लगे हैं वैसे वैसे दलित उत्पीड़न की घटनाएँ भी बढ़ रही हैं. सरकारी आंकड़े भी यही दर्शाते हैं कि देश में दलितों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं. गृह मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि 2014 में देश भर में दलितों के उत्पीड़न के 47,000 मामले दर्ज हुए जबकि 2015 में 54,000 के क़रीब मामले दर्ज हुए हैं. यानी एक साल में 7000 घटनाएं बढ़ीं हैं. इसी प्रकार 2014 में गुजरात में 1100 अत्याचार के मामले रजिस्टर किये गये थे, जो 2015 में बढ़कर 6655 हो गये. इस प्रकार अकेले गुजरात में पिछले साल में दलित उत्पीडन में पांच गुना वृद्धि हुयी है. न्यायालय में सबसे खराब स्थिति गुजरात की है जहां दोष सिद्धि की दर 2.9 फीसदी है जबकि देश में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्‍याचार से जुड़े मामलों में दोष सिद्धि की दर 22 फीसदी रिकॉर्ड की गयी है. इस प्रकार गुजरात में जहाँ एक तरफ दलित उत्पीडन में भारी वृद्धि हो रही है, वहीँ दूसरी तरफ उत्पीडन के मामलों में सजा की दर बहुत निम्न है. इस प्रकार गुजरात के दलितों की स्थिति बहुत खराब है. इसके लिए गुजरात की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था और सरकार की निष्क्रियता जुम्मेदार है. गुजरात के दलितों ने दलित उत्पीड़न के विरोध का जो तरीका अपनाया है वह बिलकुल नायाब है. इसने हिन्दुओं की गाय के नाम पर चल रही राजनीति और गुंडागर्दी को जबरदस्त चुनौती दी है. अब तक गाय के नाम पर मुसलामानों को निशाना बनाया जा रहा था परन्तु दलितों का गाय के नाम पर उत्पीड़न हिन्दुओं को बहुत महंगा पड़ा है क्योंकि गाय के नाम पर मुसलमानों को दबाया जा सकता है परन्तु दलितों को दबाना उतना आसान नहीं है. गुजरात के दलितों का प्रतिरोध यह भी दर्शाता है कि अब दलित सवर्णों द्वारा उत्पीड़न को खामोश रह कर सहने वाले नहीं हैं बल्कि अब वे इसका सभी प्रकार से प्रतिरोध करने के लिए तैयार हैं. यह परिघटना स्वागत योग्य है. दरअसल दलित अभी तक ख़ामोशी का शिकार रहे हैं परन्तु गुजरात की परिघटना यह दर्शाती है कि अब वे भी प्रतिकार करने की स्थिति में आ गए हैं. गुजरात में दलितों का प्रतिरोध स्वत स्फूर्त है. इसमें कोई भी दलित राजनेता फ्रंट पर नहीं है. हाँ, कुछ दलित संगठन ज़रूर सक्रिय हैं. इससे से यह भी परिलक्षित होता है कि दलित अब राजनेताओं पर निर्भर न रह कर स्वयं जनांदोलन में उतरे हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि अधिकतर दलित नेता केवल जाति के नाम पर राजनीति करते आये हैं. उन्होंने दलित समस्यायों और दलित मुद्दों को अपनी राजनीति का आधार नहीं बनाया है. अतः गुजरात प्रतिरोध में दलितों ने लगभग सभी दलित राजनेताओं को नज़रंदाज़ किया है. डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू जाति व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए कहा है कि यह केवल सामाजिक व्यवस्था ही नहीं है बल्कि आर्थिक व्यवस्था भी है. यह एक स्पष्ट सत्य है कि हिन्दू समाज में पेशों का निर्धारण जाति के आधार पर किया गया है और इन में बहुत कम गतिशीलता है. यह भी सच्चाई है कि गंदे और कम आमदन वाले पेशे दलितों पर थोपे गए हैं. यह भी विचारणीय है कि दलितों ने यह पेशे स्वेच्छा से नहीं अपनाये होंगे बल्कि उन्हें इन पेशों को करने के लिए बाध्य किया गया होगा. इस सम्बन्ध में मनुस्मृति में स्पष्ट विधान किये गए हैं. संविधान के लागू होने के 65 वर्ष बाद भी दलितों के पेशों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया है. हाँ, आरक्षण के कारण दलितों की राजनीति, सरकारी सेवाएं और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ हिस्सेदारी हुयी है परन्तु वह भी बहुत कम और निम्न स्तर की ही है. परिणामस्वरूप दलितों के जीवन स्तर में बहुत थोडा अंतर आया है. इसका लाभ कुछ पढ़े लिखे नौकरी पेशा और राजनीति में सक्रिय दलितों को ही मिला है. इस का अंदाज़ा गाँव में रहने वाले बहुसंख्यक दलितों के जीवन स्तर से लगाया जा सकता है. यह भी देखा गया है कि उत्पादन के संसाधनों  जैसे ज़मींन, उद्योग और व्यापार आदि में दलितों की भागीदारी में कोई इजाफा नहीं हुयी है. कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत की अधिकतर आबादी कृषि से जुड़ी हुयी है. दलितों की बहुसंख्या कृषि मजदूर हैं परन्तु बहुत कम दलितों के पास बहुत थोड़ी ज़मीन है. इस प्रकार गाँव में दलित भूमिधारी जातियों पर न केवल रोज़गार के लिए बल्कि नैतिक क्रियाकलापों जैसे शौच तथा जानवरों के लिए घास पट्ठा आदि लाने के लिए भी आश्रित हैं. सामाजिक और आर्थिक जनगणना 2011 से यह उभर कर आया है कि देहात क्षेत्र में 42% लोग भूमिहीन हैं और वे केवल शारीरिक श्रम ही कर सकते हैं. जनगणना ने इन दोनों को इन लोगों की बड़ी कमजोरियां होना बताया है. इस श्रेणी में अगर दलितों का प्रतिश्त देखा जाये तो यह 70 से 80 प्रतिश्त हो सकता है. इस प्रकार  ग्रामीण दलितों की बहुसंख्या आज भी भूमिधारी जातियों पर आश्रित है. इस पराश्रिता के कारण चाहे मजदूरी का सवाल हो या उत्पीड़न का मामला हो दलित इन के खिलाफ मजबूती से लड़ नहीं पाते हैं क्योंकि सवर्ण  जातियों के पास सामाजिक बहिष्कार एक बहुत बड़ा हथियार है. अतः उत्पादन के संसाधनों के पुनर्वितरण के बिना दलितों की पराश्रिता समाप्त करना संभव नहीं है. इसके लिए भूमिसुधार और भूमिहीनों को भूमि वितरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि सौ वर्ष पहले था. यह अच्छी बात है कि गुजरात आन्दोलन में भी दलितों को 5 एकड़ भूमि देने की मांग उठाई गयी है. दलितों के विकास में दलित राजनीति की एक प्रभावशाली भूमिका हो सकती थी. शुरू में डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ने इसे मजबूती के साथ उठाया भी था. इसी पार्टी ने भूमि वितरण, न्यूनतम मजदूरी, समान वेतन आदि मुद्दों को लेकर 6 दिसंबर 1964 से “जेल भरो” आन्दोलन भी चलाया था जिस में 3 लाख से अधिक दलित जेल गए थे और तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादर शास्त्री को यह सभी मांगे माननी पड़ी थीं. इस के बाद ही कांग्रेस सरकार ने भूमिहीन दलितों को भूमि आबंटन शुरू किया था. परन्तु रिपब्लिकन पार्टी के विघटन के बाद किसी भी दलित पार्टी ने इन मांगों को नहीं उठाया जिस कारण एक तो भूमि सुधार सही ढंग से लागू नहीं किये गए, दूसरे सीलिंग से जो ज़मीन उपलब्ध भी हुयी थी उस का आबंटन नहीं हुआ. केवल बंगाल और केरल की कम्युनिस्ट सरकारों को छोड़ कर किसी भी अन्य राज्य में न तो भूमि सुधार सही ढंग से लागू हुए और न ही कोई भूमि आबंटन हुआ. इसी का दुष्परिणाम है कि पूरे देश में 10% लोगों के पास 80% भूमि केद्रित है. दलितों में भूमिहीनता का प्रतिश्त बहुत अधिक है जो उनकी कमज़ोर स्थिति का सबसे बड़ा कारण है. इसी लिए भूमि आबंटन दलितों के सशक्तिकरण की सब से बड़ी आवश्यकता है. इसके लिए भूमि आबंटन दलित राजनीति का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए. दलितों की दूसरी सब से बड़ी कमजोरी उनके पास केवल शारीरिक श्रम का ही होना है. उनके पास तकनीकि योग्यता तथा रोज़गार के अवसरों की कमी है. अतः बेरोज़गारी दलितों की सबसे बड़ी समस्या है. इसके लिए ज़रूरी है कि दलितों को शिक्षा और तकनीकि शिक्षा देकर प्रगति के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ परन्तु किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाये हैं. इधर सरकार द्वारा अपनाई गयी निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीति ने आरक्षण के माध्यम से सरकारी उपक्रमों में मिलने वाले रोज़गार के अवसरों को भी कम कर दिया है जिस कारण अन्य वर्गों सहित दलितों में भी बेरोज़गारी निरंतर बढ़ रही है. मोदी सरकार द्वारा रोज़गार पैदा करने के वादे बिलकुल झूठे साबित हुए हैं. अतः रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने की मांग और भी अधिक प्रासंगिक हो गयी है. जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक सरकारें संसाधनों की कमी का रोना रो कर निजी क्षेत्र का पेट भरती रहेंगी. जैसा कि सर्वविदित है कि ग्रामीण दलितों का बड़ा हिस्सा छोटे किसानों और कृषि मजदूरों के रूप में खेती से जुड़ा हुआ है. इधर सरकारों की किसान विरोधी नीतियों के कारण खेती घाटे का सौदा हो गया है जिस के कारण बड़ी संख्या में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और खेती छोड़ रहे हैं. इसके इलावा सभी सरकारें कृषि भूमि अधिग्रहण करके कृषि भूमि क्षेत्र को कम करने में लगी हुयी हैं. खेती की दुर्दशा का कुप्रभाव केवल किसान पर ही नहीं पड़ता बल्कि उससे जुड़े कृषि मजदूरों पर भी पड़ता है जिस में अधिकतर दलित हैं. अतः दलित कृषि मजदूरों की दशा सुधारने के लिए कृषि में सरकारी निवेश बढ़ाने, किसान को उपज का उचित मूल्य दिलवाने और मजदूरी की दर बढ़ाने की सखत ज़रुरत है. अब तक की दलित राजनीति केवल दलितों को सम्मान दिलाने और आरक्षण के नारों को लेकर ही चलती रही है. यह अधिकतर अस्मिता की राजनीति है जिस का दलितों के बुनियादी मुद्दों जैसे भूमि सुधार, भूमि आबंटन, गरीबी उन्मूलन, उत्पीड़न और बेरोज़गारी आदि से कुछ लेना देना नहीं है. दरअसल अस्मिता की राजनीति बहुत आसान राजनीति है क्योंकि इसमें किसी मुद्दे के लिए कोई संघर्ष या जनांदोलन करने की ज़रुरत नहीं पड़ती. केवल अस्मिता से जुड़े कुछ नारों से काम चल जाता है. अतः इस बात की ज़रुरत है कि दलित मुद्दों जैसे भूमि सुधार, भूमि आबंटन, रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने, कृषि का विकास करने आदि को दलित राजनीति के केंद्र में लाया जाये. इसके साथ ही दलितों को दलित नेताओं और दलित राजनीतिक पार्टियों को भी मजबूर करना होगा कि वे अस्मिता की राजनीति छोड़ कर मुद्दों की राजनीति अपनाएं और अपना राजनीतिक एजंडा घोषित करें. यह भी देखा गया है राजनीति में दलितों की महत्वपूर्ण भूमिका होने के बावजूद भी दलित मुद्दे गैर दलित राजनैतिक पार्टियों के एजंडे में भी कोई स्थान नहीं पाते हैं क्योंकि वे भी आरक्षित सीटों पर दलितों को खड़ा करके जाति के नाम पर वोट मांग कर काम चला लेते हैं. अतः यह ज़रूरी है कि दलितों को केवल जाति के नाम पर वोट न देकर दलित मुद्दों के आधार पर वोट देनी चाहिए और सभी पार्टियों को दलित मुद्दों को अपने एजंडे में शामिल करने का दबाव बनाना चाहिए. दरअसल दलित राजनीतिक पार्टियों को डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के समय बनाये गए संविधान और एजेंडा से सीखना होगा. यह सही है कि एक तो वर्तमान में रिपब्लिकन पार्टी इतनी खंडित हो चुकी है कि उसका एकीकरण तो संभव दिखाई नहीं देता है. दूसरे बसपा का प्रयोग भी लगभग असफल हो चुका है. इससे भारत में दलित राजनीति व्यक्तिवाद, जातिवाद, दिशाहीनता, अवसरवादिता, मुद्दाविहीनता और भ्रष्टाचार का शिकार हो गयी है और अब यह अपने पतन के अंतिम चरण में है. ऐसी दशा में हम लोगों ने आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) नाम के नए दल की स्थापना की है जो सही अर्थों में एक प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष दल है तथा समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर सभी लोगों का उत्थान करना चाहता है और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर डॉ. आंबेडकर की विचारधारा और आदर्शों का इमानदारी से अनुसरण कर रहा है. आइपीएफ जाति-धर्म की राजनीति न करके दलितों, आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय के साथ साथ  अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों, महिलायों और समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों के मुद्दों की राजनीति का पक्षधर है और समान विचारधारा वाली धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील पार्टियों के साथ गठबंधन करने के पक्ष में भी है. लेखक आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं.

दलित उत्पीड़न पर बीजेपी में दो फाड़

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नई दिल्ली। गुजरात में ऊना में दलितों की पिटाई कथित गोरक्षकों द्वारा किए जाने को लेकर राजनीति अपने शबाब पर है. दलित हिंसा को लेकर अब केन्द्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी में ही दो फाड़ नजर आऩे लगे है, खुद पार्टी में परस्पर विरोधी स्वर सुनाई देने लगे हैं. उना की दलित हिंसा पर तेलंगाना से भाजपा विधायक टी. राजा सिंह ने जायज ठहराया तो दिल्ली से भाजपा सांसद उदित राज ने टी. राजा पर उनके बयान के लिए कार्रवाई करने की मांग करते हुए पार्टी से बाहर निकालने की वकालत कर दी है. दलितों की पिटाई का समर्थन टी. राजा सिंह ने अपने फेसबुक के पोस्ट वीडियो में कहा कि ऊना में दलितों की पिटाई ठीक की गई। उन्‍होंने कहा कि जब तक गोमाता को राष्ट्र माता का दर्जा न दिला दें, वह खामोश नहीं बैठेंगे. राजा सिंह ने कहा कि जो भी दलित गोमांस खाते हैं, गायों को मारते हैं उनको इसी तरह से पीटा जाएगा। राजा ने ये भी कहा कि कुछ दलित ऐसे भी हैं जो गोरक्षा करते हैं.  राजा ने कहा कि गोमांस खाने वाले दलितों की वजह से देशभक्त दलितों का नाम खराब हो रहा है. उन्होंने ये भी सवाल किया कि क्या गोमांस खाना जरूरी है. ऊना वाले मामले पर उन्‍होंने कहा कि जो दलित गायों को ले जा रहे थे, उनके साथ जो हुआ ठीक हुआ. राजा सिंह ने कहा कि ””जिन्होंने दलितों की पिटाई की, मैं उनका समर्थन करता हूं, जिन्होंने अपने बल पर अच्छे से अच्छा सबक सिखाया.”” राजा ने दलितों के अलावा समाज के हर वर्ग को धमकी दी कि ””जो भी गोहत्या करेगा, उसे ऐसे ही सबक सिखाया जाएगा.”” राजा ने गोरक्षकों से कहा कि डरिए मत, धर्म कार्य, देश कार्य, गौ कार्य में कठिनाई आती है. सांसद ने कहा- करो पार्टी से बाहर बीजेपी सांसद उदित राज ने कहा कि ये बहुत ही निंदनीय घटना है. दलितों की कीमत जानवरों से भी कम है. ऐसे मे सवर्ण समाज क्यों नहीं सामने आता है. हम मांग करेंगे कि उन्हें निकाला जाना चाहिए.  उन्होंने जो कहा वो गलत है. पार्टी ने इस बयान से पल्ला झाड़ लिया है पार्टी ने इस बयान से पल्ला झाड़ लिया है. इससे पहले बीजेपी के सभी बड़े नेताओं ने इस घटना का खंडन किया है. गुजरात की मुख्यमंत्री भी घटना में घायलों से मुलाकात कर चुकी हैं. इस मामले में सियासत काफी गरमाई हुई है. कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी उना का दौरा कर चुके हैं. अब यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी उना जाने की तैयारी में हैं. इस बयान ने मामले को और गरमा दिया है इस बीच बीजेपी के विधायक के इस बयान ने मामले को और गरमा दिया है. विधायक राजा सिंह ने कहा है कि गोमांस ले जा रहे दलित लोगों की पिटाई जायज थी. इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कई दलित भाई उनके साथ गोरक्षा के काम में कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं. यही नहीं राजा सिंह ने यह भी कहा कि वे गोरक्षा के लिए हर प्रयास करेंगे. अठावले ने दलितों पर हमले की निंदा की थी इतना ही नहीं राजा सिंह ने उन लोगों की भी निंदा की जो उना में दलितों की पिटाई की आलोचना कर रहे हैं. गौरतलब है कि पिछले ही सप्ताह केंद्रीय राज्यमंत्री रामदास अठावले ने दलितों पर हमले की निंदा की थी. उन्होंने कहा था कि पीड़ित मरी हुई गाय की खाल निकालने के प्रयास में थे. उनपर हमला गलत था. विधायक से लिखित जवाब भी मांगा जाएगा इस बीच राजा सिंह के बयान के बाद प्रदेश बीजेपी की ओर से पल्ला झाड़ने के साथ ही कड़ी कार्रवाई के संकेत दिए गए हैं. प्रदेश भाजपा के पदाधिकारी के अनुसार इस बारे में जांच की जाएगी और जरूरी हुआ तो विधायक से लिखित जवाब भी मांगा जाएगा. गौरतलब है कि गुजरात के ऊना में कुछ दलित युवकों को इसलिए पीटा गया क्योंकि उन पर गोहत्या का शक था.  गुजरात सहित पूरे देश में दलित इस पिटाई का वीडियो सामने आने के बाद गुस्से में हैं.  लेकिन तेलंगाना से बीजेपी के विधायक टी राजा सिंह ने आग में घी डालते हुए कहा है कि जो भी गाय को मारेगा, उसे उना के दलितों की तरह ही पीटा जाएगा. टी राजा ने कहा कि हम ऐसे लोगों को अपने हाथों से सबक सिखाएंगे. उन्होंने कहा कि वो खुद गौ-रक्षा के लिए खुद काम करते हैं.

दलित महिला सरपंच ने मंदिर बनाने के लिए दिए दस लाख रूपए, फिर भी नहीं मिल रही एंट्री

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अहमदाबाद। अहमदाबाद के एक गांव की दलित सरपंच, पिंटूबेन ने अपनी व्‍यक्‍तिगत पूंजी में से दस लाख रुपए शिव मंदिर के निर्माण में लगा दिए, लेकिन अब उन्हें ही इस मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिल पा रही है. ग्रामीणों की मांग पर दलित सरपंच ने इसके निर्माण का खर्च उठाया. उन्होंने बताया कि अब तक मंदिर के निर्माण में वे 10 लाख रुपए खर्च कर चुकी हैं. डेलीमेल ऑनलाइन में छपी खबर के अनुसार, छोटे से गांव राहेमालपुर की सरपंच मंदिर के प्रांगण में प्रवेश नहीं कर सकती हैं क्‍योंकि वह दलित हैं. दलित को नीची जाति में रखा जाता है और उन्‍हें हिंदू पूजा स्‍थलों में प्रवेश की सख्‍त मनाही होती है. महिला सरपंच पिंटूबेन ने बताया कि ग्रामीणों ने मंदिर के निर्माण की मांग की और उनकी इस मांग को देखते हुए 10 लाख रुपए दान में दिया ताकि मंदिर बन सके. पिंटूबेन ने बताया कि यह रकम उनकी अपनी है न कि सरपंच को आवंटित किए गए पैसे हैं. अपने 35 बीघा जमीन की उपज बेचकर उन्‍होंने यह पूंजी जमा की थी. जब उनसे पूछा गया, ”आपने इतना खर्च किया, क्‍या आप मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहेंगी.” उन्‍होंने कहा, ”मैं चाहूंगी लेकिन वहां विरोध है, हंगामा हो सकता है. वहां की भीड़ यह बोलेगी कि मेरे जाने से मंदिर अशुद्ध हो गया, भगवान अशुद्ध हो गए.”

उना पीड़ितों की मदद के लिए आगे आया दलित समाज

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उना। उना घटना में पीड़ित दलित युवकों की मदद के लिए दलित समाज आगे आ रहा है. बुलंदशहर के असिस्टेंट कमिश्नर विकास कुमार सेठ ने तेरह हजार रूपए का आर्थिक सहयोग दिया. धम्मप्रिय विकास कुमार सेठ का कहना है कि गुजरात के पीड़ित लंबी लड़ाई रहे हैं, जो सदियों की गुलामी की जंजीरें तोड़ने को बेताब हैं. हम लोगों को एकत्रित होकर मनुवाद के खिलाफ जंग करनी होगी. विकास कुमार सेठ उना पीड़ितों के लिए आर्थिक सहायता की मुहीम चला रहे हैं. उन्होंने सबसे पहले वह अपने परिवार और रिश्तेदारों को सहयोग लिए आगे आने के लिए कहा. उन्होंने गुजरात के दलितों और अपने अधिकारियों से बात करने के बाद पीड़ित की माता का खाता नंबर दिया है और सबसे अपील की है कि पीड़ित दलित परिवार की मदद के करने के लिए बढ़चढ़ कर हिस्सा लें.

कांशीराम जी पर फिल्म सेंसर बोर्ड से पास, 9 अक्टूबर को होगी रिलीज

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नई दिल्ली। समाज सुधारक और बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम जी के जीवन पर आधारित फिल्म “द ग्रेट लीडर कांशीराम” को सेंसर बोर्ड ने पास कर दिया है. यह फिल्म कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस 9 अक्टूबर को फिल्म रिलीज होगी. यह फिल्म अक्टूबर 2015 में फाइनल हो चुकी थी. इसे सेंसर बोर्ड को जनवरी, 2016 में भेज दिया गया था. फिल्म के निर्देशक अर्जुन सिंह ने कहा कि हमें भी फिल्म को पास होने का इंतजार था, सेंसर बोर्ड ने बहुत समय लगा दिया इसे पास करने में. उन्होंने कहा कि यह हमारी तीन साल की मेहनत है. उन्होंने इस फिल्म को बनाने में सहयोग करने वालों का आभार जताया. अर्जुन सिंह ने कहा कि फिल्म रिलीज होने से पहले हम इसका प्रोमोशन करेंगें, प्रेस कांफ्रेंस करेंगें. इस फिल्म का प्रिंट मीडिया पार्टनर दलित दस्तक पत्रिका और वेब मीडिया पार्टनर दलित दस्तक डॉट कॉम है. उन्होंने बताया की यह फिल्म पंजाब और हरियाणा में 100 स्क्रीन पर चलेगी, जबकि उत्तर प्रदेश में 200 स्क्रीन पर चलेगी. मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र में भी कई स्क्रीन पर यह फिल्म चलेगी. फिल्म के निर्देशक ने कहा कि अगर फिल्म का अच्छा रेस्पांस मिला तो हम इस फिल्म का पार्ट-टू बनाएंगे. यह फिल्म एक घंटे 45 मिनट की है. इसमें कांशीराम जी के बचपन से लेकर 1984 तक के जीवन को दिखाया गया है. इसमें दो गाने हैं. 50 मुख्य कैरेक्टर हैं. कांशीराम जी की भूमिका राघवेन्द्र सिंह राठौर ने निभाई है. वो एनएसडी के पूर्व छात्र हैं और फिलहाल थियेटर और टीवी कर रहे हैं. कांशीराम जी के बचपन का कैरेक्टर मास्टर अरूण मौर्य कर रहे हैं. मायावती जी का कैरेक्टर सोमा गोयल (थियेटर आर्टिस्ट), दीनाभाना का कैरेक्टर (महेश यादव), मनोहर आटे (साहब के रूम पार्टनर थे मुंबई में) का कैरेक्टर राज ने किया है. प्रोडेक्शन हेड धर्मेन्द्र बघेल हैं और सिंगर राजू भारती हैं.

उना पीड़ितों के इंसाफ के लिए अहमदाबाद से उना तक पद यात्रा करेंगे दलित

गुजरात के दलित उना पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए आगामी 5 अगस्त से 15 अगस्त तक अहमदाबाद से उना तक की पदयात्रा करेंगे. “उना दलित अत्याचार लड़क समिति” के बैनर तले आज 31 जुलाई को हुए सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया. अहमदाबाद में उना पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ने के लिए प्रदेश भर के दलित समाज के लोग आज अहमदाबाद के चानखेड़ा में अचेर डिपो ग्राउंड के पास इकट्ठा हुए थे. सम्मेलन में उना के पीड़ित और पिछले साल थानगढ़ में पुलिस की गोली से मारे गए तीन दलित युवकों के परिवार वाले भी मौजूद थे. सम्मेलन के दौरान प्रदेश के भिन्न स्थानों से 50 हजार से ज्यादा लोग इकट्ठा हुए थे. सम्मेलन में तकरीबन दलित अधिकार के लिए लड़ने वाले तकरीबन 35 संगठनों ने हिस्सा लिया. सम्मेलन में मुस्लिम संगठन के लोग भी दलित समाज के लोगों को समर्थन देने के लिए इकट्ठा हुए थे. इस दौरान दलित-मुस्लिम भाई-भाई का नारा भी लगा. सम्मेलन में यह तय हुआ कि पदयात्रा के 15 अगस्त को उना में पहुंचने के बाद वहां तिरंगा भी फहराया जाएगा. इस दौरान दलित समाज के लोगों ने सामूहिक प्रतिज्ञा लिया कि वो अब मरे हुए जानवरों को नहीं उठाएंगे. सम्मेलन में सरकार को यह भी हिदायत दी गई कि अगर उनको न्याय नहीं मिला तो वह फिर से प्रशासन को भेंट के रूप में मरे हुए जानवरों का शव देंगे.
आज के सम्मेलन में यह भी तय किया गया कि पदयात्रा के दौरान भाजपा और कांग्रेस के किसी भी सदस्य को इसमें शामिल नहीं होने दिया जाएगा. सम्मेलन के आयोजकों में जिग्नेश भाई और कौशिक परमार प्रमुख थे. इस दौरान नगरपालिका में कार्यरत सफाई कर्मचारियों को स्थायी करने की भी मांग उठाई गई.

बाबासाहेब, मान्यवर, बहन जी एवं बुद्ध धम्म

मनुवाद की गोद में बैठकर राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक वैद्यता खो चुके रामदास अठावले द्वारा बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा एवं उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी सुश्री मायावती जी द्वारा बौद्ध धर्म न ग्रहण किए जाने के सवाल को उठाना एक भद्दा मजाक सा लगता है. और यह नितांत राजनीति से प्रेरित और मीडिया एवं राजनैतिक विरोधियों की अनैतिक सांठ गांठ है, वरना दलितों की बात को मीडिया फोटो के साथ प्रथम पृष्ठ पर कब छापता है. और दूसरी तरफ टीवी चैनल कब बहस में लाते हैं. यद्यपि उसी का अनुसरण करते हुए मायावती जी स्वयं प्रेस कांफ्रेंस कर यह घोषित कर चुकी हैं कि वह करोड़ों अनुयायियों के साथ दीक्षा लेंगी. फिर भी यहां यह बताना समिचिन होगा कि बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपने राजनैतिक जीवन के उदाहरण से अपने अनुयायियों को यह समझाया था कि धर्म और राजनीति को कभी भी मिलाकर न देखा जाए. अर्थात धर्म और राजनीति को अलग-अलग ही रखा जाए. इसी का अनुसरण करते हुए मान्यवर कांशीराम ने जब पहले बामसेफ और फिर बसपा बनाई तो उन्होंने इसे धर्म से बिल्कुल अलग रखा और 1981 में बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर बनाकर उसे नेपथ्य में छोड़ दिया ताकि धर्म और राजनीति कहीं मिल ना जाएं. परंतु उन्होंने अपनी पूरी राजनीति में बुद्ध धम्म की विचारधारा को कभी नेपथ्य में नहीं धकेला. और मान्यवर कांशीराम ने यह प्रण किया था कि बाबासाहेब के धम्म पक्कतन के 50 वर्षों बाद 2006 में उत्तर प्रदेश में करोड़ों लोगों के साथ बुद्ध धम्म ग्रहण करुंगा. पर अफसोस की तिथि आने से पहले ही उनका महापरिनिर्वाण हो गया. ऐसी स्थिति में सुश्री मायावती ने भी बाबासाहेब और कांशीराम की राजनीति को आगे बढ़ाते हुए धम्म और राजनीति को कभी नहीं मिलाया. और इसीलिए उनकी चार बार की सरकार में सांप्रदायिकता कभी भी अपना फन नहीं उठा पाई. इन सबके बावजूद भी मायावती जी ने अपनी सरकारों के अंतर्गत उत्तर प्रदेश में भगवान गौतम बुद्ध की स्मृति में अनेक कार्य करवाएं. सर्वोपरि भारत में अगर किसी प्रांत में कोई जिला तथागत बुद्ध के नाम पर मिलता है तो वह है उत्तर प्रदेश. जहां पर गौतम बुद्ध नगर की स्थापना हुई है. उसी गौतम बुद्ध नगर में विश्वस्तरीय गौतमबुद्ध विश्वविद्यालय का भी निर्माण हुआ है. इसके अलावा तथागत गौतम बुद्ध के नाम से बसपा सरकार ने महामाया नगर का भी निर्माण करवाया था, परंतु राजनैतिक विरोधियों ने वह नाम बदल दिया. परंतु सुश्री मायावती जी ने भगवान बुद्ध की माता के नाम से अत्यंत जनकल्याणकारी योजना यथा महामाया गरीब आर्थिक मदद योजना तथा महामाया गरीब बालिका आशीर्वाद योजना का आरंभ किया. इसी कड़ी में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान, लखनऊ तथा बौद्ध परिपथ का विकास एवं सौन्दर्यीकरण करवाया. सर्वोपरि अंतरराष्ट्रीय फार्मूला-1 का रेस सर्किट का नाम भगवान बुद्ध के नाम पर बुद्धा सर्किट रखा गया. सुश्री मायावती के उपरोक्त कृत्यों से यह प्रमाणित होता है कि यद्यपि उन्होंने सार्वजनिक तौर पर पंचशील और त्रिशरण ग्रहण कर बौद्ध धम्म को नहीं अपनाया है, फिर भी वह किसी भी बौद्ध अनुयायि से कम नहीं दिखाई देती. उनके हर कार्यक्रम में पूज्य भंतों द्वारा त्रिशरण एवं पंचशील से ही शुरू होते हैं. इन सब तथ्यों के बावजूद हमें यहां यह समझना होगा कि केवल दीक्षा लेने मात्र से ही कोई बौद्ध धर्म में परिवर्तित नहीं होता. बौद्ध धम्म एक जीवन जीने का आचरण है. अगर कोई व्यक्ति त्रिशरण, पंचशील, आष्टांगिक मार्ग एवं दसों परिमिताओं का आचरण करता है, तो वह बौद्ध धम्म का आचरण करता है. इसका तात्पर्य यह हुआ कि वह बौद्ध धम्म का अनुयायी है. बुद्ध ने स्वयं गृहस्थ होते हुए भी धम्म की राह पर चलने की कला को बताया.

रामदास अठावले और भाजपा से सावधान रहें यूपी के दलितः मायावती

लखनऊ। बसपा अध्यक्ष मायावती ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता रामदास अठावले पर निशाना साधा है. मायावती ने कहा कि भाजपा अठावले को दलितों के खिलाफ खड़ा कर रही हैं. उन्होंने कहा कि अठावले ने भाजपा के बहकावे में आकर बौद्ध धर्म अपनाने के सम्बन्ध में बाबा साहेब की भावना को आहत किया है. मायावती ने कहा बाबा साहब ने भी बौद्ध धर्म अपनाने में जल्दबाजी नहीं की थी और जीवन के आखिरी वक्त में बौद्ध धर्म अपनाया था. उन्होंने कहा कि जब समाज जागरूक हो जाएगा, तब मान्यवर कांशीराम की इच्छा के मुताबिक करोड़ों लोगों के साथ बौद्ध धर्म अपनाऊंगी और ये ऐतिहासिक घटना होगी. मायावती ने अठावले को आगाह किया कि दलितों को गुलाम बनाने की मानसिकता रखने वाले भाजपा के एजेंडे पर काम करना बंद करें और दलित एकता को न तोड़े. भाजपा ने दलित नेता अठावले को केंद्र में मंत्री इसलिए बानया कि वह दलित समाज के खिलाफ उनका उपयोग कर सके. बसपा का कहना है कि बाबा साहेब डा.अम्बेडकर के विचारों और आदर्शों के आधार बसपा के जन्मदाता व संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने आजीवन देश भर में लोगों को जागरुक करने का काम किया. लेकिन रामदास अठावले जैसे स्वार्थपूर्ण व गुलामी भरी मानसिकता रखने वाले लोगों से खासकर उत्तर प्रदेश के लोगों को बहुत ही सावधान रहने की जरूरत है, ताकि वे लोग प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में दलितों का वोट बांटने के अपने षडयंत्र में कामयाब न हो सके. गौरतलब है कि रामदास अठावले ने मायावती पर आरोप लगाया  था कि अगर वो सच्ची अंबेडकरवादी हैं तो वे अब तक क्यों हिन्दू हैं, बौद्ध धर्म क्यों नहीं अपनातीं? केंद्रीय मंत्री ने आरोप लगाया कि मायावती को दलितों के हितों से कोई सरोकार नहीं है, वो केवल दलितों के नाम पर राजनीति कर रही हैं.

दिल्लीः शंकराचार्य को स्थापित करने के लिए करवा रहे हैं बौद्ध धर्म की गलत पढ़ाई

दिल्ली। “शंकराचार्य ने अपने ज्ञान और पांडित्व के बल पर बौद्ध धर्म को बिना एक बूंद रक्त बहाए हिन्दुस्तान के बाहर खदेड़ दिया.” ऐसा हम नहीं, दिल्ली बोर्ड की कक्षा दूसरी की किताब में बताया गया है. बच्चे पर इसे पढ़ने के बाद बौद्ध धर्म के प्रति नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. इस किताब में आगे लिखा हुआ है, “तत्कालीन समय में बौद्ध धर्म में काफी विकृतियां आ गई थीं. बौद्ध  सत्ता के रूप में विदेशियों ने भारतवर्ष में प्रवेश करना आरंभ कर दिया था.” अब आप ही बताइए क्या बौद्ध धर्म की वजह से विदेशियों ने भारत पर कब्जा किया? बौद्ध धर्म तो सत्य, अहिंसा  और तथागत बुद्ध के सम्यक विचारों पर आधारित है, फिर बच्चों को गलत ज्ञान क्यों दिया जा रहा है.  इस घटना के बाद से दलित व बौद्ध धर्म के लोगों में रोष फैल गया है. किताब में आगे यह भी लिखा हुआ है “भारतीय बौद्धों ने सत्ता के लोभवश विवेकहीन होकर विदेशियों का सब प्रकार से सहयोग किया.” हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी ही ऐसे हैं तो हमारे बच्चों का भविष्य कहां जाएगा? एक सवाल यह भी उठता है कि विद्यालयों की पुस्तकों में शंकराचार्य के बारे में जानना बच्चों के लिए कितना महत्वपूर्ण है? लेकिन बच्चों को बौद्ध धर्म के बारे में गलत जानकारी देना भारतीय शिक्षा पद्धति के लिए सोचने की बात हैं. बौद्ध धर्म  ने भारत का नाम सर्वोच्च किया है, इस तरह का ज्ञान सरकार और शिक्षा विभाग की मानसिकता को भी दिखा रहा है कि वह आने वाले पीढ़ी को किस तरह का ज्ञान देना चाहते हैं. बौद्ध चिंतक शांतिस्वरूप बौद्ध ने इस पर कहा कि यह शंकराचार्य को स्थापित करने के लिए गलत तथ्यों का सहारा ले रहे हैं. यह ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं. हम इसका विरोध करते हैं और दिल्ली शिक्षा विभाग और बुक पब्लिशर्स के खिलाफ शिकायत दर्ज करेंगें. सभी बौद्ध और दलित संगठनों के साथ मिलकर विरोध करेंगें. किताब को बंद करवाएंगें. शांतिस्वरूप बौद्ध ने आगे कहा कि भारत में विदेशी (अंग्रेज और मुस्लिम) बौद्ध धर्म का ज्ञान लेने आए थे. भारत जगत गुरू था. विदेशी नांलदा और  विक्रमशिला से ज्ञान प्राप्त करके गए और पूरे विश्व बौद्ध धर्म का प्रचार किया. शांति स्वरूप बौद्ध ने कहा कि मोदी सरकार तो पहले ही बोल चुकी है भारत के इतिहास को अपने तरीके से लिखने के लिए लेकिन दिल्ली सरकार से हमें ऐसी उम्मीद नहीं थी. दोनों मिलकर देश का इतिहास बिगाड़ रहे हैं. सरकार संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए पालि भाषा को हाशिये पर रख रही हैं. बच्चें अपनी किताबों से ही गलत जानकारी पाएंगें तो शिक्षा व्यवस्था कैसे बेहतर होगी. बच्चों की प्राथमिक स्तर की पुस्तक में इस तरह से त्रुटियां दिल्ली के शिक्षा विभाग की योग्यता को भी दर्शाता है. इस बारे में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध संस्थान के अध्यक्ष और बौद्ध चिंतक भंते चंदिमा ने कहा कि यह निंदनीय है हम इसकी भर्त्सना करते हैं. इस तरह का ज्ञान बच्चों के लिए हानिकारक है और भटकाने वाला है. उन्होंने कहा कि बौद्ध राजाओं के समय कभी किसी विदेशी ने भारत पर आक्रमण नहीं किया. विदेशी आए लेकिन ज्ञान लेकर गए. शंकराचार्य ने हिंसक क्रांति की और लोगों के जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करवाए लेकिन बौद्ध धर्म अहिंसक क्रांति और सम्यक विचारों के आधार प्रसिद्ध हुआ. ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को बनाया और ब्राह्मणवादी संस्कृति का विस्तार कर दिया. बौद्ध धर्म ने भारत की सीमाओं का विस्तार किया था. ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता आने के बाद से ही भारत का पतन होना शुरू हुआ. बच्चों को बौद्ध धर्म की गलत जानकारी देना सरकार की ब्राह्मणवादी मानसिकता को सिद्ध कर रहा है.  बच्चें जब इस अध्याय को पढ़ते होंगे तो उन्हें जानकारी क्या जानकारी मिलती होगी? हैरानी की बात यह है कि यह किताब इस गलती के साथ ही लगातार पढ़ाई जा रही है.

भाजपा के दलित प्रेम की कसौटी पर यूपी विधान सभा चुनाव

ये बात सही है कि भारत में दलित चेतना का संचार देश के दक्षिण-पश्चिमी तट से शुरू हुआ. पर आज देश में बहुजन आन्दोलन या दलित अस्मिता की बात होती है तो लखनऊ के अंबेडकर पार्क और नोएडा के दलित चेतना केंद्र के बिना पूरी नहीं हो पाती है. कभी अवध या संयुक्त प्रान्त के नाम से जाना जाने वाला उत्तर प्रदेश कई विशेषताओं के कारण भारतीय सियासत में अपना एक अलग स्थान रखता है. इसकी पुष्टि 2014 के लोकसभा चुनाव में बनारस संसदीय क्षेत्र के राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय सियासत की चर्चा के केंद्र बिंदु में आने से हो जाती है. समकालीन राजनीति में भारत के सबसे ज्यादा आबादी और सबसे ज्यादा संसदीय क्षेत्र वाला राज्य होने के कारण देश की सक्रिय राष्ट्रीय पार्टियों एवं प्रादेशिक पार्टियों के आँखों का तारा बना हुआ है. क्योंकि राजनीतिज्ञों, बुद्धिजियों, और पत्रकारों द्वारा ऐसा माना जाता है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. इस लिहाज से उत्तर प्रदेश का 2017 का विधान सभा चुनाव अति महत्वपूर्ण है. चूँकि प्रदेश में दलित आबादी 22 से 25 फीसदी है. इसलिए कोई भी राजनैतिक दल इस तबके से मुँह नहीं मोड़ सकता है. सूबे में कई बार सत्ता सोपान का सुख भोग चुकी “बसपा” के रूप में दलितों की अपनी एक स्थापित पार्टी है. इस पार्टी के नेतृत्व (बहन जी) ने दलितों को अपनी एक अलग पहचान और मान सम्मान की जिन्दगी दिलायी है. अतीत के अनुभव हमें यहीं बताते हैं कि सूबे के दलित बहन जी के लगभग अटूट और खामोश सेनानी हैं. लेकिन ये बात 2014 के आम चुनाव के सन्दर्भ में उपयुक्त नहीं बैठती है. कांग्रेस विरोधी हवा और मोदीजी के जुमलों के साथ समाज के सारे तबकों का सहयोग भाजपा की भारी बहुमत का कारण रहा. उत्त्तर प्रदेश के सन्दर्भ में मोदी के पिछड़ा होने का और चाय बेचने वाला जुमला सिर चढ़ कर बोला. परिणाम स्वरुप बड़ी संख्या में पिछड़े एवं दलित समुदाय के लोगों ने खुल कर भाजपा को वोट दिया. सत्ता में आने के बाद ही भाजपा ने इस जनाधार को एक स्थायी सम्पति के रूप में संजोने की शुरुआत कर दी. इस मुहीम में आरएसएस द्वारा दलितों को अपने संगठन में शामिल करने का प्रयास तेज हो गया. परिणाम स्वरुप सरसंघचालक अनुसूचित जातियों के आरक्षण का समर्थन करने लगे, सार्वजनिक मंचो से बाबा साहब को अपना आदर्श बताने लगे, संघ के कार्यालय में महात्मा फूले, सावित्री बाई फूले और बाबा साहब की तस्वीर दिखने लगी. पांचजन्य में बाबा साहब के विचारों को जगह मिली. इससे भी आगे बढ़कर संघीय सरकार द्वारा दलितों की उद्यमशीलता  बढ़ाने हेतु “स्टैंड अप इंडिया” जैसी योजना की शुरुआत की गयी. राजनीति और खासकर इस लोकतान्त्रिक राजनीति में सबको संतुष्ट रख पाना असंभव है. पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों की जरूरतें बदल जाती हैं. दलित समाज की शिक्षित युवा पीढ़ी को अपनी जरूरतों के अनुसार सोशल मीडिया के प्रभाव में आकर दुसरे दलों की तरफ झुकने की ज्यादा सम्भावना थी. बहन जी के सामने भी ये चुनौती थी. 2014 के लोक सभा चुनाव में ऐसा ही हुआ. जिसके फलस्वरूप बहुत बड़ी संख्या में दलित समुदाय की युवा पीढ़ी ने भाजपा को वोट दिया. लेकिन मद्रास आईआईटी की घटना, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्म-हत्या, हरियाणा में दलितों के साथ अत्याचार पर राज्य सरकार की खामोशी ने आरएसएस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. खासकर रोहित वेमुला के मामले में भाजपा नेताओं कि संलिप्तता और इस मामले को जैसे-तैसे निपटाने की कोशिश से सरकार की मुश्किलें और ही बढ़ गयी. वेमुला एक दलित शोधार्थी था और जैसे ही उसकी स्कालरशिप बंद हुई उसे अपना जीवन जीना भी मुश्किल हो गया. फिर मजबूर होकर उसे ख़ुदकुशी करनी पड़ी. बाकी की कोर-कसर लखनऊ के बीबीएयू (बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर) केंद्रीय विश्वविद्यालय में माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा दी गयी असंवेदनशील भाषण ने पूरा कर दिया. इन सारी घटनाओं ने सन्देश दिया कि सरकार की कथनी और करनी में अंतर है. इससे भाजपा के सुशासन की पोल तो खुल ही गयी साथ मीडिया के द्वारा मानव संसाधन मंत्री सहित और भाजपा के अन्य नेताओं का नाम इस मामले में आया. जो जनता में सरकार के दलित विरोधी होने का सन्देश दिया. ईटी मगज़ीन और बिग डेटा फर्म मैविनमैगनेट की ऑनलाइन सर्वे से इस बात पुष्टि हो जाती है क्योंकि मोदी सरकार के दो साल के कार्य-काल में दलितों में आठ फीसदी नकारात्मक भावना पैदा हुई है. इसका असर प्रदेश के पंचायत चुनाव में भी दिखा और परिणाम स्वरूप लोक सभा में प्रचंड बहुमत पाने वाली भाजपा पहले पायदान से सीधे तीसरे पायदान आ गयी. यहीं नकारात्मक भावना, आगामी चुनाव में दलितों को दुसरे रास्तों की तलाश के लिए विवस करेगी. अभी हाल में बाबा साहब की 125 वी वर्षगांठ मनाई गयी और केद्र सरकार ने कई योजनाओं की शुरुआत करके अपनी दलित प्रेम की आस्था को दर्शाने की कोशिश की. एक जन सभा में अमित शाह जी तो यहाँ तक कह गये कि “सिर्फ नरेन्द्र मोदी सरकार में ही बाबा साहब के द्वारा बनाये गये संविधान और सबके विकास पर अमल हो रहा है.” ऐसा कह कर उन्होंने दलितों को गुमराह करने की कोशिश की. क्योंकि 26 जनवरी 2015 की परेड में जब बराक ओबामा मुख्य-अतिथि के रूप में भारत आये थे तो संविधान की प्रस्तावना से धर्म-निरपेक्ष (सेकुलरिज्म) शब्द ही गायब था. जबकि “धर्म-निरपेक्षता” देश के संविधान की मूल भावना में है. इसका खंडन भी भाजपा के आला नेताओं ने गलत तरीके से किया. फिर धर्म-निरपेक्षता की तरह “लोकतंत्र” भी संविधान की मूल भावना में है. बिना कोई शर्त और जाति-धर्म, जन्म के स्थान, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव किये बिना सबको व्यस्क मताधिकार का अधिकार देने वाले विलक्षण संविधान के साथ कैसे छेड़-छाड़ हुआ. अभी हाल में राजस्थान और हरियाणा के पंचायत चुनाव में क्या हुआ और क्यों हुआ? पंचायत में चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए एक निश्चित शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण करके इन राज्यों की राज्य सरकारें किसके विकास को प्रभावित करने का काम की हैं? और किसकों इस लोकतंत्र का हिस्सा बनने से रोकी हैं? इन राज्यों के नए कानून के कारण ढेर सारे दलित लोकतंत्र का हिस्सा बनने से वंचित हो गये. 2012 की जातिगत जनगणना साफ साफ बयां करती है कि सवर्णों की तुलना में दलितों और पिछड़ों का शैक्षणिक स्तर नीचे है. इस प्रकार नये कानून के तहत चुनाव करा कर हरियाणा और राजस्थान की सरकारें दलितों को लोकतंत्र का हिस्सा बनने से रोकी हैं और संविधान की मूलभावना से छेड़-छाड़ भी की हैं. फिर गुजरात के पंचायत चुनाव की कहानी लोकतंत्र का सरेआम क़त्ल करती हुई नजर आयी क्योंकि यहाँ तो विशेष अनुदान पाने हेतु “समरस” पंचायतों के गठन की बात हुई. ताकि सरपंचों की नियुक्ति बिना चुनाव हो संपन्न हो जाए. ऐसा करके गुजरात सरकार क्या करना चाहती थी? 21 वीं सदी में जहाँ समावेशी विकास की बात हो रही है. वहां दलितों को लोकतंत्र से दूर करके भाजपा की सरकारें क्या हाशिल करना चाहती थीं? इससे साफ जाहिर होता है कि देश के लिखित संविधान से दूर-दूर तक भाजपा का कोई वास्ता नहीं है. भाजपा “मनुस्मृति” के सहारे ही देश को चलाना चाहती है. उत्तर प्रदेश के दौरे में अमित शाह का दलित कार्यकर्ता के घर भोजन करना यहीं दिखाता है कि प्रदेश की 22 से 25 फीसदी दलित आबादी विधान सभा चुनाव में सिरकत करने वाली सभी पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है. यहीं भाजपा के भी आम्बेडकर, संविधान, और दलित प्रेम का राज है. हाल ही, गुजरात में अपने आप को गौरक्षक कहने वाले शिव सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा दलितों को पीटने की खबर लोगों तक आयी. घटना स्थल पर पहुँचने वाली गुजरात पुलिस गौरक्षकों को गिरफ्तार करने के बजाय दलितों को ही पशु अत्याचार विरोधी कानून के तहत मुक़दमा कायम किया. दलितों को पुलिस थाने पहुँचाने की जिम्मेदारी गौरक्षकों को सौप दी. बाद में पता चला कि गौरक्षक तीन घंटे तक गाड़ी में घुमा-घुमा कर दलितों को पीटते रहे. इससे गौरक्षकों और पुलिस-प्रशासन की सांठ-गांठ की खबर की पुष्टि हो जाती है. जिसके खिलाफ गुजरात के भिन्न-भिन्न जगहों पर दलित समुदाय के लोग अपने अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार, संवैधानिक मौलिक अधिकार और मान-सम्मान की लड़ाई के लिए सडकों पर उतरे. ये वही गुजरात है जिसके विकास के प्रारूप को राष्ट्रीय पटल पर रख भाजपा 2014 में प्रचंड बहुमत पाई थी. जो इस घटना के बाद पुरे भारत के लिए महज एक ढकोसला साबित हुआ. जिसके बाद उत्तर प्रदेश में दलित मजबूती के साथ बहन जी के साथ खड़े हुए. हरियाणा में एक ही परिवार की लड़कियों के साथ तीसरी बार बलात्कार की घटना ने इस मजबूती को बल देने का काम किया. बाकी की कोर-कसर भाजपा के पूर्व-प्रदेश उपाध्यक्ष दया शंकर सिंह उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का मोहन भागवत बनकर पूरा कर दिये हैं. अब स्थिति को संभलते-संभलते गंगा-यमुना में बहुत सारा पानी बह जायेगा. फिर भाजपा के पास पछताने के अलावा कुछ नहीं होगा. आने वाले पांच साल तक भाजपा के लोग इस बात को लेकर माथा-पची करते रहेंगे कि काश! दया शंकर सिंह ये बयान नहीं दिये होते. बलिया की ऐतिहासिक धरती से क्रांतिकारी पैगाम देने के चक्कर में भूल से ही सही दया शंकर सिंह अपनी सामंती सोच को सुस्पष्ट कर दिये हैं. इस घटना ने उनके सामंती सोच को तो प्रकट किया ही है साथ ही बलिया के बारे में कुछ गलत संदेश भी लोगों के बीच दिया है. इस बात की चर्चा बहुजन आन्दोलन से जुड़े कई लोगों ने की. लेकिन लोगों को ध्यान देना चाहिए दया शंकर सिंह बलिया नहीं हैं, और बलिया दया शंकर सिंह नहीं है. किसी एक घटना से किसी जगह और समुदाय को आंकना ठीक नहीं है. इसमें कोई दो राय नहीं स्वामी प्रसाद मौर्या और आर के चौधरी के पार्टी छोड़ने के बाद बसपा बेक-फूट पर थी. पर दया शंकर सिंह बसपा को एक नई वायु प्रदान कर दिये हैं. इस घटना के बाद प्रदेश भर में बसपा कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रिया से स्थिति साफ़ हो गयी कि सूबे का दलित समाज अत्यंत मजबूती के साथ अपनी नेत्री के साथ खड़ा है. भाजपा केपी मौर्या और अनुप्रिया पटेल जैसे पिछड़े वर्ग के नेताओं को सक्रिय करके मतदाताओं को जातिगत आधार पर मोड़ने शुरुआत की थी. लेकिन दयाशंकर सिंह के बयान के बाद भाजपा की जो चहु ओर आलोचना हुई. इससे साफ़ जाहिर होता है इस बयान से पिछड़े वर्ग के मतदाताओं में भी नाराजगी है. राजनैतिक सत्ता ही सामाजिक बदलाव की कुंजी है. बाबा साहब के दर्शन की अच्छी समझ के नाते और कांशीराम जी के निकटवर्ती होने के नाते ये बात बहन जी को बखूबी मालूम है. एक कुशल नेत्री और कुशल प्रशासक होने के नाते वे इस मौके का लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी. दिल्ली से लेकर लखनऊ तक बसपा के कार्य-कर्ताओं का अपने नेता के साथ खड़ा होना उसी का नतीजा है. ऐसी स्थिति में दलित मतदाता जितनी मजबूती के साथ अपनी नेत्री के साथ खड़ा रहेगा उतनी ही तीव्र गति से अल्प-संख्यक मतदाताओं का ध्रुवीकरण होगा. क्योंकि अल्प-संख्यक मतदाता उसी पार्टी को वोट देंगे जो भाजपा को सत्ता से दूर रखने में सबसे आगे होगी. दया शंकर सिंह के बयान के बाद बसपा के साथ जूड़ी लोगों की सहानुभूति और उमड़े जन-सैलाब के कारण बसपा की तरफ अल्प-संख्यक मतदाताओं के मुड़ने की संभावना ज्यादा हो गयी है क्योंकि अंक-गणित के इस खेल में बसपा सबसे आगे है. और वैसे तो राजनीति अपनी अनिश्च्तिता व गतिशीलता के लिए जानी जाती है, जिसके व्याकरण और समीकरण के बदलने की संभावना सदैव बनी रहती है. स्वामी प्रसाद मौर्या और आर के चौधरी के पार्टी छोड़ने के कारण बसपा की मुश्किलें थोड़ी बढ़ी थी. लेकिन इस घटना ने पार्टी और बसपा कार्य-कर्ताओं में एक नई जान डालने का काम किया है. जिसके चलते बसपा प्रारंभिक दौर में अपने प्रति-द्वंदियों से आगे नजर आ रही हैं. लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजकार्य विभाग में शोधार्थी हैं.

लेखिका अनिता भारती को मिलेगा सावित्रीबाई फुले वैचारिकी अवार्ड

नई दिल्ली। दलित लेखिका अनिता भारती को सावित्रीवाई फुले वैचारिकी अवार्ड से सम्मानित किया जाएगा. यह अवार्ड उनकी किताब “समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री के प्रतिरोध” के लिए मिलेगा है. यह अवार्ड उन्हें “नागपुर महिला सम्मेलन के 75 साल बाद” कार्यक्रम में दिया जाएगा. यह कार्यक्रम बाबा साहेब आम्बेडकर की विचारधारा और कार्यपद्धति पर आधारित है. इस कार्यक्रम का आयोजन स्त्रीकाल (स्त्री का समय और सच), आदिवासी साहित्य और यूनाइटेड ओबीसी फोरम द्वारा आयोजित किया जा रहा है. यह कार्यक्रम 29 जुलाई 2016 को जेएनयू में स्कूल ऑफ सोशल साइंस विभाग में होगा. अनिता भारती दलित मुद्दे पर लिखने वाली चर्चित लेखिका हैं. अनिता भारती दलित मुद्दे से जुड़ीं कविता और कहानी लिखती हैं. उन्होंने “अभिमूकनायक” और “स्त्री नैतिकता का तालिबानीकरण” (अतिथि संपादक) का संपादन भी किया है. लेखिका अनिता भारती को राधाकृष्णन शिक्षक पुरस्कार, इंदिरा गांधी शिक्षक सम्मान, दिल्ली राज्य शिक्षक सम्मान, विरसा मुंडा सम्मान, वीरांगना झलकारी बाई सम्मान मिल चुका है.

उना घटना से नाराज 1000 दलित अपनाएंगें बौद्ध धर्म

उना। गुजरात के उना में दलितों की पिटायी के मद्देनजर बनासकांठा जिले में दलित समुदाय के कम से कम 1000 लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाने की इच्छा जतायी है. उनका कहना है कि यदि उनसे बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाए तो हिंदू धर्म में रहने का कोई मतलब नहीं है. दलित समुदाय के इन सदस्यों ने फार्म भरा है, जिसमें उन्होंने धर्मांतरण के लिए अपनी सहमति दी है. इस फार्म को जल्द ही सरकार के अधिकारियों को सौंपा जाएगा. इस बीच विभिन्न दलित संगठनों ने यहां 31 जुलाई को समुदाय की एक रैली आयोजित करने का निर्णय किया है, जिसमें उनके आंदोलन के आगे की रूपरेखा तय की जाएगी. स्थानीय दलित नेता एवं बीडीएस सचिव दिनेश मकवाना ने कहा, उना घटना को लेकर पूरे राज्य के दलित काफी दुखी हैं. यह दिखाता है कि उनसे अभी भी भेदभाव और जाति, धर्म और पेशे के नाम पर विभिन्न अत्याचार होते हैं. इसलिए बनासकांठा से कई दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाने की इच्छा जतायी है. उन्होंने कहा, गत तीन दिनों के दौरान यहां प्रदर्शन रैलियों में हजारों दलितों ने हिस्सा लिया. बैठकों में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यदि उनसे बराबरी का व्यवहार नहीं हो तो हिंदू धर्म में रहने का कोई अर्थ नहीं है. इसलिए उन्होंने दलितों में फार्म वितरित किये, जो धर्म बदलना चाहें. अभी तक हमारे पास ऐसे 1000 फार्म आये हैं.

कहानीः परिवर्तन की बात

अरे किसना ओ किसना सुबह-सुबह रघु ठाकुर  आवाज लगाता किसना के घर आ धमका। किसना हड़बड़ा कर चारपाई से उठा और आंखें मलते हुए घर से बाहर निकला। उसने समाने रघु ठाकुर को खड़े पाया। किसना कुछ कहे कि ठाकुर  स्वयं बोला- “किसना भैया, कल रात हमारी गैया मर गई।” “कैसे मर गई ठाकुर?” किसना ने आश्चर्य से पूछा। “कुछ पता न चल सका, कल संध्या में तो दूहा था उसे। लगता है रात की ठण्ड उसे खा बैठी।” ठाकुर ने किसना से कहा। “तो मैं क्या करूं?” उसे उठा कर फेंक आ और जो खाल-वाल उतारनी है सो उतार ला।” किसना ने एर बार ठाकुर की ओर देखा और बिना कुछ कहे मुड़ कर अपने घर की ओर चल दिया। ठाकुर ने किसना से ऊंची आवाज में कहा कि वह जल्दी से अपना काम निपटा आ। उधर ठाकुरों के मुहल्ले में गाय मर जाने के पर तरह-तरह की बातें हो रही थीं। ठाकुर हरप्रसाद ने रघु के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा। “रघु तुम्हारी गाय मर गई, मुझे बहुत दुख हुआ है लेकिन एक तरह से अच्छा ही हुआ। चारा खाती थी पंसेरी और दूध बस छटांक भर।” “कह तो ठीक रहे हो, मेरा दिमाग खराब था कि रामू की मां के कहने पर खरीद ली, वरना गाय इस युग में किस काम की?” “यह पशु तो फालतू का बन कर रह गया है। इसकी उपयोगिता अब रही कहां? इसके बछड़े बड़े होकर बैल बनते थे। अब नई-नई तकनीक के आने से खेती के कामों में बैलों का महत्व भी नहीं रहा।” ठाकुर हरप्रसाद ने कहा। “फिर भी भैया गाय है तो गऊ-माता।” रघु ठाकुर ने मरी गाय की ओर देखते हुए कहा। “अरे कैसी गऊ-माता? भैंस माता कहो अब तो।” हरप्रसाद ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए फिर कहा- “भैंस अधिक दूध देती है, भला गाय कहां ठहरती हैं भैंस के आगे।” गाय ने ठाकुरों के कुएं के पास ही दम तोड़ दिया था। ठाकुरों का पूरा मौहल्ला पानी भरने के लिए तरस रहा था। ठकुराइनें रह-रह कर मरी गाय कोस रही थीं। उनमें से एक ने मरी गाय की ओर थूकते और अपनी साड़ी के पल्लू से नाक ढंकते हुए कहा- “नासपीटी ने यहीं मरना था, कहीं दूर जाकर मरती।” रातभर गाय का शरीर फूल कर दोगुना हो गया था। लोगों ने अपने मुंह और नाक कपड़ों से ढंके हुए थे। समय निकला जा रहा था। रघु ठाकुर को अब बैचेनी होने लगी थी। उसके चेहरे पर कई भाव आ रहे थे। “साले चमरा के घर मैं खुद चल कर गया। फिर इतनी देर लगा रहा है आने में।” ठाकुर मन ही मन बड़बड़ा रहा था। “आजकल इन साले चमारों के नखरें ज्यादा ही हो गए हैं।” हरप्रसाद ने रघु की ओर देखते हुए कहा। “इसलिए तो मैं खउद चलक र उस ढेड़ से कह कर आया था, लेकिन उस साले की यह मजाल।” ठाकुर ने दांत पीसते हुए कहा। सभी की नजरें उधर ही लगी हुई थी, जिधर से किसना को आना था। उधर से आहट होती, तो सभी शुतरमुर्ग की तरह ऊंची गर्दन करके देखते और सोचते- “शायद किसना ऐ रहा है” सूरज सिर पर चढ़ आया था, लेकिन किसना का दूर-दूर तक पता नहीं था। रघु ठाकुर ने बड़े बेटे रामेसर को दो बार किसना के घर उसे अपना काम याद दिलाने के लिए भेजा।  रामेसर दोनों बार अपना-मुंह लेकर लौट आया। ठाकुर के चेहरे का रंग उड़ा  हुआ था। सर्दी के दिनों में उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें साफ नज़र आ रही थी। “अब क्या होगा?” किसना समय रहते नहीं आया, तो गाय की देह से बू आने लगेगी। ठाकुर सोच कर परेशान हो उठा था। गली के कुत्ते भी अवसर की तलाश में बैठे थे। भला कौन करे इतनी देर कर देखभाल। बस सड़ांध  बिखरने ही वाली थी। रघु ठाकुर अपने बेटे रामेसर व हरप्रसाद को लेकर किसना के चल दिया। लाठी उसकी मजबूत मुट्ठी में थी। उसने किसना को चारपाई पर बैठे देखा। किसना के तन-बदन में आग लग गई। उसने लाल-लाल आंखें दिखाते हुए किसना से कहा- “मैं खुद तुझे गैया के मर जाने की सूचना देकर गया। दो बार रामेसर ने भी आकर तुझे याद दिलाई, लेकिन तेरे कानों पर जूं तक न रेंगी।” ठाकुर ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए फिर कहा- “चल जल्दी कर ,देख दिन गरमाने लगा है। कहीं ऐसा न हो कि गाय के शरीर से सड़ांध उठने लगे।” किसना निडर होकर ठाकुर की बातें सुने जा रहा था। उसने ठाकुर की ओर देखा ओर गला खंखारते हुए बोला- “ठाकुर, मैंने मरे जानवर उठाना बंद कर दिया है।” ठाकुर किसना के मुंह से ये शब्द सुन कर हैरान था। उसने किसना की बात अनसुनी करते हुए कहा- “भैया हम और हमारे बच्चे पानी पने को भी तरस गए। गाय कुएं के पास मरी पड़ी हैं। चल जल्दी कर।” “ठाकुर, मैंने और मेरे मुहल्ले के सभी लोगों ने मरे जानवर उठाना बंद कर दिया।” इस बार किसना के स्वर में तेजी थी। ठाकुर की भौंहें तन गई थी। उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने इधर-उधर देखा। किसना के मुहल्ले के सभी लोग एकत्र हो चुके थे। ठाकुर ने अपने गुस्से पर काबू पाते हुए किसना से कहा- “किसना तुझे क्या हुआ है? किस नालायक ने भड़काया है तुझे?” “किसी ने नहीं।” “तो फिर  क्यों नहीं उठाएगा मरी गाय? रही मेहनत -मजदूरी की बात, सो तू जो मांगेगा, हम दे देंगें। चल जल्दी कर।” “नहीं।” “साले, मारे लठिया के घुटने तोड़ दूंगा।” रघु ठाकुर  ने किसना को धमकाते हुए कहा। किसना के मुहल्ले वालों ने भी स्पष्ट शब्दों में ठाकुर की मरी गाय उठाने से मना कर दिया। सभी का स्वर किसना के स्वर में मिला हुआ था। “ठाकुर साहब, अब समय बदल रहा है। क्या आप नहीं चाहते की समय के साथ हम भी बदलें।” “तुम्हीं तो मरे जानवर उठाने का काम करते आए हो। तुम नहीं करोगें, तो कौन करेगा इस काम को?” ठाकुर हरप्रसाद बीच में बोला। “कोई भी करें, अब हम नहीं करेंगे।” किसना ने उत्तर दिया।” “देख रे किसना, बात को लम्बी न बढ़ा। हमसे दुश्मनी लेकर अच्छा न होगा। पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर।” रामेसर ने किसना को लट्ठ दिखात हुए कहा। ठाकुर हरप्रसाद ने कुर्ते की बाजू चढ़ाते हुए कहा- “हमें समय बदलने की बात मत समझा। समय का रूख बदलना हम अच्छी तरह से जानते हैं। यदि अपना और अपने परिवार का भला चाहता है, तो जल्दी से चल कर अपना काम निपटा आ।” किसना और उसके मुहल्ले के लोग आज तय करके बैठे थे, उन्होंने मन में ठान ली थी जीना है तो शान से, वरना मौत ही भली। किसना ने सीधे-सीधे शब्दों में उनसे फिर कहा- “तुम्हारे मरे जानवर हम नहीं उठाएँगें, जो करना है सो करो।” रामेसर का खून खौल गया किसना की बातें सुन कर। उसने किसना के ऊपर लाठी उठाते हुए कहा- “साले, चमारों का लीडर बनने चला है।” ठाकुर हरप्रसाद ने रामेसर की लाठी पकड़ते हुए कहा कि चल कर पुलिस थाने में किसना के विरूद्ध रिपोर्ट दर्ज करवाएँ. रघु ने सोचा कि खून-खराबा करने से अच्छा है कानूनी कार्रवाई की जाए। वे तीनों मजा चखाने की धमकी देते हुए पास के थाने में उसके विरूद्ध रपट दर्ज कराने चले गए। लगभग दो घण्टों बाद एक पुलिस जीप किसना के घर आकर रूकी। जीप से उतरते हुए थानेदार ने हाथ में डण्डा घुमाते हुए किसना से पूछा- “क्यों रे, तू गाय क्यों नहीं उठा रहा? क्या इन्होंने तुझे मजदूरी देने से मना किया?” “नहीं साहब, मजदूरी की बात नहीं है।” “तो फिर क्या परेशानी है तुझे?” “थानेदार साहब, हमने फैसला किया है की मरा जानवर उठाने का काम नहीं करेंगे।” किसना ने थानेदार के सामने निर्भीकता से अपने विचार रखे। किसना की निर्भीकता पर थानेदार हैरान था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि एक चमार उसके सामने इस तरह से बात करेगा। किसना की बातें सुन कर थानेदार के माथे पर सलवटें  उभर आई थीं। उसने खींच कर डण्डा किसना के दोनों हाथों पर दे मारा। किसना दर्द के मारे कराह उठा। थानेदार ने आंखों दिखाते हुए उससे कहा- “सालों, तुम लोग गांव की व्यवस्था बिगाड़ना चाहते हो!” थानेदार ने गांव की व्यवस्था बिगाड़ने के जुर्म में उसे थाने में बंद करने की धमकी दी। रघु ठाकुर ने थाने की तर्ज पर अपनी बात कही- “साले चमरा के तू नहीं उठाएगा मरे जानवर तो क्या हम उठाएंगें?” थानेदार ने तिरछी नजर से ठाकुर को देखा और उसे शांत रहने को कहा। थानेदार किसना से कुछ कहे कि उससे पहले किसनी ही बोला-“क्या आप यही चाहते हैं कि हम जीवन भर गांव के मरे जानवर ही उठाते रहें। अब समय बदल रहा है, लोग अपना  पुश्तैनी धन्धा छोड़ कर दूसरे कार्य करने लगे हैं। हम दूसरा अन्य कोई भी काम कर अपना पेट भर लेंगे, लेकिन मरा जानवर हम नहीं उठाएंगें।” “किसना, तेरी अकल क्या चारा… इतने वर्षों से तुम.. भला कौन…” “साहब क्या आप नहीं चाहते कि हम अपना यह धन्धा छोड़ कर कोई और धन्धा करें… क्या हम सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत नहीं कर सकते।” वार्तालाप थाने और किसना के बीच चल रहा था, लेकिन बातों का असर रघु ठाकुर पर हो रहा था। ठाकुर की समझ में बातें कुछ-कुछ बैठ रही थी। उसने तुरन्त पैंतरा बदलते हुए किसना से कहा- “किसना भैया, मरी गाय उठाना तो पुण्य का काम है। मरा कुत्ता या बिल्ली होती, तो और बात थी। फिर गाय तो गऊ-माता कहलाती है।” “वही मैं सोच रहा हूं कि गाय को गऊ-माता कहते है, परन्तु माता की यह कैसी दुर्गति? वाह! यह कैसी मात है तु्म्हारी?” किसना ने ठाकुर की चाल को समझते हुए कहा। रघु ठाकुर किसना की बातें सुन कर बौखला गया। वह आपे से बाहर हो गया था। उसने आनन-फानन में लाठी किसना पर चली दी। किसना चौकन्ना था। वह लाठी ता वार बचा गया। थानेदार ने बीच में आकर ठाकुर को रोका। ठाकुर की इस हरकत पर किसना भी गुस्सा गया। उसने भी ठाकुर के ऊपर लाठी तान दी। उसके दूसरे साथी भी भाग कर अपने घरों से लाठी और बल्लम ले आए। थानेदार ने सभी को धमकाते हुए कहा कि यदि आपस में झगड़ा किया, तो दोनों पक्षों को थाने में बन्द कर दिया जाएगा। थानेदार ने डरा-धमका कर दोनों पक्षों को शान्त कराया। ठाकुर, किसना से मरी गाय उठाने की जिद किए जा रहा था। किसना ने देखा कि ठाकुर जिद पर अड़ा हुआ है, मह मानेगा नहीं, तो उसने ठाकुर से झल्ला कर कहा- “ठाकुर, हम तुम्हारी गाय उठाने को हैं। बस एक शर्त है, बोलो मानोगो?” थानेदार भी सोचने लगा कि चलो किसी तररह से गुत्थी सुलढ जाए। “अरे, हम तो तेरी हरेक शर्त मानने को तैयार हैं। तू अपना मुंह तो खोल …क्या कहना चाहता है?” ठाकुर  हर प्रसाद ने किसना से कहा। “गाय गऊ-माता… और पूजनीय…” “हां गऊ-माता… और पूजनीय…” “हां भैया किसना, हम सभी गाय को गऊ-माता कहते हैं और उसकी पूजा भी करते हैं। हमारे धर्म में तो जो स्थान अपनी मां का होता है, वही स्थान गाय का है। गाय गऊ-माता है भैया गऊ-माता।” रघु ने गऊ-माता शब्द को जोर देते हुए कहा। “अच्छा!” “हाँ भैया, गाय और अपनी माता में कोई फर्क नहीं होता।” “तो तुम इसका माँ की तरह दाह-संस्कार क्यों नहीं करते?” हाँ फिर तुम चाहो, तो हम सब उसे कन्धा देंगें।” किसना ने ठाकुर से कहा। “तेरी तो बहन की,… साले खाल खींचा, यदि एक भी शब्द और आगे कहा तो पूरी लाठिया मुंह में घुसेड़ दूंगा। तुम हमारी माँ को कन्धा दोगे? रघु ठाकुर ने लाठिया हवा में घुमाते हुए कहा। थाने अवाक और असहाय किसना के मुंह की ओर देखे जा रहा था। रघु ठाकुर, हर प्रसाद व रामेसर पैर पटकते और समय कैसे बदलता है, हम देख लेंगे की धमकी देते हुए अपने-अपने घर चले गए। थानेदार की पुलिस जीप भी धूल उड़ाती हुई किसना के घर से दूर जा चुकी थी। किसना और उसके मुहल्ले के लोगों में एक अजीब तरह की दहशत फैल गई थी। वे सभी सोच रहे थे- “न जाने गांव के ठाकुर मिल कर हमारे साथ क्या कर बैठें?” किसना तो उस रात ठीक से सो भी न सका। उसके मन में रह-रह कर सवाल उठ रहे थे। वह सोचने लगा- “ठाकुरों से झगड़ा मोल लेकर अच्छा नहीं किया। यदि मरी गाय फेंक भी आता तो क्या जाता।” दूसरे पल सोचता- “मैंने ठीक ही कदम उठाया है, मटनपुर गांव के हमारे लोगों ने भी को इसी तरह का कदम उठाया था। तभी तो उस गांव के चमार इस काम से छुटकारा पा सके।” यह सोचते-सोचते न जाने कब उसकी आंख लग गई। सुबह जब उसकी आंख खुली तो उसने देखा की मुहल्ले के सभी लोग भीड़ लगा कर हताश और निराश उसके घर के सामने खड़े हैं। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। मानो सांप सूंघ गया हो। किसना किसी से कुछ पूछे कि उससे पहले ही उसकी नजर कांटेदार तारों की बाड़ पर पड़ी। वह देख कर दंग रह गया। उसके और उसके मुहल्ले के अन्य परिवार के घरों के चारों ओर कांटेदार तारों की मजबूत बाड़ खींची हुई थी। इसन सभी का आने-जाने का रास्ता ठाकुरों की जमीन से होकर गुजरता था। रघु ठाकुर हाथ में लट्ठ लिए दूर खड़ा-खड़ा कुटिल मुस्कान के साथ कह रहा था- “सालो चमारों, समय परिवर्तन की बात करते हो। हम भी देखते हैं तुम्हारा समय कैसे बदलता है। अब घरो में हगो और मूतो।”

हथियार उठाने को तैयार हैं गुजरात के दलित

गुजरात। गुजरात के उना में दलितों पर हुए अत्याचार के बाद से दलित समाज के लोग बंदूक के लिए आवेदन कर रहे हैं. गुजरात के सुरेन्द्र नगर में दलितों द्वारा किया गया अहिंसक हथियार आंदोलन ने जितना राष्ट्र की दृष्टि को अपनी ओर आकर्षित किया, उसके मुकाबले मोरवी के दलितों द्वारा बंदूकों के लिए किया गया आवेदन पूरी तरह से लोगों के सामने नदारद रहा. लेकिन इसमें दलित उत्पीड़न से निजात के जितने भरपूर तत्व हैं, उसे देखते हुए इसे बहस का बड़ा मुद्दा बनना चाहिए था. खैर! मोरवी के दलितों ने आग्नेयास्त्र की मांग उठा कर एक नयी जमीन तोड़ने का प्रयास किया है. मोरवी के दलितों ने दलित परंपरा और सवर्णो का हथियार पर स्वामित्व जमाने की नीति को चुनौती दी है. आखिर दलित भी इंसान है. उन्हें भी अधिकार है अपनी रक्षा करने का. क्यों सवर्ण ही बंदूक रखें. दलितों को भी खतरा हो सकता है किसी से. मोरवी के दलितों का कहना है कि सवर्णों को किससे खतरा है, वो तो पहले से ही शक्तिशाली है, उन्हें हथियार की आवश्यकता क्यों है? जरूरत तो हमें है, क्या पता कब कोई सवर्ण आकर हम पर रोब झाड़ने लगे. हमें मारने पीटने लगे. जैसा उना में हुआ. आखिर कब तक हम ऐसे ही पिटते रहेंगें. एक अन्य मोरवी दलित ने कहा कि हम पिट जाते, पुलिस आरोपियों कोई कार्रवाई नहीं करती. हम रिपोर्ट लिखवाने जाते है, तो उल्टा हमें ही मार कर भगा देती है. जब पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं करेगीं तो मामला अदालत में नहीं जाता. सरकार तो पहले से ही दलितों को हितेषी नहीं है. तो फिर, दलित किससे अपनी सुरक्षा की उम्मीद करें? हमें अपनी सुरक्षा के लिए हथियार चाहिए. और हर दलित को अपने पास एक हथियार रखना चाहिए, जिससे कोई भी सवर्ण दलितों का अनुचित फायदा न उठा सकें.

फूलन देवी शहादत दिवसः जानिए एक विद्रोहिणी की कहानी

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आप उस दर्द को महसूस करिए जब एक खास राजपूत समुदाय के कई लोगों ने तकरीबन 15 साल की एक लड़की के साथ बलात्कार किया होगा. इस तरह के दर्द और जलालत को झेलने के बाद आप क्या करते, शायद वही जो फूलन देवी ने किया. उन्होंने लाइन में खड़ा कर 22 ठाकुरों को गोलियों से भून डाला. हालांकि फूलन देवी ने इस घटना को कभी स्वीकार नहीं किया. फूलन देवी का जन्म 10 अगस्त 1963 को उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के एक छोटे से गांव गोरहा का पूर्वा में निषाद (मल्लाह) जाति के देवीदीन और मूला देवी के घर हुआ. जब फूलन 11 साल की हुई, आर्थिक तंगी की वजह से उसकी शादी उससे उम्र में कई साल बड़े एक आदमी से करवा दी गई. आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि यह शादी एक गाय के बदले कर दी गई. अपने पति के रवैये से तंग आकर फूलन ने पति का घर छोड़ दिया और वापस मां-बाप के पास आकर रहने लगी. मायके आने पर घऱवालों ने भी उनका साथ नहीं दिया. हालात ऐसे बने कि गांव के ठाकुरों की नजर अकेली फूलन को देखकर खराब होने लगी. जब फूलन तकरीबन पंद्रह साल की थी तो ठाकुरों के एक गैंग ने फूलन देवी को जबरन उठा लिया और दो हफ्ते तक बारी-बारी से उसका बलात्कार करते रहे. इस अपमान और पीड़ा से गुजरी फूलन ने इस अपमान का बदला लेने की खातिर समाज से विद्रोह करते हुए बीहड़ की तरफ चली गई. बीहड़ में बागियों से जुड़ने के बाद फूलन ने धीरे-धीरे खुद का एक गिरोह बना लिया. सन् 1980 के दशक में वह चंबल के बीहड़ों मे सबसे खतरनाक डाकू मानी जाती थी. सन् 1981 में वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में तब आई, जब उसने ऊंची जातियों के बाइस लोगों को एक साथ गोली मार दी. फूलन देवी की छवि राबिनहुड की थी. उन्हें गरीबों का पैरोकार माना जाता था. उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीहड़ों में सक्रिय फूलन देवी को पकड़ने के लिए इन दोनों जगहों की सरकार और प्रतिद्वंदी गिरोहों ने बहुत कोशिश की लेकिन वो सफल नहीं हो सके. इस बीच फूलन का नजदीकी साथी विक्रम मल्लाह मारा गया; जिसके बाद फूलन कमजोर पड़ने लगी. फूलन भी भागते भागते बीहड़ की जिंदगी से ऊबने लगी. हालांकि उनको डर था कि आत्मसमर्पण करने की स्थिति में पुलिस उनको और उनके साथियों को कहीं मार न दे और उनके परिवार के लोगों और समर्थकों को नुकसान ना पहुंचाए. कांग्रेस की सरकार में उन्होंने मध्य प्रदेश के तात्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की उपस्थिति में 12 फरवरी 1983 को इस समझौते के तहत अपने दर्जन भर समर्थकों के साथ आत्म समर्पण कर दिया कि उनको मृत्यु दंड नहीं दिया जाएगा. उनके आत्म समर्पण के समय उनके हजारों समर्थक मौजूद थे. जेल में रहते हुए ही फूलन देवी ने बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन हार गई. बिना मुकदमा चलाए फूलन देवी ने 11 साल तक जेल में बिताया. सन् 1994 में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने उन्हें जेल से रिहा कर दिया. उन पर ‘बैंडीट क्वीन’ नाम से एक फिल्म भी बनी, जिसने उन्हें काफी प्रसिद्धी सहानुभूति दिलाई. अपनी रिहाई के बाद फूलन देवी ने धम्म का रास्ता अपनाते हुए बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया. उन्होंने एकलव्य सेना का भी गठऩ किया. उन्होंने राजनीति की राह ली और उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से सांसद चुनी गईं. वह दो बार सांसद रही. सन् 2001 में केवल 38 साल की उम्र में दिल्ली में सरकारी आवास के बाहर ही 25 जुलाई 2001 को फूलन देवी की हत्या कर दी गई. फूलन देवी के हत्यारे ने इस हत्या को ठाकुरों की सामूहिक हत्या का बदला कहा. फूलन देवी के जीवन संघर्ष को विदेशों में भी सलाम किया गया. ब्रिटेन में आउटलॉ नाम की एक किताब प्रकाशित हुई है जिसमें उनके जीवन के कई पहलुओं पर चर्चा की गई है. फूलन देवी को मिली जेल की सजा के बारे में पढ़ने के बाद लेखक रॉय मॉक्सहैम ने 1992 में उनसे पत्राचार शुरू किया. जब फूलन देवी ने उनके पत्र का जवाब दिया तो रॉय मॉक्सहैम भारत आए और उन्हें फूलन देवी को करीब से जानने का मौका मिला. बीबीसी के साथ बातचीत में लेखक रॉय ने फूलन देवी के साथ अपनी दोस्ती को याद करते हुए कहा था कि उन्होंने जिंदगी में बहुत कुछ सहा, लेकिन इसके बावजूद फूलन देवी बहुत हंसमुख थी. वे हमेशा हंसती रहती थी, मजाक करती रहती थीं. हालांकि उन्होंने अपना बचपन गरीबी में गुजारा. मुझे लगता है कि वे गलत न्यायिक प्रक्रिया का शिकार हुई. उन्हें नौ साल जेल में बिताने पड़े. लेखक रॉय मॉक्सहैम का यह भी कहना है कि जेल से रिहा होने के बाद जब फूलन देवी सांसद बन गई तो उनमें अन्य नेताओं वाले कोई नाज नखरे नहीं थे. एक बार मैं उनके घर गया तो वे अपना फ्लैट खुद साफ कर रही थीं क्योंकि उन्होंने नौकर रखने से इनकार कर दिया था. वे कहते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं कि फूलन देवी एक हीरो थीं. सन् 2011 में प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर प्रकाशित अपने अंक में फूलन देवी को इतिहास की 16 सबसे विद्रोही महिलाओं की सूची में चौथे नंबर पर रखा. इस अंक में टाइम मैगजीन ने फूलन देवी के बारे में लिखा कि उन्हें भारतीय गरीबों के संघर्ष को आवाज देने वाले के रूप में याद किया जाएगा.

बाइक पर बाबा साहेब की फोटो देख भड़के लोग, 25 लोगों ने की दलितों की पिटाई

मुंबई। गुजरात में दलितों की पिटाई का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ है कि अब महाराष्ट्र में भी ऐसा ही मामला सामने आया है. यहां बीड़ जिले के माजलगांव तहसील के विडे गांव में रविवार को दो दलित युवकों की बेरहमी से पिटाई की गई है. आरोप है कि बाइक ओवरटेक करने को लेकर दो दर्जन से ज्यादा युवकों ने दलितों की पिटाई कर दी. दोनों के शरीर पर गहरी चोट के निशान हैं. पीड़ित व्यक्ति ने बताया कि मेरी बाइक पर बाबा साहेब की फोटो थी. उन लोगों ने मेरी गाड़ी के आगे कट मारकर रोक दिया और फिर मुझे मारने लगे. उन्होंने बेल्ट और मुक्कों से मेरी पिटाई की. साथ ही कई गालियां भी दी. मारपीट से आकाश और मयूर की पीठ की त्वचा उधड़ गई है. बदन पर चोट के निशान गहरे हैं. फिलहाल पुलिस ने कार्रवाई करते हुए आरोपियों के खिलाफ कई धाराओं में केस दर्ज कर लिया है. हालांकि, आरोपी अभी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं. पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक तीन मोटरसाइकिलों पर सवार होकर मयूर और आकाश के चार और दोस्त बीड़ के सावरगांव में घूमने निकले थे. एक पेट्रोल पंप पर कुछ गाड़ियों को ओवरटेक करना उन्हें महंगा पड़गा. दोनों का आरोप है कि कुछ सर्वणों को यह बात नागवार गुजरी. 25-30 लोग इकठ्ठे हुए और सारे दोस्तों को बुरी तरह पीटा. चार दोस्तों ने शिकायत दर्ज नहीं कराई, लेकिन आकाश और मयूर थाने पहुंचे. पुलिस ने आईपीसी की विभिन्न धाराओं के अलावा दलित उत्पीड़न के तहत भी मामला दर्ज किया है. बीड़ के डीएसपी हरि बालाजी ने बताया कि 6 लड़के माजलगांव से साबरगांव गए थे. उनका कहना है कि 25-30 लोग आए, उन्हें बुरी तरह मारा. ज्यादा जख्म नहीं हैं, इनके साथ और चार लोग थे लेकिन उन्होंने स्टेटमेंट नहीं दिया है. हमने जांच शुरू कर दी है, लेकिन फिलहाल आरोपी नहीं मिले हैं.

आखिर दलितों के घर क्यों जाते हैं सवर्ण नेता

हमारा देश जाति प्रधान देश है. देश में 4 वर्ण हैं, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में बंटा हुआ है. ब्राह्मण और क्षत्रिय सवर्ण यानी उच्च जाति के खुद को मानते हैं, जबकि शुद्र मतलब अनुसूचित जाति जनजाति यानी दलित समाज को ब्राह्मण व क्षत्रिय सबसे निम्न जाति के मानते हैं. सदियो से सवर्ण दलितों को समाज की मुख्यधारा के अलग-थलग किये हुए हैं. आजादी से पहले दलितों को शिक्षा के अधिकार के भी वंचित रखा गया था. ताकि दलितों में चेतना न पैदा हो और जीवन स्तर न सुधर सके. जमीन और अधिकारों से वंचित दलित समाज पूरी तरह से सवर्णों का गुलाम था. शुरूआती दौर में दलित समाज इस गुलामी को स्वीकार कर लिया था. उसे लगता था कि भगवान ने उन्हें सवर्णों की सेवा करने के लिए ही पैदा दिया है और सेवा करना ही उनका परम धर्म है. यदि भक्ति भाव के सवर्णों की सेवा नहीं किये तो भगवान उन्हें माफ़ नहीं करेगा और नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी. उस दौर में पंडितों ने अंधविश्वास का दलितों में इस तरह खौफ पैदा कर दिया था की दलित समाज हर कदम पर देवी देवताओं से डरते रहते थे. दलित समाज सपनों में भी नहीं सोच सकते थे कि उनसे कोई  गलती हो, जिससे भगवान उनसे नाराज हो जाए. लेकिन समय के साथ दलितों में चेतना आने लगी. जब हमारे देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठने लगी और देश के लोग आजादी के लिए क्रांति करने लगे तब दलित समाज में तेजी से जागरूकता आने लगी. क्योंकि शुरुआत में सवर्णों ने ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई. गुलाम दलित इस क्रांति के बारे सोचने लगा. उसने पाया कि सवर्ण इसलिए अंग्रेजों को भगाना चाहते है, क्योंकि सवर्णों का अधिकार छिन गया है. सवर्ण हम पर हुकूमत करते हैं और अंग्रेज सवर्णों पर. दलितों ने देखा कि जो सवर्ण अंग्रेजों की जी-हुजूरी करता है, उसकी हां में हां मिलाता है और उसके आदेशों का पालन करता है, उसे अंग्रेज ज्यादा महत्व देते हैं और सवर्ण अंग्रेज अधिकारियों तक पहुँच दिखाकर अपने से कमजोर सवर्ण पर हुकूमत करते हैं. यहीं से दलित समाज में सत्ता के प्रति लालच पैदा हुआ. जो दलित बड़े जमींदार के घर गुलामी करता था, वह अपनी बस्ती में लोंगो के साथ दबंगई के साथ पेश आने लगा. बस्ती के अन्य दलितों ने जब उसकी दबंगई का विरोध नहीं किया तो वह खुद को शक्तिशाली मानने लगा और धीरे-धीरे वह अपनी दलित बस्ती में रहने वालों पर ही हुकूमत करने लगा. वह जो कहता, उसे बस्ती के लोग मानते. भले ही उसका फैसला गलत हो और उसे बस्ती के लोग धीरे-धीरे मुखिया कहने लगे. दलित बस्ती में मुखिया बनाये जाने की खबर मिलने पर पहले तो सवर्णों को बुरा लगा. उन्होंने समझ लिया कि दलित मुखिया के मन में सत्ता की लालच बढ़ रही है. पहले तो सवर्ण कुचलने का मन बना लिया. सवर्ण ने अपने पंडित मंत्री के सामने मन की इच्छा को जाहिर किया. यह सुनकर पंडित को भी बुरा लगा, लेकिन उसने अपनी कुटिल चाल चली. उसने जमींदार से कहा कि अब तो तुम्हें सत्ता करना और आसान हो गया. अब तुम्हें डराने के लिए दलितों की बस्ती में जाने की जरुरत नहीं पड़ेगी. अब तुम जो चाहोगे, वह अपनी हवेली पर ही दलित के साथ कर लोगे, क्योंकि तुम्हारा दलित गुलाम उनका मुखिया है और वे दलित जानते हैं कि उसपर तुम्हारा हाथ है. वह तुम्हारी मदद से उनके साथ कुछ भी कर सकता है. बस्ती के लोग मुखिया से नहीं, बल्कि तुमसे डर रहे हैं. तुम इस दलित मुखिया को अपना हथियार बना लो. इसे सत्ता का खून मुंह लग चुका है और बगैर तुम्हारी मदद के यह बस्ती में हुकूमत नहीं कर सकता है. इसलिए तुम जो चाहोगे, यह वही करेगा। पंडित ने कहा, तुम उसे बुलाओ और बस्ती के लोगों पर हुकूमत करने का आरोप लगाकर उसे इतना डांटों की वह समझे कि उसने बड़ा पाप किया है. हुकूमत का हक़ सिर्फ तुम्हारा है. जब उसे यकीन हो जाएगा कि उसने पाप किया है तो उसे मेरे द्वारा बनाये फर्जी देवी देवताओं के नाराज़ होने और नर्क जाने का डर सताएगा. तुमसे तो डरते ही हैं कि छोटी छोटी बातों पर तुम चमड़ी उधेड़ने और जान लेने में पीछे नहीं हटोगे. बस काम आसान हो गया सत्ता करने का. जब मुखिया अपनी गलती की माफ़ी के लिये गिड़गिड़ाने लगे तो तुम पीठ पर हाथ रखकर पुचकार देना और उसे धीरे-धीरे छूट देते जाना, ताकि तुमसे मिली छूट का नाजायज फायदा बस्ती में उठाने लगे. जमीदार को यह बात अच्छी लगी. उसने ऐसा ही किया और मुखिया की मदद से वह बस्ती का मसीहा कहलाने लगा. जमीदार को इसका एक और फायदा मिला. धीरे-धीरे जमीदार एक दूसरे के खिलाफ जरुरत पड़ने पर दलितों का इस्तेमाल करने लगे और दलित मामूली सी सत्ता की चाहत में एक दूसरे से छोटा बड़ा, गरीब अमीर का फर्क करने लगे. सत्ता के साथ दलितों में जब आर्थिक मजबूती भी आने लगी तो सवर्ण इन्हें कई उपजातियों में बांट कर आपस में ही फुट पैदा कर दिए. दलितों में फुट जरूर पड़ी, लेकिन इनके अंदर एक दूसरे की बराबरी करने इच्छा भी बढ़ी. इसके लिये दलित ब्राह्मणों और जमीदारों को अपने घर बुलाने लगे. जिस घर ठाकुर साहब कुछ पल के लिये आ जाते थे, उसकी गांव में चर्चा होने लगती थी. अब सवर्ण इन उपजातियों के अंदर भाई भाई में झगड़े लगाकर मजे लेने लगे. बीसियों साल यह सब चला. जब आजादी की लड़ाई के दौरान दलितों को वोट का अधिकार मिला, तब सवर्णों को इसका सबसे बड़ा फायदा मिला. सवर्ण दलितों को जिसे वोट करने को बोलता, उसे दलित चुपचाप वोट करने लगे. इसके बदले सवर्ण कुछ उपहार आदि दे देते थे. सवर्ण के दिमाग में बैठ गया कि दलितों का अपना कोई वजूद नहीं है. इनके वोट का हम मनचाहा इस्तेमाल कर सकते हैं. देश आजाद हुआ, लेकिन संवैधानिक आजादी के बावजूद दलित आजाद नहीं हुए. इस शून्यता को भरने के लिए मान्यवर कांसीराम जी नौकरी छोड़कर आ गए. कांसीराम जी ने बाबा साहब के संवैधानिक आजादी को राजनितिक आजादी में तब्दील करने का काम किया. उन्होंने देश भर में भ्रमण किया और दलितों में राजनितिक अलख जगाई और देश के दलितों को राजनीतिक मंच देने के लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन किये. परिणाम यह हुआ कि बसपा अपने पहले ही चुनाव में दर्जन भर से ज्यादा सीटें जीत कर सवर्णों को चौका दिया. दलित समाज में लगातार राजनितिक चेतना आती गई और अब देश का लगभग पूरा दलित समाज राजनीतिक तौर पर जागरूक हो चूका है. अपना अधिकार जानने लगा है. वोट देने से पहले पार्टी, प्रत्याशी और जाति देखने लगा है. जिसकी सवर्णों को उम्मीद नहीं थी. इसके लिए सवर्ण आज सबसे ज्यादा बाबा साहब को कोसते होंगे. जब से मायावती जी ने दलितों का नेतृत्व संभाला है, तब से देश भर में जातीय समानता की लड़ाई भी शुरू हो गई है. दलित समाज निडर हो गया है. दलित एक ताकत के तौर पर उभरा है और इस ताकत को जोर जबरदस्ती से नहीं ख़त्म किया जा सकता है. इसीलिए सवर्ण नेता दलितों के इमोशन के साथ खेलने लगे. इस तरह इमोशन के खेलने का हमारे दलित नेताओं ने ही उन्हें मौका दिया. जब भी दलित वोटों की जरुरत पड़ती सवर्ण इन दलित चाटुकार नेताओं को बस्ती में भेजते रहे. जब भी कोई घटना होती है, दलित नेता नहीं आता है. यह भी कह सकते हैं कि सवर्ण नेता से दबे यह दलित नेताओ को रोक दिया जाता है. सवर्ण उनके घर आकर झूठी सांत्वना देकर इस्तेमाल करते रहे. लेकिन सवर्णों के इस झूठ का पर्दाफाँस भी होने लगा. दलित समझने लगा कि सवर्ण उनके घर सिर्फ घड़ियाली आंसू बहाने आता है. जातिवाद और जातीय उत्पीड़न के साथ उनका सामाजिक आर्थिक स्तर में कोई बदलाव नहीं आ रहा. सवर्ण तो इस्तेमाल कर रहा है. इसलिये दलित समाज आज एकजुट हो रहा है, जो सवर्णों को खलने लगा है. सवर्णों के दिमाग में आज भी वही वहम है कि दलितों के करीब आकर उनका इस्तेमाल कर सकते हैं. पहले जहां सवर्ण दलितों के घर सिर्फ जाते थे लेकिन पानी तक नहीं छूते थे. धीरे-धीरे पानी पीने लगे. यह दिखाने लगे कि हम छुआछूत नहीं मानते. हम सब बराबर हैं. लेकिन दलित और जागरूक होता गया और सवर्णों की यह चाल भी फीकी पड़ने लगी. फिर दलितों के घर खाना खाने का नाटक करने लगे. जिस दलित के घर इन्हें खाना होता है, पहले उसका चुनाव करते हैं. उस दलित परिवार को बताते हैं कि किस दिन वह खाने आ रहा है. जिस दिन खाने आना होता है, उस दिन सवर्ण नेता अपने कुछ लोगों से खाने की सामग्री भिजवाता है और अपनी निगरानी में ही खाना बनवाता है. पानी अपना और थाली सहित सभी बर्तन नए होते हैं. इस पूरी घटना की जानकारी मीडिया को पहले ही दे दी जाती है, ताकि अगले दिन लोग अख़बार भी पढ़ कर जाने कि नेताजी दलित के घर खाये हैं. सवर्ण नेताओं की यह नौटंकी भी ज्यादा दिन नहीं चली. दलित भी बिदक गया, तो सवर्ण नेता दलितों के घर सोने लगे. चारपाई भले दलित की होती है, लेकिन उस पर बिस्तर नेताजी के अपने सवर्ण का होता है. दरअसल, सवर्ण हज़ारों सालों से इन्ही पैंतरों की बदौलत दलितों को अपनी मुट्ठी में करते आ रहे हैं और सफल भी हुए. उनकी मानसिकता ही ऐसी बन चुकी है और वह इससे उबर ही नहीं पा रहे हैं. सवर्णों का दिल और दिमाग यह मानने को तैयार ही नहीं है कि दलित गुलाम कौम नहीं, बल्कि शासक कौम है. सवर्ण इस बात को पचा नहीं पा रहे कि जिन दलितों पर हम विदेशी होकर भी सैकड़ों साल तक राज किये, वही दलित उनपर राज करने के लिए उतावला है. इसलिए सवर्ण खुद में छटपटा रहा है, बौखला रहा है. साम दाम दंड भेद सब अपना रहा है. चूँकि सामन्तवादी सोच का कीड़ा बचपन में ही सवर्णों के दिमाग में डाल दिया गया है. इसलिए आज भी वह दलितों के घर जाकर आंसू बहाने की नौटंकी से बाज नहीं आ रहा है. उसे लगता है कि इससे दलित समाज पिघल जायेगा, लेकिन नौटंकी ज्यादा हो चुकी है. इसलिए अब इनकी यह चाल भी फेल हो चली है. लेखक पत्रकार है. संपर्क-9953746549

मायावती का चरित्रहनन और राजनीतिक पतन का मर्सिया

भारत के 20 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले सूबे उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती को भारतीय जनता पार्टी का एक वरिष्ठ नेता सार्वजनिक तौर पर जिस घिनौनी भाषा का इस्तेमाल करता है. आखिर इस बयान की जद में क्या है यह जानने की गुंजाइश इसलिये बनती है कि मायावती इस आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में बिना किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के, इतना बड़ा राजनीतिक मुकाम बनाने वाली दलित ही नहीं, समूचे सबल्टर्न समाज की शायद अकेली कद्दावर महिला शख्सियत हैं. वैसे भारत की राजनीति में अभी तक की सबसे बड़ी हैसियत बनाने वाली एकमात्र महिला जो प्रधानमंत्री के ओहदे तक पहुँची वो इंदिरा गाँधी थीं. इंदिराजी को महात्मा गाँधी की गोद में खेलने का अवसर मिला था और उनके पिता जवाहरलाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे. 1971 में बांग्लादेश युद्ध जीतने के बाद तो इंदिरा गाँधी की नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें  दुर्गा या दुर्गावतार घोषित किया था. इंदिरा कभी दुर्गा थी तो बहुजन नायक महिषासुर के लोकप्रसंग में दुर्गा भी उसी श्रेणी में आती हैं जैसे मायावती को कहा गया. मायावती के संदर्भ में यह ध्यान रखना होगा कि वो भारतीय लोकतंत्र में बहुजन जमात की एक प्रतिनिधि राजनीतिक नायिका हैं. इस बयान का मनोविज्ञान यह बतलाता है कि ऐसा बोलने वाला शख्स पुरूषवादी मानसिकता से ग्रस्त तो है ही जातिवादी भी है और एक औरत को भोग की वस्तु समझता है. हालांकि यह भी सच है कि वेश्यावृति के लोकप्रचलित पेशे को सत्ता-व्यवस्था से जुड़े सफेदपोश लोगों ने संरक्षण देकर स्थापित किया और जिन लोगों ने समाज में नैतिकता की ठेकेदारी की उन्होंने अपनी अय्याशी के लिये देवों के नाम पर यौन कुंठा को तृप्त करने के लिये देवदासी प्रथा को भी स्थापित किया. देवदासी प्रथा की भुक्तभोगी तमाम महिलायें वंचित समाज से आती थी. इस प्रथा को पूरी तरह खत्म करने और इसके अभिशप्त लोगों की सामाजिक बहिष्करण/तकलीफ से मुक्ति की कोशिश आज तक जारी है. वहीं सफेदपोशों के द्वारा पोषित वेश्यावृति में देशभर के कमजोर तबके की लड़कियों को ढकेलने के लिये मानव तस्करी तमाम कानूनों के बावजूद जारी है. हर जगह के रेड लाइट इलाकों में सही- गलत धंधे पुलिस- प्रशासन के सहयोग से ही चलता है तो बड़े अय्याश लोगों के लिये एक सप्लाई-चेन मैनेजमेंट की तर्ज पर लड़कियों की सप्लाई शहरों में संगठित गिरोह का रूप ले चुकी है. इस सबमें बहुजन पीड़ित, शोषित, मजबूर या भुक्तभोगी की ही भूमिका में है और इसके उपभोग करने वाले सरगना मुख्यत: सवर्ण, संभ्रांत, सामंती चरित्र वाले लोग ही हैं. ऐसे में मायावती के खिलाफ बयान के पीछे वेश्यावृति के बदनाम पेशे का स्याह सच बकौल एक सवर्ण सामने आता है जो दलितों-आदिवासी-पिछड़ों यानि समस्त बहुजनों को वेश्या घोषित करने पर आमादा है. दलित होने के कारण वर्ण व्यवस्था में मायावती सबसे नीचले पायदान पर हैं तो लिहाजा वो संघ- बीजेपी की राजनीतिक रणनीति में चरित्रहनन के लिये एक सॉफ्ट टारगेट बनाई गईं. ये बातें आजाद भारत की हैं लेकिन आजादी के पहले के कालखंड का रूख करें तो दिलचस्प ये है कि वर्ण व्यवस्था में उपर के लोगों ने समाज में अपने वर्चस्ववादी- यथास्थितिवादी रूतबे को कायम करने के लिये कालांतर में जाति ही नहीं धर्म तक देखे बिना हर तरह के गठजोड़ बनाने से लेकर राजघरानों में बेटी- रोटी के संबंध स्थापित कर सत्ता में भागीदारी भी सुनिश्चित की. वो हर व्यवस्था जो आज 85% बहुजन समाज पर जबरन थोपा जा रहा है, जिसे वंचित- शोषित समाज कईबार मजबूरी में स्वीकार करने को भी बाध्य है उसे सवर्णों ने सत्ता में भागीदारी के लिये जागरूक व शौकिया तौर पर अपना रखा था. दयाशंकर के इस पूरे बयान में दलित विरोधी मानसिकता से मायावती को अपमानित करने की नीति है और चरित्रहनन की खतरनाक गंदी साजिश भी है. इस पूरे विमर्श में महिला है, राजनीतिक महिला का चरित्र है, जाति- समाज है, राजनीति है और यौन कुंठायुक्त सेक्स आधारित विमर्श भी शामिल है जिसे समझना बहुत जरूरी है. इसी संदर्भ में भारत की राजनीति में कई अदभुत प्रयोग के सफल- असफल होने उदाहरण मिलते हैं. तमिलनाडू में जनता तो ऐसी है कि एमoजीoरामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन के विस्मृत होते जाने के बीच उनकी ऑन-स्क्रीन प्रेमिका जयललिता पांचवी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाती हैं. लेकिन वही जनता एनoटीoरामाराव की पत्नी व बेटे को खारिज कर देती है और बगावती दामाद चंद्रबाबू नायडू को मुख्यमंत्री पद पर दुबारा बिठाती है. पश्चिम बंगाल के भद्रलोक में सामाजिक संरचना पर भारी बौद्धिक-वैचारिक द्वंद्व के बीच पार्टियों से परे सवर्ण नेताओं का राजनीतिक शीर्ष पर पक्ष-विपक्ष में छाये रहने की कलाबाजी गजब दिलचस्प है. विधान चंद्र राय, सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कांग्रेसी के बाद घोर वामपंथी ज्योति बसु, बुद्धदेव भट्टाचार्य और अब तृणमूल पार्टी की दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी ममता बनर्जी का फर्क दलों के दलदल व विचार से परे सत्ता के कॉमन सवर्ण सामाजिक पृष्ठभूमि की बुनियाद पर समझना कोई बड़ी बात नहीं है. आनंदी बेन पटेल और वसुंधरा राजे सिंधिया की कौन सी बड़ी खासियत उन्हें अपने राज्य व पार्टी में कद्दावर बनाकर मुख्यमंत्री के ओहदे पर शुमार करती है. शीला दीक्षित दिल्ली की राजनीति में पुराने विरासत के बूते ही टपककर एक कद्दावर मुख्यमंत्री के रूप में शुमार हुई. लेकिन इन तमाम सर्वगुणसम्पन्न एवं सर्वमान्य नामों के बीच मंडलवादी लालू यादव के राजनीतिक संक्रमण काल में उनकी पत्नी राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनने की घटना पर चुटकुले पेश कर आज भी सवर्ण समाज अपनी कुंठा तृप्त करता है. इस कुंठा की हद तो ये हैं कि एक दौर में टेलीविजन के एक प्रोमों में लालू- राबड़ी का नाम क्रमश: पुरूष-स्त्री शौचालय के दरवाजे पर लिखकर दिखाया जाता था. सवाल उठता है कि इस तरह के प्रतिबिंबन के पीछे क्या सिर्फ सवर्ण समाज के भाषा-ज्ञान-बुद्धि की श्रेष्ठता ही है या वर्ण व्यवस्था में श्रेष्ठता पर आधारित जातिवाद की मानसिकता है? मीरा कुमार कांग्रेस की सुर्खियों में हमेशा इसलिए बनी रहती हैं कि वो एक वक्त में कांग्रेस के लिये गले की हड्डी बने दिवंगत जगजीवन राम की बेटी हैं और उनकी पार्टी नाम, विरासत, चेहरे को भंजाना बखूबी जानती है. लेकिन कांग्रेस यह भी जानती है कि ओबीसी सीताराम केसरी को क्यों और कैसे निपटाया जाता है. जाहिर है ये दोनों अगर दलित- पिछड़े नहीं होते तो शायद देश के प्रधानमंत्री भी हो सकते थे. वैसे ही बीजेपी जानती है कि गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे को कैसे निपटाना है और तेलगी मामले से बच गये छगन भुजबल को महाराष्ट्र सदन में बहुजन नेताओं की मूर्ति स्थापित करने की सजा कैसे देनी है? इन सबके पीछे जाति है जो तमाम सवालों के बीच जाती नहीं बल्कि सभी बातों में मूल रूप से समाई हुई है. एक दौर रहा है जब राजनीति में ट्रेनिंग और ग्रूमिंग का एक कल्चर हुआ करता था. इसके तहत लोहिया, जेपी, कर्पूरी जैसे तमाम नेताओं के सानिध्य में रहकर स्त्री- पुरूष नेताओं की एक बड़ी फौज राजनीति का ककहारा सीखकर लोकसभा-विधानसभा की शोभा बढ़ाते रहे हैं. मायावती के खिलाफ दिये गये बयान के नजरिये से महिला राजनीतिकों की बात करें तो सुषमा स्वराज 70 के दशक में हरियाणा में सबसे कम उम्र की कैबिनेट मिनिस्टर बनीं जिन्हें प्रारंभिक तौर पर देवीलाल, चंद्रशेखर जैसे लोगों ने आगे बढ़ाया. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का संरक्षण प्राप्त अनेकों महिलाओं ने राजनीति में काफी अच्छा नाम कमाया है जिनमें लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन जैसी कद्दावर नेता शामिल हैं. बीजेपी में आज की वरिष्ठ महिला नेता स्मृति इरानी को आगे बढ़ाने में प्रमोद महाजन और नरेन्द्र भाई मोदी का नाम लिया जाता है. कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू, नारायण दत्त तिवारी, राजीव गाँधी ने भी अनगिनत महिलाओं को सहयोग देकर राजनीति में आगे बढ़ाया जिसकी एक लम्बी फेहरिश्त है. जाहिर है कि इन महिलाओं की अपनी क्षमता भी इनकी राजनीतिक सफलता में शामिल रही है. अब इस सूची में जितना चाहें नाम जोर सकते हैं कि किस नेता ने किस महिला को संरक्षण  या सहयोग देकर राजनीति में आगे बढ़ाया लेकिन कभी भी किसी के चरित्र पर किसी पार्टी संगठन के नेता ने सार्वजनिक तौर पर सवाल नहीं उठाया है. यही नहीं मिडिया भी अपने जातिवादी चरित्र के बावजूद इस मामले में अबतक काफी संवेदनशील रूख अपनाती रही है. लेकिन हाल के दिनों में पक्ष- विपक्ष की राजनीति में एक- दूसरे का सम्मान करना तो दूर छीछालेदर और चरित्रहनन करने को हथियार समझा जाने लगा है. इंदिरा गाँधी की हत्या जिस साल हुई थी उसी साल कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी थी. बहुजनवादी विचार, सशक्त संगठन व सामाजिक संघर्ष की बुनियाद पर राजनीति की नींव कांशीराम जी ने रखी. उस संघर्ष में उन्होंने मायावती को तब से जोड़ रखा था जब किसी के लिये ऐसा सोचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था कि बहुजन समाज पार्टी राष्ट्रीय पार्टी तो दूर कभी राज्य स्तर की पार्टी भी बनेगी. इस लिहाज से कांशीराम जी की दूरदर्शिता का अंदाजा लगाना मुश्किल है जिसने मायावती को पार्टी का चेहरा बनाया जो इस मुकाम तक पहुँची. इस संघर्ष से निकली राजनीति के दौर में कांशीराम के सक्रिय न रहने के बाद तो मायावती भी बहुत बदल चुकी थी. बीएसपी की राजनीति को सफल बनाने के लिये मायावती ने सवर्णों से समझौते का रास्ता अपनाया जो कांशीराम की नीति और रणनीति कभी नहीं रही थी. ये मंडल के बाद की राजनीति का दौर था जब एक पत्रकार आशुतोष ने मायावती- कांशीराम पर अभद्र, अमर्यादित, अश्लील टिप्पणी की जिसके लिये आशुतोष को कांशीराम ने जोड़दार थप्पड़ जड़ा था. उस थप्पड़ की गूँज अब मद्धिम पर गई है लेकिन मीडिया के सवर्णों की अकड़ आज भी कायम है. उधर थप्पड़ खाने वाला पत्रकार खुद नेता बनने चल पड़ा है. आशुतोष जेएनयू में मंडल के उतरार्ध काल में मंडल समर्थक समारोह के दौरान शरद यादव की धोती खींचने, दलित- पिछड़ा आरक्षण विरोधी जातिवादी नारे लगाने और शरद यादव की गाड़ी पर पत्थर मारने की घटनाओं में भी लिप्त रहा था. अब यूथ फॉर इक्वालिटी के आरक्षण विरोधी नायक अरविंद केजरीवाल के साथ आशुतोष का राजनीतिक गठजोड़ करना ये सारी बातें यही साबित करती हैं की पत्रकार के ज्ञान और वैचारिक मुखौटे से परे उसकी जाति देखना भी अब उतना ही महत्वपूर्ण है. यही नहीं आशुतोष चांदनी चौक से चुनाव लड़ने जाता है तो वोट के लिये सवर्ण बनिया होने का प्रचार करने के लिये जाति गुप्ता के टाइटल वाले पोस्टर चिपकवाता है. ये सारी बातें शहरी, संभ्रात, शिक्षित और मॉडरेट, मॉडेस्ट, सोफेस्टिकेटेड, प्रोग्रेसिव चेहरों के भीतर सत्तातंत्रों में छिपे सवर्ण जातिवादी भेंड़ियों की पहचान के लिये भी जानना जरूरी है. मायावती को लेकर किसी दयाशंकर की टिप्पणी के सिर्फ पुरूषवादी होने की बात कहकर मामले को खत्म कर देना भी ठीक नहीं. उत्तर प्रदेश कांग्रेस की महिला नेता रीता बहुगुणा जोशी ने एक बलात्कार की घटना के बाद टिप्पणी करते हुये एक बार मायावती के भी बलात्कार होने पर ही एक पीड़ित की पीड़ा को महसूस करने की बात कही थी. यही नहीं रीता जोशी ने मायावती की स्थापित मूर्तियों को लेकर कह डाला था कि- मायावती पाँच करोड़ में अपनी एक मूर्ति बनवाती हैं और वह भी काली. उसमें भी पता नहीं चलता कि नाक कहाँ है और कान कहाँ? ये टिप्पणी रंगभेदी, नस्लवादी, जातिवादी श्रेणी में आती है लेकिन मीडिया की सुर्खियाँ शायद ही कभी बनी हों. इन तमाम मामलों में जाहिर है कि मायावती के महिला या राजनीतिक होने से ज्यादा ये बयान जाति संदर्भ में थे. क्या आप भारत के लोकतंत्र में सोच सकते हैं कि राज्य व देश के सदन में भी दलित- आदिवासी- पिछड़ों के खिलाफ सामाजिक मनोवैज्ञानिक भेदभाव होता होगा जिसमें महिलायें स्वाभाविक तौर पर ज्यादा भुक्तभोगी होंगी. फूलन देवी (उत्तर प्रदेश) और भगवतिया देवी (बिहार) ने लोकसभा में अपने अनुभव के बारे में एकबार नीजी संवाद के दौरान कमोबेश एक ही तरह की बातें शेयर की थी-पुरूषों को कौन पूछे कई महिला सांसद नाक- भौं सिकोड़ते हुये, मुँह बिचका कर बचते हुये निकलती हैं जैसे उन्हें बदबू या घिन आ रही हो. बगल में बैठना हो तो कन्नी काट जाती हैं, दूर से निकल जाती हैं. संसद में भी पुरूष और महिला लोग पार्टी से भी ज्यादा जाति- समाज देखकर खुलती हैं और भेंट- बात करती हैं. एक ओबीसी महिला सांसद का हाल ही में कहना है कि- स्पीकर चेयर पर जब वो (एक महिला) होती हैं तो दलित- ओबीसी के सवाल उठाने पर बहुत इंटरप्शन करती है और जानबूझकर मुद्दा देखकर बोलने ही नहीं देना चाहती हैं. कई बार तो भ्रम होता है कि मेरे चेहरे से इसको चिढ़ या मुझसे कोई नफरत तो नहीं. जाहिर है कि सभी औरतें एक नहीं हैं और वे भी दलित-आदिवासी-ओबीसी-पसमांदा समाज और उनकी जातियों में बँटी हुई हैं. सवर्ण महिलाओं और पुरूषों के राजनीतिक एजेंडे एक होते हैं जो उनके अपने सामाजिक-राजनीतिक व जातीय हित से जुड़ी होती हैं. जहाँ तक आधी आबादी का सवाल है तो सभी सामाजिक वर्ग- समूहों के भीतर ही उनके हक-हकूक-सम्मान के सवाल हल होते ज्यादा आसानी से दिखते हैं और महिला के तौर पर भी उन्हें पहली सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति अपने जाति-समाज के समूहों के भीतर ही मिलती दिखती है. 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद दलितों को मनोवैज्ञानिक तौर पर लुभाने के लिये संविधान दिवस और अम्बेडकर शताब्दी जैसे कार्यक्रमों का भव्य आयोजन किया जा रहा है. लेकिन इन प्रतिकात्मक हवाबाजी के बीच रोहित वेमुला की घटना, बीजेपी शासित राज्यों में दलित उत्पीड़न, गाय के नाम पर पहले मुसलमान और अब दलितों को निशाना बनाना, दलित- पिछड़ों के आरक्षण को खत्म व खारिज किये जाने की कोशिशे भी तेज हैं. बीजेपी- संघ के नेताओं के हिन्दूवादी- जातिवादी बयान सिर्फ मुसलमानों को ही नहीं दलित-पिछड़ों के आरक्षण को निशाना बनाये जाने का सबूत पेश करता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार चुनाव के वक्त लालू यादव की बेटी मीसा भारती का मिमिक्री करते हुये बेचारी कहकर उपहास किया था तो उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था. इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव की पृष्ठभूमि जब तैयार हो रही है तो संघ- बीजेपी अपने जातिवादी गोलबंदी के पत्ते अभी से खोलने लग गई है. बीजेपी की एक वरिष्ठ महिला नेता मधु मिश्रा ने संविधान-दलितों-आरक्षण के खिलाफ जातिवादी बयान देते हुये कहा कि- संविधान के कारण ब्राह्मणों की यह स्थिति हो गई है जो कभी जूते सीलते थे वो राज चलाने लगे हैं. गुजरात में हार्दिक पटेल से किसी तरह छुटकारा पाने की जुगत में लगी बीजेपी का गाय और दलितों को लेकर बवाल में फँसना–इनसे मुक्ति का मार्ग तलाशने के लिये इसबार दयाशंकर ही मोहरा बना है. ठीक उसी तरह जैसे कि रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और एचसीयू में हो रहे बवाल से मुक्ति के लिये कन्हैया और जेएनयू एक मुक्ति का मार्ग बना था. अब यूपी बीजेपी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष दयाशंकर का बयान साबित करता है कि ये अकारण नहीं है बीजेपी की रणनीति का ही अंग है. उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में मायावती पर अश्लील टिप्पणी के बाद दयाशंकर से पहले पल्ला झाड़ लेना लेकिन फिर उसके परिवार के सम्मान का मुद्दा बनाकर बीजेपी अब यूपी की राजनीति में दलितों को अपमानित कर सवर्णों को अपने पाले में गोलबंद करने की कोशिश कर रही है. देशभर की सवर्ण मीडिया भी बीजेपी के मुहिम में मायावती के खिलाफ ज्यादा सक्रीय और दयाशंकर के परिवार के प्रति किसी भी हद तक जाकर- गिरकर सहानुभूति का माहौल तैयार करती दिखाई दे रही है. लेकिन इसी बीच लोकतंत्र के सभी स्तंभ तथ्यपरक विश्लेषण से दूर होते जा रहे हैं और हर सत्ताकेन्द्र सामाजिक संरचना के हिसाब से अपना पक्ष- विपक्ष- रूख तय कर रहे हैं. इसी कड़ी में रायपुर का नवभारत अखबार की हेडिंग माया का चरित्र वेश्या से बदतर भारतीय मीडिया के घोर सवर्णवादी सामाजिक चरित्र को बेहतरीन तरीके से उजागर करता दिखता है. मायावती दलित हैं और बहुजनवादी लोग मीडिया में नहीं हैं तो उसके लोग सड़कों पर उतर कर विरोध दर्ज करा रहे हैं या फिर अल्टरनेटिव सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं. वहीं संघ-बीजेपी और सवर्ण मीडिया मिलकर देश की राजनीति को अपने पाले और मुट्ठी में करने के लिये मर्यादा- नीति- नैतिकता को ताक पर रखकर दोजख बनाने पर तुल गया हैं. संघ-बीजेपी की मुसलमानों से अदावत तो जगजाहिर है लेकिन दलित, आदिवासी इनके नंबर एक निशाने पर है फिर ओबीसी को भी ये व्यवस्था के बाहर हाशिये पर ढकेलने व निपटाने में जोर- शोर से लग गये है. बहुजन समाज पार्टी के लोग जो अपनी नेता के सम्मान मे कर रहे हैं उस पर नैतिकता का प्रवचन बाँच रहे लोगों को याद कर लेना चाहिये कि ये सब स्वाभाविक प्रतिक्रिया के ही तौर पर है जिसकी दुहाई नरेंद्र मोदी, संघ-बीजेपी के लोग गुजरात दंगों के समर्थन में आजतक देते है. देशभर में जो भी इस वक्त हो रहा है इन सबका सूत्रधार संघ-बीजेपी है. अगर दयाशंकर की बहन- बेटी की इज्जत है तो बहन मायावती की भी इज्जत है और सम्मान तो सभी महिलाओं का बराबर होना चाहिये. लेकिन सवाल महिलाओं का नहीं जाति का है. अगर महिला का सवाल जाति से बड़ा होता तो दयाशंकर की माँ व पत्नी मायावती के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर अपने पति और बेटे के समर्थन में चुप्पी नहीं साधती. साथ ही दयाशंकर की बेटी को आगे करके उसके सम्मान का सवाल उठाते हुये मामले को इमोशनल टर्न दिलाने की कोशिश नहीं की जा रही होती. फिर एक माँ-पत्नी-बेटी को सामने खड़ा करके दयाशंकर के बहाने उच्च जाति को गोलबंद करने की मेगा इवेंट मैनेजमेंट पर आधारित रणनीति बीजेपी- संघ और सवर्ण मिडिया खुल्लमखुल्ला नहीं करती. मायावती और बीएसपी कार्यकर्ताओं के आक्रमक तेवर से सवर्ण समाज काफी बेचैन दिखाई दे रहा हैं लेकिन काश देशभर में दलित-आदिवासी- पिछड़े बहुजनों के बलात्कार, हत्या, शोषण, अत्याचार पर देश का पूरा सवर्ण समाज अपने बलात्कारी भाइयों के खिलाफ ऐसे ही खड़ा हो पाता. सत्ता, संसाधनों, तंत्रों, व्यवस्था पर ठेकेदारी अबतक सिर्फ उच्च जाति की रही है और वर्ण-जाति व्यवस्था पर आधारित समाज में सारी कुव्यवस्था का  जनक-पोषक सिर्फ देश का मनुवादी- ब्राह्मणवादी तबका रहा है जिसमें बहुजन सिर्फ भुक्तभोगी है. यही कारण है कि समस्त बहुजन समूहों (दलित-आदिवासी-पिछड़ा-पसमांदा) के लिये सभी संसाधनों और सत्ताकेन्द्रों के सभी स्तरों पर सामाजिक न्याय, बराबरी, भागीदारी का सवाल सबसे अहम और अव्वल है. फिलहाल राजनीति में विचार- चरित्र- नैतिकता को तार- तार कर देने वाले इन बयानों के बीच दलित बीएसपी के पक्ष में गोलबंद हो रहा है तो शीला दीक्षित को आगे करने की रणनीति से ब्राह्मणों को कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद होता देख बीजेपी सवर्णों को येन- केन- प्रकारेण एकजुट करने में लगी है. वहीं अखिलेश अपने परिवार के दुर्गम- दुरूह राजनीतिक किले को बचाने की जुगत में लगे हैं. निखिल आनंद एक सबल्टर्न पत्रकार हैं. इनसे nikhil.anand20@gmail.com और 09939822007 पर संपर्क किया जा सकता है.

चमड़ी उतारना छोड़े दलित

डॉक्टर अम्बेडकर कहते थे यदि कोई काम आपको अछूत बनाता है तो उस काम को तुरन्त छोड़ दीजिये. साफ़ सुथरे रहिये और गंदगी वाला काम मत कीजिये. मैं समझता हूँ जिस तरह दलितों ने गुजरात में मरी हुई गाय को फेंककर विरोध किया है, उसके बाद इन्हें कभी भी मरी हुई गाय की चमड़ी उतारने जैसा काम नहीं करना चाहिए. क्यों सारे गन्दगी वाले काम दलित ही करें?? गंदे नालों के सीवेज में जाकर सफाई करना, लोगों का मैला ढोना और मरे हुए पशुओं की चमड़ी उतारने जैसा काम सिर्फ दलितों के हिस्से ही क्यों आये?? दूध देती गाय ब्राह्मणवादियों की और मरी हुई बदबूदार गाय दलितों की क्यों ?? कितना कठिन और दमघोटू होता होगा मरे हुए जानवर की चमड़ी उतारना और वो भी बिना मास्क और दस्तानों के?? ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा जूठन में लिखा है कि जब उनके चाचा ने उन्हें मरी हुई गाय की खाल उतारने के लिए मदद करने को कहा तो कैसे बदबू के कारण उनका दम निकला जा रहा था और जब वो अपने सिर पर खाल लेकर जा रहे थे तो उन्हें डर लग रहा था कि कहीं उनके साथ पढ़ने वाले बच्चे उनको देख ना ले, वरना वो उनका मजाक उड़ाएंगे. क्या बीती होगी उस वक़्त एक बच्चे पर ?? डॉक्टर तुलसीराम ने भी अपनी आत्मकथा मुर्दहिया में लिखा है कि कैसे चमड़ी उतारने वालों को दूसरी जाति वाले डांगर खाना यानी पशु को खाने वाला बुलाते थे. इसलिये मुझे लगता है यदि सम्भव हो तो दलित समुदाय को इन कामों नहीं करना चाहिए. डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी किताब शुद्र कौन थे और वो अछूत कैसे बने? में लिखा है कि ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है. ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं कि उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था. यानी जो ब्राह्मणवादी ना सिर्फ मांस बल्कि गौ-मांस खाकर विकसित हुए वो आज गौ-रक्षा के नाम पर मरी हुई गाय की चमड़ी उतार रहे दलितों पर अमानवीय अत्याचार करते हैं. दोगले कहीं के! इतिहास गवाह है, हिन्दू धर्म ने वैसे भी शूद्रों को कभी अपना हिस्सा नहीं माना था, सब जानते हैं अंग्रेजी शासनकाल में कैसे मुस्लिम लीग के खिलाफ अपना संख्याबल बढ़ाने और अलग चुनाव क्षेत्र की मांग को ठंडा करने के लिए ही ब्राह्मणवादियों ने शूद्रों को हिन्दू होने का दर्जा दिया था. गुजराती दलितों ने सही कहा है… आओ करो अपनी माँ का अंतिम संस्कार।  तुम्हारी माँ है तो अंतिम संस्कार भी तुम्हीं करो और चमड़ी भी तुम्हीं रखो. मनुवादियों ने शूद्रों को जानबूझकर ऐसे गंदे और घृणित काम करने के लिए मजबूर किया ताकि समाज में उन्हें हीन भावना से देखा जाये और उनका सामाजिक बहिष्कार करना आसान हो जाये. चमड़ी उतारने जैसा काम असल में उसी मनुवादी गुलामी की निशानी है जिसने सैकड़ों सालों से शूद्रों को नरकीय जीवन जीने के लिए मजबूर किया. आज जरूरत है इस गुलामी की निशानी से भी दलित खुद को आजाद करें.  मैं जानता हूं लाखों दलितों का पेट इस काम से भरता है. लेकिन अगर आप इसे नहीं छोड़ेंगे तो आने वाली नस्ल भी इससे बाहर नहीं निकल पाएगी. बाबा साहेब के अनुयायियों स्वाभिमान से रहो और सम्मानजनक काम करो. लेखक पत्रकार है

चौराहे पर आ रहे हैं चमरौटी के लोग- डा. विवेक कुमार

आपका जन्म किस शहर में हुआ, पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई ? – जन्म लखनऊ में हुआ, शहर में. वहीं छोटे स्कूल में पढ़ाई शुरू की. शाहनगर रोड पर मिला-जिला स्कूल था. बहन वहीं जाती थी. पांच साल बाद पिताजी का ट्रांसफर बिजनौर के अफजलगढ़ में हो गया. तीन साल वहां टाट की पट्टियों पर बैठकर पढ़ाई की. सेठे का कलम, खड़िया वाली रोशनाई से पढ़ना शुरू किया. एक टीचर थी, निर्मला मिश्रा. वो बहुत मारती थीं. क्यों मारती थी, पता नहीं. आस-पास के बच्चे भी जाति जानते थे, सो उसी तरह का व्यवहार हुआ. पिताजी ने देखा की बहुत ज्यादती हो रही है तो फिर लखनऊ भेज दिया. यहां बीए तक पढ़ा. फिर एमए में जेएनयू आ गए. एमफिल, पीएचडी की. एक साल तक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में पढ़ाया. बीच में सरकारी नौकरी कर ली. यूपी सरकार की प्रशासनिक सुधार में शोध अधिकारी था. नौकरी यूपीएससी से मिली थी. मन नहीं लगा तो नौकरी से रिजाइन करके फिर से जेएनयू आ गया. रिजाइन करने की वजह क्या थी? – क्योंकि जेएनयू से पीएचडी था और मन बड़ा व्यथित रहता था. सरकारी नौकरी में माहौल बड़ा अजीब था. ज्ञान की कोई खपत नहीं थी. काम के नाम पर केवल फाइल आगे बढ़ानी थी. तब नौकरी मजबूरी थी, क्योंकि पिताजी रिटायर होने के बाद डिप्रेशन में थे. मैं बड़ा लड़का था तो जिम्मेदारी निभाने के लिए नौकरी करनी पड़ी. लेकिन एक ललक थी कि पीएचडी जरूर करूंगा. दलित चिंतन की ओर कब रुख किया? – इसमें जेएनयू ने बहुत बड़ा रोल प्ले किया. जब यहां पहुंचे तो पता चला कि किसी दिशा में नहीं सोच पा रहे हैं. दलितों के प्रति रुझान बहुत था लेकिन एक दलित चिंतक के तौर पर सोचूंगा, इसका पता नहीं था. लेकिन जेएनयू आने के बाद यहां का जो माहौल मिला, उसमें सरोकार नजर आने लगे. तब मंडल कमिशन के कारण रेखाएं साफ खिंच गई थी कि कौन किस पाले में है. हमलोगों को कोई संरक्षण नहीं था. तब एमए में था. उसी दौरान बाबा साहेब के लेखन से साक्षात्कार हुआ. उनके वाल्यूम आने लगे थे. गौतम बुक स्टॉल वाले तब अपने कंधे पर किताब पहुंचाने आते थे. मैं उनकी इज्जत इसलिए करता हूं क्योंकि उन्होंने तब बाबा साहेब के साहित्य को लोगों तक पहुंचाया था. थोड़ा रुक कर जोड़ते हैं… (हालांकि आज बड़े धनाढ़्य हो गए हैं और सबको गलियाते हैं.) तो.. वहां से लेखन शुरू हुआ. फिर एमफिल करने के दौरान गुरु श्री नंदू राम जी के संपर्क में आने से पढ़ने-लिखने का माहौल बना. अखबारों में लेख लिखने लगा. लोगों से मिलना-जुलना, बातें करनी शुरू की. इस तरह से शुरुआत हुई. आपने जब दलित मुद्दों पर लिखना-सोचना शुरू किया, तब से अब तक 20 साल हो गए हैं. यह सफर आज कहां तक पहुंचा है? – देखिए, शुरुआत मैने एक छोटे से प्रश्न से की थी. मैने देखा था कि आंदोलन में लीडरशिप निर्णायक भूमिका अदा करता है. इसके लिए मैने दलित लीडरशिप का अध्ययन किया कि यह कैसे दलितों के उत्थान और पतन के लिए उत्तरदायी है. यहां देखा कि लीडरशिप में क्राइसेस (संकट) है. बाबा साहब को पढ़ने से लीडरशिप की क्राइसेस नजर आने लगी. बाबा साहब का वह कथन बार-बार उद्वेलित करता था कि ‘बड़ी मुश्किल से मैं कारवां यहां तक लाया हूं, मेरे अनुयायी अगर इसे आगे न ले जा पाएं तो उसे वहीं छोड़ दें, लेकिन किसी हालत में यह पीछे नहीं जाना चाहिए.’ तब मैने लीडरशिप की तीन क्राइसेस चिन्हित की. सबसे पहला अस्मिता का संकट था. दलित समाज की अस्मिता एकबद्ध नहीं हो पा रही थी. दूसरा संकट विचारधारा का था. बहुत भटकाव था. तीसरा संकट गठबंधन का था कि किस तरह गठबंधन करें. उसी वक्त देखा कि मान्यवर कांशीराम का उदय हो रहा होता है. तभी आशा की किरण दिखाई पड़ने लगी और लगा कि लीडरशिप अब सही हाथों में पहुंच गई है. आज के लोकतंत्र में दलित कहां खड़ा है? – अगर जनतंत्र यानि डिमोक्रेसी की बात करें तो मैं इसे उत्तर प्रदेश में लागू होते हुए देखता हूं. वहां पाता हूं कि यूपी में डिमोक्रेसी दलितों के लिए दोधारी तलवार है. एक तरफ जहां वह दलितो को अधिकार देती है, वहीं दूसरी ओर उनके आंदोलन में अवरोध भी खड़े करती है. जैसे बहुजन समाज पार्टी के आंदोलन में बार-बार अवरोध खड़ा किया गया. उसे तोड़ा गया, खरीदा-बेचा गया. पीएचडी करने के दौरान देखा था कि दलित आंदोलन के राजनैतिक पक्ष ने भारतीय जनतंत्र को मजबूत किया है. इतने बड़े विशालकाय समूह, जिसको अधिकारों से वंचित किया गया, उसके अपने आत्मनिर्भर दल बनें और यह भारतीय जनतंत्र में रच-बस गया. आज हम सिर्फ वोट बैंक की राजनीति में नहीं हैं, बल्कि हम अपने लीडर खुद बनने लगे हैं. हम स्वआत्मनिर्भर प्रतिनिधित्व की तरफ बढ़ चुके हैं. आज दलित आंदोलन केवल एकपक्षीय नहीं रह गया है. वह केवल राजनीति या फिर आरक्षण की बात नहीं कर रहा है. उसके सात आयाम दिखाई पड़ने लगे हैं. सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, साहित्य, कर्मचारियों का आंदोलन, दलितों के स्वयंसेवी संगठनों का आंदोलन, दलित महिलाओं का आंदोलन और सातवां अप्रवासी भारतीय आंदोलन. ये सात छटाएं दिखाई देने लगी है. दलित आंदोलन आगे बढ़ा है और यह परिपक्व और मजबूत हुआ है. बीएसपी की राजनीति को आप बहुत पास से देखते रहे हैं. दलित हित में यह अन्य दूसरी पार्टियों से अलग कैसे हैं? – दलित राजनीतिक आंदोलन को सीधे-सीधे दो फाड़ों में बांट कर देखा जा सकता है. एक है निर्भर दलित आंदोलन, और दूसरा है आत्म-निर्भर दलित आंदोलन. निर्भर आंदोलन सवर्ण समाज द्वारा पल्लवति होता है और यह यहां दलित मुख्य पार्टियों के एससी, एसटी सेल में पाएं जाते हैं. जैसे ही सेल की बात आती है, यह साफ हो जाता है कि वह मुख्यधारा में नहीं हैं. उनकी भाषा, विचारधारा सब परतंत्र हो जाती है. वो अपने लिडरों के कहने पर चलते हैं. लिडर कहते हैं- बैठ जाओ तो बैठ जाते हैं, कहते हैं-खड़े हो जाओ, तो खड़े हो जाते हैं. वह निर्भर राजनैतिक दलित आंदोलन है. लेकिन इसके विपरीत एक आत्म निर्भर राजनैतिक आंदोलन है, जिसकी नींव बाबा साहेब ने इंडिपेंडेंटन लेबर पार्टी से डाली. बाद में शिड्यूल कॉस्ट फेडरेशन बनाया और आरपीआई की नींव डाली. इस आंदोलन की विशिष्ट प्रवृति है. इसके लीडर अपने स्वतंत्र एजेंटा और विचारधारा के साथ अपनी पार्टी बनाते हैं और उसमें अपनी भाषा, अपने नारे सब रखते हैं. इस रूप में आप देखेंगे कि स्वप्रतिनिधित्व गणतंत्र की जान होती है. ‘जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई, जिसकी लड़ाई-उसकी अगुवाई’ यह जनतंत्र का मूलमंत्र होना चाहिए और यही बाबा साहब चाहते थे. इसका मतलब यह हुआ कि हम भी कानून बना सकते हैं. क्योंकि भारत वर्ष में समाज की चेतना का नितांत अभाव है और यहां के लोग जातीय चेतना से जीते हैं. इसलिए दलितों की चेतना, पिछड़ों की चेतना, अक्लियतों की चेतना स्वयं अपना प्रतिनिधित्व चाहती है. कुछ लोगों का आरोप है कि बसपा पर सवर्णों का कब्जा हो गया है. सरकारी आंकड़ों का जिक्र करें तो कहा जा सकता है कि सबसे अधिक दलित उत्पीड़न यूपी में ही होता है. पिछले दिनों अलीगढ़ में एक इंजीनियर की हत्या हो गई. परिवार के लोग इसमें एक सवर्ण मंत्री का नाम ले रहे हैं, बावजूद इसके मंत्री के ऊपर कार्रवाई नहीं हो रही है. क्या इससे लोगों का विश्वास टूटता नहीं है? – देखिए, नंबरों पर मत जाइये. यहां हमकों अत्याचारों की संख्या को दूसरे तरीके से समझना होगा. इस बारे में सूक्ष्मता से अध्यन करने की जरूरत है. उत्तर प्रदेश कि जनसंख्या 16 करोड़ की है. इसमें दो करोड़ दलित हैं. एक तो जनसंख्या ज्यादा, दूसरी इसमें दलित समाज की संख्या ज्यादा. इसलिए नंबरो के हिसाब से अत्याचारों की संख्या ज्यादा होगी ही. दूसरे राज्यों की बात करें तो वहां कि जनसंख्या इतनी अधिक नहीं है, जिससे उनकी संख्या बढ़ जाए. लेकिन 2010 के आंकड़ों को देखें तो अनुपात के आधार पर सबसे ज्यादा अत्याचार मध्यप्रदेश में हुए हैं. (लेकिन अलीगढ़ जैसी घटना, मैं उनकी बात बीच में काटते हुए पूछता हूं.) विवेक जी कहते हैं ‘ देर सबेर न्याय हुआ है. लोग पकड़े गए हैं. चाहे अंगद यादव हों या फिर द्विवेदी सब पकड़े गए हैं. देर हो सकती है लेकिन अंधेर नहीं है.’ जब भी हम बहुजन समाज पार्टी के राज-काज को देखते हैं तो हमें एतिहासिकता भी देखनी चाहिए. भारतीय समाज ढ़ाई हजार वर्ष पुराना है, उसके अंदर जो विकृतियां हैं, वो ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी है. लेकिन बसपा सरकार केवल छह वर्ष की है और वह भी अलग-अलग चार-पांच हिस्सों में. तो आप यह चाहते हैं कि जो ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी एतिहासिकता है, जिसकी विकृतियां मानसिकता में भर गई हैं, वह पांच वर्ष की सरकार में पूरा हो जाएगा तो यह ज्यादती है. लेकिन हमको व्यक्ति की मंशा दिखेनी चाहिए कि क्या वह दिखाई दे रही है. अंबेडकर ग्राम से लेकर महामाया योजना तक जैसी बातें बताती हैं कि दलित उत्थान की प्रकृति हर योजना में समायोजित है. कोई यह नहीं कह सकता है कि सवर्णों के पक्ष में ज्यादा फैसले हो गए. जो भी फैसले हुए, चाहे वो कांशीराम गरीबी उन्मूलन हो, अंबेडकर ग्राम योजना हो या फिर महामाया योजना सबके सब गरीबों के पक्ष में जाते हैं. आपने बीएसपी के पक्ष में तमाम बातें गिनाई, लेकिन यूपी छोड़कर बसपा अन्य राज्यों में सफल क्यों नहीं हो पाई. यहां तक कि विगत महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में बसपा कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई. – सबसे बड़ी बात है कि आंदोलनों की अपनी एक पृष्ठिभूमि होती है. इसमें अगर हम महाराष्ट्र का उदाहरण ले लें, तो हमें लगता है कि बाबा साहेब के आंदोलन से लोग इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि वो अन्य नेताओं को जल्दी स्वीकार नहीं करेंगे. वहां के जो अपने लीडर हैं, लोग उनको भी स्वीकार नहीं करते. यही वजह है कि महाराष्ट्र में अलग-अलग जाति के लोग अलग-अलग जगहों से जाकर राजनीति करते हैं. बाबा साहेब के जो पौत्र हैं प्रकाश आंबेडकर, उनसे लोग अभी भी इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि वो दूसरे नेता की ओर प्रभावित नहीं हो पातें. एक बात और, महाराष्ट्र जैसे जगहों पर चुनाव बहुत तरीके से मैनेज भी किए जाते हैं. लेकिन वह भी कोई बड़ा प्रभाव नहीं छोड़ पातें? – क्योंकि वहां पर कांग्रेस का अपना आंदोलन है, जो दलित आंदोलन को स्वच्छंद रूप से खड़ा नहीं होने देना चाहते है. रामदास अठावले, योगेंद्र कवाडे, सुशील शिदें जैसे लोग आत्मनिर्भर दलित राजनीति को छोड़कर निर्भर दलित राजनीति की ओर आ रहे हैं. लोग अपने तात्कालिक फायदे को देखने लगते हैं और लौंग टर्म इंट्रेस्ट को नहीं समझते हैं. फिर इन्हें यूजीसी का चेयरमैन बना दिया जाता है या फिर राज्यसभा में भेज दिया जाता है. वहां उभरते हुए दलित लीडर- दलित दिमाग खत्म हो जाते हैं. कांग्रेसी नेताओं में इन्हें ‘कोऑप्ट’ करने की क्षमता होती है. फिर क्या यह मान लिया जाए कि दलित नेताओं में समाज के लिए जूझने की प्रवृति कम हुई है? – राजनेताओं की तो जरूर कम हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं है. लेकिन महाराष्ट्र का जो सामाजिक आंदोलन है वो ज्यादा परिपक्व हुआ है. वहां आज भी छोटे-छोटे बच्चे काम कर रहे हैं. इसलिए सामाजिक आंदोलनों की जड़ें वहां बहुत गहरी हैं, लेकिन राजनीतिक आंदोलन क्षीण हो गया है-बंट गया है, क्योंकि लोग अपने तात्कालिक फायदे के लिए काम करने लगे हैं. क्या यह समाज के समाज धोखा नहीं है? – बहुत बड़ा धोखा है. लेकिन कभी-कभी लोग ऐसा सोचते हैं कि हम अपने जीवन को सुधार लें, बाकि पीढ़ियां चाहे जो सोचे, कोई दिक्कत नहीं है. दलित नेताओं पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि अपने समाज का विश्वास जीतने के बाद वह अपने फायदे के लिए मुख्यधारा की अन्य पार्टियों से इस विश्वास को बेच देते हैं, यह आरोप कितना सही है. – देखिए, हमें दोनों तरफ देखना चाहिए. यह समझना चाहिए कि दलित समाज के अंदर बहुत गुरबत है. अशिक्षा है, गरीबी है. लेकिन हमारा समाज बहुत समझदार भी है. क्योंकि हम मेहनतकश इंसान है, इसलिए वास्तविक राजनीति की समझ नहीं है. लोग भावनावश अपना अधिकार सामने वाले को दे देते हैं, लेकिन ये है कि जैसे-जैसे समाज में पढ़े-लिखे लोग आ रहे हैं, बात अब दूसरी ओर जा रही है. अब जल्दी बेचने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. आज 4-5 आत्मनिर्भर दलित आंदोलन चल रहे हैं. आप देखेंगे कि इतने वर्षों बाद अब रामविलास पासवान अपने आत्मनिर्भर आंदोलन पर आ गए हैं. अब ठीक है कि बाद में वह जोड़ें या घटाएं. इधर लोग जस्टिस पार्टी को भी चलाने का प्रयास कर रहे हैं. तो मेरे कहने का मतलब यह है कि समाज राजनैतिक रूप से परिपक्व होगा. क्योंकि राजनीति एक ऐसी कला है, जिसे किए बिना नहीं समझा जा सकता. दलित समाज राजनीति से दूर रहा है, तो राजनीति नहीं जानता है. इसलिए जब भी कोई कुठाराधात होता है तो वो समझता है कि उसका नेता खराब है. लेकिन उसे संयम रखना चाहिए. अपने नेता पर भरोसा रखना चाहिए. यह बड़ी बात है. दलित राजनीति के भविष्य को आप कैसे देखते हैं? – आने वाले समय में आत्मनिर्भर दलित आंदोलन और परिपक्व होगा. जब लोगों को यह यकींन होगा कि आत्मनिर्भर दलित आंदोलन से हम बहुत कुछ पा सकते हैं, तो लोग खुद आगे आएंगे. जैसे एक बार महाराष्ट्र में एक यूनिवर्सिटी का नाम बाबा साहेब के नाम पर करने के लिए बहुत आंदोलन हुआ था, कईयों को शहादत देनी पड़ी थी, तो वहीं आज उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब के नाम पर कई कॉलेज हैं. आत्मनिर्भरता का यही फायदा है और इसे समझना होगा. दलित राजनीति के संदर्भ में पहले की और वर्तमान की चुनौतियों में क्या अंतर है? – पहले दलितों को मानव समझाने की चुनौती थी. बाबा साहेब जब आंदोलन कर रहे थे तो दलितों को इंसान नहीं समझा जाता था. जब इंसान नहीं समझा जाता था तो उनके कोई अधिकार नहीं थे. बाबा साहेब ने पहली बार उन्हें नागरिक बनाने के लिए संघर्ष किया कि ये भी नागरिक हैं. जब नागरिक बन गए तो नागरिकों के मौलिक अधिकार होते हैं, उन अधिकारों को उन्होंने संविधान में प्रदत कराया. आज सबसे बड़ी चुनौती बाबा साहेब द्वारा संविधान में दिलाए गए अधिकारों को, ‘लैटर ऑफ स्पिरीट’ में लागू करवाना है. क्योंकि इसके लागू नहीं होने की स्थिति में आंदोलन ठहर जाएगा. आज हमारे पास बकायदा बिछी हुई बिसात है. केवल चाल चलनी है. दूसरी बात, बाबा साहेब ने नंबर की ताकत यानि वन मैन-वन वोट-वन वैल्यू समझा दिया था, जिसे मान्यवर कांशीराम ने समझा और कहा कि 100 में से 85 प्रतिशन वोट हमारा है. वो 85 फीसदी वोट जोड़ते रहे. इससे अभी थोड़ी ही जातियां जुड़ी हैं और देखिए कि सरकार बन गई. दलितों को यह समझना पड़ेगा कि संगठन में शक्ति होती है और बिना सभी के जुड़े एक बड़ा समाज नहीं बनेगा. अंतरजातीय स्वभाव को भूल करके अपने संघर्ष को बड़े आयाम में कैसे परिवर्तित किया जाए, यह सोचना होगा. हम सब कास्टीज्म भूल करके अपने बड़े युग्म की तरफ बढ़ें. इसको लेकर बहुत बड़ी चुनौती है. राजनीति में जब तक हमारे नंबर नहीं बढ़ेंगे तब तक सत्ता नहीं आएगी. आप समाज शास्त्र के शिक्षक हैं. सामाजिक रूप से जो पिछड़ापन है, वह कैसे दूर होगा? – हां, यह दूसरी चुनौती है. पहले तो लग रहा था कि सारा दलित समाज गरीब है, अशिक्षित है, बेरोजगार है. लेकिन कालांतर में आजादी के 63 वर्ष के बाद एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जो शहरों में रह रहा है और जिसके पास नौकरियां है. इसलिए दलितों के दो फाड़ साफ दिखाई दे रहे हैं. एक शहर में रहने वाला दलित तो दूसरा गांवों में रहने वाला वर्ग. दोनों के मसले अलग हो गए हैं. जो शहर में रह रहा है, उसको अच्छी नौकरी, अच्छा घर और आरक्षण चाहिए. जो वर्ग गांवों में रह रहा है, गरीबी में रह रहा है वह अभी दो जून की रोटी की जुगाड़ में लगा है. ऐसे में इस आंदोलन की चुनौती यह होगी कि उस अंतिम पायदान पर खड़े दलित साथी कि मुश्किलों को समझ कर उन्हें साथ में लाएं और उनके लिए संघर्ष करे. दूसरी तरफ न्यायपालिका, अफसरशाही और विश्वविद्यालयों में जारी पक्षपातपूर्ण रवैये से भी जूझने की चुनौती होगी. लड़ाई कई मोर्चों पर है, इसलिए समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सबको किस तरह एक धागे में पिरो करके आंदोलित किया जाए. ये चुनौती सबसे बड़ी होगी. मायावती की जो अब तक की राजनीति है और उन्होंने यूपी की सरकार में आने के बाद जो काम किया है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं? – एक समाजशास्त्री के दृष्टिकोण से इसमें वो गधे और उसके बेटे वाली कहावत लागू होती है. (किस्सा सुनाते हैं) ‘एक गधे को लेकर बाप-बेटे जा रहे थे. रास्ते में लोगों ने हंसना शुरू कर दिया कि गधा रहने के बावजूद दोनों पैदल चल रहे हैं. बाप ने गधे पर बेटे को बैठा दिया तो लोग ताने देने लगें कि बाप पैदल चल रहा है, बेटा गधे पर है. अब बेटे ने बाप को बैठा दिया तो लोग बाप की निंदा करने लगे कि बेटे को पैदल चला रहा है और खुद आराम कर रहा है. अब दोनों गधे पर बैठ गए तो लोग बाप-बेटे को निर्दयी कहने लगे कि एक गधे पर दोनों बैठ गए हैं. जब दोनों लोग उतर गए तो लोग फिर हंसने लगे.’ इस समाज के साथ भी ऐसा ही हैं. इस समाज द्वारा कुछ भी किया जाएगा वह ग्राह्य नहीं होगा. इसलिए संतोष की बात करना एक अतिश्योक्ति है. न कोई संतोष कर रहा, न ही कोई संतुष्ट है लेकिन अच्छा इसलिए लग रहा है कि एक प्रयास है और इसे सभी को सराहना चाहिए. तभी जाकर एक साकारात्मक छवि बन पाएगी. आज राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेतृत्व के नाम पर एक शून्य उभर आया है. जगजीवन राम आखिरी नेता थे, जिससे देश भर के दलित जुड़े. मायावती हैं तो वह कुछ राज्यों तक सीमित है. यह शून्य कैसे भर पाएगा? – राष्ट्रीय स्तर पर एकांगी नेतृत्व पुरानी बात हो गई है क्योंकि समाज अब आगे निकल गया है. जब तक राष्ट्रीय स्तर पर शून्य की बात है तो, जब तक समाज से अखिल भारतीय स्तर पर प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं उभरेगा, लोग उसको राष्ट्रीय नेता नहीं मानेंगे. इसलिए समाज को यह लगता है कि अखिल भारतीय स्तर पर कोई लीडर नहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति को भी देखें और उसमें एक खास परिवार को छोड़ दें तो यहां भी किसी भी पार्टी में अखिल भारतीय लीडर नहीं है. अगर यह पैदा करना है तो जन आधार पैदा करना पड़ेगा. यह बात दिखाई नहीं पर रही. रामविलास पासवान और उदित राज जैसे लोगों की राजनीति का भविष्य क्या है? – इन लोगों की शुरुआती दौर की राजनीति एंटी बसपा रही है. अब तक इन लोगों ने कोई साकारात्मक प्रोग्राम नहीं दिया है. अब तक इन लोगों ने लुभावने वादों पर राजनीति की हैं. जब तक ये कोई साकारात्मक प्रोग्राम नहीं देंगे और अपनी पार्टी के संगठनात्मक ढ़ांचे को मजबूत नहीं करेंगे, तब तक मुझे नहीं लगता कि इनका कोई भविष्य है. अपनी पार्टी की संरचना में इनको संगठनात्मक ढाचे को मजबूत कर उसमें कैडर बनाने होंगे. अगर ये लोग इसके लिए समय देने को तैयार है. तो कुछ संभव है. क्या यह संभव है कि सभी दलित नेता एक मंच पर आ सकते हैं? – कतई नहीं. यह हो ही नहीं सकता क्योंकि जो बड़े लीडर हैं उन्हें लगता है कि उनकी राजनीति सुरक्षित है. वैसे ही जो पुराने नेता हैं वो क्यों किसी के साथ काम करेंगे. जैसे संघप्रिय गौतम हैं, उन्होंने बाबा साहेब के साथ काम किया है. दूसरे उनके सामने बच्चे हैं. रामविलास पासवान वगैरह खुद को स्थापित लीडर समझते हैं, वो किसी के साथ क्यों आएंगे. बहन मायावती की तो अपनी राष्ट्रीय पार्टी है, तो क्यूं किसी के साथ जाएंगी. जहां तक छोटे लीडरों की बात है, उनकी अपनी इतनी छोटी-छोटी डिमांड है कि वो पनप नहीं पा रहे हैं तो इसलिए साथ आना मुश्किल है. आज की राजनीति में चारो ओर यूथ की बात हो रही है. कांग्रेस-भाजपा और तमाम पार्टियां उनको लुभाने में जुटी है. लेकिन जो दलित युवा है, वह कहां जाए? – सबसे बड़ी बात है कि दलित युवा एकांगी नहीं है. उसमें भी कई फाड़ हैं. सबसे बड़ा तबका ग्रामीण इलाकों में है. वह अनपढ़ और डेली वेज पर काम करके जी रहा है. उसके सामने सबसे बड़ा अंधकार है. उसके लिए प्रोग्राम, पॉलिसी और न्याय जुटाना दलित आंदोलन के लिए एक चैलेंज होगा. जो दूसरा यूथ है वह पहली पीढ़ी का है और शहरों में है. वह डाक्टर, इंजीनियर बनने में लगा है. एक पीढ़ी ऐसी है, जिसकी पहली जेनेरेशन विश्वविद्यालयों में आ गई है. वह टीचर हो गया है तो उसकी कोई बिसात नहीं है, उसको कोई सुनता नहीं है. तो ये जो तीन प्रकार के यूथ हैं इनके अपने-अपने एजेंडे हैं. दलित समाज की जो पार्टियां हैं उनकी खुद के इतने मसायल हैं कि वो यूथ विंग नहीं संभाल सकते. कांशीराम जी से यह प्रश्न किया गया था कि आप यूथ विंग क्यो नहीं बनाते. उनका जवाब था कि विंग कि जरूरत प्लेन को पड़ती है. जब प्लेन टेक ऑफ कर लेता है तो उसकी बॉडी संभालने के लिए विंग चाहिए होता है. लेकिन हमारी बॉडी ही नहीं संभल रही. इसलिए हमारे यूथ को अपने आप आत्मनिर्भर संगठन के संदर्भ में सोचना चाहिए कि किस तरह सत्यनिष्ठा के साथ आंदोलन चलेगा. क्योंकि यह तबका बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाता है और बहुत जल्दी बहक भी जाता है. इसलिए हमारे जो यूथ हैं उन्हें और भी परिपक्वता और विचारधारा के आधार पर जोड़ना पड़ेगा ताकि कोई उसे बरगला न कर सके. क्या आप निजी क्षेत्र में आरक्षण का समर्थन करते हैं? – बिल्कुल, सौ फीसदी. लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि क्यों होना चाहिए? देखिए, पब्लिक सेक्टर दलितों को केवल सात फीसदी जॉब देता है. जबकि 97 फीसदी लोग प्राइवेट सेक्टर में बिना रिजर्वेशन के जीते हैं. भारत में अगर इंडियन लेबर कमिशन का जॉब का आंकड़ा लें तो तकरीबन दो करोड़ जॉब आते हैं. इन दो करोड़ लोगों में शिड्यूल कास्ट का आरक्षण प्रतिशत गिन लिया जाए तो वो तकरीबन तीस लाख होगा. एक परिवार में पांच लोगों को मान लिया जाए तो डेढ़ करोड़ लोग दलितों को आरक्षण के तहत मिलने वाली नौकरियों से लाभान्वित होते है. दलितों की आबादी है 18 करोड़. अब 16 करोड़ 50 लाख लोग बिना रिजर्वेशन के ही जी रहे हैं. ऐसे में प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की जवाबदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए. हमारे लोगों को अब नौकरियों के अलावा संसाधन में भी आरक्षण मांगना चाहिए. जमीन के बंटवारे में भी हमें हमारा हक मिलना चाहिए. हमें सप्लाई में भी रिजर्वेशन मिलना चाहिए. मेरा मानना है कि अगर एक अस्पताल में किसी दवा की 100 गोलियां बिकती है, तो इसमें से 16 गोलियां हमारे लोगों से खरीदी जानी चाहिए. सरकार चाहे तो क्वालिटी जांच ले. जूते बनाने का धंधा तो हमारे लोगों का है. स्पोर्ट्स हॉस्टल में हमसे भी 100 में 16 जूते लो. यह चीज गाड़ियों, डीलरशिप जैसी हर छोटी-बड़ी चीज की सप्लाई में होनी चाहिए. ऐसा करके सरकार किसी का हक नहीं मार रही है. बल्कि दलितों में नए इंटरप्येनोरशिप डेवलप कर रही है. इसके लिए सरकार को केवल एक आर्डर निकालना है. केवल नौकरियों में आरक्षण मांगकर हमें अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए. क्योंकि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां कम हो रही है. यह तर्क भी सुनने में आता है कि दलितों में योग्यता नहीं है? – जहां तक निजी क्षेत्रों में योग्यता की बात है तो इसकी कोई संवैधानिक परिभाषा नहीं है. योग्यता की परिभाषा वो लोग बनाते हैं जो सत्ता में होते हैं. और सत्ता में बैठने वाले लोग योग्यता का निर्धारण हमेशा अपने पक्ष में, अपनी सांस्कृतिक विरासत के आधार पर करते हैं. तीसरी बात यह है कि योग्यता का निर्धारण आजकल परीक्षा में आने वाले अंकों से निर्धारित होता है. अंग्रेजी बोलने को ही योग्यता का आधार माना जाता है. यह भी उन्हीं के द्वारा किया गया निर्धारण है. जबकि भाषा ज्ञान की निशानी नहीं है, बल्कि सोशल बैकग्राउंड की निशानी है. इसलिए व्यक्तियों के सामाजिक परिवेश को देखकर योग्यता का पैमाना बने और उसके आधार पर परीक्षा हो. तब कहीं जाकर हम एक समाज की कल्पना कर सकते हैं. फिर से मायावती की बात करते हैं. उन्होंने अपनी राजनीति बहुजन समाज के नारे के साथ शुरू की थी. आज वह सर्वजन समाज के नारे पर आ गई हैं. क्या यूपी में बहुजनों की समस्याएं खत्म हो गई हैं? बहुजन समाज पार्टी को दो तरीके से समझना चाहिए. एक तो वो राजनैतिक आंदोलन है, दूसरा सामाजिक आंदोलन भी है. राजनीतिक आंदोलन के तहत जो नारे दिए गए हैं वो राजनीति तक ही सीमित रह सकते हैं. एक बात और है. आपके जितने वोट हैं, उससे आप आत्मनिर्भर सरकार नहीं बना सकते हैं और इसलिए आपको दूसरे समाज का सहारा लेना पड़ेगा. इसलिए राजनैतिक तौर पर तो यह नारा सही हो सकता है लेकिन सामाजिक तौर पर जब हम काम देखते हैं, जैसे बुद्ध के नाम पर प्रतिमा बनती है, महामाया के नाम से शहर बनता है, कांशीराम के नाम से योजनाएं बन रही है, तो इसका मतलब यह हुआ कि सामाजिक तौर पर आंदोलन आज भी जारी हैं. बाकी सत्ता में आने के बाद सबको संरक्षण देना होता है. सबको साथ लेकर चलना पड़ता है. तो जो भी परिवर्तन है, वह सत्ता में आने के बाद का परिवर्तन है. आपने मूर्तियों की और महामाया नगर की बात की. इसको लेकर भी बसपा और मायावती की काफी आलोचना हुई है. – मैं इन मूर्तियों और पार्क को रिएक्सनरी एजेंटे से नहीं देखता हूं. यह बसपा के विचारात्मक सोच का नतीजा है क्योंकि अपना दल बनाते समय ही उन्होंने इंगित कर दिया था कि जब हम सत्ता में आएंगे तो हम आपको वो सब देंगे जिसका वादा किया था. उन्होंने यह किया भी. इसलिए मुझे लगता है कि वो साकारात्म एजेंडा था. पूर्ववर्ती सरकारों में बहुजन समाज के लीडरों को न्याय नहीं दिया, इज्जत नहीं दी. कल तक जिन जगहों पर केवल सवर्णों का एकाधिकार था और जो दलितों के लिए प्रतिबंधित थी, उस एकाधिकार को तोड़कर वहां दलितों की मूर्तियां लगाना जनतांत्रिकरण की निशानी है. इससे कल तक जो लोग चमरौटी में सीमित कर दिए गए थे, वो चौराहे पर आ रहे हैं. इसमें लोगों को मूर्तियों से कोई परहेज नहीं है बल्कि उन्हें एकाधिकार टूटने का डर सता रहा है. वास्तविकता में वही लोग इसकी निंदा कर रहे हैं, जिनकों इन महापुरुषों के योगदान के बारे में कुछ नहीं पता. उनको भी दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि उनकी कक्षाओं में, उनके विश्वविद्यालयों में कभी इन महापुरुषों की चर्चा होने ही नहीं दी गई. इसकी वजह से वो चेतना शून्य हैं. इसलिए उनको दोषी ठहराना गलत होगा. आपने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दलितों की आवाज उठाई है. वहां किस तरह की दिक्कतें होती हैं? – अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सरकारों की बातें होती हैं, व्यक्तियों की नहीं. इसलिए वो सुनना नहीं चाहतें क्योंकि दो देशों के रिश्ते प्रभावित होते हैं. उनको भारतीय समाज की जो वास्तविकता है, वह भी नहीं पता. उनको लगता है कि भारतीय लोग बड़ी शांति से, भक्ति से जैसे पहले रह रहे थे, आज भी वैसे ही रह रहे हैं. उनके मुताबिक भारत में कोई शोषण नहीं है. हमारे देश का एक तबका भी यह प्रचारित करता हैं कि हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं है. कुछ था तो संविधान ने उसका संज्ञान ले लिया है. लेकिन अब संयुक्त राष्ट संघ ने इसका संज्ञान ले लिया है. आपकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं? – मेरी कोशिश दलित समाज की साकारात्मक छवि स्थापित करने की है. अब तक जो छवि बनी है, उसके मुताबिक हम गंदे, दारूबाज और अयोग्य हैं. मैं इस छवि को बदलना चाहता हूं. हमें बताना होगा कि हमारा समाज लेने वाला नहीं बल्कि देने वाला है. चाहे वह किसी बच्चे को सबसे पहली बार छूने वाली दाई हो या अन्य कार्य करने वाले लोग, हमारे ही श्रम से देश चलता है और देश में आर्थिक बदलाव आता है. मेरी कोशिश समाज के नायक-नायिकाओं को उभारने की है. बाबा साहेब को दलित नेता के रूप में सीमित कर दिया गया था, जबकि वो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के नेता थे. आज कई चिंतक इसे दिशा दे रहे हैं. भारतीय समाज में जो दलित समाज है, उसके अपने मूल्य है. उसे वापस लाना होगा. चूंकि शिक्षा के क्षेत्र में हूं इसलिए सोचता हूं कि भारतीय समाज के प्राइमरी से लेकर पीएचडी तक हर पाठ्यक्रम में दलित समाज की सकारात्मक छवि को किस तरह समायोजित किया जाए. वंचित समाज के हित में अगर आपको एक फार्मूला बनाने को कहा जाए, तो इस समाज की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात ठीक करने के लिए आप क्या करेंगे? – यह कहना तो जरा मुश्किल है लेकिन एक फार्मूला यह हो सकता है कि वास्तविकता में दिक्कत कहां है, उसकी प्रकृति क्या है, उस दिक्कत को समझा जाए, तब जाकर उसका हल मिल सकता है. इसे चिन्हित करना होगा. बाबा साहेब ने 60 साल पहले जिन मुश्किलों को समझा था, वह आज भी बहुत दूर नहीं हो पाई हैं. आज के कंप्यूटर युग में बाबा साहेब के दिए मूलमंत्र के साथ 21 सदी के कालखंड को समझना होगा. आज अदालत, ब्यूरोक्रेसी, राजनीति और मीडिया जैसी सत्ता को चलाने वाली संस्थाओं में अनुपातिक जनसंख्या के आधार पर दलितों की भागीदारी जरूरी है. जमीन और संसाधन में भागीदारी सुनिश्चित करने की भी जरूरत है. विवेक जी, आपने इतना अधिक वक्त दिया और विस्तार से बातें की, धन्यवाद – धन्यवाद अशोक जी।
डा. विवेक कुमार से संपर्क करने के लिए आप उन्हें vivekkumar@mail.jnu.ac.in पर मेल कर सकते हैं. दलितमत.कॉम से संपर्क करने के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.