राजनीति फेल्योर लोगों का जमावड़ा है – संजय पासवान

राजनीति में आने के पहले के अपने जीवन के बारे में बताइए। – राजनीति में स्टूडेंट लाइफ में ही आ गए थे. थैंक्स टू सीपीआईएमएल मूवमेंट. पटना साइंस कालेज में पढ़ने के दौरान ही हम उनके स्टूडेंट विंग में शामिल हो गए थे. उन दिनों से ही पॉलिटिक्स में आने के प्रति इच्छा जगी. लेकिन बाद के दिनों में लगा कि अगर हाऊस की राजनीति करनी है, पार्लियामेंट में जाना है तो शायद सीपीआईएमएल के माध्यम से वहां जाना संभव नहीं है. तब मैने मेनस्ट्रीम पार्टी में जाने का मन बनाया. तभी शादी भी करनी थी लेकिन दिक्कत यह थी कि कोई बाप नेता को अपनी बेटी नहीं देता है. शादी करने के लिए नौकरी जरूरी थी. तो 1986 में मैं इलाहाबाद बैंक में पीओ हो गया. जुलाई 86 में मैंने नौकरी ज्वाइन की और इसी साल दिसंबर में शादी कर ली. आप यह कह सकते हैं कि मैनें शादी करने के लिए नौकरी की. बाद में 1996 में मैने बैंक पीओ की नौकरी छोड़ दी और पटना यूनिवर्सिटी में लेक्चरार हो गया. यहां यह सुविधा रहती है कि आप लंबी छुट्टी पर जा सकते हैं. अभी तो हम फुल टाइम पॉलिटिक्स में हैं. शुरुआत में धक्के खाने के बाद अब राजनीतिक जीवन में सेटल हो गए हैं. पिता इंजीनियर थे तो अपने बचपन में मैंने बहुत अभाव नहीं देखा. लेकिन स्वभाव से हमने वंचनाओं को समझा. बाद के दिनों में जब पब्लिक लाइफ में आ गए तो बहुत कुछ सीखने और जानने का मौका मिला. यानि आपका राजनीति में आना संयोग नहीं रहा, बल्कि आप पूरी प्लानिंग के साथ आए। – बिल्कुल सही सवाल किया आपने. हमने अनुभव किया है कि हमलोगों की पीढ़ी तक नब्बे तक दलित समाज के जो लोग राजनीति में आते थे, वह लाए गए होते थे. चूकि सीट रिजर्व थी तो उस समय के विकसित समाज के लोग दलितों को जबरिया राजनीति में लाते थे. किसी को ब्राह्मण लेकर आता था तो किसी को राजपूत. और ये लोग आने के बाद उनकी तिमारदारी करते थे. असली शासक वही लोग होते थे. रामाविलास पासवान भी अगर राजनीति में आए तो अपने कंविक्शन से नहीं आए, बल्कि उनको नौकरी नहीं मिली इसलिए आएं. बल्कि वह कुछ लोगों द्वारा लाए गए थे. मेरे मन में ये बात पहले से ही रही कि आखिर हमारे लोग कब खुद से आएंगे और पॉलिटिक्स को अपना करियर मानेंगे. मैं मानता हूं कि अपनी रुचि और अपने कंविक्शन से राजनीति में आने वाली जो पीढ़ी है, जिसमें 10-20 लोग आएं. उसमें मैं संजय पासवान भी शामिल हूं. मैं अच्छी-खासी नौकरी को छोड़कर इसमें आया और मुझे संतुष्टी है कि मेरा राजनीति में आने का फैसला सही था. सारे लोग स्वीकार भी कर रहे हैं और स्वीकार से ज्यादा अंगीकार कर रहे हैं. राजनीति शुरू करने के लिए आपने भाजपा को ही क्यों चुना ? – 1985-86 की बात है. उस वक्त कांग्रेस पार्टी अपने चरम पर थी. केंद्र की राजनीति में उसका पूरा बहुमत था. बिहार विधानसभा सहित देश के अधिकांश राज्यों में उसी का शासन था. जब मुझे भी मेनस्ट्रीम की राजनीति करनी थी तो लोगों ने कहा कि कांग्रेस में जाओ तभी एमएलए, एमपी हो सकते हो. मैने कांग्रेस में आना-जाना शुरू किया तो देखा कि वहां बहुत लंबी लाइन लगी हुई है. ऐसे में हमलोगों को मौका मिलते-मिलते दो-तीन दशक गुजर जाएगा. वहां पर बहुत ज्यादा चापलूसी भी थी जो मुझे पसंद नहीं आई. तब गैर कांग्रेसी दल के नाम पर लोकदल था. तमाम सोशलिस्ट पार्टियां थी. वहां भी दलित समाज की भीड़ थी. हम ऐसी पार्टी में जाना चाहते थे जहां हमारी पूछ हो और हमारी स्वीकृति हो. उन दिनों (85-86) में भाजपा; बिहार में एक छोटी सी उभरती हुई पार्टी थी. वहां बात शुरू हुई तो लगा कि लोग यहां हमें स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. तो भाजपा में जाने की वजह यह थी कि वहां एक स्पेस था. चूंकि मैं राजनीति में अपनी इच्छा से जा रहा था इसलिए मेरे लिए यह अहम था कि मैं वहां जाऊं जहां मैं अपने मन की बात कर सकू. तो आप कह सकते हैं कि भाजपा में जाने की वजह वहां स्पेस का होना था. मुझे बिहार भाजपा में स्पेस और सम्मान मिला भी. दलितों को समाज में सबसे नीचे रखा गया है. जाहिर है इसके लिए हिंदुवादी व्यवस्था जिम्मेदार है. भाजपा हिंदुत्व की बात करती है, ऐसे में भाजपा में रह कर दलित हित की बात करना कितना संभव है ? – देखिए…. हिंदुइज्म की बात जो भाजपा के लोग या बाकी लोग करते हैं तो सुप्रीम कोर्ट ने जो हिंदुइज्म की परिभाषा दिया कि यह जीवन पद्धति है. मेरी उससे सहमति है. पार्टी की बात है तो भाजपा को जमींदारों और कुछ वणिक समाज के लोगों ने शुरू किया था. तब व्यापार में नॉन हिन्दु मसलन, पारसी, जैन और मुसलमान ज्यादा थे. ये सब कांग्रेस के साथ थे. तो हिन्दु व्यापारियों ने कहा कि हमारी भी एक पार्टी होनी चाहिए. उस समय हिन्दुइज्म को लेकर चलने की बात एक पॉलिटिकल टूल था. तब भाजपा को लोग ब्राह्मण-बनिए की पार्टी कहते थे. आज डेमोक्रेसी ने बीजेपी को भी डेमोक्रेटाइस कर दिया है. भाजपा पहले से विस्तृत हुई है. आज यहां जैन भी है, बुद्धिस्ट भी हैं, हमलोग भी हैं. आज की भाजपा का हिन्दुइज्म संपूर्ण हिन्दू समाज है. अब लोग उतना बड़ा दिल कर के चल रहे हैं. आज अगर लोग नरेंद्र मोदी को स्वीकार कर रहे हैं तो इसी कारण से क्योंकि एक गरीब का बच्चा, एक तेली समाज के लड़के को अगर पीएम के रूप में लाने की बात हो रही है तो यह बड़ी बात है. आपने ब्राह्मण और बनिया की पार्टी कही. प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नाम लिया. लेकिन जो देश का इतिहास है, उसमें गैर ब्राह्मणों को प्रधानमंत्री का पद मिलना काफी मुश्किल है. इतिहास गवाह है कि बाबू जगजीवन राम जी सिर्फ अपनी जाति के कारण पीएम नहीं बन पाएं. यह भी कहा जाता है कि जो आडवाणी भाजपा को इतना आगे लेकर आएं, वह भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएं. क्योंकि देश की ब्राह्मणवादी ताकतें वाजपेयी जी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी. ऐसे में क्या मोदी प्रधानमंत्री बन पाएंगे ? – देखिए देश में जो है, राज-समाज. यानि राज से समाज प्रभावित होता है और समाज से राज प्रभावित होता है. राजनीति के लोगों ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस देश का पीएम गैर ब्राह्मण हो सकता है. कांग्रेस ने गैरब्राह्मण डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया. अब चूकि राज स्वीकार कर रहा है और समाज उसे स्वीकार करने के लिए बैठा हुआ है. इसलिए मुझे नहीं लगता कि इसमें कहीं चाल-वाल है. और आपने जो अटल बिहारी वाजपेयी की बात कही तो वाजपेयी से ज्यादा समाज को कौन समझता था. मुझे वो घटना याद है, जब एक दलित नेता ने वाजपेयी जी को ‘जय श्रीराम’ कहा तो वाजपेयी जी ने उससे कहा कि अरे भाई मैने तो तुमको भेजा है ‘जय भीम’ करने के लिए, तू क्यों जय श्रीराम कर रहा है? तुम जय भीम बोलो तब दलित समाज तुमसे और भाजपा से जुड़ेगा. आप समझ सकते हैं कि उनका दिल कितना बड़ा था. अगर कोई अपना दिल बड़ा नहीं करेगा तो इस देश में शासन करना बड़ा मुश्किल है. तो केवल ब्राह्मण होना ही नहीं बल्कि सुयोग्य और काबिल होना भी अटल जी के पीएम बनने में महत्वपूर्ण मापदंड रहा है. नरेंद्र मोदी के मामले में भी यह बात साबित होती है. राजनीतिक दलों में ये जो सेल (मोर्चा) की परंपरा है, जैसे अनुसूचित जाति सेल एवं अन्य सेल. क्या वह तुष्टीकरण नहीं है? – मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं. यह बिल्कुल तुष्टीकरण है और लोगों को समायोजित करने का तरीका है. चाहे यह कांग्रेस करे, हम करें या अन्य पार्टियां करे. पार्टी के मुख्य ढांचे में ही विभिन्न जातियों को रखकर काम किया जा सकता है लेकिन सेल के माध्यम से लोगों को अकोमोटेड किया जाता है ताकि कई लोग हिस्सेदार-भागीदार बने रहे. और लोग इससे खुश भी होते हैं. और जब लोग खुश हैं तो ऐसे किसी बदलाव का स्वागत करना चाहिए. पार्टी के राष्ट्रीय मंचों पर अनुसूचित जाति के अध्यक्षों की भागीदारी महज 14 अप्रैल तक ही सिमट कर क्यों रह जाती है. – पार्टी के मोर्चा या सेल में उन्हीं लोगों को एडजस्ट किया जाता है जिनको पार्टी मानती है कि ये एवरेज (औसत) लोग हैं. जैसे मैं भी अपनी पार्टी की नजर में एक एवरेज व्यक्ति हूं. ऐसे में पार्टी इनको मुख्यधारा में नहीं रख के मोर्चा (सेल) में रख देती है. हम ये मानते हैं कि औसत किस्म के लोगों को सेल, मंच में एडजस्ट किया जाता है इसलिए औसत काम दिखाई देता है. इसलिए वो लोग खास मंचों पर दिखाई पड़ते हैं. जिस दिन मोर्चे में कुछ जीनियस लोग आने शुरू हो जाएंगे तो पार्टी में कुछ काम अच्छे होंगे. हमारे बंगारू लक्ष्मण जी पहले मोर्चा के अध्यक्ष थे फिर वो राष्ट्रीय अध्यक्ष हो गए. उनकी योग्यता और क्षमता को देखकर पार्टी ने उनको आगे बढ़ाया. आपने बंगारू लक्ष्मण जी का नाम लिया. एक बात यह भी चर्चा में रही थी कि वो जिस तरह कैमरा के सामने आए, फिर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, उसमें पार्टी के ही कुछ लोगों का हाथ था? – नहीं.. नहीं…। ये महज दुरसंयोग था. पार्टी ने ही उनको अध्यक्ष बनाया, अगर पार्टी चाहती तो उनको अध्यक्ष नहीं बनाती. यह बंगारू लक्ष्मण का दुर्भाग्य था कि ऐसी स्थिति बन गई. बतौर अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष पार्टी से दलित समाज को जोड़ने के लिए आपकी क्या रणनीति है, आप कैसे काम करेंगे? – पार्टी के दस प्रतिशत वोट को बढ़ाने का लक्ष्य है. हमने आते ही कहा कि अनुसूचित जाति मोर्चा दलितों के रूप में चार प्रतिशत वोट बढ़ाने की जिम्मेवारी लेता है. इस कारण से मैने अपने वरिष्ठ पदाधिकारियों से कहा कि इसके लिए मुझे आजादी देनी होगी. उस चार प्रतिशत वोट के लिए हम प्रयास कर रहे हैं. मैने चार प्रमुख दलित व्यक्तित्व (आईकान) की तस्वीर को प्रमुखता से अपनी बैठकों में, अपने कार्यालयों में लगाया है. हमने अपने (मोर्चे के) जिला कार्यालयों से भी कहा है कि वह चार लोगों को अपना आईकान माने. डॉ. अंबेडकर के बाद नंबर दो में बाबूजगजीवन राम, नंबर तीन में के. आर नारायणन और फिर नंबर चार कांशीराम जी. इन चारों में कोई भी ओरिजनली बीजेपी से नहीं है. इसको लेकर थोड़ी कंट्रोवर्सी हुई लेकिन हमने कहा कि हमारा समाज इन चारों को जानता है और इनको एक राजनेता से बड़ा दर्जा देता है. इन चारों को हमने पार्टी में स्वीकार कराया. पार्टी के बड़े नेताओं ने इस थ्योरी को स्वीकार किया. इन चारों के नाम पर हम चारों दिशाओं में चार यात्राएं प्लॉन कर रहे हैं. हमलोगों ने मुख्य रूप से चार समूह को आईडेंटिफाई किया. एक दलित महिला, दलित बुद्धिजीवी, दलित श्रमजीवी और दलित उद्यमी. हम इन चार वर्गो में विशेष रूप से काम कर रहे हैं. इनसे संवाद कर रहे हैं. मुझे लगता है कि इन चार वर्गों में काम करने से हम कामयाब होंगे. कांग्रेस मुक्त समाज बनाने के लिए जो चार कंधा चाहिए वो चार कंधा हम देंगे. इस चार प्रतिशत वोट की बदौलत हम कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर के भाजपा को सत्ता में लाएंगे. आपने चार समूहों की बात की. इसमें आपने दलित उद्यमियों का भी नाम लिया. दलित उद्यमियों के संगठन डिक्की को आप कैसे देखते हैं? – मोर्चा का अध्यक्ष बनने के बाद तुरंत ही मैने भाजपा के मंच से डिक्की के अध्यक्ष मिलिंद कांबले का अभिनंदन किया. इस दौरान भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद, हो सकता है उनके अपने विचार किसी अन्य पार्टी के साथ हो लेकिन उनका संबंध शुरू से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से रहा है. उनको हमारी शुभेच्छा है कि वो और आगे बढ़ें. उन्होंने समाज को एक नया आयाम दिया है कि दलित भी पूंजीपति और उद्यमी हो सकता है. दलित उद्यमी संवाद के माध्यम से हम उन्हीं की बात को भाजपा के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं. संवाद के जरिए हम बुद्धिजीवी, स्त्रियों, श्रमजीवी और उद्यमी के साथ मिलकर चार प्रतिशत वोट बढ़ाने के काम में लगे हैं. मोर्चे का अध्यक्ष बनने के बाद आपने दलित दस्तावेज जारी किया. इसके पीछे क्या उद्देश्य था? – दलित दस्तावेज में मेरी सोच है. और यह सोच भाजपा की भी हो, ऐसा अभी नहीं है. इसलिए हमने इसे राष्ट्रवादी अंबेडकरवादी महासभा के जरिए प्रकाशित किया है. मैं खुद इस संगठन का संयोजक हूं. हम प्रयास करेंगे कि दलित दस्तावेज की सोच भाजपा की भी हो जाए. मैं इस प्रयास में लगा हुआ हूं. ये हमारी योजना है. फिलहाल यह ड्राफ्ट की शक्ल में है. आने वाले छह दिसंबर को हम इसे और ज्यादा एक्सपेंड करने वाले हैं. तब हम फाइनल दस्तावेज पास करेंगे. हमारा प्रयास है कि इस बात पर संघ परिवार और भाजपा परिवार दोनों सहमत हो. हमारी यह भी कोशिश रहेगी कि इसके अंश भाजपा के मेनिफेस्टो (घोषणा पत्र) में जुड़े. यानि क्या हम संजय पासवान को ऐसे राजनीतिज्ञ के रूप में देखें जो भाजपा में रहते हुए भी अपनी शर्तों पर काम करते हैं? – ये आपने सही कहा लेकिन यह भी है कि अपने अनुसार पार्टी को चलाना कहीं न कहीं मनमाना पन भी है. कुछ लोग ऐसा इल्जाम लगाते भी हैं कि संजय पासवान मनमौजी किस्म का आदमी है. लेकिन मैं चाहता हूं कि भाजपा के फ्रेम वर्क में रह कर के, देश हित को ध्यान में रख कर के दलित हित भी हो, देश हित भी हो, दल हित भी हो और स्वहित भी हो, मैं ऐसा प्रयास कर रहा हूं. भाजपा के लोग बहुत बातें समझते हैं ऐसा भी नहीं है. जैसे मैने कहा कि अगर हम गरीबों की बात करें तो सबसे ज्यादा दलितों का कल्याण होगा. अगर हम करप्शन की बात करेंगे तो भी सबसे ज्यादा दलितों का हित होगा क्योंकि इससे सबसे ज्यादा प्रभावित यही तबका है. यानि जितना करप्शन खत्म होगा, गरीबी खत्म होगी, उतना ही शिड्यूल कॉस्ट लाभान्वित होगा. हमने पार्टी के लोगों से कहा कि इन मुद्दों पर हमारा एससी मोर्चा बैनर लेकर आगे रहेगा क्योंकि यह मुद्दा हमारे समाज से जुड़ा हुआ है. मैं सरकारी क्षेत्र के निजीकरण के खिलाफ हूं. हमारी पार्टी भले ही इसके पक्ष में रहे. हम दलितों को इस बात की लड़ाई लड़नी चाहिए कि सरकारी क्षेत्र का निजीकरण अविलंब बंद हो. इस बात को लेकर मैं पार्टी में भी लड़ने वाला हूं कि हम विनिवेशीकरण नहीं करेंगे. क्योंकि सरकार के हाथ में चीजें रहेंगी तो अपने आप आरक्षण का लाभ मिल जाएगा. इसलिए इसकी बजाय की निजी क्षेत्र में आरक्षण हो, मैं इस बात की मांग करता हूं कि निजी क्षेत्र का अस्तित्व ही खत्म हो. निजी क्षेत्र ने इस देश का नुकसान किया है; आगे और करेगा. इसलिए यह अविलंब बंद होना चाहिए. पहली बार ऐसा हुआ जब किसी पार्टी के दफ्तर में किसी अन्य पार्टी से जुड़े लोगों की तस्वीर लगी. इस पर पार्टी के लोगों का रिएक्शन क्या था ? – पार्टी के जो टॉप टेन लीडर हैं, उनमें से किसी ने भी आपत्ति नहीं की. लेकिन बीच के जो टॉप 20 लीडर्स थे, उनलोगों को दिक्कत थी. कई लोगों ने इस बारे में मुझसे आपत्ति भी दर्ज कराई. बाद में जब मैनें टॉप लीडर्स से बात किया तो सबकी सहमति थी. मैने लोगों से कहा भी कि मुझे आजादी चाहिए. मैने कहा कि अगर आप चाहते हैं कि दलित भाजपा में आएं तो मुझे आजादी देनी होगी. मैं राजनाथ सिंह जी और नरेंद्र मोदी जी का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे आजादी दिया. और एक बयान, जिसे आडवाणी जी ने दिया था, मुझे उससे भी ताकत मिली. आडवाणी जी ने लोहिया की चर्चा की थी. उन्होंने कहा कि लोहिया रामायण मेला लगाते थे और ऐसे लोहिया को हमें याद करना चाहिए. चाहे किसी पार्टी के हों पर जो लोग हमारे हित की बात करते रहे हैं और अब इस दुनिया में नहीं हैं उनको हम मानेंगे. इसमें पार्टी के टॉप लीडर की मुझे न सिर्फ सहमति मिली बल्कि उन्होंने मेरे हिम्मत को बढ़ाया. भाजपा के अलावा आप किन-किन पार्टियों में रहे? – मैं भाजपा छोड़ने के बाद कई पार्टियों में गया. मैं लालू जी के साथ राजद में रहा, रामविलास पासवान जी के साथ गया, कांग्रेस में भी रहा. सबको नजदीक से देखने के बाद मुझे लगा कि भाजपा में गंदगी तो थी लेकिन दूसरी जगहों पर ज्यादा गंदगी है. अंतत्वोगत्वा फिर से भाजपा में लौट आया. भाजपा का दलित समाज से तालमेल कैसे हो, हमलोग इसको करने में लगे हुए हैं. दल में भी दलित की बात हो और दलित में भी दल की बात हो, इस प्रयास में लगे हुए हैं. अनुसूचित जाति मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते मैं पार्टी को अपना पूरा समय दे रहा हूं. फिलहाल मैने युनिवर्सिटी छोड़ रखी है और पूरा समय इस कोशिश में लगा रहा हूं कि भाजपा में कैसे दलित का प्रवेश हो, और दलितों में कैसे भाजपा का प्रवेश हो. इन दोनों काम में लगा हुआ हूं. जैसा कि आपने बताया कि आप तमाम दलों में रहे हैं. हर पार्टी की अपनी अलग-अलग विचारधारा है. तो विचारधारा को लेकर आपमें द्वंद नहीं है? – द्वंद था. तभी मैं तमाम दलों में गया था. मैंने शुरुआत की माले जैसी पार्टी से जो बिल्कुल दलितवादी पार्टी है, जनवादी पार्टी है, गरीबवादी पार्टी है. तो मन में ऐसा ही भाव था. मेरी जो तड़प थी; मैं उसी की तलाश में गया था. मैं भाजपा से सांसद हो गया था. मिनिस्टर हो गया था. बहुत आभारी हूं भाजपा का. लेकिन जो जनवादी विचारधारा थी वो मैं तलाश रहा था कि कोई ऐसी पार्टी मिले जिसमें आंतरिक लोकतंत्र हो, गरीबों के प्रति बनावटी नहीं असली सहानुभूति हो. भाव में दांव नहीं छिपा हो. लेकिन तमाम पार्टियां दांव वाली लगी. लेकिन थोड़ा-बहुत दांव कम लगा तो भाजपा में लगा. क्योंकि भाजपा में शिड्यूल कॉस्ट के लोग कम हैं. लेकिन जो लोग थे, मुझे लगा कि वहां भावपूर्ण बात है. मैंने देखा कि संघ परिवार में हिन्दू दलितों के लिए अगाध प्रेम है. यह मुझे बहुत अच्छा लगा. इन सब वजहों से ही मैं भाजपा में दुबारा आया. अब मैं प्रयास कर रहा हूं कि दलितों का हिस्सा और दलितों की भागीदारी भाजपा में सत्ता की जगहों पर हो. आप बिहार से आते हैं. आप सांसद बनें, मिनिस्टर बनें लेकिन बिहार की राजनीति में ज्यादा सफल नहीं हो पाएं, तो इसका मलाल तो रहा होगा. इसकी क्या वजह थी ? – आपने सही कहा. मेरे भाजपा छोड़ने की भी वजह यही थी. इसमें दो-तीन बातें हैं. 2002 में मेरा बिहार प्रदेश का अध्यक्ष बनना तय हो गया था. लेकिन मेरी किसी गलती कि वजह से वह मेरे हाथ से निकल गया. मुझे इस बात से बहुत कष्ट हुआ. क्योंकि इसके लिए मैं भाजपा सरकार में मंत्री पद छोड़ने को तैयार था. इसमें विफल होने के बाद मेरे मन में टीस सी बैठ गई. बात आगे बढ़ती गई और मैने तभी पार्टी छोड़ दिया. मोटा-मोटी कहें तो सांसद होने के नाते प्रदेश की राजनीति में स्पेस कम मिलता है. उस समय मैं पार्टी का राष्ट्रीय मंत्री भी था. राष्ट्रीय मंत्री होने के नाते मैं उड़िसा और अरुणाचल प्रदेश का प्रभारी था. इस वजह से उधर ही ज्यादा घूमना होता था और बिहार जाने का मौका कम मिलता था. बहुत चाहने के बावजूद मैं बिहार की राजनीति में धुरी नहीं बन सका. लेकिन इस बार मैं प्रयास कर रहा हूं कि मैं बिहार की राजनीति की धुरी बन सकू. मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद मैं आधा वक्त बिहार को और आधा वक्त शेष देश को देना चाह रहा हूं. 11 अप्रैल 2004 को आप पर हमला हुआ था, वह राजनीतिक हमला था या फिर उसके सामाजिक कारण थे. – वह बिल्कुल चुनावी हमला था. विधानसभा चुनाव के दौरान एक व्यक्ति टिकट चाह रहे थे. वह बड़े आपराधिक किस्म के थे. मैनें उनका टिकट काट दिया था. उस खुन्नस में उन्होंने मुझपर हमले करवाए थे लेकिन भगवान ने हमको बचा लिया. मैं उनलोगों का आभारी हूं जिन्होंने मुझे बचाया और हमलावरों को खदेड़ दिया. मैं नवादा के उन तमाम लोगों का आभारी हूं जिन्होंने न सिर्फ मुझे सांसद बनाया बल्कि मेरी जान भी बचाई. हालांकि हमले करने वाले भी नवादा के ही लोग थे. आप मानव संसाधन विकास मंत्री भी रहे. इस दौरान वो कौन से निर्णय थे जिसे आप खास मानते हैं. – देखिए मिनिस्टर ऑफ स्टेट का कोई मतलब नहीं होता है. असल में यह कुछ लोगों का समायोजन करने के लिए होता है. मैं खुलेआम कहता हूं. लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि हमारे वक्त में ही सर्वशिक्षा अभियान शुरू हुआ और मैं इसका इंचार्ज मिनिस्टर था. माननीय जोशी जी ने मुझे जो काम दे रखा था वह था प्राइमरी एजुकेशन एंड लिट्रेसी. इसी में सर्वशिक्षा अभियान था. तो मुझे इसे शुरू करने का गर्व है. इसके अलावे मैं कम्युनिकेशन में भी डेढ़ साल तक मिनिस्टर था. बिहार की राजधानी पटना में मोबाइल रामविलास जी ने दिया था लेकिन शेष बिहार में मोबाइल ले जाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वह दिवंगत प्रमोद महाजन और संजय पासवान को जाता है. यह मेरे काल में हुआ था. डायन कह कर सबसे ज्यादा दलित महिलाएं प्रताड़ित होती हैं. अंधविश्वास ने भी सबसे ज्यादा दलितों का ही नुकसान किया है. इसके बावजूद आपने मंत्री रहते तंत्र-मंत्र की वकालत की थी. अपने उस कदम को आप कितना सही मानते हैं. – तंत्र-मंत्र और आस्था को अंधविश्वास समझने से मुझे आपत्ति है. ये अलग है. अंधविश्वास सुपरसिसन है, आस्था ट्रस्ट (विश्वास) है. इसमें बहुत कम का फर्क है. ऐसा समझिए की एक पतली सी लाइन है दोनों के बीच में. हम ये मानते हैं कि उसमें जो साइंस है, जो सेंस है हमें उसको तराशना चाहिए. जैसे हम जिस जाति से आते हैं उसमें लोग आग पर चलते हैं. मैं खुद उन दिनों आग पर चला और मुझे कुछ हुआ नहीं. चाहे जो भी कारण रहा हो. हमारा अतिउत्साह रहा हो, या फिर टेक्नीक और टेक्टीस रहा हो. और अगर कुछ टेक्नीक और टेक्टीस है तो मुझे लगता है कि हमें उसको जानना चाहिए. आप उसको फोक विजडम (लोक परंपरा का ज्ञान) कह लें. जैसे आज फोक सांग की बात हो रही है तो अगर कुछ फोक प्रैक्टिसेस हैं तो उसको देखना चाहिए. आज डिस्कवरी और हिस्ट्री जैसे चैनल इसी चीज के पीछे लगे हुए हैं. हमारी जाति के कुछ लोग वैद्यगिरी भी करते थे, हालांकि वह आफिसियली वैद्य नहीं थे लेकिन उनकी दवाओं से लोग ठीक होते थे. तो इन सब विधाओं में जो सेंस छिपा है मैं उसकी बात करता था. मैं डायन प्रथा का संरक्षण कर रहा था ऐसी बात नहीं है. जब तोता वाला पंडित सड़कों पर तोता लेकर बैठता है या फिर बसहा बैल लेकर घूमता है तो लोग उसको हाथ दिखाते हैं, समाज उसे कबूल करता है तो फिर अगर हमारा भगत या फिर ओझा लोगों के ऊपर हाथ फेरता है तो उस पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए. आज रामदेव, आसाराम यही कर रहे हैं. शहरों के इन संत महात्माओं की तो पूछ है लेकिन गांवों में जो दलित समाज का संत-महात्मा है, उसको लोग अंधविश्वास कहते हैं. मेरी आपत्ति और लड़ाई इसी बात से थी. शहरों के बाबा लोग तो भगवान है लेकिन गांवों में ऐसे काम करने वाले दलित समाज के लोगों का उत्पीड़न होता है. चाइना में बियरफुड (बगैर डिग्री वाले, परंपरागत) डॉक्टर हैं, बियरफुड इंजीनियर हैं. ऐसे ही इंडिया में जो बियरफुड का सिस्टम रहा है तो उनलोगों को भी सम्मान देना चाहिए. आदिवासी समाज की ऐसी ही बातों को बचाया (Preserve) जा रहा है लेकिन दलित समाज के ऐसे काम Preserve नहीं हो पा रहे हैं. आज भी हमारे यहां तो दलित समाज के एक विशेष वर्ग की महिलाएं हैं, बच्चा पैदा करवाने की तकनीक उनसे अच्छा कौन जानता है? जब आज हॉस्पीटल में सीधे बच्चे का पेट फाड़ कर निकाल दिया जाता है लेकिन हमारी ये महिलाएं गर्भवती महिलाओं को कोई नुकसान पहुंचाए बिना अपने हाथ से बच्चा निकालती थीं. ये हमारी तकनीक थी. हम उसे भूलते जा रहे हैं. उस तकनीक को आधुनिक बनाने की जरूरत है. मैने इस चीज के लिए लड़ने का प्रयास किया था. मैंने बस कुछ ऐसे ज्ञानी लोगों को सम्मानित किया था लेकिन अखबार ने इस बात की दूसरी ही चर्चा कर दी और विवाद हो गया. यह मेरा प्रतिरोध था. मेरी तलाश फोक विजडम को लेकर थी जो आज भी जारी है. आप बिहार से आते हैं. बाबू जगजीवन राम जी भी बिहार से आते थे. आप उनसे कितना प्रभावित हैं. – शुरुआत में हमारा झुकाव मार्क्स, लेनिन और माओ की तरफ था. इन सबको जानने के बाद मैने डॉ. अंबेडकर को जाना. मैने डॉक्टर अंबेडकर, पेरियार, फुले को पढ़ा. उसके बाद बाब जगजीवन राम के बारे में जाने. तो इस तरह से स्टेज था. इन दिनों हम अपना पूरा ध्यान चार लोगों पर यानि डॉ. अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम, के.आर नारायणन साहेब और कांशीराम जी पर केंद्रित कर रहे हैं. मेरा मानना है कि के.आर नारायण साहब से सफल व्यक्ति कोई हो ही नहीं सकता है. समाज से मिलजुल कर और पार्टी से तालमेल बिठाते हुए उन्होंने हर पद को हासिल किया. वह रिपोर्टर रहे, अंबेसडर रहें, वाइस चांसलर रहे, सांसद बनें, राज्यमंत्री बने, उपराष्ट्रपति बनें और राष्ट्रपति बनें. वह लगभग ग्यारह पदों को पार करते हुए राष्ट्रपति पद तक पहुंचे. मैं उन्हें प्रणाम करता हूं. मैं प्रार्थना करता हूं कि भगवान उनका कुछ अंश दलित समाज को दे दे. डॉ. अंबेडकर जिन्होंने देश का संविधान बनाने जैसा महत्वपूर्ण काम किया. बाबू जगजीवन राम जो कभी चुनाव नहीं हारे. इस दुनिया में यह एक रिकार्ड है क्योंकि दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो चुनाव लड़ता हो और हारा नहीं हो. लेकिन बाबूजगजीवन राम अपवाद रहें. हमें उन पर गर्व है. इसी तरह कांशीराम जी ने उस समाज को सत्ता तक पहुंचाया जिसका व्यक्ति मुखिया तक बनने के बारे में नहीं सोचता था. उन्होंने साइकिल की यात्रा कर के हाथी चुनाव चिन्ह लेकर के इस देश के सबसे बड़े राज्य में अपनी पसंद का सीएम बना दिया. हम उनको पूजते हैं. इसलिए ये जो चारो व्यक्ति हैं. वो हमारे लिए चार पुरुषार्थ है. समाज में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो कहते हैं ये चारो हमारे लिए ऐसे ही हैं. एक धर्म के प्रतीक हैं, एक काम के, एक अर्थ के जबकि एक मोक्ष के प्रतीक हैं. इन चारों को हम प्रणाम करते हैं. बाबासाहेब और बाबूजी के सिद्धांतों को आप कैसे देखते हैं. – दोनों लोग समकालीन थे. बाबासाहेब का एप्रोच एक्सक्लूसिव था. बाबूजी का अप्रोच इनक्लूसिव था. यानि बड़ी पार्टी, बड़ा समाज इन सब से जुड़ कर रहो. बाबासाहेब का सोचना दूसरा था. दोनों अपनी लाइन पे ठीक थे. रास्ते अलग थे लेकिन दोनों का लक्ष्य दलित समाज और गरीबों का उत्थान और कल्याण ही था. भविष्य की आपकी क्या योजना है ? – आज देश में ओबीसी पीएम की बात चल रही है. यह भी एक स्टेज है. कल को हम सबके प्रयास से दलित भी इस देश का पीएम बने ऐसी कल्पना है. चूंकि अब चीजें शिफ्ट हो रही हैं. फारवर्ड समाज से इतर आज ओबीसी समाज के व्यक्ति के पीएम बनने की चर्चा चल रही है. उसके बाद से दलित समाज की बारी है. क्योंकि देश में फरवर्ड के बाद ओबीसी आता है. उसके बाद दलित समाज की बारी होती है. आपने उत्तर प्रदेश में देखा कि कैसे पहले मुलायम सिंह बनें फिर मायावती बनीं. हम उस दिन की कल्पना कर रहे हैं कि हमलोगों के जीते जी इस देश का पीएम दलित हो जाए. हम इसमे कुछ सहयोग कर सकें. तो यही मेरा सपना है. उद्योग और राजनीति इन दो चीजों में हमारा दलित समाज पिछड़ा हुआ है. आपके मुताबिक दिक्कतें कहां पर है. यह स्थिति कैसे ठीक हो सकती है.  – देखिए… दलित समाज एक तो साधन विहीन रहा है. गरीब रहा है. लेकिन हम शिल्पकार रहे हैं. हम स्किलफुट रहे हैं. हम कारीगर रहे हैं. हम कारोबारी नहीं रहे हैं. कारोबार का अलग सरोकार होता है जबकि कारीगर का अलग. हमलोग इंटरप्रेन्योर रहे हैं लेकिन बिजनेस मैन नहीं रहे हैं. तो हमारी ये जो इंटरप्रेन्योर से ट्रेडर्स बनने की यात्रा है वह बहुत लंबी रही है. हमारे लोगों के लिए फैसिलिटी भी है, सुविधाएं भी हैं, लोन भी है, सब्सिडी भी है लेकिन हम मूलतः इंटरप्रेन्योर हैं. तो इंटरप्रेन्योर से ट्रेडर बनना, इंटरप्रेन्योर से डिस्ट्रीब्यूटर बनना, बिजनेस क्लास का बनना एक स्टेज है. यह तुरंत नहीं होने वाला है. आप देखिए कि जो डिक्की ने शुरू किया है हम उसको सैल्यूट करते हैं. जो काम राजनेताओं ने नहीं किया उसे डिक्की ने शुरू किया. तो यह लंबा प्रयास है. झटके में नहीं होने वाला है. जब तक लोगों में उद्यमिता का भाव नहीं पैदा होगा, हमलोगों में इंटरप्रेन्योरशिप स्पिरिट नहीं पैदा होगी तब तक नहीं होगा. आज सबसे बड़ा चमार बाटा है, सबसे बड़ा लोहार टाटा है. हमारी चमारी छूट गई. हमारी लोहारी छूट गई. तो हम लोहार से टाटा बनना चाह रहे हैं. चमार से बाटा बनना चाह रहे हैं. हमें उस प्रक्रिया से गुजरना होगा. हमारा जो उपलब्ध रिसोर्स है, उसे मार्डनाइज करना होगा. उसको स्टैंडर्ड करना होगा. यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया है. स्टेज टू स्टेज आगे बढ़ना होगा. अभी हम सबसे बड़ा उद्योग नौकरी को ही मानते हैं. इससे निकलना होगा. हां, मुझे इस बात का गर्व है कि हमलोग हुनरमंद जातियां है. मुझे यकीन है कि अगर हम बाटा का काम करेंगे तो सबसे बेहतर कर सकेंगे. ये तो उद्योग की बात हो गई. राजनीति में क्या बदलने की जरूरत है ? –  कुछ लोग पालिटिक्स में As a Mission आते हैं. पॉलिटिक्स में चाहे जिस जाति के लोग आ रहे हैं, उनमें एक समानता है. बिजनेस में फ्लॉप हो गया तो पॉलिटिक्ट में आ गए. खेती में फ्लॉप हो गया तो पॉलिटिक्स में आ रहा है. नौकरी नहीं मिली या निकाला गया तो पॉलिटिक्स में आ रहा है. तो पॉलिटिक्स ऐसे लोगों का जमावड़ा है जो फेल्योर हैं. यह फेल्ड इंडिविजुअल का ग्रुप है. हम चाहते हैं कि पॉलिटिक्स मे दलित समाज से ऐसे लोग आवें जो अपने-अपने फिल्ड का एक्सपर्ट हो. वहां कुछ कर के दिखा चुका हो. कोई जर्नलिस्ट है, कोई वकील है, कोई इंजीनियर है चाहे चार्टर अकाउंटेंट है. ऐसे लोग पॉलिटिक्स में आए. अपने फिल्ड में सफल लोग आएं न की फेल हुए लोग. वह तभी पॉलिटिक्स में आकर अपने समाज का कल्याण कर सकता है. अभी रिजर्वेशन का मुद्दा गरमाया हुआ है. पटना से लेकर लखनऊ फिर दिल्ली तक में हंगामा हो रहा है. इस मुद्दे पर आप क्या सोचते हैं.  – देखिए… आरक्षण का लाभ लेते साठ साल हुए. अभी जो समय है उसमें कुछ जगहों पर चौथी पीढ़ी तक आरक्षण का लाभ ले रही है. हालांकि मैं दूसरी पीढ़ी का हूं क्योंकि मेरे पिता इंजीनियर थे. मेरा बेटा तीसरी पीढ़ी का है. मैं देख रहा हूं कि चौथी पीढ़ी तक आरक्षण ले रहे हैं. आरक्षण को अब हमलोगों को रि-विजिट करना चाहिए. आरक्षण दलितों के उत्थान का, उनके इंपावरमेंट का एक कंपोनेंट (घटक) है. आरक्षण से हमें निश्चित तौर पर आगे बढ़ने में मदद मिली है. लेकिन हमलोग आरक्षण को ही सबकुछ मानकर बैठे हुए हैं. हमें यहां यह देखना होगा कि जब आरक्षण नहीं था तब तो डॉ. अंबेडकर पैदा होते हैं, बाबू जगजीवन राम पैदा होते हैं, कांशीराम पैदा होते हैं लेकिन आज जब आरक्षण हो गया है तो कोई उनके आस-पास भी नहीं है. आज चापलूस पैदा हो रहा है. आज लोभी पैदा हो रहा है. आज केवल भोगी पैदा हो रहा है, जो केवल महंगे-महंगे शौक पाले हुए है. मैं आपके माध्यम से यह कहना चाहूंगा कि जो लोग आर्थिक रूप से सबल हो गए हैं, वह आरक्षण छोड़े. क्योंकि हम में जो गरीब लोग हैं अब आरक्षण उनको मिलना चाहिए. जो स्वेच्छा से आरक्षण का लाभ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं उनमें क्रीमिलेयर लग जाना चाहिए. उनकी बजाय आरक्षण समाज के गरीबों को मिले. नहीं तो यह भी एक किस्म का अन्याय ही होगा. इसलिए मेरा मानना है कि आरक्षण के संबंध में हम दलित समाज के लोगों के बीच एक विमर्श की आवश्यकता है. मैं चाहूंगा कि ‘दलित दस्तक’ के माध्यम से इस पर नई बहस छिड़े. कि आरक्षण कब तक, किस सीमा तक, किनके लिए. इस पर बहस हो. विमर्श हो. दलित विमर्श में यह विषय जुड़ना चाहिए. तभी हम दलित समाज के गरीब लोगों के प्रति न्याय कर पाएंगे. राजनैतिक तौर पर और व्यक्तिगत तौर पर किन घटनाओं ने आपके जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया.  – मेरे विद्यार्थी जीवन में मेरा एक बहुत खास दोस्त था. वह सवर्ण समाज का था. एक और दोस्त भी था. वह भी सवर्ण समाज का था. इसमें से एक की घड़ी चोरी हो गई. मैने बताया कि किसने चुराया होगा क्योंकि वह अक्सर इस तरह की हड़कतें करता रहता था. चुराने वाला भी सवर्ण था. जिसने घड़ी चोरी की थी उसने एक दिन रात में घड़ी को मेरे कमरे में रख दिया. जो मेरा खास दोस्त था उसको उसने मेरा रुम चेक करने के लिए कहा. मैने कहा कि चेक कर लो. और घड़ी मेरे रूम में निकल गया. आप उस वक्त की कल्पना कर सकते हैं. यह तब कि बात है जब मैं पटना साइंस कॉलेज से बीएससी कर रहा था. खैर… मैने कहा कि जब मैनें चुराया ही है तो तुम यह घड़ी क्यों लोगे मैं तुम्हें नई घड़ी खरीद दूंगा. उस घटना ने मुझे प्रभावित किया. मुझे तब लगा कि इस देश में जातिवाद क्या है. जो जिस लेवल पर है, उसी तरह से जातिवाद झेल रहा है. मेरे जीवन की जो दूसरी घटना है वह राजनीतिक जीवन की है. जब मैं मंत्री बना तब के.आर. नारायणन साहब राष्ट्रपति थे. मुझे उन्हीं के द्वारा शपथ लेना था. जब मैं शपथ लेने गया तो अटल बिहारी वाजपेयी साहब के ओएसडी सुधीर कुलकर्णी मेरे पास आएं और पूछा कि संजय जी आपको पता है कि आपको कौन सा मंत्रालय मिल रहा है? मैंने कहा कि हां पता है. हम दलितो को दो ही मंत्रालय मिलता है. लेबर या वेलफेयर. मुझे भी उसी में से कोई मिलेगा. मेरी यह बात उनको कचोट गई. उन्होंने कहा कि आप ऐसे क्यों बोल रहे हैं. तब तक यह सही है कि मुझे लेबर मिलना तय था. तभी सुधीर कुलकर्णी अंदर गए और बताया कि संजय तो बड़ा दुखी होकर बोल रहे हैं कि हमें तय है लेबर या वेलफेयर मिलना. वह लौट कर आएं और मुझसे पूछा कि क्या चाहिए. मैनें  भी छूटते ही कहा कि कम्यूनिकेशन देंगे आप? और इस तरह मुझे कम्यूनिकेशन मिल गया और मैं प्रमोद महाजन जी के साथ आ गया. यह सब उसी वक्त राष्ट्रपति भवन में ही चेंज हुआ. तो यह उनकी उदारता थी. तो चीजें बदल रही है. मुझे लगता है कि अब हमलोगों को दलित के दायरे से बाहर निकल कर दलित, देश, धर्म, धरती यानि डी-4 की बात करें. मैं इसके लिए कमिटेड हूं. रामविलास पासवान भी दलित हित की बात करते हैं, आप भी करते हैं, मायावती जी भी करती हैं. यानि दलित समाज का हर नेता दलित हित की बात को आगे रखता है. लेकिन सार्वजनिक या फिर निजी मंचों पर ये लोग खुलकर साथ नहीं दिखते हैं. – ये मल्टीपार्टी डेमोक्रेसी है और ऐसे में पॉलिटिकली एक होना मुश्किल है. हां; सोशल इश्यू पर आप एक हो सकते हैं. (मैं टोकता हूं कि राजनीतिक नहीं व्यक्तिगत तौर पर साथ नहीं दिखते) मैं मानता हूं कि बहन मायावती हों या रामविलास पासवान हों, इन दोनों का समाज हित में काफी योगदान रहा है और है. हमलोग उनको बहुत तव्वजो देते हैं. और वो लोग अपनी-अपनी पार्टियों में हैं, इसलिए बड़ी पार्टियां हमलोगों को पूछती भी है. अगर उनलोगों का अस्तित्व खत्म हो जाए (हंसते हुए) तो कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियां आज के वक्त में हमें पूछेगी भी नहीं. इसलिए उनलोगों का अस्तित्व में बने रहना जरूरी है. रही बात एका की तो अपने इश्यू पे लोग होते हैं लेकिन अपने-अपने ढ़ंग से होते हैं. हालांकि उससे भी अधिक आगे होना चाहिए. मैं इस बारे में प्रयास भी करता हूं. मैने जब अपने पार्टी कार्यालय में अन्य पार्टी नेताओं का फोटो टांगा है तो इसी भाव से टांगा है. इसकी जरूरत है कि हमलोग अपने लोगों के प्रति सहिष्णु बनें. अपने लोगों ने जो अच्छा किया है उसकी चर्चा होनी चाहिए. मैं इससे सहमत हूं कि जहां तक साथ चल सकते हैं साथ चलने का प्रयास करना चाहिए. जहां से अवरोध, गतिरोध शुरू होता है उसे छोड़ दीजिए लेकिन जहां तक अवरोध या गतिरोध नहीं होता है वहां तक हमलोगों को साथ चलने का प्रयास करना चाहिए. आज भी मुझे किसी भी पार्टी के नेता के यहां जाने में कोई हिचक नहीं है. लोगों से मिलना-जुलना चाहिए. अगर हम कांग्रेस के किसी मंत्री से कोई काम करा सकते हैं तो हमें करवाना चाहिए. जैसे हमलोगों की मांग है कि बीपीएल कार्ड ऑन डिमांड मिले तो इस बारे में हम शैलजी जी से मिले. उन्होंने कहा है कि शिड्यूल कॉस्ट का कोई व्यक्ति बीपीएल कार्ड मांगता है तो उसे बिना खोज-बीन के कार्ड दे देना चाहिए. इसमें मेरा भी योगदान है. मैनें शैलजा से बात की थी. उन्होंने माना. अपने समानसोची लोगों से एक संवाद की स्थिति बने रहना चाहिए. सर आपने इतना वक्त दिया, आपका बहुत धन्यवाद – धन्यवाद अशोक जी।

रिजर्वेशन नहीं, दलितों को चाहिए एजुकेशन- कांचा इल्लैया

लेकिन चिंतन और विचार के क्षेत्र में दलित चिंतकों ने तमाम अवरोधों के बावजूद अपना एक खास मुकाम हासिल किया है. मेरे विचार से डॉ. बी. आर. आंबेडकर इन दोनों धाराओं के बीच की कड़ी थे. वे बहुत प्रतिभाशाली चिंतक तो थे ही, इसके साथ ही राजनीति के माध्यम से उन्होंने छुआछूत के खिलाफ बड़ा आंदोलन भी खड़ा किया. वे भारी उपेक्षा के भी शिकार हुए. लेकिन तमाम अवरोधों के बावजूद वे आम लोगों द्वारा चुने जाने के बाद भारत की संसद में पहुंचे और फिर देश के संविधान की रचना की. लेकिन स्थिति यह है कि कुछ समय पहले जयपुर फेस्टिवल में जहां एक लाख लोगों ने हिस्सा लिया वहां दलितों की उपस्थिति महज दशमलव पांच पर्सेंट ही रही. दलितों ने यहां उपन्यास या कहानी लेखन के माध्यम से अपने बौद्धिक विचार को कोई खास अभिव्यक्ति नहीं दी. यह स्थिति ठीक नहीं है. इसलिए साहित्य और लेखन के क्षेत्र में बहुत कुछ करने की जरूरत है. लेकिन दिक्कत यह है कि डॉ. आंबेडकर जिस वैचारिक जगह पर खड़े थे, वहां फि लहाल कोई भी दलित चिंतक नजर नहीं आता. विकास की इस धीमी गति की आखिर क्या वजह हो सकती है? -सबसे बड़ी बाधा तो अंग्रेजी शिक्षा के अभाव की है. यह आज भी दलितों के ख्वाबों से बहुत दूर है और दलित चिंतक इसके लिए गंभीर नजर नहीं आ रहे हैं. इस समस्या का समाधान यह है कि अब दलित बच्चों को आर्ट्स की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करना होगा. हमारे एजुकेशन का फोकस पैसा कमाने पर ज्यादा है. इसलिए आईएएस, मेडिकल और इंजीनियरिंग की तरफ भागमभाग चल रही है. अगर दलितों को आंबेडकर, नेहरू और गांधी की तरह वैचारिक धरातल हासिल करना है तो उन्हें लिबरल आर्ट की तरफ फोकस करना होगा. दलितों के लिए तैयार किए गए कई लक्ष्य आज भी अधूरे हैं. इसके कारण क्या हैं? -आप मायावती का ही उदाहरण लीजिए. वह पांच साल तक यूपी की सीएम रहीं. उन्होंने बिना किसी अवरोध के अपनी सरकार का टर्म पूरा किया. लेकिन इस छोटे से वक्त में बहुत कुछ कर पाना संभव नहीं था. और फिर उनकी राजनैतिक प्राथमिकताओं में ढेर सारी समस्याएं हैं. दलित समाज शैक्षणिक समानता चाहता है. अपने बच्चों के लिए दूसरों की तरह नर्सरी से लेकर 12वीं तक की पढ़ाई में एकरूपता जैसी स्थिति चाहता है. देखिए, न तो प्रॉपर्टी, न नौकरी और और न ही धन वास्तविक समानता ला सकता है. इस लक्ष्य की प्राप्ति केवल और केवल शिक्षा से हो सकती है. लेकिन मायावती इसके लिए गंभीर नहीं हैं. जहां तक कांग्रेस की बात है यह पार्टी दलितों पर बहुत हद तक निर्भर है. मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे जैसी शख्सियत अहम पदों पर हैं. यदि ऊंची जाति के बच्चे अंग्रेजी में महारत हासिल कर रहे हैं तो दलितों को भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए. हम इसी तरह के वातावरण और अवसर की मांग कर रहे हैं. अगर ऐसा होता है तो 30 साल के बाद आरक्षण खत्म कर दीजिए और निष्पक्ष प्रतियोगिता होने दीजिए. दलित बच्चे कहीं पीछे नजर नहीं आएंगे. देखिए, मेरे पैरंटस अशिक्षित चरवाहे थे. लेकिन शिक्षा का कमाल देखिए कि आज मैं कहां हूं. अंग्रेजी बोलता और लिखता हूं. पूरी दुनिया में जाता हूं और उनसे संवाद करता हूं. यह सारा परिवर्तन शिक्षा की बदौलत है. दलित नेताओं को शिक्षा की इस महत्ता को समझना होगा. क्या आप आरक्षण को आगे जारी रखने के सिद्धांत को सपोर्ट करते हैं? – दलितों का मुख्य एजेंडा रिजर्वेशन नहीं है. समानता लाने का मेरा रास्ता एजुकेशन से होकर गुजरता है. अगरमहज 10 पर्सेंट दलित बच्चे भी अंग्रेजी शिक्षा हासिल करें तो बौद्धिक जगत की तस्वीर पूरी तरह से बदल जाएगी. यह देश पूरी तरह से बदल जाएगा. मुझे उम्मीद एजुकेशन से है, आरक्षण से नहीं. और मैं अंग्रेजी शिक्षा पर जोर देता हूं. साभारः नवभारत टाइम्स

दलित राजनीति भले ही लंगड़ी हो, उसे बढ़ाना जरूरी- प्रकाश अंबेडकर

जब भी आपका जिक्र होता है, डा. अंबेडकर की याद आती है. आपने कब महसूस किया कि आप इतनी बड़ी हस्ती के पोते हैं? बचपन से ही. पिताजी भी राजनीति में थे. बौद्ध धर्म के फैलाव के लिए ‘बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया’ जो संगठन था, वह उसके अध्यक्ष थे. धम्म शिक्षा का कार्यक्रम इसी संस्था के माध्यम से चला. घर में प्रदेश के लोगों की भीड़ लगी रहती थी. अक्सर बाबा साहब का जिक्र होता था. रैलियों में बचपन से ही शरीक होते थे. तो यह अहसास बचपन से ही होता रहा है. ‘दादाजी’ को देखा तो नहीं है लेकिन यह जानकारी थी कि उनकी क्या भूमिका है. उमर होती गई, उनके बारे में, उनका लिखा हुआ पढ़ते गए. उनके विचारों को और उन्हें अधिक जानते गए. आपका बचपन कहां बीता. शिक्षा कहां हुई? बाबा साहब ने मकान बनवाया था ‘राजगृह’ (दादर, मुंबई), बाबा साहेब की इच्छा से इसे विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल में परिवर्तित कर दिया गया तो पिताजी खार (महाराष्ट्र) में शिफ्ट हो गए. बचपन वहीं बीता. स्कूल की पढ़ाई भी यहीं से हुई. 70 के आस-पास जब कॉलेज का अपना हॉस्टल बन गया तो परिवार फिर राजगृह में आ गया. कॉलेज की शिक्षा यहीं हुई. बाबा साहब का मकान था, सो तब काफी लोग आते थे दर्शन करने को. बंबई में ही कॉलेज की डिग्री हासिल की. 75 के समय इमरजेंसी के माहौल में जो राजनीतिक लहर की शुरुआत हुई, तब पुराना नेतृत्व बुजुर्ग हो चला था. दलितों की नई पीढ़ी शिक्षा लेकर आगे आ रही थी. दलित पैंथर जैसे कई दल आएं लेकिन ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाएं. कुछ कम्युनिस्टों के बहकावे में आ गए तो कुछ सोसलिस्टों और कांग्रेस के बहकावे में आ गए. उन्होंने अपना जो वजूद बनाया था, वो खो बैठे. उस समय एक्सप्लाटेशन के बीच में नामांतर का जो आंदोलन चला (मराठा यूनिवर्सिटी का नाम बदलने को लेकर चला आंदोलन), उस आंदोलन को मराठा नेताओं, पुलिस और प्रशासन ने जिस तरह कुचला, उसने देश भर के दलितों का मनोबल तोड़ दिया. दलित समाज के लोग आंदोलन के नाम से डरने लगे. कोई नेता या फिर संगठन नहीं रहा, सब बिखड़ गए. संगठन का अखिल भारतीय ढ़ांचा ढ़ह गया. हर राज्य में नई लीडरशिप पनपी. मैं मानता हूं कि वहां से एक नई राजनीति की शुरुआत हुई. राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रिय राजनीति घुस गई. स्टेट पॉलिटिक्स पिछड़े वर्ग की राजनीति थी. आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर दलितों और पिछड़ों की समस्या एक है. वो आपस में मदद करते रहे. बाबा साहब को जितना सुधार लाना था, उन्होंने कर दिया था. बदलाव की राजनीति को बढ़ावा देना जरूरी था लेकिन राजनीतिक ताकतों ने ऐसी चालें चली कि दलित राजनीति आगे बढ़ाने की बजाए अपनी ही राजनीति में फंस गई. लोकतांत्रिक राजनीति में जनसंख्या बड़ा हथियार है. वह महाराष्ट्र में उतना नहीं है, जितना बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब या फिर उड़िसा में है. लेकिन हम जनसंख्या के बल की लड़ाई नहीं लड़ सके. सक्रिय राजनीति में आने की कब सोची? कॉलेज के बाद ही आ गया था. वकालत और राजनीति साथ-साथ चलती थी. एक ही उद्देश्य रहा है कि स्टेट्स-को की स्थिति को तोड़ना है. 80 के बाद पहली बदलाव की राजनीति आई. वीपी सिंह और चंद्रशेखर की जो राजनीति आई, हम उसमें शामिल रहे, उसे आगे ले गए. हम यह मानते थे कि यहां जाति की राजनीति चलेगी. दलितों को अगर राजनीति मे अपनी जगह बनानी हैं तो इस राजनीति का वर्गीकरण होना सबसे जरूरी है. जैसे आदिवासियों को अपनी एक पहचान मिली है, दलितों की एक पहचान बनी है, मुस्लिम, सवर्ण और दूसरे अल्पसंख्यकों, सभी की अपनी पहचान बनी है. तब सबसे बड़ा संकट पिछड़ों के साथ था. उनकी कोई पहचान नहीं थी. जब तक उनके अंदर चेतना पैदा नहीं होती तब तक बदलाव की राजनीति नहीं बल्कि स्टेटस-को की राजनीति होती. तब वीपी सिंह, कर्पूरी ठाकुर के साथ बैठकर मंडल कमीशन को लागू करने की बात हुई. लंबे समय तक राजनीति करने के लिए सोशल विचारधारा का वोटर होना जरूरी है. जैसे भाजपा के पास धर्म की राजनीति पर वोट देने वाला वोटर है. कम्यूनिस्टों के साथ वर्कर क्लास है, वैसे ही तमाम पार्टियों के पास अपने समुदाय के वोटर हैं. हमारा मानना था कि इस देश के अंदर अपनी राजनीतिक पहचान बनानी है तो सामाजिक बदलाव की राजनीति को मानने वाले वर्ग का निर्माण करना होगा. तब मंडल कमीशन का फैसला आ चुका था. उसे लागू करने की बात हुई. अब देखिए कि पिछड़ों में अति पिछड़े और पिछड़े दो वर्ग हैं. मेरा मानना है कि आने वाले 50 सालों तक देश की राजनीति ऐसे ही चलेगी. इसमें हर वर्ग-समुदाय के नाम पर वोट देने वाला वर्ग होगा. यानि हर समुदाय की अपनी राजनीतिक पार्टी होगी. मेरा मानना है कि आने वाले एक दो चुनावो के बाद देश की राजनीति स्थिर होनी शुरू होगी. अब तक दमन की जो राजनीति थी, उसका अंत होने की शुरुआत हो चुकी है. बाबा साहेब ने देश की जो तस्वीर खिंची थी कि यहां समता हो, बंधुत्व हो, अधिकार की बात हो, अब सही मायने में देश उस पर चलना शुरू होगा. क्योंकि जब एक ग्रुप खड़ा होता है तो उसकी जो अपनी ताकत होती है, वही ताकत लोगों के साथ बातचीत करती है. यह जैसे-जैसे स्थिर होगा दलितों को देश के अंदर मान-सम्मान मिलेगा. जो सही अर्थ से जो राजनीतिक और सामाजिक भागीदारी चाहिए थी, उसकी शुरुआत होगी. आपने खुद की अपनी पार्टी ‘भारतीय रिपब्लिकन पार्टी’ (भरिपा) बना रखी है, आपकी पार्टी की बात करें तो आप उसको कहां देखते है? राजनीतिक स्तर पर जहां तक जीतने की बात है, यह सही है कि हम वहां नहीं पहुंच पाए हैं. लेकिन हमने लोगों की सोच को बदला है. हमने कुछ खास चीजों पर ध्यान दिया है. जैसे मैं दो चीजों का जिक्र अक्सर करता हूं. आज शिक्षा का निजीकरण होने से दलित-आदिवासियों को काफी नुकसान हो रहा है. निजीकरण के तहत एससी-एसटी विद्यार्थियों को खुद फीस भरनी पड़ रही है. हमारा मानना है कि अगर दलित विद्यार्थी प्राइवेट इंस्टीट्यूट में भी शिक्षा ले तो उसकी फीस सरकार भरे. दूसरी बात दलितों के लिए खुद की इंडस्ट्रीज बहुत जरूरी है. क्योंकि जब तक आर्थिक सुरक्षा नहीं होगी, सामाजिक सुरक्षा के मायने नहीं हैं. हमने महाराष्ट्र सरकार पर दलितों को आर्थिक क्षेत्र में बढ़ाने के लिए विशेष योजना बनाने का दबाव डाला. सरकार को योजना बनानी पड़ी. इसके अनुसार दलितों को कोई भी व्यवसाय शुरू करने के लिए सरकार लोन देती है. दलितों को पूरे बजट का पांच फीसदी पैसा देना होता है बाकी 95 फीसदी पैसा राज्य सरकार को देना है. पिछले चार साल से यह महाराष्ट्र में लागू है. इस साल महाराष्ट्र सरकार ने इस मद में एक हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया है. मेरा मानना है कि दलितों की राजनीति को सुरक्षित बनाने के लिए बाजार पर पकड़ जरूरी है. ऐसा होने पर दलितों को देखने के आमलोगों के नजरिए में फर्क आएगा. अब हम इसी योजना को केंद्रीय स्तर पर लागू करने के लिए केंद्र पर दबाव बना रहे हैं. 1950 से राजनीति में दलितों की भागीदारी हो चुकी है, अब उन्हें आर्थिक क्षेत्र में आगे बढ़ाना है. आप बाबा साहेब के पोते हैं. बाबा साहेब का इतना बड़ा कद होने के बावजूद आखिर क्या वजह है कि आपकी पार्टी महाराष्ट्र के एक खास क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ पाई? आपको पहले यह तय करना होता है कि आप क्या करना चाहते हैं? सन् 90 में मैने ऑल इंडिया की राजनीति करनी छोड़ दी. जो पैन इंडिया की राजनीति सोचता है वह इलेक्टोरल राजनीति के बारे में सोचता है. जैसे रामविलास हों, कांशीराम हो, मायावती या फिर बूटा सिंह. इनकी जो राजनीति रही है, उन्होंने ऑल इंडिया का सोचा. इसे मैं इलेक्टोरल राजनीति मानता हूं. मैं मानता हूं अभी इसकी जरूरत नहीं है. बीच में रिजर्वेशन पर आंच आने की शुरुआत हुई. लेकिन जो भी दलित नेता मंत्रीमंडल में था, उसने अपना मुंह नहीं खोला, क्योंकि उस इलेक्टोरल राजनीति में उसको समझौता करना पड़ा. दलितों के पास शिक्षा ही सबसे बड़ा हथियार है. बाबा साहब के बाद पहली और दूसरी पीढ़ी इसलिए शिक्षित बनी क्योंकि उसे मुफ्त में शिक्षा मिली, स्कॉलरशिप मिला. यानि उनके परिवार पर कोई जिम्मेदारी नहीं थी. निजीकरण से शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार से शिफ्ट हो गई है. इससे दलितों की शिक्षा में कमी आने लगी है. इसकी बड़ी वजह यह भी है कि निजीकरण के कारण सवर्णों के बच्चे निजी स्कूलों में चले गए जबकि गरीबों के बच्चे सरकारी स्कूलों में रह गए. सरकारी स्कूलों का नियंत्रण सवर्णों के हाथ में है, अब चूकि उनके बच्चे इसमें नहीं पढ़ते इसलिए उन्होंने इस पर ध्यान देना छोड़ दिया है. आज दलितों-आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के सामने मॉडल डेवलप करना सबसे जरूरी है. जिसे कॉपी करके दूसरे राज्यों में भी लागू किया जाए. दलितों की राजनीति में सुधार हो चुका है. उसे आम लोगों में पहुंचाना जरूरी है. यह कैसे होगा, हम लोग यही मॉड्यूल खड़े कर रहे हैं. आज हमारा सबसे अधिक ध्यान दलितों में इंडस्ट्राइलेजेशन को लेकर है. हम अभी इसी पर पूरा ध्यान दे रहे हैं. आने वाले 20-30 सालों का मॉड्यूल लोगों के सामने रखना चाहते हैं. यही दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों को सामाजिक रूप से मजबूत करेगा. अभी महाराष्ट्र में 15 इंडस्ट्री शुरू हो चुकी है. आने वाले पांच साल के बाद प्रदेश में दलितों का एक इंडस्ट्रीयल वर्ग दिखाई देगा. आप अकोला (सामान्य सीट) से चुनाव लड़ते हैं. जीते भी हैं. हालांकि पिछले दो बार से वहां भाजपा के सांसद हैं. जबकि आप किसी भी सुरक्षित सीट से जीत सकते हैं, तो सामान्य सीट से चुनाव लड़ने की वजह क्या है? अगर आपको बदलाव की राजनीति करनी है तो इसकी शुरुआत सबसे पहले वह खुद से करनी होती है. मैं बदलाव की राजनीति करता हूं. मैं नेता हूं, एक पार्टी का अध्यक्ष हूं तो मेरे अंदर इतनी ताकत होनी चाहिए कि मैं जाति बंधन तोड़कर सबके वोट लूं. रिजर्व क्लास के लोगों ने अपनी सोच के आगे ‘घोड़े की टॉप’ लगा के रखा है. लोग इससे निकलेंगे तो उन्हें दुनिया दिखाई देगी. मैं चैलेंज देकर कहता हूं कि बिना पैसे के उम्मीदवार को भी जीता सकते हैं. बस उसकी छवि अच्छी होनी चाहिए. कार्यकर्ता होना चाहिए. यानि आप अगर बदलाव की राजनीति करना चाहते हैं तो एक मानक खड़ा करना होगा. आपका ‘अकोला पैटर्न’ काफी चर्चित है, क्या है यह? पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, दलित-आदिवासी और गरीब तबके को लेकर एक मोर्चा बनाया है. इसकी शुरुआत 84 में की थी. आज अकोला में इसी मोर्चे का बोलबाला है. यह महाराष्ट्र की राजनीति में एक प्रेरणा बन चुकी है. पूरे महाराष्ट्र में इस पैटर्न की चर्चा है. कुछ लोग परंपरा से अपनी सत्ता मान रहे थे, उनके सामने बिना साधन वाला व्यक्ति खड़ा होकर जीतता है और साफ-सुथरी राजनीति करता है. दलितों के बीच बाबा साहब अंबेडकर सर्वमान्य नेता थे. सारे लोग उन्हें पूजते हैं. उसके बाद ‘बाबूजी’ (जगजीवन राम) भी दलितों के बीच सर्वमान्य रहें. लेकिन इन दोनों के बात राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य दलित नेतृत्व नहीं उभर पाया, क्यों? कांग्रेस और भाजपा की जो राजनीति है, उसमें वो दलित समाज के लोगों को चढ़ाते हैं. ऐसा वह तब तक करते हैं, जब तक वो व्यक्ति खुद अपनी राजनीति नहीं करता. कांशीराम भी कांग्रेस के बलबूते नेता रहें, अपने बूते नहीं. जहां तक बाबूजी (जगजीवन राम) की बात है, नई पीढ़ी को पता नहीं है कि उनको किस तरह जलील किया गया. 1971 में जो युद्ध हुआ उसका सारा श्रेय इंदिरा गांधी को मिला, जबकि सारी प्लानिंग और व्यवस्था बाबूजी की थी. बाबूजी प्रधानमंत्री बनें, यह आमलोगों की भावना थी. किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं लूंगा लेकिन राजनीतिक व्यवस्था ने उन्हें काफी जलील किया. उन्हें बदनाम करते हुए उनकी पूरी राजनीति खतम कर दी गई. उनकी मुझसे बात होती थी. अभी तक दलित एवं पिछड़े इतना सक्षम नहीं हुए हैं कि वो अपने किसी आदमी को प्रधानमंत्री बनवा सके. यहां की व्यवस्था मौका मिलते ही दलितों के राष्ट्रीय स्तर पर उभर रहे नेता की छवि खत्म करवा देती है. वो राजनीति और समाज दोनों से कट जाता है. इससे पूरी व्यवस्था का नुकसान होता है. बाबूजी बहुत अच्छे प्रशासक थे. मायावती की राजनीति को आप कैसे देखते हैं? वह स्टेट लीडरशिप बन चुकी हैं. मुलायम सिंह के साथ जब उनका गठबंधन हुआ था, तब से किसी भी तरह यूपी की सरकार बनाए रखना उनकी राजनीतिक मजबूरी है. 93-94 में मुलायम सिंह और कांशीराम को सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस के सपोर्ट की जरूरत पड़ी. बीएसपी ने इसकी भरपाई महाराष्ट्र एवं आंध्रा में हुए चुनाव में कांग्रेस को फायदा पहुंचा कर की. कांशीराम के बीमार होने के बाद मायावती के राजनीति की शुरुआत हुई. लेकिन उनका रोल यूपी में ही ज्यादा रहा. कई मौंके आएं जब अन्य राज्यों में भी उनको खुद को स्थापित करने का मौका मिला लेकिन यूपी सरकार पर असर न हो इसलिए उन्होंने मौका गंवा दिया. मेरे हिसाब से मायावती का अब राष्ट्रीय स्तर पर आना मुश्किल है. अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए मायावती को हर बार दलितों के अधिकारों के साथ समझौता करना पड़ा है. जबकि दलितों की राजनीति के अंदर वह दूसरों के साथ कंप्रोमाइज नहीं कर सकती. दलितों के अंदर जो विचारधारा को जोड़ने की बात चल रही है, वह यह है कि दलितों को अपने आप में शक्तिशाली होना चाहिए. लेकिन वह पावर आपस में शेयर होनी चाहिए, न कि व्यक्तिगत पावर होनी चाहिए. ऐसी स्थिति में वो अपने आप को डेवलप नहीं कर पाएंगे. क्योंकि यहां की राजनीति ‘गिव एंड टेक’ की राजनीति है. मायावती दलितों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने का काम नहीं कर पाई हैं. यह जरूरी है. उन्हें सोचना होगा. गांधी और अंबेडकर के संबंधों को लेकर काफी कुछ कहा और लिखा गया है, आप इसे कैसे देखते हैं? दोनों विरोधी थे, यह सही है. गांधी वर्ण व्यवस्था चाहते थे, बाबा साहेब इसके खिलाफ थे. गांधी ग्राम व्यवस्था चाहते थे लेकिन बाबा साहेब इसके खिलाफ थे क्योंकि वहीं से वर्ण व्यवस्था पनपती है. गांधी जी के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता ज्यादा महत्वपूर्ण थी जबकि बाबा साहेब सामाजिक स्वतंत्रता पर जोर देते थे और इसके बाद ही राजनीतिक स्वतंत्रता के पक्ष में थे क्योंकि ब्रिटिशों के साथ शारीरिक नहीं बल्कि आंदोलन के स्तर पर संघर्ष था. बावजूद इसके देश की राजनीति में दोनों का योगदान महत्वपूर्ण है. गांधी जी भी सवर्ण नहीं थे. वह सवर्ण लीडरशिप को तोड़कर आम आदमी की लीडरशिप लाएं. बाबा साहेब दलितों को आगे ले आएं. उसी वक्त से सवर्णों की राजनीति को चुनौती देने की शुरुआत हो गई थी. कहा जाता है कि महाराष्ट्र में दलित पार्टियां 42 टुकड़ों में बंटी है, क्या वह एक हो सकते है? नहीं हो सकते. देखिए, यह समझना होता है कि आपकी लड़ने की क्षमता क्या है, यह आपको पहचानना चाहिए. क्या हासिल करना है, इसकी जानकारी होनी चाहिए. अगर आप पूरी व्यवस्था को चैलेंज करते हैं तो वो आपको तहस-नहस करके छोड़ देंगे. इसलिए आपको अपने मकसद को साफ करना जरूरी है. क्या राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेतृत्व एक हो सकता है? देखिए प्रदेश की राजनीति बदल चुकी है. जैसे मैं कहता हूं कि मुझे फलां पार्टी के साथ इस राज्य में जाना है जबकि दूसरा कहता है कि उसे दूसरे के साथ जाने से लाभ होगा. आज केवल नाम के लिए नेशनल पालिटिक्स बचा है जबकि असल में अस्तित्व में स्टेट पॉलिटिक्स है. इसलिए जहां तक समझौते की राजनीति है, वहां अब दलितों की ऑल इंडिया पार्टी होनी मुश्किल है. उसमें एक बात होनी चाहिए कि लूज फेडरेशन होना चाहिए. राष्ट्रीय स्तर पर जो मुद्दे हैं उसपर सभी की सहमति हो. उसको लेकर एक साथ आंदोलन चले. लेकिन जहां तक समझौते की राजनीति है, उन्हें पूरी तरह छूट दी जाए कि वो अपने-अपने स्टेट में अपने हिसाब से काम करे. क्या जाति व्यवस्था का खात्मा संभव है? बदलाव आना शुरू हो चुका है. आज बड़े पैमाने पर अपने समाज से बाहर जाकर शादी करने की युवकों की प्रवृति बढ़ी है. देखना होगा कि आने वाले 10 सालों मे यह कितना बढ़ता है. इसको बढ़ावा देना जरूरी है. यह जाति व्यवस्था को तोड़ने का एक माध्यम है. इनके पारिवारिक जीवन प्रणाली में कोई जाति नहीं होनी चाहिए. इनको अतिरिक्त सुविधाएं मिलनी चाहिए. इनके बच्चें जब स्कूल जाएं तो सिर्फ इनका नाम लिखा जाना चाहिए, न कि जाति. आज दलितों की स्थिति को आप कैसे देखते हैं? अब दलितों में ही एक सवर्ण वर्ग की बात सामने आ रही है. मैं मानता हूं कि दलितों का एक मीडिल क्लास उभर चुका है लेकिन कमिटेड मिडिल क्लास नहीं उभरा है. वह अपनी पहचान अब भी नहीं बना सका है. वह इंविटेशन के क्लास में ही घूम रहा है. ट्रांजेक्शनल पीरियड के अंदर दलितों का मूवमेंट है. हमने सोचा कि इसमें वैचारिक योगदान दे सकते हैं, मार्गदर्शन कर सकते हैं. आपके हाथ में सत्ता आने पर आप पहला काम क्या करेगे? सबसे पहले शिक्षा में आम भावना जरूरी है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समाज में समानता के बारे में भी काम करना जरूरी है. अधिकार का बचाव करने के बारे में खुद उनके सोच पर गौर करने की जरूरत है. आने वाली पीढ़ी अगर इसको भाईचारा मानती है तो इंसानियत के नाम से एक व्यवस्था बनेगी. आज राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं होने से दलित युवा भ्रमित है. उसको नेतृत्व की कमी खलती है, उनको क्या संदेश देंगे? दलितों में आज सबसे बड़ी जरूरत लीडरशिप की है. जब तक हर राज्य में नेतृत्व खड़ा नहीं होगा, दलितों का भविष्य सुरक्षित नहीं होगा. दलितों के अंदर लीडरशिप के निर्माण का मतलब मानसिक गुलामी का खात्मा है. लीडरशिप करना है तो डटकर करना होगा. आज का युवा अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है. उन्हें सोचना चाहिए कि बाबा साहेब को जो करना था, वो करके चले गए. उसे सबसे पहले पारिवारिक राजनीति का विरोध करना चाहिए. अब जिम्मेदारी उनपर है. दलित राजनीति के कोलैप्स होने का मतलब अपने अधिकार को खो देना है. वह भले ही लंगड़ी हो, छोटे पैमाने पर हो, जैसे भी हो उसे बढ़ावा देना चाहिए. दलित राजनीति में स्थिरता जरूरी है. नेतृत्व आसमान से नहीं आता. युवा पीढ़ी विद्यार्थी जीवन से ही लड़ाई की शुरुआत करे तो नेतृत्व खड़ा होगा. अगर कोई सामने आता है तो उसकी मदद करनी चाहिए. नेता बनता नहीं है, नेता बनाया जाता है. किसी भी राज्य की बात हो मैं मदद करने को तैयार हूं. आपकी भविष्य की राजनीतिक योजना क्या है? राज्यों में दलितों का संगठन खड़ा हो जाए, यही लक्ष्य है. उस पर काम कर रहा हूं. आपने इतना समय दिया, धन्यवाद धन्यवाद, ‘अशोक दास जी’
प्रकाश अंबेडकर से संपर्क करने के लिए आप उन्हें उनके ई-मेल prakashambedkar@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

हम सबके डॉ. अम्बेडकर

br ambedkerमध्‍य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इंदौर से 23 किमी. की दूरी पर मुंबई-आगरा मार्ग पर महू छावनी है. इसी महू छावनी की एक बैरक में 14 अप्रैल, 1891 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्‍म हुआ था. उस समय डॉ. अम्बेडकर के पिता श्री रामजी राव ब्रिटिश सेना में सूबेदार मेजर के पद पर तैनात थे. डॉ. अम्बेडकर के सम्‍मान में मध्‍य प्रदेश सरकार ने महू का नाम बदलकर डॉ. अम्बेडकर नगर कर दिया है. यहां पर 14 अप्रैल को देश विदेश से अनेकों लोग डॉ. अम्बेडकर के प्रति आभार और श्रद्धासुमन अर्पित करने आते हैं. डॉ. अम्बेडकर अकेले ऐसे महापुरूष हैं जिनका जन्‍म महोत्‍सव समारोह 14 अप्रैल से शुरू होकर जून तक चलता है. इस दिन की खुशी भारत के कोने-कोने में ही नहीं बल्कि अमेरिका, कनाडा, ब्रि‍टेन, फ्रांस, जापान, नेपाल, वर्मा, श्रीलंका सहित अनेक देशों में बहुत ही हर्ष और उल्‍लास से मनाया जाता है. इस वर्ष एक कार्यक्रम संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के भवन में भी आयोजित किया जा रहा है.   बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर एक महान संविधानविद्, शिक्षाविद, राष्‍ट्र भक्‍त, समाज सुधारक, दर्शन शास्‍त्री, पत्रकार, अर्थशास्‍त्री थे. इन सबसे भी अधिक वे एक आदर्श विद्यार्थी थे और आजन्‍म आदर्श विद्यार्थी बने रहे. उन्‍होंने अर्थशास्‍त्र, राजनीति विज्ञान, इतिहास, समाज शास्‍त्र और कानून के अलावा  चित्रकला, मूर्तिकला, तबला वादन, वाइलिन वादन, संगीत कला, पाक कला, पाली भाषा में भी दक्षता हासिल की थी. उन्‍हें अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, मराठी, हिन्दी, पाली और फारसी भाषाओं में दक्षता हासिल थी. बाबासाहेब ने अपने जीवन काल में तमाम पदों पर रहते हुए देश के हर वर्ग के लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए अनेक काम किया. उन्होंने श्रमिकों के लिए कानून बनवाया, देश के किसानों की बेहतरी के लिए प्रयास किया, महिलाओं के हक की आवाज उठाई, नौकरीपेशा लोगों के सहूलियत की बात की और उनके अधिकारों के लिए लड़कर उन्हें अधिकार भी दिलवाया. लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि डॉ. अम्बेडकर जैसे महान व्यक्तित्व द्वारा किए गए इन कामों से लोग आज भी अंजान हैं. डॉ. अम्बेडकर के जीवन के कई आयाम थे, जिन्हें हर किसी को जानने की जरूरत है. विद्यार्थियों के लिए आदर्श डॉ. अम्बेडकर उच्‍च शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे, किंतु इसके लिए उन्‍हें बड़ा संघर्ष करना पड़ा और समय-समय पर अन्‍याय का सामना करना पड़ा. जब हम उनके शिक्षा काल की ओर देखते हैं तो हमें उनकी अप्रतिम निष्‍ठा के सामने नत-मस्‍तक होना पड़ता है. बड़ौदा के शासक सयाजीराव गायकवाड द्वारा दी गई छात्रवृत्ति से उन्‍होंने एलफिन्‍स्‍टन कालेज, बंबई में बी.ए. में 3 जनवरी 1908 को प्रवेश लिया. अंग्रेजी साहित्‍य तथा फारसी भाषा उनकी बी.ए. की डिग्री के विषय थे. बी.ए. करने के बाद महाराजा सयाजीराव गायकवाड ने उन्‍हें उच्‍च शिक्षा के लिए अमेरिका जाने का अवसर दिया और तीन वर्ष (15 जून, 1913 से 14 जून 1916) के लिए 11.5 पाउण्‍ड प्रतिमाह की छात्रवृत्ति स्‍वीकृत की. वे उच्‍च शिक्षा के लिए 12 जुलाई, 1913 की दोपहर में न्‍यूयार्क बंदरगाह पर उतरे. डॉ. अम्बेडकर ने कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय से एम.ए. किया और 2 जून, 1915 को अपने शोध ‘एशियन इंडियन कामर्स’ पर डिग्री प्राप्‍त की. एक वर्ष बाद जून 1916 में उनके शोध ‘नेशनल डिविडेण्‍ड फॉर इण्डिया: ए हिस्‍टोरिकल एण्‍ड एनालिटिकल स्‍टडी’ को कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय में पीएच.डी. के लिए स्‍वीकृत किया गया. 9 मई, 1916 को डॉ. ए.एन. गोल्‍डेनर्जर द्वारा जो नृवंश सेमीनार आयोजित किया गया, उसमें डॉ. अम्बेडकर ने एक विद्वान के रूप में ‘कास्‍ट्स इन इंडिया: देयर मेकेनिज्‍म, जेनिसिस एण्‍ड डेवलपमेंट’ (भारत में जातियां: उनकी व्‍यवस्‍था उद्भव और विकास) शीर्षक पत्रक पढ़ा. यह पत्रक ‘इंण्डियन एण्‍टीक्‍यूरी’, मई 1917, खण्‍ड-12 में प्रकाशित हुआ तथा उनका पीएच.डी. शोध प्रबंध नए शीर्षक ‘इवोल्‍यूशन ऑफ प्रोविन्शिलय फाइनान्‍स इन ब्रिटिश इण्डिया’ पी.एस. किंग एण्‍ड कम्‍पनी ‘लंडन ने प्रकाशित किया और इसकी प्रति कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय को भेजी गई. उसके बाद; 8 जून, 1927 को विश्‍वविद्यालय ने उन्‍हें तद्नुसार उपाधि प्राप्‍त की. इस प्रकार उन्‍होंने तीन वर्षों (जुलाई 1913 से जून 1916) में कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय से दो उपाधियां हासिल की. महान इच्‍छाशक्ति, समर्पण और अध्‍यवसाय से उन्‍होंने यथार्थ में तीन वर्ष में अपना अध्‍ययन पूरा कर लिया. शोधार्थियों के लिए यह एक उदाहरण है जो कि विदेशों में अपनी शोध अपेक्षित समय में पूरी करना चाहते हैं. कोलंबिया विश्वविद्यालय में रहते हुए डॉ. अम्बेडकर 16 से 18 घंटे प्रतिदिन पढ़ाई करते थे. पुस्तकों से उनको खास लगाव था जो उनके जीवन के अंत तक बना रहा. एक दिन होटल में वह खाना खाने पहुंच गए. खाना खाने के लिए जब उन्होंने हाथ बढ़ाया तब उन्हें ध्यान आया कि खाने के पैसों से तो वे रास्ते में किताब खरीद लाए हैं और उनकी जेब में पैसे नहीं है. वो बगैर खाना खाए अपने कमरे पर लौट आए और दो दिनों तक भूखे रहे क्योंकि उन्होंने जो किताब खरीद ली थी उसकी कीमत उनके दो दिन के खाने के बराबर थी. उनका महीने के खर्च का बजट न बिगड़ने पाए इसलिए वे दो दिन तक भूखे ही रहकर पढ़ाई करते रहे. कोलंबिया विश्वविद्यालय के बाद डॉ. अम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाई कर सन् 1921 में डॉक्टर ऑफ साइंस की डिग्री हासिल की. ग्रेज इन से कानून की पढ़ाई कर सन् 1923 में बैरिस्टर की डिग्री हासिल की. भारतवर्ष लौटने के बाद भी वे पढ़ते रहे और लिखते रहे. 6 दिसंबर 1956 को डॉ. अम्बेडकर ने अंतिम सांस ली और अंतिम सांस लेने से पहले वे अपनी कालजयी कृति ‘‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’’ पूरा करके गए. डॉ. अम्बेडकर ने शिक्षा पर बहुत जोर दिया. उनके अनुसार शिक्षा को हर व्यक्ति की पहुंच के अंदर लाया जाना चाहिए. भारतीय रिजर्व बैंक स्थापित करने में योगदान डॉ. अम्बेडकर एक जाने माने अर्थशास्त्री थे. जून 1916 में अम्बेडकर ने पी॰ एच॰ डी॰ के लिए थीसिस प्रस्तुत की जिसका शीर्षक था ‘नेशनल डिविडेंड फॉर इंडिया; ए हिस्टोरीक एंड एनालिटिकल स्टडी’. अर्थशास्त्र में डी॰ एस॰ सी॰ के लिए मार्च 1923 में उन्होंने अपनी थीसिस ‘द प्रोब्लेम ऑफ द रूपी–इट्स ऑरिजिन एंड इट्स सोल्यूशंस’ प्रस्तुत किया. इस थीसिस को लंदन की पी एस किंग एंड कंपनी ने दिसम्बर 1923 में ‘द प्रोब्लेम ऑफ द रूपी’ के नाम से प्रकाशित किया. पुस्तक की भूमिका मशहूर अर्थशास्त्री प्रोफेसर कैनन ने लिखकर डॉ. अम्बेडकर की भूरि भूरि प्रशंसा की. इस पुस्तक में डॉ अम्बेडकर ने मुद्रा समस्या का अत्यंत विद्वतापूर्ण विवेचन किया है. डॉ. अम्बेडकर के अनुसार टकसाल बंद कर देने से मुद्रास्फीति तथा आंतरिक मूल्य असंतुलन दूर हो सकता है. उनका कहना था कि सोना मूल्य का मापदंड होना चाहिए और इसी के अनुसार मुद्रा में लचीलापन होना चाहिए. डॉ अम्बेडकर का निष्कर्ष था कि भारत को स्वर्ण विनिमय मानक की मौद्रिक नीति अपनाने से बहुत नुकसान हुआ है. उनका निष्कर्ष था कि भारत को अपनी मुद्रा विनिमय दर स्वर्ण विनिमय मानक की जगह स्वर्ण मानक अपनाना चाहिए जिस से की मुद्रा विनिमय दर में बहुत अधिक उतार चढ़ाव न हो और सट्टेबाजी को अधिक बढ़ावा न मिले. मौद्रिक नीति के विषय में उन्होंने जे. एम केन्स जैसे नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री से भी टक्कर ली जो कि स्वर्ण विनिमय मानक के पक्षधर थे. रुपए के संबंध में यह पुस्तक अब तक लिखी गयी सभी पुस्तकों से श्रेष्ठ थी. पुस्तक की समीक्षा करते हुए ‘द टाइम्स’ (लंदन) ने लिखा; ‘यह पुस्तक अति श्रेष्ठ रचना है, अंग्रेजी की शैली सुगम है. अपने विषय में उनकी सम्पूर्ण पैठ है’. द इकनोमिस्ट (लंदन) ने लिखा; ‘सुस्पष्ट और सुयोग्यतापूर्ण लिखी गयी पुस्तक है. अन्य अनेक रचनाओ में से मुद्रा समस्या का कोई अन्य पहलू निश्चित रूप में इतना पठनीय नहीं है.’ कुछ समय पश्चात रॉयल कमिशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फ़ाइनेंस जिसको हिल्टन युवा आयोग के नाम से भी जाना जाता है भारत आया. इस आयोग के हर सदस्य के पास ‘द प्रोब्लेम ऑफ द रूपी’ पुस्तक संदर्भ ग्रंथ के रूप में  मौजूद थी. भारत की मुद्रा समस्या के बारे में डॉ. अम्बेडकर ने हिल्टन युवा आयोग के सामने जो विचार प्रस्तुत किए वे उनकी मुद्रा समस्या के विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान थे. आयोग ने अपनी रिपोर्ट सन 1926 में प्रस्तुत की. इसी रिपोर्ट के आधार पर 1 अप्रैल 1935 को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई. श्रमिक कल्याणकारी कानून और डॉ. अम्बेडकर (भविष्य निधि (PF) और रोजगार कार्यालय के जनक) 2 जुलाई 1942 को वाइसरॉय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल में डॉ. अम्बेडकर को श्रम सदस्य (वर्तमान समय में लेबर मिनिस्टर) के रूप में शामिल किया गया. मालिक मजदूरों के तमाम संघर्षों में उन्होंने मजदूरों का साथ दिया. 7 मई 1943 को उन्होंने त्रिपक्षीय श्रम सम्मेलन द्वारा संस्थापित स्थायी श्रम समिति की अध्यक्षता की और संयुक्त श्रम समितियां और रोजगार कार्यालय स्थापित करने के लिए पहल किया. आज जो हम हर जिले में रोजगार कार्यालय (इम्प्लॉइमेंट एक्स्चेंज) देख रहे हैं, वो डॉ. अम्बेडकर की ही देन है. श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के लिए उन्होंने भविष्य निधि योजना (प्रोविडेंट फ़ंड) लागू करवाया. उऩ्होंने नौकरीपेशा लोगों के लिए काम के घंटे तय करने में भी भूमिका निभाई. उनका मानना था कि एक व्यक्ति का काम करने का घंटा निश्चित रहना चाहिए. अप्रैल 1944 में डॉ. अम्बेडकर ने एक संशोधन बिल पेश किया कि निरंतर काम करने वाले मजदूरों को सवेतन अवकाश दिया जाए. डॉ. अम्बेडकर ने मजदूरों से कहा कि वे पूंजीपतियों से यह सवाल पूछें कि उन्होंने मजदूरों का रहन–सहन ऊंचा उठाने के लिए पैसा क्यों नहीं खर्च किया? डॉ. अम्बेडकर के अनुसार औद्योगिक शांति स्थापना के लिए एक समझौता व्यवस्था, श्रम-विवाद-कानून में संशोधन और न्‍यूनतम वेतन कानून आवश्‍यक थे. उन्‍होंने कहा कि औद्योगिक शांति कानून के आधार पर स्‍थापित हो सकती है, पर यह आवश्‍यक नहीं कि ताकत के बल पर ही यह संभव हो. इसके लिए त्रिपक्षीय मार्ग ही अनुकूल रहेगा. उनका कहना था कि शोषण समाप्‍त करके, श्रम कल्‍याण द्वारा और सही औद्योगिक संबंधों के जरिए ही औद्योगिक शांति स्‍थापित हो सकती है. औद्योगिक शांति के लिए यह आवश्‍यक है कि मालिक और मजदूरों के बीच के झगड़े सामाजिक न्‍याय के सिद्धांत पर सुलझाए जाएं. किसानों के हितैषी डॉ. अम्बेडकर सार्वजनिक निर्माण कार्य मंत्री के रूप में डॉ. अम्बेडकर द्वारा किया गया काम उल्‍लेखनीय हैं. इसका फायदा विशेष कर देश के किसानों को मिला.वाइसरॉय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल में डॉ. अम्बेडकर को केंद्रीय सार्वजनिक निर्माण विभाग (सी.पी.डब्‍ल्‍यू.डी.) का मंत्री बनाया गया. इस पद पर रहते हुए डॉ. अम्बेडकर ने अगस्‍त 1945 में बंगाल और बिहार के लिए एक बहुउद्देशीय दामोदर घाटी विकास योजना प्रस्‍तुत की जो अमेरिका के तेन्‍नेसी वैली प्रोजेक्‍ट से मिलती जुलती थी. इस योजना के तहत सिंचाई के लिए पानी, जल मार्ग से यातायात, बिजली का उत्‍पादन आदि जैसे काम किए गए जिससे देश के करोड़ों लोगों को लाभ मिला. नवंबर 1945 में उन्‍होंने उड़ीसा में वहां की नदियों के विकास के लिए एक बहुउद्देशीय योजना शुरू की जो अंतत: हीराकुंड बांध के रूप में कारगर हुई. डॉ. अम्बेडकर ने हीरा कुंड बांध योजना में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई. डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि जल मार्गों का विकास कर सस्‍ते यातायात को बढ़ावा दिया जा सकता है, उनका कहना था कि बिजली का उत्‍पादन और सिंचाई योजनाओं का विकास भारत के औद्योगिकरण के लिए और आर्थिक विकास के लिए अति आवश्‍यक है. उन्होंने भारत की खनिज संपदा के विकास और उत्‍खनन के लिए एक विस्‍तृत योजना प्रस्‍तुत की और जोलोजिकल सर्वे ऑफ इं‍डिया का पुनर्गठन किया. मानव अधिकारों के संरक्षक डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि सरकार एक ऐसा संगठन है जो (1) जनता की जीवन रक्षा, स्‍वतंत्रता, सुख, भाषा और धर्म पालन के अधिकारों की रक्षा करता है, (2) दलित वर्गों को समान अवसर प्रदान करके सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करता है और (3) अपने हर नागरिक को अभाव और भय से मुक्ति प्रदान करता है. स्‍वतंत्रता-पूर्व भारत में उन्‍होंने भारतीयों की आजादी और अधिकारों की लड़ाई लड़ी. उन्‍होंने कहा कि स्‍वतंत्रता मात्र राजनैतिक नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं आध्‍यात्मिक भी होनी चाहिए. डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि सरकार की सत्‍ता और व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता में संतुलन होना चाहिए. उनका कहना था कि अच्‍छी सरकार वही है जो एक समुदाय को दूसरे समुदाय के शोषण के बचाए और देश में आंतरिक उपद्रवी, हिंसा और अव्‍यवस्‍था पर नियंत्रण करे और प्रत्‍येक व्‍यक्ति को उसके मूलभूत अधिकारों का उपयोग करने में सहायता करे. महिला सशक्तिकरण में डॉ. अम्बेडकर का योगदान डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि भारत तभी सशक्‍त बन सकता है जब यहां कि महिलाएं भी सशक्त हों. 4 अगस्त, 1913 को न्यूयार्क से अपने एक मित्र को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस सिद्धांत की आलोचना कि थी कि मनुष्य को इस संसार में जन्म के आधार पर या पूर्व कर्मों के अनुसार सब कुछ प्राप्त होता है. डॉ. अम्बेडकर ने इसी पत्र में लिखा: ‘‘हमें कर्म सिद्धांत को त्याग देना चाहिए. यह गलत है कि माता-पिता बच्चे को केवल जन्म ही देते हैं, भविष्य नहीं. माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं. यदि हम इस सिद्धांत पर चलने लग पड़ें तो हम अति शीघ्र शुभ दिन देख सकते हैं और यदि हम लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा की ओर भी ध्यान देने लग जाएं तो हम शीघ्र प्रगति कर सकते हैं. आप अपनी पुत्री को शिक्षा देकर इसका लाभदायक परिणाम स्वयं देख सकते हैं.’’ डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि किसी भी देश की आबादी का आधा हिस्सा महिलाओं का होता है और इसलिए कोई भी देश तभी तरक्की कर सकता है जब उसकी महिलाओं को तरक्की का समान अवसर मिले. नागपुर में महिलाओं के एक अखिल भारतीय सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ‘मैं किसी समुदाय की प्रगति को इस पैमाने पर देखता हूं कि उसकी महिलाओं में कितनी प्रगति की है. मैं स्त्रियों के उत्थान और मुक्ति का सबसे बड़ा समर्थक रहा हूं और अपने समुदाय में स्त्रियों की स्थिति सुधारने का मैंने भरसक प्रयास किया है और मुझे इस पर गर्व है.” भारत में मनुस्मृति ग्रंथ में महिलाओं के हितों और अधिकारों की अनदेखी की गई है और महिलाओं को दबा कर रखने को कहा गया है इसी के विरोध स्वरूप डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति का सार्वजनिक रूप से दहन किया. डॉ. अम्बेडकर का विश्वास था कि मनुस्मृति के प्रावधानों के चलते महिलाओं को उनका उचित अधिकार नहीं मिल सकता. व्यस्क मताधिकार के समर्थक 1928 में साइमन कमीशन के समक्ष दिए गए अपने साक्ष्य में डॉ. अम्बेडकर ने वयस्क मताधिकार की जोरदार वकालत की और कहा कि इक्कीस वर्ष के ऊपर के सभी भारतीयों को चाहे वो महिला हो या पुरुष मताधिकार का अधिकार मिलना चाहिए. वयस्क मताधिकार के विरोधियों का कहना था कि वयस्क मताधिकार के लिए जितने मानव संसाधनों की आवश्यकता है उतने लोग सरकार के पास नहीं है. इस पर डॉ. अम्बेडकर ने दलील दी कि जिस तरह जनगणना के लिए कॉलेज के शिक्षकों और विद्याथियों की सहायता ली जाती है उसी प्रकार निर्वाचन के समय उनकी सहायता ली जा सकती है और दीर्घकाल के लिए आवश्यकतानुसार भर्ती भी की जा सकती है. आज युवा देश की राजनीति में सबसे ज्यादा मायने रखता है. अगर तब डॉ. अम्बेडकर ने व्यस्क मताधिकार को लेकर जोर न दिया होता तो राजनीति में युवाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल पाना आसान नहीं होता. प्रसूति अवकाश (मैटरनिटी लीव) का अधिकार तमाम सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में महिला कर्मचारियों के लिए मैटरनिटी लीव यानी प्रसूति अवकाश होने के कारण महिला कर्मियों को जो सहूलियत होती है, असल में यह सोच डॉ. अम्बेडकर की थी. सन् 1942 में डॉ. अम्बेडकर को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में श्रम सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया. डॉ. अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए भारत के इतिहास में पहली बार प्रसूति अवकाश की व्यवस्था की. आगे चलकर जब डॉ. अम्बेडकर को संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष चुना गया तो उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 में ऐसा प्रावधान रखा कि लिंग के आधार पर महिलाओं के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा और इस तरह समानता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया. इतना ही नहीं, कानून मंत्री के रूप में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल संसद में पेश किया. इसका उद्देश्य अलग-अलग पंथों में बंटे हिन्दू समुदाय के लिए एक समान आचार संहिता तैयार करना था, जिसमें महिलाओं को वैवाहिक मामलों में पति से तलाक के मामले में, उत्तराधिकार के मामले में, गोद लेने के मामले में, गुजारा भत्ता के मामले में और परिवार में हिस्सेदारी के मामले में समान अधिकार मिले. महिला सशक्तीकरण के लिए हिन्दू कोड बिल में योगदान बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर प्रायः कहा करते थे कि शास्त्रों में निहित आदेशों के अनुसार शूद्रों और अछूतों के साथ-साथ सारी स्त्री जाति पर चाहे वह किसी भी वर्ण (जाति) की है, बहुत जुल्म ढ़ाया गया है. डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि ‘‘मैं ‘हिन्दू कोड’ पास कराकर भारत की समस्त नारी जाति का कल्याण करना चाहता हूं. मैंने सवर्ण जाति से सम्बन्ध रखने वाली और पतियों द्वारा परित्यक्ता अनेक सवर्ण युवतियों और प्रौढ़ महिलाओं को देखा जिन्हें पतियों ने त्यागकर उनके जीवन-निर्वाह के लिए नाममात्र का चार-पांच रुपया मासिक गुजारा बांधा हुआ था. ऐसी स्त्रियां अपने जीवन के दिन अपने माता-पिता या भाई-बन्धुओं के साथ रो-रोकर व्यतीत कर रही थीं. इस स्थिति के कारण ऐसी स्त्रियों के मां-बाप भी शोक में रहते थे.’’
  • अंतरजातीय विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने में योगदान
डॉ. अम्बेडकर हिन्दू कोड बनाकर लाखों निरीह महिलाओं को गैरजिम्मेदार और जालिम पतियों के चंगुल से छुड़ाकर उन्हें सामाजिक न्याय दिलवाना चाहते थे. उनका कहना था कि जब कोई हिन्दू पति अपनी पहली पत्नी को त्यागकर दूसरा, तीसरा या चौथा विवाह कर लेता है; तब ऐसी पहली पत्नी को अपने माता-पिता तथा भाई भतीजों के घर पर आश्रय लेना पड़ता है. वह बेचारी पत्नी इस स्थिति में भी अपने पति से न तो तलाक ले सकती थी न दूसरा विवाह कर सकती थी. हिन्दू कोड बिल के पास हो जाने पर ऐसी दुःखित और निरीह पत्नियां कानून के बलबूते पर ऐसे अत्याचारी पतियों से पीछा छुड़ा कर तलाक हासिल कर सकती थीं और जीवन-यापन के लिए किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह भी कर सकती थीं. ‘हिन्दू कोड’ की एक प्रबल विशेषता यह भी थी कि किन्हीं भी दो हिन्दू वर-वधुओं का विवाह चाहे उनका परस्पर वर्ण भेद या जाति भेद कुछ भी हो उसे वैध माना जाता है और उनसे उत्पन्न सन्तान पैतृक सम्पत्ति में वैध अधिकारी बनेगी. इस कानून के बनने से पहले परस्पर विरोधी वर्णों, जातियों उप-जातियों में हुए विवाह से उत्पन्न सन्तान पैतृक सम्पत्ति में अंश या हिस्सा प्राप्त करने के लिए वैध या जायज़ नहीं माना जाता था.
  • दत्तक बच्चों को अधिकार दिलाने में भूमिका
शताब्दियों से धर्म-ग्रन्थों में निहित आदेशों एवं प्रचलित रूढ़ियों के अनुसार दत्तक या गोद लेने की प्रथा केवल सजातीय या दोहता को ही सुविधा देती थी किन्तु हिन्दू कोड न केवल किसी भी हिन्दू बालक को दत्तक या गोद लेने का अधिकार दिलवाता था बल्कि किसी कन्या को भी गोद लिया जा सकता है और वह गोद लेने वाले माता-पिता की सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त करती है. हालांकि डॉ. अम्बेडकर की यह प्रगतिशील सोच उस समय सत्ता के केंद्र में बैठे लोगों को रास नहीं आई और उन्होंने महिला सशक्तिकरण की बात करने वाले इन कानूनों के हितैषी हिन्दू कोड बिल को पास नहीं होने दिया, इसके विरोध स्वरूप डॉ. अम्बेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. महिलाओं के अधिकारों के लिए और उनके सशक्तीकरण के लिए भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्रिमंडल से कैबिनेट मंत्री के पद से डॉ. अम्बेडकर द्वारा इस्तीफा देने की बात से यह समझा जा सकता है कि वह महिलाओं को समान अधिकार दिलाने को लेकर कितने गंभीर थे. वह कहा करते थे कि मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से ज्यादा अधिक दिलचस्पी और खुशी हिन्दू कोड पारित करने में है. किसी राजनेता द्वारा महिलाओं के हित के लिए संघर्ष करने का ऐसा उदाहरण दूसरा नहीं मिलता है. लेकिन अफसोस यह है कि आज भी तमाम महिलाएं बाबासाहेब द्वारा उनके हित में किए गए कामों से आज भी अंजान हैं. बाद में सन 1955-56 में हिन्दू कोड बिल को कई टुकड़ों में जैसे हिन्दू विवाह कानून, हिन्दू उत्तराधिकार कानून, हिन्दू गोद एवं गुजारा भत्ता कानून जैसे नामों से पास किया गया. इन कानूनों को पारित करवाने में भी डॉ. अम्बेडकर ने अहम भूमिका निभाई. उन्होंने तत्कालीन कानून मंत्री श्री पाट्स्कर को हिन्दू कोड की एक-एक धारा को विस्तार से समझाकर और उसके विरोध में दी जाने वाली दलीलों के जवाब पहले से तैयार करके उनकी बहुत सहायता की. डॉ. अम्बेडकर का सपना पूरी तरह तब साकार हुआ जब सन् 2005 में हिन्दू उत्तराधिकार कानून में संशोधन करके पुत्री को भी पुत्र के समान पैतृक संपत्ति में बराबर का अधिकार दिया गया. भारत का औद्योगिकरण और राज्‍य समाजवाद के बारे में डॉ. अम्बेडकर के विचार डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि भारत का विकास औद्योगीकरण से ही संभव है और औद्योगीकरण करने के लिए राज्य समाजवाद अनिवार्य है. इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए कृषि भूमि सुधार और खेती में सहकारिता को लागू किया जाना चाहिए. लोकतंत्र के बारे में डॉ. अम्बेडकर के विचार डॉ. अम्बेडकर लोकतंत्र के प्रबल समर्थक थे. उनका कहना था कि लोकतंत्र की आत्मा है, एक आदमी-एक मूल्य का सिद्धांत. लंदन में गोलमेज सम्मेलन के पूर्ण अधिवेशन में 20 नवम्बर 1930 को अपने भाषण में उन्होंने कहाः हमें ऐसी सरकार चाहिए जिसमें सत्ता में बैंठे व्यक्ति इस बात को समझते हों कि कब सरकार की आज्ञाकारिता समाप्त हो जाती है और प्रतिरोध आरंभ हो जाता है, फिर वे न्याय और समय की आवश्यकताओं को देखते हुए सामाजिक और आर्थिक जीवन की आचार संहिताओं में परिवर्तन करने में नहीं हिचकिचाएं. यह काम केवल वही सरकार कर सकती है जो जनता की सरकार हो, जनता के लिए हो तथा जनता द्वारा चुनी गई हो. हम महसूस करते हैं कि हमारे अतिरिक्त हमारे दुख-दर्द को कोई भी दूर नहीं कर सकता और जब तक राजनीतिक सत्ता हमारे हाथों में नहीं आती, हम भी उसे दूर नहीं कर सकते. नए संविधान का निर्माण करते समय भारत की सामाजिक व्यवस्था के कुछ ठोस तथ्यों को ध्यान में अवश्य रखा जाना चाहिए. इस बात को मानकर चलना होगा कि यहां की सामाजिक व्यवस्था उच्च वर्ग के लिए आदर और निम्न वर्ग के लिए घृणा की अन्याय-पूरक मान्यताओं पर आधारित हैं. इसलिए वर्ग और जाति पर आधारित इस व्यवस्था में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के लिए आवश्यक समता और बंधुत्व की मानवीय भावनाओं के विकास की कोई संभावना नहीं है. इस बात को भी मानना होगा कि यद्पि बुद्धीजीवी वर्ग भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है किंतु यह सभी उच्च वर्ग से आते हैं. यद्यपि वह देशहित की बात करते हैं और राजनीतिक आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं, किंतु वे जातिगत सकीर्णताओं का परित्याग नहीं कर पातें. हमें बार-बार याद दिलाया जाता है कि दलित वर्गो की समस्या एक सामाजिक समस्या है और उसका समाधान राजनीति में नहीं है. डॉ. अम्बेडकर इस विचार का जोरदार विरोध करते थे. वह दलित वर्ग की समस्या को एक राजनैतिक समस्या मानते थे. उनका कहना था कि असली लोकतंत्र तभी आएगा जब बहुसंख्यक समाज देश का हुक्मरान वर्ग बने. उनका मानना था कि शोषित वंचित वर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता आए बिना उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता. संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर जब भारत देश आजाद हो रहा था और भारत का संविधान लिखने की जिम्मेदारी आई तो संविधान सभा ने डॉ. अम्बेडकर को संविधान निर्माण समिति का अध्यक्ष चुना और डॉ. अम्बेडकर ने उस जिम्मेदारी को बहुत ही अच्छी तरह से निभाया. भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए चुनी गई लेखा समिति पर अम्बेडकर की अध्‍यक्षता में कुल सात सभासदों की संविधान समिति चुनी गई थी. लेकिन प्रत्‍यक्षतया एक सभासद की मौत हो गई थी, दूसरे सभासद अमेरिका चले गए और वहीं रह गए, तीसरे सभासद ने इस्‍तीफा दे दिया था. उन तीन जगहों को भरा नहीं गया. चौथे सभासद संस्‍था के कार्यों में लगे रहे, इसलिए उनका भी संविधान लेखन में कोई भी उपयोग नहीं था. वे सिर्फ नाम के ही सभासद थे. एक-दो सभासद दिल्‍ली से दूर थे और अस्‍वास्‍थ्‍य की वजह से वह अनुपस्थित ही रहे. इस वजह से प्रारूप समिति के अध्‍यक्ष डॉ. अम्बेडकर को अकेले ही संविधान लेखन का संपूर्ण भार अपने कंधों पर उठाना पड़ा. दिन के 18-18 घंटे वह कार्यरत रहते थे. राष्‍ट्र द्वारा सौंपा गया कार्य करने के लिए उन्‍होंने अपने प्राकृतिक स्‍वास्‍थ्‍य की भी परवाह नहीं कि और बहुत ही कष्‍ट सहा. डॉ. अम्बेडकर ने अपने विचारों को संविधान के मूलभूत अधिकारों में अनुच्छेद 17 और 23 में रखा. भारतीय संविधान की नीव लोकतंत्र पर टिकी है, इसलिए डॉ. अम्बेडकर को भारतीय संविधान के प्रधान शिल्पकार के रूप में जाना जाता है और कुछ विद्वान लेखक उनको भारतीय संविधान का पिता भी मानते हैं. डॉ. अम्बेडकर द्वारा किए गए कार्यों के लिए अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय ने सन् 1952 में उन्हें एल.एल.डी की मानद डिग्री प्रदान की. हैदराबाद स्थित उस्‍मानिया विश्‍वविद्यालय ने सन् 1953 में डॉ. अम्बेडकर को एल.एल. डी की मानद डिग्री प्रदान की. एक देशभक्त के रूप में डॉ. अम्बेडकर संविधान सभा में संविधान के गुणविशेष के बारे में बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि संविधान में बुने गए तत्व विद्यमान पीढ़ी के मत हैं. संविधान कितना भी अच्छा हो यह आखिर में राज्यकर्ताओं के संविधान के इस्तेमाल करने पर ही निर्भर होगा कि वह अच्छा है या बुरा. राष्ट्र की भविष्य को सोच विचार कर उन्होंने चिंता व्यक्त की और कहा, मेरे दिल को इस बात से बड़ा दुःख होता है कि भारत को इससे पहले अपनी स्वतंत्रता गंवाने की बारी एक ही बार आई हो ऐसा नहीं है, किन्तु भारत की जनता के खुद के ही विश्वासघात से, देशद्रोह करने से ही उसे स्वतंत्रता गंवानी पड़ी. जब मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया तब राजा दाहर के सेनापति ने मुहम्मदबिन कासिम के मुनीम से रिश्वत लेकर अपने राजा की ओर से लड़ने से साफ इनकार कर दिया. मुहम्मद गोरी को हिन्दुस्तान पर हमला करने का आमंत्रण देकर पृथ्वीराज के खिलाफ लड़ने का आमंत्रण देने वाला पु़रूष जयचन्द था. उसने मुहम्मद गोरी को सोलंकी राज्य की और अपनी सहायता देने का वचन दिया था. जब शिवाजी महाराज स्वतंत्रता के लिए युद्ध कर रहे थे, तब अन्य मराठा सरदार और राजपूत, मुगल बादशाह की ओर से लड़ रहे थे. जब ब्रिटिश सिख राज्यकर्ताओं के खिलाफ लड़ रहे थे तब उनके सेनापति चुप बैठे थे. सिखों की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए उन्होंने बिलकुल प्रयास नहीं किए. ऐसे ही 1857 में भारत के बड़े भाग ने ब्रिटिशों के खिलाफ स्वतंत्रता युद्ध पुकारा, तब बहुत से लोग उसमें शामिल नहीं हुए. इस तरह डॉ. अम्बेडकर ने इस बात की ओर इशारा किया कि अगर क्षेत्रीय दलों ने अपने दल का मत राष्ट्रहित की अपेक्षा श्रेष्ठ माना, तो भारतीयों की स्वतंत्रता दूसरी बार खतरे में पड़ जायेगी और शायद वह स्थायी रूप से नष्ट हो जाएगी. अतः शरीर में खून की आखिरी बूंद होने तक आपको अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने की प्रतिज्ञा कऱनी चाहिए. सदन में डॉ. अम्बेडकर द्वारा कहे गए इस बात की सभी राजनेताओं ने जमकर सराहना की. राष्ट्रीय एकता के लिए जाति व्यवस्था के विनाश के पक्षधर डॉ. अम्बेडकर का विचार था कि जब तक भारत में जाति प्रथा रहेगी, भारत मजबूत नहीं हो सकता. वे जातिप्रथा को राष्ट्र विरोधी मानते थे तथा जाति को सामाजिक जीवन में अलगाव व भेदभाव पैदा करने वाला तत्व मानते थे जो लोगों के बीच ईर्ष्या, घृणा और विद्वेष पनपाती और फैलाती है. उनका मानना था कि यदि हम पूरी वास्तविकता में एक राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो हमें इन सारी कठिनाइयों पर विजय पानी ही होगी, क्योंकि बंधुता केवल तभी हकीकत बन सकती है जब हम एक राष्ट्र हो. बंधुता के बिना समानता और स्वतंत्रता रंग की पुताई वाली परतों से ज्यादा गहरी नहीं हो सकती. इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने युवकों का आवाह्न किया कि वो अंर्तजातीय भोज और अंर्तजातीय विवाह को प्रोत्साहन दे. अम्बेडकर के बारे में अब गंभीरता से सोचने का मतलब है कि हमें अपने समाज की संरचना पर भी पूर्ण विचार करना चाहिए. हमें जाति पर पूर्ण विचार करना चाहिए और खुद से पूछना चाहिए कि आज का भारत क्या वह करने के लिए तैयार है जो डॉ. अम्बेडकर ने 1936 में करने को कहा था. उनका कहना था, “आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर आपको इस व्यवस्था को तोड़ना है तो आपको वेदों व शास्त्रों को डायनामाइट से उड़ा देना चाहिए जिनमें न कोई तार्किकता है और न कोई नैतिकता. आपकों श्रुतियों और स्मृतियों के धर्म को नष्ट कर देना चाहिए.” लाहौर के जातिपात तोडक मंडल के एक सम्मेलन के लिए तैयार किया गया अध्यक्षीय भाषण; जो दिया ना जा सका उसे उन्होंने ‘अनाहिलेषन ऑंफ कास्ट’ नाम से प्रकाशित करवाया जिसमें उन्होंने इन बातों को लिखा था. उनका मानना था कि जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए उन धार्मिक अवधारणाओं को नष्ट करना जरूरी है, जिनपर जाति प्रथा आधारित है. दूसरे शब्दों में, अम्बेडकर ने सामाजिक सुधार के लिए हिन्दू समाज के पुनर्गठन और  पुनर्निर्माण को जरुरी बताया था. डॉ. अम्बेडकर की नजर में सांप्रदायिकता और राष्ट्रीयता का अर्थ डॉ. अम्बेडकर के अनुसार मानवता के इतिहास में राष्ट्रीयता एक बहुत बड़ी शक्ति रही है. यह एकत्व की भावना है, किसी विशेष वर्ग से संबंधित होना नहीं. यही राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय भावना का सार कहा जाता है. अम्बेडकर की दृष्टि में सही राष्ट्रवाद है जाति भावना का परित्याग. और जाति भावना गहन सांप्रदायिकता का ही रूप है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब मानव के बीच जाति, नस्ल और रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए. राष्ट्रवाद के संदर्भ में अल्पसंख्यक और बहुमत के विषय में डॉ अम्बेडकर कहते हैं; “अल्पमत द्वारा जब सत्ता में कुछ अधिकार मांगे जाते हैं तो वह सांप्रदायिक हो जाता है परंतु बहुमत के बल पर जब सत्ता पर एकाधिकार जमा लिया जाता है तो उसे राष्ट्रीयता कहा जाता है. डॉ. अम्बेडकर व्यक्ति कि स्वतन्त्रता चाहते थे. संविधान सभा में कुछ सदस्यों ने प्रस्तावना में “भारत के लोग” के स्थान पर “भारत राष्ट्र” लिखने कि मांग की. इस पर अम्बेडकर ने पूछा; “हजारों जातियों में बंटे लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? जितनी जल्दी हम यह समझ जाएंगे कि सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अभी हम एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना ही अच्छा है”. अम्बेडकर ने कहा कि शासक जातियां यह बात जानती हैं कि वर्ग सिद्धान्त, वर्ग हित और वर्ग संघर्ष उनका विनाश कर देगा इसलिए सताये हुये वर्ग का ध्यान बांटने के लिए उसे राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता का नाम लेकर बहका दिया जाए. उन्होंने कहा कि ऐसा राष्ट्रवाद नहीं होना चाहिए जो दूसरे समुदाय या राष्ट्र के प्रति निर्दयता या भय प्रकट करता हो. उन्होंने कहा कि उस समय तक राष्ट्रवाद निरर्थक है जब तक राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान न हो. उन्होंने कहा कि सवर्ण जातियां राष्ट्रवाद के नाम पर पिछड़ी जातियों को धोखा दे सकती हैं. वैज्ञानिक बौद्ध धम्म के हिमायती डॉ. अम्बेडकर डॉ. अम्बेडकर गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थे. 12 मई 1956 को बीबीसी लंदन से वार्ता करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा, “मैं बुद्ध धर्म को प्राथमिकता देता हूं क्योंकि यह एक साथ संयुक्त रूप से तीन सिद्धांत प्रतिपादित करता है, जो कोई और नहीं करता. अन्य सभी धर्म ईश्वर, आत्मा या मरने के बाद के जीवन की चिंता में लिप्त है. बुद्ध धर्म प्रज्ञा की शिक्षा देता है. यह करूणा की शिक्षा देता है. यह समता की शिक्षा देता है. इस धरती पर कुशल व सुखी जीवन के लिए मनुष्य को यही चाहिए. बुद्ध धर्म की इन्हीं तीन शिक्षाओं से मुझे प्रेरणा मिली. इन्हीं शिक्षाओं से पूरी दुनिया को प्रेरित होना चाहिए. समाज को न तो ईश्वर और न आत्मा ही बचा सकती है.” बुद्ध के व्यक्तित्व की एक खासियत से वे बहुत प्रभावित थे जो है उनके कथनी और करनी में कोई भेद न होना. बुद्ध ने वही सिखाया जिस पर वे स्वयं चले. ‘यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी’. बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर भारत में लुप्तप्राय हो गए बौद्ध धर्म को पुनःस्थापित किया और एक नई धम्म दीक्षा विधि द्वारा 22 प्रतिज्ञाएं दिलाकर धम्म की जड़ें मजबूत की. डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि बुद्ध की शिक्षाओं में अंधविश्वास के लिए कोई जगह नहीं है. कालाम सुत्त में जिसको स्वतंत्र चिंतन का प्रथम घोषणा पत्र कहा जाता है, बुद्ध ने कहा कि- किसी बात को इसलिए मत मानों कि शास्त्रों में ऐसा लिखा है, या कि ऐसा बहुत पहले से हो रहा है या विद्वान और बड़े लोग ऐसा कहते हैं. हर बात को अपने अनुभव की कसौटी पर कसो और जब यह लगे कि यह बात आपके लिए व दूसरों के लिए कल्याणकारी है तभी मानो. मानसिक गुलामी से मुक्ति का मार्ग इसी में है जिसके द्वारा समतामूलक समाज, देश व लोक की गुंजाइश है. उनके दर्शन की जड़े राजनीतिक शास्त्र में नहीं बल्कि धर्म में थीं और इस दर्शन को उन्होंने अपने शास्ता भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से प्राप्त किया था. व्यक्तिपूजा के खिलाफ थे डॉ. अम्बेडकर अपनी 55वीं वर्षगांठ पर मद्रास के ‘जय भीम’ पत्रिका को दिए गए एक संदेश में डॉ. अम्बेडकर ने कहा- ‘व्यक्तिगत तौर पर मैं वर्षगांठ मनाना पसंद नहीं करता. भारत के नेता को पैगम्बरों के बराबर सम्मान दिया जाता है जो लोकतंत्र के लिए खराब है. मैं व्यक्तिपूजा के खिलाफ हूं. बाबाओं, देवी-देवताओं, पुनर्जन्म की अवधारणा, आत्मा का दूसरे शरीर में प्रवेश करना, वशीकरण, तंत्र-मंत्र और ज्यातिष में डॉ. अम्बेडकर का बिल्कुल भी विश्वास नहीं था. उनका कहना था कि ये सब तो अंधविश्वास मात्र हैं,जो सदियों से मनुष्यों में चले आ रहे हैं, जिन्होंने कितने ही घरों का विनाश कर दिया है और जिन्हें आज भी किसी न किसी रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है. वह मनुष्य और मनुष्य के बीच जाति, धर्म, जन्म और धन-दौलत की भिन्नता का विचार किए बिना एक सम्यक संबंध स्थापित करना चाहते थे और स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के तीन शब्दों में समाहित सिद्धांतों पर आधारित समाज की स्थापना करना चाहते थे. डॉ. अम्बेडकर का दर्शन स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के न्यायपूर्ण स्तम्भों पर आधारित था और इसके स्रोत थे- शिक्षा आंदोलन, संगठन, बौद्ध धम्म, संघ और लोकतंत्र में आस्था. विदेशों में डॉ. अम्बेडकर बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा देश के हर वर्ग के लिए जितना सोचा गया, शायद ही किसी अन्य नेता ने ऐसा सोचा और किया होगा. डॉ. अम्बेडकर महज एक राजनेता नहीं थे, बल्कि वो एक समाज सुधारक और सच्चे अर्थों में गरीबों, महिलाओं, किसानों और हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज थे. वह इनके दर्द को अच्छी तरह समझते थे. वह समानता के पक्षधर थे, यही वजह है कि उन्होंने हर उस वर्ग के लिए काम किया जो हाशिए पर पड़ा था; चाहे वो महिला हो, किसान हो या फिर शोषित वर्ग. उन्होंने देश के 95 फीसदी लोगों की बात की, उनके हक की आवाज उठाई और उनके अधिकारों को लिए लड़े. हालांकि वो पांच प्रतिशत लोग जो सत्ता में काबिज थे उऩ्होंने डॉ. अम्बेडकर के इन कामों की लगातार अनदेखी की और उन्हें सिर्फ एक वर्ग कह कर प्रचारित करते रहे. लेकिन डॉ. अम्बेडकर को पढ़ने और उनके द्वारा किए गए कामों को जानने के बाद यह साबित हो जाता है कि डॉ. अम्बेडकर महज किसी खास वर्ग के हितैषी नहीं बल्कि सबके हितैषी थे. अम्बेडकर सब के हैं.

देवभूमि के दलितों का दर्द

उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है. यहां कण-कण में भगवान के होने का दावा किया जाता है, लेकिन इसी देवभूमि की एक हकीकत ऐसी भी है, जिसे उत्तराखंड के चेहरे पर दाग और लोकतंत्र के साथ मजाक कहना ही ठीक होगा. राजधानी देहरादून से सिर्फ 84 किलोमीटर दूर जौनसार बावर का क्षेत्र है. यह क्षेत्र चकराता तहसील में आता है. दिलचस्प बात यह है कि इस पूरे इलाके को ट्राइबल क्षेत्र घोषित कर दिया गया है. इस इलाके में जौनसारी परंपरा का पालन किया जाता है और सरकारी कागज में इस परंपरा को मानने वाले सभी लोगों को ट्राइबल यानि आदिवासी कहा जाता है. यानि यहां का ब्राह्मण भी ‘आदिवासी’ है और ठाकुर भी ‘आदिवासी’ है.

भारत के लोकतंत्र में यह देश का इकलौता इलाका है जहां सरकार ऊंची जाति के लोगों को ‘आदिवासी’ मानती है और उन्हें आरक्षण का हर लाभ देती है. लेकिन आदिवासी घोषित ऊंची जाति के लोगों ने दलित समाज के लोगों के हक को भी मार लिया है. ट्राइबल के सर्टिफिकेट के साथ वो रिजर्वेशन का पूरा फायदा उठाते हैं. उनका नौकरियों पर कब्जा है लेकिन दलित समाज; जिसकी आबादी 42 फीसदी है, उसे ट्राइबल का सर्टिफिकेट तक नहीं मिलता है. ट्राइबल क्षेत्र होने की वजह से उन्हें बिना इस सर्टिफिकेट के कोई लाभ नहीं मिलता है. यही नहीं इस इलाके में दलितों से बंधुवा मजदूरी तक कराई जाती है. दलितों के मंदिर में प्रवेश पर भी रोक है. दलित जब इसकी शिकायत करते हैं तो अव्वल तो उनकी शिकायत नहीं सुनी जाती है, और अगर कोई अधिकारी दलितों के दर्द से पिघल भी जाता है तो ट्राइबल होने की वजह से ऊंची जाति के लोगों के खिलाफ उन पर जातीय उत्पीड़न का कोई कानून लागू नहीं होता है.

24 जून 1967 को जौनसार क्षेत्र को एक विशेष विधेयक पारित कर जनजातीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इसके लिए तर्क यह दिया गया कि इस क्षेत्र की संस्कृति समान है. लेकिन जनजातीय क्षेत्र घोषित करने से ज्यादा जरूरी यहां के दलितों के हालात को सुधारना था, जिस पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया. कथित देव भूमि के दलितों की बदहाली का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1976 में इस क्षेत्र में 18 हजार दलित बंधुआ मजदूर थे. वर्तमान में संख्या घटी है लेकिन हालात पूरी तरह सुधरे नहीं हैं. तुर्रा यह कि तमाम शिकायतों के बाद भी अब तक इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी के लिए किसी को भी सजा नहीं हुई है. दलितों का आरोप है कि ऊंची जाति के ट्राइबल लोग दलितों को ट्राइबल का सर्टिफिकेट जारी नहीं होने देते हैं. इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वाले समाजसेवी दौलत कुंवर कहते हैं, “देश भर में ऐसा नियम कहीं नहीं है कि पटवारी स्थानीय व्यक्ति हो, लेकिन जौनसार क्षेत्र का पटवारी स्थानीय व्यक्ति होता है, जो आमतौर पर ट्राइबल घोषित अपर कॉस्ट होता है. यह स्थानीय पटवारी दलितों के लिए मुश्किल खड़ी करता है. उन्हें सरकारी नियमों तक नहीं पहुंचने देता और ना ही उनका जाति प्रमाण पत्र बनने देता है. दलितों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए वह हर तरह से अड़ंगा लगाता है.” कुंवर दलितों को एसटी का प्रमाण पत्र देने में प्रशासनिक भेदभाव का आरोप लगाते हैं. अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि खुद मुझे एसटी का सर्टिफिकेट पाने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी. एक लंबी लड़ाई और अदालत के आदेश के बाद मुझे एसटी का सर्टिफिकेट जारी किया गया. कुछ जातियों को लेकर भी यहां मामला उलझा हुआ है. कोल्टा ऐसी ही जाति है, जिसे केंद्र सरकार तो एसटी मानती है जबकि स्थानीय प्रशासन एससी.

कुंवर कहते हैं कि इस क्षेत्र में कोल्टा जाति की आबादी 32 प्रतिशत है. सन् 2004 में बसपा के तत्कालिन राज्यसभा सांसद इसम सिंह ने सदन में पूछा था कि कोल्टा जाति किस वर्ग में आता है. इस पर तत्कालिन सामाजिक न्याय मंत्री सत्यनारायण जटिया ने इसे एसटी वर्ग का बताया था, जबकि स्थानीय प्रशासन इस जाति को एससी मानता है और उसे अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट जारी करता है. कुंवर कहते हैं कि इस तरह के घालमेल से दलितों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. कोल्टा जो एसटी का दर्जा पाने की सही हकदार जाति थी, उसे एसटी में शामिल नहीं किया गया. कुंवर का आरोप है कि क्षेत्र के ठाकुर और ब्राह्मण समाज के लोग मिलकर दलितों को उनके हक से दूर रखने की साजिश रचते हैं. जाति प्रमाण पत्र का आवेदन स्वीकार करने और जारी करने वाले लोग भी इसी समाज के हैं, जो दलितों द्वारा एसटी के प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने पर कई तरह की मुश्किलें खड़ी करते हैं. उनको इस बात का डर है कि एसटी का जाति प्रमाण पत्र मिलने के बाद दलित समाज के लोग आरक्षण के लाभ में उनके हिस्सेदार हो जाएंगे. एसटी का प्रमाण पत्र नहीं होने की वजह से यहां के दलित चाहकर भी किसी स्थानीय चुनाव या फिर एमपी एमएल के चुनाव में हिस्सा नहीं ले सकते. उन्हें सरकार की किसी भी सुविधा का लाभ तभी मिल सकेगा जब उनके पास एसटी का सर्टिफिकेट होगा.

हम सबके डॉ. अम्बेडकर

देव भूमि के रूप में इसकी पहचान होने के कारण देवता भी यहां राजनीति के केंद्र में है. देवताओं को आगे कर के यहां ऊंची जाति के लोगों द्वारा दलितों के लिए कई तरह के नियम कानून बना दिए गए हैं, जो निम्न जातियों के लिए गुलामी की जंजीर साबित हो रही है. उत्तराखण्ड और हिमाचल में मंदिरों की संख्या 6 हजार से ज्यादा है. उत्तराखंड के तो कई इलाकों में घोषित तौर पर दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित है. अगर कोई गलती से मंदिर में चला गया तो पूरे गांव के सामने उस पर जुर्माना लगाया जाता है. जौनसार-बावर में लगभग 1500 छोटे-बड़े मन्दिर हैं, जिनमें दलितों को नहीं जाने दिया जाता है. दसऊ गांव के प्रधान के पिता 75 वर्षीय केसरू ‘दलित दस्तक’ से अपने दर्द को साझा करते हुए कहते हैं कि गांव के ठाकुर उन्हें मंदिर में नहीं जाने देते. कहते हैं कि तुम छोटे लोग हो, नीच हो, इसलिए मंदिर में नहीं जा सकते. एक बार मेरा लड़का मंदिर में चला गया तो पूरे पंद्रह गांव की पंचायत में मुझसे पांच सौ रुपये का दंड लिया गया. केसरू की घटना इकलौती घटना नहीं है. एक बार गांव की ही एक बेटी ने शादी के बाद मंदिर में जाने की कोशिश की थी, उसे पूरे गांव के सामने जलील किया गया. उसके पति और पिता के साथ धक्का मुक्की की गई. पिता को चेतावनी दी गई कि आखिरकार उसने गांव की परंपरा जानने के बाद अपनी बेटी को मंदिर में जाने से क्यों नहीं रोका.

हाल ही में समाजसेवी दलित कुंवर ने अपनी पत्नी सरस्वती रावत कुंवर और अन्य लोगों के साथ मिलकर इस परंपरा को चुनौती दी. उन्होंने जौनसार के प्रतिष्ठित गबेला मंदिर में जाने के लिए परिवर्तन यात्रा निकाली. अपने 200 समर्थकों के साथ कुंवर मंदिर की ओर बढ़े. इससे सतर्क गांव के ब्राह्मण और ठाकुरों ने पूरे मंदिर की नाकेबंदी कर दी. दलितों को मंदिर प्रवेश से रोकने के लिए ब्राह्मण और ठाकुर समाज के ‘आदिवासी’ लोगों की महिलाएं और बच्चे तक निकल पड़े. मंदिर प्रवेश करने की कोशिश में लगे लोगों को पत्थर फेंक कर मारा गया और उन्हें मंदिर तक नहीं पहुंचने दिया. इसके बाद कुंवर और उनके साथी भूख हड़ताल पर बैठ गए. पूर्व आइएएस अधिकारी चंदर सिंह ने मामले में हस्तक्षेप किया जिससे प्रशासन हड़कत में आया और गांव में धारा 144 लगा दी गई. पहले तो इस मामले को दबाने की कोशिश की गई फिर मीडिया में मामला उछलने पर प्रशासन ने पुलिस की मदद से कुंवर दंपत्ति और उनके साथियों को मंदिर में प्रवेश करवाया. दौलत कुंवर कहते हैं, “हमें पता है कि मंदिर में जाने से हमारा कोई भला नहीं होने वाला लेकिन हम इस पाबंदी को तोड़ना चाहते थे. हम लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं और कहीं भी आना जाना हमारा अधिकार है.”

देवताओं की नगरी में छूआछूत की कहानी यहीं खत्म नहीं होती है. बल्कि यह परत दर परत कई स्तर पर मौजूद है. यहां के दलित, ट्राइबल ऊंची जाति के लोगों के घर नहीं जा सकते. और अगर ऊंची जाति के लोग किसी काम से उनके घर आते हैं तो उनका छुआ कुछ भी नहीं खाते पीते. यहां तक की ऊंची जाति के ट्राइबल द्वारा दलितों को काम के लिए बुलाने पर उन्हें उनके घर जाना पड़ता है. काम के बदले उऩ्हें दिहारी तक नहीं मिलती. बंधुआ मजदूरी की बात पर दौलत कुंवर कहते हैं कि यहां बंधुआ मजदूरी जैसा घिनौना काम करवाया जाता है. वह दावे के साथ इस क्षेत्र में तकरीबन 3000 बंधुआ मजदूर के होने की बात कहते हैं. कहते हैं कि मैंने खुद 195 बंधुआ मजदूरों को इससे मुक्ति दिलवाई है. दलित दस्तक की टीम जिस दिन इस स्टोरी को कवर करने के लिए जौनसार पहुंची थी, उस दिन भी बंधुआ मजदूरी की चपेट में फंसा एक परिवार जिलाधिकारी के पास अपनी फरियाद लेकर पहुंचा था.

अब जरा यहां के दलित समाज के बच्चों के दर्द को महसूस करिए. आमतौर पर स्कूल के लिए उन्हें हर रोज 12 से 14 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है. 6वीं कक्षा में पढ़ने वाली अंजू गौना गांव की है, जबकि उसका स्कूल हाजा में है जो उसके गांव से छह किलोमीटर दूर है. यानि अंजू को अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए रोज 12-14 किलोमीटर तक चलना पड़ता है, जबकि वहीं दूसरी ओर ऊंची जाति के लोगों के गांव में ही स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधाएं मौजूद हैं. इस इलाके की एक सच्चाई यह भी है कि जहां ऊंची जाति के लोग बिल्कुल सड़क पर बसे हैं और उनके घरों तक गाड़ियों के पहुंचने की सुविधा मौजूद हैं तो वहीं दलित समाज के लोग पहाड़ों में मुख्य सड़क से पांच से पंद्रह किलोमीटर तक नीचे बसे हुए हैं, जहां उन्हें मुख्य सड़क से उतर पर पैदल नीचे जाना पड़ता है. आप कल्पना कर सकते हैं कि जब आज गांव-गांव में स्कूल खुल चुके हैं और लोगों के घरों तक गाड़ियों के पहुंचने की सुविधा मौजूद है, ऐसे में पहाड़ों में दलित समाज के लोगों को अपने बच्चों को पढ़ाना और रोज की जिंदगी में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

इस क्षेत्र में आप लोकतंत्र का मजाक उड़ते भी देख सकते हैं. यहां चुनाव चाहे जो जीते फैसला ‘सयाना’ का लागू होता है. सयाना वह पद है, जो पीढ़ियों से एक ही परिवार के पास है. भले ही वह अनपढ़ हो, भले ही उसकी उम्र छोटी हो और समझ शून्य हो लेकिन गांव में वही होगा, जो सयाना कहेगा. यहां तक कि चुनावों के दौरान गांवों के लोग उसी उम्मीदवार को वोट देते हैं, जिसके नाम पर सयाना मुहर लगाता है. इस परंपरा के जरिए कहीं न कहीं एक केंद्रीय सत्ता कायम करने की कोशिश की गई है क्योंकि लोगों का कहना है कि सयाना के ज्यादातर पदों पर ठाकुरों का कब्जा है जो सीधे इस क्षेत्र से सांसद प्रतीम सिंह से जुड़े हुए लोग हैं. इस पूरे इलाके में सन् 1952 से ही प्रीतम सिंह और उनके परिवार के लोगों का राजनीतिक वर्चस्व है. प्रीतम सिंह के परिवार के चमन सिंह चौहान यहां जिला पंचायत प्रमुख हैं, जबकि राजपाल सिंह चौहान चकराता के ब्लॉक प्रमुख हैं. प्रीतम सिंह के कद का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि वह हरीश रावत सरकार में गृहमंत्री रहे हैं.

हालांकि इन तमाम बातों से यहां का प्रशासन आंख मूंदे बैठा है. इस बारे में जब एडीएम कालसी प्रेम लाल से बात की गई तो उन्होंने इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी की घटना से साफ इंकार कर दिया. वह इस बात को मानने के लिए भी तैयार नहीं थे कि दलितों को ट्राइबल का सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता. उप जिलाधिकारी (एडीएम) ने सरकारी नियमों का हवाला देते हुए कहा कि हमारे पास GOV है जिसमें साफ कहा गया है कि इस क्षेत्र के एससी के लोग चाहे तो एसटी का सर्टिफिकेट ले सकते हैं. लेकिन इसी कार्यालय में कुछ स्टॉफ ऐसे भी मिले जिन्होंने ऊंची जाति के ट्राइबल लोगों की आपसी मिली भगत की बात को माना. उनका कहना था कि इस क्षेत्र में सत्ता से लेकर नौकरी तक में ऊंची जातियों का वर्चस्व है. वह अपने इस वर्चस्व को छोड़ना नहीं चाहते. उन्हें पता है कि दलितों के पास एसटी का सर्टिफिकेट हो जाने के बाद वह सत्ता और नौकरियों में भागीदार हो जाएंगे. इसलिए उनकी सारी कोशिश शुरुआती स्तर पर ही दलितों को रोक देने की होती है. एसटी का प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाना इसी मिली-भगत का नतीजा है.

सामाजिक कार्यकर्ता आर.पी विशाल का कहना है कि सिस्टम में बैठे हुए सारे लोग ऊंची जाति के ट्राइबल लोग हैं. चूकि यह क्षेत्र ट्राइबल है तो सारा फायदा ट्राइबल उठा लेते हैं और एससी के लोग मुंह ताकते रह जाते हैं. जौनसार का यह सच दिल्ली को मुंह चिढ़ाने वाला है. यह देश के लोकतंत्र पर एक कालिख के समान है. देखना यह है कि दिल्ली और उत्तराखंड की सरकार इस कालिख को पोंछने की कोशिश करती है या नहीं.

छद्म राष्ट्रवाद की उग्रता

रोहित चक्रवर्ती वेमुला उर्फ रोहित नाम का 26 साल का युवा फाँसी के फंदे पर झुलकर जान दे देता है, यह ऐसे भारत देश की घटना है जहां की 65 फीसदी आबादी 35-40 साल से कम की है. रोहित की मौत फिलहाल आत्महत्या है या फिर उसकाकर फांसी पर लटकने को बाध्य किया गया- ये एक सवाल बना हुआ है. एक युवा की मौत पर राजनीति कोई पहली बार नहीं है लेकिन दो धाराओं में चल रही बहस देश की सामाजिक पृष्ठभूमि को जानने- समझने के लिये काफी है. एक सवर्णवादी धारा रोहित को कायर, बुजदिल, अतिवादी, देशद्रोही और आरोपी करार दे रही है तो दूसरी बहुजनवादी धारा उसे क्रांतिकारी, दलित नायक, शहीद और सामाजिक न्याय का नायक और पीड़ित बता रहा है. इस सबके बीच यह सवाल उभरता है कि रोहित का अपराध क्या था और जो भी अपराध था क्या उसकी सजा मौत है? 30 जनवरी, 2016 को रोहित की जिन्दगी के 27 साल पूरे होते लेकिन उससे पहले ही वो दुनिया को अलविदा कह चुका था. भारत सरकार के श्रममंत्री बंडारू दत्तात्रेय के लिखे पत्र और मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी के अग्रसारित पत्र के अनुसार रोहित एक अतिवादी, जातिवादी और राष्ट्रद्रोही शख्स था. अब इन आरोपों का विश्लेषण कर लेते हैं. अतिवादी होना एक स्वभाव एवं विचारधारा से जुड़ी बात है तो जाति इस भारत भूमि पर पैदाइश से जुड़ी एक बड़ी कड़वी सामाजिक हकीकत है. जहाँ तक अतिवाद की बात है तो सत्तातंत्र के इशारे पर निर्दोषों को नक्सली बताकर एनकाउंटर करने या फिर जेल में मार डालने की भी लम्बी फेहरिश्त है. यूं इस देश में कट्टर अतिवादी होने के नाम पर हिन्दू हो या मुसलमान किसी को भी अकारण या बिना अपराध ही सजा दिये जाने के कारण नहीं बनते हैं. पर जिस देश में समाज की मूल अवधारणा ही जाति पर बनी हो, किसी को जातिवादी करार देना कोई बड़ी बात नहीं है. रोहित अगर दलित या पिछड़ा होते हुये जातिवादी था तो उसके विरोध में खड़ी पूरी जमात कोई सामाजिक क्रांति के अग्रदूतों की नहीं बल्कि स्वाभाविक तौर पर सवर्ण- सामंती, मनुवादी- ब्राह्मणवादी और जातिवादी ही दिखाई देती है. याकूब मेमन- अफजल गुरू के समर्थन में या फाँसी की सजा के प्रावधान के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से पक्ष रखना अगर अपराध है तो देश में संविधान, कानून, पुलिस- प्रशासन भी है. फिर याकूब मेमन या अफजल गुरू का जिसने मुकदमा लड़ा हो तो उन सबको फांसी पर लटका दिया जाना चाहिये. जहां तक बात है कि देशभक्त कौन है और देशद्रोही कौन? तो इसका फैसला कौन करेगा यह एक बड़ा सवाल बनकर उभरा है. जेएनयू में जिस तरह की स्थिति बनाई गई, दिल्ली के पटियाला कोर्ट में जिस तरह वकीलों ने सारी मर्यादा छोड़कर हिंसा की और पुलिस ने जिस तरह बेशर्मी से आंखे मूंदे रखी, उसने केंद्र सरकार पर सवालिया निशान लगा दिया है. क्योंकि ऐसी निरंकुश हिंसा तभी संभव है जब उसे शासक का समर्थन हासिल हो. किसी विश्वविद्यालय में पुलिस का प्रवेश करना और वहां हॉस्टलों में घुसकर छात्रों को डराना धमकाना विश्वविद्यालय के लिए शर्म की बात होती है. जेएनयू से यह भी खबर आई कि उसके मुख्य गेट पर बजरंग दल और भगवा संगठनों के लोगों ने डेरा डाल रखा था जो छात्रों से जबरन देशभक्ति के नारे लगवा रहे थे. देशभक्ति के नारों में कोई गलत बात नहीं है लेकिन जब एक खास समय में लोगों को इन सबके लिए मजबूर किया जाए तो फिर यह समझा जा सकता है कि सत्ता में बैठे लोग देश को किधर ले जाना चाहते हैं. सवाल उठता है कि क्या संघ- बीजेपी, भारत सरकार के मंत्री, विश्वविद्यालय का वीसी या एवीबीपी के कार्यकर्ता राह चलते सड़क पर लोगों के देशभक्ति की जांच करेंगे और देशभक्ति का प्रमाण-पत्र बाटेंगे जैसा की चेन्नई, हैदराबाद, दिल्ली में हुआ है और देश के विभिन्न कोने में हो रहा है. रोहित पर लगे आरोप उसके विरोधियों के राजनीतिक बचाव के लिये मायने जरूर रखते होंगे लेकिन अब जबकि वो दुनिया में नहीं है उसके परिवार एवं समर्थकों के लिये यह जानना महत्वपूर्ण है कि उसकी हत्या किस परिस्थिति में हुई. यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि रोहित के शव का पोस्टमार्टम नहीं किया गया. इसकी उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिये लेकिन निष्पक्ष जांच कैसे संभव होगी यह भी एक सवाल है, क्योंकि इसमें केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के दो मंत्री स्पष्ट तौर पर और तकनीकी रूप से घटना के केन्द्र में शामिल हैं. भारत की मानव संसाधन विकास मंत्री (शिक्षा मंत्री) स्मृति जुबीन इरानी और श्रममंत्री बंडारू दत्तात्रेय हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पिछले 5-6 महीने में हुई तमाम गतिविधियों से रू-ब-रू रहे हैं और निर्देशित भी करते रहे हैं. इस घटना में बंडारू के स्मृति इरानी को लिखे गये एक गंभीर पत्र जिसमें विश्वविद्यालय को ‘अतिवादी- जातिवादी- राष्ट्रद्रोही राजनीति का गढ़’  एवं कुलपति को मूकदर्शक घोषित करते हुये सख्त कार्रवाई करने को कहा और फिर इसी को आधार बनाकर स्मृति इरानी ने विश्वविद्यालय प्रशासन को -वीआईपी- नोटिंग कर 5 पत्र लिखे जो साबित करते हैं कि एक बड़े स्तर का राजनीतिक दबाव हस्तक्षेप ही नहीं बल्कि इस पूरे मामले को निर्देशित किया जा रहा था. केन्द्रीय मंत्रियों बंडारू एवं स्मृति के बढ़ते दबाव ने नि:संदेह कुलपति को दलित छात्रों के खिलाफ कार्रवायी को बाध्य कर दिया. अपनी मृत्यु के पूर्व रोहित ने एक पत्र छोड़ा था, जिसकी चर्चा आम है लेकिन इसके एक महीने पूर्व दिसम्बर में उसने कुलपति को लिखे अपने पत्र में न्याय न दिये जाने की स्थिति में जहर या फाँसी का फंदा देने की अपील की थी. इस पत्र में उसने खुद को ‘दलित आत्मसम्मान मुहिम’ का सदस्य बताते हुये अपनी तरह के छात्र जो विश्वविद्यालय परिसर में लगतार चल रहे आम उत्पीड़न के माहौल से परेशान है मुक्ति की नींद सुला देने की गुजारिश की थी. इस तरह के पत्र किसी जोश या होश खोकर लिखा गया नहीं है बल्कि भाषा- शैली के लिहाज से बेहद संवेदनशील है. जो विश्वविद्यालय परिसर के सवर्ण- सामंती- मनुवादी चरित्र को उजागर करते हैं और जिसे बहुजन विरोधी समूह अमूमन राष्ट्रभक्ति का जामा पहनाकर प्रचारित करते हैं. इस घटना के पीछे आखिर क्या था जिसने रोहित की जिन्दगी तबाह की. रोहित अम्बेडकर स्टुडेन्ट एसोसिएशन नामक संगठन के उन पांच छात्रों में शामिल था जिन्हे एबीवीपी कार्यकर्ता की पिटाई के मामले में विश्वविद्यालय से सस्पेंड किया गया था. इस संबंध में विश्वविद्यालय के द्वारा गठित विशेष जाँच समिति ने रोहित को आरोप मुक्त कर दिया गया था. इसके बाद एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर बंडारू दत्तात्रेय को अपने पक्ष में खड़ा किया. फिर बंडारू ने स्मृति और स्मृति ने विश्वविद्यालय के कुलपति को पत्र लिखकर हड़काया. इसके बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने पूरे चार महीने के उपरांत मामले में अपने ही फैसले पर पुनर्विचार किया और संबंधित दलित छात्रों को हॉस्टल, कैन्टीन, कैफेटेरिया सहित कैम्पस बहिष्कृत कर दिया. जब ये छात्र बाहर निकाले जा रहे थे तो पूरा एबीवीपी संगठन अपनी जीत का जश्न मनाते हुये तालियां बजाकर उन्हें चिढ़ा रहा था. समाजशास्त्र में सोशल एक्सक्लूजन पर इनदिनों विभाग खोले जा रहे हैं ऐसे में विश्वविद्यालय से इन छात्रों को सिर्फ निकाला नहीं गया था बल्कि उन्हें सामाजिक समूह (जातिवादी मानसिकता के तहत) के तौर पर बहिष्कृत किया गया था जिस अवधारणा को हर संवेदनशील व्यक्ति समझ सकता है. रोहित पर कार्रवाई में जिस एबीवीपी कार्यकर्ता संदीप को पीटने का आरोप था उसके बारे में यह बात साफ हो गई हैं कि घटना के दो दिनों के बाद उसके एपेन्डिक्स का ऑपरेशन हुआ जिसें यह रहस्य खुलने तक संगीन मामला बनाकर आरोपी छात्रों के खिलाफ पेश किया गया था. पूरा घटनाक्रम बताता है कि किस तरह संघ-बीजेपी-एवीबीपी के लोगों के आत्माभिमान को संतुष्ट करने के लिये दो केन्द्रीय मंत्रियों ने कुलपति को दबाव डालकर दलित छात्रों को प्रताड़ना का शिकार बनाया जिसने एक छात्र की जान ले ली. इस घटना में दोनों पक्षों (सरकार और विश्वविद्यालय) का संवेदनशील पक्ष अभी तक सामने नहीं आया है. इसे खबर के तौर पर देखने का दृष्टिकोण भी स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक हुआ जब कई मीडिया चैनलों के एंकर- पत्रकारों की फौज अपने जातिगत कुंठा को राष्ट्रवाद का चोंगा पहना कर प्रकट करते रहे और रोहित की ऐसी- तैसी करते रहे. खास बात यह भी रही की बंडारू दत्तात्रेय पिछड़ी यादव जाति से आते हैं (जिसे बीजेपी अपने पक्ष में प्रचारित करवा रही है) बावजूद पिछड़ी जाति के लोगों की संवेदना रोहित के साथ थी और लोग अपना विचार बदलने को तैयार नहीं थे. इससे एक बात तो साफ है कि सामाजिक पृष्ठभूमि की बुनियाद पर राजनीति और बौद्धिक- वैचारिक गोलबंदी पहले एकतरफा या कुछ जाति समूह तक थी जो इस प्रकार की संवेदनशील घटनाओं में टूटती हुई दिखती है. समय के अंतराल के साथ सोशल मीडिया भी ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का एहसास और आगाज करने लगा है. सोशल मीडिया ने जो दबाव बनाया उसी की बदौलत देशभर की प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को तकलीफ के साथ ही सही इस खबर को भरपूर जगह देनी पड़ी. जब चेन्नई के पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध का मामला था तो भी केन्द्र सरकार का हस्तक्षेप था और अब यह दूसरा मामला है जहां केन्द्र के मंत्री अपने पार्टी के छात्र संगठन को संरक्षण प्रदान करने सामने आए हैं. दोनों जगह मामला दलित समाज से जुड़ा है लिहाजा ये साफ है कि भारत भर के शिक्षण संस्थान खासकर उच्च शिक्षातंत्र जो पिछले 67 सालों में सवर्ण मठाधीशी के केन्द्र के रूप में स्थापित हुये है उसे अब संघ के निर्देशन में राष्ट्रवाद का मुखौटा लगाकर पूर्णत: मनुवादी- ब्राह्मणवादी संस्थान के तौर पर तब्दील किये जाने का काम शुरू हो गया है. ऐसे में दलित- पिछड़े- पसमांदा समाज के शिक्षकों- छात्रों की प्रताड़ना के मामले खुलकर सामने आने अब शुरू हो गये हैं. देश के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में 95 प्रतिशत उच्च जाति के कुलपति हैं और इनमें फैकल्टी के स्तर पर दलित- पिछड़ों की नियुक्तियों को जिस तरह से खिलवाड़ कर बाधित किया जा रहा है वह जग जाहिर है. हाल ही में देश के कई विश्वविद्यालयों- संस्थानों में नियुक्तियों में अनियमितता का हवाला देकर दलित- पिछड़े शिक्षकों की नौकरी खत्म कर दी गई. एम्स, आईआईटी सहित देशभर के उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्रों की प्रताड़ना बदस्तूर जारी है. प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक में कुछ समय के अंतराल पर जब दलित- पिछड़ों की एक बड़ी खेप तैयार हो जाती है तो नियम बदल दिये जाते हैं ताकि वंचितों को नौकरी से रोका जा सके. 85 फीसदी की आबादी का जो हवाला सड़कों पर दिया जाता है उसका दलित-पिछड़े समाज को इतना ही लाभ है की देह लेकर लोग विधानसभा-लोकसभा पहुंच जा रहे हैं जिसकी ताकत को खारिज करने के लिये जुडिशियरी, ब्यूरोक्रेसी, मीडिया में बैठे सवर्ण सामंती मठाधीश एकजुट हो चुके हैं. फिलहाल रोहित के बहाने हैदराबाद की राजनीति का भी एक उलझा हुआ सूत्र कुछ खुला है. ओवैसी के गढ़ में बीजेपी की मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक राजनीति को खाद आसानी से मिल रही थी. जाहिर सी बात है कि यहां का हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय इस राजनीति के दबाव एवं प्रभाव से अछूता नहीं है. लेकिन सामाजिक तौर पर यह बड़ी बात थी कि हिन्दू- मुस्लिम गोलबंदी से अलग दलित समूह/ संगठन राजनीति की जड़ता को तोड़ते हुये चर्चा बनकर उभरे थे. अब इस बेचैनी ने विश्वविद्यालय स्तर के छोटे से मामले में केन्द्र के कद्दावर मंत्रियों को हस्तक्षेप कर दबाव बनाने के लिये मजबूर किया. लेकिन रोहित के बहाने जो देश में भावना उभरी और चर्चा हुई है उसका संदेश महत्वपूर्ण एवं व्यापक भी है. संदेश यह है कि- राजनीति में दलित, पिछड़े, अति-पिछड़े, पसमांदा, मुसलमान नेताओं और उनकी पार्टियों के राजनीतिक हित भले ही अलग हों लेकिन सत्ता तंत्र के सभी केन्द्रों पर 85 फीसदी आवाम की भागीदारी की लड़ाई मिलकर लड़नी होगी अन्यथा ये समूह निपटा दिये जायेंगे. इसी बीच कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी हैदराबाद पहुंचकर संवेदना जता रहे थे. उन्हें यह पता होना चाहिये कि अर्जुन सिंह के शिक्षामंत्री दौर के कार्यकाल को छोड़कर भारत भर के उच्च शिक्षण संस्थान का ब्राह्मणवादी चरित्र तैयार करने में उनकी कांग्रेसी सरकार अव्वल रही है. यूपीए सरकार के दौरान भी दलित- पिछड़े छात्रों ने आत्महत्या की थी पर उस वक्त सारे कांग्रेसियों ने मौन साध रखा था. जाहिर है कि कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक भागीदारी को दरकिनार कर जातिवाद को मजबूत किया गया था. उसपर अब बीजेपी-संघ राष्ट्रवाद का मुखौटा लगा सांप्रदायिकता की पृष्ठभूमि तैयार करना चाह रही है. यह हाल में देशभर के सभी संस्थानों में की गई तमाम नियुक्तियों के अध्ययन से भी जगजाहिर होता है. स्पष्ट है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवाल पर एक ही सिक्के के दो पहलू है. यही कारण है कि मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान को कांग्रेस के दो ब्राह्मण पुत्रों- मनीष तिवारी और जितीन प्रसाद ने सबसे पहले खुलकर समर्थन किया था. अब जातिवादी कहकर दलित- पिछड़े- पसमांदा समूहों में चल रहे वैचारिक- बौद्धिक विमर्श और राजनीतिक गोलबंदी को खारिज करना इतना आसान नहीं है. कुछ उदाहरण भी याद से दुहरा लेने चाहिये. बिहार में 80-90 के दो दशकों तक एक प्राइवेट जातिवादी सैन्य संगठन रणवीर सेना ने नरसंहारो के माध्यम से कोहराम मचाया था. इस संगठन का नेतृत्व करने वाले अपराधी ब्रह्मेश्वर की हत्या उसी की जाति के दूसरे गुंडों ने कर दिया तो इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया के तौर पर आरा के दलित हॉस्टल पर हमला कर दिया गया था. फिर इसी जाति के डीजीपी के संरक्षण में 50-60 किलोमीटर लम्बी शवयात्रा निकाल कर एक गुन्डे को नायक बनाने की कोशिश की गई, अब तो उसका सलाना शहादत दिवस मनाया जाता है जिसमें भूमिहार समाज के सभी क्षेत्रों के सारे लोग शिरकत कर गर्व महसूस करते हैं. राजपूत जाति का एक नेता आनंद मोहन एक दूसरे जाति के दबंग गुन्डे छोटन शुक्ला की हत्या के विरोध में जुलूस निकालता है जिसमें एक दलित जिलाधिकारी जी. कृष्णैया की दिन- दहाड़े नृशंस हत्या कर दी जाती है. इस घटना के मुख्य आरोपी को उसके समाज के लोग राज्यभर में नायक बताकर उसके लिये हस्ताक्षर अभियान चलाते हैं. देवेन्द्र दूबे नाम के दबंग गुन्डे के खिलाफ बनिया समाज का बृज बिहारी प्रसाद नायक बनता है. अपने खिलाफ ज्यादती का विरोध कर बदला लेकर फूलन विद्रोहिणी नायिका बनती है. फिर हरियाणा के भगाना की बेटियाँ, बिहार में खगड़िया के शिरोमणि टोला की औरतें- इनके साथ इसी भारत में सामुहिक बलात्कार होता है. दलित- पिछड़े समाज पर ब्राह्मणवादी समाज के द्वारा प्रताड़ना की इतनी लम्बी फेहरिश्त है कि तमाम वेद-पुराण-रामायण-महाभारत के पन्ने कम पड़ जायेंगे. सामाजिक संघर्ष व द्वंद्व के इतिहास में मनुवादी-ब्राह्मणवादी समाज के द्वारा खड़े किये गये छद्म- मिथकों के नायक के मुकाबले बहुजन (दलित- पिछड़ा- पसमांदा) समाज का हर नायक क्रांतिकारी प्रतिरोध की धारा का वाहक रहा है. उच्च जाति के सामंत- अत्याचारी- गुंडों को नायक के तौर पर स्थापित करने के अनगिनत उदाहरणों के बीच सवर्णों की नजर में राष्ट्रद्रोही घोषित किया गया बहुजन समाज का बेटा रोहित नि:संदेह प्रतिरोध की धारा का एक नायक है- कम से कम अपने 85 फीसदी समाज के लिये तो जरूर ही है. इसी बीच यह भी खबर पेश की जा रही है कि रोहित दलित नहीं पिछड़ा है जो पत्थर तोड़ने वाले समाज से आता है तो क्या फर्क पड़ता है पिछड़ी जाति से है या फिर एक साथी ने बताया कि माँ दलित जाति से है और पिता पिछड़ी जाति से है तो भी क्या कहना चाहते है विरोधी. माँ- बाप ने एक होनहार क्रांतिकारी मिजाज बेटा खोया और शोषित (दलित या पिछड़ा) समाज के अपना एक नेतृत्वकर्ता युवा खो दिया. जाहिर है कि देश ने कुछ भी नहीं खोया होगा क्योंकि इनदिनों देश की ठेकेदारी कर रही पार्टी के रहनुमाओं और उनके गुर्गों की परिभाषा के दायरे में रोहित देश विरोधी था जिसकी परिणति वे मौत मानते हैं. इसी संदर्भ में यह बात जोड़ना दिलचस्प है कि कालांतर में जामिया, अलीगढ़ के विश्वविद्यालयों को भी संघ-बीजेपी के लोग आतंक का गढ़ बताते रहे हैं. उसी तरह केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ही देशभर से उच्च शिक्षण संस्थानों में संघ- बीजेपी का गढ़ स्थापित करने के लगातार प्रयास जारी हैं. पुणे, चेन्नई, हैदराबाद होते हुये अब दिल्ली पहुंची संघ- बीजेपी की साजिश ने अब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को निशाना बनाया है जहां हाल ही में एक घटना को अंजाम और तूल देकर जिस प्रकार से एक प्रतिष्ठित संस्थान की अंतरराष्ट्रीय छवि को धुमिल करने का प्रयास किया गया है वह शर्मनाक है. जेएनयू की घटना के बाद आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री लालू प्रसाद का यह बयान बिलकुल सटीक बैठता है कि, “दलित/पिछड़ा समाज पूछता है कि क्या केन्द्र सरकार ने ‘JNU में देशद्रोह’ की खोज रोहित वेमुला की आत्महत्या से उपजे आक्रोश को ढंकने के लिये किया है.” रोहित की मौत से उभरे राष्ट्रव्यापी बहुजनवादी जनाक्रोश के बाद देश के गिने- चुने प्रगतिशील संस्थानों की छवि धुल- घुसरित करने पर जिस तरह राष्ट्रवाद का चोंगा पहन मनुवादी- ब्राह्मणवादी भगवा ब्रिगेड जुट गयी है जाहिर है कि देश में संविधान, लोकतंत्र, विचार की मर्यादा को खत्म करने की बहुत बड़ी साजिश नजर आती है. केन्द्र में मोदी सरकार के आने के बाद विवादों के कारण चर्चित हुये ये सभी वही संस्थान हैं जहां पर पढ़ने- पढ़ाने वाले दलित- पिछड़े- पसमांदा समाज के बड़े विचारक इनदिनों देश- दुनिया में सुर्खियां बटोर रहे हैं और इन संस्थानों को ध्वस्त कर बीजेपी- संघ पूरे देश में चल रही प्रगतिशील- आलोचनात्मक बौद्धिक- वैचारिक विमर्श को खत्म करना चाहती है. कभी भगवाधारियों के आदर्श सावरकर भी राष्ट्रनिर्माता डॉ. अम्बेडकर को राष्ट्रविरोधी मानते थे तो सावरकर के सवर्ण- मनुवादी- ब्राह्मवादी भगवाधारी पौत्र इनदिनों अम्बेडकर के सामाजिक न्याय और भागीदारी की लड़ाई लड़ने वाले बहुजनवादी पौत्रों को राष्ट्रविरोधी घोषित करने में लगे हैं. अब अंतत: पूरे घटनाक्रम को इस नजरिये से देखना इसलिये भी जरूरी है कि भारत के इतिहास में इनदिनों पहली बार एक तथाकथित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संचालित राष्ट्रवादी सरकार बनी है जिसकी कमान ‘56 इंच’ सीने वाले नरेन्द्र मोदी के हाथ में है. संघ और बीजेपी के लोगों ने प्रत्यक्ष ऐलान कर रखा है कि वह भारत के मुसलमानों को पाकिस्तान भेज देगा जिसकी आहट उसके गुर्गों की जबानी गाहे- बगाहे सुनाई भी देती रहती है. वहीं उसने अप्रत्यक्ष ऐलान कर रखा है कि देश के भीतर जो भी मनुवाद- ब्राह्मणवाद का विरोधी और सामाजिक न्याय- भागीदारी की लड़ाई का समर्थक है उन सभी को येन-केन-प्रकारेण नेस्तनाबूद करके दम लेगा. बहुजन समाज को सत्ता की साजिशों को समझना होगा. राष्ट्रवाद के शोर के बावजूद बहुजनवाद को याद रखना होगा. बहुजन समाज को खुद को राष्ट्रवादी होने का प्रमाण पत्र देने के बोझ तले नहीं दबना है क्योंकि इस देश को बनाने में सबसे ज्यादा किसी ने योगदान दिया है तो वह बहुजन समाज के लोगों ने दिया है. यह देश जिस ढ़ांचे पर खड़ा है, उसकी नींव में बहुजनों का खून और पसीना मिला हुआ है. फिलहाल वक्त बाबासाहेब अम्बेडकर के “शिक्षित बनो-संगठित बनो-संघर्ष करो” पर मन-कर्म-वचन से अमल करने का है. मार्च के महीने में बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम की जयंती भी है. कांशीराम वही शख्स हैं, जिन्होंने 85 प्रतिशत का फार्मूला समाज के सामने रखा था और इसी फार्मूले की बदौलत देश की राजनीति में ब्राह्मणवादी वर्चस्व को सीधी चुनौती दी थी. यह वक्त कांशीराम जी को श्रद्धांजलि देने का भी है. जरूरत है कि बहुजन समाज प्रण करे और रोहित को सच्ची-ईमानदार श्रद्धांजलि अर्पित करे. और यह तभी संभव है जब जिस विचारधारा ने रोहित की जान ले ली और उसके सीने पर राष्ट्रद्रोही का तमगा टांगने की साजिश रची, उसके खिलाफ एकजुट होकर इस लड़ाई को तब तक लड़ा जाए जब तक यह अंजाम तक न पहुंच जाए.

गणतंत्र के 65वें वर्ष में बहुजन कहां?

gantantraयह सत्य है कि भारत के गणतंत्र बनने के 65 वर्षों में हमारे राष्ट्र ने बहुत विकास किया है. तकनीकी रूप से आवागमन के साधन (रोड, रेल और हवाई जहाज), सूचना क्रांति, अंतरिक्ष विज्ञान, सैन्य शक्ति (जल, थल, वायु), औद्योगिकीकरण, नगरीकरण कुल मिलाकर आधुनिकीकरण और अब भूमंडलीकरण के दौर से गुजरते हुए हमने बहुत तरक्की की है. आंकड़ों के अनुसार भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. विश्व में अरबपतियों की सूची में भारत के अरबपति तीसरे नंबर पर आते हैं. विश्व के 97 अरबपति भारत से हैं. एक अनुमान के अनुसार 2013-14 में भारत की प्रति व्यक्ति औसतन आय 38,856 रुपये है. परंतु इन सब विकासिय आंकड़ों के विपरीत यूएनडीपी के मानव विकास सूचकांक में भारत 187 देशों की सूची में 135वे नंबर पर है. यह सूचकांक तीन आधारों पर बनाया जाता है. लंबा एवं स्वस्थ जीवन, शिक्षा की पहुंच तथा सराहनीय रहने के मानक पर बनाया जाता है. इसी संदर्भ में अर्जुन सेन गुप्ता के एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 70 प्रतिशत भारतीय केवल 20 रुपये प्रतिदिन के आधार पर गुजर करते हैं. और 26 प्रतिशत भारतीय गरीबी रेखा के नीचे आते हैं. अब हम स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत के बहुजन किस हालात में है? हम बहुजनों की स्थिति का आंकलन कम से कम दस संस्थाओं की संरचना के अवलोकन के आधार पर कर सकते हैं. इसमें बहुत बड़े अन्वेशषण या शोध की आवश्यकता नहीं है. केवल और केवल खुली आंखों से दसों संस्थाओं की संरचना की बनावट में दलितों, पिछड़ों एवं मुसलमानों के प्रतिनिधित्व पर नजर डालें तो बात साफ हो जाएगी की गणतंत्र के इन 65 वर्षों में ये समूह कहां पर है? ये दस संस्थाएं जो भारत राष्ट्र का निर्माण करने में मुख्य भूमिका निभाती हैं, वे हैं उच्च एवं उच्चतम न्यायालय, भारतीय राजनीति, संसद (राज्य विधानसभा एवं पंचायती राज्य), कर्मचारी तंत्र उद्योग (सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम, निजी क्षेत्र एवं बैंकिंग और बीमा कंपनियां). पांचवां है शिक्षा जगत. परंपरागत शिक्षा (विश्वविद्यालयी शिक्षा, स्कूली शिक्षा), व्यवसायिक शिक्षा (आईआईटी और आईआईएम), कृषि, मीडिया, धर्म, खेल एवं सिविल सोसायटी (स्वयंसेवी संगठन). उपरोक्त दसों संस्थाओं में जनसंख्या के आधार पर बनावट का परीक्षण करें तो हम पाएंगे कि बहुजनों को इन संस्थाओं में गणतंत्र के 65 वर्षों बाद भी प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. और कुछ जातियों और वर्णों ने इस पर अपना एकाधिपत्य जमा रखा है. अगर हम उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों को ही ले लें तो बहुजनों का यहां प्रतिनिधित्व 65 वर्षों के गणतंत्र में नगण्य दिखाई पड़ता है. और इसलिए बहुजनों की धारणा है कि न्यायालयों से बहुजन समाज को निर्णय तो मिलता है पर न्याय नहीं. राजनीति में यद्यपि लोकसभा, विधानसभा एवं पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण के माध्यम से कुछ दलितों को प्रतिनिधित्व अवश्य मिला है परंतु इनमें प्रभावी नेतृत्व अभी तक नहीं दिखाई दे रहा है. सवर्ण समाज बाहुल्य वाले दलों में दलित समाज के नेताओं को अपने सवर्ण समाज के आका पर निर्भर रहना पड़ता है. वो अपने दल की ही बोली बोलते हैं और विधानसभा और संसद में दलितों के हक की बात को नहीं उठाते हैं. उत्तर प्रदेश में आरक्षित सीटों से जीते हुए सत्ताधारी दल के विधायकों का आरक्षण के पक्ष में कोई भी कदम ना उठाना इस बात को प्रमाणित करता है. इसलिए ये कहा जा सकता है कि राजनीति में दलित समाज के राजनैतिक नेतृत्व का प्रभावी होना अभी बाकी है. कर्मचारी तंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर भारत सरकार के 92 सचिवों में एक या दो दलित समाज के सेक्रेट्री हो सकते हैं. परंतु इनके विभागों का आंकलन किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि जानबूझ कर इनको मुख्यधारा के विभागों से दूर रखा जाता है. यही हाल इन अधिकारियों का राज्यों में होता है. जहां पर गृह विभाग, वित्त, नियुक्ति, व्यापार, शिक्षा आदि से इनको दूर रखा जाता है. हां ये बात और है कि जब स्वतंत्र दलित राजनैतिक दल की सरकार बनती है तो दलित कर्मचारियों को तरजीह अवश्य मिलती है. शिक्षा के जगत में यद्यपि दलितों को धर्म के आधार पर वंचित रखा गया था परंतु भारतीय संविधान के आधार पर वर्तमान में 1241 अनुसूचित जातियों को पढ़ने लिखने का अधिकार मिला. जिससे उनमें आज 100 में से 66 लोग साक्षर हो चुके हैं. परंतु एक से लेकर कक्षा पांच तक पहुंचते पहुंचते 100 में से 27 दलित विद्यार्थी पढ़ाई छोड़ देते हैं. इसी तरह एक से दसवीं कक्षा तक पहुंचते पहुंचते 100 में से 56 दलित विद्यार्थी अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं. और इसलिए दलितों का उच्चतम शिक्षा में दलितों के 87 प्रतिशत लोग बाहर निकल जाते हैं. और आज तो सर्वशिक्षा अभियान के कानून के बाद केंद्रीय विद्यालयों में उनका आरक्षण भी खतम कर दिया गया है. ऐसी स्थिति में शिक्षा में प्रतिनिधित्व केवल शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र एवं छात्राओं के रूप में नहीं, बल्कि शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षकों के रूप में भी उनका प्रतिनिधित्व; उनकी जनसंख्या के अनुपात में अभी भी नहीं दिखाई देता है. शिक्षा में पाठ्यक्रमों को लेकर भी उनके समाज के नायकों एवं मूल्यों का पूर्ण ब्लैक आउट है. ऐसी स्थिति में दलित एवं बहुजन समाज का शैक्षणिक उत्थान कैसे संभव है? और जब तक उनको शिक्षा में पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा, उनके उत्थान के सभी द्वार बंद प्रायः रहेंगे. अगर हम कृषि क्षेत्र में दलितों की स्थिति का पता लगाना चाहें तो हमको दिखाई देगा कि लगभग 60 प्रतिशत दलित समाज के लोग भूमिहीन खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं. और वे किसी न किसी रूप में दूसरे पर आश्रित हैं. लगभग 72 प्रतिशत दलित सीमांत किसान हैं जिनके पास आधे एकड़ से कम जमीन पाई जाती है. ऐसी परिस्थिति में उनके पास मनरेगा (महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट) कानून का ही सहारा है. परंतु वहां पर भी उनको न्यूनतम मजदूरी के रूप में मध्यप्रदेश में 159 रुपये और सबसे अधिक मजदूरी 229 रुपये केरल में मिलता है. परंतु उनको साल 100 दिन के रोजगार की गारंटी ही दी गई है. अर्थात साल के 365 दिन में से वे केवल 100 दिन ही सरकार की बनाई योजना के अंतर्गत काम कर सकते हैं. उसमें भी बहुत सारे शोध से पता चला है कि इस संस्था में भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर पाया जाता है. इसलिए दलितों को कहीं पर जॉब कार्ड नहीं मिलता है तो कहीं उनको उनकी न्यूनतम मजदूरी. और इसलिए उनकी आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पा रहा है. शायद इसीलिए बाबासाहेब अम्बेडकर ने दलितों का आवाह्न किया था कि वे ग्रामीण अंचल छोड़कर शहरों में बस जाएं. खेलों का एक नया क्षेत्र संस्था के रूप में निजी संपत्ति का प्रयोग कर बाजार का रूप ले चुका है. जिसमें क्रिकेट, हॉकी, फुटबाल, बैडमिंटन और यहां तक की कबड्डी जैसे खेल शामिल कर लिए गए हैं. इस बाजार में दर्शकों के टिकट के साथ-साथ खिलाड़ी और टीम भी बिकते हैं. खुले बाजार में खिलाड़ियों की बोली लगती है. 2015 में इंडियन प्रीमियर लीग में युवराज सबसे महंगे खिलाड़ी थे, जिनको 16 करोड़ में बेचा गया. ऐसे ही महेन्द्र सिंह धोनी, विराट कोहली और रोहित शर्मा को साढ़े 12 करोड़ में खरीदा गया. तमाम खिलाड़ियों की बोली लगी. खिलाड़ियों के एक आईपीएल सीजन में इन करोड़ों की कीमत के सापेक्ष मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी का आंकलन करे तो हमें भारत में आर्थिक विषमता का आसानी से पता चल जाएगा. क्या विकास का यही पैमाना होना चाहिए, जिसमें समाज के कुछ लोग करोड़पति होते जाएं और कुछ लोगों को दो जून की रोटी भी न नसीब हो. ऐसी स्थिति में क्या दलित समाज आईपीएल में किसी तरह भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है? जवाब नाकारात्मक ही है. दलितों की उपरोक्त संस्थाओं में अगर भागेदारी नहीं है तो उसकी भागेदारी धर्म में हो सकती है क्या? भारत के अमीर से अमीर मंदिरों की संरचना का विश्लेषण किया जाए तो वे कहीं नहीं दिखाई देते हैं. मंदिरों से जुड़े हुए ट्रस्टों में अकूत संपत्ति बिना किसी विकास एवं प्रायोजन के पड़ी हुई है. इन मंदिरों के ट्रस्टो से जुड़े हुए अनेक लोग आपूर्ति का काम करते होंगे. क्या उनमें दलितों की सहभागिता हो सकती है? मैं यहां भारत के 6 सबसे अमीर मंदिरों की बात कर रहा हूं. पद्मनाभ मंदिर तिरुवंतपुरम (1 लाख करोड़), तिरुपति वेंकटेश्वरम मंदिर आंध्र प्रदेश की संपत्ति 5 हजार करोड़, सोमनाथ ट्रस्ट की संपत्ति 1,614 करोड़ है. इसी तरह साईं बाबा मंदिर की आय 350 करोड़ सलाना है. सिद्धी विनायक मंदिर में हर साल सौ से 150 करोड़ का चढ़ावा आता है. इन मंदिरों की इस माली हालत में दलितों का कोई भी लेना-देना नहीं है. इसलिए वे इस संस्था से भी बाहर नजर आते हैं. इसका आशय यह नहीं है कि बहुजन समाज मंदिरों में प्रवेश मांग रहा है. इसी कड़ी में मीडिया में भागेदारी का प्रश्न दलित हमेशा से उठाते रहे हैं. परंतु आज के तमाम समाचार चैनलों को ही ले लें और दूरदर्शन के 42 चैनलों के साथ इसे देखें तो इसमें दलितों की भागीदारी तकरीबन नगण्य है. किसी भी चैनल में एक भी दलित एंकर (महिला या पुरुष) नहीं है. जब व्यक्ति ही नहीं होगा तो उसका दृष्टिकोण भी नहीं होगा. इसलिए मीडिया से दलित दृष्टिकोण एवं दलितों की खबर दोनों ही गायब नजर आते हैं. दलितों पर अपराध की खबर को “दलित खबर” बताया जाता है, यद्यपि यह दूसरे समाज के द्वारा क्रियान्वित की गई प्रतिक्रिया होती है. ऐसी स्थिति में दलितों की भागेदारी मीडिया में न होना प्रजातांत्रिक मूल्यों के विकास पर प्रश्नचिन्ह लगाती है. इसी संदर्भ में स्वयंसेवी संगठनों में दलितों की भागेदारी का भी प्रश्न उठता है. यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सरकार अब सामाजिक क्षेत्र में स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने का मन बना चुकी है. अतः दलितों की स्वयंसेवी संगठनों के अंदर प्रभावी भूमिका होनी चाहिए. तभी उन तक सुविधाएं पहुंच सकती है. परंतु ऐसा प्रतीत नहीं होता है. इसलिए गणतंत्र बनने के 65 वर्ष बाद उपरोक्त दसों संस्थाओं में दलितों की नगण्य एवं अप्रभावी भागेदारी हमारे गणतंत्र के विकास की प्रकृति पर सवाल खड़ा करती है. अतः अगर हमें अपने गणतंत्र को मजबूत करना है तो इन दसों संस्थाओं में बहुजनों की भागेदारी सुनिश्चित करनी होगी.

लड़ाई ही हमारा अंतिम हथियार है – अशोक भारती

नैक्डोर का गठन किस उद्देश्य से हुआ? कब हुआ? – नैक्डोर जैसे संगठन की जरूरत दलितों को हमेशा से थी. यह इसलिए जरूरी थी कि सामाजिक स्तर पर दलित संगठनों का और दलितों का कोई भी एक ऐसा व्यापक राष्ट्रीय मंच नहीं था, जो उनकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक चिंताओं को मजबूती के साथ रख सके. तो एक राष्ट्रीय मंच का अभाव ही नैक्डोर के बनने की सबसे बड़ी वजह थी. हमने सन् 2000 में ही इसके बारे में सोचा था लेकिन किन्हीं कारणों की वजह से यह टल गया. फिर दिसंबर 2001 में 8-10 दिसंबर तक दिल्ली में देश के दलित संगठनों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ. इसका नाम ही था, नेशनल कांफ्रेंस ऑफ दलित आर्गेनाइजेशन. यही ‘नैक्डोर’ बना. इस तरह 10 दिसंबर 2001 को नैक्डोर की स्थापना हुई. तब आप क्या कर रहे थे? – मैं तो भारत सरकार में नौकरी कर रहा था. मैं मिनिस्ट्री ऑफ पावर में सेंट्रल एक्जीक्यूटिव अथॉरिटी में था. इंडियन इंजीनियरिंग सर्विस में था मैं. अगर मुझे ठीक याद है तो मैं उस वक्त डिप्टी डायरेक्टर था. आप अच्छे पद पर थे. फिर वो क्या चीज थी कि आपने नौकरी छोड़ कर दूसरी राह ली. – 1977 में मैने दसवीं पास की थी. और तब से मैं सामाजिक और दलित आंदोलन का हिस्सा था. लेकिन बीच में पढ़ाई के सिलसिले में मैं चार साल (अगस्त 1996 से 25 दिसंबर 1999) देश से बाहर था तो उस दौरान बहुत सारी चीजें हो गई थी. तब तक उदित राज जी खड़े हो गए थे. तब तक एनसीडीएचआर (NCDHR) हो गया था. वो काफी गरमा-गरमी और गहमा-गहमी का दौर था. उस वक्त मैं अंतरराष्ट्रीय गहमा-गहमी में शामिल था. आपको याद होगा कि सन 1998 में क्वालालंपुर, मलेशिया में प्रथम दलित विश्व सम्मेलन हुआ था. तो मैं उस प्रक्रिया में शामिल था. वहां मान्यवर कांशीराम थे, रामविलास पासवान थे, फूलन देवी थीं, कांग्रेस के चिंता मोहन थे, कमला प्रसाद सिन्हा थीं. ये सब लोग थे. देश का कोई भी ऐसा गंभीर दलित कार्यकर्ता नहीं था जो वहां मौजूद नहीं था. हां, एनजीओ वाले वहां पर नहीं थे. सबके सब लोग अपने पैसे से कार्यक्रम में पहुंचे थे. मैं मानता हूं कि उस कार्यक्रम के आयोजन में मेरा भी कुछ हिस्सा था. तो 1998 में मैने स्ट्रेटेजी फॉर दलित डेवलपमेंट पर अपना पावर प्वाइंट प्रेजेंनटेशन दिया था. और मैं मानता हूं कि हमारी ये उम्मीद थी कि वो प्रथम दलित विश्व सम्मेलन देश के दलितों के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. हालांकि वैसा नहीं हो पाया. तभी मुझे लगा कि जब मैं भारत वापस जाऊंगा तो उस सम्मेलन की जो खामियां थी, उनको दूर करने के लिए भारत में एक सम्मेलन करुंगा. वो क्या वजह थी कि विश्व भर से तमाम लोग अपने पैसे से क्वालालंपुर पहुंचे थे. – जिस तरह से दुनिया में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव आ रहा है, तो दलितों का चिंतित होना या दलितों को उसके बारे में विचार करना बड़ा स्वभाविक है. आपको पता होगा कि उस वक्त के आर नारायणन भारत के राष्ट्रपति थे. तो लोगों को लग रहा था कि कुछ चीजें हम बदल सकते हैं. क्योंकि के आर नारायणन को उपराष्ट्रपति बनाने के लिए भी बड़ी लंबी लड़ाई हुई थी, जिसमें हमलोगों ने भी अपनी भूमिका अदा की थी. मैं भी उसमें व्यक्तिगत तौर पर शामिल था. तो लोगों को लग रहा था कि हमें कुछ करना चाहिए. और ये वो दौर भी था कि जब उत्तर प्रदेश में एक संयुक्त सरकार बसपा की बन चुकी थी. तो थोड़ा सा उभार था. तो ये एक बड़ा कारण था. नैक्डोर की स्थापना से लेकर अब तक का सफर कैसा रहा है?    –  मैं तो इस सफर से बहुत खुश हूं. और मुझे लगता है कि हमने जो सोचा था वह अक्षरशः साबित हो रहा है. हमारा आंकलन यह था कि जो दलितों के राजनैतिक दल हैं, वो सामाजिक मुद्दों को हाशिये पर छोड़ देंगे. दलितों के आर्थिक मुद्दे को हाशिये पर छोड़ देंगे. यानि वो अपनी पहचान मजबूत करने के क्रम में दलितों के सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य मुद्दों पर उतना काम नहीं कर पाएंगे जितना वो करना चाहते थे. उसकी वजह यह है कि देश की राजनीति में जो भारत की नौकरशाही का स्टील फ्रेम है. उस स्टील फ्रेम में दलित बड़े मार्जनालाइज हैं. तो अगर देश के दलितों के हाथ में राजनीतिक सत्ता आ भी जाए तो दलितों की जिंदगी में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आ सकता. क्यों? – पहली बात तो यह है कि सरकारें जो काम कर सकती हैं… जैसे- मायावती जी ने ठेकेदारी में 23 प्रतिशत रिजर्वेशन किया. अब दलितों में ठेकेदारी नहीं है. तो अगर वो नीतियां ले भी आएंगी तो उसका फायदा कौन उठाएगा? क्योंकि क्या हमारा समाज स्टेट को इस्तेमाल करने के लिए तैयार है? मुझे लगता है कि दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक खासतौर पर जो मुसलिम समुदाय है वह स्टेट द्वारा मुहैया कराए गए मौके को इस्तेमाल करने में फिलहाल उतने सक्षम नहीं हैं. यही वजह है कि सरकार चाहे बहनजी बनाए या कोई और बनाए, फायदा गैर दलितों को ज्यादा होगा. लेकिन ये बात जरूर है कि दलित कुढ़ता रहेगा. इसलिए वह बहनजी से कुढ़ता रहा कि उसे फायदा नहीं मिला. लेकिन यूपी सरकार में पहली बार कोई दलित आईजी बना. कई लोग निगमों के अध्यक्ष बने. यह सब मायावती की सरकार में ही हुआ? यह फायदा तो सरकार को ही हुआ ना. – ये सांकेतिक फायदे हैं, इससे जमीनी हकीकत नहीं बदलती. ये देखने के लिए बड़ी अच्छी चीजें हैं लेकिन अगर उत्तर प्रदेश में दलित समाज का एक व्यक्ति आईजी बन गया तो क्या वो कोई ऐसी व्यवस्था कायम कर पाएं कि दलितों पर अत्याचार बंद हो जाए या फिर थानों में दलितों के मामलों की सुनवाई ज्यादा होनी शुरू हो गई. नैक्डोर के अब तक के सफर में दिक्कतें क्या आई? – एक दिक्कत तो यह थी कि नैक्डोर जो है वह बहुत विपरीत परिस्थितियों में काम कर रहा था. क्योंकि आप भारत में दलित होते हुए जब एक बड़े राष्ट्रीय मंच पर काम करते हैं, तो दलित होने के नाते जो अन्य लोग हैं, खासतौर पर जो राजनीति में हैं और जिनकी समझ बड़ी नहीं है, उनको लगता था कि नैक्डोर एक प्रतिद्वंदी है. कई जगह पर बहुजन समाज पार्टी के जमीनी पदाधिकारियों के साथ हमारी तकरार होती थी. क्योंकि वो लोग हमारी मुहिम को समझ नहीं पा रहे थे. उनको लगता था कि नैक्डोर एक राजनीतिक पार्टी बनेगा. हमारे तमाम बात कहने के बावजूद वो यकीन नहीं करते थे क्योंकि उन्होंने कभी नहीं देखा था कि दलितों का कोई सामाजिक संगठन बड़े पैमाने पर मोबलाइजेशन करता है जैसा कि नैक्डोर ने किया. यह एक बड़ी कठिनाई थी. दूसरी कठिनाई थी कि नैक्डोर ने नागरिक संगठनों के ढ़ाचों को भी थोड़ा एडॉप्ट किया था. थोड़ा एनजीओ का स्टाइल भी लिया था. क्योंकि उनकी कुछ अच्छाइयां भी थी. तो अब जब हमने राष्ट्रीय मंच पर एनजीओ के तौर पर काम करना शुरू किया तो जो स्थापित एनजीओ वाले थे उनलोगों को बड़ी दिक्कत हुई. ‘किसी’ (नाम नहीं बताते हैं) ने कहा कि आपने नैक्डोर बना लिया, अब हम डोनर (दान देने वाले) को क्या जवाब देंगे. डोनर कहेगा कि ये भी है, वो भी है. क्योंकि क्या हुआ कि सन् 2002 में ‘द हिंदू’ में नैक्डोर के बारे में बड़ी स्टोरी छपी थी, जिसको डॉ. मीना राधाकृष्णन ने लिखा था. हो सकता है उसके बाद बहुत सारे डोनर ने पूछा होगा कि भाई ये दलितों का नया प्लेटफार्म क्या है, ये नैक्डोर क्या है. तो जिन लोगों को डोनर दोनों हाथों से पैसा देते थे, उनलोगों को परेशानी तो हुई होगी कि भाई ये क्या हो गया. जब भी किसी संस्था या संगठन कि बात होती है तो देखा जाता है कि यह एक-दो लोगों के हाथ में ही है, नैक्डोर कैसे अलग है उनसे? – देखिए, नैक्डोर में इस वक्त 90 लीडर हैं जो पूरे संगठन के ढ़ांचे को चलाते हैं. मैं तो केवल एक पब्लिक फेस (चेहरा) हूं. बाकी ढ़ांचा तो दूसरे लोगों के हाथ में है. और आप देखिए कि मैं दिल्ली में बैठा हूं और लोग अपने आप आएंगे. लोग अपने आप इसलिए नहीं आएंगे क्योंकि लोग आना चाहते हैं बल्कि वो जो 90 लीडर हैं वो उसकी वजह हैं. इस दस साल के भीतर नैक्डोर ने करीब-करीब एक हजार लीडर खड़ा किया है. 2004 में हमने दस मुद्दे तय किये थे, उनमें से आठ मुद्दों को हम हल कर चुके हैं. नौवे में भी हम काफी प्रगति कर चुके हैं. एक ‘राइट टू फूड’ बचा है, वो भी दिसंबर तक हल हो जाएगा. तो इस तरह सभी दस मुद्दे हल हो जाएंगे. हमारा जो तीसरा राष्ट्र्रीय सम्मेलन होने वाला है, उसमें हम आगे के दस साल के मुद्दे तय करेंगे कि हमें क्या करना है. क्या कोई चुनाव की प्रक्रिया है? – अभी जो नैक्डोर का तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन शुरू हुआ है. ये प्रक्रिया पिछले साल 13 अक्तूबर को ही शुरू हो गई थी. हमारे यहां हर पांच साल पर चुनाव होता है. इसमें आम सहमति से संस्था का अध्यक्ष चुना जाता है. अभी स्टेट की कार्यकारिणी बननी शुरू हो गई है. सारे राज्यों में मीटिंग हो चुकी है. पिछले 13 अक्टूबर 2011 से लेकर 7 दिसंबर 2012 तक यह प्रक्रिया चलेगी. 7 दिसंबर 2012 को नई कार्यकारिणी का गठन होगा. फिलहाल नैक्डोर के साथ कितने संगठन जुड़े हैं. – अभी तक हमारे पास तकरीबन 1493 संगठन हैं और हम उम्मीद करते हैं कि इस साल हम दो हजार संगठन की संख्या पार कर जाएंगे. देश के किन क्षेत्रों में नैक्डोर का ज्यादा प्रभाव रहा है? –  हमारा प्रभाव उत्तर भारत और हिन्दी क्षेत्रों में ज्यादा है. लेकिन आंध्र प्रदेश सहित उड़िसा, तामिलनाडु, कर्नाटक और केरल में भी में भी हमारी मौजूदगी है. जहां दलितों की समस्याएं ज्यादा है, वहां हमारी मौजूदगी ज्यादा है. यानि जो देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक मानस को बदलता है, वहां हमारी उपस्थिति ज्यादा है. जब नैक्डोर का तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन होने जा रहा है तो अगर आपसे नैक्डोर की उपलब्धियां गिनाने को कहा जाए तो आप कौन-कौन सी उपलब्धि गिनाएंगे. – बहुत गिना सकते हैं. वैसे एक ही बता देता हूं कि सीआईआई प्राइवेट सेक्टर में रिजर्वेशन के मुद्दे पर हमने प्राइवेट सेक्टर को डिपली इंगेज किया और उनके साथ एमओयू (Memorandum of understanding) साइन किया. उसको हम पब्लिक के सामने सम्मेलन में रखेंगे. उसमें कोई और संगठन शामिल नहीं है. क्या आप प्राइवेट सेक्टर में रिजर्वेशन की बात का समर्थन करते हैं. – हां, मैं रिजर्वेशन इन प्राइवेट सेक्टर मांगता हूं. उदित राज भी इसके लिए लड़ रहे हैं, तो क्या आप दोनों साथ मिलकर काम कर रहे हैं. – नहीं हम साथ मिलकर काम नहीं कर रहे. मुद्दा एक है, आप और उदित राज दोनों इसके लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो क्या साथ मिलकर लड़ने से ताकत नहीं बढ़ेगी. इसका ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा? साथ नहीं आने की क्या वजह है. – देखिए, मुझे लगता है वह पुराना संगठन है हमसे. और उदित राज जी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. कर्मचारियों को उन्होंने संगठित किया है. हमारे साथ सवाल यह है कि उदित राज अब केवल सामाजिक संगठन वाले व्यक्ति नहीं है. अब उनकी एक पोलिटिकल पार्टी है. अगर हमें पोलिटिकल एलाइंस (गठबंधन) करना होगा तो हम किसी छोटी पार्टी के साथ एलाइंस नहीं करेंगे, बड़ी पार्टी के साथ एलाइंस करेंगे. लेकिन नैक्डोर का दृष्टिकोण यह है कि हम गैर पार्टी प्लेटफार्म हैं. यानि कि हम पार्टी निरपेक्ष राष्ट्रीय मंच हैं. और मैं बताना चाहूंगा कि निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए केवल उदित राज नहीं लड़ रहे हैं. रामविलास पासवान भी बात करते हैं. बहन मायावती भी कह रही हैं. सब कह रहे हैं. लेकिन आप दिल्ली में बैठे हैं. इतना बड़ा काम कर हैं, आपसे दो हजार के करीब संगठन जुड़े हैं, तो कहीं न कहीं वो पोलिटिकल टच तो होता ही हैं ना? – मैं यह कह सकता हूं कि नैक्डोर की अपनी राजनीति है. लेकिन हम पॉलिटिकल पार्टी न्यूट्रल हैं. कोई भी दलित संगठन बिना राजनीतिक समझ के, बिना राजनीतिक विचारधारा के अगर रहेगा तो दलित आंदोलन को आगे नहीं बढ़ा सकेगा. यह बहुत जरूरी है. क्योंकि इस समाज की कोई भी मांग होगी, उसे राजनीतिक नजरिये से देखा ही जाएगा. ये बाबासाहेब डा. अंबेडकर ने कहा था. आपने संगठन की बात कही कि जब नैक्डोर आया तब ‘द हिंदू’ में इसकी स्टोरी हुई तो बाकी संगठनों के लोगों को दिक्कत हुई. तो ये जो दलित हित के लिए काम करने का दावा करने वाले संगठन हैं, उनमें आपस में कैसी प्रतिद्वंदिता है. – मुझे इस बारे में बहुत ज्यादा अनुभव नहीं है कि प्रतिद्वंदिता है या नहीं. जहां तक नैक्डोर की बात है तो हमारा मानना है कि राष्ट्रीय मंच होने के नाते हमें सभी संगठनों को साथ लेकर चलना है. चाहे वो एनसीडीएचआर हो, चाहे डाइनेमिक एक्शन ग्रुप हो या फिर अन्य. आप अपने आप को राष्ट्रीय मंच मानते हैं. आपने अभी एनसीडीएचआर का जिक्र किया तो क्या एनसीडीएचआर नैक्डोर से जुड़ा हुआ है. – मैं तो यह कह सकता हूं कि अभी उनकी जो रैली हुई थी हमलोग उनके मंच पर थे. और भी जो कार्यक्रम होते हैं, हमलोग साथ मिलकर काम करते हैं. लेकिन मंच पर साथ होना और जुड़ना दोनों अलग-अलग चीजें होती हैं. – देखिए, एनसीडीएचआर मतलब नेशनल कैंपेन फॉर दलित ह्यूमन राइट. यानि वो कैंपेन है. और मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि सेंटर फॉर अल्टरनेटिव मीडिया जिसने नैक्डोर को क्रिएट किया, वो भी नैशनल कैंपेन फॉर दलित ह्यूमन राइट के फाउंडर लोगों में से है. ये शायद लोगों को नहीं पता. तो ऐसा नहीं है कि हमलोगों का सहयोग नहीं है या फिर हम साथ में काम नहीं करते हैं. जिनेवा तक में भी जाकर हमलोग साथ काम करते हैं. लेकिन यह है कि वो हमारे मेंबर नहीं हैं. नैक्डोर के फाउंडर कौन-कौन हैं? – नैक्डोर के 189 आर्गेनाइजेशन हैं जो फाउंडर हैं. उनमें वालजी भाई पटेल हैं, नैक्डोर के फाउंडर कांफ्रेंस के वक्त कल्पना सरोज भी आई थीं. गुजरात के देवेन वाणवी थे, हरियाणा के राकेश बहादुर थे. उड़िसा की पुष्पा थीं. शेर सिंह थे जो अभी जम्मू-कश्मीर में हैं. ऐसे बहुत सारे लोग थे. दलित संगठनों पर आरोप लगते रहे हैं कि इनके बीच पैसे को लेकर खिंचतान होती रहती है? – अगर आप ईमानदार नहीं है, प्रोफेशनल नहीं हैं, तो खिंचतान तो होगी ही. ज्यादातर दलित संगठनों में टूट-फूट पैसे को लेकर होती है. क्योंकि एजेंडे से ज्यादा पैसा महत्वपूर्ण हो जाता है. एक वक्त हम अपने एक वरिष्ठ साथी को जिन्होंने जेएनयू से डाक्टरेट किया था, उन्हें पांच हजार रुपये नहीं दे पाते थे. आज हमारे यहां प्रोग्राम ऑफिसर की सैलरी बीस हजार रुपये है. सरकारें तमाम मोर्चे पर दलितों का हक मारती रही हैं, नैक्डोर ने इस विषय में क्या किया है? – मैं आपको बताना चाहता हूं कि सन् 2000 में नैक्डोर पहला संगठन था जिसने भारत सरकार के आर्थिक खातों को खोजना शुरू किया. हमने बजट को खंगालना शुरू किया, डेवलपमेंट प्लॉनिंग के बजट पर ध्यान दिया. यह रिकार्ड है कि इस बारे में हमने भारत सरकार के प्रधानमंत्री को लिखा. इस बारे में हमने डिप्टी चेयरमैन को पहला मेमोरेंडम 2001 में दिया. दसवीं पंचवर्षीय योजना के संबंध में अटल बिहारी वाजपेयी जी को हमारे बयान के ऊपर सफाई देनी पड़ी. तो हम तो सरकार को बहुत क्लोजली मॉनिटर करते हैं. अभी हम युवा मामलों के मंत्री जितेंद्र सिहं से मिले थे और उनसे पूछा था कि यूथ पॉलिसी में हमारे लिए क्या स्पेस है. दलित उद्यमियों से खरीद के मामले में जो 4 प्रतिशत का रिजर्वेशन मिला है, उसमें हमारा भी योगदान है. आप विदेशी मंचों से भी अपनी बात रखते रहे हैं. आप किन-किन मंचों पर गए हैं. उसका क्या प्रभाव पड़ता है? – मैं ‘ग्लोबल कॉल एक्शन अगेंस्ट पावरटी बोर्ड’ का मेंबर हूं. मैं मानता हूं कि दुनिया के स्तर पर दलितों जैसे जो सामाजिक तबके हैं, उन तबके की बातों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने में मैने काफी मशक्कत की है. और मुझे लगता है कि उस मशक्कत के काफी परिणाम भी निकले हैं. सन् 2008 में यूएन जनरल एसेंबली में सेक्रेट्री जनरल ने मुझको आमंत्रित किया था. वहां मैने दलित और मुस्लिम दो ही तबकों की बात की. मुझे लगता है कि उसका एक असर यह पड़ा कि जो बात हम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कर रहे थे, आज यूएन का पूरा का पूरा सिस्टम जो है वह मान रहा है कि अगर भारत ने दलित, आदिवासी और मुस्लिम के प्रॉब्लम को दूर नहीं किया तो दुनिया की प्रॉब्लम को आप हल नहीं कर सकते. ये फर्क पड़ा. और यूएन की पूरी की पूरी एजेंसी सोशल एक्सक्लूजन की बात कर रही हैं. जब हम हमारे तीसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में जाएंगे तो हम उम्मीद कते हैं कि 6 दिसंबर को बाबासाहेब के परिनिर्वाण के दिन यूएन के सारे लोग नैक्डोर के मंच पर होंगे. यूएन की रेजिडेंट को-आर्डिनेटर लिजा गार्डे हमारे मंच पर होंगी. यूनिसेफ की चीफ हमारे मंच पर होंगी. यूएन मिलेनियन की ग्लोबल चीफ हमारे मंच पर होंगी. और वहां से हमलोग एक कॉल करने वाले हैं कि दलित और गैर दलित के बीच जो विकास की खाई है, उसे पाटा जाए. अभी नैक्डोर के कौन-कौन से कार्यक्रम चल रहे हैं, कहां-कहां? – अभी हमारे 11 बड़े-बड़े कार्यक्रम चल रहे हैं जैसे बिहार के ग्यारह जिलों के 14 ब्लॉक में हम ‘मनरेगा’ को लेकर सक्रिय हैं. बुंदेलखंड के मध्य प्रदेश के तीन जिलों में, उत्तर प्रदेश के पांच जिलों में हम बुंदेलखंड शिक्षा अभियान चला रहे हैं. क्योंकि यहां महिलाओं की असाक्षरता दर 75 से 93 फीसदी है. जो अनपढ़ हैं वो दलित-आदिवासी महिलाएं हैं. हमने वहां महिला शिक्षा अधिकार यात्रा की थी. भारत में यह पहली बार हुआ है कि महिलाओं का जत्था शिक्षा के क्षेत्र में बात करने के लिए बाहर निकला है. हमलोग भारत में दलित और आदिवासियों की पोषण की समस्या पर काम कर रहे हैं. इसको लेकर हमने ग्लोबल अलाइंस फॉर इंप्रूव न्यूट्रिशन के साथ मिल कर देश के पांच राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और दिल्ली के 20 जिलों में काम शुरु किया है. देश में दलित महिलाएं कैसे दलित आंदोलन की कमान संभाल सके उसको लेकर हम यूके की ‘करुणा फाउंडेशन’ के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. आने वाले पांच साल में एक हजार महिला लीडर खड़ी करने का उद्देश्य है. दलित व्यपारियों का एक संगठन है ‘डिक्की’ (Dalit Indian Chamber of Commerce & Industry), इसके सामने आने से सोसाइटी को क्या फायदा है और इसको आप कितना महत्वपूर्ण मानते हैं? – डिक्की भारत के दलितों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण संगठन है. वह भारत के दलित इतिहास में मिल का पत्थर है. मुझे लगता है कि यह दलितों की राइजिंग एंबिसन है, उसको रिफ्लेक्ट करता है. मैं उनके जज्बे को सलाम करता हूं. वो दलितों को इस बात का विश्वास दिलाता है कि हम केवल लुटे-पिटे लोग नहीं हैं. हमें मौका मिलेगा, हमारे में दम है, हम आगे जा सकते हैं. और मुझे लगता है कि इंडस्ट्री, बिजनेस और कॉमर्स में आगे दलितों का भविष्य बड़ा उज्जवल है. आने वाले समय मंह इस देश की इकोनॉमी के बड़े हिस्से पर दलितों के प्रभाव को कोई रोक नहीं सकता. डिक्की के मंच से कई बार कहा जाता रहा है कि हमें रिजर्वेशन की जरूरत नहीं है. आप इसको कैसे देखते हैं? – मुझे लगता है कि हमलगों को रिटोरिक एंड रियालिटि में फर्क करना चाहिए. जब वे लोग बात करते हैं तो जरूरी नहीं कि वे जैसा कह रहे हैं उनकी मंशा वैसी ही हो. लेकिन क्यों नहीं चाहिए रिजर्वेशन उनको. वो तो मांग रहे हैं रिजर्वेशन. चार पर्सेंट का रिजर्वेशन तो उन्हीं की मांग थी. मिल रहा है उन्हें रिजर्वेशन. मुझे लगता है कि वह जॉब के सेंस में रिजर्वेशन की बात कहते हैं. यानि वो कह रहे हैं कि उन्हें सरकारी नौकरियों में तो रिजर्वेशन नहीं चाहिए लेकिन बिजनेस में चाहिए. अब ये कैसी बात हुई? – देखिए, उनलोगों को रोजगार नहीं चाहिए. वो रोजगार देने वाले हैं. तो जिनको निजी क्षेत्र में रोजगार चाहिए वो मांगेंगे, मांग रहे हैं. लेकिन वो तो सोसाइटी हैं ना? जब आप मंच से ऐसा कहते हैं तो फर्क तो पड़ता है? – अगर उनको इंडस्ट्री की लाइन में सरवाइव करना है तो उनको इंडस्ट्री के सुर में अपना सुर मिलाना पड़ेगा. मैं यह मानता हूं कि वह दलितों की अच्छी आवाज हैं, लेकिन वह दलितों की पूरी आवाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते. जहां तक सार्वजनिक मंच से उनके कहने की बात है तो इससे फर्क तो पड़ता है लेकिन सरकारें इतनी नासमझ नहीं हैं कि वह मॉस बेस की बात नहीं समझती. तो मॉस बेस और मनी बेस में बहुत फर्क होता है. नैक्डोर को लेकर पिछले दिनों विवाद भी हुआ था, कुछ लोगों ने आरोप लगाया था कि यह एक-दो लोगों का संगठन है. – ये सब तो हर संगठन में चलता रहता है. अब ये तो यहां काम करने वाले लोग बताएंगे कि एक-दो लोगों का संगठन है या कितने लोगों का संगठन है. कई बार कुछ लोगों को लगता है कि जब वो हां कहें, तो संगठन हां कहें, जब वो ना कहें तो संगठन ना कहे. वो परफार्म न भी करें तो भी वो चाहते हैं कि समाज उनको सपोर्ट करता रहे. देखिए साब….। ईमानदारी का तकाजा यह है कि जो व्यक्ति संगठन में परफर्म नहीं कर सकता, उसको संगठन से बाहर जाना होगा, चाहे वो अशोक भारती क्यों न हो. क्योंकि ये समाज बड़ी मुश्किल से नैक्डोर के लिए साधन देता है. इस संगठन का निर्वाचित अध्यक्ष होने के नाते मेरी जिम्मेदारी यह है कि काम नहीं करने वाला व्यक्ति समाज के पैसे का इस्तेमाल न करे. तो नॉन परफर्मेंस वालों को तो जाना पड़ेगा. नैक्डोर में चमचों के लिए जगह नहीं है. यहां काम करने वालों की जरूरत है. कोई व्यक्ति मेरे करीब है, उसकी वजह से वो संगठन में रहेगा, यह जरूरी नहीं है. नैक्डोर के चेयरमैन से बहुत बातें हो गईं, अशोक भारती कैसा शख्स है? – (हंसते हैं) मैं कविताएं लिखता हूं, लेख लिखता हूं, अपने विचारों को रखता हूं. वक्त मिलने पर परिवार के साथ वक्त गुजारता हूं. मेरा अपने व्यक्तिगत दोस्तों का दायरा है. उनके साथ जिंदगी जीता हूं. वैसे कम वक्त मिलता हूं. कितने महत्वकांक्षी हैं आप? – मैं सोचता हूं कि महत्वावकांक्षा और अभिलाषाएं दो अलग चीज हैं. एंबिसन तो बहुत हैं, महत्वकांक्षा नहीं है. मुझे लगता है कि अगर हम सिविल सोसाइटी के लेवल पर देखें तो बाबासाहेब की कृपा से मैं उस जगह पर पहुंच गया जहां सिविल सोसाइटी के किसी व्यक्ति को पहुंचने में बहुत टाइम लगेगा. 2008 में मैं जनरल असेंबली में भाषण दे आया हूं. इससे ज्यादा तो सिविल सोसाइटी में कोई कुछ नहीं कर सकता. लेकिन मैं यह जरूर चाहता हूं कि दलितों के ऐसे इंस्टीट्यूशन खड़े हो जाएं कि दलितों को किसी का मोहताज ना होना पड़े. जैसे कि अभी हमारा पॉलिसी एनालिसीस का कोई मैकानिजम नहीं है. बहुत सारे ऐसे एजेंडे हैं जो एक्सिस्ट नहीं करते. इसे आप मेरी महत्वकांक्षा भी कह सकते हैं कि दलित समाज को लाखों लिडर्स की जरूरत है. अब किसी को तो लाखों-लाख नेता पैदा करने के लिए तो काम करना पड़ेगा. मेरा मानना है कि एक मायावती और एक कांशीराम जी ज्यादा नहीं हैं. और लोगों को खड़ा होना पड़ेगा और इसके लिए काम करना होगा. नैक्डोर इस दिशा में काम कर रहा है. हमने कई जगहों पर लोगों को आइडेंटिफाई (चिन्हित) किया है. बचपन कहां बीता, पैदाइश कहां हुई है आपकी? – मेरी पैदाइश जामा मस्जिद दिल्ली की है. 26 मई 1960 को मैं पैदा हुआ. दो साल का था तो मेरे माता-पिता जामा मस्जिद से उजड़ गए थे. वहां से यमुना पार के जंगलों में जिसे सीलमपुर गांव कहते हैं, वहां चले गए. वहां से मैने प्राइमरी की पढ़ाई की. वहीं से मीडिल स्कूल पढ़ा. फिर हम वहां से उजड़ कर कालकाजी चले गए. वहां से मैने नवीं-दसवी पास की. बीच में एक साल फेल भी हुआ. एक बार फिर यमुना पार आ गए. यहां से ग्यारवीं-बारहवीं की. असल में परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत बुरी थी. कर्जा हो जाता था और घर बिक जाता था. फिर हम दूसरी जगह चले जाते थे. हर बार प्लॉट का साइज छोटा होता जाता था. मेरी सारी एजूकेशन सरकारी स्कूल की है. एक साल पोलिटिकल साइंस आनर्स हिंदू कॉलेज से किया. फिर इंजीनियरिंग कॉलेज से बीई (इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग) किया. वहां मैं यूनियन का जनरल सेक्रेट्री था. बाबासाहेब द्वारा शुरू की गई नेशनल ओवरसीज स्कॉलरशिप लेकर एम.टेक (मैन्युफेक्चरिंग मैनेजमेंट) किया, यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ आस्ट्रेलिया से. सामाजिक जीवन में कब आएं, क्या वजह रही, तब क्या कर रहे थे? – 1977 में मैं सामाजिक जीवन में आया. तब मैं दसवीं में पढ़ता था. मेरे जो बड़े भाई थे मनोहर लाल वही सामाजिक जीवन में लेकर आएं. वह लेफ्ट से जुड़े लोगों के संपर्क में थे. उनके साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करते थे. एम के रैना के साथ काम करते थे. दिल्ली में आईएनए में जो दिल्ली हॉट है, जया जेटली के साथ उसके संस्थापकों में से एक थे. तो भाई हमें अपने साथ कार्यक्रमों में लेकर जाते थे, तो हमलोग भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे. आपने कहां-कहां नौकरी की? – मैने 1946 में बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग किया. उसके बाद मैने एक जगह आठ महीने तक नौकरी की. फिर मैने इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चररशिप की. फिर मैने गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया में सरकारी नौकरी बतौर असिस्टेंट एक्जीक्यूटिव इंजीनियर ज्वॉइन कर लिया. वहां मैने देखा कि जो विदेशों के ट्रिप जाते थे, उसमें दलितों को दरकिनार रखा जाता था. मैने तय किया कि यहां नहीं रहेंगे. फिर मेरा इंजीनियरिंग सर्विस में सेलेक्शन हो गया. मुझे ऐसी नौकरी चाहिए थी जहां रहकर मैं अपने मुद्दों के लिए काम कर सकूं. वहां से रिजाइन देकर फिर यहां आ गया. आपकी शादी कब हुई, किससे. मेरी पत्नी का नाम अनिता गुजराती है. वो ब्राह्मण परिवार से हैं. अब साथ मिलकर संगठन में काम करती हैं. फरवरी 94 में हमने कोर्ट में शादी की. वो सामाजिक आंदोलनों में एक्टिव थीं. मेरे बहनोई (वरिष्ठ लेखिका अनिता भारती के पति राजीव सिंह) के घर पर हमारी पहली मुलाकात हुई थी. उन्होंने कहा कि अगर आप इंट्रेस्टेड हैं तो बताएं, बात की जाए. लेकिन उनके घर वाले नहीं माने. शुरू में परिवार में जो तनाव रहते हैं वो तो हुए ही, लेकिन फिर बाद में सब ठीक-ठाक हो गया. ब्राह्मण लोग थोड़े से झुक जाते हैं. वो समझ जाते हैं कि तार को ज्यादा खिंचोगे तो टूट जाएगा. इस क्लॉस की यह खासियत है कि यह तार को टूटने नहीं देते हैं. तभी तो वो रुलिंग क्लास हैं. भविष्य की क्या योजनाएं हैं? – भविष्य की योजना नैक्डोर को लेकर ही है. मेरी कोशिश है कि नैक्डोर कैसे एक मजबूत इंस्टीट्यूट के तौर पर खड़ा हो जाए. और इसका कोई रिसर्च इंस्टीट्यूट बन जाए. नौजवानों का संगठन बन जाए. अभी हमने बीफेयर जॉब.कॉम कर के एक वेबसाइट शुरू की है, जिसे हम प्राइवेट सेक्टर में इंगेज करेंगे. कुछ और आइडिया भी दिमाग में है. उसको लेकर काम कर रहे हैं. यानि हम एक ऐसा सांगठनिक और इंस्टीट्यूशनल ढ़ांचा बनाना चाहते हैं ताकि दलितों को दूसरों का मोहताज न रहना पड़े. वह अपने आप अपने पांव पर खड़ा हो सके. क्योंकि बाबासाहेब हमेशा कहते थे कि दलितों को अपनी ताकत पर भरोसा करना चाहिए. मुझे लगता है कि हमारी इतनी बड़ी आबादी है, हमलोग बहुत अच्छे तरीके से अपने समाज का उत्थान कर सकते हैं. लेकिन इन सब के लिए हर क्षेत्र में नई लिडरशिप चाहिए. हमारे आंदोलनों की कमी यह है कि ये टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे है. इसे समेकित रूप में चलाने की जरूरत है. अवार्ड कौन-कौन से मिले हैं? – जब मैं दसवीं में था तो पहली बार ‘माओ के बाद का चीन’ विषय पर क्रिएटिव राइटिंग का द्वितीय अवार्ड मिला था. पिछले दिनों हरियाणा के लोगों ने मुझे दलित रत्न अवार्ड दिया. अभी हाल में ‘केर मिलेनियम’ अवार्ड मिला है. यह करीब सात लाख रुपये का होता है. यह तीसरा अवार्ड है जो उन्होंने दिया है. दूसरा अवार्ड उन्होंने लग्जमबर्ग के प्राइम मिनिस्टर को दिया था. उसके बाद मुझे दिया. मुझे बहुत खुशी हुई. इन सबसे बड़ी बात यह है कि जनता में जो पहचान है, वह सबसे बड़ा है. खुद को कैसे याद रखा जाना चाहते हैं? एक लड़ाकू, सामाजिक, प्रतिबद्ध दलित कार्यकर्ता के तौर पर. अभी हाल ही में बिहार के मोतिहारी जिले में एक घटना घटी, जिसमें एक ब्राह्मण वकील ने एक दलित महिला जज को काफी कुछ कहा. महिला जज ने विरोध किया, शिकायत कर केस दर्ज कराया लेकिन इस मामले में वकील का कुछ नहीं हुआ. तो इससे एक यह बात भी पता चलती है कि आज के वक्त में भी दलित समाज के लोग चाहें कितनी भी ऊंचाई पर चले जाए, दिक्कतें बरकरार रहती हैं. अशोक भारती जब इन जगहों पर जाता है तो कैसे निपटता है. – केवल एक ही रास्ता है, लड़ाई। थक कर बैठ जाना हल नहीं हो सकता. आत्महत्या कर लेना हल नहीं हो सकता. एक ही बात है कि लड़ाई हम कैसे करते हैं. लड़ाई ही हमारा अंतिम हथियार है और इस हथियार में हमारा बुद्धि कौशल, हमारी सामाजिक चेतना, हमारा सामाजिक संगठन, हमारी प्रतिबद्धता ये सब हमारे हथियार हैं. जैसा कि बाबसाहेब कहते थे कि लड़ाई हमारे लिए इंटरटेनिंग का जरिया भी है. तो दलित होने के नाते अगर हम लड़ाई को इन्जवाय करेंगे तो फिर हमें कोई हरा नहीं सकता. हमें खुशी होती है कि हम अपने समाज के लिए लड़ रहे हैं. दलित समाज में ही एक और लड़ाई शुरू हो गई है. एक जो शब्द है ‘दलित’. इसको लेकर कई लोगों का मानना है कि यह गलत है इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए? –  देखिए जिन लोगों की दलित आंदोलन के प्रति समझ नहीं है वो तो विरोध करेंगे ही. वह ‘दलित’ शब्द को ब्राह्मणवादी और मनुवादी नजरिये से देखते हैं. इस नजरिए से ‘दलित’ शब्द को देखने वालों के लिए दलित का मतलब है- लुटा, पीटा, लाचार, बेकार. लेकिन ये दलित नहीं है. दलित का मतलब है वो व्यक्ति, जिसको समाज में असमानताओं का बोध है. असमानता पर आधारित उत्पीड़न और शोषण का बोध है. और वो व्यक्ति, उस असमानता, उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई के मैदान में टिका हुआ है. तो दलित कोई मजलूम या मजबूर इंसान नहीं है, दलित एक योद्धा है. अगर वो अपने आप को योद्धा नहीं मानतें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, वो ना मानें. दलितों में कायरों की कमी थोड़े ही है. किसी भी समाज में कायरों की बहुत संख्या है. आपने इतनी व्यस्तताओं के बावजूद हमें वक्त दिया, बात की, आपका धन्यवाद। धन्यवाद अशोक जी…..।
इस इंटरव्यूह पर अशोक भारती तक अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप उन्हें 09810418008 पर फोन कर सकते हैं। दलितमत तक अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप संपादक अशोक दास को 09711666056 पर फोन कर सकते हैं।

बढ़ते समाज के प्रतीक हैं कुलपति डा. कुरील

विश्वविद्यालय में पिछले पांच साल से कन्वोकेशन नहीं हुआ था. उन्होंने एक साल में ही दो कन्वोकेशन करवा डालें. दस सालों से बैलेंस शीट नहीं बनी थी, इसे अपडेट किया. विश्वविद्यालय के निर्माण के 35 सालों बाद भी इसकी वार्षिक प्रगति रिपोर्ट नहीं बनी थी. दो वार्षिक रिपोर्ट बनवाया. अब तक एल्यूमनाई का गठन नहीं हुआ था, सो इसका गठन कर मिटिंग करवाया. विश्वविद्यालय के वित्तीय संसाधनों से ही विश्वविद्यालय की आय दोगुनी हो गई. विश्वविद्यालय में दो नए कालेज (संकाय) तथा कई विभागों को शुरु करवाया. छात्रों की सीटों में 40 फीसदी का इजाफा किया. उत्तर प्रदेश में विश्वविद्यालय कृषि विद्यार्थियों की पहली पसंद बना. साथ ही गृह विज्ञान, पशु पालन एवं चिकित्सा विज्ञान, कृषि अभियंत्रण एवं तकनीकी विज्ञान एवं बायोटेक्नोलॉजी जैसे संकायों से उत्तीर्ण होने वाले सौ फीसदी छात्रों को प्लेसमेंट मिला. ये सब डा. कुरील की व्यक्तिगत उपलब्धियां हैं. क्योंकि विश्वविद्यालय की सारी व्यवस्था वही थी, बदली थी तो सिर्फ कुलपति की कुर्सी, जिस पर अब कुरील बैठे थे. कुरील उस समाज से ताल्लुक रखते हैं, जिसने एक हाथ में किताब तो दूसरे हाथ में बोरा थामे हुए स्कूल दर स्कूल घूम कर पढ़ाई की. प्यास लगने पर किसी सवर्ण द्वारा कुंए से पानी खिंचने का इंतजार करते रहे, ताकि प्यास बुझ सके. एमएससी एग्रीकल्चर में आरक्षण के लिए हुए आंदोलन में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. दो सालों के संघर्ष के बाद आखिरकार तब के मुख्यमंत्री वी पी सिंह को प्रदेश के तीनों कृषि विश्वविद्यालयों में आरक्षण की घोषणा करनी पड़ी थी. तमाम भेदभाव और अभाव को झेलते हुए वह पढ़ते रहे-बढ़ते रहे और एक दिन मजदूर मां-बाप को खुद पर फ्रख करने का मौका दिया. बतौर कुलपति, कुरील के कार्यक्षेत्र में यूपी के 27 जिलों की जिम्मेदारी है, जहां की आठ करोड़ जनता की जिंदगी को वह बेहतर बनाने में जुटे हैं. डॉ. कुरील के बचपन के संघर्ष, युवावस्था के आंदोलन, कार्यक्षेत्र की सफलताओं और कृषि विश्वविद्यालय को लेकर उनकी भविष्य की योजनाओं के बारे में ‘दलित मत ’ के संपादक अशोक दास ने उनसे उनके दिल्ली स्थित आवास पर बातचीत की. आपके लिए पेश है…… आप कहां के रहने वाले हैं, जन्म कहां हुआ, पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या थी. पढ़ाई-लिखाई कहां पर हुई? – कानपुर जिले में एक तहसील है बिल्लौर, उसमें एक ब्लॉक है शिवराजपुर, वहां से तकरीबन 7 किमी दूर एक गांव है कुंअरपुर. हम वहीं पैदा हुए. हमारे माता-पिता ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं. मां तो बिल्कुल नहीं पढ़ी है. पिताजी चौथी पास हैं. शुरुआती शिक्षा बगल के एक गांव में हुई. बैठने के लिए साथ बोरा लेकर जाते थे. वहीं स्कूल के पास एक कुंआ था. एक बाल्टी और लोटा रखा होता था. जब हमें प्यास लगती थी तो हम टीचर को बोलते थे. टीचर उच्च जाति के किसी लड़के को बोलता था. वह जाकर पानी भरता, फिर हमें पानी पीने को मिलता था. यह 1972-73 की बात है. आर्थिक परिस्थिति भी ठीक नहीं थी. भेदभाव खूब था लेकिन चूकि मैं पढ़ने-लिखने में अच्छा था इसलिए क्लास के सभी बच्चे आस-पास मंडराते रहते थे. एक वाकया याद आता है कि एक बार तरबूज खाना था. हम तीन लड़के थे. तरबूज का एक टुकड़ा पांच पैसे का था. जबकि हमारे पास सिर्फ तीन-तीन पैसे थे. हमने आपस में नौ पैसे इकठ्ठा किया और उससे दो टुकड़े मांगे. लेकिन एक पैसा कम होने की वजह से उसने हमें तरबूज देने से मना कर दिया. तो हर एक पैसे की कमी को शिद्दत से महसूस किया. पांचवी का नतीजा निकला तो रिजल्ट लेते हुए मैं रोता हुआ घर आ रहा था. गांव में एक माली दादा थे. उन्होंने वजह पूछी तो मैने बताया कि स्कूल मास्टर ने मेरी उम्र अधिक लिख दी है और अगर मैं किसी क्लास में एक बार भी फेल हो गया तो अधिक उम्र के कारण फिर दसवीं का इम्तहान नहीं दे पाऊंगा. उन्होंने एक मंत्र दिया और रोज देवी को दूध चढ़ाने को कहा. मंत्र तो मैं भूल गया लेकिन देवी को जब दूध चढ़ाने के लिए अम्मा से दूध देने के लिए बोला, तो अम्मा ने कहा कि पीने को दूध नहीं है और देवी पर चढ़ाओगे. तो ऐसी विपन्नता थी. दसवीं में साइंस में दाखिला ले लिया. उस साल स्कूल का रिजल्ट सिर्फ तीन परसेंट आया. यानि सौ में सिर्फ 3 लोग पास थे. पास होने वाली लिस्ट में मैं भी था. आप इतने मेधावी थे. विज्ञान के छात्र थे. आमतौर पर लोग डॉक्टर या फिर इंजीनियर बनना चाहते हैं लेकिन आपने कृषि जैसे विषय को क्यों चुना? – इसकी एक अलग और अनोखी कहानी है. दसवीं के बाद आगे की पढ़ाई कहां से की जाए, यह प्रश्न था. घर में कोई ज्यादा पढ़ा-लिखा था नहीं, जो बताए कि हमें क्या पढ़ना चाहिए और क्या नहीं. हम तीन भाई और तीन बहन थे. मैं सबसे छोटा था. एक बड़े भाई जिस स्कूल से बारहवीं कर रहे थे मैं भी वहीं नौवी में पढ़ने लगा. दसवीं यही से की. मुझे साइंस पढ़ना था लेकिन यहां दसवी के बाद साइंस नहीं था तो मुझे ग्यारहवीं में पढ़ने के लिए घर से 100 किमी दूर फर्रुखाबाद जिले जाना पड़ा. वहां दसवी में साथ पढ़ने वाला एक लड़का मिल गया. बात होने लगी तो मैने उससे कहा कि हमारे क्लास में बहुत टफ पढ़ाई होती है. तब उसने कहा कि हमारे यहां तो आसान पढ़ाई है, तुम मेरे क्लास में ही बैठा करो. दूसरे दिन से मैं उसके साथ बैठने लगा. दो महीने बाद वहां एग्रीकल्चर के एक टीचर आएं. वो एग्रीकल्चर पढ़ाने लगे. मुझे साइंस पढ़नी थी इसलिए मैं चौंका. पूछने पर दोस्त ने बताया कि वो एग्रीकल्चर ही पढ़ता है. चूकि सारे शिक्षक वही थे. एग्रीकल्चर को छोड़कर सारे विषय भी वही थे. सो मैं फर्क समझ नहीं पाया था. जब गलती समझ में आई तो मैं फिर पुराने क्लास में गया लेकिन वहां मेरा नाम काट दिया गया था. बड़ी अजीब स्थिति हो गई थी. मेरे क्लास से मेरा नाम काट दिया गया था और एग्रीकल्चर में जहां मैं दो महीने से बैठ रहा था, वहां मेरा नाम था ही नहीं. एग्रीकल्चर में जहां बैठता था वहां के एक टीचर बहुत अच्छे थे. उन्होंने मदद की. सारे शिक्षक प्रिंसिपल के पास गए. फैसला यह हुआ कि अब मुझे एग्रीकल्चर में ही पढ़ना होगा. तो इस तरह मैं साइंस से एग्रीकल्चर के क्षेत्र में आ गया. बीएससी एग्रीकल्चर में चंद्रशेखर आजाद एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, कानपुर में आ गए. उस कॉलेज में एमएससी, एग्रीकल्चर में रिजर्वेशन नहीं था. आरक्षण के लिए लड़ने के लिए हमने एक ग्रुप बनाया. यहीं एस कृष्णा (वर्तमान में बौद्ध चिंतक एवं राजस्व सेवा के अधिकारी) से मुलाकात हुई. बीएससी एग्रीकल्चर ग्रुप को मैं संभालता था जबकि एमएससी एग्रीकल्चर में मोर्चा एस.कृष्णा ने संभाला. बड़ी मुहिम चल रही थी. हर छात्र से दस-दस रुपये इकठ्ठे कर के आरक्षण की लड़ाई लड़ी जा रही थी. एक दीनदयाल खन्ना थे, हमारे ही समाज के, उन्हीं को साथ लेकर लखनऊ के चक्कर लगाने पड़ते थे. कई बार रेलवे प्लेटफार्म पर ही सो जाया करते थे. सुबह से फिर पूरे दिन एमएलए, एमपी और मंत्रियों के चक्कर काटते थे. बहुत चक्कर काटें. तब यूपी के मुख्यमंत्री वीपी सिंह थे. काफी दिनों से चक्कर लगाते-लगाते एक बार मुख्यमंत्री से मुलाकात हो गई. हुआ यह कि गंगा सागर नाम के एक एमएलए थे. खन्ना साहब के जरिए हमलोग उनसे दो-तीन बार मिल चुके थे. हम फिर पहुंचे तो उन्होंने पूछा कि काम नहीं हुआ, हमने मना किया तो हमारा हाथ पकड़ कर सीधे मुख्यमंत्री वीपी सिंह के कमरे में पहुंच गए. उनसे बात हुई. वीपी सिंह ने हमसे कहा कि बेटा जाओ, जब तक तुमलोग वापस पहुंचोगे वहां रिजर्वेशन हो चुका होगा. हमलोग खुशी में जल्दी-जल्दी आएं. उसी दिन रात तकरीबन आठ बजे एक आदेश आया और तीनों एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विवि कानपुर, आचार्य नरेंद्रदेव कृषि एवं प्रौद्योगिक विवि, फैजाबाद और सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि विवि  में एमएससी एग्रीकल्चर में रिजर्वेशन हो गया. यानि यह कहा जा सकता है कि तीनों कृषि विश्वविद्यालयों में एमएससी एग्रीकल्चर में जो रिजर्वेशन मिला, वह आपलोगों की मेहनत और संघर्ष का नतीजा है? – बिल्कुल. हमने बहुत संघर्ष किया. सामाजिक न्याय के संघर्ष में वो हमारी पहली सीढ़ी थी, जहां हमें सफलता मिली. उस सफलता से यह विश्वास भी आया कि हम मेहनत करें तो चीजों को पा सकते हैं. बाद के जीवन में यह बहुत काम भी आया. इसकी बात करें तो यह ऐसे हुआ कि जब मैने 1980 में बीएससी एग्रीकल्चर में दाखिला लिया था. मैं वहां के बेस्ट स्टूडेंट में था. 14 अप्रैल को बाबा साहेब डा. अंबेडकर का जन्मदिवस मनाना था. तब मुझे डॉ अंबेडकर के बारे में बोलने के लिए कहा गया. उस समय इंटरनेट होता नहीं था. सो जो भी किताबें मिली, उससे डॉ. अंबेडकर के बारे में पूरा पढ़ा. उससे पहले तक मुझे बाबा साहेब के बारे में ज्यादा पता नहीं था. बाबा साहेब को पढ़ना मेरे जीवन का एक टर्निंग प्वाइंट था. यहां से मुझे बाबा साहेब के नक्शे कदम पर चलने की प्रेरणा मिली. यहीं से सामाजिक न्याय की लड़ाई में हिस्सेदारी करने लगा. इसी का परिणाम रहा कि रिजर्वेशन के लिए दो सालों तक लड़ें. तब एक फेलोशिप अवार्ड मिलता था. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च. उसे भारत सरकार आर्गेनाइज करती थी. इसमें 12 सौ रुपये महीना मिलता था. इस फेलोशिप के ऊपर ही आगे की पढ़ाई टिकी थी तो इसकी तैयारी के लिए काफी मेहनत की. मुझे फेलोशिप मिल गई. मजेदार बात यह थी कि मेरे बाद दस सालों तक मेरे नोट्स के जरिए लड़के पास करते रहे और फेलोशिप लेते रहें. स्कूल-कालेज के दिनों की कुछ यादें साझा करेंगे? – कई यादें हैं. स्कूल में एक मजेदार घटना घटी थी तब. पढ़ाई में बहुत अच्छा होने के बावजूद प्रैक्टिकल में मुझे कभी भी 50 में से 35 नंबर से ज्यादा नहीं आता था. जबकि थ्योरी में 40 से कम कभी नहीं होता था. जबकि होता इसका उल्टा है. आमतौर पर प्रैक्टिकल में ही ज्यादा नंबर मिलते हैं. असल में वह एक खास जाति के लोगों का स्कूल था और उसी समुदाय के लड़कों को 50 में 50 नंबर तक मिलते थे. बाकी हमलोगों को 22,25,28 ऐसे नंबर मिलते थे. एम एस सी करने के दौरान कॉलेज में भी यह देखने को मिला. केमेस्ट्री में मैं बहुत तेज था. तो सारे लड़के मेरे साथ रहना चाहते थे. हमारा जो ग्रुप था, उसमें एक लड़का था पांडे. परीक्षा थी. हमलोग एक सवाल का हल ढ़ूंढ़ रहे थे लेकिन वो मिल नहीं रहा था. पांडे ने कहा कि इतना दिमाग क्यों लगाते हो, छोड़ दो. एक पांडे जी कोर्स इंस्ट्रक्टर थे. वो उनके पास गया तो उन्होंने कहा कि कॉपी में गोले का निशान बना दो और छोड़ दो. वह आया और अपने और मेरे दोनों के कॉपी में गोल निशान बना दिया. पांडे ने कहा कि चिंता मत करो हमें ‘ए’ ग्रेड मिलेगा. मैने सोचा कि बिना सवाल हल किए कैसे मिलेगा. लेकिन और कोई चारा नहीं था. जब रिजल्ट आया तो मैं पांडे जी से अपना ग्रेड पूछने गया. उन्होंने नाम पूछा और कहा कि ‘सी’ ग्रेड है. मैं अपने कमरे में चला गया तो पांडे आया. मैने बोला कि तुमने कहा था कि ‘ए’ ग्रेड आएगा लेकिन मुझे तो ‘सी’ ग्रेड आया है. उसने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है. मुझे ‘ए’ ग्रेड आया है. वह मुझे लेकर पांडे जी के पास गया और लिस्ट निकाल कर देखा. मुझे भी ‘ए’ ग्रेड ही था. तो वह भी जाति उत्पीड़न का एक रूप ही था, जहां नाम सुन कर ही ग्रेड तय किया जाता था. प्रतिभा के आधार पर नहीं. आप नौकरी में कब आएं? – मुझे पहली नौकरी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में 1984 में मिली थी. लेकिन मुझे अच्छी पोस्टिंग नहीं मिली. महाराष्ट्र के उस्मानाबाद में पोस्टिंग थी तो हमने इस नौकरी को ज्वाइन नहीं किया. इसके बाद मुझे नेशनल सीड्स कार्पोरेशन में सीड्स आफिसर की नौकरी मिली. यह नौकरी दिल्ली में थी. तब तक हमारी एम एस सी पूरी नहीं हो पाई थी. तब मैं फर्स्ट इयर में ही था. मैने सोचा कि नौकरी दिल्ली में है इसलिए ज्वाइन कर लिया, ताकि यहीं रहकर सिविल सर्विस की तैयारी भी की जा सके. लेकिन दो महीने यहां रखने के बाद इन्होंने मेरा तबादला गुवाहाटी कर दिया. फिर यहां से मेरा ट्रांसफर इंफाल में कर दिया गया. यहां से मुझे अगरतला में जाना पड़ा. कुल मिलाकर तीन सालों तक मैं नार्थ इस्ट में रहा. इस दौरान मेरा करियर थोड़ा डंप रहा. 1989 में मेरा फिर से दिल्ली में ट्रांसफर हुआ. यहीं असिस्टेंट डायरेक्टर, ज्वाइंट डायरेक्टर और डायरेक्टर रैंक तक पहुंचा. इसके बाद मैं आचार्य नरेंद्रदेव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में कुलपति हूं. नवंबर 2010 में यहां ज्वाइन किया. नौकरी के दौरान भी कई मुसीबतें आई लेकिन इस दौरान जीवन में जो भी बाधा आई उससे निपटने में कालेज के दिनों में किया गया संघर्ष हमेशा काम आया. कृषि आपका विषय रहा है. इस विषय के बारे में आपकी अपनी एक समझ है. देश की कृषि नीति को आप कैसे देखते हैं? – इसे असल में एग्रीकल्चर एंड एलाइट सेक्टर बोलते हैं. हमारी एग्रीकल्चर पॉलिसी तो बहुत अच्छी है लेकिन कृषि नीति में ज्यादा जोर दिया गया प्रोडक्शन के लिए. क्योंकि देश में हमेशा भूखमरी रही तो इसकी वजह से सरकार और हम जैसे पॉलिसी मेकर का ज्यादा ध्यान प्रोडक्शन पर ही रहा. आज आप देखेंगे कि 242 मिलियन टन अनाज (फूड ग्रेन) का प्रोडक्शन हो रहा है जो एक रिकार्ड है. हर साल हम एक नया रिकार्ड छू रहे हैं. प्रोडक्शन बढ़ता जा रहा है. मुझे लगता है कि असली दिक्कत इसके बाद की है. प्रोडक्शन के बाद जो मार्केटिंग होनी चाहिए, जो ढ़ांचा बनना चाहिए, स्टोरेज कैपिसिटी बढ़ानी चाहिए, वहां हम कमजोर हैं. हमारे पास बढ़िया ढ़ांचा नहीं है. किसानों का अनाज अच्छी कीमत पर बाजार में बिक नहीं पाता. किसान से ग्राहक तक पहुंचने के बीच कीमत जिस तरह से 2 रुपये से 20 रुपये हो जाती है, यह भी एक वजह है. क्योंकि यहां फायदा किसानों को नहीं मिलता जबकि ग्राहकों की जेब ढ़ीली होती है. इसलिए समय की जरुरत है कि प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग), भंडारण, विपणन आदि पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है. उच्च कोटि का अनुसंधान (रिसर्च) होना चाहिए, जिसमें अभी हमलोग पीछे हैं. हमें जो सफलता मिली है, जिसे हम हरित क्रांति कहते हैं वह हमें गेहूं और धान में ही मिली है. क्योंकि इन फसलों पर विदेशों में अधिक काम हुआ है. दलहन और तिलहन में और अधिक काम किए जाने की जरूरत है. इसके लिए जिम्मेदार कौन है? – सिस्टम जिम्मेदार है. असल में देश बहुत बड़ा है तो चीजों के मार्केटिंग मैनेजमेंट पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. मंडी परिषदों को बढ़ाने की जरूरत है. किसानों द्वारा उपजाए अनाजों को रखने की व्यवस्था हो. किसान जब अपनी पैदावार करता है तो खेत में बहुत नमी होती है, उसे सुखाने के लिए भंडार में ड्रायर लगाए जाने की जरूरत है. अच्छी पैकेजिंग करने की सुविधा हो. किसानों की उपज को कुछ दिन स्टोर करने के बाद बाजार में बेचा जाए. इससे किसानों को फायदा मिलेगा. आपको अगर देश की कृषि नीति बनाने को कहा जाए तो आप क्या करेंगे, ताकि किसानों को बेहतर फायदा मिल सके. – एक तो देश भर में ठीक ढ़ंग से जमीनों को नहीं बांटा गया है. खेतों में काम करने वाले असली लोगों के पास तो जमीन ही नहीं है. वो तो खेतिहर मजदूर हैं. जमीन उनके पास है, जो खेती में काम नहीं करते. यह एक बड़ा मुद्दा है. सरकार को इस बारे में ध्यान देना चाहिए कि जो लोग सही में खेती करते हैं जमीन उनके हाथ में हो. दूसरा, किसानों को अच्छी उन्नत किस्म का बीज समय से दिया जाए और उनकी पानी की समस्या को दूर किया जाए. तो उन्नत बीज, सही समय पर पानी की जरूरत और खाद की उपलब्धता. ये तीन चीजें अगर किसानों को मिले तो किसानों के स्तर पर उत्पादन को और बढ़ाया जा सकता है. फसल आने के बाद सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित होता है और सरकार इस न्यूनतम मूल्य पर खरीद करती है. लेकिन सरकार इसे देश भर में नहीं खरीदती है. मूल्य निर्धारण के आधार पर कुछ ही प्रदेशों में और कुछ ही फसलों के लिए किया जाता है. ये सभी फसलों का किया जाना चाहिए और न्यूनतम मूल्य पर पूरे प्रदेशों एवं सभी फसलों की उपज को खरीदने की व्यवस्था की जानी चाहिए. तथा इसका प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) कर के मार्केटिंग की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए. स्टोरेज कैपिसिटी बढ़ाई जानी चाहिए. जो डिस्ट्रीब्यूशन है, वह भी इतना बड़ा है कि ठीक से मैनेज नहीं हो पा रहा. तो ये दो-तीन कमियां हैं. दूसरा, गांव के स्तर पर ही स्टोरेज कैपिसिटी डेवलप करने की जरूरत है. एक दिक्कत यह भी है कि किसान अपने प्रोडक्ट को बहुत कम दाम पर डायरेक्ट बेचता है. तो उपज के प्रोसेसिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए. कॉटेज इंडस्ट्री डेवलप की जाए. कुछ वैल्यू एडीशन किया जाए. जैसे अरहर के दाल का सीजन आता है तो 15-20 रुपये में बिकती है. जबकि अगर उसी को मिल में दाल बनाकर बेचा जाता है तो वो 100 रुपये किलो बिकती है. आप अभी देश के प्रतिष्ठित नरेंद्रदेव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के कुलपति हैं. अपनी इस जिम्मेदारी को आप कैसे देखते हैं. यह आपके लिए कितना अहम है? – मैं जिस नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय एक बहुत बड़ा विश्वविद्यालय है और उसमें 27 जिले आते हैं. तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के 27 जिलों में इस विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान केंद्र हैं, कृषि ज्ञान केंद्र और रिसर्च सेंटर हैं. इन 27 जिलों में तकरीबन 8 करोड़ आबादी रहती है. तो इस 8 करोड़ की आबादी को हमें उन्नत किस्म के बीज देना, नई तकनीक को उनतक पहुंचाना और इन दोनों का इस्तेमाल कर उन्हें अच्छी उपज के लिए प्रोत्साहित करने की जिम्मेदारी हमारी है. फिर हमारे पास कॉलेज आफ फिशियरी साइंस है. इस पर भी हमारा खासा ध्यान है. पूर्वांचल का ज्यादातर इलाका बाढ़ग्रस्त है. इन इलाकों में धान की खेती ज्यादा होती है. हम कोशिश कर रहे हैं कि इन इलाकों में धान के खेतों में मछली भी डाली जाए. मछली और धान के साथ-साथ बढ़ने का पूर्वांचल के इन 27 जिलों में अच्छा स्कोप है. हम इसे प्रोमोट करने में लगे हैं. हमारी कोशिश है कि अगले तीन सालों में फिश-राइस की एक साथ खेती को फैला दें. इससे किसानों को बहुत ज्यादा फायदा होगा. इसके अलावा ये जो हमारे जिले हैं यहां हर्टिकल्चर (बागवानी) का बहुत स्कोप है. यहां आंवला बहुत ज्यादा होता है. बेल बहुत होता है. बेर बहुत होती है. हम इनकी पैदावार को भी बढ़ाने के ऊपर काम कर रहे हैं. हमने हरियाणा से अच्छी किस्म की साहीवाल नस्ल की गायों को लाकर अपने क्षेत्रों में बंटवाया है ताकि यहां अच्छे किस्म की गाय की बहुतायत हो और दुग्ध उत्पादन को दुगना किया जा सके. यह राज्य सरकार और भारत सरकार की भी मंशा है. यहां नील गायों का बहुत प्रकोप है. हम उनके जन्म को कंट्रोल करने का प्रयास कर रहे हैं. यह बहुत जरूरी है क्योंकि नील गाय किसानों की फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं. विश्वविद्यालय को लेकर आपकी भविष्य की क्या योजना है? – 19 नवंबर 2010 को मैने विश्वविद्यालय के कुलपति का पद संभाला था. जब मैने ज्वाइन किया था तो पता चला कि पिछले पांच साल से विश्वविद्यालय में कोई दीक्षांत समारोह (convocation) नहीं हो पाया है. इस इलाके में एक खास वर्ग के लोगों का बाहुल्य है, जो दीक्षांत समारोह नहीं होने देते थे. तीन मार्च को कन्वोकेशन था और मैने तय किया कि इस बार यह समारोह जरूर आयोजित होगा. सारे विवादों को मैनेज करते हुए हमने कन्वोकेशन करवाया. लगे हाथ 15 दिसंबर 2011 को हमने दूसरा कन्वोकेशन भी करवा दिया. इस तरह एक साल में हमने दो कन्वोकेशन करवाया. इससे हमें एक आत्मविश्ववास आया. दूसरी चुनौती यह आई कि वहां पिछले दस सालों से बैलेंस शीट नहीं बनी थी. यह गंभीर बात थी, क्योंकि बैलेंस शीट में यह सारी जानकारी होती है कि कहां से कितना पैसा आया और वह कहां खर्च हुआ. अगर हम पैसा देने वाले को हिसाब नहीं देंगे तो वह पैसा क्यों देगा? तो यह चुनौती थी. हमने 10 साल की बैलेंस शीट बनवाई और इसे अपडेट किया. इससे निपटे तो एक समस्या और खड़ी हो गई. विश्वविद्यालय के निर्माण को 35 साल हो गए थे लेकिन अब तक इसकी वार्षिक प्रगति रिपोर्ट (Annual Progress Report) नहीं बनी थी, न छपी थी. तो हमने प्राथमिकता के आधार पर वार्षिक रिपोर्ट 2009-10 और 2010-11 बनवाकर छपवाया. अब तक विश्वविद्यालय का ACCREDITATION नहीं हुआ था. हमने ACCREDITATION कराने के लिए एक रिपोर्ट तैयार कर के भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से यह काम करवा रहे है. जो विश्वविद्यालय की स्थापना के समय ही होना चाहिए था, वह आज 37 साल बाद हो रहा है. विश्वविद्यालय में पिछले 37 सालों से एल्यूमिनाई (पूर्व छात्र) का गठन नहीं हुआ था. हमने इसका गठन किया और पहली Alumni Meet कराई. इस तरह हमने पहले सालों से अधूरे पड़े कामों को पूरा किया और फिर विश्वविद्यालय के लिए नई परियोजनाएं लेकर आएं. हां, एक दिक्कत और थी. जब मैने विश्वविद्यालय में ज्वाइन किया था तो वहां के स्टॉफ को पिछले छह महीने से सैलरी नहीं मिली थी. मैने राज्य सरकार से अच्छा टाई-अप किया और फिर नियमित सैलरी दिलवाना शुरू किया. आज ऐसा है कि एक साल हो गए और किसी को कोई दिक्कत नहीं है. विश्वविद्यालय एकदम शांति के साथ चल रहा है. यह केवल मैनेजमेंट की ही कला थी. क्योंकि विश्वविद्यालय में अगर कोई बदलाव हुआ था तो वह महज कुलपति के तौर पर मेरी नियुक्ति हुई थी. क्योंकि विश्वविद्यालय का प्रबंध परिषद वही है, छात्र वही हैं, टीचर-प्रोफेसर वही हैं, सिस्टम वही है. विश्वविद्यालयों में एक बड़ी समस्या एससी/एसटी सीटों पर बैकलॉग की है. आप इस समस्या को कैसे देखते हैं? – हमारे विश्वविद्यालय में भी बैकलॉग है. इसे भरने के लिए हमने तमाम पदों पर 66 वेकैंसी निकाली है. हम कोशिश करेंगे कि राज्य सरकार के साथ अच्छा तालमेल बनाकर उस बैकलॉग को पूरा कर सकें. तो हमारा प्रयास है कि समाज को लेकर हमारा जो दायित्व है उसे पूरा करें और हम इसे जरूर पूरा करेंगे. इसमें राज्य सरकार का सहयोग चाहिए होता है. कोशिश है कि हम इसमें कामयाब हो. आपने अपने छात्र जीवन के दौरान जातीय आधार पर भेदभाव होने की बात कही थी लेकिन जब आप नौकरी में आएं, तो क्या इस दौरान भी करियर में कभी भेदभाव का सामना करना पड़ा? – बहुत बार करना पड़ा. जब मैं असिस्टेंट डायरेक्टर था तो ज्वाइंट डायरेक्टर के लिए विज्ञापन निकला. हमारे एक साथी असिस्टेंट डायरेक्टर थे. वो ब्राह्मण थे. उन्होंने कहा कि पहले मेरे डिपार्टमेंट के ज्वाइंट डायरेक्टर की पोस्ट भरी जाए वरना मैं जूनियर हो जाऊंगा. वो इसको लेकर कोर्ट में चले गए और कोर्ट ने उनको स्टे भी दे दिया. जबकि उनका और हमारा डिपार्टमेंट अलग था. उनकी योग्यता हमारे विभाग के पोस्ट के लिए फिट नहीं बैठती थी. दो सालों तक केस चलता रहा. इस बीच मैं जूनियर हो गया. जब वो केस हारे तब जाकर मेरा प्रोमोशन हुआ. यहां से निकला तो एक नई बाधा आ गई. हमारे एक सीनियर ने डायरेक्टर पद के लिए ऐसी योग्यता निर्धारित कर दी ताकि हम उसके मानक पर फिट न बैठे. लेकिन हुआ ऐसा की वो खुद ही चले गए और मेरा डायरेक्टर के पद पर सेलेक्शन हो गया. लेकिन इन सारे Discrimination (भेदभाव) के बाद भी मैं विश्वविद्यालय में कुलपति बना. तो मेरा शुरू से ही कर्म पर विश्वास है. ईश्वर से ना तो मेरी दुश्मनी है ना ही दोस्ती है. शिवखेड़ा की एक किताब है, जीत आपकी. इसमें शुरू में ही लिखा है “जीतने वाले कोई नया काम नहीं करते बल्कि नए ढ़ंग से करते हैं”. तो मेरा इसमें विश्वास है. आप किनसे प्रभावित हैं, रोल मॉडल कौन है? – भगवान बुद्ध के बताए रास्तों पर मेरी श्रद्धा है. उनके बताए पंचशील को फॉलो करता हूं. बाबा साहेब ने काफी प्रभावित किया. उनका जीवन संघर्ष, उनकी लिखी बातें, उनके अथक मेहनत के बाद समाज के एक बडे तबके को मिला सम्मान का हक. उसी वजह से हम आज यहां हैं. मैं यह कहना चाहता हूं कि हर किसी को बाबा साहेब को पढ़ना चाहिए. उनके जीवन संघर्ष, उनके कठोर परिश्रम को जानना चाहिए. बाबा साहेब में मुझे जो सबसे खास चीज नजर आई वो यह थी कि उन्होंने खुद के लिए नहीं बल्कि समाज के विकास के लिए सोचा, काम किया. तो उनका प्रभाव हमेशा महसूस करता हूं. हर किसी को समाज के विकास के बारे में सोचना चाहिए. मैं भी समाज से जो मिला है, उसे लौटाना चाहता हूं. हमारा मकसद दलित सेवा है. आप जिस समाज से ताल्लकु रखते हैं, वहां की विपरीत्त परिस्थितियों से निकल कर कुलपति पद तक पहुंचना एक सपना सरीखा है. आज जब आप यहां हैं तो समाज की भलाई के लिए क्या सोचते हैं. आप इसकी बेहतरी के लिए क्या करना चाहते हैं? – 24 घंटे इस बारे में सोचता हूं. जब भी कहीं किसी मीटिंग वगैरह में जाता हूं तो अपने बारे में बताता हूं कि कैसे और कहां से निकल कर मैं यहां तक पहुंचा. मैं बताता हूं कि कैसे हमारे गांव में बिजली नहीं थी. आज भी नहीं है. मोमबत्ती जलाकर, लालटेन जलाकर पढ़ते थे. मां-बाप के बारे में बताता हूं, गरीबी के बारे में बताता हूं कि कैसे आसानी से रोटी मयस्सर नहीं थी. बताता हूं कि इन सारी दिक्कतों और बाधाओं के होने के बावजूद भी कैसे हमने पढ़ाई की और अपनी मेहनत के बूते हमेशा आगे बढ़ते रहा और आज कुलपति के पद तक पहुंचा. न तो हमें भाषा रोक पाई, ना जाति रोक पाई, ना ही सुविधाओं का अभाव. आज देश में जितने भी सरकारी विश्वविद्यालय है, मैं उन सबमें सबसे कम उम्र का (यंगेस्ट) कुलपति हूं. मैं अकेला ऐसा वाइस चांसलर (कुलपति) हूं जो 50 साल की उम्र में इस पद तक पहुंच गया नहीं तो ज्यादातर लोग 60-65 की उम्र में आते हैं. तो हमेशा समाज को पे-बैक करने की कोशिश करता हूं. जहां भी जाता हूं समाज के बच्चों को मोटिवेट करता हूं. जहां तक हो सकता है उनकी मदद करने की कोशिश करता हूं. अपने बचपन में आप पांच पैसे कम होने की वजह से तरबूज नहीं खरीद पाए थे. आज आपके पास सबकुछ है. जब आप पीछे मुड़कर उन दिनों को कैसे याद करते हैं? – स्थिति अभी भी ज्यादा नहीं बदली है. समाज में आज भी हमारे जैसे अनेकों कुरील हैं, जो तरबूज नहीं खरीद पाते होंगे. मैं मानता हूं कि समाज में विकास हुआ है लेकिन वह विकास लोगों का व्यक्तिगत विकास है. समाज का विकास नहीं हुआ है. आज भी जब हम कई जगहों पर जाते हैं तो पुराने दिन याद आते हैं. हमारी जगह पर कोई दूसरा बच्चा बैठा मिलता है. वह हमारे जैसी चुनौतियों का ही सामना कर रहा होता है. जैसी मजबूरियों में हम थे, वैसी ही मजबूरी में वो भी फंसा हुआ है. गांव में जाते हैं तो देखते है कि विकास आज भी नहीं हुआ है. मैं देखता हूं कि 25 साल पहले जैसे गांव थे, आज भी वैसे ही है. समाज में मुझे कोई बदलाव, कोई विकास नजर नहीं आता. जो लोग उठे हैं वो व्यक्तिगत मेहनत कर के उठे हैं. हां, सामाजिक जागरूकता बढ़ी है, राजनीतिक सफलता भी मिली है, अधिकारों के बारे में भी जागरुकता बढ़ी है, पढ़े-लिखे लोग भी ज्यादा दिखते हैं लेकिन जो आर्थिक विपन्नता है, वह आज भी ज्यों की त्यों है. आपके कम पढ़े माता-पिता ने जब आपकी सफलता देखी तो उनकी प्रतिक्रिया क्या थी?  और उन्हें यह खुशी देकर आप कितने संतुष्ट हुए? –  मेरे माता-पिता हमेशा से मेरे साथ रहते हैं. आज मैं कुलपति हूं तो भी वो मेरे साथ ही रहते हैं. मेरी सफलता उनके लिए एक सपना सरीखा है. आप सोच सकते हैं कि जो लोग खेतों में मजदूरी करते थे, आज जब उनका बेटा वाइस चांसलर बन गया है, देश के गिने-चुन बुद्धिजीवियों में शामिल है,समाज का नाम रौशन किया है. तो जाहिर है उन्हें बहुत फ्रख होता है, सांत्वना भी मिलती है. मैने उन्हें ऐसा मौका दिया है. व्यक्तिगत जीवन में भविष्य की क्या योजनाएं हैं? – अभी तो मैं 50 साल का हूं. भविष्य के बारे में कोई नहीं जानता. राज्य सरकार या भारत सरकार जब तक सरकारी नौकरी में हूं कोई भी सेवा ले सकती है. जहां सरकारें चाहेंगी वहां काम करुंगा. शिक्षण संस्था के साथ जुड़े रहने में रुचि है. इन सबसे अलग अगर नौकरी छोड़कर समाज के लिए काम करने की जरूरत हुई तो समाज के लिए भी काम करेंगे. हमने बहुत दिन नौकरी कर ली. सर आपने इतना वक्त दिया. अपने संघर्ष को हमसे साझा किया, धन्यवाद धन्यवाद अशोक जी.
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एस.आर लाखाः ईट भठ्ठे से कुलपति पद का सफर

रिटायर होने के बाद एस.आर लाखा इन दिनों एक नई जिम्मेदारी के लिए कमर कस कर तैयार हो चुके है. हाल ही में उन्हें ‘गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय’ के कुलपति पद की जिम्मेदारी दी गई है. जिस 12 मार्च (49) को उन्होंने इस दुनिया में आंखें खोली और अपनी मेहनत और लगन से हर कदम पर सफलता हासिल की उसी 12 मार्च (2011) को उन्होंने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी संभाला. और अब इस विश्वविद्यालय को विश्व भर में एक अलग पहचान दिलाने का बीड़ा उठा चुके हैं. यह महज संयोग नहीं है. पिछले दिनों उनके जीवन-संघर्ष और इस नई जिम्मेदारी को लेकर उनके ‘विजन’ के बारे में मैने (अशोक) उनसे लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है—– अपका जन्म कहां हुआ, बचपन कहां गुजरा? – जन्म 12 मार्च 1949 को पंजाब में एक गांव है भंगरनाना. नवाशहर जिले में है, वहीं हुआ था. एक छोटे से घर में हुआ था. मां-बाप खेती करते थे. चौथी तक की पढ़ाई यहीं हुई. मिडिल क्लास में पढ़ने के लिए घर से पांच किलोमीटर दूर दूसरे गांव में गया. हाई स्कूल के लिए गांव से आठ किलोमीटर गया. डिग्री तक की शिक्षा सिख नेशनल कॉलेज से की. एमए पंजाब यूनिवर्सिटी से किया. इस दौरान मां-बाप के साथ खेती-बारी में सहयोग भी करता था. फिर 76 में दिल्ली आ गया. पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद 77 फरवरी में सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी मिली थी. सेक्सन आफिसर की नौकरी थी. इसमें रहा. साथ-साथ आईएएस की तैयारी भी करता रहा. 78 का जो आईएएस का रिजल्ट आया, उसमें सेलेक्ट हो गया. 79 में मंसूरी में ट्रेनिंग हुई, फिर मैं यूपी कैडर में आ गया. परिवार में कौन-कौन था. सामाजिक परिवेश और घर की आर्थिक स्थिति कैसी थी? – जब मैं पैदा हुआ था तब घर की आर्थिक स्थिति बड़ी खराब थी. जब बारिश होने लगती थी तो पूरा परिवार चिंतित हो जाता था कि अगर बारिश नहीं रुकी तो रोटी कैसे खाएंगे. तब मां कहती की जाओ काम कर के कुछ खाने को ले आओ. तो ऐसी स्थिति थी. चप्पल मुझे आठवी क्लास के बाद पहनने को मिली. उससे पहले गर्मी के दिनों में हम यूं ही नंगे पांव स्कूल में जाते थे. तो आर्थिक स्थिति ऐसी ही थी. मां-बाप मजदूरी करने जाते थे. हम भी उनके साथ चले जाया करते थे. पहले सुबह स्कूल में पढ़ने जाते, फिर शाम को मां-बाप के साथ काम करने जाते थे. वो भट्ठे पर ईंट बनाने का ठेका लेते थे, फिर बटाई पर खेती करते और जानवर रखते तो हम भी उनकी मदद करते. जानवर होते थे तो उनको चारा डालने का काम करते थे. दूध निकालते थे. हम चार भाई थे, एक बहन थी. मैं चौथे नंबर का भाई था. मुझसे छोटी एक बहन थी. बड़ा भाई इंग्लैंड चला गया तो पैसे भेजने लगा. फिर मेरे पिताजी ने देखा कि मैं पढ़ने में ठीक हूं तो मुझे पढ़ाने लगे. बचपन में ऐसी मुश्किलें आई की आपने ईंट-गारे तक बनाए? – हां, आर्थिक स्थिति खराब थी तो मां-बाप भट्ठे पर ईंट बनाने का काम करते थे. एक हजार ईंट बनाने के तब दो रुपये मिलते थे. तो हम भी मां-बाप के साथ रात को काम करते थे. सन् 1966 की बात है. इतनी मुश्किलों और गरीबी से गुजरने के बाद आप कलेक्टर बने थे. इस दौरान आपका सामना तमाम गरीब परिवारों से होता होगा. उन्हें देखकर उस वक्त आपके जहन में क्या चलता था. क्या आपको अपनी मुफलिसी के दिन याद आते थे? – मेरी पूरी ब्यूरोक्रेसी लाइफ के कुल 30 सालों में से छह साल तक मैं सोशल सेक्टर में रहा. यहां मुझे वंचित समाज के लिए काम करने का मौका मिला. एससी/एसटी समाज के लोगों का प्रोजेक्ट मंजूर करना, उनकी दिक्कतें दूर करने का काम था. यहां मुझे बहुत मजा आता था. एक आत्मिक संतुष्टि मिलती थी. मैं यह भी ध्यान रखता था कि कोई स्टॉफ उनसे कमिशन ना ले. ऐसा करने पर मैं बड़ी कार्रवाई करता था. तो अपने समाज के गरीब लोगों के लिए काम करने का अपना आनंद है. मुझे याद है कि जब मैं फैजाबाद में कलेक्टर था. मैं कहीं जा रहा था तो एक ईंट-भट्ठा दिखा. मै अपनी गाड़ी रुकवा कर वहां काम कर रहे मजदूरों के पास चला गया. मैने उनसे पूछा कि आजकल ईंट बनाने का दाम कैसा चल रहा है. तो उन्होंने बताया कि अब एक हजार बनाने के दस रुपये मिलते हैं. वहां से चले तो मेरे ड्राइवर ने पूछा कि साहब आप इतनी गर्मी में इतनी दूर क्यों गए थे? हालांकि मैने तब ड्राइवर को नहीं बताया कि मैं इसलिए गया था क्योंकि आज जिस झोपड़ी में वो मजदूर रहते थे. मैं भी उसी झोपड़ी से निकला था और वहां से उठकर अब कलेक्टर की गाड़ी में यहां आया हूं. यह जो सफर मैने तय किया है. वह मुझे याद आता था. तो ब्यूरोक्रेसी में रहने के दौरान भी मेरे पूरे करियर में यह अहसास, यह दर्द मेरे अंदर रहा. जब मैं पब्लिक सर्विस कमिशन का चेयरमैन बना. तब उस समय एससी/एसटी/ओबीसी और गरीबों का जो भी बैकलॉग था. मैने उसे भरने की पूरी कोशिश की और भरा भी. इससे मुझे आज भी बहुत संतुष्टि मिलती है. आज भी मैं किसी गरीब बच्चे को पढ़ाई वगैरह में कोई कठिनाई होते देखता हूं तो खुद को रोक नहीं पाता. जैसे हमारे यहां इंटर कॉलेज खुले है. कुछ दिन पहले वाल्मीकी परिवार के कुछ लोग हमारे पास आएं कि साहब फीस बहुत ज्यादा है और हम इतनी फीस नहीं दे पाएंगे. मैनें उनसे कहा कि वो बच्चों की पढ़ाई जारी रखें उनकी फीस मैं भर दूंगा. वाल्मीकी समाज में आज शिक्षा का बड़ा अभाव है. जब भी किसी गरीब आदमी को देखता हूं तो तुरंत मुझे अपने संघर्ष के दिन याद आ जाते हैं. जैसे हमारे मां-बाप काम करते थे. हम भी उनके साथ काम करते थे. फिर गांव से दलिया बनाकर भट्ठे पर ले जाते थे. दूध बेचते थे. जानवर चराते थे. तो हमेशा गरीबों के लिए दर्द रहता है. सिविल सर्विस की परीक्षा में पास होने के बाद जब आप ट्रेनिंग के लिए मसूरी पहुंचे, वो आपके लिए कितने गौरव का पल था? – 11 जुलाई को मैं मसूरी पहुंचा था, सन् 79 को. तब मसूरी में बहुत बारिश हो रही थी. इससे पहले मैने कभी पहाड़ देखे नहीं थे. जब हम टैक्सी में देहरादून से मसूरी जा रहे थे तो हमारी गाड़ी बादल और पहाड़ों के बीच में चल रही थी. तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हवा में उड़ रहा हूं. यह एक सपने के जैसा था. फिर हम अकादमी में पहुंचे. वहां हमें कमरा अलॉट किया गया. ट्रेनिंग सोमवार से शुरू होनी थी और मैं शनिवार को ही पहुंच गया था. मैं खाना खाकर अपने कमरे में सो गया. दो दिन-दो रात तक बारिश होती रही. मैं दो दिन-दो रात तक लगातार सोता रहा. मैं खाना खाने के बाद जैसे बेहोश हो जाता था. वहां के स्टॉफ ने पूछा कि आप दो दिन से लगातार सो रहे हो. तो मैने कहा कि यार मैने अपनी जिंदगी में बहुत संघर्ष किया है (चेहरे पर वह दर्द फिर उभर आया). अब जरा अच्छी जगह आया हूं मुझे चैन से सो लेने दो. इसके बाद फिर शुरू करना है काम. अपने करियर में आपने किन-किन शहरों में किन-किन पदों पर काम किया? -सबसे पहली पोस्टिंग जहां बैठे हैं (यूनिवर्सिटी कैंपस की ओर इशारा करते हुए), और जिसे आज ग्रेटर नोएडा कहते हैं, इसी इलाके में हुई. तब यह सारा एक था. मैं एसडीएम सिकंदराबाद के पद पर आया था. फिर तीन साल बाद यहीं कलेक्टर बन गया. बुलंदरशहर जिले में. फिर फैजाबाद में और देवरिया में कलेक्टर रहा. ज्यादा काम मैने सोशल सेक्टर में किया. डायरेक्टर सोशल वेलफेयर साढ़े तीन साल रहा, तीन साल शिड्यूल कास्ट कॉरपोरेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर रहा. इसमें जो भारत सरकार की योजनाएं थी, स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के अंतर्गत इसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए जो आर्थिक योजना थी, वो उन्हें दिया. साथ ही उनके लिए स्पेशल ट्रेनिंग का कार्यक्रम भी आयोजित किया. इसके बाद भी कई विभागों में काम किया. सूडा का चेयरमैन रहा. बतौर नौकरशाह आप अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं? – खुद के और अपने मां-बाप के जिस सपने और अरमान के साथ मैं आईएएस बना, उसका मैने हमेशा ख्याल रखा. जो हमारे बड़े थे, वो मुझसे अक्सर कहा करते थे कि आईएएस बनने के बाद तुम अपने समाज के लोगों का ख्याल रखना. उनकी जितनी मदद हो सके जरूर करना. तो इसे मैं अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं कि मैं पूरी जिंदगी अपने बड़ों की उम्मीद और अपने इस कमिटमेंट को नहीं भूला, चाहे मुझे कितनी भी दिक्कते आईं. मैं कभी नहीं भूला. जब आप बुलंदशहर में थे तो 26 जनवरी के दिन दलित बस्ती में झंडा फहराने को लेकर आप काफी चर्चा में रहे थे. दलित समाज से तमाम आईएएस होते हैं. आम तौर पर ऐसा सुनने को नहीं मिलता. लेकिन वो कौन सी बात थी जिसने आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया? – इसकी एक कहानी है. हुआ यह था कि जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो नवाशहर में हमारे एसडीएम बैठते थे. वहां डीएसपी का भी आफिस था. एक दिन मैं उसके आगे से निकलने लगा तो लोग कहने लगे कि यहां से मत जाओ, यहां एसडीएम का बंगला है, डीएसपी का बंगला है. तो मुझे उस वक्त बड़ा अजीब लगा कि हम उनके बंगले के आगे से भी नहीं निकल सकते? तो जब मैं खुद डीएम बना तो मुझे एक बात याद आई कि बाबा साहेब आगरा में आए थे. यहां उन्होंने काफी काम किया और स्कूल भी खोला था. जब मैं सिकंदराबाद का एसडीएम था तो मैने वहां म्यूनिसिपल कारपोरेश बोर्ड में बाबा साहब की प्रतिमा लगवाई. लेकिन कुछ लोगों ने अपने वाल्मीकी समाज के लोगों को भड़का दिया और मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया. वो मुकदमा चलता रहा. जब मैं कलेक्टर बनकर बुलंदशहर आया तो मैने इसे ठीक करवाया. यानि लोग चाहते नहीं थे कि मैं बाबा साहब की प्रतिमा लगवाऊं. उसके बाद कासगंज गया तो वहां भी एक चौराहे पर बाबा साहेब का बुत लगवाया. तो जो आपने पूछा कि मैं दलित बस्ती में क्यों गया था तो मैं वहां इसलिए गया था ताकि उनलोगों का हौंसला बढ़े कि हमारे समाज का कलेक्टर आया है और हमारे बीच में आया है. आमतौर पर वो लोग कलेक्टर की गाड़ी को बाहर से देखते थे. मैने सोचा उनके बीच जाकर उन्हें कांफिडेंस दिया जाए. ताकि उन्हें लगे कि अपना आदमी है तो इसके दिल में अपनों के लिए दर्द भी है. आप बतौर ब्यूरोक्रेट्स रिटायर हो चुके हैं. इसके बाद गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. इस जिम्मेदारी को आप कितना बड़ा मानते हैं? – मैं आईएएस के पद से रिटायर हुआ हूं, जिंदगी से रिटायर नहीं हुआ. मेरी जिंदगी में जो अरमान हैं, मेरे अंदर समाज के लिए काम करने की जो ख्वाहिश है, वह अभी भी है. और मेरी ख्वाहिश है कि मैं जब तक जिंदा रहूं इस समाज के लिए काम करुं. गुरु रविदास जी ने कहा था कि ‘जे जन्म तुम्हारे लिखे’ बल्कि अब मुझे काम करते हुए ज्यादा खुशी हो रही है. क्योंकि आईएएस रहते हुए ऑल इंडिया सर्विस रुल का ख्याल रखना पड़ता था. लेकिन अब सर्विस के बाहर रहने के बाद आदमी खुलकर काम कर सकता है. मगर काम समाज के लिए करना है, अपने लिए काम नहीं करना है. समाज के लिए ‘पे-बैक’ करना है. समाज ने जो हमें दिया है, अब मुझे उसे समाज को लौटाना है. जहां तक कुलपति की जिम्मेदारी का सवाल है तो जब मैं कमिशन में गया था. तो मैने उस जिम्मेदारी को भी बहुत बड़ा माना था और बहुत अच्छा काम किया. अब इस जिम्मेदारी को भी मैं बहुत बड़ा चैलेंज मानता हूं. यह एक ड्रीम प्रोजेक्ट है. और मैं चाहता हूं कि इसकी ख्याति दुनिया भर में फैले और यह संस्थान सामाजिक परिवर्तन का सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बने. देश में पहले से ही कई विश्वविद्यालय (University) है. ऐसे में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय औरों से किस मायने में अलग है. आप इसको किस दिशा में लेकर जाना चाहते हैं?गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय परंपरागत विश्वविद्यालयों से थोड़ा अलग है. इसकी जो सबसे खास बात है, वह यह कि इसको तीन हिस्सों में बांटा गया है. एक मैनेजमेंट का है, दूसरा इंजीनियरिंग का है जबकि तीसरा ह्यूमिनिटिज (Huminities) का है. यूनिवर्सिटी का मकसद होता है यूनिवर्सिलाइजेशन ऑफ एजूकेशन. तो जो बुद्धिस्ट दर्शन है, बुद्धिस्ट कल्चर है, सिविलाइजेशन है, इसमे हजारों सालों से जो काम नहीं हुआ है, लोगों को उसकी जानकारी देना और जागरूक करना है. खासकर के शिड्यूल कॉस्ट के बच्चे हैं हम उनकों स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के तहत बाहर के देशों में भी पढ़ने के लिए भेजते हैं. ताकि विद्यार्थियों का एक्सपोजर विदेशों में भी हो. किसी और विश्वविद्यालय में यह सुविधा नहीं है. यह सिर्फ हमारे गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में है. अगर अनुसूचित जाति के वैसे बच्चे जिनके पास पैसे नहीं है लेकिन वो बाहर पढ़ने जाना चाहते हैं, तो हम उन्हें भेजते हैं. इस साल भी हमने इसके लिए तीन करोड़ रुपये की व्यवस्था की है और 30 बच्चे बाहर भेजना है. पिछले साल 12 बच्चे गए थे. बाहर की कुछ यूनिवर्सिटी के साथ हमारा एग्रीमेंट है, उससे टाइअप करके बच्चों को भेजा जाता है. दूसरा जो बुद्धिस्ट दर्शन है, उस पर रिसर्च करना, सिविलाइजेशन पर रिसर्च करना और उसकी पब्लिसिटी करना ये बहुत महत्वपूर्ण है. गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के निर्माण का उद्देश्य क्या था. यह कितने का प्रोजेक्ट है? – इसका पूरा कैंपस 511 एकड़ में फैला हुआ है. ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी इसको फाइनेंनसियली सपोर्ट करती है. पहले 2002 में इसकी नींव पड़ी लेकिन फिर कुछ राजनीतिक परिवर्तन होने के कारण 2008 से ठीक से काम शुरू हुआ. अभी यहां 60 फीसदी से ज्यादा का निर्माण हो गया है. कुल चार स्कूल (फैकल्टी) बाकी हैं, जो जुलाई तक तैयार हो जाएंगें. इसके साथ ही सभी आठो स्कूल (फैकल्टी) काम करना शुरू कर देंगे. अभी एक हजार बच्चे हैं और जुलाई से 2100 और बच्चे हो जाएंगे. हमारे हॉस्टल (लड़के-लड़कियां) की कैपेसिटी तीन हजार से ज्यादा हैं. यहां कांशीराम जी के नाम पर एक बहुत बड़ा आडिटोरियम बनने जा रहा है. 40 एकड़ में हमारा स्पोर्ट्स स्टेडियम बन रहा है. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल का मैदान औऱ स्वीमिंग पूल बनेगा. यह शुरू हो चुका है. इसी तरीके से बुद्धिस्ट सेंटर, मेडिटेशन सेंटर और लाइब्रेरी सब आधुनिक हैं. एक साल में यह सारे काम खत्म हो जाएंगे. सन् 2008 में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू हो गई थी, जल्दी ही इसके तीन साल होने वाले हैं. इन तीन सालों में विश्वविद्यालय ने कितना सफर तय किया है? – यह तीसरा सत्र है. अभी तक यहां इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट में ज्यादा बच्चे रहे हैं. जबकि ह्यूमिनिटिज में अब तक अधिक बच्चों का दाखिला नहीं हो पाया है. अब हमारा फोकस बच्चों को ह्यूमिनिटिज में दाखिला देना है. एससी/एसटी वर्ग के गरीब बच्चों के लिए यहां मुफ्त शिक्षा है लेकिन हम इस कोशिश में भी हैं कि समाज के अन्य बच्चों को भी जो पढ़ने में ठीक हैं, उन्हें लिए फीस स्ट्रक्चर में थोड़ी रियायत दी जाए ताकि वो भी आगे बढ़ें. अभी तक कितने पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं. कितने बाकी है? – चार पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं और चार बाकी है. जैसे वोकेशनल एजूकेशन का बाकी था. लॉ जस्टिस एंड गवर्नेंस का बाकी था. स्कूल ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन ये अभी नहीं चल पाया है. स्कूल ऑफ मैनेजमेंट चल रहा है, स्कूल ऑफ इंफार्मेशन एंड टेक्नोलॉजी चल रहा है, स्कूल ऑफ लॉ जस्टिस एंड गवर्नेंस शुरू होना है. स्कूल ऑफ वोकेशन स्टडीज भी शुरू होना है, स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलाजी और इंजीनियरिंग चल रहा है. इस विश्वविद्यालय के तमाम पाठ्यक्रम में बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन एक महत्वकांक्षी पाठ्यक्रम था. यह शुरू नहीं हो पाया है, इसके पीछे क्या वजह थी. इसको आप कैसे शुरू करेंगे? – मुझे लगता है कि इसमें माइंड सेट की दिक्कत थी. पहले ज्यादा ध्यान मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग पर दिया गया. ध्यान देना भी चाहिए. लेकिन यह यूनिवर्सिटी है. इसका जो मुख्य फोकस था वो बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन और वोकेशनल स्टडीज पर था. इसको थोड़ा सा पीछे कर दिया गया था. अब मैने 2008 में इस विश्वविद्यालय की चांसलर बहन जी ने जिस-जिस विषय की घोषणा की थी, मैने उसे फिर से बिल्कुल वैसा ही (रि स्टोर) कर दिया है. अब इसमें रिसर्च का काम होगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जहां बुद्धिज्म फिलासफी के ऊपर काम हो रहा है, उन विषयों के विद्वानों को बुलाया जाएगा. हम सोच रहे हैं कि अगस्त में बुद्धिज्म पर एक अंतरराष्ट्रीय सेमीनार विश्वविद्यालय में करवाई जाए. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो लोग भी काम कर रहे हैं उन्हें बुलाया जाए. हमारी कोशिश है कि एक डिस्कशन हो और उससे एक थीम निकले कि बुद्धिस्ट स्टडीज का पाठ्यक्रम (syllabus) कैसे बनाया जाए. जैसे जापान की एक यूनिवर्सिटी में बुद्धिज्म पर काफी काम हो गया है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में इस पर काफी काम हो रहा है. बाहर के देशों में बुद्धिज्म एंड सिविलाइजेशन पर कैसे काम हो रहा है, इसे ध्यान में रखते हुए हम अपने कोर्स को एडप्ट करें और इसके पहले बुद्धिज्म पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक कांफ्रेंस करवाएं. इसके बाद हम यह तय करेंगे कि बुद्धिस्ट स्टडी एंड सिविलाइजेशन पर भविष्य में हमारा लाइन ऑफ एक्शन क्या होगा. इसी प्रकार से लॉ, जस्टिस एंड गवर्नेंस है. यह बाबा साहेब का सब्जेक्ट है. वैसे बाबा साहेब को किसी विषय में बांधा नहीं जा सकता. तो हम सोच रहे हैं कि इसमें एक सब्जेक्ट ऐसा बनाया जाए, जिसमें शिड्यूल कॉस्ट के लिए संविधान में जो कानून बने हैं उस एक विषय अलग से रखा जाए. इस विषय पर एक पेपर रखा जाए ताकि लोगों को पता चल सके. साथ ही विद्यार्थी अनुसूचित जाति को मिलने वाले कानूनी अधिकार को जान सके. गौतम बुद्ध का जो दर्शन है, वह शांति, समानता और सौहार्द है. यह विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर है. ऐसे में दलित एवं वंचित समाज को आगे बढ़ाने के लिए यह विश्वविद्यालय कितना प्रतिबद्ध है? – सौ फीसदी…। हमने पहले ही कह रखा है कि यहां एससी/एसटी समुदाय के बच्चे यहां तक बीपीएल परिवार के जनरल वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो हमने उनकी फीस माफ की हुई है. इसके अलावे अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग के ऐसे बच्चें जो पढ़ने में काफी अच्छे हैं और जिनके आगे बढ़ने की संभावना है उन्हें हम पढ़ने के लिए विदेशों में भेजते हैं. यह व्यवस्था किसी और विश्वविद्यालय में नहीं है. यहां बच्चों के लिए आवासीय व्यवस्था जरूरी है. इससे बच्चों को एक विशेष वातावरण मिलेगा. बच्चों के व्यक्तित्व का और बेहतर विकास हो पाएगा. विश्वविद्यालय को लेकर भविष्य की योजना क्या है? – फिलहाल तो सबसे प्रमुख योजना ‘बुद्धिस्ट स्टडीज और सिविलाइजेशन’ को टेक आफ कराना है. लॉ, जस्टिस को शुरू करना है. 40 एकड़ में जो हमारा स्पोर्ट्स कंप्लेक्स है उसको लांच करना है. आने वाले पांच सालों में आप इस विश्वविद्यालय को कहां देखना चाहते हैं? – आने वाले पांच सालों में न सिर्फ भारत बल्कि एशिया और विश्व स्तर पर इस विश्वविद्यालय की एक पहचान बने, ऐसा मैं चाहता हूं. इसके लिए हमने तीन चीजों को चिन्हित किया है. पहला, ‘क्वालिटी ऑफ स्टूडेंट’. इसके लिए हमने व्यवस्था की है कि यहां जो भी एडमिशन हो वो योग्यता के आधार पर हो. दूसरा, यहां की जो फैक्लटी हो वो योग्य हो और तीसरी बात लाइब्रेरी. हमारी जो लाइब्रेरी और लेबोरेटरी है, उस पर भी हम खासा ध्यान दे रहे हैं. इस साल के बजट में मैने इसके लिए 52 करोड़ रुपये रखा है. विश्व में जो सबसे बेहतरीन किताबें हैं, चाहे वो लॉ में हो, इंजीनियरिंग में हो, मैनेजमेंट में हो या ह्यूमिनिटिज में हो. मैने अपने पूरे स्टॉफ और डीन को कह रखा है कि वह इंटरनेट या कहीं से भी सूचना इकठ्ठा कर के यह पता लगाएं कि ऐसी कौन सी किताबें हैं जो हार्वर्ड में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में, या कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में है और हमारे पास नहीं है. इसी तरह हमारी जो इंजीनियरिंग लैब है. उसमें हम आईआईटी खड़गपुर, कानपुर और आईआईटी दिल्ली के स्तर के सारे इंस्ट्रूमेंट लाने के लिए प्रतिबद्ध है. हम देख रहे हैं कि हमारे पास क्या-क्या नहीं है. तो जो गैप है, उसे पहचान करके दूर करने की कोशिश कर रहा हूं ताकि बच्चों को उसका पूरा फायदा मिले. हम पाली भाषा को भी बढ़ावा देने की कोशिश में लगे हैं. कई ब्यूरोक्रेट्स रिटायरमेंट के बाद राजनीति में आ जाते हैं. क्या आपने राजनीति में आने की सोची है? – मेरा मकसद समाज की सेवा करना है ना कि राजनीति में आना. अभी तक मैने राजनीति से बाहर रह कर अच्छा काम किया है. मैं आज भी यह सोचता हूं कि मैं राजनीति से बाहर रह कर समाज के लिए ज्यादा बेहतर काम कर सकता हूं. आपकी किन चीजों में रुचि है? – मैं लिखने के बारे में सोच रहा हूं. लेकिन पढ़ने का मुझे बहुत शौक है. मेरे घर पर और ऑफिस में दोनों जगह लाइब्रेरी है. आज भी बाबा साहेब को पढ़ता रहता हूं. लेकिन इतना कष्ट है कि मुझे समाज के लिए जितना करना चाहिए था लगता है कि मैं उतना कर नहीं पाया. यही जो टिस है वो मुझे और ज्यादा काम करने के लिए प्रेरित करती है. जिंदगी निकलती जा रही है. मगर काम करने को लेकर मेरी भूख बनी हुई है. क्या आपको कोई पुरस्कार भी मिला है? समाज के लोगों द्वारा मिली सराहना ही मेरे लिए पुरस्कार है. जब समाज के लोग आकर मिलते हैं और यह बताते हैं कि मैने विभिन्न पदों पर रहते हुए समाज के लिए, उनके लिए कुछ अच्छा किया. जब समाज के लोग इज्जत देते हैं तो अच्छा लगता है. यही मेरे लिए सच्चा पुरस्कार है. एक ब्यूरोक्रेट्स का जीवन तमाम लोगों से घिरा हुआ होता है. आपके करियर की ऐसी कौन सी घटना है, जिसने आपको प्रभावित किया हो और जिसे आप याद रखना चाहते हैं? – जब कानपुर में मैं स्लम एरिया का चेयरमैन था तो एक बस्ती में लोग बहुत बुरी हालत में रहते थे. कोई बुनियादी व्यवस्था तक नहीं थी. मैने उनके लिए पीने के साफ पानी, सड़क एवं सफाई, उनके बच्चों के लिए शिक्षा आदि की व्यवस्था कराई. मैने उनके लिए सरकार द्वारा प्रायोजित रोजगार कार्यक्रमों के माध्यम से मदद किया. उन्हें बताया कि शराब पीना गलत है, इसे छोड़ दो. इस प्रकार जो बस्ती एक स्लम एरिया थी मैने उसे दो साल में आदर्श कालोनी बना दिया. तभी मुझमें यह विश्वास आया कि जब एक कालोनी आदर्श बन सकती है, तो पूरा समाज बन सकता है. बस उनके बीच काम करने की जरूरत है. लोग सुनते हैं और रेस्पांस देते हैं. व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कौन सा वक्त आपके लिए मुश्किल औऱ चुनौती वाला रहा? – जो मुझे याद आ रहा है तो 30 साल के नौकरीपेशा पीरियड में सबसे बड़ी चुनौती 96 में आई. तब सभी आईएएस ने एजीएम की बैठक में 530 आईएएस में से सर्वसम्मति से मुझे जनरल सेक्रेट्री सेलेक्ट कर लिया. यूपी या फिर पूरे देश की ब्यूरोक्रेसी में मैं पहला शिड्यूल कॉस्ट आईएएस था जिसे आईएएस की इतनी बड़ी बॉडी ने जनरल सेक्रेट्री नियुक्त किया था. उसके बाद मुद्दा यह उठा कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगे. (मुझे बताते हैं कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा नुकसान हमारे समाज (दलित) को होता है). तो उसमे फिर एक्जीक्यूटिव बॉडी ने तय किया कि वोटिंग डाली जाए और उसके जरिए यूपी के तीन महाभ्रष्ट आईएएस को चुना जाए. वो बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैने उसे आगे बढ़ाया. उस वक्त मेरे पास दुनिया भर के दबाव आएं. उस दौरान 2-3 साल मुझे कितनी टेंशन रही यह मुझे ही मालूम है. मैं बहुत दबाव में रहा. हालांकि फिर इसकी बहुत चर्चा भी हुई और उसी वक्त मेरा नाम भी काफी चर्चा में रहा. मेरे साथ एक दूसरी घटना बचपन में घटी. मुझे याद है कि 66-67 में मेरे मां-बाप ने एक एकड़ जमीन बटाई पर ली थी. जुलाई या फिर अगस्त का महीना था. बहुत गर्मी और उमस थी. मां ने कहा कि पास वाले कुंए से पानी लेकर आओ. मैंने पास के ही मंदिर के एक कुएं से पानी खींच लिया. तभी एक आदमी भागा-भागा आया. वह पुजारी था. उसने कहा कि तुम तो शिड्यूल कास्ट हो तो तुमने कैसे पानी निकाल लिया और उसने मेरी पिटाई करनी शुरू कर दी. मैने पूछा कि मुझे क्यों मार रहे हो तो उसने कहा कि तुम छोटी जाति से हो और यहां से पानी नहीं निकाल सकते. जब वह मुझे मारता रहा तो मुझे भी गुस्सा आ गया फिर मैने भी पानी की बाल्टी उठाकर उसके सर पे मार दी. वह वहीं बेहोश हो गया. फिर गांव में पंचायत हुई और समझौता हुआ. उस वक्त मैने महसूस किया कि जाति की जो पीड़ा है, जो दुख है, वह कितना बड़ा है. आपके सपने क्या हैं? – मैं गुरुग्रंथ साहब के दर्शन पर बहुत ज्यादा विश्वास करता हूं. उसमें कहा गया है कि ‘नानक साचक आइए, सच होवे तो सच पाइये’. यानि कि अगर आप सच पर चलते रहिए तो जीत निश्चित ही आपकी ही होगी. मैं इस पर काफी विश्वास करता हूं. हमारे समाज को सच्चाई नहीं मिली. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है. वह यह है कि हमारा समाज जिस चीज का हकदार था उसे वह नहीं मिला. बावजूद इसके अगर हम सच पर चलेंगे तो एक दिन जीत हमारी होगी. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है और इसको कैसे ठीक किया जाए. यह मेरा एक्शन प्लान है.
इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप दलित मत.कॉम से 09711666056 पर संपर्क कर सकते हैं. अगर आप कुलपति एस.आर लाखा तक कोई संदेश देना चाहते हैं तो हमें ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.

जेएनयू जैसी जगहों पर भी दबाए जाते हैं दलित- प्रो. काले

महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव से निकल कर कुलपति पद तक के अपने सफर को आप कैसे देखते हैं? – जब इस सफर को याद करता हूं तो सबसे पहले अपनी गरीबी याद आती है. आप तो जानते हैं कि गांव से निकलने वाले लोग कितने गरीब होते हैं. इस गरीबी में भी जो जाति है वो ज्यादा मायने रखती है. बहुत छोटा सा गांव था. मां-बाप मजदूर थे. खेती-बाड़ी कुछ नहीं थी. तो गुजारा बस जैसे-तैसे होता था. मराठी में एक कहावत कहते हैं कि ‘हाथ पे पेट’ होना. यानि की जब कमाना है, तभी खाना है. कुछ ऐसा ही हाल था. महाराष्ट्रा मे शिक्षा के प्रसार का दौर था. बाबा साहेब के कारण यह पूरे प्रदेश में खूब फैल रहा था. लेकिन बीड जिले का मेरा जो इलाका था, वो काफी पिछड़ा था. वहां अंबेडकर के शिक्षा का संदेश देर से पहुंचा. मेरे नाना कारपेंटर थे जिस कारण उनका लोगों में उठना-बैठना था. वहां एक पुलिस स्टेशन था. वहां पर निजाम के मुसलमान आया करते थे. उनसे मेरे नाना का संपर्क होता था. उनसे बातचीत से उनको पता चला कि शिक्षा का बहुत महत्व है. हालांकि वो बहुत ज्यादा दिन तक जिंदा नहीं रहें लेकिन उन्होंने मेरी नानी से कहा था कि हमें हमारे बच्चों को पढ़ाना है. नानी ने मेरी मां को पढ़ाया. फिर मुझे शिक्षा का मैसेज मेरी मां के माध्यम से मिला. तब तक बाबा साहब का भी प्रचार-प्रसार काफी फैलने लगा था. जब मैं तीसरी में था तो हमारे गांव के टीचर गुजर गए. कई दिनों तक उनके बदले में कोई दूसरा टीचर नहीं आया. हमारे स्कूल का प्रशासन जरा दूरी पर मौजूद एक स्कूल के अंडर में आता था. हम कुछ दोस्त हर सप्ताह वहां जाकर अपने स्कूल में शिक्षक को भेजने के लिए कहने लगे. हमने उन्हें बताया कि हमें पढ़ने मे दिक्कत हो रही है. समय बर्बाद हो रहा है. तब पढ़ाई में मेरा मन लगने लगा था. तीन-चार सप्ताह लगातार जाने के बाद जब मैं फिर दूसरे स्कूल के शिक्षक के पास पहुंचा तो उन्होंने पूछा कि क्या तुम पढ़ने के लिए इस स्कूल में नहीं आ सकते. मुझे पढ़ना था तो फिर मैने हामी भर दी. मैने घर आकर मां से कहा कि मुझे दूसरे गांव जाना है. टीचर ने बुलाया है. वहीं पढ़ना है. कुछ दिन बाद मैं उन शिक्षक के पास पहुंच गया. हालांकि कहां रहना है, क्या खाना है, मुझे इसकी तनिक भी जानकारी नहीं थी. मैं सीधे स्कूल मे उन शिक्षक के पास धमक गया. शाम को स्कूल खत्म हुआ तो वह मुझे अपने घर ले आएं. उनका नाम श्रीरंग सावले था. वो भी दलित थे. उन्होंने मुझे दो साल तक अपने पास रखा. जब मैं चौथी में पास हो गया तो उन्होंने मुझे जिले में जाकर पढ़ने की सलाह दी. तब हरिजन शिक्षा सेवा संघ वाले अपना हॉस्टल चलाते थे. सरकारी ग्रांट पर. मैं वहां चला गया. दो साल तक रहा. तीसरे साल मुझे हॉस्टल से निकाल दिया गया. कहा गया कि मैं गुंडा हूं, पढ़ाई नहीं करता. जबकि मैं पढ़ाई में बहुत आगे था और क्लास का मॉनीटर भी था. लेकिन हर कदम पर संघर्ष करते हुए मैने अपनी पढ़ाई जारी रखी. एक-एक कदम बढ़ाते हुए जेएनयू पहुंचा. दो दशक तक यहां विभिन्न रूपों में सक्रिय रहा. फिर सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात की जिम्मेदारी मिली. तो इस तरह जिंदगी काफी संघर्ष भरी रही. आपको हॉस्टल से क्यों निकाल दिया गया. इसके बाद की आपकी पढ़ाई कैसे जारी रह पाई? असल में मामला यह था कि वहां के वार्डन बहुत बदमाश थे. वे साल में एक-दो महीने के लिए हॉस्टल बंद कर देते थे. तब सबको हॉस्टल छोड़कर जाना पड़ता था. इस तरह वह दो महीने में खर्च होने वाले पैसे बचा लेते थे. ऐसे ही एक बार हॉस्टल बंद हुआ तो हम तमाम लड़के कलेक्टर के घर शिकायत लेकर पहुंचे. हमने बताया कि वार्डन करप्ट है. इसके बाद कलेक्टर ने एक दिन हमारे स्कूल में औचक निरीक्षण (surprise visit) किया. इत्तेफाक से मैं उस दिन स्कूल नहीं गया था. हालांकि मैने प्रिंसिपल से छुट्टी ले रखी थी. लेकिन बावजूद इसके, वार्डन ने पांच और लड़कों के साथ मुझे हॉस्टल से निकाल दिया. मैं हैरान रह गया कि आखिर मुझे कैसे निकाला जा सकता है. क्योंकि मेरी हाजिरी भी पूरी होती थी और मैं पढ़ने में भी काफी बेहतर था. यह मेरी जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. मुझे हॉस्टल छोड़ना पड़ा. यहां तक कि मेरा बस्ता भी वहां किसी के पास नहीं रखने दिया गया. तब मैने बस्ते से अपना नाम हटाकर एक दोस्त के पास रखा. रहने का कोई ठिकाना नहीं था. जान-पहचान का कोई था नहीं, जिससे मदद मांगू. जेब में पैसे भी नहीं थे. तब मैने एक हनुमान मंदिर में शरण ली. तब मैं सातवीं में था. कोई 13-14 साल उम्र थी मेरी. मंदिर में बैठे-बैठे मैं सोच रहा था कि अब क्या किया जाए. मेरे पास कुछ भी नहीं था. दिन तो स्कूल में कट जाता, दिक्कत रात की थी. तकरीबन तीन-चार महीने तक मैं कभी बस स्टैंड, कभी हॉस्पिटल तो कभी मंदिर में सोता रहा. पुलिस वाले रात को परेशान करते तो कोई बहाना बनाना पड़ता. मैं बहुत परेशान था लेकिन मैने मन ही मन तय कर लिया था कि मैं इन लोगों से लड़ूंगा. वार्डन साल के बीस रुपये लेते थे. हॉस्टल एडमिशन चार्ज जो नियमानुसार वापस होना चाहिए था. मेरे तीन साल के 60 रुपये हो गए थे. मैने इसी मुद्दे को लेकर लड़ने का फैसला किया. हमने वार्डन से कहा कि हमारे पैसे लौटा दो. इसी दौरान मैने अंदर-अंदर यह भी मन बना लिया था कि मैं आगे की पढ़ाई के लिए औरंगाबाद जाऊंगा. इसी बीच वार्डन से हम छात्रों की लड़ाई हो गई. खिंचतान में हमारे कपड़े फट गए. हम सभी छात्र इसी हालत में सीईओ के पास चले गए. सीईओ ने हमें ही डांटना शुरू कर दिया कि तुम लोग पढ़ते नहीं हो हंगामा करते हो. मैने विरोध किया. तब मेरे पास मेरी मार्क्स शीट थी. मैने उन्हें दिखाया. मेरे नंबर देखकर वो भौचक रह गए. उन्होंने हमें भेज दिया और मामले को देखने का आश्वासन दिया. कुछ दिनों बाद वार्डन को सस्पेंड कर दिया गया. फिर मैंने अपने एक दोस्त से पांच रुपये उधार लिया और आगे की पढ़ाई के लिए औरंगाबाद चला आया. मराठवाड़ा विश्वविद्यायल के नामांतरण को लेकर काफी आंदोलन हुआ था. क्या उस आंदोलन में आपकी कोई भूमिका थी? नहीं, तब मैं दिल्ली में था. मैने 1976 में औरंगाबाद छोड़ दिया था. तो मैने प्रत्यक्ष संघर्ष को तो नहीं देखा लेकिन मुझे हर बात की खबर मिलती रहती थी कि वहां किस तरह आंदोलन को दबाने के लिए लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है. विज्ञान की दुनिया एक अलग दुनिया होती है, आप उसी से जुड़े रहे हैं. वहां से निकल कर एक विश्वविद्यालय के प्रशासन को संभालने में दिक्कत नहीं हुई? -ऐसा नहीं है कि साइंस की दुनिया लोगों से अलग है. बल्कि विज्ञान की दुनिया तो लोगों के और करीब है. हमलोग सोशल मूवमेंट से आए हुए लोग हैं. हमेशा सोसाइटी में रहे हैं. महाराष्ट्र में जितने भी सोशल मूवमेंट हुए हैं, प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रूप से मैं हमेशा उसका हिस्सा रहा हूं. आपके जीवन में सबसे ज्यादा निराशा का वक्त कौन सा रहा? – देखिए, वैसे तो पूरा जीवन ही निराशा भरा रहा है. दलित समुदाय से जुड़े होने के कारण जीवन में तमाम वक्त पर निराशा का सामना करना पड़ता है. आपको हर स्टेज पर अग्नि परीक्षा देनी होती है. ऐसा कोई दिन नहीं होता है, जब सिस्टम आपको अग्निपरीक्षा देने के लिए मजबूर नहीं करता. मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि आपको हर मौके पर भेदभाव का सामना करना पड़ा. जेएनयू में भी आपके साथ भेदभाव हुआ? – बिल्कुल. जेएनयू कोई अलग थोड़े ही है. ऐसा थोड़े ही है कि जेएनयू में दलितों को दबाया नहीं जाता. बस हर जगह का अपना तरीका होता है. आप आईएएस में देख लिजिए. आप राजनीति में देख लिजिए. दलितों को हमेशा सोशल जस्टिस मिनिस्ट्री ही क्यों दी जाती है. उनको होम मिनिस्ट्री क्यों नहीं दी जाती है. कोई अपवाद आ गया तो बात अलग है. जहां तक जेएनयू की बात है तो यह अन्य जगहों से ठीक है. लेकिन यहां भी दिक्कते हैं. जैसे जेएनयू के एडमिशन टेस्ट में मुझे अच्छे नंबर मिले थे लेकिन मुझे आखिरी में रखा गया. मेरा स्कोर अच्छा रहा लेकिन मुझे जितना अच्छा सुपरवाइजर मिलना चाहिए, नहीं मिला. जब हम टीचर बने तो हमें जल्दी लैब नहीं मिली. तो ऐसा नहीं है कि यहां भेदभाव नहीं होता. जैसे मैं आपको जेएनयू की एक घटना बताता हूं. तब 77 के बाद चर्चा हो रही थी कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा. तीन नाम थे. जगजीवन राम और मोरार जी के साथ एक-दो और लोगों का नाम आ रहा था. ज्यादातर लोगों का मानना था कि जगजीवन राम सबसे बेहतर हैं लेकिन वहीं जेएनयू के एक तेजतर्रात स्टूडेंट का कहना था कि जगजीवन राम को हम प्रधानमंत्री के रूप में कैसे स्वीकार कर सकते हैं, वो ‘चमार’ हैं. यह पेरियार के सामने रात के वक्त की चर्चा थी. तो लोगों का मेंटल सेटअप हरेक जगह आ जाता है. तो किसी न किसी रूप में लोगों का यह एटिट्यूड सामने आ जाता है. जैसे अगर आप आईएएस बनेंगे तो आपको कहीं दूर फेंक देंगे. पॉलिटिक्स में हैं तो अच्छी मिनिस्ट्री नहीं देंगे. तो यह हर क्षेत्र में है. आपने अभी जातिवाद की बात की थी हर जगह ऐसा होता है. लेकिन जेएनयू के बारे में माना जाता है कि अच्छी जगह है, बड़ी जगह है, लोग पढ़े-लिखे समझदार हैं. लेकिन जब आपको यहां भी भेदभाव का सामना करना पड़ा तो वह आपके लिए कैसी स्थिति थी? – मैं इसको लेकर कभी निराश नहीं हुआ. मुझे पता था कि यह समाज की सच्चाई है और मुझे इसका सामना करना है. हालांकि जेएनयू में अच्छे लोग भी बहुत हैं जो चीजों को समझते हैं. जैसे रमेश राव (लाइफ साइंस) जी मेरे सुपरवाइजर थे. वो बहुत अच्छे व्यक्ति थे. वाइस चांसलर मिस्टर नायडूमा, वो भी बहुत अच्छे थे. तो जो मैं राव साहब की बात कर रहा था, वो हमेशा हौंसला बढ़ाते थे. कहते थे कि पढ़ना चाहिए. अच्छा करना है. तो मेरे कहने का मतलब है कि दोनों तरह के लोग हैं. अपने संघर्ष के दिनों को आप कैसे याद करते हैं? – संघर्ष से मुझे कभी परहेज नहीं रहा. ना ही शिकायत रही. बल्कि मैने हमेशा सोचा कि मुझे खुद को साबित करना है. मुझे लोगों को दिखाना है कि जैसा वो हमारे बारे में सोचते हैं कि हम कुछ कर नहीं सकते, तो उनकी सोच गलत है. हर किसी की जिंदगी में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो उनकी मदद करते हैं, उन्हें प्रभावित करते हैं. आपकी जिंदगी में यह रोल किसका था? – सबसे पहले बाबा साहेब, फिर मां-बाप, प्रो. रमेश राव, इसके बाद मेरी पत्नी रेखा हैं. वो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में साइंटिस्ट हैं. वो हमेशा मेरे पीछे रही हैं. मेरे बचपन के शिक्षक सावले साहब हैं, जिन्होंने मुझे दो साल तक अपने साथ रखा. जेएनयू के वातावरण का भी अपना अहम रोल है. मैने जो पहले कहा वह एक अलग पहलू है लेकिन जेएनयू एक ऐसी जगह है जहां आदमी खुद भी सीख सकता है और प्रेरणा ले सकता है. दूसरे लोगों की सफलता और असफलता से भी सीखने की कोशिश करता हूं. आप जेएनयू में वार्डन भी रहे, चीफ प्राक्टर रहे, डीन रहे, कुलपति की अनुपस्थिति में यह पद भी संभाला. तकरीबन दो दशक में आपने युवा वर्ग को करीब से देखा है. इस वक्त में आपने युवा को कितना बदलते देखा है? – मैं 76 से यूथ के साथ हूं. उन्हें देख रहा हूं. तब उनमें सोशल वैल्यू था. उनमें अपने लिए करते-करते सोसाइटी के लिए भी काम करने की इच्छा रहती थी. वो समाज का दुख समझते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. उनमें बदलाव आ रहा है. वह खुद में केंद्रित होते जा रहे हैं. ज्ञान को भी बहुत महत्व नहीं दे रहे हैं. वह तेज भागना चाहते हैं लेकिन खुद का रास्ता नहीं बना रहे हैं. तो ऐसा है. बाकी सोसाइटी बदलती है तो हर जगह बदलाव आता है. अब आप जेएनयू को ही देखिए. कितनी प्रोग्रेसिव यूनिवर्सिटी है लेकिन रिजर्वेशन पर यहां भी हंगामा हुआ. तो सोशल कमिटमेंट कम हो गया है. कैंसर एंड रेडिएशन बॉयलोजी पर आपका काफी रिसर्च रहा है. अपनी प्रतिभा से आपने समाज को बहुत कुछ दिया है. आपका काम किस तरह का था? – मेरा एमएससी न्यूक्लियर कमेस्ट्री में था. इसके चलते मुझे रेडिएशन की केमेस्ट्री के बारे में पता था. लेकिन बायलोजिकल इफेक्ट पता नहीं था. मुझे इसमें इंट्रेस्ट था कि बायलोजिकल इफेक्ट देखना चाहिए. बाद में नागाशाकी का देखा जो काफी विध्वंसक था. तो बायलोजिकल इफेक्ट देखने की इच्छा थी. इसलिए मैं यहां आया. हमने इस पर काम किया कि रेडिएशन से जो डैमेज होता है, वह किस तरह का होता है. इसको कैसे कम किया जा सकता है या फिर इससे कैसे बचा जा सकता है. जिस रेडिएशन से कैंसर पैदा होता है, उसका ट्रिटमेंट भी उसी से होता है. जैसे नार्मल सेल कैंसर बन जाती है. फिर कैंसर को रेडिएशन देकर kill (खत्म) भी किया जा सकता है. ये दोनों अलग-अलग हैं. मुझे इसके बारे में जानने में काफी दिलचस्पी थी. तो मैने दोनों चीजें देखी कि रेडिएशन का बॉयलोजिकल इफेक्ट क्या है और रेडिएशन से क्या किया जा सकता है. उसमें कुछ बहुत नुकसान है. इसे कम कर के कैसे फायदेमंद किया जा सकता है. इसके बारे में मैने नया सुझाव दिया था जिसके लिए मुझे नेशनल अवार्ड मिला था. 96 में आईसीएमआर अवार्ड था. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च. तो मैने रेडिएशन का मैकेनिज्म जानने की कोशिश की थी कि कैसे यह रेडिएशन कैंसर पैदा भी करता है और खत्म भी करता है. आपने जो काम किया क्या उसका लोगों को कोई फायदा मिल पाया. क्या वो आगे बढ़ पाया? – हमारा काम तो लेबोरेटरी वर्क होता है. हर चीज के बारे में विश्व स्तर पर रिसर्च होता है. जैसे कैंसर में जितना एक महीने में शोधपत्र छपता है, अगर बैठ कर पढ़ा जाए तो तीन महीने लग जाएंगे. तो ये बहुत बड़े पैमाने पर होता है. उसी में थोड़ा योगदान मेरा भी है. इसमें ऐसा होता है कि जो रिसर्च हो चुकी होती है, उससे आगे की चीजें ढ़ूंढ़ी जाती है. अभी कैंसर के इलाज में मरीज को काफी खर्च आता है. लेकिन रेडिएशन थेरेपी के तहत कम खर्च में कैंसर का इलाज किया जा सकता है. अब तक आपके कितने शोध पत्र (रिसर्च पेपर) प्रकाशित हो चुके हैं? – सौ पेपर प्रकाशित हो चुके हैं. केमेस्ट्री, कैंसर और रेडिएशन बॉयोलाजी पर. जब भी किसी के हाथ में प्रशासन की बागडौर आती है. वो उसे अपने हिसाब से ढ़ालना चाहता है. आप सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात के पहले वाइस चांसलर (कुलपति) हैं. आप इसे किस तरीके से स्थापित करना चाहते हैं? – कोई भी यूनिवर्सिटी सामाजिक बदलाव का हथियार है. मैं इसे ऐसे ही देखता हूं. यूनिवर्सिटी नेशनल डेवलपमेंट में अपना योगदान देते हैं. यहां अच्छे स्टूडेंट तैयार करना हमारी जिम्मेदारी है. उन्हें सोशल इक्वैलिटी की बात सिखाना. एक नए कल के लिए तैयार करने का काम होता है. एक नया कल्चर डेवलप करने की कोशिश कर रहे हैं. और इस मिशन के दौरान कोई छोटा-बड़ा नहीं है. मैं टीमवर्क के तहत काम करने पर भरोसा करता हूं. टीम में हर मेंबर का अपना रोल होता है. अगर हर कोई अपना काम नहीं करेगा तो टीम हार भी सकती है. चाहे वो चपरासी ही क्यों न हो, उसका भी एक रोल होता है. आपने 3 मार्च 2009 को कुलपति का पद संभाला था. अब दो साल हो गए हैं. इन दो सालों में आपने क्या किया है. अभी वहां कितने स्टूडेंट हैं? – मैने इसे तीन विषयों के साथ शुरू किया था. पहले साल में 25 विद्यार्थी थे. दूसरे साल सात और विषयों को शुरु किया. इस तरह फिलहाल दस कोर्स में 150 स्टूडेंट हो गए हैं. हम जल्दी ही 8-10 नए विषय शुरू करने जा रहे है. तो सारी संख्या मिलाकर तकरीबन 400 स्टूडेंट हो जाएंगे. मेरे लिए खुद कहना तो अच्छा नहीं होगा लेकिन हम अपने स्टूडेंट को क्वालिटी एजूकेशन दे रहे हैं. हमारा जोर रिसर्च पर काफी अधिक है. मैं यह गर्व से कह सकता हूं कि हमारी यूनिवर्सिटी देश की ऐसी पहली यूनिवर्सिटी है, जहां मैने ‘एम.ए इन सोशल मैनेजमेंट’ नाम का कोर्स शुरू किया है. अभी तक यह कोर्स किसी विश्वविद्यालय में नहीं है. जबकि आज के वक्त में इसकी बहुत जरूरत है. सरकार जो डीजीपी ग्रोथ की बात कह रही है और सोशल सेक्टर में इतना पैसा डाल रही है. लेकिन उसके पास इसके लिए प्लानिंग करना, पॉलिसी डिजायन करना और विश्लेषण के लिए उतने लोग नहीं है. इसको ध्यान में रखते हुए हमने एम.ए इन सोशल मैनेजमेंट का यह कोर्स शुरू किया है. यह पांच साल का कोर्स है. इसके कोर्स के लिए हम बारहवीं क्लास में दाखिला देते हैं. इसमें 40 फीसदी फील्ड वर्क है. जैसे नरेगा है, तो स्टूडेंट गांव में जाकर हर चीज को देखते हैं कि कैसे, क्या काम हो रहा है. इस दौरान वह गांव वालों के साथ ही रहते हैं. खाते-पीते हैं. यह कोर्स काफी पॉपुलर हो रहा है. विश्वविद्यालय को लेकर आपकी भविष्य की क्या योजना है? – सोशल कमिटमेंट के साथ मैं इसे सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बनाना चाहता हूं. सामाजिक बराबरी के साथ मैं बेहतर शिक्षा में विश्वास करता हूं. हमें Quality Education देना है. Equity and Equality सिखाना है. ये चार-पांच बातें मैने तय की है. आप शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. आप अपने स्टूडेंट को क्या मैसेज देते हैं? – मैं अपने स्टूडेंट से बहुत खुलकर बात करता हूं. मैं उन्हें कहता हूं कि पढ़ाई के बाद नौकरी तो ठीक है. अपने ग्रोथ के लिए यह जरूरी भी है. लेकिन मैं उन्हें हमेशा कहता हूं कि वो सोसाइटी के पार्ट हैं और उन्हें सोसाइटी से जो मिला है, उन्हें उसे वापस करना चाहिए. आप जहां रहो, जिस स्थिति में रहो, आपको चार लोगों का भला करना है. जैसे कोई शिक्षक है तो वह अच्छे स्टूडेंट तैयार करे. तो हमेशा जोर देता हूं कि सोसाइटी को पे-बैक करना जरूरी है. सपना क्या है आपका? – (पहले मना करते हैं कि कोई सपना नहीं है. दुबारा पूछने पर उनके चेहरे पर पीड़ा झलक जाती है) मैने ज्यादा सपने टूटते हुए देखे हैं. मैं अपने स्टूडेंट से भी कहता हूं कि आप सपने देखिए लेकिन यह भी याद रखिए की उसके टूटने की संभावना भी बहुत है. वैसे अपनी सोसाइटी के लिए ज्यादा से ज्यादा काम कर सकूं यही सपना है. आप इतने गरीब परिवार से निकले. फिर कुलपति बनें. तो इतनी सारी सफलताओं के बावजूद वो कौन सी चीज है जो आपको आज भी बहुत परेशान करती है? – कॉस्ट सिस्टम। लोगों का माइंटसेट अब भी चेंज नहीं रहा है. लोग कॉपीराइट समझते हैं. खुद को विशिष्ट समझते हैं. हमेशा रिजर्वेशन की बात कर के यह साबित करना चाहते हैं कि हमारे में मेरिट नहीं है. ये बातें मुझे बहुत परेशान करती हैं. सदियों के संघर्ष के बाद आज दलित समाज आगे बढ़ना शुरू हुआ है. लोग अच्छे पदों पर पहुंचने लगे हैं. लेकिन इसके पीछे समाज के सालों का संघर्ष है. तो समाज के इस कर्ज को आप कैसे चुकाएंगे? – सोसाइटी के कर्ज उतारने की बात है तो आप प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इसके लिए काम करते हैं. जैसे अगर आप पढ़-लिख कर आगे बढ़ते हैं तो सोसाइटी के अन्य लोग भी यह सोचते हैं कि उन्हें भी आगे बढ़ना है. आप जिस पद पर हैं, अगर आप अपनी ड्यूटी ठीक ढ़ंग से करते हैं तो कई लोगों को अपने आप फायदा हो जाता है. अगर कोई हमारे पास आकर सीधे मदद मांगता है तो भी हम उसका सही मार्गदर्शन करते हैं. तो हम तीन तरीके से समाज का कर्ज चुका सकते हैं. इनडायरेक्ट, पार्ट ऑफ द ड्यूटी और डिफरेंस ऑफ द ड्यूटी ये तीनों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है. आपका अतीत बहुत गरीबी का रहा है. मजदूर परिवार का रहा हैं. आप भूखे रहें, बिना छत रातें गुजारी. फिर जब आपको सफलता मिली तो क्या आपके मां-बाप आपकी सफलता देख पाएं? – दुर्भाग्य से जैसे ही सुख के दिन शुरू हुए, मां चल बसी. मां यह सब नहीं देख पाईं. पिताजी ने देखा लेकिन वो हमेशा गांव रहते थे. अपनी दुनिया में रहते थे. तो मैं कितना सफल हूं इस बात को वह समझ नहीं पाते थे लेकिन उन्हें इतना पता था कि मैं पढ़ा-लिखा हूं. उन्हें ये काफी अच्छा लगता था. वो खुश थे. (मां-बाप को याद करते हुए कहते हैं) उन्होंने मेरी पढ़ाई में कभी भी अपनी गरीबी आड़े नहीं आने दी. मुझसे कभी नहीं कहा कि पढ़ाई छोड़ दो और कोई काम पकड़ लो. तो उन्हें हमेशा अच्छा लगता था कि मैं पढ़ा-लिखा हूं. वो हमेशा दूसरों की मदद करने को कहते रहें. आपने काफी विदेश दौरे भी किए हैं. घोर गरीबी से निकल कर विदेशों तक पहुंचने का अनुभव कैसा था? – इसके दो-तीन तरह के अनुभव हैं. पहली बार ब्रिटेन गया. फिर कनाडा गया. जापान में भी गया. अमेरिका गया तो वहां देखा की वहां कि सोसाइटी में कोई छोटा-बड़ा नहीं है. हमारे यहां जब भी कोई एक आदमी दूसरे को देखता है तो यह सोचता है कि सामने वाला मुझसे बड़ा आदमी है या फिर छोटा आदमी है. हम एक-दूसरे से बातें नहीं करते. वहां ये सब नहीं होता. जर्मनी यात्रा की एक घटना याद आती है. मैं अकेले खड़ा था. बिना जान-पहचान के लोग खुद आकर गुड मार्निंग कहते थे. मुझे कहीं जाना था, तो कार स्टार्ट नहीं हो रही थी. वहां के प्रोफेसर लोगों ने खुद कार को धक्का दिया. तो मुझे वहां की मानवीयता बहुत पसंद आई थी. कोई इंसान छोटा-बड़ा नहीं था. एक जगह कॉकटेल पार्टी में गया. वहां तमाम देशों के साइंटिस्ट थे. मैं अकेले खड़ा था. तभी एक साइंटिस्ट ने महसूस किया कि मैं अकेला हूं तो वो मेरे पास आ गया. जहां और लोग बैठे थे, वो मुझे वहां लेकर गया और फिर सबने मुझसे बातचीत शुरू कर दी. कनाडा का अनुभव अलग था. वहां के लोग सबके साथ घुलते-मिलते थे लेकिन वहां जो इंडियन लोग थे, जो बस गए थे. वो अपनी जाति के साथ गए हैं, अपनी भाषा के साथ गए हैं. जब तक उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती वो साथ नहीं आते. उदाहरण के लिए कई बार विदेशों में बसे लोगों को जब उनके बच्चों की शादियां करनी थी तो लोगों ने मुझसे कहा कि सर आप टीचर हैं, कोई अच्छा सा लड़का देख लिजिए. मैं पूछता था कि कैसा लड़का चाहिए तो उनकी सबसे पहली मांग होती थी कि लड़का या लड़की उनकी जाति का होना चाहिए. मतलब देश छोड़ने के बाद भी उनकी मानसिकता नहीं बदली. जहां तक भेदभाव की बात है तो अगर सवर्ण समुदाय का कोई व्यक्ति किसी दलित के साथ एक टेबल पर खाना खाता है, तो जातीय भेदभाव खत्म हो गया, ऐसा नहीं है. क्योंकि उनके दिमाग से यह बात नहीं निकलती. विदेशों में भी दलितों का गुरुद्वारा अलग है. आपकी जिंदगी में सबसे खुशी का वक्त कौन सा था. सबसे ज्यादा दुख कब हुआ? – मेरे लिए इसका जवाब देना मुश्किल होगा. फिर भी जहां तक दुख की बात है तो मैने पहले ही कहा कि दलितों को हर वक्त अग्निपरीक्षा देनी होती है. सामने वाले को जैसे ही आपकी जाति का पता चलेगा, वो आपकी प्रतिभा और योग्यता पर शक करना शुरू कर देगा. सबसे अधिक खुशी तब हुई थी जब मेरी बड़ी बेटी अमेरिका गई थी और उसने मुझे वहां से फोन किया. मुझे याद है, उसने फोन पर कहा था ‘’पापा मैं इस वक्त दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश से बोल रही हूं’’. ऐसे में गुजरा हुआ वक्त याद आ जाता है. कहां से शुरुआत की थी. बच्चे कहां पहुंच गए. तो मेरी जिंदगी ऐसी ही खट्टी-मिठ्ठी है. अगर आपको यह अधिकार दे दिया जाए कि आपको कोई एक काम करने की पूरी छूट है, तो आप क्या बदलना चाहेंगे? – तब मैं कॉस्ट सिस्टम को खत्म करना चाहूंगा. दलित समाज के लोगों के लिए तो यह अभिशाप है हीं, यह हमारे देश को भी पीछे ले जा रहा है. जब मैं उच्च शिक्षा की बात करता हूं तो मैं तीन देशों के उदाहरण देता हूं. अमेरिका, चीन और जापान. अमेरिका जब स्वतंत्र हो गया तो उसे आगे बढ़ने में कई साल लगें. लेकिन वो नंबर वन हो गया. इसमें उच्च शिक्षा का बहुत बड़ा कंट्रीब्यूशन है. पीएचडी की डिग्री लेने वाले पहले अमेरिकी नागरिक ने अमेरिकन यूनिवर्सिटी से डिग्री नहीं ली थी बल्कि उसने जर्मन यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री ली थी. अमेरिका ने पढ़ाई के मामले में जर्मनी का खूब फायदा लिया. अमेरिकी ने अपने कई विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के लिए जर्मनी भेजा. हम और जापान साथ-साथ चलें. 1945 में वहां लड़ाई खत्म हो गई. हम 1947 में आजाद हुए. दोनों ने साथ-साथ अपने विकास की यात्रा शुरू की. हम कई मामलों में उनसे आगे थे. हमारे पास जमीन थी, उनके पास नहीं थी. हमारे पास प्रकृति का सहारा था, उनके पास वो भी नहीं था. जनसंख्या के मामले में भी हम साथ थे लेकिन जापान आज विकसित देश है. हम अभी यह सोच रहे हैं कि हम 2030 में बनेंगे तो 2040 में बनेंगे. लेकिन आप यह सोचिए की भारत विकसित देश क्यों नहीं बना? जब हम इस बात का विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि जापान ने अपनी जनसंख्या को अपनी संपत्ति के रूप में इस्तेमाल किया. भारत ने यह नहीं किया. भारत में पूरी जनसंख्या के केवल 10-11 फीसदी लोगों को ही उच्च शिक्षा हासिल है. जापान में यह प्रतिशत 70-80 है. यूरोप में उच्च शिक्षा का प्रतिशत 45-50 है. केनेडा और अमेरिका में 80-90 फीसदी लोग उच्च शिक्षा लेते हैं. एक तथ्य यह भी है कि भारत में जो 10-11 फीसदी लोग उच्च शिक्षा हासिल करते हैं, उनमें दलितों की संख्या कितनी है? देश की पूरी आबादी का 25 फीसदी एससी/एसटी है. इनका विकास नहीं हो रहा है. देश तभी आगे बढ़ेगा जब दलितों को भी शिक्षा दी जाएगी. उन्हें आगे बढ़ाया जाएगा. 16 से 24 साल की उम्र कॉलेज की होती है. हमारे देश में इस उम्र वर्ग के केवल 10.4 फीसदी बच्चे ही कॉलेज में हैं. अगर आईआईटी जैसी जगहों पर एससी/एसटी के छात्र चले भी जाते हैं तो लोग उन्हें बर्दास्त नहीं कर पातें और डुबा देते हैं. एजूकेशन सिस्टम में दलितों के पीछे छूट जाने से देश को क्या नुकसान हो रहा है? – कभी दुनिया भर में होने वाले रिसर्च में भारत 9 फीसदी योगदान करता था. आज यह घटकर 2.3 फीसदी रह गया है. सबसे मजेदार बात यह है कि CSIR और DST जैसी जगहों पर कोई रिजर्वेशन नहीं है. अब अगर देश मे यूज होने वाली टेक्नोलाजी की बात करें तो तकरीबन सभी टेक्नोलॉजी इंपोर्टेड (आयात) है. इनमें 50 फीसदी टेक्नोलॉजी ऐसी है, जिसमें कोई बदलाव किए बगैर ज्यों का त्यों इस्तेमाल किया जाता है. बाकी 45 फीसदी टेक्नोलॉजी थोड़े से बदलाव (कॉस्मेटिक चेंज) के साथ इस्तेमाल होती है. तो इस तरह 95 फीसदी तकनीक, जिसका हम इस्तेमाल करते हैं वो इंपोर्टेड है. यानि की हम सिर्फ पांच फीसदी टेक्नोलाजी प्रोड्यूस करते हैं. (सवाल उठाते हुए कहते हैं कि) आखिर हमारे देश की प्रतिभा क्या पैदा कर रही है? आईआईटी वाले skill labour हैं. ये सब अमेरिका चले जाते हैं और फिर वहीं बस जाते हैं. इससे दोहरा नुकसान हो रहा है. इनसे अच्छे तो भारत से मजदूरी करने के लिए मिडिल ईस्ट की ओर जाने वाले मजदूर हैं. वो जितना कमाते हैं, उसका 80 फीसदी डालर देश को भेजते हैं. यूरोप में एक मीलियन पर 5-6 हजार वैज्ञानिक हैं. भारत में यह आंकड़ा 140 का है. और यह हैं कौन? (सवाल उठा कर थोड़ा रुकते हैं, फिर कहते हैं) देश आगे कैसे बढ़ेगा. देश का हित और भविष्य दलितों के हित और भविष्य में है. जब तक दलितों का विकास नहीं होगा, भारत विकसित देश नहीं बन पाएगा.
प्रो. आर.के काले ‘सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात’ के कुलपति हैं. इस इंटरव्यूह पर प्रतिक्रिया देने के लिए आप उन्हें raosahebkale@gmail.com पर मेल कर सकते हैं. ‘दलित मत’ के जरिए भी आप उन्हें कोई संदेश भेज सकते हैं. ‘दलित मत’ से संपर्क के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या फिर 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.

अभी ‘जय’ से ज्यादा ‘जागने’ की जरूरत- अनिल चमडिया

दो दशक बाद भी इस स्थिति में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है. आज भी वह आपको दिल्ली और देश के कई हिस्सों में उसी शिद्दत से अपनी बात कहते मिल जाएंगे. दलित न होते हुए भी जिन कुछ खास लोगों ने दलित हित की आवाज को मजबूती से उठाया है, अनिल चमडिया उनमें प्रमुख हैं. तकरीबन तीन दशक पहले उन्होंने लेखन और एक्टिविज्म के जरिए गैरबराबरी का जो विरोध शुरू किया था. वह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. इस लड़ाई में अतिसक्रियता के कारण उन्हें कई बार विरोध का भी सामना करना पड़ा. समाज का एक तबका उनपर स्वार्थवश दलित राग अलापने का आरोप तक लगाता है. लेकिन चमडिया इन सबसे बेपरवाह, बिना विचलित हुए अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं. वर्तमान समय में दलित आंदोलन, राजनीतिक व्यवस्था, राजनीति में दलितों की स्थिति और अंबेडकर सहित तमाम मुद्दों पर दलितमत.कॉम के आपके मित्र अशोक दास ने उनसे बातचीत की. बातचीत लंबी होने के कारण इसे दो भाग में दिया जाएगा. पेश है पहला भाग…
भाग-एक आपका जन्म कहां हुआ, किस परिवार में, शिक्षा-दीक्षा कहां हुई? – बिहार में सासाराम एक शहर है, मेरा जन्म वहां हुआ. जन्म का साल 1962 है और तिथि शायद 27 अक्तूबर है. ‘शायद’ इसलिए क्योंकि मेरे जन्म का कोई ऐसा लिखित प्रमाण नहीं है. मेरा परिवार एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार था. हालांकि अब स्थिति अच्छी हो गई है. मेरी पढ़ाई-लिखाई थोड़ी डिस्टर्ब रही. गुरुद्वारा का एक स्कूल था, हम वहीं पर जाते थे. भारती मंदिर स्कूल का नाम था. सातवी तक हम यहीं पढ़े. मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं शहर से बाहर जाकर पढ़ूं लेकिन उसी समय उनको दिल का दौरा पड़ गया. उस जमाने में यह बहुत बड़ी बीमारी थी. घर में सबसे बड़े हम ही थे, तो शहर जाना नहीं हो पाया. मेरी हाई स्कूलींग जो है, वो नहीं हो पाई. आठवीं की परीक्षा प्राइवेट दी. नौवीं में जरूर एक साल के लिए पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की. फिर मैनें बोर्ड की परीक्षा (तब ग्यारवीं में होती थी) दी. हालांकि हम अपने शहर में बहुत अधिक दिनों तक नहीं रहे. शुरू से ही विषय कार्मस था. 82 में ग्रेजुएशन पास करने के तुरंत बाद मेरा लिखना शुरू हो गया था. आपको पता होगा, तब बिहार में आरक्षण को लेकर काफी लड़ाई चल रही थी. तब हम कॉलेज में थे. हमने उसमें भागीदारी की. उसे लीड किया. हालांकि 74 के आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उम्र छोटी थी लेकिन मुझे याद है हमलोग स्टेशन पर चले आए थे, गाड़ियां रोकी थी. उसी समय एक राजनीतिक रुझान बनना शुरू हो गया था. लेकिन 82 के बाद हम शहर में नहीं रह पाएं. फिर पटना चले आएं. यहां कुछ दिनों तक सामाजिक न्याय की राजनीति से जुड़े रहे, फिर समाज में बुनियादी परिवर्तन की राजनीति से जुड़े रहे. तो ये सब काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. लेकिन लेखन और एक्टिविज्म ये शुरू से साथ-साथ चलता रहा. अपने नाम के साथ ‘चमडिया’ कब जोड़ा, इसकी क्या वजह थी? – जोड़ा नहीं, चमडिया तो हमारे परिवार में लोग लगाते हैं. इसकी क्या वजह थी हमें नहीं मालूम. यहां हम एक बात कोट कर सकते हैं, ‘प्रभाष जोशी एक संपादक थे जनसत्ता के, काफी मशहूर. उन्होंने एक बार हमारे एक दोस्त हैं शेखर जो कि अभी पटना में हैं और काफी अच्छे कहानीकार माने जाते हैं. तो राजेंद्र भवन में एक कार्यक्रम चल रहा था. शायद किसी किताब का विमोचन था. प्रभाष जोशी भी आए थे. उन्होंने हमारे दोस्त से पूछा कि आप जानते हैं कि आपके मित्र अनिल चमडिया,‘चमडिया’क्यों लगाते हैं? हमारे दोस्त ने कहा कि मुझे कभी पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. तब प्रभाष जोशी ने हमारे दोस्त को बताया कि इनके जो पूर्वज थे वो चमड़े का कारोबार करते थे. इसकी वजह से ये लोग अपनी टाइटिल चमड़िया लगाते हैं. ’वो खुद को राजस्थान का मानते थे और हालांकि मैं जानता नहीं लेकिन मेरा परिवार भी शायद वहां से आया होगा. क्योंकि एक बार मैं इंटरनेट पर सर्च कर रहा था कि चमड़िया टाइटिल कहां-कहां कौन लिखता है. तो कुछ क्रिश्चियन नाम जैसा देखा, पाकिस्तान के कुछ मुस्लिम नाम जैसा देखा, गुजरात में देखा. तो कई तरह के और जगह के लोग इस टाइटिल का इस्तेमाल करते थे. यानि यह टाइटिल आपके साथ शुरू से रहा? – हां, शुरू से रहा. इसके चलते हमें परेशानियां भी होती थी. क्योंकि जिस शहर में हमलोग थे वो बहुत छोटा शहर था. हमारे कॉलेज में भी लोग हमको बड़ी अजीब तरीके से पुकारते थे. चमड़ी-चमड़ी ही कहते थे, चमड़िया कोई नहीं कहता था. बहरहाल हमने कभी इसके जड़ में जाने की जरूरत इसलिए महसूस नहीं की क्योंकि टाइटिल स्थाई नहीं होते हैं. टाइटिल बदलते रहते हैं. जैसे हमारे ही परिवार में अब एक फर्क आ गया. मेरे भाई ड़ लिखते हैं, हम ड लिखते हैं. तो इसमे मैं कभी डीप में नहीं गया कि क्या कारण हैं. मैं केवल इतना जानता हूं कि इस परिवार में पैदा हुआ हूं, यह टाइटिल मिला है और इसे लेकर चलना है. आपके दलितवादी होने की वजह क्या थी. आप खुद को कब से दलितवादी मानने लगे? – समाज में दलित क्या हैं? वह उत्पीड़न के शिकार हैं, गैरबराबरी के शिकार हैं और इसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है. कोई तर्क नहीं है कि ऐसा क्यों? तो एक तरह से यह एक अन्याय का स्वरूप है. मैं यह मानता हूं कि बुनियादी तौर पर मनुष्य अन्याय विरोधी होता है. जब भी वो असमानता और गैरबराबरी देखता है तो उसकी मनोवस्था विचलित होती है. वह परेशान होता है. व्यवस्था विरोधी उसकी चेतना होती है. होता यह है कि आपके भीतर वो जो चेतना होती है, उसे विस्फोट करने का मौका मिल जाता है. अब पता नहीं यह संयोग रहा या फिर क्या था कि बचपन से ही हमारे भीतर भी यह चेतना थी. स्कूलों में भी मेरी लड़ाई कई स्तरों पर होती थी. तो आपका जो यह प्रश्न है कि दलितवादी मैं कब से हुआ तो मैं इसकी कोई तिथि नहीं बता सकता. कोई फेज नहीं बता सकता. और मैं यह समझता हूं कि कोई भी व्यक्ति जो चेतना संपन्न है और वह यह क्लेम करता है कि मैं दलितवादी हूं तो वह शुरुआती दिनों से ही जबसे वह होश संभालता है, उसके अंदर वह चेतना होती है. अगर वह चेतना नहीं होगी तो अचानक कोई दलितवादी नहीं हो जाएगा. हां, अगर कोई अपने को इंपोज करना चाहे कि आज अवसर है और हमें इसका फायदा उठाना है. इसके लिए हमें खुद को दलितवादी बनाना है तो हो सकता है. लेकिन वास्तव में जो छटपटाहट होती है, वह अचानक नहीं होती. यानि ऐसे लोग भी हैं, जो मौका देखकर दलितवादी बन गए. – अब देखिए, हमारे समाज में अवसरवादिता तो हैं ही. हम आपको बता सकते हैं कि जो ये अपने को कम्यूनिस्ट और वामपंथी कहते हैं इसका बड़ा हिस्सा (जोड़ देकर) अवसरवादी है. क्योंकि मैने देखा है अपने कई मित्रों को की उन्हें लेक्चररशिप चाहिए होती है तो वह‘लाल सलाम’कहने लगते हैं और उस आयडोलॉजी में नौकरी है. हमने कई ऐसे वकीलों को देखा कि जब उन्हें प्रैक्टिस शुरू करनी है और केस चाहिए तो उन्होंने‘लाल सलाम’कहना और कामरेड कहना शुरु कर दिया. लेकिन वास्तव में उनका जो चरित्र था वो अवसरवादिता का था. तो मैं यह मानता हूं कि दलित के संदर्भ में यह जो उभार आया है, खासतौर से 90 के बाद से आपको बहुत सारे लोग यह कहने वाले मिल जाएंगे कि मैं दलितवादी हूं, समाजिक न्याय का पक्षधर हूं. लेकिन मैं सवाल ये करता हूं कि जो लोग आज अपने आप को ऐसा कहते हैं, उनका इतिहास उठाकर देखा जाए कि वो 78 में क्या थे? और 78 से पहले उनकी क्या भूमिका थी? इसको देखने की जरूरत है. तब जाकर सही आकलन हो पाएगा कि बुनियादी रूप से यह आदमी क्या है. (कुछ नाम बताएंगे आप, मैं बीच में टोकता हूं) नहीं, नाम नहीं बताऊंगा मैं क्योंकि यह उनको सर्टिफिकेट देने जैसा मामला है. इसको एक ट्रेंड के रूप में देखना चाहिए. इसलिए आप देखिए कि आज बहुत सारे लोग जो वामपंथी हैं.खुद को वामपंथी कहने से बचते हैं. वामपंथ को गाली देते हुए मिलते हैं. क्योंकि उनका एक अवसर था. उसमें उन्होंने लाभ उठा लिया. जहां तक खुद को दलितवादी होने का दावा है तो ऐसे इलाकों में जाकर कहिए जहां अब भी काफी चुनौतियां हैं. वहां जाकर कहिए कि मैं दलितवदी हूं. अगर दलितवादी होने की कसौटी हम यह बनाएं कि इसके चलते आप क्या खोते हैं, तो इसका दावा करने वाले लोगों ने खोया नहीं है बल्कि पाया ही है. जैसे कई सारे लोग कहते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष हैं. तो अगर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने से हमें लाभ मिल रहा है. तो आपको उस लाभ को उठाने में क्या है. जैसा आपने अवसरवादी दलितवादी और वामपंथ के बारे में कहा. तो आप पर भी यही आरोप लगता है. समाज का एक तबका है जो यह कहता है कि अनिल चमडिया दलित नहीं हैं. और स्वार्थवश दलितवादी बनते हैं. इन आरोपों के बारे में क्या कहेंगे? – जो सवाल खड़ा करता है, उसे करने दीजिए. देखिए मेरा कोई लाभ नहीं है. कोई हित नहीं है. पहली बात कि अगर कोई आरोप लगाता है तो मुझे इसकी कोई चिंता नहीं है. मान लिजिए मेरा पूरा जीवन है और आप ही बताइए कि मैने कभी यह कह कर लाभ उठाया है कि मैं दलितवादी हूं, मुझे लाभ दो. कहीं कोई पद हासिल किया है. कोई पैसा लिया है. कोई एक उदाहरण बताए हमको. मैं तो कह रहा हूं कि मेरा अपना कोई इंट्रेस्ट नहीं है. जो स्वार्थी किस्म के लोग होंगे, अवसरवादी किस्म के लोग होंगे जो दलित-दलित कर के अपना हित पूरा करना चाहते होंगे. वो भइया मुझे कठघरे में खड़ा करें. बात साफ है. क्योंकि उनके पास वही कार्ड है. उसी के साथ वो खेलेंगे. जैसे आपने पूछा कि मैं दलितवादी हूं तो मैने कहा कि हूं. मैं दलितों के हितों की बात करता हूं. उनके हितों की लड़ाई लड़ता हूं. लेकिन हम इसका कोई प्रोजेक्ट नहीं बनातें. यह मेरे प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं है कि मैं दलितवादी हूं और मुझे कोई प्रोजेक्ट मिल जाए. कहीं विज्ञापन मिल जाए. ये मेरा काम नहीं है. हमारे भीतर ये बात है. हमारे भीतर एक छटपटाहट है, एक बेचैनी है तो हम इसे व्यक्त करते हैं. अब किसी दूसरे को परेशानी होती है तो हो, उसकी मुझे चिंता नहीं है. और ऐसे बहुत सारे लोग हैं. गैरदलितों में भी बहुत सारे लोग परेशान होते हैं. चिंता करते हैं. यह एक लड़ाई है. लड़ाई है कि हम सवाल खड़े करेंगे तो आप मुझे कठघरे में खड़ा करेंगे. क्योंकि आपके पास सवालों का जवाब नहीं है. न आपके पास सवाल हैं. तो आप मुझे दूसरे तरह से कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करेंगे. मैं किसी के बारे में नहीं कहता. मैं कहता हूं कि सबकी अपनी-अपनी भूमिका है. सभी अपना-अपना काम कर रहे हैं. लेकिन बहुत सारे लोग जिन पर जब सवाल खड़े होने लगेंगे तो आप पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाने लगेंगे. क्योंकि वह वैचारिक रूप से खोखले इंसान हैं. उनके पास विचार नहीं है. उनके पास एक लंबी योजना नहीं है समाज को बदलने की. आप मान लिजिए की अनिल चमड़िया दलितवादी नहीं है, दलित नहीं है. कुछ नहीं है. आप कीजिए ना काम, आपको कौन कुछ कह रहा है. अनिल चमड़िया कहां आपको डिस्टर्ब करने आ रहे हैं. अनिल चमड़िया ने आपको कभी डिस्टर्ब किया हो, सीधे कोई सवाल उठाया हो कि आपको इतने लाख की परियोजना मिल गई. आपने इतना कमा लिया. ये तो हम कभी कहने नहीं जाते थे. तो लोगों के कहने की मैं चिंता नहीं करता. तमाम पार्टियां दलित हित का दम भरती हैं. आजादी के बाद तमाम पार्टियां सत्ता में आई, लेकिन दलितों की स्थिति सुधारने के लिए किसी ने मिशन की तरह काम नहीं किया. चाहे वो कांग्रेस हो, भाजपा या फिर वामपंथ. – देखिए दो तरह के ट्रेंड रहे हैं. अगर आप शुरुआती दिनों में देखें तो एक बाबा साहब रहे तो दूसरे बाबूजी (जगजीवन राम). दो धारा रहे. एक धारा जो है वो कहता है कि आप अपने मंदिर खोलो, अपने यहां ब्राह्मण पैदा करो. एक धारा जो है वह कहता है कि ब्रह्मणवाद खत्म करो. तो दो तरह की धाराएं हमें दलित राजनीति में देखने को मिलती हैं. अब सवाल यह उठता है कि जो राजनीतिक पार्टियां हैं, वो क्या कहती हैं? उनके शब्द और भाव क्या हैं? उनका शब्द और भाव यह होता है कि आप दलितों का कल्याण करिए. दलितों को थोड़ा ऊपर उठाने का भाव होता है. दलित नेतृत्व करे, यह भाव किसी का नहीं होता है. वह भाव जब भी पैदा हुआ, वह कांशीराम में ही पैदा हुआ. वह मायावती ने ही पैदा किया. तो इन दोनों भावों को समझने की जरूरत है. दलितों की स्थिति क्यों ज्यों की त्यों बनी हुई है, अगर उन कारणों को समझें तो इन भावों को समझ सकते हैं. तो यह तो हर राजनीतिक पार्टियां कहती हैं कि दलितों का कल्याण हो. लेकिन जो राजनीतिक नेतृत्व है, समाज में बैठे हुए जो लोग हैं. उनकी मानसिकता अगर दलित विरोधी और पिछड़ा विरोधी है तो यह कैसे हो पाएगा. यह कभी संभव नहीं होगा. आप खुद को वामपंथी विचारधारा का मानते हैं? – मैने कहा न कि कई उतार-चढ़ाव रहे जीवन में. और मैं यह समझता हूं कि भारतीय समाज में जिस तरह के अन्याय की स्थिति है उसमें यदि आप किसी को वामपंथी कह देते हैं तो आप उसकी लड़ाई की एक दिशा की ओर इंगित कर देते हैं. वामपंथी मतलब आप आर्थिक गैरबराबरी को खत्म करने पर जोड़ देते हैं. आप समाजिक गैरबराबरी को इग्नोर करते हैं. मेरा यह कहना है कि भारतीय समाज में वो वामपंथ नहीं हो सकता, जो दुनिया के अन्य देशों में है. यह अलग है भी. आप जब क्यूबा में जाएंगे यह आपको अलग मिलेगा, नेपाल में अलग मिलेगा, सोवियत संघ में अलग था, चाइना में अलग मिलेगा. मार्क्सवाद कहीं से यह नहीं कहता है कि समाजिक स्तर पर गैरबराबरी की जो स्थितियां हैं, उसे सेकेंड्री मानें. तो जहां तक मेरी बात है, वामपंथ को जिस तरीके से परिभाषित किया जाता है, उस रूप में मैं वामपंथी नहीं हूं. हां, लेकिन मैं यह मानता हूं कि समाज में गैरबराबरी की लड़ाई का जो आधुनिकतम राजनीतिक दर्शन सामने आया है वह वामपंथ में है. आपने अभी जो कहा उसमें एक द्वंद सा नहीं है कि आप खुद को वामपंथी तो मानते हैं लेकिन एक खास रूप में नहीं मानते. इसका मतलब क्या है? – मैने तो आपसे कहा कि दुनिया के तमाम देशों में जो वामपंथी हैं, वह देश की सामाजिक-आर्थिक स्थित के अनुरुप मार्क्सवाद को ढ़ालने का काम करते हैं. तो मैने कहा कि अगर हमारे यहां वामपंथ की ये परिभाषा है कि वामपंथी होने का मतलब केवल आर्थिक गैरबराबरी की लड़ाई लड़ने वाला राजनीतिक कार्यकर्ता है, तो उस अर्थ में हम वामपंथी नहीं है. उसके साथ ही मैं यह भी कह रहा हूं कि गैरबराबरी की लड़ाई लड़ने का जो आधुनिकतम राजनीतिक दर्शन है वह मार्क्सवाद में है. आप मार्क्सवाद की अवहेलना नहीं कर सकते. आप देखेंगे कि हमारे देश में दलित और पिछड़े समाज के जो नेता निकले, जो लड़ाई लड़ी. उनके जो शब्दकोष हैं वह मार्क्सवाद से निकले हैं. लालू यादव कहते हैं कि लांग मार्च करेंगे. और आप अगर उस समय के आंदोलन के भीतर जाकर देखिएगा तो आपको मार्क्सवाद की छाप मिलेगी. क्योंकि जो बुनियादी दर्शन है गैरबराबरी के खिलाफ, इसके खिलाफ जहां भी लड़ाई होगी इसमें उसकी छाप मिलेगी. वामपंथ के मुताबिक दलित समस्या का समाधान क्या है. वामपंथी दलों ने दलितों के हित के लिए अब तक क्या किया है? – महाराष्ट्र के इलाके को छोड़कर देश के दूसरे हिस्सों में दलितों के हितों की राजनीतिक चेतना का विकास जितना वामपंथी दलों ने किया है, उतना दूसरे लोगों ने नहीं किया है. हमको ये फर्क करना पड़ेगा कि लड़ाई का जो आपका उद्देश्य है वो क्या है? वामपंथी जो यहां लड़ाई लड़ते रहे हैं वो बुनियादी परिवर्तन की लड़ाई लड़ते रहे हैं. उनमें जो उनके साथ सबसेज्यादा लड़ने वाले लोग रहे हैं वो दलित रहे हैं. क्योंकि उनमें मुक्ति की आकांक्षा थी. केवल सरकार बनाने की लड़ाई नहीं लड़ते रहे हैं इसलिए उस तरह की लड़ाई में आपको फर्क यह दिखाई देगा कि वहां राजनीतिक कार्यकर्ता तो निकले लेकिन सत्ता में नहीं पहुंचे. उन्होंने जमीनी स्तर पर भेदभाव की लड़ाई लड़ी. मेरे कई मित्र बताते हैं जैसे भोजपुर के इलाके में दलित खाट पर नहीं बैठ सकते थे. उनके लिए कम्यूनिस्ट पार्टी के लोग लड़े. लेकिन उन्होंने उन्हें सत्ता में जगह नहीं दी. तो लड़ाई को इतने सपाट तरीके से नहीं देख सकते. क्योंकि वो हर स्तर पर उत्पीड़न का शिकार है. तो जाहिर सी बात है कि आप एक स्तर पर आगे बढ़ाने की बात करते हैं तो दूसरे स्तर पर रह जाता है. जैसे आज उत्तर प्रदेश में मायावती सत्ता में हैं लेकिन क्या वहां दलितों के साथ भेदभाव की स्थिति नहीं है. लेकिन हम फिर भी इसे भी प्रोत्साहित करते हैं. हम मानते हैं कि दलित नेतृत्व होना चाहिए. लेकिन फिर भी मानते हैं कि भेदभाव की स्थिति बनी हुई है. यही बात कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी है. यहां भी दो तरह की धारा देखने को मिल रही है. एक राजनीतिक रूप से चेतना संपन्न है. दूसरी तरफ आप उनकी शिकायत कर सकते हैं कि उन्होंने आपको नेतृत्व में आने का मौका नहीं दिया. बाबा साहब के आंदोलन से लेकर वामपंथ और कांशी राम जी के आंदोलन तक सारे आंदोलनों की अपनी एक बड़ी भूमिका रही है. और आप हर आंदोलन पर सवाल उठा सकते हैं. तो आपको अगर राजनीतिक लाभ उठाना है तब तो यह अलग बात है. लेकिन समाज का एक बौद्धिक सदस्य होने के नाते जो लोग उन्हें इस स्थिति से निकालने के बारे में सोचते हैं वो ऐसा नहीं सोचते कि उन्होंने ऐसा किया, ऐसा नहीं किया. दलितों के समाज में आगे आने के बाद जातीय उत्पीड़न का रूप भी बदला है. अब यह प्रत्यक्ष न होकर इसने दूसरा रूप ले लिया है? इसकी वजह क्या है? – वो आएगी ही. देखिए एक बात जान लिजिए. जब ढ़ांचागत परिवर्तन होगा तो उत्पीड़न का रूप भी बदलेगा. जैसे ढ़ांचागत परिवर्तन यह हुआ है कि अब आपको स्कूल में पढ़ने को मिल रहा है. तो अब उत्पीड़न का तरीका बदलेगा. पहले उत्पीड़न का तरीका यह था कि आपको स्कूल में नहीं आना है. अब जब उन्होंने आपको अंदर आने दे दिया तो उनके मन में जो यह बात फिट है कि आप छोटे हैं तो वह स्कूल के भीतर किसी न किसी रूप में तो काम करेगा ही. वह खत्म नहीं होगा. बस उसका रूप सूक्ष्म हो जाएगा. आपसे बात करते हुए मैं एक महत्वपूर्ण बात करने जा रहा हूं. मैं इधर दलित समाज द्वारा आयोजित कई कार्यक्रमों में गया. मैं वहां यह बात बार-बार कह रहा हूं कि आप‘जय भीम’बोलना बंद करिए. जय भीम क्यों बोलते हैं? आप इसका अर्थ बताइए. यह कहां से निकला?‘जय’का पूरा एक ढ़ांचा है. आप कहते हो कि हम‘भीम’को जय कर रहे हैं. यानि भीम की जय कर के आप उन्हें एक ढ़ांचे में जगह दिलाने की कोशिश कर रहे हैं. मैं कहता हूं कि आप जय भीम नहीं कहें. आपके समाज की जो अवस्था है, उसमें अभी जय की जरूरत नहीं है. उसमें अभी जागो कि जरूरत है. हम‘जय भीम-जागो भीम’क्यों नहीं बोल सकते. क्योंकि यह हमारा माइंडसेट बना हुआ है. एक बोलता है जय श्रीराम, हम बोलते है जय भीम. तो आप पूरे स्ट्रक्चर को सुरक्षित रखते हैं. आप केवल नाम को ले जाकर के वहां फिट कर देते हैं. ढ़ांचा वही रहता है. तो जय के ढ़ांचे को तोड़ने की जरूरत है. अभी इस समाज को जय की जरूरत नहीं है. जय, विजय, पराजय गैर-बराबरी के समाज का संबोधन है. हम तो अन्याय से पीड़ित है. हमारे समाज में बड़ा हिस्सा अभी भी उसी अवस्था में है. उसे जगाने की जरूरत है. दलित का हर बच्चा भीम है, उसमें यह भाव कैसे पैदा करें. तो उसे हम बोलें कि जागो भीम दूसरा बोले की बोले कि बोलो भीम. ये समाज के पूरे ढ़ांचे को चेंज करेगा. अभी हमारी जो लड़ाई की दिशा है वो ठीक दिशा नहीं है. वो ढ़ांचे को तोड़ने की दिशा नहीं है. वह इसमें अकोमडेट (accommodate) करने की दिशा है. ‘जय भीम’ दलितों के लिए एक मंत्र बन गया है. आप जो यह कह रहे हैं कि दलित जय भीम बोलना बंद करें तो क्या वो इस स्थिति को स्वीकार करेंगे? – देखिए मैं तो कह रहा हूं कि इस पर विचार करें. जय भीम क्यों बोलते हैं, यहां से सोचना शुरू करें. हमारा हाल यह है कि हम इतने ज्यादा उत्पीड़न की स्थिति में रहे हैं कि जरा सा भी सुख देने वाला कोई भी विकल्प हम अपना लेते हैं. तो जय भीम क्यों बोला जाता है. आप इसके विस्तार का काल देखिए. तो मैं आपके उस सवाल का जवाब दे रहा था कि आप कह रहे हैं कि स्ट्रक्चर चेंज नहीं करेंगे तो आपकी स्थिति में ज्यादा परिवर्तन होने नहीं जा रहा है. साफ सी बात है. हां, क्षणिक सुख मिलेगा. लेकिन ये जो लड़ाई है वो क्षणिक लड़ाई नहीं है. आप पर जो गैरबराबरी थोपी गई है वो क्षणिक नहीं है. वह एक योजना का हिस्सा है. और वो वर्षों पुरानी, बहुत दूरदर्शी किसी शासक द्वारा रची है. तो मैं मानता हूं कि अगर आपको गैरबराबरी को खत्म करना है तो आपको तात्कालिक सुख, संतोष की लड़ाई से निकलना होगा. क्रमश…… दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
अनिल चमडिया से संपर्क करने के लिए आप उन्हें namwale@gmail.com पर मेल कर सकते हैं. इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए और हमारे जरिए अनिल चमडिया तक अपनी राय पहुंचाने के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं. या फिर 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.

‘मिर्चपुर कांड के बाद क्यों नहीं हुआ आंदोलन’

यह लोगों को महसूस करना होगा, जिम्मेदारी समझनी होगी. अनिल चमडिया का इंटरव्यूह भाग-1 से आगे की बातचीत..
आप मीडिया से लगातार जुड़े रहे हैं. मीडिया में दलितों को लेकर जो एक भेदभाव है. उसे आप कैसे देखते हैं? – मैं आपसे पहले भी कह चुका हूं कि यह पूरा मामला स्ट्रक्चर का है. बहुत सारे लोग कहते हैं कि दलित मीडिया खड़ा हो. लेकिन ये हो नहीं पाया है. (मैं बीच में टोकता हूं) तो क्या दलित मीडिया खड़ा होना चाहिए. आप इसके पक्ष में हैं?या फिर इसी सिस्टम में दलितों को जगह मिलनी चाहिए? मैं इतने सपाट तरीके से चीजों को देखता नहीं हूं. मान लिजिए की अगर दलित मीडिया है तो वो फिर दलित मीडिया हो गया. हम कह रहे हैं कि एक मीडिया ऐसा हो जो समाज की गैरबराबरी को दिखाए. दलित मीडिया का क्या मतलब हुआ, केवल दलितों की बात करने वाला. तो मान लिजिए की ऐसा कोई मीडिया खड़ा हो भी गया तो मुझे नहीं लगता कि वो ज्यादा कामयाब होगा. हां, दलित समाज के भीतर एक-दूसरे तक पहुंचने के लिए आप इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन पूरे समाज को एडजस्ट करने के लिए वो काम नहीं करेगा. तो मैं ये मानता हूं कि केवल दलित मीडिया से काम नहीं चलेगा. क्योंकि पूरे समाज को संबोधित करने के लिए, उसकी वस्तुस्थिति जाहिर करने के लिए उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. जैसे यूपी में इन दिनों एक भाषा इस्तेमाल की जा रही है. दलित मुख्यमंत्री के राज में दलितों के खिलाफ उत्पीड़न. आप इसकी बारीकी को समझिए कि कैसे वो दलित के उत्पीड़न के लिए दलित को ही कठघरे में खड़ा कर रहा है. आप इसको सोचिए. मायावती दलित नहीं भी हैं और हैं भी. वह सरकार की मुख्यमंत्री हैं. प्रदेश चला रही हैं तो वो पूरे समाज की हैं. लेकिन आप उनको संबोधित कर रहे हैं केवल दलित. और खासतौर पर वहां कर रहे हैं जहां दलित उत्पीड़न की शिकायत है. तो आप क्या कर रहे हैं कि आप वहां सरकार को बचा रहे हैं. सरकार के ढ़ांचे को बचा रहे हैं और दलित को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. यानि की उनका दलित होना इस विफलता का परिचायक है. बहुत सूक्ष्म तरीके से ऐसी सांस्कृतिक लड़ाई होती है. बड़ी बारीक लड़ाई है. और अगर हम इस बारीकी को समझने की समझ विकसित नहीं कर पाते हैं तो हम क्या करते हैं कि जो भी चीजें (नारा) आती हैं, हम उसमें बह जाते हैं. तो मुझे लगता है कि हमें उस बहने वाली स्थिति से निकलना होगा. मीडिया में तमाम बड़े नाम हुए हैं. जैसे प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा, एसपी सिंह. उन्हें काफी अच्छा माना जाता है. उनके जमाने में क्या दलित मुद्दों को जगह मिल पाती थी. उन्होंने इस ओर ध्यान दिया था. – नहीं, कोई ध्यान नहीं दिया था. इन लोगों का कभी भी इससे कंसर्न विषय नहीं रहा. मैं मानता हूं कि भारतीय मीडिया में अभी तक कोई भी ऐसा मीडिया लीडर नहीं निकला है जो इस सवाल को बहुत गंभीरता से लेता हो. मीडिया मे दलितों के खिलाफ खबरों के आने का जो ट्रेंड है, वो जो शुरू में था वही अब है. दलितों के बारे में जो खबर आती है वो तब आती है जब दलित उत्पीड़न की बड़ी घटना हो जाती है. वह इसलिए आती है क्योंकि आप उसे इग्नोर नहीं कर सकते हैं. मैं नहीं समझता हूं कि किसी ने बहुत सचेत होकर कोई कोशिश की है कि मीडिया में जो दलितों के खिलाफ या तमाम तरह की गैरबराबरी के खिलाफ खबरों को ज्यादा से ज्यादा जगह मिल पाए. और इस गैरबराबरी से निकलने की अवस्था बने. ऐसा भी नहीं है कि दलित समाज के जिन बच्चों की पत्रकारिता में रुचि है और जो इसमें आना चाहते हों, इनलोगों ने उनकी मदद की हो. संविधान में हमें आरक्षण का लाभ मिला है लेकिन कई जगहों पर यह नहीं दिया जाता. जैसे आपने ही एक आरटीआई डाली थी, जिसमें निकल कर आया था कि लोकसभा चैनल में दलित नहीं हैं. जबकि वो भी सरकारी चैनल है. क्या यह संविधान का उल्लंघन नहीं है? – बिल्कुल है. जब से यह चैनल शुरू हुआ उसके पहले ही यह नियम बन गया कि हम कन्सलटेंट के रूप मे किसी को भी भर्ती कर सकते हैं. उसमें आरक्षण का कोई लेना-देना नहीं है. अब उन्होंने एक रास्ता निकाला कि आरक्षण के सिद्धांत को कैसे दरकिनार कर दें. तो इसके लिए एक अलग रास्ता निकाला गया. लोकसभा में देश का सारा कानून बनता है. यहीं यह नियम बना कि दलितों के लिए नौकरियों में शिक्षा में आरक्षण होगा और उसी के संस्थान में आरक्षण लागू नहीं है. संपादकीय के 107 लोगों के ढ़ांचे में मेरी जानकारी में एक भी लोग नहीं हैं. और अगर वो यह सोचते हैं कि बिना आरक्षण लागू किए इस व्यवस्था में कोई आदिवासी आ जाएगा, कोई दलित आ जाएगा तो यह ऐसे ही हैं, जैसे कोई यह कहता है कि बिना आरक्षण के कोई लोकसभा में पहुंच जाएगा. इतने सालों बाद भी इसके बारे में नहीं सोचा जा सकता. आप सोचिए कि इस पर किसी ने सवाल नहीं उठाया. ठीक इसी तरह मैने प्रधानमंत्री कार्यालय पर सवाल उठाया था. वहां पूरी वर्ण व्यवस्था को प्रदर्शित करने वाली तस्वीरें लगी हैं. कि किसको ब्राह्मण कहते हैं, किसको क्षत्रिय कहते हैं, किसको वैश्व और किसको शूद्र कहते हैं. हमने इस बारे में आरटीआई डाला, संसद में सवाल करवाया लेकिन यह जवाब नहीं आया कि वो क्यो? यह 1932 से लगी है. जब से अंग्रेज थे तब से. उस आफिस में हर दल के लोग जाते हैं. कई दलों की सरकार रह चुकी है. उसमें तमाम दलित लोग रह चुके हैं. मुझे हैरानी होती है कि किसी ने उस पर सवाल नहीं उठाया. आपने खुद को एकोमोडेट करने की जो मानसिकता बना रखी है इसमें यही होगा. ऐसे में आप रिलेक्स हो जाते हैं. जो अकोमोडेट हो जाते हैं उनको फिर समाज में परिवर्तन की लड़ाई से कोई मतलब नहीं रहता. आज जो लोकसभा की स्पीकर हैं वो दलित परिवार से आती हैं. बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं लेकिन उनके राज में भी यह व्यवस्था चलती जा रही है. मेरा यह मानना है कि अगर स्ट्रक्चर में आप केवल अपनी जगह बनाएंगे और स्ट्रक्चर गैरबराबरी का है. तो आप मान कर चलिए कि गैरबराबरी किसी ना किसी रूप में बनी रहेगी. उसका रूप बदल जाएगा. यही चीजें शिक्षण संस्थाओं में भी देखने को आ रही हैं. पिछले दिनों मे तमाम आरटीआई में यह निकल कर आया है कि दलितों और पिछड़ों के लिए निर्धारित सीटों को भरने में तमाम तरह की धांधली हो रही है? – मैं तो कह रहा हूं कि आपके हाथ से आरक्षण जा रहा है. अब जो राजनीतिक नेतृत्व तैयार किया गया है वो आरक्षण के मुद्दे को उठाकर जोखिम लेने की स्थिति मे नहीं है. आप सोचिए ना कि आरक्षण को लागू हुए देश में कितने साल हो गए. मैने तो आरटीआई के माध्यम से कई जानकारियां निकाली थीं. इसमें सामने आया था कि भारत सरकार में एक भी सेक्रेट्री दलित नहीं था. ग्रुप‘ए’के अधिकारी भी रेयर ही थे. शिक्षण संस्थाओं मे भी यही हाल है. एम्स में भी लड़ाई लड़ी गई है. इसमें महत्वपूर्ण यह है कि आरक्षण की स्थिति को खत्म करने के जो प्रयास हो रहे हैं वो दलित और पिछड़े के नेतृत्व में किया जा रहा है. यह ज्यादा खतरनाक बात है. आप पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाते रहे हैं, वहां के अनुभवों को बताइए? – आईआईएमसी के हिंदी विभाग में 3 साल तक पढ़ाया. 2-3 साल दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़ा रहा. वर्धा में कई वर्षों से जाता रहा हूं. फिर वहां प्रोफेसर के रूप मे नियुक्त भी हुआ था. अब भी कई संस्थानों से जुड़ा हूं. लेकिन पढ़ाने के बीच में दुविधा की स्थिति भी होती है कि हम छात्रों को किसके लिए तैयार कर रहे हैं? क्या हम मीडिया आर्गनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार कर रह हैं, या फिर समाज के लिए पत्रकार तैयार कर रहे हैं. आखिर हम मीडिया आर्गेनाइजेशन के लिए कर्मचारी तैयार क्यों करें? यह दुविधा है. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में रहने के दौरान वहां के कुलपति वीएन राय से आपका विवाद काफी सुर्खियों मे रहा था. विवाद की वजह क्या थी. क्या अब वो सारा विवाद खत्म हो गया? – व्यक्तिगत विवाद नहीं था. हर संस्थान का लीडर चाहता है कि संस्थान उसके मुताबिक चले. कोई आजादी देता है, कोई नहीं देता. झगड़ा यहीं होता है. वर्धा में जो कुलपति हैं, वो पुलिस बैकग्राउंड के हैं. उनका जीवन आदेश देने-लेने में गुजरा है. मेरा जीवन स्वतंत्र रहा है. तो मूलतः यही अंतरविरोध था. फिर धीरे-धीरे विवाद का विषय बनता चला गया. उन्होंने ही आमंत्रित किया था. अप्वाइंट किया था. इंटरव्यूह के वक्त ही मैने साफ कहा था कि मैं दिल्ली छोड़कर आ रहा हूं तो मेरी एक योजना है. मैने उसे सामने रखा था. लेकिन जब उसे लागू करने लगा तो दिक्कत आने लगी. फिर ईसी (एक्जीक्यूटिव काउंसिल) ने फैसला किया कि मुझे हटाना है. एकतरफा फैसला था. फिलहाल नागपुर हाई कोर्ट में केस चल रहा है. लोकसभा में दलित-आदिवासी समुदाय से 120 सांसद हैं. लेकिन मिर्चपुर जैसा बड़ा कांड होने के बावजूद संसद में वह प्रमुखता से नहीं उठ पाया. इसकी क्या वजह है? – संसद ही क्यों, जितना शोर-शराबा संसद के बाहर होना चाहिए था, वहां भी नहीं हो पाया. इस पर अध्ययन होना चाहिए कि मिर्चपुर जैसे बड़े कांड के बावजूद भी आंदोलन की शक्लक्यों नहीं बन पाई. इस घटना के बाद पूरा सरकारी तंत्र जागरूक हो गया था. भावी प्रधानमंत्री कहा जाने वाला शख्स भी वहां पहुंच गया था. मुआवजे की घोषणा हुई. अधिकारी गिरफ्तार किए गए. मेरा सवाल है कि क्या आंदोलन इसी तरह की मांगों के लिए होते हैं? आंदोलन का उद्देश्य क्या बस ऐसी मांगों को पूरा करवाना होता है? या फिर आंदोलन का उद्देश्य इस तरह की घटनाओं को रोकना होता है. तो आंदोलन का उद्देश्य उस उद्देश्य तक नहीं पहुंचा है, जहां इसे पहुंचना चाहिए था. दलित समाज का बड़ा हिस्सा सत्ता में है. लाखों लोग अच्छी नौकरी में है. सबकुछ है लेकिन आप एक बड़ा आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर पा रहे हैं. खैरलांजी, मोहाना, दुलीना जैसे आंदोलन की स्थिति खड़ी नहीं कर सके. दलित उत्पीड़न विरोधी जो राजनीतिक धारा है, उस पूरी धारा का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए. क्या आप दलित आंदोलन के वर्तमान रुख और तेजी से संतुष्ट हैं? – बिल्कुल नहीं हूं. संतुष्ट तब होते, जब सब ठीक होता, दुरुस्त होता. आंदोलन का विस्तार होता रहता है. अभी जड़ता की स्थिति है. अगर इसे तोड़ा नहीं गया तो लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहेगी. वर्तमान में दलित आंदोलन में किन नई बातों को शामिल किए जाने की और पुरानी बातों को छोड़ने की जरूरत है? – आंदोलन में जो एक बात दिखाई दे रही है कि यह शहरी हिस्से, मध्यवर्ग और शिक्षित लोगों तक ही सिमटती जा रही है. यह बड़ा खतरा है. हम कभी यह नहीं सुनते कि जो आरक्षण नहीं मिलने की शिकायत करते हैं वो देश के खेत मजदूरों की भी बात करते हैं. खेत मजदूरों की सर्वाधिक आबादी दलितों की ही है. आंकड़ें उपलब्ध है कि 20 रुपये रोज पर 76 फीसदी लोग गुजारा करते हैं, आप उनमें दलितों की संख्या का अंदाजा लगा लिजिए. इसके मुकाबले इनकी चिंता कितनी होती है, उसे साफ तौर पर देख सकते हैं. आंदोलन की भाषा को सबसे पहले चेक करने की जरूरत है. आरक्षण समाज को मिलता है, व्यक्ति को नहीं. आरक्षण के जरिए व्यक्ति सरकारी संस्थाओं में समाज का प्रतिनिधित्व करता है. जब तक वह इस स्थिति को महसूस नहीं करेगा कि वह अकेला व्यक्ति नहीं बल्कि अपने समाज का प्रतिनिधि है, वह अपने आप को जिम्मेदार नहीं बना सकता है. उत्तर प्रदेश के अलावा और कहीं सशक्त नेतृत्व उभर कर क्यों नहीं आ पाया? – उत्तर प्रदेश में जो आंदोलन की स्थिति बनी है, उसमें कांशी राम जी का आंदोलन लंबे समय तक चला. उसी की वजह से दलित चेतना जागी. कांशी राम जी का आंदोलन पूरे प्रदेश में दलित चेतना का प्रतिनिधित्व करता था. यूपी ब्राह्मणवाद का केंद्र रहा है. लोगों की चेतना में यह लंबे समय से था. इसमें इतनी आक्रमकता थी कि‘इनको मारो जूते चार’की बात कही गई. कांशीराम जी ने इस बात को समझा की जब तक इस आवाज में अभिव्यक्त नहीं करेंगे, गुस्से को उभार नहीं पाएंगे. कांशी राम ने लोगों की सोच के साथ तालमेल बैठा लिया. इसलिए यूपी में सफलता मिली. यह बिहार में नहीं मिलती. पंजाब में नहीं मिल सकती थी, जहां के कांशीराम खुद थे. मायावती, रामविलास पासवान, प्रकाश आंबेडकर, उदित राज और रामदास अठावले जैसे प्रमुख दलित नेताओं की राजनीति को आप कैसे देखते हैं? इनका भविष्य क्या है? – ये सारे लोग सत्ता से जुड़े लोग हैं. अब अगर आप मायावती से आंदोलन करने की उम्मीद करेंगे तो यह मुश्किल है. कांशी राम ने कभी भी मुख्यमंत्री बनने की नहीं सोची. आप (मेरी ओर इशारा करते हुए) जिन तमाम लोगों के नाम ले रहे हैं, उन्हें सत्ता सुख मिल गया है. ये आंदोलन नहीं कर सकते. हां, यह सत्ता के अंतरविरोधों को उभार कर जातीय गठबंधन के अनुरूप सत्ता में जगह बना लेंगे. ये कोई बदलाव, कोई आंदोलन नहीं कर सकते. दलित-आदिवासी हित के लिए तमाम एनजीओ काम कर रहे हैं. क्या आप उनकी कार्यप्रणाली को ठीक मानते हैं, क्या वो ईमानदार हैं? – हमेशा विकल्प का चुनाव बहुत सोच-समझ कर किया जाना चाहिए. तात्कालिक हित और दूरगामी हित के बीच के फर्क को समझना चाहिए. जो एनजीओ हैं, वो राजनीतिक तौर पर बुनियादी परिवर्तन का हथियार नहीं हो सकता है. इसलिए किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ के काम से यह दिखता तो है कि वह आपके हित की बात कर रहा है, लेकिनउससे कोई बुनियादी फर्क नहीं आ पाता है. जैसे वह शिक्षा की बात तो करेगा लेकिन जिस सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति के कारण से शिक्षा नहीं मिल पा रही है, उसकी बात नहीं करेगा. तो जो एनजीओ काम कर रहे हैं, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने बहुत उल्लेखनीय काम कर दिया है. या फिर जो दलितों के ऐसे आंदोलन को मजबूत कर रहा हो जो बुनियादी ढ़ांचे को तोड़ने की बात करता है. अगर आपको दलितों की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशा सुधारने की छूट दी जाए तो आप क्या करेंगे? – मुझे काम करने की छूट मिली हुई है. जो कारण मेरी समझ में आता है उसे लोगों के सामने रखता हूं. और भी बहुत सारी चीजें जो उनपर थोपी गई है, उसे सामने लाता हूं. चंद्रभान प्रसाद, प्रो. तुलसी राम, डा. विवेक कुमार और श्योराज सिंह बेचैन जैसे तमाम दलित चिंतक, लेखक और विचारक दलितों की आवाज को हर मोर्चे पर उठाते रहते हैं. इनके विचारों से आप कितने सहमत हैं? – सबके अपने-अपने विचार हैं, अपना-अपना नजरिया है. सब महत्वपूर्ण लोग हैं और सबका योगदान हैं. बराबरी के चिंतन और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ाई को इन तमाम लोगों के विचारों ने नया आयाम दिया है. आप दलित हित की बात करते हैं, आप बाबा साहेब को कैसे देखते हैं? – उनके विचारो से मेरी बिल्कुल सहमति हैं. दरअसल बाबा साहेब की जो पूरी चिंतन प्रणाली है, उसकी तमाम लोग अपने तरीके से व्याख्या करते हैं. जैसे बाबा साहब कहते हैं किशिक्षित बनों, संगठित बनों, संघर्ष करो. हर कोई यह नारा लगाता है. मैं इसमें बाबा साहब की एक बात जोड़ता हूं कि बाबा साहेब जैसे ही यह कहते हैं कि मुझे पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, तो उनका यह कथन, पहले वाले कथन के मायने बदल देता है. उनके लिए शिक्षित होने का मतलब खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए शिक्षित होना नहीं है. या फिर बस स्कूली शिक्षा भर नहीं है. शिक्षा का मतलब यहां बदल जाता है. जैसे मेरे एक मित्र हैं- अनंत तिलतुमरे. बाबा साहेब के परिवार के हैं. जिस तरह से वो बाबा साहेब के विचारों को प्रस्तुत करते हैं, आप बाबा साहेब के विचारों के अलावा किसी और के विचारों से सहमत नहीं हो सकते. तो महत्वपूर्ण यह है कि आप उन्हें कैसे प्रस्तुत करते हैं. मैं बाबा साहब का दिया संदेश पसंद करता हूं. उनका प्रभाव महसूस करता हूं और उनका सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का जो कारण है, वो हमें सोचने की गति देता है. आपके जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव किसका रहा? – आपके जीवन पर किसी एक व्यक्ति का प्रभाव नहीं होता. मैं इसका पक्षधर भी नहीं हूं. परिवर्तन की हर धारा को, बराबरी का समाज बनाने की सभी धाराओं को करीब से देखने की कोशिश करता हूं. जिसका साकारात्मक पक्ष महसूस करता हूं, उसे लेकर आगे बढ़ता हूं. तो किसी व्यक्ति से प्रभावित हूं, ऐसा नहीं कह सकता. खुद को आधुनिकतम राजनीतिक विचारधारा से जोड़ पाता हूं. लोकतंत्र और बराबरी से जोड़ पाता हूं. अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में बताइए? – कोई दुश्मन नहीं है. व्यक्ति के रूप में किसी को दुश्मन नहीं मानता हूं. जिन्होंने मेरे ऊपर गोली चलाई, अपहरण करने की कोशिश की, उन्हें भी नहीं. हां, विचारधारा को दुश्मन मानता हूं. जो प्रतिक्रियावादी धारा है वह मेरे दुश्मन की तरह है. गोली चलाई, अपहरण की कोशिश? कब की घटना है यह? जरा विस्तार से बताइए. – सब कॉलेज के दिनों की बात है. उन दिनों आरक्षण समर्थक थे तो क्लास रूम की बजाए बाहर होते थे. उस दौरान कुछ लड़कों के साथ झगड़ा हुआ था. मेरे ऊपर गोली चलाई गई, मेरे अपहरण की कोशिश हुई. क्या कोई ऐसी घटना है जिसने आपके जीवन को प्रभावित किया? – दो लोगों की बातों ने काफी प्रभावित किया. एक केशव शास्त्री थे. लीडर थे. लोहियावादी थे. उनका एक किस्सा बड़ी प्रभावित करता था. एक दिन उन्होंने पूछा कि कभी किसी नदी के किनारे गए हो? मैने कहा- हां, गया हूं. उन्होंने कहा कि क्या कभी गौर किया है कि पहाड़ से नदी की ओर जो धारा निकलती है, वह कई बड़े पेड़ों को उस धारा में बहाकर ले आती है. लेकिन उस नदीं में जो छोटी मछली होती है वह धारा के विपरीत चलती है. इसका मतलब यह हुआ कि वह जीवित है. उसमें चेतना है. तो वह प्रदर्शित करती है कि धारा बहाकर नहीं ले जा सकती. उनके इस किस्से ने काफी प्रभावित किया. एक दूसरी घटना जिसने मेरे विश्वास को बढ़ाया, वो घटना नौवीं कक्षा में घटी. मेरे सामने संकट था कि क्या करें. तब एक टीचर मिले. कुशवाहा जाति के थे. हम उन्हें मुंशी मास्टरकहते थे. (आज की बदलती बोली की ओर ध्यान दिलाकर कहते हैं, सर नहीं मास्टर कहते थे) उन्होंने नौंवी पास करने के बाद मुझसे कहा कि तुम 11वीं (तब बोर्ड) की परीक्षा दो. मैने कहा- मास्टर साहब यह कैसे होगा. उन्होंने भरोसा दिलाते हुए कहा कि अगर मैं आने वाले 4-6 महीने तक पढ़ाई करूंगा तो टॉप-10 में आ जाऊंगा. हालांकि ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन उन्होंने मुझपर जो भरोसा दिखाया उसने मेरे भीतर आत्मविश्वास का एक ढ़ांचा खड़ा कर दिया. आपके आत्मविश्वास को तोड़ना और बनाए रखना, यही पूरी लड़ाई है. खासकर एक दलित के भीतर यह मायने रखता है. अगर एक दलित को बार-बार यह कहा जाता है कि वह कुछ नहीं कर सकता तो उसके आत्मविश्वास का ढ़ांचा टूट जाता है. शासक यही काम करते हैं. तो सारी लड़ाई आत्मविश्वास को बनाए रखनी की है. तो ऐसे कई पात्र मेरे जीवन में आए हैं. वो सभी सामान्य थे. मेरे भीतर उन सभी का कंट्रीब्यूशन है. मुझे गढ़ने में उनकी बड़ी भूमिका है. सर आपने इतना वक्त दिया, हमसे बात की धन्यवाद धन्यवाद अशोक जी।
अनिल चमडिया से संपर्क करने के लिए आप उन्हें namwale@gmail.com पर मेल कर सकते हैं. दलित मत.कॉम से संपर्क करने के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.

दलितों के हक का हिसाब लेने में जुटे हैं जाधव

1953 में महाराष्ट्र में जन्मे जाधव ने अपने बड़े भाई के मार्गदर्शन में शुरू में ही तय कर लिया था कि उन्हें पब्लिक सेक्टर में काम करना है. वजह था दलित समाज का उत्थान, जो सिस्टम में रहकर ही किया जा सकता था. इसी जुनून और जिद्द कि वजह से उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय के कुलपति का पद मिलने पर सालाना सवा करोड़ की नौकरी ठुकरा दी, ताकि दलितों से अमानवीय व्यवहार करने वाले पुणे शहर में समाजिक न्याय की मशाल जला सकें. तब उन्होंने जो किया वो इतिहास में दर्ज हो चुका है. फिलहाल वो सरकारी मंत्रालयों और राज्यों में दलित हित के फंसे हजारों करोड़ रुपयों को बाहर निकालने में लगे हैं. बीती उपलब्धियों और वर्तमान चुनौतियों पर ‘दलितमत.कॉम’ के संपादक अशोक दास ने उनसे विस्तार से बातचीत की. जाधव साहब भी सारे सवालों पर खुल कर बोलें. पेश है…… विषमता और भेदभाव को लेकर आपने काफी काम किया है. आपने इसी विषय को क्यों चुना? – जिस बैकग्राउंड से मैं आता हूं यह विषय मेरे दिल के बहुत करीब है क्योंकि मैं एक दलित परिवार में जन्मा हूं. प्रतिकूल परिस्थिति पर काबू पाकर लगातार संघर्ष करते हुए आगे बढ़ा हूं. तो ये जो विषय है ये मेरे दिल से बहुत जुड़ा हुआ है. योजना आयोग के सदस्य के तौर पर आपको दो साल हो गए. इस वक्त में अपने काम का आकलन आप कैसे करते हैं. क्या आप अपनी भूमिका को लेकर संतुष्ट हैं. – बिल्कुल संतुष्ट हैं. प्लानिंग कमीशन में मेरी जिम्मेदारी बहुत विस्तृत है. यहां आने के बाद इन जिम्मेदारियों में मैं बहुत कुछ कर पाया हूं. सबसे पहले तो आपको अपनी जिम्मेदारी का अहसास करना होता है. योजना आयोग में मुझे जो जिम्मेदारी दी गई है वो बहुत ही ज्यादा है. किसी और सदस्य को इतना ज्यादा दायित्व नहीं मिला है. यहां हरेक सदस्य को कुछ विषय दिए जाते हैं जिसके संबंध में उसे हर राज्य में उन विषयों को देखना पड़ता है. उसी तरह कुछ राज्य भी दिए जाते हैं, जिनमें हर विषयों का ख्याल रखना होता है. मेरे पास चार सेक्टर हैं. इनमें पहला शिक्षा, दूसरा लेबर, इंप्लाइमेंट और स्किल डेवलपमेंट, तीसरा स्पोर्ट्स और यूथ अफेयर, चौथा जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, वो सोशल जस्टिस एंड इमपावरमेंट है. जहां तक राज्यों का ताल्लुक है मेरे पास बिहार, तामिलनाडु, गोवा साथ ही दो यूनियन टेरिटरी दादरा, नगर हवेली और दीव दमन है. मैं सोशल जस्टिस एंड इमपावरमेंट के बारे में बताना चाहूंगा. योजना आयोग का एक काम सारे खर्च के लिए राशि का आवंटन करना है. यहां आने के बाद मैने देखा कि सोशल जस्टिस और इंपावरमेंट की जो मिनिस्ट्री है, उसके लिए जो राशि आवंटित की जाती थी वह बेहद कम थी. एकदम नाम मात्र था. मै 2009 में आया. मेरे आने से पहले 2002 से लेकर 2009 तक सामाजिक अधिकारिता एवं न्याय के लिए जो बजट था वो 1800 करोड़ से 2500 करोड़ रुपये तक पहुंचा था. मैने महसूस किया कि देश की एक बहुत बड़ी आबादी के कल्याण से संबंधित विभाग के लिए यह पैसा काफी कम था. मेरा सबसे पहला लक्ष्य इसे बढ़ाना था. क्योंकि अभी तक जो बढ़ोतरी हो रही थी वो बहुत कम हो रही थी. सब देखने के बाद जो मैने सबसे पहला मुद्दा उठाया वो ये था कि यह रकम बहुत कम है और इसमें बहुत बढ़ोतरी की जरूरत है. मुझे खुशी है कि मेरे योजना आयोग जाने के पहले तीन महीनों में बजट के दौरान हम सोशल जस्टिस का बजट 2500 करोड़ से बढ़ाकर 4500 करोड़ रुपये तक ले गए. यानि पहले साल में ही इसके बजट में 80 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. मुझे इस बात की बेहद खुशी है. आप उस वक्त वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के बजट भाषण पर ध्यान देंगे तो उन्होंने इसमें कहा था कि ‘मुझे बहुत खुशी है कि हम सामाजिक न्याय के लिए इतना ज्यादा बजट दे रहे हैं. अब हम दलित विद्यार्थियों को मिलने वाली छात्रवृति की रकम में भी वृद्धि कर सकते हैं क्योंकि अब बजट बढ़ गया है.’ मैं मानता हूं कि यह मेरी पहली उपलब्धि थी, जो बेहद महत्वपूर्ण थी. दूसरे साल में मैने इसे 4500 से 5000 करोड़ रुपये करवाया और तीसरे साल में और बढ़वाने की कोशिश है. मैं इसके लिए क्रेडिट लेता हूं क्योंकि जो मेरे आने के पहले कई सालों में नहीं हुआ वो मैने किया तो मुझे क्रेडिट लेने का हक है. क्योंकि राशि बढ़वाने के लिए वहां टेक्निकल आधार पर बहस करनी पड़ती है. भावनात्मक भाषण का कोई मोल नहीं है. जब पैसे का आवंटन होता है तो डिप्टी चेयरमैन और तमाम लोगों के सामने तमाम तथ्यों और तकनीक रखकर तर्क देना होता है कि आखिर बढ़ोतरी क्यों जरूरी है. तब जाकर बढ़ोतरी मिल पाती है. मैने यह काम किया. एससी/एसटी कल्याण कोष के बारे में अपनी रिपोर्ट में आपने आरोप लगाया था कि 35 साल पहले इसकी शुरुआत से अब तक इसका सही उपयोग नहीं हो पाया और तमाम धांधली हुई है. – 1975 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी तो उन्होंने Tribal Sub Plan की शुरुआत की थी. 1979 में उन्होंने ही Scheduled Cast Sub Plan को शुरू किया. बड़ी हैरत और दुख की बात है कि इतना अरसा बीत जाने के बाद भी इस पैसे का सही इस्तेमाल नहीं हुआ था. इसमें योजना आयोग ने गाइडलाइन भी दिया है कि अनुसूचित जाति और जनजाति की देश में जितनी जनसंख्या है, उनके लिए उसी हिसाब से पैसे का आवंटन किया जाना चाहिए. जैसे अनुसूचित जाति की जनसंख्या 16.2 फीसदी है तो सभी केंद्रीय मंत्रालयों को इस वर्ग के लिए बजट में कम से कम 16.2 फीसदी हिस्सा खर्च करना चाहिए. ऐसे ही जनजातियों के लिए 8.2 फीसदी है. योजना आयोग की दूसरी गाइड लाइन के मुताबिक हर मंत्रालय को एक अलग अकाउंट बनाने का नियम है, जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति कल्याण का पैसा जमा होगा. यह भी साफ है कि यह पैसा किसी भी दूसरे काम में खर्च नहीं किया जा सकता. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इसके बावजूद 35 साल में केंद्र के 68 मंत्रालयों में से इस साल तक सिर्फ एक सामाजिक अधिकारिता एवं न्याय मंत्रालय को छोड़कर किसी भी मंत्रालय ने अलग अकाउंट नहीं खोला था. यहां तक की Tribal Ministry ने भी यह अकाउंट नहीं खोला था. इसके साथ ही जिन मंत्रालयों को एससी/एसटी सब प्लान के लिए जो पैसे देने थे, वहां भी उन्होंने बहुत कम सिर्फ नाम के लिए इस मद में पैसे दिए थे. जो हालत यहां केंद्र सरकार में है वही हालात राज्यों में भी है. यहां भी नियमों की अनदेखी की जा रही है. राज्यों में भी वही गाइडलाइन है कि हर राज्य अपने यहां अनुसूचित जाति एवं जनजाति की संख्या के मुताबिक उनके कल्याण के लिए राशि का आवंटन करेगा. जैसे पंजाब में 29 फीसदी दलित हैं तो वहां दलितों के कल्याण के लिए बजट का 29 फीसदी खर्च होना चाहिए. लेकिन कहीं भी इसको प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा रहा है. हाल ही में खबर आई थी कि मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति/जनजाति कल्याण कोष के पैसे से सड़क और बांध बन रहे हैं तो वहीं पिछले दिनों दिल्ली सरकार द्वारा कॉमनवेल्थ में इस कोष से 700 करोड़ रुपये खर्च करने की बात सामने आई थी. तो यह धांधली आखिर रुकेगी कैसे? – आपने बिल्कुल ठीक कहा. मैने इस मुद्दे को उठाया भी थी. यहां चार समस्याएं हैं. एक समस्या यह है कि जो स्पेशल इयर मार्किंग करनी होगी है वो नहीं करते. दूसरा, अकाउंट नहीं खोलते हैं. तीसरी समस्या यह है कि एससी/एसटी समुदाय की संख्या के हिसाब से आवंटन नहीं किया जाता है. जो आवंटन होता भी है वह कई बार तमाम राज्यों में दूसरे काम के लिए खर्च हो जाता है, जैसे आपने ही मध्यप्रदेश और दिल्ली का उदाहरण दिया लेकिन इसके अलावा यह और भी बहुत से राज्यों में हो रहा है और हो रहा था. दुख की बात यह है कि इस पर कोई अंकुश नहीं है. प्लानिंग कमिशन (योजना आयोग) में मैने इसको लेकर आवाज उठाई. तब प्रधानमंत्री डा. सिंह ने मेरी अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई और गाइड लाइन को संशोधित कर जिस तरह से इसको लागू किया जा सकता है उस हिसाब से संशोधित करने को कहा. मैने रिपोर्ट दे दिया है और वह लागू भी हो रहा है. राज्यों की जो रिपोर्ट है उसे फिलहाल तैयार कर रहा हूं. केंद्र को दी अपनी रिपोर्ट में मैने कहा कि पहले के नियम के मुताबिक सभी मंत्रालयों को बजट राशि का 16.2 फीसदी राशि इस मद में देना जरूरी था. मैने कहा कि यह ठीक नहीं है क्योंकि रक्षा मंत्रालय जैसे कुछ मंत्रालय ऐसे हैं जहां से 16.2 फीसदी लेने की जरूरत नहीं है. तो इसी तरह कुछ मंत्रालय ऐसे हैं जहां आप 16.2 फीसदी से ज्यादा ले सकते हैं. यानि ओवरऑल 16.2 फीसदी वहां पहुंचना चाहिए. ठीक है कि आपने इस मुद्दे को उठाया. लेकिन इसका नतीजा क्या होगा, क्या इससे चीजें सुधरेंगी? गड़बड़ी को कैसे रोकेंगे? – इस पर भी काम हुआ है. इस बार हमने सभी मंत्रालयों को चार गुटों में बांट दिया है. कुछ मंत्रालय ऐसे हैं जिनके लिए कोई बाध्यता नहीं रखी गई है. कुछ मंत्रालयों को 0 से 15 प्रतिशत, कुछ मंत्रालयों को 15 से 16.2 प्रतिशत तक और कुछ मंत्रालय ऐसे हैं जिनको 16.2 और ज्यादा की श्रेणी में रखे गए हैं. इसके लिए मैने सभी मंत्रालयों के सचिवों को बुलाकर के उनसे खुली बातचीत (Negotiation) की, कि आप क्या कर सकते हैं और क्या करेंगे. हमने उनसे कहा कि ये सारा आवंटन इसी साल से होना चाहिए और उसमें जो गैप आया था, आपसी समझौते के तहत वो 13.4 प्रतिशत आया था. हमने उनसे कहा कि यह 16.2 प्रतिशत से कम है. तो राशि में जो फर्क है उस पैसे को योजना आयोग के पास रखना चाहिए और उसको उस मंत्रालय के अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के लिए खर्च करना चाहिए जिन्होंने अच्छा Performance किया है. इसके लिए बजट के स्टेटमेंट में योजना आयोग की ओर से Written Letter गया है. सभी मंत्रालयों ने जो वादा किया था वो आवंटन कर दिया है और उस पर अमल शुरू है. इससे काफी फर्क पर रहा है. सिर्फ एक ग्रामीण विकास मंत्रालय ने गड़बड़ी की है. उन्होंने जो माना था उसमें बदलाव कर के उसे कम किया है. मैं इसके बारे में अलग से उनसे बात कर रहा हूं. बाकी सबके काम पर हमारी नजर बनी हुई है. ऐसा होने से मंत्रालयों की तरफ से 70 हजार करोड़ रुपये ज्यादा जा सकता है. जहां तक आपका यह सवाल था कि इसमें धांधली को कैसे रोकेंगे तो इसमें थोड़ी दिक्कत है. अगर कोई पैसे को इधर से उधर करता है तो सजा देने का कोई प्रावधान नहीं है. मैं मानता हूं कि यह होना चाहिए. लेकिन फिर भी हम दबाव बनाए हुए हैं और एक बाज की तरह नजर रखे हुए हैं. इस साल से ठीक से अमल होने लगा है. हमारा दबाव ही है कि सभी मंत्रालयों ने अपने यहां अकाउंट खोल दिया है. (खुशी में दोहराते हैं..जी हां सभी Ministries ने). उस अकाउंट में पैसे रखकर हिसाब-किताब हो रहा है. फिर भी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इसमें एकदम से फर्क आ जाएगा. इसमें भी कठिनाइयां आएंगी. लेकिन यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि अनुसूचित जाति के लोगों को विभिन्न मंत्रालयों से पहली बार 75 हजार करोड़ रुपये मिलने जा रहे हैं. क्या इस दिशा में कोई कोशिश हो रही है कि पैसे का गलत इस्तेमाल करने वाले लोगों की जिम्मेदारी तय हो? – सबसे पहली बात यह है कि हमारे पास कोई Power नहीं है कि हमलोग राज्यों को Punish कर सकते हैं. लेकिन हमलोग क्या कर सकते हैं कि उनको शर्मिंदा कर सकते हैं. आप जानते हैं कि हर राज्य के मुख्यमंत्री को अपने Annual Plan (वार्षिक बजट) के लिए योजना आयोग में आना होता है. जब वो आते हैं तो आयोग में सभी के साथ उनकी बैठक होती है. पिछले साल मैने क्या किया कि सबको सिर्फ एक सवाल पूछा कि एससी/एसटी सब प्लॉन के पैसे का उन्होंने क्या किया, यह बताइए? उन्हें कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. उनका चेहरा लाल हो गया और वो बंगले झांकने लगे. सबके सामने उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा. तो इस तरह उनको झटका देने से काम होता है. क्योंकि कानूनी तौर पर हम उन्हें कुछ नहीं कर सकते लेकिन हम नैतिक दबाव (Moral Pressure) बना सकते हैं. इससे वो अगली बार के लिए सतर्क होते हैं (मुस्कराते हुए) क्योंकि आपको पता है राजनीतिक लोग बहुत चालाक होते हैं. हमारे इस नैतिक दबाव का प्रभाव दिख रहा है. यही हाल राज्यों में भी है. अभी मैं इसकी रिपोर्ट बना रहा हूं. जब मैं इसे दूंगा तो आप देखेंगे कि इसके बाद यह चेक एंड बैलेंस हो जाएगा. क्योंकि अगर वो नहीं करते हैं तो सार्वजनिक रूप से इन्हें शर्मिंदा होना पड़ेगा क्योंकि हम लोगों को बताएंगे कि इस राज्य ने क्या कहा था और क्या किया? फ्रांस की सरकार ने हाल ही में आपको अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर ऑफ दी आर्डर ऑफ एकेडमिक पॉम्स दिया है. कितना बड़ा सम्मान है यह आपके लिए? – बहुत बड़ा सम्मान है. यह उनका सर्वोच्च नागरिक सम्मान है और यह सम्मान नेपोलियन बोनापार्ट ने सन 1808 में शुरू किया था. मैं इस बात को लेकर भी बहुत खुश हूं कि मैं यह सम्मान पाने वाला पहला भारतीय हूं. जैसे ब्रिटिश लोगों का ‘सर’ और ‘नाइटहुड’ सम्मान था, वैसे ही यह फ्रेंच लोगों का सम्मान है. आपने अब तक 15 किताबें लिखी हैं. आपके 100 से अधिक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं. इन सबमें कौन सी किताब आपके ज्यादा करीब है? – निश्चित तौर पर मेरा जो फैमिली बायोग्राफी है वो मुझे सबसे प्यारा है. क्योंकि उसने बहुत जादू कर दिया है. आप देखिए कि वो किताब 17 भाषाओं में चली गई है. भारतीय और विदेशी भाषाओं में. ये किताब मैने सबसे पहले मराठी में लिखी थी. फिर जब मैं अमेरिका में काम कर रहा था तो इसी किताब को मैने खुद अंग्रेजी में लिखा. यह ट्रांसलेट नहीं हुआ है बल्कि इसे पूरा लिखना पड़ा क्योंकि जब मैने इसे मराठी में लिखा था तो उसमें सोशल मूवमेंट का जो ऐंगल है तो मैने Assume कर लिया था क्योंकि इस बारे में सभी लोग जानते थे. लेकिन इसी किताब को जब मैं अमेरिकन लोगों के सामने रखना चाह रहा था तो उनको क्या पता था कि Cast System (जाति व्यवस्था) क्या है? इसलिए मैने उसमें जाति व्यवस्था के ऊपर एक पूरा चैप्टर लिखा. इसलिए यह फिर से लिखी गई किताब थी. वो कौन सा वक्त था जब आपने सोचा कि आपको अपने परिवार की कहानी लिखनी है, इसको लिखने की प्रेरणा आपको कहां से मिली? – इसकी एक बहुत दिलचस्प कहानी है. मैं हमारे घर में सबसे छोटा था. जब मैं स्कूल में था तो मेरे पिता रिटायर हो गए. वो रेलवे में Class 4th Worker थे. छोटा-मोटा काम करते थे. वो कद-काठी से बहुत मजबूत थे. वो बहुत जीनियस थे लेकिन कभी स्कूल नहीं जा पाए थे. तो यह किताब असल में उनके बारे में है. हम लोग बस कहानी में मोड़ लाते हैं. किताब का मुख्य पात्र मेरा बाप है. उसका मराठी का शीर्षक भी यही है ‘मेरा बाप और हम’, ‘आमचा बाप आनू आम्ही’. तो फोकस बाप पर है. जब वो रिटायर हुए तो वो समझ नहीं पाते थे कि अपना समय कैसे बिताएं. पढ़-लिख भी बहुत कम पाते थे. तो उन्होंने घर में ही ठोक-पीट चालू कर दिया. दोपहर में सभी को सोने में तकलीफ होने लगी. लेकिन चूकि सभी उनसे डरते थे तो किसी को बोलने की हिम्मत नहीं थी. हालांकि सबसे छोटा होने के कारण मुझे थोड़ी छूट थी. मेरा उनसे एक खास रिश्ता था. सब लोग उनसे डरते थे लेकिन मैं नहीं डरता था. तब मैं 15-16 साल का था, दसवीं या ग्यारहवीं में. अब उनसे यह तो नहीं कहा जा सकता था कि आप ये सब मत करो. तो मैने एक आइडिया निकाला. मैने उनसे कहा कि आप जो हमें अपने बचपन की कहानियां सुनाते रहते हैं उसे लिखिए. वो बोले की ये कौन पढ़ने वाला है. हमें तो उस ठोक-पीट से राहत चाहिए थी तो मैने चढ़ाया कि आगे चलकर आपका लिखा आने वाली पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक साबित होने वाला है. बड़ी मुश्किल से वो राजी हुए. फिर मैने उन्हें पेपर-वगैरह लाकर दिया और कहा कि आप लिखो. हमें तो खुशी हुई कि हमें अब उस ठोक-ठाक से राहत मिलेगी लेकिन वो Born Writer निकले. वो लगातार 10 बरस तक लिखते रहे. सबेरे उठ कर लिखना शुरू करते तो फिर लिखते जाते. तब मैं इतना Immature (अपरिपक्व) था कि मैने कभी पढ़ा नहीं कि वो क्या लिखते हैं. परिवार में हममे से किसी ने नहीं पढ़ा. दस बरस बाद मैं अमेरिका चला गया पीएचडी के लिए तो जाते वक्त मैने उनका लिखा हुआ सब इकठ्ठा करके रख दिया. पढ़े बगैर रख दिया कि देखा जाएगा बाद में. 1981 को मैं बाहर चला गया, 86 में वापस आया पीएचडी करके. वो किताब ढ़ूंढ़ी, नहीं मिली, छोड़ दिया. 1991 में पिताजी का देहांत हो गया. उनके नहीं रहने के बाद एक दिन मुझे अचानक याद आया कि उन्होंने किताबें लिखीं थी उसका क्या हुआ. फिर मैने सारा घर छान मारा और वो निकाला. ऐसे ही एक शाम को मैं वो पढ़ने लगा. मैं पूरी रात पढ़ता रहा और पूरी रात रोता रहा. क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी कहानी अपने स्टाइल में लिखी थी. मैं बड़ा खुश हो गया और पूरा पढ़ने के बाद मैने सोचा कि इस पर कोई किताब आनी चाहिए. तो दूसरे दिन सुबह मुझे यह भी एहसास हो गया कि मैं अपने पिताजी की लिखाई का मूल्यांकन कैसे कर सकता हूं. किसी और को भी यह कहना चाहिए कि इसमें दम है. तो मैं मुल्कराज आनंद जी के पास चला गया. मुल्कराज आनंद जी बहुत बड़े साहित्यकार थे. पंडित नेहरू के साथ के थे. उन दिनों मैं उनके साथ कुछ टीवी प्रोग्राम कर रहा था डिस्कशन के. तो मैं उनके पास एक नोट लेकर गया और फ्रीलांस मराठी का अंग्रेजी में ट्रांसलेट कर के बताया. वह बहुत खुश हुए. उन्होंने कहा कि देखो भाई, तुम अर्थशास्त्री हो. फिलहाल अपने अर्थशास्त्र को भूल जाओ और किताब लिखो. फिर क्या हुआ कि मैं पिताजी का लिखा लेकर बैठ गया. उसमें क्या हुआ था कि उन्हें जैसे-जैसे याद आया था उन्होंने लिखा था. इसकी वजह से इसमें कई दोहराव था. और सबसे गड़बड़ बात यह थी कि उन्होंने 1949 तक ही लिखा था. उसके बाद का जो वक्त था, जो सफलता थी जिसमें मैं अमेरिका गया था उन्होंने वो सब नहीं लिखा था. क्योंकि जब मैं अमेरिका चला गया तब तक उनकी आंखें थक गई थी और कोई टोकने वाला नहीं था कि आप लिखिए तो उन्होंने छोड़ दिया था. तो मैने क्या किया कि जो मेरे पिता का लिखा था उसे दुरुस्त कर के एक चैप्टर स्कीम बनाया. हालांकि किताब की भाषा हूबहू वही रखी, जिस भाषा में पिताजी ने लिखा था. उसका फायदा यह हुआ कि हाल ही में उस किताब पर किसी ने पीएचडी किया है. सब बहुत अविश्वसनीय है. तो 49 तक की कहानी मैने अपने पिता से ली बाकी उसके बाद की कहानी अपनी मां के साथ बैठकर के, अपने भाईयों के साथ बैठ कर के 1991 तक लेकर आया. इस किताब में शुरुआत में मैने, मेरे और मेरे पिता के बारे में लिखा. उनका जो प्रभाव मेरे ऊपर था, उनसे जो मेरे संबंध थे उसे लिखा. बीच में का सारा उनका लिखा हुआ था. उसके बाद जो है वो जो मैने 49 से 91 तक सबसे बात करके लिखा है वो है. तो इस तरह 2 दिसंबर 1993 को यह किताब सामने आया. इस किताब ने इतना जादू कर दिया कि मराठी साहित्य के इतिहास में यह पहली किताब थी जिसका पहले ही दिन पूरा संस्करण बिक गया. क्योंकि मैने रेडियो पर इस किताब को खुद पूरा पढ़ा था. हर दिन 20-20 मिनट पढ़ता था. इससे यह इतना लोकप्रिय हो गया था. इस कारण जब यह किताब आई तो लोग इसे खरीदने के लिए बेचैन हो गए. आप जानकर हैरत में पड़ जाएंगे कि अभी तक इस किताब के 150 (Edition) संस्करण आ चुके हैं. इसका साइज कम- ज्यादा है इसलिए इसे अभी 35 वां संस्करण बताया गया है लेकिन इसका एक संस्करण एक-एक लाख का है. इसके बाद किताब पर जैसे-जैसे लोगों की प्रतिक्रिया आती गई मैं इसमें नए Chapter जोड़ता गया. कुछ लोगों ने शिकायत किया कि मैने अपनी मां के बारे में नहीं लिखा है तो मैने इसमें अपनी मां के बारे में एक चैप्टर लिखा. और फिर अपनी दादी के बारे में लिखा. मेरी बेटी ने अपने वक्त का लिखा है. तो मराठी में यह बढ़ता गया है. अंग्रेजी में मैने इसे अमेरिका में रहते हुए 1998 से 2002 तक लिखा. और आपको पता है कि इसकी सबसे अधिक कॉपी किस भाषा में बिकी है? (मेरी ओर सवाल उछालते हैं, फिर कहते हैं) कोरियन भाषा में. क्या आप यकीन करेंगे कि पिछले चार सालों में कोरिया में इस किताब की हजारों कॉपियां बिकी है. जब मैं कोरिया गया था पिछले दिनों तो लोग मुझे रास्ते पे हाथ मिला रहे थे जैसे मैं कोई नेशनल हीरो हूं. इस किताब पर 4-5 पीएचडी हो चुकी है. 20 एमफिल डिग्री मिल चुकी है. अब तो इस किताब के ऊपर किताब लिखने की तैयारी है. (Excited होते हुए बताते हैं) जो सबसे दिलचस्प बात है वो यह कि इस पर जल्दी ही फिल्म बनने जा रही है. नाना पाटेकर इसके निर्देशन (director) हैं और साथ ही मेरे पिता का रोल करने वाले हैं. वो इस फिल्म में मुख्य भूमिका में है. मेरी मां का रोल सोनाली कुलकर्णी (सीनियर) करेंगी. मेरी भूमिका और बाकी लोगों की भूमिका कौन करेगा यह अभी तय नहीं हुआ है. हम आशा कर रहे हैं कि ए.आर रहमान इसमें (Music) संगीत देंगे. य़ह बड़े बजट की फिल्म होगी. यह फिल्म चार भाषाओं में बनाने की योजना है. मराठी और हिंदी में ओरिजनल रहेगा. जबकि अंग्रेजी और कोरियन में इसे डब किया जाएगा. पिछले दिनों आपका नाम राज्यसभा के लिए काफी चर्चा में रहा था. तो क्या आप सक्रिय राजनीति में भी आएंगे? – हां-हां, आएंगे. क्यों नहीं आएंगे. लेकिन हां, मैं राजनीति में सही वक्त पर जाऊंगा. समय-समय की बात है. जैसे मैने 31 साल रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में गुजारा है. अभी तो कोई जरूरत नहीं है. अभी मैं अच्छा काम कर रहा हूं. योजना आयोग के सदस्य के तौर पर मुझे केंद्रीय राज्यमंत्री की रैंक हासिल है. आप सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (National Advisory Committee) के भी सदस्य हैं. यहां आपकी भूमिका क्या है? – जैसा की आपको पता है कि मैं योजना आयोग का सदस्य भी हूं. यह पहली बार है कि कोई व्यक्ति योजना आयोग और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC), दोनों का सदस्य है. एनएसी में मैने जो सबसे महत्वपूर्ण बात उठाई है वो घूमंतू और विमुक्त जातियों के बारे में उठाया है. ये हमारे देश में ऐसे लोग हैं, जिन तक अभी तक स्वतंत्रता पहुंची ही नहीं है. इस समुदाय के तमाम लोगों को आम नागरिकों को मिलने वाले मूलभूत अधिकारों से भी वंचित रखा गया हैं. पहले ये Criminal Tribes थे तो इनको कंटीली तारों के अंदर रहना पड़ता था. पंडित नेहरू ने 1952 में सोलापुर में जाकर वो वायर काट कर इनको मुक्त किया. इनको घुमंतू और विमुक्त जातियां कहते हैं. इन जातियों के बारे में पिछले 60 वर्षों में कई रिपोर्ट आ गए है. लेकिन कुछ काम नहीं हुआ है. तो मैने इस मुद्दे को उठाया है और काफी काम किया है. मैने इस पर एक नेशनल कांफ्रेंस की थी जहां विमुक्त समाज के सारे नेताओं को बुलाया था. इसके आधार पर मैने एक रिपोर्ट बनाया है. अभी सोनिया गांधी भारत वापस आ गई हैं, एनएसी की जो अगली बैठक होगी उसमें ये रिपोर्ट उनके सामने रखेंगे. पिछले दिनों लोकपाल का मुद्दा काफी छाया रहा था. दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले तमाम चिंतकों और विचारकों ने इसका विरोध किया था. कहा था कि यह दलितों के हित के खिलाफ है. आप इस बारे में क्या सोचते हैं? – इस बारे में खुले तौर पर कोई राय देना मैं उचित नहीं समझता. लेकिन मेरा यह मानना है कि किसी तरह से संविधान के बाहर जाकर इस प्रकार से मुद्दे उठाना गलत बात है. इससे मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूं. इस मुकाम तक पहुंचने के बाद अपने बचपन को, अपने संघर्ष के दिनों को कैसे याद करते हैं. जीवन में सबसे अधिक मुश्किल दौर कौन सा था? – संघर्ष तो निरंतर चलता रहता है. फिर भी मुड़कर पीछे देखता हूं तो खुशी होती है कि मैं इतना दूर आ गया हूं. इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि मैं किसी के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता. देखिए, जो प्रतिकूल परिस्थिति को काबू कर के आगे आता है उनमें दो तरह के लोग होते हैं. एक प्रकार के लोग ऐसे होते हैं कि अच्छा, मुझे ये भुगतना पड़ा, मैं अभी बताता हूं सबको. जो दूसरे किस्म के लोग होते हैं वो उसे स्वीकार करते हैं और उन्हें अपनी जिंदगी में जो कठिनाइयां आई थी वो उनके जैसे दूसरों लोगों को न आए, इसके लिए सक्रिय रूप से कोशिश करते हैं. मेरा स्वभाव वो है. बाकी वो गालियां देने से कुछ हासिल होने वाला है नहीं. अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं? – यह बताना बहुत मुश्किल काम है. अब देखिए, मैने 15 किताबें लिखी हैं. सौ से अधिक शोध पत्र लिखे हैं. मैंने सरकार के तकरीबन 40 बहुत ही महत्वपूर्ण रिपोर्ट लिखे है. 60-70 आर्टिकल लिख चुका हूं. पिछले 10 सालों में 10 मेमोरियल लेक्चर दिया है. तकरीबन 35 बार मुख्य वक्ता के तौर पर अपनी बात रख चुका हूं. तो मैने जहां भी काम किया, जो भी काम किया मैं जितना बेहतर कर सकता हूं मैने किया. पुणे यूनिवर्सिटी के कुलपति के तौर पर अपने प्रयोगों से आप काफी चर्चित रहे थे. जरा उस दौर के बारे में बताइए? – पुणे यूनिवर्सिटी का कुलपति बनने के बाद मैने सिर्फ 33 महीने में वहां पूरा परिवर्तन कर के दिखाया. यह बहुत बड़ी उपलब्धि है. मिसाल के लिए मैं आपको बताना चाहूंगा कि पुणे विश्वविद्यालय में मैने ‘समर्थ भारत अभियान’ नाम से एक अभियान शुरू किया. हमने 500 कॉलेज के प्रिंसिपल को बताया की हर एक कॉलेज एक गांव को गोद ले और वहां तीन साल में पूरा परिवर्तन कर के बताए. बच्चों ने जो काम किया वो अविश्वसनीय था. जिस निर्मल ग्राम की बात होती है, मेरे बच्चों ने 200 गांवों को बिना एक रुपये सरकारी खर्च के निर्मल गांव बनाकर दिखाया. राष्ट्रपति इसको लेकर बहुत खुश हुई थीं और उन्होंने खुद पुणे में आकर 160 गांवों के लोगों को पुरस्कार दिया था. मैने पौधे लगाने का प्रोग्राम किया था. 7 लाख पौधे लगाए गए और उनमें से 80 फीसदी बचे रहे. एक महत्पूर्ण प्रोग्राम मैने स्किल डेवलपमेंट को लेकर चलाया. गांव से आने वाले जो गरीब-दलित बच्चे और बच्चियां हैं, ये लोग इंटरव्यूह में जाते हैं तो फेल हो जाते हैं. इसका कारण यह नहीं है कि उनके पास जानकारी नहीं होती बल्कि यह इस वजह से होता है क्योंकि उनके पास Finish नहीं होता, Polish नहीं होता है. वहीं जो अपर मिडिल क्लास वाला बच्चा होता है वो 10 मिनट में बाजी मार जाता है. जबकि आप उसको स्क्रेच करोगे तो पता चलेगा कि उसमें कुछ नहीं है. तो मैनें क्या किया कि उनके लिए पंद्रह दिन का ट्रेनिग प्रोग्राम चलाया, इससे 3 लाख बच्चों का फायदा हुआ. मैने यह व्यवस्था किया कि अगर कोई स्टूडेंट काम मांगता है तो उसे हर दिन तीन घंटे का काम मिलना चाहिए. हर घंटे के लिए 12 रुपये से बढ़ाकर 20 रुपये किया. इससे वो हर दिन 60 रुपये कमा पाते थे. मैं दर्जनों ऐसे छात्रों को जानता हूं जो पैसे बचाकर घर भी दिया करते थे. इसके अलावा मैने देवदासी (देह व्यापार में लिप्त औरत) के बच्चों के लिए स्कॉलरशिप शुरू किया. रिटायर लोगों के लिए पुणे विश्वविद्यालय से पी.एचडी की व्यवस्था की. यह प्रोग्राम काफी लोकप्रिय रहा था. हालांकि बाद में बंद हो गया था. आपने चीजों को बहुत नीचे के स्तर पर भी देखा है और अब शीर्ष स्तर से भी देख रहे हैं, तो दोनों जगहों से देखने में क्या फर्क है, क्या देखने का नजरिया बदल जाता है? – इस बात पर मैं एक घटना बताना चाहता हूं. एक दिन मैं और मेरा बड़ा भाई जो आईएएस था हम दोनों 15वीं मंजिल पर खड़े थे. मुंबई में, उसके घर पे. (भाई के बारे में बताते हैं ‘वो हमारे टीम (परिवार) का कैप्टन था. उसको बहुत सहना पड़ा था’) और मैं ऊपर से देख रहा था तो उसने कहा कि You know the advantage of standing so high is that you have much wider perspective about what you going down there. I was little boy and you know what is my answer, that is true however people look much smaller than what they are if you are looking for the top. You know, this is the different of the attitude. तो आप जब नीचे के नजरिए से देखते हैं उसमें और ऊपर के नजरिए से देखते हैं उसमें, फायदा भी है और नुकसान भी है. इसलिए आपको सतर्क रहना होगा. (तकरीबन 45 मिनट की बातचीत हो चुकी है. उनकी एक और मीटिंग है. वो टोकते हैं कि अब खत्म करना चाहिए. इसी बीच मैं कुछ सवाल और करता हूं) इतनी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद तमाम मूल्यों को बनाए रखते हुए उतरदायित्वो को निभाना कितना मुश्किल है? – कोई मुश्किल नहीं है. यदि आपके दिमाग में बातें साफ हैं तो. आप एक मूल्य देखिए. मेरे भाई ने जो सिखाया था. हमारे दिमाग पर उन्होंने जो असर डाला था उसका एक बिंदू यह था कि हमने तय कर लिया था कि हम प्राइवेट सेक्टर के लिए काम नहीं करेंगे, हम पब्लिक सेक्टर के लिए काम करेंगे. इसमें ज्यादातर मैने यही किया. 31 साल तक रिजर्व बैंक में काम किया. हां, जब मैं अमेरिका में गया और वहां मैने अपनी पी.एचडी खत्म की. इसमें मुझे संबंधित सारे अवार्ड मिले. वो अब भी रिकार्ड है जो टूटा नहीं है. तो तब मेरे पास 15-16 नौकरियों के ऑफर थे. मैने सबको छोड़ दिया और 5वें दिन भारत में लौट आया. यह मूल्य (Value) का सवाल है. क्योंकि मैं यह विश्वास करता हूं कि आपके मां-बाप और मातृभूमि का कोई विकल्प नहीं हो सकता. तो यह वैल्यू ही था कि मैं वापस आ गया. हां, मैने सिर्फ एक बार प्राइवेट सेक्टर में जो नौकरी की Advisor Chief economic counselor for Afghanistan, आपको पता है मुझे कितने पैसे मिलते थे, मुझे एक साल में 1 करोड़ 25 लाख रुपये मिलते थे. मैं काबुल में था. लेकिन इसी बीच मेरी बीवी ने मुझे फोन किया एक दिन और पूछा कि आप वाइस चांसलर बनना चाहते हैं. मैं चौकते हुए पूछा, वाइस चांसलर, कौन सी यूनिवर्सिटी में? मेरी बीवी ने कहा पुणे यूनिवर्सिटी. सुनने के बाद मैने 20 सेकेंड में हां कर दिया, क्योंकि पुणे एक ऐसी जगह है जहां दलितों को काफी सहना पड़ा है. दलितों के साथ यहां बहुत अमानवीय व्यवहार हुआ है. मैने कहा कि ऐसी जगह का ‘पोप’ बनकर जाने में सामाजिक न्याय है. तो मैने सवा करोड़ रुपये की नौकरी छोड़ के सलाना छह लाख रुपये देने वाली नौकरी की. तो इस तरह 95% पे-कट लेकर मैं पुणे यूनिवर्सिटी चला आया. तमाम लोगों ने यहां तक की घर में भी कुछ लोगों ने कहा कि यह मूर्खता है. तो मैने उनसे कहा कि ये अगर पागलपन है तो ऐसे पागलपन मैं बार-बार करुंगा. ये मूल्य का सवाल है. तो मुझे लगता है कि आपके विचार में स्वच्छता है तो इसमें कोई बाधा नहीं आएगी. आप योजना आयोग और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) दोनों के सदस्य हैं. आने वाले वक्त में आप सबसे बड़ी समस्या क्या देखते हैं? दलित समाज के लिए भी और सर्व समाज के लिए भी. – मुझे लगता है कि सबको अच्छी शिक्षा मिलना उनके भविष्य के लिए सबसे जरूरी है. शिक्षा का नहीं होना ही हर चीज की जड़ में है. जब डा. अंबेडकर ने यह कहा था कि शिक्षा, एकता और संघर्ष, तो यह कोई चुनावी नारा नहीं था. यह बहुत बड़े समाज की आत्मप्रतिज्ञा थी. हरेक शब्द महत्वपूर्ण था और मुझे लगता है कि वही सबसे बड़ा चैलेंज है. अगर उनको अपने पहले की आर्थिक स्थिति से बाहर आना है, अपनी जिंदगी में कुछ कर दिखाना है तो उसके लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त करना और अच्छा स्किल डेवलपमेंट हासिल करना यह सबसे बड़ी चुनौती है.
इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.

गांधी से बड़ा स्मारक बनने से उन्हें चिढ़ हो रही है – मुद्राराक्षस

ये मुद्राराक्षस हैं. सन् 77 के वक्त जब इमरजेंसी लगी थी तो इसे चुनौती देने का माद्दा बहुत कम लोगों में था. राजनीतिक तौर पर जयप्रकाश सहित कई लोग इसे चुनौती दे रहे थे तो सांस्कृति तौर पर भी इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती मिल रही थी. मुद्राराक्षस वो शख्स थे जिन्होंने नाटक के जरिए तानाशाह सरकार पर जोरदार कटाक्ष किया था. उनके नाटक ‘आला अफसर’ तब की जबरिया सरकार को कुछ ऐसा चुभा की इसे देखने के लिए कांग्रेस के कद्दावर अर्जुन सिंह पहुंचे. उनका लेखन कई सवाल खड़े कर चुका है. कई लोगों को चुभता भी है. विरोध भी होता है लेकिन इन सब से बेपरवाह 60 से ज्यादा रचनाएं रच चुके मुद्राराक्षस का सफर बदस्तूर जारी है. वह अपने मन की बात बिना लाग-लपेट के कह देने के लिए भी जाने जाते हैं. धर्मवीर उनको पसंद नहीं तो फट से कह देते हैं कि ‘वह आदमी कुंठित है.’ दलितों के प्रति दृष्टिकोण को लेकर नामवर सिंह, प्रेमचंद, प्रगतिशील लेखक संघ, वामपंथ, किसी को नहीं बख्शते. उन्हें इस बात का दुख है कि दलित होने के बावजूद दलित समुदाय रविंद्रनाथ टैगोर को अपना नहीं सका. मंच से उनके फोटो नदारद रहते हैं जबकि उनकी लेखनी दलित समाज के लिए भी समर्पित रही. वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक मुद्राराक्षस से बात की दलितमत.कॉम के संपादक अशोक दास ने. पेश है बातचीत के अंश…….. आपके बचपन से शुरू करें तो वो दौर कैसा था, आप उसे कैसे याद करते हैं? – गांव में जन्म हुआ (21 जून 1933, बेहटा). यह लखनऊ से करीब 24 किमी है. अब तो वो गांव शहर में ही शामिल हो गया है. वहां जन्म हुआ और चौथी तक वहीं प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की. उसके बाद पिता लखनऊ आ गए तब से फिर यहां रहते गए. बाकी की शिक्षा लखनऊ में हुई. यूनिवर्सिटी में हुई. और लिखना भी लगभग 1950 में शुरू हुआ. निराला, महादेवी और पंत वगैरह को पढ़ने से लिखने की प्रेरणा मिली. 1951 से लिखना शुरू किया. 1955 में लखनऊ से कलकत्ता चला गया. कलकत्ता से मैगजीन निकलती थी ‘ज्ञानोदय’. अब तो वो ‘नया ज्ञानोदय’ हो गया है. तो यहीं 55 में सहायक संपादक हो गया. 58 तक उसमें रहा. 58 में इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखन करने लगा. यह एक साल चला. फिर एक जैनियों की ‘अनवरत’ पत्रिका निकलती थी (लगातार कई बार उबासी आती है तो कहते हैं, ‘माफ कीजिएगा, वो कल रात को लाइट नहीं थी तो पूरी रात सो नहीं सका.’) तो उसमें करीब एक साल तक संपादक रहा. 60 में पत्रिका दिल्ली आ गई तो मैं भी दिल्ली आ गया. 76 तक दिल्ली में ही रहा. दिल्ली का जीवन जरा अगल किस्म का जीवन था. 62 में मैं आकाशवाणी में चला गया. एक साल काम करने के बाद मुझे लगा कि वहां जो लोग काम करते हैं, उनकी हालत ठीक नहीं है. काम करने की स्थितियां बेहतर नहीं थी. इसलिए हमने वहां एक यूनियन बनाया. यह पहला संगठन था. उसी के जो आंदोलन हुए उससे वहां लोगों के हालात में काफी सुधार हुआ. पहले लोग 3-6 महीने के कांट्रेक्ट पर होते थे. यूनियन बनने के बाद वो परमानेंट हुए. 76 में इमरजेंसी के दौरान मुझे वहां से छोड़ना पड़ा. क्योंकि तब वहां काम कर पाना मुश्किल था. जब नौकरी छोड़ी तो थोड़ी आपात स्थितियां भी थी. विद्याचरण शुक्ल थे मंत्री, उनको मेरा यूनियन चलाना पसंद नहीं आया. मैने मार्च में इस्तीफा दे दिया. उस पर जुलाई तक विचार होता रहा. लेकिन जब मैने जुलाई में साफ कह दिया कि अब मैं वापस आऊंगा ही नहीं तो वहां से छूटना फाइनल हो गया. फिर मैं लखनऊ आ गया. आपने कोलकात्ता और दिल्ली दोनों जगहों पर काम किया. दोनों जगहों की परिस्थितियों में क्या अंतर था? – अंतर तो कोई खास नहीं था. मतलब दोनों ही जगह अच्छी जगह थी. तो जो सामान्य जीवन हो सकता है, वो ठीक ही ठाक चल रहा था. आपने यूनियन की नींव रखी थी. जैसा कि आपने बताया कि इसका काफी फायदा भी हुआ था. लेकिन आपको याद होगा कि मीडिया में पिछले दिनों काफी बड़े पैमाने पर छंटनी हुई थी और कहीं से कोई आवाज नहीं आई, तो क्या वो आंदोलन कमजोर पर गया है? – वो तो खतम ही हो गया है लगभग. अब तो वहां एसोसिएशन है, यूनियन नहीं है. कोई खास ताकत भी नहीं है. सब बिखर गया. उसके लिए काफी जुझाड़ू किस्म का आदमी चाहिए, तब यूनियन चल पाता है. वरना वो तो लेन-देन की हो जाती है. तो क्या लेन-देन की वजह ने यूनियन खत्म हो गया? – नहीं ऐसा नही है. यह कोई इंडस्ट्री तो है नहीं कि सीधे पैसे दे देंगे. यह तो इंडस्ट्री में होता है. यहां लेन-देन का मतलब है कि प्रोमोशन दे दिया, अच्छी पोस्टिंग दे दी. यूनियन नेताओं को इसी से फायदा हो जाता है और इसी के आधार पर लोग कमजोर हो जाते हैं. तो ये फर्क पर जाता है. आपके जीवन में एक दौर था, जब आप नाटकों से जुड़े थे. उस दौर के बारे में बताइए? – आकाशवाणी एक ऐसी जगह थी (रूक कर कहते हैं, अब तो स्थितियां बदल गई है, वैसी रही नहीं), जहां थिएटर में काम करने वाले सारे अच्छे लोग आते थे और वहां होने वाले नाटक में हिस्सा लेते थे. जैसे- कुलभूषण खरबंदा, ओम शिवपुरी, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, ये लोग आकाशवाणी में होने वाले नाटकों में काम करने आते थे. क्योंकि तब आमदनी का जरिया कम था. यहां काम करने से उनका थोड़ा खर्चा निकल जाता था. इस दौरान नाटक का काम करने वालों से संबंध बना. उसी वक्त वहां नेमीचंद्र जैन हुआ करते थे. अब तो उनका देहांत हो गया. तो उनसे निकटता होने पर नाटक में काम करने की और नाटक लिखने की इच्छा पैदा हुई. फिर लिखा भी. 63-64 में स्टेज के लिए लिखने लगा. यहीं एनएसडी (National School of Drama) था जहां दुनिया के अच्छे नाटक होते थे. यहीं नाटक लिखने की प्रेरणा मिली. उस दौरान कईयों से निकटता थी. एक गुलशन कपूर थे. बहुत ही अच्छे इंसान थे. नाटक में उनके जैसी प्रतिभा बहुत कम होती है. ओम शिवपुरी, चमन बग्गा इसके अलावा बंबई के कुछ लोग आ जाते थे बीच-बीच में, इन सब से एक माहौल बनता था. सभी के साथ अनुभव बहुत लंबे हैं. नाटकों के उस दौर में आपका एक नाटक ‘आला अफसर’ काफी चर्चित और विवादास्पद रहा था. हुआ क्या था? – ‘आला अफसर’ असल में गोगोल (रुसी नाटककार) के एक नाटक ‘इंस्पेक्टर जनरल’ का भारतीयकरण था. शहर में एक बड़ा अधिकारी है और उसके यहां जांच के लिए कोई आने वाला है. जांच के लिए जो आता है, उसको ये बड़े आदर के साथ लाते हैं. हालांकि वह जांच के लिए नहीं आया था घूमने आया था. तो शासन और आम आदमी के बीच रिश्ता क्या है, ये उसका केंद्र है. तो जाहिर से उसमें विवाद होना था. शायद इंदिरा जी ने उसे देखने की इच्छा जताई थी? – (हंसते हुए, जैसे उन दिनों नाटक को लेकर मचे कोहराम को याद कर रहे हों) नहीं, उन्होंने नहीं की थी बल्कि मध्यप्रदेश के अर्जुन सिंह ने जरूर देखने की इच्छा जताई थी और उन्होंने देखा भी. अब ये पता नहीं चल सका कि उनको कैसा लगा. उस वक्त सामने बात हुई नहीं. ताली तो उन्होंने बजाई लेकिन उनका विचार पता नहीं चल सका. नाटक लिखना छूट कैसे गया, क्या वजह रही? – छूटा तो नहीं, क्योंकि मैं लिखता तो रहता हूं, लेकिन उसमें एक कठिनाई है. जो नाटक की दुनिया है वह पिछले 10-15 वर्षों में सरकार पर निर्भर हो गई है. स्वतंत्र रूप से नाटक होते नहीं. सरकार से जो ऐड मिल जाता है, उससे नाटक कर लेते हैं. ये जो सरकारीकरण है, उसने नाटक के पूरे माहौल को खराब कर दिया. मौलिक लेखन होना बंद हो गया. मौलिक लेखन न होने के कारण उससे मेरी दूरी बन गई. क्योंकि मौलिक लेखन ये लोग पसंद नहीं करते. अच्छा मेरी आदत है कि मैं अपना नाटक आम तौर पर करता नहीं हूं. एक ही बार किया था अपना नाटक. तो मेरा नाटक दूसरे किया करते थे. तो अब लोगों के पास ऐसे संसाधन नहीं है कि वो नाटक करें तो इस वजह से लिखना धीरे-धीरे छूट गया. यानि सरकारीकरण इतना ज्यादा हो गया कि वहां बैठे हुए लोग बने-बनाए नाटक ही ज्यादा लेना चाहते हैं. आपने मीडिया को भी करीब से देखा है. समाज के एक बड़े तबके की उपेक्षा करने का मीडिया का जो चरित्र है, उसको आप कैसे देखते हैं? – देखिए मीडिया हमेशा एक तो सांप्रदायिक रहा है. यानि मुस्लिम संस्कृति के विरुद्ध. दूसरे, मीडिया में, खासतौर पर आकाशवाणी औऱ दूरदर्शन में करीब 70 फीसदी बड़े आर्टिस्ट दलित थे. लेकिन उन्हीं की हालत सबसे ज्यादा खराब थी. कितनी भी कोशिश कर लिजिए उनको पहचान नहीं मिलती थी. हमने बहुत संघर्ष किया तो इतना हुआ कि चलो 25 फीसदी प्रोमोशन दे देंगे. लेकिन इसके बाद कोई प्रोमोशन नहीं हुआ. तो एक प्रोमोशन में जीवन बीत गया. तो इस तरह से वहां का माहौल वंचित समुदाय के पक्ष में नहीं था. ऐसा नहीं था कि उसकी हिस्सेदारी हो सके. जो दलित ऊपर तक पहुंचा था वो भी ब्राह्मणवादी होकर ही ऊपर पहुंच पाया. हालत ऐसी थी कि आकाशवाणी में (तब दूरदर्शन और आकाशवाणी एक ही थे) एक अमृतराव शिंदे थे. वो डिप्टी डायरेक्टर जनरल तक तो बन गए, फिर इनको डायरेक्टर जनरल बनाया जाना था. बाकी सारे डिप्टी डायरेक्टर जनरल ने सख्त विरोध किया. सांसदों तक से शिकायतें की कि उन्हें न बनाया जाए. हमने विरोध करने वालों से बात किया कि क्या दिक्कत है, तुमलोग विरोध क्यों कर रहे हो? वह सीनियर मोस्ट है तो उसको बनना चाहिए. तो उनका कहना था कि यार तुम समझते नहीं हो, ये दलित है और अभी इसकी नौकरी 6 साल बाकी है. ये छह साल तक इस पद पर रहेगा. मैने कहा कि दूसरे कई लोग तो लंबे अरसे तक रहे हैं. लेकिन वो फिर भी नहीं माने. इसके बाद शिंदे को एक्सटर्नल अफेयर मिनिस्ट्री में कहीं डायरेक्टर जनरल बनाकर भेज दिया गया. जब उनके तीन साल हो गए तब उनको ब्राडकास्टिंग में लाया गया. ताकि वो तीन साल ही इस पद पर रहें. तब तक मैं छोड़ चुका था. मैं उनसे मिलने गया. लेकिन तब तक वह आदमी पूरी तरह ब्राह्मण हो गया था. वहां दलित मुद्दा न उठाओ. वहां एक बहुत छोटी समस्या उठी थी. जो चौकीदार वहां होते थे. उनमें एक रण सिंह नाम का आदमी था. दलित था. उसने एक बार सवाल उठाया कि हमलोग सारा वो काम करते हैं जो इंडस्ट्रीयल सिक्यूरिटी आर्गेनाइजेशन में सिक्यूरिटी फोर्स वाले करते हैं. लेकिन उनकी और हमारी तनख्वाह में फर्क है. उन्हें हमसे दोगुनी तनख्वाह मिलती है. सिक्यूरिटी में ज्यादातर लोग दलित ही थे. लेकिन आखिर तक उनकी मांग खुद अमृतराव शिंदे ने स्वीकार नहीं की. जबिक ये बहुत छोटी बात थी. डायरेक्टर जनरल सिर्फ चाह देते तो उनको बढ़ा हुआ वेतन दे सकते थे. लेकिन दलित होने के बावजूद ब्राह्मणवादी होने के कारण उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसका विकल्प क्या हो सकता हैं. इतना लंबा वक्त बीत जाने के बावजूद मुख्यधारा की मीडिया में दलितों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला. तो क्या दलितों को अपनी मीडिया स्थापित करनी चाहिए? – ये हो तो रहा है. लोग कोशिश तो कर रहे हैं. खासतौर से बामसेफ वाले कोशिश कर रहे हैं. लेकिन ऐसा कोई काम हो सकेगा जिससे दलित सचमुच लाभान्वित हो सके, ऐसा मुझे नहीं लगता. देखिए जिस तरह का अखबार बामसेफ निकालना चाहते हैं या फिर वो निकालने लगे हैं. या इलेक्ट्रानिक मीडिया पर खर्च करना चाहते हैं तो उससे कोई लाभ नहीं होने वाला. क्योंकि देखिए सीधी सी बात है कि ये जो सवर्णों का मीडिया है वो क्या करता है कि सारी खबरें देता है. दलितों की भी खबरें देता है लेकिन अपने ढ़ंग से दे देता है. तो क्या होता है कि उसका जो दर्शक या फिर पाठक है वो बहुत बड़ा हो जाता है. दलितों को तो लाभ मिलता है, बाकियों को भी होता है. अब बामसेफ की कठिनाई ये है कि वो एक्सक्लूसिव दलितों के लिए निकालेंगे. अब जब एक्सक्लूसिव दलितों के लिए निकालेंगे तो बाकी लोग तो उसको देखेंगे नहीं. और सबसे बड़ी बात है कि बाकी लोगों को चुनौती कैसे मिलेगी. जैसे देखिए, भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे का जो आंदोलन है, वो हमें प्रभावित करता है कि नहीं. आपको यह भी देखना होगा कि सवर्ण क्या हैं, उनकी हैसियत क्या है, वो गड़बड़ियां कैसे करते हैं. और दलित के पक्ष में भी लिखिए. यानि जब तक पूरे समाज के बारे में क्रिटिकल नजरिया नहीं होगा, यह चलेगा नहीं. तो सबकी बात हो, दलितों का अपने तरीके से हो. जैसे अन्ना के आंदोलन में भी आरक्षण के बारे में कहा गया कि यह गलत है. आरक्षण पर एक फिल्म आई थी, उसपर जो शोर मचा उसमें मीडिया भी शामिल था. हालांकि मैने यह फिल्म देखी नहीं है. आपने अभी ‘आरक्षण’ फिल्म की बात की. पिछले कुछ वक्त में ऐसी कुछ फिल्में आई हैं जिसमें दलित किरदार मुख्य भूमिका में है. तो यह जो बदलाव आया है, जिसमें अब कम से कम बात होने लगी है, जैसे कहते हैं कि बहस जरूरी है, तो यह कितना साकारात्मक है? – ये तो सही है. लेकिन सारा जो फिल्म जगत है वो गैर दलित है. सारे फिल्मी दुनिया के लोग ये तो चाहते हैं कि उनकी फिल्म दलित भी देखें. इसलिए थोड़ी बात दलितों की भी डाल देते हैं. बाकी कोई चिंता नहीं है उनकी. फिल्म वाले इस बारे में थोड़े उदार तो हैं लेकिन उनकी उदारता की वजह आर्थिक है. जैसे मुस्लिम को बराबरी का ठहराने वाली बात हर फिल्म में मिल जाएगा. उनके विरुद्ध कोई बात नहीं होती. तो फिल्म वाले इस बारे में थोड़ा उदार हैं लेकिन अखबार और मीडिया वाले नहीं है. ‘आरक्षण’ फिल्म के प्रोमोशन के दौरान अमिताभ बच्चन और प्रकाश झा कई मंचों पर आएं लेकिन आरक्षण को लेकर उन्होंने कोई स्पष्ट मत नहीं दिया. तो उनका जो दोहरा चरित्र है, उसके बारे में आप क्या कहेंगे? – प्रकाश झा तो मैथिल ब्राह्मण हैं. जाहिर है वो बहुत कट्टर लोग हैं. ज्यादा हिलते नहीं. अमिताभ बच्चन की पूरी ट्रेनिंग ऐसी जगह हुई जहां ये बात मायने नहीं रखती. हरवंश राय बच्चन उनके पिता हैं. हैं तो ये शूद्र जाति के ही. कायस्थ थे. लेकिन बड़ी दुनिया में पहुंच गए. जाहिर है तब दलित प्रश्न उनके लिए मायने नहीं रखता. इसी मीडिया ने पिछले दिनों नोएडा में मायावती द्वारा दलित प्रेरणा स्थल बनाने की तीखी आलोचना की थी. लखनऊ में भी अंबेडकर पार्क बनाने के दौरान बहुत विरोध हुआ था. आपका क्या मानना है, क्या ऐसे पार्क और मूर्तियां बनना सही है? – ये तो सही है. बिल्कुल सही है. इससे एक स्थाई छाप तो पड़ेगी उस समूची जाति की, कि इतना बड़ा काम इनके पक्ष में हुआ. हालांकि उस काम को किसी सवर्ण ने प्रशंसा की दृष्टि से नहीं देखा. हर वक्त आलोचना ही होती रही. गांधी की लाखों मूर्तियां इस देश में होंगी और स्मारक होंगे. उस पर तो कोई आक्षेप कभी किसी ने नहीं लगाया कि गांधी की मूर्तियां इतनी क्यों बन रही हैं. अब गांधी से बड़े स्मारक बन रहे हैं तो उन्हें चिढ़ हो रही है. जब तक गांधी जी के सामानांतर मूर्तियां लगती थी तब तक दिक्कत नहीं थी. दिक्कत ये हुई कि उससे बड़े स्मारक बन गए हैं और अब गांधी की उतनी बड़ी मूर्तियां बनाने वाला कोई है नहीं, तो जाहिर है लोगों को कष्ट तो होना ही था इस निर्माण कार्य से. आप सोचिए कि आप सुभाष बाबू के नाम पर कितने स्मारक बना लेते हैं. अब सुभाष कोई सही आदमी तो थे नहीं, जर्मनी का जो हिटलर है, उसके साथ काम कर रहे थे. कभी उन्होंने अपने जीवन में एक शब्द नहीं कहा कि हिटलर अत्याचारी है. मेरा ख्याल है कि करीब 70 लाख लोगों को मरवाया उसने. तो सुभाष बाबू कभी उसके बारे में तो बोले नहीं. उनकी मूर्तियां लगी हुई है. अच्छा है कि अब वो सब मूर्तियां छोटी हो गई हैं. मैं तो बहुत खुश हूं. जैसे बुद्ध का है. बुद्ध के जो स्मारक हैं, उसके बराबर कोई नहीं पहुंच सकता. राम का कोई स्मारक उतना बड़ा नहीं बन सकता. यह संभव ही नहीं है. तो जाहिर है कि यह स्थिति कुछ लोगों को थोड़ा आतंकित करती है. उत्तर प्रदेश में बड़ा काम हो गया. हां, मायावती ने जो अपनी मूर्ति लगा दी है, उसको लेकर विवाद हुआ. मैं भी उसके पक्ष में नहीं हूं. कांशी राम ने उत्तर भारत में दलितों को आगे बढ़ाने में काफी योगदान दिया. तो उनकी मूर्ति लगनी चाहिए. बड़ी से बड़ी लगनी चाहिए. औरों की तो लगी ही है. लेकिन मायावती की खुद की मूर्ति लगाने से विरोध करने वालों को एक बहाना मिल गया. जो भी हल्ला मचता है वो मायावती की मूर्ति के लिए ही है. किसी दूसरे की मूर्ति के विरुद्ध बोलने की हिम्मत नहीं है. आपने बुद्ध की बात की अभी. दलितों के विकास में, उनके आगे बढ़ने में बौद्ध धर्म का कितना महत्व है? – बहुत बड़ा महत्व है भाई. वो साधारण नहीं है. बुद्ध ने जातिवाद तोड़ा. जो भी जातिवाद तोड़ेगा और सफलता पूर्वक तोड़ेगा वह बड़ा तो होगा ही. इस देश में बौद्ध धर्म को बहुत नुकसान पहुंचा. यानि अगर यह बाहर न गया होता. यानि तिब्बत, चाइना, जापान आदि जगहों पर बौद्ध संस्कृति न फैली होती तो दिक्कत होती. अब यूपी की महत्ता भी उन जैसी होने लगी है. शूद्र जाति के लोग दलित आंदोलन से उतनी शिद्दत से नहीं जुड़ पाएं, उसकी क्या वजह है? – दलितों ने भी शूद्रों के बहुत नजदीक जाने की कोशिश नहीं की. बामसेफ जरूर उदार संगठन है. बसपा है तो वह जबरदस्त काम करती है. लेकिन ऐसी स्थिति नहीं बनाती है कि शूद्र उसके साथ आ जाएं. इसकी कमी है. ओबीसी में से कुछ लोग राजसत्ता में आ गए. जैसे यूपी में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार आएं. अब नीतीश कुमार तो कुर्मी है. हैं तो ओबीसी लेकिन ओबीसी जैसा काम नहीं करते हैं. काम वही ब्राह्मणों जैसी करते हैं. वही स्थिति मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की थी. बल्कि वो तो खतरनाक ढ़ंग से हिंदुत्व के साथ हो गए थे. कहते थे कि हम तो कृष्ण के वंशज हैं. उससे भी ज्यादा हास्यास्पद है कि आप जो हिंदु धर्म के तीज-त्यौहार है उसे उतने उत्साह से क्यों मनाते हैं. यह तो ब्राह्मणों का है. जो ओबीसी सत्ता में पहुंचा वो शिद्दत से सवर्ण हिंदू बन गया. इस मायने में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की जो भूमिका है, क्या आप उसकी सराहना करते हैं? – इधर नहीं. क्योंकि उनको नारा तक बदलना पड़ा. मैने बीच में टोकते हुए सत्ता की मजबूरी याद दिलाई, तो उन्होंने कहा- ‘बहुजन हिताय’ के बाद आप ‘सर्वजन हिताय’ कर दें इसकी क्या मजबूरी होगी. मजबूरी अधिक से अधिक ये थी की मनुस्मृति न जलने दी जाए. तो अगर वो सर्वजन नारा न लगाती तब भी ब्राह्मणों को कुछ पता नहीं चलता. उनको तो पता नहीं चलता कि बहुजन और सर्वजन का फर्क क्या था. अब बुद्ध तो इतने बुद्धू थे नहीं. जब उन्होंने बहुजन हिताय कहा तो साफ मतलब था कि उसमें किसी गलत काम करने वालों के सुख की कामना हम नहीं करते हैं. उसको तो दंड मिलना चाहिए. इसलिए उन्होंने बहुजन सुखाय नारा दिया था. लेकिन अब तो हो गया. पर ये कारण है जिससे आंदोलन को थोड़ा फर्क पड़ता है. आप वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे हैं. लेकिन इसने दलित सवालों को मुखरता से क्यों नहीं उठाया? – बिल्कुल सही कह रहे हैं. कभी नहीं उठाया. बहुत खराब स्थिति है. हाल में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष ने भाषण दिया जिसमें उन्होंने साफ-साफ कहा कि दलित प्रश्न और स्त्री प्रश्न क्या होता है, क्यों उठाते हैं लेखक लोग? तो अब इस मानसिकता को क्या कहेंगे? शुरू से आज तक दलित प्रश्न पर और स्त्री प्रश्न पर भी वामपंथ ने कोई सीधा काम कभी नहीं किया. इसमें वो जो 500 पन्नों का बनता है घोषणा पत्र, उसमें पांच हजार मुद्दे होते हैं. उसी में एक छोटा सा प्रश्न दलित मुद्दा होता है. यह बेकार है. तो वामपंथ कभी करेगा ही नहीं. मैं टोकता हूं, लेकिन आज जब दलित आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से संपन्न होने लगे हैं तो कुछ वामपंथी धरे जाति के प्रश्न को उठाने लगा है. मुद्राराक्षस पहले के ही भाव में कहते हैं- यह बिल्कुल धोखाधड़ी है. कोई रिश्ता ही नहीं है. प्रगतिशील लेखक संघ जिसकी आपने बात की, उसकी नींव यहीं लखनऊ में पड़ी. हाल ही में लखनऊ में ही इसका 75वां वर्ष मनाया गया. तो प्रेमचंद से अब तक प्रगतिशील लेखक संघ कितनी प्रगति कर पाया है? – देखिए, इस मामले में तो प्रेमचंद भी पिछड़े हुए थे. वो कोई दलित पक्षधऱ नहीं थे. उन्होंने ऐसी दो-एक कहानियां जरूर लिखी जिसमें दलित पात्र है. लेकिन वो कहानियां ही विवाद का विषय है. और प्रेमचंद्र कठोरता के साथ गांधी के समर्थक थे. जिस मुद्दे पर पूना पैक्ट हुआ. यह प्रेमचंद्र के ही शब्द हैं कि “दलित हमारे पैर हैं और अगर पैर ही कट गए तो हम कैसे जीवित रहेंगे.” (तल्खी के साथ कहते हैं) पैर ही क्यों हैं भाई. आप हमें पूरे शरीर का हिस्सा क्यों नहीं मानते. क्योंकि हर हालत में आप हमें नीचे ही देखते हैं. तो प्रेमचंद घोर दलित विरोधी हैं. नामवर सिंह ने सार्वजनिक मंच से आरक्षण का विरोध किया है. उनके बयान को आप कैसे देखते हैं? – वो तो बोलेंगे ही. ये तो सारा वो वर्ग है जिसके बारे में देखा जा चुका है. जब ओबीसी को आरक्षण मिला तो इन लोगों ने विरोध के नाम पर कुछ लोगों को जिंदा तक जलवा दिया. तो ये तो हमेशा विरोध में रहेंगे. ये कभी पक्ष में नहीं रहेंगे. जब भी दलित विमर्श की बात आती है तो अक्सर विवाद उठता है कि दलितों की बात सिर्फ दलित ही कर सकते हैं, तो दूसरी आवाज आती है कि सिर्फ दलित ही क्यों, गैर दलित भी कर सकते हैं. आपका क्या मानना है? – ये अजीब है. एक बात बताइए, ये जो हिंदी का लेखक है जो ऐसी बातें करता है, उससे कहिए कि वो इंडोनेशिया के बारे में क्यों नहीं लिखता, जापान के बारे में क्यों नहीं लिखता. वहां भी तो किसान हैं, वहां भी तो औरते हैं-आदमी हैं. आप उनके बारे में तो कहानी नहीं लिखते हैं. क्योंकि वो एलियन है. अब सवाल यह उठता है कि आप दलित के बारे में क्यों लिखना चाहते हैं. (व्यंग्य के लहजे में कहते हैं) अगर आप दलित के बारे में कहानियां नहीं लिखेंगे तो क्या हो जाएगा, क्या आप बीमार हो जाएंगे. आखिर क्यों लिखना चाहते हैं. आपके पास आपकी पूरी दुनिया है, उसके बारे में लिखते रहें. ये तो अजब बात है कि दलित पर भी हम ही लिखेंगे. मैं टोकता हूं, ‘’कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये जो स्पेस है, उसे गैर दलित हड़पना चाहते हैं ’’ मुद्राराक्षस सहमति जताते हुए कहते हैं, बिल्कुल यही बात है. ये एक बड़ा क्षेत्र है. तो वो सोचते हैं कि उधर भी जमें रहो, इधर भी टांग अड़ाए रहो. मोहनदास नैमिशराय ‘बयान’ नाम की एक पत्रिका निकालते हैं, उसमें कई बार बाबा साहेब डा. अंबेडकर के ऊपर उंगली उठाई जाती रही है. पिछले दिनों ‘सम्यक प्रकाशन’ के शांति स्वरूप बौद्ध ने सार्वजनिक रूप से इसका विरोध भी किया था. तो इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं, आज के वक्त में कौन लोग ठीक लिख रहे हैं? – ये तो कुछ दलितों में डा. धर्मवीर का प्रभाव है. एक बात नहीं सोचते हैं आप, कि जितनी पढ़ाई लिखाई बाबा साहेब ने अपने वक्त में कर लिया था. 25-26 में वो एक गहरे विद्वान के रूप में सामने आए. दुनिया भर का साहित्य उन्होंने पढ़ रखा था. तो बाबा साहेब के जितना बड़ा कोई आदमी हो तो उनके विरुद्ध बोले. बाबा साहेब की कई बातें ऐसी हो सकती है जो सही न हो. एक तो बहुत जल्दी उनका देहांत हो गया. तो इतनी जल्दी जिस आदमी का देहांत हो जाए और उससे पहले वो इतना बड़ा काम कर गया हो, ये कोई साधारण तो है नहीं भाई. उतना बड़ा काम उनसे लंबा जीवन पाने वालों ने आज तक नहीं किया. इसलिए बाबा साहेब की आलोचना मुझे सही नहीं लगती. यह गलत काम है. ये डा. धर्मवीर ने चला रखा है ज्यादा. जो केरल में थे. उन्होंने बुद्ध की आलोचना की है. अंबेडकर की भी आलोचना की है. हालांकि खुद भी दलित हैं. तो आलोचना का अधिकार एक तो उसे होता है जो आलोच्य से ज्यादा बड़ा हों, जिसकी आलोचना कर रहे हैं उससे बड़े हों. कह के तो बड़ा नहीं हो सकता कोई. कल को हम कह दें कि बुद्ध से भी बड़े हैं और बुद्ध की आलोचना करने लगें तो यह गलत है. जहां तक लेखन की बात है. चंद्रभान ठीक लिखते हैं. सही सोचते हैं, सही बोलते हैं. लेकिन ये आदमी गलत है, कुंठित है. डा. धर्मवीर. सही नहीं लिखता. हालांकि उनके पक्ष में बहुत पत्रिकाएं निकलती हैं. वो बहुरि नहिं आवना भी उन्हीं के पक्ष की है. लगभग सारे अंक में उन्हीं पर छपा होता है. जहां तक दलित लेखन है नैमिशराय अच्छा कर रहे हैं. लेकिन वो धर्मवीर के विचारों से सहमत हों, ये अच्छा नहीं लगता. महाराष्ट्र में सांस्कृतिक जागरूकता है जबकि यूपी में राजनीतिक जागरूकता है, लेकिन दोनों एक-दूसरे की खूबियों को साझा नहीं कर सके, इसकी क्या वजह है? – भाषा का अंतर है. भाषा भिन्न होने के कारण लोगों के बीच संवाद नहीं हो पाता. मराठी भाषा हिंदी से अलग है. तो जाहिर है हिंदी भाषी जो क्षेत्र है वो मराठी आंदोलन से प्रभावित नहीं हो पाते. अगर मराठी भाषा यहां भी चल गई होती तो आंदोलन का स्वरूप कुछ और होता. हिंदू जातिवादियों को सबसे ज्यादा डर दो जगहों से लगता है, एक चेन्नई और दूसरा महाराष्ट्रा से. ये भाषा अगर हिंदी प्रदेश में समझी जाने लगी तो बड़ा आंदोलन हो जाएगा. नाचने-गाने का जो काम है वह दलितों-शूद्रों से जुड़ा रहा है. सांस्कृतिक इतिहास में इसका क्या महत्व है? – जो बेहतर गायक या नर्तक है इस वक्त वो सारे शूद्र जाति के हैं. ब्राह्मणों ने कुछ कोशिश जरूर की हमला करने की, कि वो ज्यादा बड़े हैं, लेकिन हो नहीं पाया. बनारस के शहनाइ वादक बिस्मिल्लां खां तो अति दलित जाति के थे. अब वो इनकी बराबरी तो कर नहीं पाते. जब मैं ब्राडकास्टिंग में था तो वहां आर्चाय बृहस्पति नाम के एक एडवाइजर आ गए. वो इस बात पर अमादा थे कि दुनिया का सबसे बड़ा संगीतकार पंडित ओमकार नाथ ठाकुर को मानो. हमलोगों ने काफी हल्ला-गुल्ला भी किया. लेकिन अपने जीते जी उस आदमी ने कुमार गंधर्व को कभी ब्राडकास्टिंग में आने नहीं दिया. क्योंकि कुमार गंधर्व ओबीसी थे. लेकिन कुछ लोग अपने को पंडित लिखने लगे. जैसे वो जो बांसुरीवादक हरि प्रसाद चौरसिया हैं, अपने को पंडित भी लिखने लगें. लेकिन हैं तो चौरसिया हीं. तो कुछ संगीतकारों में भी यह हो गया कि वो अपने को ब्राह्मण दिखाएं. नर्तक अच्छन महाराज, शंभू महाराज, लच्छू महाराज इनकी जो भी संतान हैं दिल्ली में, वो सारे पंडित लिखते हैं अपने को. जबकि ये लोग पंडित हैं नहीं, सब दलित हैं. तो क्या कर सकते हैं. आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी साहित्यिक और सांस्कृतिक रही है. उसके बारे में बताएंगे? – नाना आचार्य चतुर सेन शास्त्री साहित्य में एक जाने-माने नाम थे. पिता शिवचरण लाल प्रेम ड्रामा परफारमर थे. उन्होंने काफी काम किया लेकिन उन्हें आर्थिक सफलता नहीं मिल पाई. उन्होंने साईकिल का पंचर लगाया, रेलवे में मैकेनिक का काम किया, दर्जी का काम किया. पैसे के लिए हलवाई भी बने. लेकिन बुनियादी तौर पर वो आर्टिस्ट थे. पर आर्ट के जरिए कैसे अपनी जीविका चलाएं वह इसे समझ नहीं पाएं. लेकिन इसकी वजह क्या है आखिर, क्यों करते हैं वो ऐसा? – वजह साफ है कि खुद को पंडित लिखकर वो ज्यादा सम्मान पाते हैं. सवर्ण उनको और ज्यादा आदर देते हैं. अब यूं देखो, रविंद्रनाथ टैगोर अछूत जाति के थे. जिसको चांडाल कहा जाता है, उस जाति के थे. सारे लोग उनको ब्राह्मण मानते हैं. यहां तक की उनकी जो जीवनी लिखी गई है उसमें भी उनको ब्राह्मण बताया गया है, जबकि ये गलत है. बिल्कुल गलत है. यहां तक की हिंदुत्व की जितनी गहरी और गंभीर आलोचना गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने की है, उतनी किसी दूसरे बड़े लेखक ने नहीं की. वो जानते थे. उनका सारा लेखन इस बात का उदाहरण है. उन्होंने हमेशा दलित जाति के पक्ष में ही लिखा. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि दलित जाति भी उनको स्वीकार नहीं करती. आप किसी भी मंच से उनका नाम नहीं सुनेंगे. जबकि कायदे से तो मंच पर उनकी तस्वीर लगानी चाहिए. क्या वो खुद को अपने लोगों से जोड़ नहीं कर पाएं ? – ऐसा नहीं है. लोग ही उनसे खुद को नहीं जोड़ पाएं. उनका जो लेखन है आप उसे देखिए, सारा का सारा दलितों पर है. उनकी कविता जो है जूते का अविष्कार वो काफी प्रचलित है. (वो कहानी सुनाने लगते हैं.) “एक राजा था. जब वो चलता था तो उसके पांव में धूल लग जाया करती थी. उन्होंने अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई. कहा कि मैं चलता हूं तो पैरों में धूल लग जाती है. तो मंत्रिमंडल ने आपस में बैठक कर के तय किया कि एक लाख झाड़ू लगाने वाले लोग बुलाए जाएं और उनसे झाड़ू लगवा दिया जाए. एक लाख लोगों ने जब झाड़ू लगाया तो चारो ओर धूल ही धूल छा गई. राजा ने फिर मंत्रिमंडल को बुलाया और दूसरा उपाय करने को कहा, तब मंत्रिमंडल ने एक लाख पानी छिड़कने वाले लोगों को बुला लिया ताकि धूल न उड़े. जब उन एक लाख लोगों ने पानी छिड़का तो चारो ओर कीचड़ ही कीचड़ हो गया. मंत्रिमंडल फिर बैठा. इस बार तय हुआ कि सारी पृथ्वी को चमड़े से मढ़ दो. इससे ना धूल उड़ेगी ना कीचड़. तो एक लाख चर्मकार बुलवा लिए गए. उनको जब कहा गया कि पूरी पृथ्वी को चमड़े से मढ़ना है, तो उनका जो नेता था वो आगे आया और उसने राजा से पूछा कि आखिर आप ऐसा क्यों करना चाहते है. राजा ने कहा कि हमारे पैर में धूल लग जाती है, कीचड़ लग जाता है. तो उसने कहा कि जब कीचड़ और धूल लगने का ही प्रश्न है तो फिर आप अपने पैर को ही चमड़े से मढ़वा लिजिए. ” तो सारी व्यवस्था से ज्यादा सही सोच वह चर्मकार निकला. यह रविंद्रनाथ टैगोर के चिंतन का एक बड़ा पक्ष है. कि वो समाज में सर्वश्रेष्ठ किनको मानते हैं. आप धार्मिक सद्भाव को लेकर भी एक मिसाल रहें हैं. (मुद्राराक्षस जी की पत्नी मुस्लिम समुदाय से संबंध रखती हैं ) तो उस वक्त कितनी मुश्किल आई थी आपके सामने? – देखिए मेरे जीवन की जो शुरुआत है, उसमें मैं बता दूं. मेरा परिवार बेहद धार्मिक किस्म का था. मेरे परिवार में कोई भी अपने को शूद्र जाति का मानता नहीं था. थे. चूकि वह लिखने-पढ़ने का काम करते थे तो सब अपने को पंडित मानते थे. ब्राह्मण लिखते थे. सब आर्यसमाजी हो गए थे. हालांकि कोई ब्राह्मण उनको मान्यता देने को तैयार नहीं था. परिवार में यही माहौल था. मेरे नाना जी मुझे पढ़ाया करते थे. पहली बार जब मैने अपने उनसे धर्मग्रंथों का विरोध किया तो वो इतने नाराज हो गए कि फिर उन्होंने घर आना ही बंद कर दिया. मैने उनको कहा कि देखिए सारे धर्मग्रंथों में तो हमारे बारे में ये लिखा गया है. तो उनका जवाब था कि ये सब बाद में अलग से डाल दिया गया है. यानि 124 गृहसूत और धर्मसूत है, सबमें कैसे अलग से डाला जा सकता है. लेकिन नाना जी मानने को तैयार नहीं थे. तो ये जो धार्मिक जूनून था, उस वक्त थोड़ा मुझे भी लगता था कि एक बड़ा धर्मनेता बनना चाहिए. लेकिन जब मेरे कुछ कम्यूनिस्ट मित्र आएं उन्होंने मुझे पूरा परिवर्तित कर दिया. ये फायदा हुआ. हालांकि कम्यूनिस्ट बाद में खुद ही बदल गए. आपकी शादी को लेकर भी काफी विवाद हुआ था, तब आप स्थिति से कैसे निपटे थे? – मुझे तो कोई ज्यादा दिक्कत नहीं हुई क्योंकि मैं बहुत जल्दी जाना-माना लेखक बन गया था. तो कष्ट उन्हें ज्यादा हुआ जो विरोध कर रहे थे, इसमें मेरे पिता भी शामिल थे. पुस्कारों का आपके जीवन में कितना महत्व है. आपको काफी सम्मान मिला लेकिन 2008 के बाद यह रूक सा गया. क्या वजह मानते हैं आप इसकी? – ये जो सरकारी सम्मान है, वो जरा कम है. लेकिन इसको छोड़ दिया जाए तो जितना सम्मान हमको मिला है उतना जल्दी किसी को मिलता नहीं है. क्योंकि सारे देश में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां मुझे इज्जत न मिली हो. जन सम्मान तो इतना ज्यादा है कि दूसरे इसकी कल्पना नहीं कर सकते. ये जो सरकारी सम्मान होते हैं इन पर अभी मैने एक टिप्पणी लिखी थी कि ये प्रगतिशील लेखकों का ब्लैकमेल है. यानि खासतौर से जो प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष हैं वो लोगों को इतना ब्लैकमेल करते हैं कि क्या कहा जाए. उनकी कोशिश रहती है कि सारे संसाधन, सारे इनामात सब उनके अपने लोगों को मिलते रहे. यहां तक करते हैं कि प्रकाशक को फोन करते हैं कि ‘फलां’ कि किताब मत छापिएगा. ‘अमुक’ की बात मत सुनिएगा. आपने संघर्ष के वक्त को आप कैसे याद करते हैं, वह वक्त कैसा रहा? – संघर्ष का जीवन तो आज भी है. अभी का मतलब यह कि जो आर्थिक साधन होते हैं, मैं उनमें कुछ पिछड़ा हुआ हूं. उसके लिए ज्यादा प्रयत्न नहीं करता. तो थोड़ी-बहुत आर्थिक कठिनाईयां तो बनी रहती है. बाकी सब ठीक है. अपना काम चल जाता है. जैसे यहां के लेखकों में मशहूर है कि मेरा कुत्ता भी छिछला नहीं खाता है. मुर्गा आता है उसके लिए. अब जो मैने पाला है उसके लिए बोनलेस मछली जो 400 रुपये किलो वाली होती है, वो आता है. इतना मैं अपने बूते पर कर लेता हूं. मुझे किसी पर निर्भर नहीं होना है. सबसे बड़ी बात ये है कि किसी का कृपाकांक्षी नहीं बनना है. क्या आपको कभी अजीब नहीं लगा कि आप जिस समाज से आते हैं, जिस समाज की बात करते हैं, वो सत्ता में आया, बावजूद इसके आपकी सुध नहीं ली? – (हंसते हैं.) नहीं शासन का कोई दोष नहीं है. जितने साहित्य और सांस्कृतिक संस्थान हैं वो ब्राह्मणों के कब्जे में हैं. इन गोपाल चतुर्वेदी को आप क्या कहेंगे? प्रेम शंकर को आप क्या कहेंगे? तो अखड़ता नहीं है. शुरू में भी उन्हीं के कब्जे में था. अभी भी उन्हीं के कब्जे में है. बावजूद इसके मैं शिखर पर पहुंच गया. तो ठीक है. आपके जीवन में किनका प्रभाव रहा? – एक हमारे अध्यापक थे, डा. देवराज. फिलासफी पढ़ाते थे. लखनऊ विश्वविद्यालय में. उनकी खासियत यह थी कि वो तार्किक व्यक्तित्व थे. किसी तरह के ईश्वर या धर्म से उनका कोई ताल्लुक नहीं था. एक तो उन्होंने प्रभावित किया. भाषा शैली और शिल्प के रूप में निराला ने प्रभावित किया. भाषा का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए, ये हमने उसी आदमी से सीखा. हालांकि मैं उस आदमी का कठोर आलोचक हूं क्योंकि दलित मुद्दे पर वो आदमी बहुत गलत सोचता था. चिंतन बहुत खराब था. दलितों को वह सचमुच बहुत दलित मानता था वह आदमी. एक जगह उन्होंने लिखा है कि दलित तो सिर्फ डंडे से ही ठीक हो सकता है. वो आदमी कहीं भी बराबरी नहीं चाहता था. जब अंग्रेजी स्कूलों में यह व्यवस्था हुई कि सवर्ण और दलित इकठ्ठा पढ़ेंगे तो इस आदमी ने लंबा लेख लिखा था इसके विरूद्ध. विचारों से असहमत होने के बावजूद जो भाषा क्षमता है उनकी, उन्हीं से सीखा. क्या आपको कभी ऐसा लगता है कि आप दिल्ली में होते तो ज्यादा कुछ कर पातें? – नहीं, ऐसा नहीं लगा. मुझे नहीं लगता इसके कोई मायने है. मैं दिल्ली में रहता या लखनऊ में हूं, लिखता तो हूं ही, जाहिर है जो लिख रहा हूं वही मेरे व्यक्तित्व का आधार है. इंसान की जिंदगी में कई लोग आते हैं, जो याद रह जाते हैं. आपके जीवन में वो कौन लोग थे, जिनसे आपकी बनती थी? – दो लोग हमारे मित्र थे. इसमें से एक की Death हो गई है जबकि दूसरा कैंसर में पड़ा हुआ है. एक गौरीशंकर कपूर और दूसरा बलदेव शर्मा. दोनों ब्राडकास्टिंग में थे लेकिन बहुत ज्यादा पढ़ने-लिखने वाले थे. हालांकि उम्र में मुझसे बहुत छोटे हैं लेकिन बराबरी से बहस होती है. और एक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना थे जिनसे निकटतम मित्रता थी. इन्हीं तीन लोगों को मैं हमेशा याद करता हूं. भविष्य की क्या योजना है आपकी, अभी क्या लिख रहे हैं? – अभी एक लेखन पूरा किया है. लंबा उपन्यास है. देश की राजनीति और वंचित समुदाय पर एक किताब आ रही है. ‘अर्धवृत’ के नाम से. किताब घर प्रकाशन से आ रही है. एक-दो महीनों में आ जाएगी. भविष्य में भी लिखते ही रहना है. जो हिंदू धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ था, मैं उसी तरह से एक किताब इस्लाम धर्म पर लिखना चाहता हूं. क्योंकि मुसलमान भी खुद को सही ढ़ंग से नहीं रख पा रहे हैं. क्योंकि अनपढ़ लोग हैं. (क्या लिखेंगे, मैं बीच में टोकता हूं) कहते हैं- जो ओरिजनल फर्स्ट मैन था, मोहम्मद, उनकी क्या नियती और उद्देश्य था और उन्होंने पूरी जिंदगी में कैसे काम किया, ये लिखना है. क्योंकि ये मामूली बात नहीं है कि जिसके पास खाने को अनाज न हो. जो दूसरों से मांग कर काम चलाता हो, उधार किया हो, कई चीजें गिरवी रखकर काम चलाया. उस आदमी को जरा सही ढ़ंग से लोगों के सामने आना चाहिए. जबकि उनकी इमेज यह है कि वह बड़ा धर्मांध था. जबकि वो समाज के लिए काम करने वाला था. काफी उदार था. अब तक आपकी कितनी किताबें आ चुकी हैं? – अब तो तकरीबन 60 किताबें हो गई है. आपके नाम को लेकर एक सवाल उठता है, आपने यह नाम क्यों अपनाया? – इसके बारे में तो कई जगहों पर लिखता रहा हूं मैं. असल में मैने एक आलोचनात्मक लेख लिखा था. उस समय मैं एक स्टूडेंट था. संपादक ने कहा कि तुम्हारा नाम नहीं छापेंगे वरना जिसके खिलाफ लिखा है वो बड़े-बड़े लोग हैं, नाराज हो जाएंगे. छद्म नाम से छाप देते हैं. मैने हामी भर दी तो उन्होंने ही मुद्राराक्षस नाम से छाप दिया. और लोगों को लगा कि यह किसी बड़े बुजुर्ग का लेख है. बड़ा हंगामा हुआ उस लेख को लेकर के. बड़ी चर्चा हुई. (हंसते हुए) उसी लेख की बदौलत मैं ज्ञानोदय में सीधे सहायक संपादक हो गया. नाम चल गया तो चल ही गया. सर आपने इतना वक्त दिया. धन्यवाद – So nice of you.

2 अक्टूबर को जन्म लेने का अफसोस है- शांति स्वरूप

आप अपने जीवन के छह दशक देख चुके हैं. ऐसे वक्त में आप अपना मूल्यांकन किस तरह करते हैं?  – आमतौर पर लोगों की शिकायत होती है कि उनके सपने पूरे नहीं होते. लेकिन जब मैं अपने जीवन को देखता हूं तो पाता हूं कि मेरे सारे सपने पूरे हुए हैं. यह कहना ज्यादा सही होगा कि मैने अपने सपनों से ज्यादा पाया है. वो इस मायने में कि मैं जिस परिवार में पैदा हुआ वो संपन्न परिवार था. छूतछात का कोई अनुभव हमारे जीवन में नहीं है. पिताजी सामाजिक कार्यकर्ता थे. और बाबा साहब की रिपब्लिकन पार्टी के वे अध्यक्ष रहे. 1970 में मैं भी डेढ़ साल तक जनरल सेक्रेट्री था. वो वक्त ऐसा था जब हमारे घर पर दुखियारे लोगों का तांता लगा रहता था. लोग शिकायत लेकर आते थे, सहायता मांगने आते थे कि हमें मंत्री के पास, नेता के पास ले चलो. तो उनके माध्यम से समाज की पीड़ा को प्रत्यक्ष रूप से देखने का मौका मिला. बचपन में ही लकीरें खिंचने का शौक हुआ. नौकरी नहीं करना चाहता था लेकिन परिवार वालों और रिश्तेदारों के दबाव में मजबूरी में नौकरी करनी पड़ी. नौकरी करने लगा तो वहां साथ के लोगों को मेरी बातें अच्छी लगने लगी. आमतौर पर सरकारी दफ्तरों का माहौल गमगीन होता है लेकिन मैं अपनी बात कहता तो सबको मेरी बातें रोचक लगती थी. उन्होंने भी मुझे नौकरी छोड़ने नहीं दिया. लेकिन जब मैं नहीं माना तो उन्होनें मुझसे कहा कि मैं सस्पेंड हो जाऊं. क्योंकि ऐसा करने से जब मैं कुछ समय बाद लौटता तो मुझे एरियर आदि के रूप में ढ़ेर सारा पैसा मिलता. मुझे उनकी बात समझ में आ गई. नौकरी छोड़ने के बहाने के लिए मैने एक के बाद एक तीन अफसरों की पिटाई कर दी. इसके बावजूद उन्होंने मेरी शिकायत नहीं की. उनको पता था कि मैं आर्टिस्ट हूं तो उल्टी-सीधी लाइने डाल कर के अपना गुजारा कर लूंगा, लेकिन उनका क्या होगा. तो जहां मेरे हौंसले बुलंद थे तो उनमें असुरक्षा का माहौल था. लेकिन हुआ क्या कि उसी दौरान मुझे लाल सलाम (लेफ्ट) वाले मिल गए. जेसीएम एक लेबर यूनियन होती है वही लोग थे. उन्हें मेरे बारे में पता लगा था. उन्होंने कहा कि तुम बड़े काम के आदमी हो हमारे साथ आ जाओ. मैने भी उनसे अपने मन की बात कह दी कि मैं नौकरी में अपनी सीट पर नहीं आना चाहता. आपलोग मदद कर सकते हो तो बोलो. उन्होंने शर्त रखी कि मुझे उनके विरोध प्रदर्शनों और झगड़े-टंटों में जाना पड़ेगा, भाषण देना पड़ेगा. इस तरह काम चलता गया तबतक नौकरी में मेरे 20 साल पूरे हो गए और मैने वोलेंटरी रिटायरमेंट ले लिया और पेंटिंग के काम में एक बार फिर जोश-खरोश के साथ जुट गए. हालांकि यह कभी बंद नहीं हुआ था लेकिन तब फिर से औऱ ध्यान देकर करने लगे. उसी दौरान मैने अपना घर बना लिया. पेंटिंग और धर्म के काम से पूरी दुनिया घूम आया. सम्यक प्रकाशन की स्थापना कैसे हुई? – जिंदगी में एक ऐसा वक्त आया जब मैने संकल्प लिया कि अपने घर पर बैठकर कला के माध्यम से सेवा करुंगा. इसी दौरान हमारे एक मित्र ने यह कहना शुरू किया कि आप जो किताब निकाल रहे हैं भगवान बुद्ध और उनका धर्म, उसमें से भगवान शब्द हटा दीजिए. हमने उनसे कहा कि पहले वो मुझे कन्विंस करें कि इसका औचित्य क्या है. वो मुझे समझा तो नहीं पाए लेकिन मेरे खिलाफ लाबिंग शुरू कर दी कि ये शांति स्वरूप बौद्ध तो अड़ा हुआ है कि ‘भगवान’ शब्द छापेगा. उसी दौरान मेरे एक अन्य मित्र ने बताया कि उन्होंने एक किताब लिखी है, भगवान कौन और कैसे? हमारा हौंसला और मजबूत हुआ. हमने वो किताब छापी. उसका बहुत अच्छा रेस्पांस मिला और पूरी दिल्ली से भगवान शब्द को लेकर भ्रांति खत्म हो गई. तब हमको पता चला कि एक किताब में कितना बल, कितनी शक्ति होती है. उस समय से हमने निर्णय लिया कि हम किताब छापने का काम करेंगे. ये 1994-95 की बात है. हमने भारतीय बौद्ध महासभा का उपाध्यक्ष रहते हुए, भारतीय बौद्ध महासभा का अपने पैसे से किताब छापना शुरू किया. लोगों के पास पैसे नहीं होते थे. मैं अपने पैसे लगाता था. तमाम लेखकों से लिखवाता था और छाप कर बेचता था. बाद में मेरी पेमेंट हो जाया करती थी. आज अंबेडकर-बुद्धिस्ट मूवमेंट में जितनी सफल किताबें सम्यक प्रकाशन के जरिए लोगों को मिली है, इससे देश भर में एक बहुत बड़ा प्रशंसक वर्ग, साहित्य वर्ग खड़ा हो गया है. वो हमें हर तरीके से मदद भी करते हैं, आशीर्वाद भी देते हैं. उनकी बस यही तमन्ना है कि यह अभियान थमना नहीं चाहिए. सच कहूं तो इस काम को करने से हमें प्राणवायु मिलती है. बाबासाहेब डॉ. अंबडेकर का जो कर्ज हमारे ऊपर है वो तो उतर नहीं सकता लेकिन उनके प्रति दायित्व निभाने का मौका हमें सम्यक प्रकाशन के माध्यम से मिला है और जो दस सफल व्यक्ति अपने जीवन में जितना काम नहीं कर सकते, उतना काम मैने अकेले कर के दिखा दिया है. न हम सिर्फ डॉ. अंबेडकर, दलित वर्ग और पिछड़े वर्ग का साहित्य छाप रहे हैं, बल्कि जहां जो लोग बाबा साहेब के खिलाफ गलत लिख और बोल रहे हैं, उनको भी अगर कहीं से मुंहतोड़ जवाब मिलता है तो वो सम्यक प्रकाशन और शांति स्वरूप बौद्ध से मिलता है. उनलोगों को पहचान कर नंगा करने का काम शांति स्वरूप बौद्ध और सम्यक प्रकाशन ने किया है. आज उनके ऊपर हमारा भय बना हुआ है. क्योंकि उनके पास चारित्रिक बल नहीं है जबकि हमारे पास हमारी सबसे बड़ी पूंजी हमारा चरित्र है. सम्यक प्रकाशन अब तक अपने ग्यारह साल पूरे कर चुका है. इन 11 सालों के सफर को आप कैसे देखते हैं? क्या दिक्कतें आई? और 11 सालों में धीरे-धीरे चलते हुए सम्यक प्रकाशन कहां पहुंच गया है? – दिक्कतें तो बहुत आईं. सबसे बड़ी दिक्कत यह आई कि जो किताब बेचने वाले थे, वो किताब बेचकर पैसा नहीं देते थे. लेकर भाग जाते थे. कहां से फिर हम उतना पैसा लाएंगे. पहली दिक्कत तो यह आई. जैसे-तैसे हमने उनसे मुक्ति पाई तो फिर देखा कि जिस गति से हम किताब छाप रहे हैं, उस गति वह बिकती नहीं है. क्योंकि हमारे पास बेचने का कोई इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है. जबकि हमारे हर जिले, हर गांव में इसके लिए एप्रोच होनी चाहिए. तो बहुत दिनों तक हम इससे जूझते रहें. अंतत्वोगत्वा, अब हमें बहुत अच्छे मित्र मिले हैं. उन्होंने हमारी मदद की है. और ये सम्यक प्रकाशन की हमारी पुस्तकों की बिक्री का जो ढ़ांचा है, उसे उन्होंने अखिल भारतीय स्तर का बनाया है. तो धीरे-धीरे सारी दिक्कतें दूर हुई हैं. दिक्कते आती हैं लेकिन ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाती. मित्रों की मदद से उसका रास्ता भी निकल जाता है. एक चीज का मुझे गर्व है कि मेरा नाम मुझे बाबा साहेब अंबेडकर ने दिया. दूसरा गर्व मुझे यह है कि बाबा साहेब की जो पुस्तक है, भगवान बुद्ध और उनका धम्म, उसको गौरवशाली रूप में चार किलों में रंगीन रूप में इस तरह छापा है कि देश की शासक जातियां भी अपने ग्रंथ रामायण और महाभारत को ऐसे नहीं छाप पाईं. जबकि उनके पास साधनों की कमी नहीं है और यहां साधनों का ही अभाव है. मैने ये जो काम किया है वह बहुत गौरवशाली है. दूसरा, सम्यक प्रकाशन ने दूसरी भाषाओं में जिस अधिकार से अपना प्रकाशन आरंभ किया है, कोई दूसरा ऐसा नहीं कर पाया था. मैं न सिर्फ हिंदी में छाप रहा हूं बल्कि पंजाबी सहित बंगाली, मराठी, तेलेगू में भी किताबें हैं. इसके अलावा कई अन्य भारतीय भाषाओं में मेरा काम जल्दी ही सामने आने वाला है. इसके अलावा विदेशी भाषाओं में श्रीलंका की सिंघवी भाषा में किताबें लाएंगे. वर्मा की वर्मी भाषा में तो हमारी 20 किताबे हैं और 2012 के अंत तक स्पैनिश और रशियन भाषा में भी हमारी किताबें आने वाली है. इस तरीके का सफर मैं समझता हूं कि कम प्रकाशकों ने किया है. सम्यक प्रकाशन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि देश के 200-250 लेखक हमसे जुड़े हुए हैं. उसमें डा. धर्मकीर्ती, डा. विमलकीर्ती, डा. सुरेंद्र, डा. प्रदीप आगलावे (नागपुर), डा. अन्नेलाल, राज्यपाल रह चुके माता प्रसाद. इस तरह के ख्यातिनाम लेखक हमसे जुड़े हुए हैं और बाबा साहेब के मिशन को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. हम दलितों के लिए छाप रहे हैं, हम आदिवासियों के लिए छाप रहे हैं, पिछड़ों के लिए छाप रहे हैं, महिलाओं के लिए छाप रहे हैं. आप कह सकते हैं कि देश का जो दलित, दमित, पीड़ित और वंचित समाज है, वही हमारा कार्यक्षेत्र है. पिछले 11 सालों में हमारी लगभग 11 सौ किताबें आ चुकी हैं. अभी हमारा एक प्रोजेक्ट चल रहा है धम्मपद. दुनिया की सबसे ज्यादा प्रिंटेड किताब यही है. हम उसका गौरवशाली संस्करण अपने मित्रों के सहयोग से छापने जा रहे हैं और अगले वर्ष तक यह पाठकों के हाथ में होगा. हमारी जो दूसरी सबसे बडी चाह है, वह यह कि बाबा साहेब की रचनाएं मराठी में सबसे अधिक हैं. हिंदी में इसका अनुवाद बहुत कम हुआ है. तो हम मराठी में लिखे अंबेडकरी विचारधारा को हिंदी में लाने के लिए प्रयत्नशील हैं. अभी हमने डा. गंगाधर पानतावड़े जो मराठी साहित्य जगत के अध्यक्ष हैं, हमने उनका जीवन चरित्र छापा है, ताकि लोगों को पता चले कि बाबा साहेब का मूवमेंट कहां से कहां तक पहुंचा है. ऐसे ही और भी लोग हैं. हमने फुले की गुलामगिरी, किसान का कोड़ा, इशारा नाम की किताबों का हिंदी में अनुवाद कर दिया है. निकट भविष्य में बाबा साहेब के भाषणों का अनुवाद करेंगे. महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने पिछले दिनों तकरीबन 175-200 फोटो का बाबा साहेब का एलबम निकाला है. तो लोगों को ये न लगे कि बाबा साहेब के इतने ही फोटो थे. तो इस भ्रांति से लोगों को निकालने के लिए बाबा साहेब के 1500 फोटो की एलबम निकालने वाले हैं. सम्यक प्रकाशन किताबों के अलावा, कैलेंडर, फ्रेम पिक्चर भी छापता है. बाबा साहेब के जीवन चरित्र से संबंधित जितना बड़ा कलेक्शन हमारे पास है, उत्तर भारत में शायद किसी के पास नहीं है. उसको भी हम जनता के सामने लाने जा रहे हैं. आपने बताया कि सम्यक प्रकाशन से 250 लेखक जुड़े हुए हैं. जाहिर है वो मंझे लेखक हैं. लेकिन सम्यक प्रकाशन युवा लेखकों को मौका उपलब्ध कराने के बारे में क्या सोचता है?  – सम्यक प्रकाशक कि यह भी एक उपलब्धि है कि हमारा एक नारा है कि हमें घर-घर में लेखक पैदा करना है. जितनी तेज गति से नए लेखकों को हम सामने लेकर आए हैं, उतना मौका दूसरे किसी ने नहीं दिया है. पहले दिक्कत यह थी कि लेखक जब अपनी किताब लेकर प्रकाशक के पास पहुंचता था तो प्रकाशक यह पूछता था कि कितनी किताबे छपी है. हमने इस बात को समझा कि कोई बच्चा मां के पेट से कुछ भी सीखकर नहीं आता. हमने कई नई प्रतिभाओं को मौका दिया है. यह सूची बहुत लंबी है. 30-40 लोग ऐसे हैं, जिनको हमने पहला मौका दिया है. इसमें ज्यादातर युवा है. इनकी 3-4 किताबें छप चुकी हैं. सतनाम सिंह आज चर्चित नाम है. इन्हें हमने मौका दिया. उनकी 15 किताबें आ चुकी हैं और 15 किताबें आने वाली है. हमारे समाज में जो लेखन का टेलैंट है, उसे हम सामने लेकर आते हैं. (मुझसे कहते हैं), अगर आपके संपर्क में भी ऐसे लेखक हैं तो उसके बारे में बताइए, हम उनकी किताबें छापेंगे. भारतीय बौद्ध महासभा से आपका नाता कितना पुराना है? – 1970 से मैं भारतीय बौद्ध महासभा का कार्यकर्ता हूं. सभी बड़े पदों पर रह चुका हूं और आज की तारीख में मैं इस महासभा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हूं. मेरा संकल्प है कि ना तो मैं यह संस्था कभी छोड़ूंगा, ना ही कभी तोड़ूंगा. हालांकि एक स्थिति ऐसी आई थी जब मुझे संस्था तोड़ देनी चाहिए थी. लेकिन चूकि मैं बौद्ध हूं तो लोग कहते कि बौद्ध होकर भी मैने अबौद्ध वाला काम किया है तो दोनों में क्या अंतर है. बौद्ध धर्म में जो पांच शील बताए गए हैं, उनका उल्लंघन पाप बताया गया है. वो लोग पांचो शील का उल्लंघन करते हैं, जबकि हम यह ध्यान रखते हैं कि हमारे जान जाए तो जाए पर एक भी शील ना छूटने-टूटने पाए. तो इतना कंट्रास्ट हममे है और हम अपने काम में लगे हुए हैं. मैं बौद्ध हूं. भारतीय बौद्ध महासभा का पदाधिकारी हूं. मगर क्योंकि बौद्ध हूं इसलिए सभी बौद्ध संस्थाओं से मेरी निकटता है. ये मेरा काम करने का एक तरीका है. जब सबका धर्म एक है फिर झगड़ा काहे का. बातचीत की शुरुआत में आप बता रहे थे कि आप काफी संपन्न परिवार में पैदा हुए थे. आपके पूर्वज समाज का प्रतिनिधित्व करते थे. उसके बारे में विस्तार से बताएंगे? – पहले दिल्ली में तीन पंचायतें हुआ करती थी. उसे तब बावनी कहा जाता था. क्योंकि 52 गांव की एक पंचायत होती है. हमारा परिवार 3 बावनी का वजीर रहा. 1650 के लगभग. उस समय हमारा जो परिवार था वो रोहिणी के पास प्रह्ललादपुर गांव था उस वक्त उसे दिल्ली देहात कहते थे. तो हमारा परिवार यहीं रहता था. हमारे दादा का नाम था फूला. सर्दी का समय था, घर में पानी था नहीं. दूर से पानी लाना पड़ता था. उस दिन उन्हें आलस हो गया. सुबह के 4 बज रहे थे. उन्होंने सोचा कि सुबह का समय है तो पानी चोरी से लेने के लिए कुएं पर गए. उन्होंने कुएं में बाल्टी तो डाल दी लेकिन तभी एक पंडित जी ने उन्हें देख लिया. पंडित के मुताबिक एक छोटी जाति के आदमी के कुएं पर चढ़ने से सारा कुंआ अपवित्र हो गया. उसने शोर मचा दिया. शोर मचाने का मतलब मृत्यु का वारंट था. क्योंकि गांव इकठ्ठा होता और उन्हें मार डालता. तब दादा जी को और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बाल्टी घुमाकर पंडित को मार दिया. बाल्टी सीधे पंडित की कनपट्टी पर लगी और वह वहीं ढ़ेर हो गया. यह देख उन्हें लग गया कि अब उनकी खैर नहीं है. वह भागे-भागे घर गए. अपने परिवार को अपने साथ लिया. एक बैलगाड़ी खोल लिया और अपनी ससुराल अजमेरी गेट रेलवे स्टेशन के पास भाग आए. जब लोगों को यह पता लगा कि वह एक ब्राह्मण को मार कर आया है तो उनका खूब स्वागत हुआ. क्योंकि मार खाने वाले लोग जब मारने लगें तो उनका एक अलग समाजिक महत्व बनता है. वह सुंदर थे, लंबे-चौड़े थे तो सबके दुलारा बन गए. अपने समझदारी के बल पर वह थोड़े ही दिनों में समाज के मुखिया बन गए. इसी दौरान लालकिले का निर्माण चल रहा था. दिल्ली में एक संकट आ गया. तब जामा मस्जिद बन गया था, बादशाह रहने के लिए दिल्ली में आ गए थे. तब मटियामेट नाम का एक महल था. माटी का यह महल टेंपरेरी था. लाल किले का जो निर्माण हुआ था तो जामा मस्जिद के सामने काफी पत्थर का मलबा फैल गया था. अब दिक्कत यह भी थी कि मलबा हटे तो बादशाह नमाज पढ़ने जामा मस्जिद जाएं फिर लौटकर लाल किले आएं. बादशाह ने कहा कि यह जगह साफ होनी चाहिए. बादशाह के मंत्रियों ने ढ़िंढ़ोरा पिटवाया कि सभी आम और खास लोग दिल्ली के जामा मस्जिद पर आएं. सभी लोग वहां जुटे. बादशाह के वजीर ने कहा कि जो लोग इस जगह की सफाई करने में मदद करेंगे, बादशाह उनको ईनाम बख्शेंगे. बहुत लोगों ने अपने सुझाव दिए. मेरे दादा ने कहा कि अगर आप माफ करें तो मैं भी एक सुझाव दूं क्योंकि छोटा मुंह और बड़ी बात हो जाए तो हमें माफ कर देना. हम ये चाहते हैं कि आपके जो पत्थर साफ करने हैं, ये उसी का हो जाए जो इसे उठाकर ले जाए. हमें इतना अधिकार दे दीजिए. वजीर ने दादा की बात मान ली. जूते का काम करने में पत्थर की जरूरत होती है क्योंकि उसमें चमड़ा रखकर कूटा जाता है. पत्थर पर ही बिछाकर चमड़े को रगड़ा भी जाता है, साफ किया जाता है. दादा ने अपने लोगों के बीच आकर कहा कि वहां फ्री में पत्थर मिल रहा है. जिसको चाहिए वो जाकर उठा ले. सबको जरूरत थी. सब पत्थर लेने पहुंच गए. इस तरह सारा पत्थर समय से पहले साफ हो गया. बादशाह आएं और उन्होंने नमाज अदा की. वहां उन्होंने दो दरबार बनाए. दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास. दीवान-ए-खास में खास लोग जैसे राजदूत, मंत्री आदि होते थे. दीवान-ए-आम में ज्यादातर अपने-अपने क्षेत्र के हुनरमंद होते थे. यहां हर बिरादरी का एक-एक प्रतिनिधित्व होता था. ऐसे में लाल किले के दीवान-ए-आम में हमारी बिरादरी से सर्वसम्मति से हमारे दादा चौधरी मनफूल गए. इसमें भी मजेदार बात यह थी कि बादशाह ने जामा मस्जिद की तीन सीढ़ियां चमार बिरादरी को भेंट दे दी थी. यह बिरादरी अगर चाहती तो इस पर टैक्स लगा सकती थी. बादशाह ने एक तमगा भी दिया. दिल्ली के चमारों को खुश करने के लिए बादशाह ने अपना मटिया महल दे दिया. क्योंकि उन्हीं की वजह से बादशाह को समय पर नमाज अता करने का मौका मिल पाया था. बादशाह ने एक बात यह भी कही कि तुम अपना चमड़े का काम करो या ना करो लेकिन लाल किला, जामा मस्जिद और मकबरें आदि मेरी इमारतों पर सफेदी का काम किया करो. इस तरह तब से लेकर 1947 तक अंग्रेजों के रहने तक हमारे परिवार ने सफेदी का काम किया. इस तरह दिल्ली को बनाने, सजाने और संवारने में चमार जाति का बहुत बड़ा योगदान रहा है. यही हमारे परिवार का किस्सा था. 1648 में हमें वजीर का पद मिला. आज भी पुराने लोग हमें वजीर कह कर पुकारते हैं. हालांकि अब इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है. बाबा साहेब से आपके पूवर्ज या फिर दिल्ली वालों की जुड़ी कोई याद है? हमारे दादा जी चौधरी देवी दास जी दिल्ली में पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने वायरसाय आफिस में बाबा साहेब डा. अंबेडकर को देखा. यह ऐसे हुआ कि हमारे लोग पहले सिर्फ अपने मुहल्ले और गांव तक ही सिमटे रहते थे. यहां से निकलने का उनका कोई उद्देश्य, कोई काम नहीं था. मगर दादा जी सफेदी करने के काम से बाहर जाते थे. एक बार वो सेंट्रल सेक्रेटेरिएट में सफेदी का काम कर रहे थे तो वहां एक आफिसर ने उनको बताया कि देवी क्या तुम्हें मालूम है कि तुम्हारा एक बहुत बड़ा आदमी यहां दिल्ली में आया है. दादा जी उसके कहने के अनुसार वहां गए. दादा जी वहां गए तो उन्होंने देखा कि बहुत सुंदर व्यक्तित्व, विलायती सूट, चश्मा पहने, बालों में कंघा किए, चमकदार जूते पहने, कोट की ऊपरी जेब में कलम लगाए बाबा साहेब मिलने वाले लोगों से अंग्रेजी में गिटपिट-गिटपिट बात कर रहे हैं. दादा जी वहां से दौड़कर मुहल्ले में आएं और दूसरे चौधरियों को बाबा साहेब के व्यक्तित्व और भेषभूषा के बारे में बताया कि वो बालों में तेल डालते हैं. जूते इतने चमकदार हैं कि उनमें आप अपना चेहरा देख सकते हैं. यानि की तब हमारे लोगों को बालों में तेल तक डालना और जूते पहनना तक नसीब नहीं था. लोगों को यकीन नहीं हुआ तो वो उन्हें साथ लेकर बाबा साहेब जहां ठहरे थे वहां लेकर गए. सारे लोग उन्हें देखकर ठगे से रह गए कि इतना सुंदर हमारा आदमी हो सकता है. इस तरह दिल्ली वालों का वहां आना-जाना शुरू हो गया. बाबा साहेब जब दिल्ली में आएं तो पहले वह हैटमैंट हाऊस, जिसे अब वीपी हाऊस कहते हैं वहां रहें. यहां से शिफ्ट होकर फिर जनपथ स्थित वेस्टर्न कोर्ट आएं. यहां वो पहले 2 नंबर फिर 29 नंबर के कमरे में रहें. उसके बाद उन्हें पृथ्वीराज रोड पर 22 नंबर की कोठी मिल गई, फिर वो वहां शिफ्ट हो गए. इस तरह जब तक वो अंग्रेजों की वायसराय काउंसिल के मेंबर रहें, तब तक 22 नंबर में ही रहे. फिर जब वो नेहरू मंत्रिमंडल में मंत्री बन गए तो हार्डिंग एवेन्यू (पटियाला हाऊस के पास कोने वाली कोठी). हिंदू कोड बिल पर विवाद के कारण जब उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया तो 26, अलीपुर रोड पर आ गए. तो हमारे परिवार के लोग बाबा साहेब से उनके 22 पृथ्वीराज रोड पर मिले थे. मैने सुना है कि आपका नामकरण बाबा साहेब ने किया था. उस घटना के बारे में बताएंगे. कैसे हुआ यह? – जैसा कि मैने बताया कि हमारे परिवार के लोग बाबा साहेब से मिलने आते-जाते रहते थे. इसी दौरान मेरा जन्म हुआ. 2 अक्टूबर 1949 को जब मेरा जन्म हुआ तो दादाजी मिठाई लेकर बाबा साहेब के पास गए. वहां हमारे नाम को लेकर चर्चा छिड़ी. चर्चा के दौरान बाबा साहेब ने पूछा कि ब्राह्मण के पास नाम रखवाने के लिए क्यों गए. बाबा साहेब के सवालों के आगे आखिर हमारे दादा जी कैसे टिकते. दादा जी ने हथियार डालते हुए बाबा साहेब से कहा कि आप ही नाम रख दीजिए. क्या हुआ कि उस दिन अंग्रेजी के एक अखबारे में प्रसिद्ध वैज्ञानिक शांतिस्वरूप भटनागर के बारे में छपा था. उन्होंने दादा जी कहा कि अपने बेटे का नाम शांतिस्वरूप रखना. भटनागर को फेंक देना. इस तरह से हमारा नाम रखा गया. बाबा साहेब की वेशभूषा के ऊपर एक सवाल अक्सर सुनने को मिलता है कि एक गांधी थे जिन्होंने गरीबों के दुख को देखकर अपने कपड़े उतार दिए और एक डा. अंबेडकर थे, जो सूट-बूट पहन कर रहते थे. आखिर यह विवाद क्यों है? – यह विवाद नहीं है, यह लोगों की नासमझी है. गांधी जी से पहले भी बहुत महापुरुष हुए हैं हिंदुओं में. उन्होंने भी दलितों की पीड़ा देखी है लेकिन किसी ने कपड़े नहीं उतारे. गांधी एक ऐसे हिंदुओं के महापुरुष आए हैं, जिसके समय में बाबा साहेब अंबेडकर थे. उसे मजबूरी में कपड़े उतारने पड़े. वो तो बेचारा बाहर संघर्ष कर रहा था दक्षिण अफ्रीका में. उसने डा. अंबेडकर की धमक वहां सुन ली थी. मगर उसने अंदाजा लगाया था इतना पढ़ा-लिखा विद्वान डा. अंबेडकर कोई ब्राह्मण ही होंगे. जब आप गांधी को पढ़ेंगे तो यह पता भी चलेगा कि पहले उन्हें डा. अंबेडकर की जाति पता नहीं थी. लेकिन जब उसे पता चला कि डा. अंबेडकर दलित हैं, जो उसके होश उड़ गए. उसे चोट लगी कि दलित भी इतना आगे बढ़कर बात करते हैं. गांधी ने अंदजा लगाया कि डा. अंबेडकर कोई छोड़ी कद-काठी के दुबले-पतले इंसान होंगे. लेकिन जब उसने डा. अंबेडकर को देखा तो उसके होश उड़ गए. ऐसे में गांधी उनके सामने कहीं नहीं टिकते. अब उसके सामने चुनौती थी कि या तो वह सूट-बूट पहन कर डा. अंबेडकर जैसा प्रभावी बने या फिर उसे छोड़ दे. तो उसने दलितों को यह मैसेज देने की कोशिश की थी कि डा. अंबेडकर का रास्ता गलत है, मेरा रास्ता सही है. उसका कहना था कि डा. अंबेडकर जैसा सूट-बूट मत पहनों बल्कि मेरा जैसा लंगोटा पहनो. जो दलितों को लंगोटा पहनाने के लिए गांधी ने खुद लंगोटा पहना था. अब यह बात भी सोचने की है कि डा. अंबेडकर आखिर सूट क्यों न पहने? वह तो मनुस्मृति का विधान रद्द कराने आए थे. एक वक्त यह था कि दलितों को नया और अच्छे कपड़े पहनने पर प्रतिबंध था. अगर आप नया कपड़ा पहन लेते थे तो उसे उतार कर कीचड़ में गंदा कर दिया जाता था फिर पहनने को कहा जाता था. तो डा. अंबेडकर ने सूट-बूट पहनकर एक तरह से उन्हें चुनौती दी थी कि उतारो मेरा कोट, तुममें कितनी हिम्मत है. तो बाबा साहब का कोट उतारने की हिम्मत तो गांधी में थी नहीं तो उसने अपना कोट ही उतार कर लंगोट पहन लिया. बाबा साहब का साफ मानना था कि हमें बेटर ऑफ द बेस्ट बनना है. ऐसा करने के लिए लंगोट पहनकर नहीं बल्कि सूट-बूट पहन कर आगे चलना है. जो गांधीवादी अंबेडकर के कोट पहनने को लेकर उलाहना देते हैं, पहले वो अपने गिरेबां में झांककर देखें कि गांधी के चेले नेहरू ने क्या पहना, देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद क्या पहनते थे, ये दोनों नवाबों के ड्रेस पहनते थे. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जो गांधी जी के समधी थे उन्होंने भी लंगोट नहीं पहना. ये तो हमारे लोगों को बहला कर लंगोट पहनाने का एक विशेष अभियान चला रखा गया था लेकिन इसमें सफलता नहीं मिल सकी. बाबा साहेब का आंदोलन सफल हो रहा है. (खुद की ओर दिखाते हुए) आप देखिए कि मैं टाई-कोट में बैठा हूं, यानि हम बाबा साहेब के बताए रास्ते पर चल रहे हैं. गांधीजी को लेकर एक विवाद चला है कि नोट पर उनकी जो तस्वीर है वो असंवैधानिक है. इसे आप कैसे देखते हैं? – नोटों के ऊपर जो गांधीजी का चित्र आया है, इस लड़ाई को बहुत पहले से लड़ा जा रहा था. और सम्राट अशोक का चार स्तंभों वाले राष्ट्रीय चिन्ह को जो बहुत छोटा कर दिया गया है, यह उसको पूरी तरह से हटाने का षड्यंत्र है. उसकी भी लड़ाई पहले से लड़ी जा रही थी. हमारे एक बचपन के मित्र हैं, रतनलाल केन. पुरानी दिल्ली के रहने वाले हैं. उन्होंने आरटीआई के कानून के माध्यम से सरकार से यह मनवा लिया कि गांधी राष्ट्रपिता नहीं हैं. सरकार की ओर से गांधीजी को राष्ट्रपिता की उपाधि कभी नहीं दी गई, यह भारत के गृहमंत्री रह चुके लालकृष्ण आडवाणी स्वीकार कर चुके हैं. अगर फिर भी गांधी का चित्र नोट पर है, तो इसका मतलब यह है कि दलितों के विरोध में सरकार की दबंगई है, हठधर्मिता है. मगर, ये संविधान इसलिए महान है क्योंकि इसके तहत जिसके काल में यह गांधी का चित्र नोटों पर आय़ा वह वित्तमंत्री वर्तमान में भारत के प्रधानमंत्री हैं. अब या तो भारत के प्रधानमंत्री मुकदमें का सामना करेंगे या फिर देश की करेंसी पर हमारे बाबा साहेब अंबेडकर का भी चित्र लगेगा. और भी नेताओं का छपेगा, जिसमें सुभाष चंद्र बोस का नाम निश्चित है. आप चूकि प्रकाशन के क्षेत्र में है, इसलिए लेखकों के बारे में पूछें तो आप किन लेखकों का नाम लेंगे जिन्होंने आंदोलन को आगे बढ़ाया है, या फिर वैसे नाम जिन्होंने नुकसान पहुंचाया है. आपने पिछले दिनों बौद्ध महासभा के अधिवेशन में कुछ लोगों को सीधे चुनौती भी दी थी ? – दलित साहित्यकारों के बारे में ये कहते हुए मुझे बहुत शर्म महसूस हो रही है कि कुछ लोग बहुत जल्दबाजी में हैं. वो लिखना तो चाहते हैं लेकिन पहले का दूसरों का लिखा पढ़ना नहीं चाहते हैं. इससे आगे चलकर एक खामी और आ गई है कि अपने आप को दलित कहने वाले कुछ साहित्यकार ऐसे भी हैं जो बौद्ध धर्म और बाबा साहेब के खिलाफ भी लिखने लगे हैं. यहां आकर पीड़ा होती है. लेकिन इससे इतर गौरव के बिंदु भी हैं. अब आप देखें कि डा. जयप्रकाश कर्दम, डा. धर्मकीर्ती और डा. विमलकीर्ती जैसे साहित्यकार, जोधपुर के प्रो. ताराराम, डा. अनिल गजवीय, डा. संजय गजवीय, सविता मेंडेकांबले जैसे असंख्य साहित्यकार भी हैं. जुगलकिशोर बौद्ध, भद्रशील रावत लोग भी हैं. ये लोग जितना लिख रहे हैं काफी उम्दा लिख रहे हैं. बहुत अच्छे परिणाम सामने आ रहा हैं. मुद्राराक्षस जी का मैं धन्यवाद करना चाहूंगा जिन्होंने बाबा साहब का विरोध करने वालों को उचित जवाब दिया है. क्योंकि वो दलितवादी नहीं बल्कि ललितवादी हैं. उनके आंसू कलम के माध्यम से हमारे सामने आते हैं. कुछ लोगों ने उनके बारे में बहुत भद्दी टिप्पणियां लिखी है जो मानवता के स्तर से नीचे उतर कर है. जहां तक आपने बौद्धमहासभा का जिक्र किया तो मैं आपको बताऊं कि मेरे बचपन के मित्र भाई मोहनदास नैमिशराय पर मैने जो टिप्पणी की थी वो व्यक्तिगत नहीं सैद्धांतिक है. मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि तुम्हारी क्या मजबूरी है कि तुम बाबा साहेब डा. अंबेडकर के खिलाफ लिखते हो. तुम्हारी क्या मजबूरी है कि तुम बौद्ध धर्म के खिलाफ लिखते हो. आरएसएस के लोग लिखते हैं तो बात समझ में आती है लेकिन तुम आरएसएस की सरकारों यानि भाजपा की सरकारों से विज्ञापन लेकर लिखते हो तो हमें ऐसा शक होता है कि आपको ये जो मोटे-मोटे विज्ञापन मिलते हैं, ये वहां से आपको रिश्वत के रूप में मिलता है कि डा. अंबेडकर के विरोध में लिखो. अंबेडकर फाउंडेशन की जिन किताबों का अनुवाद मोहनदास नैमिशराय ने किया है, मेरा आरोप है उनपर, कि उनका अनुवाद बहुत निम्न स्तर का हुआ है. बल्कि उन्होंने बाबा साहेब के विचार की धार को कुंद करने का काम किया है जो बहुत घिनौना अपराध है. दूसरी ओर मैं मुद्राराक्षस जी और जयप्रकाश कर्दम जी को जिनमें एक वयोवृद्ध हैं तो दूसरे युवा तुर्क हैं, मैं देश के दलितों की ओर से किसी से भी लोहा लेने के लिए बौद्धिक स्तर पर सक्षम पाता हूं. किसी के भी सवालों का जवाब अगर हम न दे पाएं तो ये दोनों लोग निश्चित रूप से उनको जवाब देंगे और संतुष्ट करेंगे. नोएडा में राष्ट्रीय दलित स्मारक के उदघाटन के वक्त मायावती जी ने एक मुद्दा उठाया था कि बाबा साहेब का निधन दिल्ली में हुआ, कांशी राम जी का निधन दिल्ली में हुआ लेकिन कांग्रेस ने किसी को तव्वजो नहीं दी. जबकि दलित समाज बाबा साहेब का तो ऋणी है ही, कांशी राम जी का भी काफी योदगान रहा है. तो इस आरोप को आप कैसे देखते हैं? – मायावती जी ने जो बात कही मैं उससे सहमत नहीं हूं. सहमत इसलिए नहीं हूं क्योंकि वह बहुत कम बता रही हैं. उनलोगों ने बाबा साहेब को अहमियत नहीं दी बात यह नहीं है. बात यह है कि ये लोग बाबा साहेब के नाम को मिटाने के लिए पैसा खर्च कर रहे हैं. और करोड़ो रुपया खर्च कर रहे हैं. बाबा साहेब की एक किताब शूद्रों की खोज की हिंदी अनुवाद की मेरी एक किताब है. उसमें मैने बताया है कि गांधी जी के वांड़मय सौ खंडों का है. इसमें कोई खोट नजर आ गया तो वो सौ खंड फिर से छपकर छह महीने में सामने आ गया. बहुत अच्छी बात है. खुशी की बात है कि हमारे देश में इतनी तेज गति से भी काम होता है. मगर सवाल यह उठता है कि ये प्रतिबद्धता डा अंबेडकर के साहित्य के प्रकाशन और पुनःप्रकाशन में कहां खो जाती है. कहां तो गांधी जी के 100 खंड छह महीने में छप गए जबकि बाबा साहेब के 22 खंड (मैं महाराष्ट्र सरकार की बात कर रहा हूं क्योंकि केंद्र वालों ने तो 10 खंड के 21 खंड बना दिए हैं) छापने में एक तिहाई शताब्दी (वन थर्ड सेंचुरी) लग गई. तो मायावती जी कम बता रही हैं इसलिए मैं उनसे सहमत नहीं हूं. असलियत में डा. अंबेडकर की विचारधारा को फैलाने के लिए जितने भी मंत्री बिठाए गए हैं असल में वो अंबेडकर विरोधी हैं. और जब हमने इसका विरोध किया तो उनका और प्रोमोशन कर दिया गया क्योंकि उन्हें लगा कि वो अच्छा काम कर रहे हैं. दलितों का अपना मीडिया बनाने की जो बात होती है, वो क्यों नहीं हो पा रही है. काबिल लोग भी है. पैसे भी हैं, फिर दिक्कतें कहां है.? – हमारे बौद्ध धर्म में कहते हैं कि प्रज्ञा यानि ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है. शील का मतलब है सदाचार, लोककल्याण की भावना. इसलिए अगर शील साथ में नहीं है, तो वो ज्ञान भी बेकार है. ये जो दलित समाज के ऊपर 50-60 पत्रिकाएं निकल रही हैं, नाम के लिए तो ठीक है कि निकल रही हैं, लेकिन आखिर उसमें सामग्री क्या है? प्रायः ज्यादातर पत्रिकाएं बस निकालने के लिए निकल रही हैं. बाकि उनका ज्यादा मतलब नहीं है कि हम उनमें छाप क्या रहे हैं? इधर-उधर का दूसरी जगहों से लेकर छाप रहे हैं, वाहियात छाप रहे हैं. लोग एक साथ मिलकर बैठने के लिए तैयार नहीं है. बात करने को तैयार नहीं है. बल्कि 50-60 की संख्या तो बहुत कम है. मेरी नजर में तो 200 से ज्यादा पत्रिकाएं हैं. अगर ये सब मिलकर एक साथ पत्रिका निकाल दें तो मेरा ख्याल है कि ज्यादा सामग्री मिलेगी. ज्यादा बेहतर काम होगा और ज्यादा लोगों तक पहुंच होगी. जब तम हमारे बीच में एक सशक्त सोशल लीडरशिप पैदा नहीं होगी तब तक हमारी अपनी मीडिया विस्तार नहीं ले पाएगा. क्योंकि राजनीतिक लोगों की अपनी जरूरतें होती है, अपनी बातें होती है. यह सोशल लीडरशिप से ही पैदा हो पाएगा. बहुत लोग हमसे ही यह उम्मीद करते हैं लेकिन हमारा कमिटमेंट सम्यक प्रकाशन के लिए है. जरा पीछे चलते हैं और आपकी पेंटिंग की बात करते हैं. यह जुनून कहां से आया ? – बहुत छोटी उमर से ही पिताजी के प्रयास से और एक भाई, जो अब नहीं रहें, उनके प्रयास से रेखा खिंचने और चित्र बनाने में रुचि पैदा हो गई. उसके कारण स्कूल में बहुत अच्छे नंबर आते थे. हालांकि जब हम हायर सेक्रेंड्री स्कूल में गए तो मेरी अपनी कमजोरी की वजह से मुझे आर्ट का विषय नहीं मिल पाया. ज्योग्राफी का विषय मिला. तब उसके लिए चित्र बनाना करते थे. बड़े हुए तो दयाल सिंह कालेज गए. वहा अपनी कला के बूते हम बेस्ट आर्टिस्ट ऑफ दयालसिंह कालेज हो गए. वहां हम कॉलेज के दीवार पर भितीचित्र बनाते थे. वहां जो हमारे हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे उनसे एक बार एक आदमी मिलने आए. उस आदमी ने उनसे पूछा कि आप यह चित्र किस कलाकार से बनवाते हैं. तो मेरे शिक्षक ने उन्हें बताया कि यह हमारा एक छात्र बनाता है. उन्होंने कहा कि उन्हें अपनी किताब के लिए कुछ चित्र बनाना है उसे मेरे पास भेजो. हम उनके पास गए. उन्होंने कहा कि कुछ डाइग्राम बनवाना है, कितने पैसे लोगे. मैने कहा कि हमने अब तक तो ऐसे पैसे लेकर काम किया नहीं है, आप ही बता दो कि हमें क्या दोगे. उन्होनें कहा कि वो सात रुपये देंगे जिसमें पांच रुपये चित्र के और दो रुपये स्याही, पेंसिल और पेपर के लिए होंगे. तो इस तरह मैने उनके लिए पांच सौ चित्र बनाया. यह 1968 की बात है. तब मैं ग्रेज्यूशन फर्स्ट इयर में था और कॉलेज में मेरा पहला महीना ही था. जब उनका काम हो गया तो उनके किसी दूसरे मित्र ने मुझे बुला लिया. तो यह क्रम चलने लगा. उन्हीं में से एक मित्र ने मुझे अमेरिकन ऐंबेसी में भेजा. वहां अंग्रेजों की जो हाउसवाइफ थीं. वो चित्रकारी करना, स्क्लपचर करना सीखना चाहती थी. तो मुझे वहां भेजा गया कि जाओ और उनको ड्राइंग सिखाओ. बहुत अच्छा पैसा मिलता था. उसी दौरान हमने अपने घर में बाटिक पेंटिग का काम शुरू किया. यह बहुत अच्छा चला. मैं अपनी पत्नी के साथ मिलकर करता था. इसमें में मेरी नियुक्ति एलडीसी में हो गई. हालांकि हम जाना नहीं चाहते थे. क्योंकि उस नौकरी में हमें 263 रुपये तनख्वाह मिलनी थी और हम अपने घर में अपना काम कर के हफ्ते में 500 रुपये कमा लेते थे. ऐसे में 2 हजार रुपये महीने का काम छोड़कर 200 रुपये का काम करने का मन नहीं था. लेकिन नाते-रिश्तेदारों का कहना था कि पेंटिंग का काम हमेशा का नहीं है. जबकि सरकारी नौकरी में आंधी आए चाहे तूफान, पैसे मिलने हैं. तो घरवालों और घरवाली के मजबूर करने पर मैने वो नौकरी ज्वाइन कर ली. एक वक्त ऐसा भी था जब मेरे अंडर में 60 आर्टिस्ट काम करते थे. इस पेंटिंग के काम के कारण हमारा विदेशियों से भी संपर्क हुआ क्योंकि पेंटिंग बेचने के लिए हमें बाहर जाना पड़ता था. उनके सोच में आने से हमारी सोच में अंतर आया. हम जो थोड़ा बहुत विजन रखते हैं तो इसलिए क्योंकि हमने उनके काम करने के तरीके को, निर्णय लेने की क्षमता को देखा तो उसी को अपने जीवन में उतार कर के सम्यक प्रकाशन को आगे बढ़ाने का काम किया है. और आज मैं बहुत गर्व के साथ कह सकता हूं कि इस दलित समाज के कम से कम दो सौ बच्चे मेरे यहां पेंटिंग का काम सीखकर अपना स्वतंत्र काम कर रहे हैं. तो उपलब्धियों से भरा जीवन है. जीवन में किसी बात का अफसोस ? बस एक ही अफसोस है कि हमारा जो जन्मदिन है, वो 2 अक्टूबर को है. मुझे इसका अफसोस है. लेकिन फिर भी हम उस 2 अक्टूबर को भी अंबेडकरमयी बनाने की कोशिश में लगे हैं. आप हमारे कैलेंडर में देखेंगे कि वहां अक्टूबर में गांधी का चित्र नहीं है बल्कि हमारा चित्र है. मित्र देखकर हंसते हैं. उस दिन बहुत फोन भी आते हैं लेकिन यही सच्चाई है. धन्यवाद शांतिजी. आपने इतना वक्त दिया. अपने अनुभव को बताया.  आपका भी धन्यवाद अशोक जी।

द्वंद में रहते हैं दलित स्कॉलर – प्रो. नंदू राम

नायक कई तरह के होते हैं. एक किस्म खामोश नायक की भी होती है. जो बिना अपने काम की शेखी बघारे चुपचाप रहकर निरंतर अपना काम करता रहता है. जो ना आत्मकथा लिखकर खुद को महान बताते की कोशिश करता है, न ही राजनीतिक लाभ लेने के लिए किसी राजनीतिक दल का दामन थाम लेता है. जेएनयू पहुंचने वाले पहले दलित प्रोफेसर नंदू राम को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं. नंदू राम के कद और वरिष्ठता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वो जेएनयू पहुंचे थे, सुखदेव थोरात और तुलसी राम स्टूडेंट थे. तो वहीं हर मोर्चे पर दलित हक की आवाज बुलंद करने वाले डा. विवेक कुमार सरीखे अपने-अपने क्षेत्र के कई दिग्गज उनके शिष्य हैं. शख्सियत ऐसी कि जो भी एक बार उनसे मिल ले तो उनकी सादगी का कायल हो जाए. सच्चाई इतनी की जब डाक्टर ने सिगरेट पीने से मना कर दिया तो डाक्टर की बात का लिहाज कर के हर दूसरे मिनट सिगरेट सुलगाने से पहले आधी तोड़ कर फेंक देते हैं. जेएनयू के सोशल साइंस विभाग से रिटायर हो चुके प्रो. नंदू राम इन दिनों अपनी कई अधूरी किताबो को पूरा करने में लगे हैं. साथ ही देश भर के कई विश्वविद्यालयों में विभिन्न बॉडी के मेंबर हैं. पिछले दिनों उनके द्वारका स्थित घर पर दलित मत.कॉम और दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने उनसे दलित स्कॉलर, दलित राजनीतिज्ञो, जेएनयू और अब तक नहीं आ सकने वाली उनकी आत्मकथा के बारे में लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है ….. जिंदगी का सफर कहां से शुरू हुआ? जन्म, शिक्षा कहां हुई. पूर्वी गाजीपुर में सैदपुर तहसील में मढ़िया गांव हैं, वहां का रहने वाला हूं. यहीं से प्राइमरी पास करने के बाद चार किलोमीटर दूर के एक स्कूल से हाई स्कूल किया. फिर प्लस टू करने बनारस चला आया. शहर के सबसे बढ़िया कालेज से प्लस टू किया 1965 में. बीएचयू चले गए बीए ऑनर्स करने. 67 में ऑनर्स हो गया और उसी साल पीएनटी विभाग में क्लर्क हो गए. गोरखपुर में. मन में था आईएएस बनने का. नौ-दस महीने नौकरी करने के बाद लगा कि ऐसे कुछ नहीं कर पाएंगे. नौकरी से रिजाइन देकर फिर बीएचयू आ गए एमए करने के लिए. सोसियोलाजी में एमए किया. यहीं छह महीने तक पीएचडी में रजिस्टर्ड रहा लेकिन देखा कि काम आगे नहीं बढ़ रहा है तो कानपुर आईआईटी में पीएचडी में सेलेक्शन हो गया तो यहां आ गए. बीटेक वालों को सोसियोलाजी पढ़ाते रहे. 77 में पीएचडी हो गया. 78 में जेएनयू में अप्वाइंटमेंट हो गया तो यहां चले आएं. जेएनयू में आने वाला मैं अकेला और पहला दलित शिक्षक था. तब रिजर्वेशन नहीं था. दलित स्टूडेंट भी आधे दर्जन के करीब ही थे. ज्यादातर महाराष्ट्र के थे. उसी समय दो और सेंट्रल यूनिवर्सिटी में सेलेक्शन हुआ था. एक बीएचयू में और दूसरा नार्थ-इस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी शिलांग में. लेकिन मैने जेएनयू को चुना. तब से जेएनयू में ही रहे. बीच में 99 से मार्च 2004 तक बाबा साहेब अंबेडकर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज जो मऊ में है, वहां डायरेक्टर जनरल रहें. जुलाई 2011 में जेएनयू से रिटायर हो गया. तब से रिटायर इंसान की जिंदगी बिता रहे हैं. आप बीएचयू और जेएनयू दोनों जगहों पर रहे. बीएचयू में थोड़ी कट्टरता है, जबकि जेएनयू का माहौल खुला माना जाता है, आपको क्या फर्क लगता है. बीएचयू में जातिवाद तो था लेकिन 1970 तक पढ़ाई का माहौल था. टीचर औऱ स्टूडेंट दोनों Committed थे. बीएचयू की सेंट्रल लाइब्रेरी में दुर्लभ (Rare) किताबें थी. बाबा साहेब की ओरिजनल पांडुलिपी भी यहीं पढ़ी. बाबा साहेब द्वारा कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रजेंट की गई थिसिस भी यहीं पढ़ा. जेएनयू का माहौल जरा खुला था. 24 अप्रैल 1978 को ज्वाइन किया था. क्लास में गया तो स्टूडेंट ने पहला सवाल पूछा कि आप आईआईटी, कानपुर से आए हैं, जेएनयू और उसमें क्या फर्क है. मैने कहा कि मैं जेएनयू में काफी नया हूं और मुझे कोई अंतर नजर नहीं आता. हां, मैने यह फर्क बताया था कि जेएनयू में लड़के-लड़कियां एक ही हॉस्टल में रहते हैं. स्टूडेंट हंसने लगे. तो आईएएस बनने का सपना कब छूट गया? जब दुबारा बीएचयू लौट कर आएं तब इसका मोह छोड़ दिया. हमारे गांव के कुछ दलित और पिछड़े छात्र थे. सब हायर एजुकेशन वाले थे. तब मुझे भी लगा कि मुझे भी रिसर्च करना चाहिए. इसमे बाबा साहेब की किताबों का भी असर रहा था. यह दिमाग में आया कि कुछ नई चीजें लिखनी और करनी चाहिए. तय कर लिया कि एकेडमिक्स में आना है. सोच लिया कि इस फिल्ड में रहकर दलितों की समस्याओं को सोशल साइंस के माध्यम से सही तरीके से सामने लाना है. जब कानपुर में 5-6 महीने रहा था तो दलित समाज की स्थिति के बारे में काफी कुछ पढ़ा. अपनी एक समझ विकसित की और दलितों के बारे में समाजशास्त्री के दृष्टिकोण से बात करने लगे. मैने अपनी पीएचडी में यह देखा कि दलितों मे किस तरह से सोशल मोबिलीटी आ रही है. पीएचडी का विषय था ‘सोशल मोबिलीटी एंड स्टेट्स आईडेंटिफिकेशन अमंग्स शिड्यूल कॉस्ट’ (Social mobility and states identification amongs schedule cast). जेएनयू में लगातार चार सेमेस्ट में चार नए कोर्सेस पढ़ाए. जेएनयू आंदोलनों का गढ़ रहा है, उसको कैसे याद करते हैं. शुरू में लोग बाबा साहेब की बातों को पब्लिकली डिस्कस नहीं करते थे. जब मैं यहां आया तो हॉस्टल में कुछ मराठी छात्र आपस में चर्चा करते थे. मुझे याद है कि जब मैं पहले दिन क्लॉस में पढ़ाने गया तो मैने डा. अंबेडकर का नाम लिया, उनकी पुस्तकों में से कुछ कोट किया. हर सेमेस्टर में मैने यह काम किया. बाबा साहेब की बातों को सब्जेक्ट के साथ रिलेट कर बताया. एक्जीक्यूटिव कमेटी का मेंबर रहते हमने विद्यार्थियों में आरक्षण लागू करवाया. मकान में आरक्षण लागू करवाया. आज खुले रूप में अंबेडकर के बारे में बात होती है. यह अच्छा है. जब मैने ज्वाइन किया तो तुलसी स्टूडेंट थे. एम ए कर रहे थे. एस के थोरात एम फिल में आए थे. लाइफ साइंस में आर के काले जो अभी गुजरात सेंट्रल यूनिवर्सिटी के वाइंस चांसलर हैं एमएससी में आए थे. आपने कहा कि आप क्लास में बाबा साहेब की बातों को कोट किया करते थे. तो बाबा साहब की बातों को छात्रों तक पहुंचाने में शिक्षकों की कितनी भूमिका है, यह कितना हो पाया है? जितना होना चाहिए उतना नहीं हो पाया है. मैं जब पढ़ाता था तो समाजशास्त्र से संबंधित बाबा साहेब की बातों को कोट किया करता था. जैसे समाजशास्त्री लोग जाति की उत्पति के बारे में उल्टा-सीधा लिखे हैं तो मैं इस विषय को पढ़ाते हुए बाबा साहेब की थिसिस को कोट करता था, जो उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी में सबमिट किया था. उनके सामने रख देता था कि यह देखो और बाकियों से तुलना करो. मुझे लगता है कि दलित शिक्षकों को इस बारे में जितना करना चाहिए वो हो नहीं पाया है और गैरदलित शिक्षकों ने अंबेडकर को पढ़ा नहीं है. वो पढ़ना भी नहीं चाहते हैं क्योंकि अगर वह पढ़ेंगे और पढ़ाएंगे तो उनको लगेगा कि ये बातें उनके खिलाफ जा रही है. जिन इतिहासकारों ने भी समाज का इतिहास (Social History) लिखा है उन्होंने भी डा. अंबेडकर को महत्व नहीं दिया है. जैसे सुमित सरकार ने अपनी किताब Writing of Social History in india में एकदम आखिर में अंबेडकर पर दो पन्ने देकर बस खानापूर्ति की है. मार्डन हिस्टोरियन में विपिन चंद्र ने अंबेडकर के बारे में कभी लिखा ही नहीं. तो जरूरत है कि दलित संत, विचारकों और इस समाज के लिए काम करने वाले आंदोलनकारियों के विचारों को आगे लाना चाहिए और ये समाज विज्ञानी ही कर सकते हैं. महाराष्ट्र में कई लोग यह कर भी रहे हैं. आंध्रा में भी सुधाकर राव इसके लिए लगे हैं. जेएनयू में ही विवेक कुमार है, वह अच्छा कर रहा है. उससे काफी उम्मीद है. एक जे श्रीनिवास है. इन लोगों से उम्मीद की जाती है कि दलित मुद्दों को समाजशास्त्रीय भाषा में आगे ले आएं. उन्हीं से उम्मीद है. एक दौर था जब दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले कई बुद्धिजीवियों ने अपनी आत्मकथा लिखी. आप तमाम लोगों से वरिष्ठ हैं. सबसे पहले जेएनयू में आए, क्या आपने कभी नहीं सोचा आत्मकथा लिखने के लिए? बहुत गंभीरता से कभी नहीं सोचा. एक मेरे कलीग थे, मुझसे सिनियर थे, मैसूर के थे. हम दोनों अगल-बगल रहते थे. वो हमसे बार-बार कहते थे कि कुछ लिखो अपने बारे में तुम. लेकिन टलता गया. जिस तरह के माहौल से मैं आया हूं, उस तरह के माहौल से बहुत कम लोग आए हैं. मतलब मैं एक ऐसे परिवार में पैदा हुआ था जहां मेरे पिताजी एक राजपूत के यहां हलवाही (हल चलाते थे) करते थे. मां भी उन्हीं के यहां गोबर-वगैरह लिपने जाती थी. मेरे एक सौतेले भाई थे, जो बनारस में रिक्शा चलाते थे. लेकिन इतना जरूर था कि मेरे मां-बाप ने मुझे कभी मजदूरी नहीं करने दी. वह यह भी नहीं समझते थे कि पढ़ाई क्या होती है लेकिन हमेशा स्कूल जाने के लिए कहते रहते थे. झोपड़ी के ऊपर जो भी सब्जी लगी रहती, मां उसे तोड़कर पानी और नमक के साथ सब्जी बना देगी. मैं उसे खाकर स्कूल निकल जाता. वो एक ऐसा समय था जिस समय पैसे नहीं होते थे. कभी-कभार मजदूरी में पैसे मिल जाया करते थे. मेरे पिताजी मजदूरी के साथ ही लोगों के यहां शादी-ब्याह में बाजा भी बजाया करते थे. जूता-चप्पल भी बनाते थे. इससे जो थोड़ा बहुत पैसा मिल जाता था उसे बहुत संभाल कर रखते थे. उसी से स्कूल की फीस भरी जाती थी. हाई स्कूल तक मुझे स्कॉलरशिप मिला करती थी. पिताजी इस पैसे से मेरे लिए साबुन-तेल खरीद कर ले आते थे कि बेटा पढ़ रहा है तो उसे ठीक-ठाक दिखना चाहिए. तो उस तरह के माहौल में रहकर हाई स्कूल पास किए.फिर बनारस आ गए. वहां भाई रिक्शा चलाते थे. गरीबी तब भी बहुत थी. पैसे की बहुत तंगी थी. जब पैसे की जरूरत होती तो मां गांव में किसी से मांग कर भेजती थी. किंग्स कालेज में रहते हुए हमने छूआछूत वाला मुद्दा उठाया था. हॉस्टल में भले ही दूसरे स्टूडेंट के साथ रह लेते थे मगर हमारा मेस अलग था. हमारे कॉलेज से तीन स्टूडेंट फर्स्ट क्लास पास हुए थे. बाकी दोनों साइंस से थे, आर्ट्स से मैं अकेला था. लेकिन वह सवाल छूट गया कि सबने आत्मकथा लिखी लेकिन आपने नहीं क्यों? हमने आत्मकथा लिखने का सोचा था. चूकि मैं समाजशास्त्री हूं तो मेरी आत्मकथा समाजशास्त्रीय तरीके से आनी चाहिए. उसकी हेडिंग भी मैने सोच ली थी, “स्टेयर्स एंड मूवर्स”. मेरे तरह के माहौल से निकलकर बहुत से लोग बीच में ही रूक गए. बहुत कम लोग आगे आ पाएं. तो ये क्या चीज है कि एक समान परिस्थिति से निकलकर कुछ लोग रूक जाते हैं और कुछ लोग आगे निकल जाते हैं. इसी पर लिखना था लेकिन सोच कर ही रह गया, लिख नहीं पाया. एक दूसरी वजह व्यस्तता भी है. जैसे एक पुस्तक हमने 2007 में प्रकाशित किया, इनसाइक्लोपीडिया ऑफ शिड्यूल कॉस्ट इन इंडिया- वाल्यूम-1. तकरीबन 125 साल बाद इस तरह की पुस्तक आई है. पहला वाल्यूम साउथ इंडिया का है. चार वाल्यूम अभी और पड़े हुए हैं. तो अभी इतना सारा काम पेंडिग पड़ा हुआ है. तो ये है कि हेल्थ ठीक-ठाक रहा और सर्वाइव (Servive) कर गए तो ये सारा काम पूरा करने के बाद आत्मकथा लिखेंगे. प्रो. तुलसी राम, डा. धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकी आदि ने जो आत्मकथा लिखी है, उसे आप कैसे देखते हैं? आमतौर पर तो यह होता है कि लोग अपनी आत्मकथा बढ़ा-चढ़ा कर लिखते हैं. दूसरी बात कि आत्मकथा लिखने का एक उद्देश्य होता है. आत्मकथा लिखने का जो उद्देश्य होता है वह ये है कि दूसरे लोग इसे पढ़कर शिक्षा लें कि आगे कैसे पढ़ा जाता है. जैसे मेरे सामने एक उदाहरण है. बीएचयू में मेरे एक सीनियर थे गोविंद प्रसाद. जब मैं प्लस टू में पढ़ रहा था तो विद्यार्थियों ने अंबेडकर जयंती मनाई थी. गोविंद एकदम गोरे-चिट्टे थे. सूट पहने- हैट लगाए थे. लगता था कोई अंग्रेज हैं. गोविंद के पिता बचपन में ही खतम हो गए थे. उनकी मां ने दूसरों के यहां झाड़ू-पोछा कर के गोविंद को पढ़ाया था. तो यह था कि एक गरीब बच्चा जो इतने संघर्ष से पढ़-लिखकर आगे बढ़ा, दिल्ली आया, हिंदू कॉलेज से रिटायर हुए. तो मेरे सामने गोविंद एक आइडियल थे कि जब गोविंद यहां तक आएं तो फिर नंदू राम क्यों पीछे रहे? तो आत्मकथा लिखने का जो उद्देश्य हो वह यही होना चाहिए कि देखो जिस तरह के माहौल से कोई निकल नहीं पाता, वहां से निकल कर सफल होना दूसरों के लिए एक शिक्षा है. मुझे आत्मकथा लिखने में जो विलंब हो रहा है वह इसलिए क्योंकि वह तो जीवनी है. जीवन तो अभी चल ही रहा है. (मैं टोकता हूं, लेकिन लिखना भी तो जीवन रहते ही है. नंदू राम कहते हैं, ‘यही द्वंद है’…और दोनों हंस पड़ते हैं) अब जैसे तुलसी राम की मुर्दहिया है. तुलसी राम गांव से निकले और बनारस आएं, तब तक उसमें है. उसके बाद का नहीं है. यानि उनकी जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा छूटा हुआ है. ऐसे ही ओमप्रकाश वाल्मीकी हैं, जिन्होंने जूठन लिखी है. तो ओमप्रकाश अभी सक्रिय हैं और कथा अभी पूरी नहीं हुई है. वैसे ही मराठी में शरण कुमार लिंबाले हैं, जिन्होंने अक्करमाशी लिखा. तो शरण कुमार तो आजकल ज्यादा एक्टिव हैं. इनकी अभी मैने एक पुस्तक पढ़ी है, हिंदू. कि हिंदू कैसे दलितों को को-आप्ट कर रहा है और को-आप्ट कर के करप्ट कर दे रहा है. ऐसी चीजें सामने आ रही हैं. मेरी जिंदगी की भी कई घटनाएं हैं, अब सोचता हूं कि कभी लिखें तो सब सामने लाएं. समाज से सबसे पहले निकले लोग विभिन्न क्षेत्रों में गए. जैसे सुखदेव थोरात हैं और भी कई नाम हैं, तो इन लोगों के काम को आप कैसे देखते हैं? दलित स्कॉलर के सामने दो तरह का द्वंद रहता है बल्कि सच्चाई कहिए. एक द्वंद ये है कि दलितों की बात को साहित्य या पठन-पाठन के माध्यम से आगे बढ़ाना है. दूसरा द्वंद ये है कि अगर ये सिर्फ दलित मुद्दों को ही आगे बढ़ाते रहें तो उनमें और दलित पॉलिटिशियन में कोई अंतर नहीं रह जाएगा. इसलिए दलित शिक्षक के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती रहती है. चुनौती यह रहती है कि दलित समाज की बात को भी सही तरीके से कहे और उस विषय की भाषा में बोले, जिस विषय में वह शिक्षक है. एक और द्वंद इससे जुड़ा हुआ है कि वो गैरदलित को भी कंविन्स करे कि तुम जो बात कह रहे हो और जो तुमको कहनी चाहिए, वह नहीं कह रहे हो. उसी में कुछ दलित स्कॉलर पॉवर के साथ जुड़ गए हैं. इस कारण उन्हें पॉवर की तारीफ करते रहना है. क्योकि अगर तारीफ नहीं किए जाएंगे तो निकाल बाहर किए जाएंगे. यह एक बड़ी समस्या है कि पॉवर के साथ जुड़े रहो और इससे कुछ अपना भी फायदा हो जाए, कुछ समाज का भी फायदा हो जाए. ये दौड़ कुछ समय तक चलेगा अभी. इसका कारण यह भी है कि दलित हमेशा हाशिये पर रहा है और हाशिये पर रहने वाले को तथाकथित मेन स्ट्रीम में उतनी ही गंभीरता से सुना जाए जितना किसी गैर दलित को सुना जाता है, ये होने में अभी वक्त लगेगा. ऐसे में दलित समाजविज्ञानियों का रोल बहुत अहम हो जाता है. उनके सामने चुनौती ये है कि उनके विषय के लोग भी ये मानें कि जो वो कह रहे हैं वो विषय से जुड़ा हुआ है. साथ ही दलित भी यह माने की हमारी बात को ईमानदारी से कहा जा रहा हैं. अब इसमें थोरात भी हैं, तुलसी राम भी हैं, विवेक भी है. कभी-कभी मैं विवेक को कहता हूं कि तुम इतने गुस्से में क्यों बात करते हो. उसको थोड़ा ठंडे दिमाग से कहो. (मैं टोकता हूं- लेकिन क्या एक ऐसे युवा के तौर पर जिसे सब पता है, गुस्सा जायज नहीं है) हां गुस्सा तो जायज है. क्योंकि अगर सदियों से हाशिये पर रहने वालों को आप आज भी हाशिये पर रख रहे हैं तो गुस्सा तो आएगा हीं. लेकिन उस गुस्से को अभिव्यक्त करने का तरीका सोचना पड़ेगा. क्योंकि फिर सामने वाले को जब यह लगेगा कि कोई उससे टकरा रहा है तो वह एकजुट होकर आपको खतम करने पर जुट जाएगा. इसलिए अपने विषय की भाषा में ठंडे दिमाग से बात करनी चाहिए. जेएनयू में सबसे खराब अनुभव क्या रहा, अच्छे अनुभव के बारे में भी बताइए? एक छोटी सी बात हुई थी 1985 में. मैं सिनियर पोजिशन के लिए अप्लिकेंट नहीं था. लेकिन एक सरदार जी थे जो मेरे 4-5 साल बाद असिस्टेंट प्रोफेसर बने थे. चयनकर्ताओं ने उनको एसोसिएट प्रोफेसर बना दिया. हालांकि मैने अप्लाई नहीं किया था, बावजूद इसके मैं काफी परेशान रहा. मैने दूसरे सेंट्रल यूनिवर्सिटी को एप्लीकेशन भेजा, जहां मुझे चुन लिया गया. तब सीनियर प्रोफेसरों ने आकर समझाया कि आपके लिए कोशिश कर रहे हैं जल्दी ही आपका भी प्रोमोशन हो जाएगा. तो सर उठा कर काम किया. कभी किसी वाइस चांसलर से दबे नहीं. जो सच था, सही था वही किया. लोग तारीफ करते थे. हर विभाग के तमाम सीनियर लोग भी तारीफ करते थे. आज काफी नए शिक्षक आ गए हैं. कभी चला जाता हूं तो वो सब खूब आदर देते हैं. 33 साल गुजारा जेएनयू में. अच्छा अनुभव रहा. यूपी के संदर्भ में दलित राजनीतिक आंदोलन को आप कैसे देखते हैं? दिल्ली आने के पहले से ही रामविलास पासवान का नाम सुनता आ रहा था. यहां आएं तो 84 में कांशीराम का डीएस-4 शुरू हुआ. व्यक्तिगत तौर पर न तो मैं कांशीराम को जानता था और न ही देखा था. हां, एक बार जब जेएनयू में एक कार्यक्रम में वह आए थे तो देखा था. वह कास्ट सिस्टम के बारे में समझा रहे थे लेकिन उनका तरीका मुझे ज्यादा प्रभावित करने वाला नहीं लगा. रामविलास पासवान से हमारी दोस्ती तब हुई जब वो चुनाव हारे थे. तब मैने रामविलास से कहा था कि अगर बहुत बढ़िया राजनीति करनी है तो इस्टर्न यूपी में करनी चाहिए. क्योंकि उस क्षेत्र में गांव का दलित भी रामविलास पासवान का नाम जानने लगा था. लेकिन उनके सामने दूसरी समस्या थी. वह बिहार के थे और उधर अपनी राजनीति करना चाहते थे. ध्यान नहीं दिया. उसी वक्त कांशीराम ने एकदम से उस इलाके को ग्रैप कर लिया. उन्होंने बांदा से शुरू किया, फिर पूरी ईस्टर्न यूपी कांशीराम के साथ हो गई. उनसे पहले एक मोतीराम शास्त्री हुआ करते थे. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के. दलितों में चेतना लाने और डा. अंबेडकर को लोगों के बीच पहुंचाने की दिशा में उन्होंने बहुत काम किया. वह एक आंदोलन था. जब मैं जेएनयू आ गया तो मोतीराम शास्त्री मिलने आए थे. मैने कहा कि आपने जो सामाजिक आंदोलन शुरू किया था वो अभी भी अधूरा पड़ा हुआ है. लेकिन उन्हें राजनीति करनी थी. 77 में जब मैं दिल्ली में था तो मायावती उस समय बच्ची थी. मालवंकर हाल में जात-पात तोड़ो पर सम्मेलन हुआ था. उसमें मायावती ने जो भाषण दिया था तो मुझे लगा कि यह लड़की तेज-तर्रार है. एकदम आग लगाने वाली बात कर रही थी. दलित राजनीति की बात करें तो इनमें संगठन कमजोर है. यह आज भी बड़ी समस्या है. हमको याद है कि एक बार मैं आईआईटी कानपुर से यहां दिल्ली आया था. जगजीवन बाबू के घर 6 कृष्ण मेनन रोड पर गया. गेस्ट रूम में देखा कि दो मुसटंड लोग पड़े हुए थे. एक ठाकुर था तो दूसरा पंडित. वह दिन भर इधर-उधर घूमा करते थे और शाम को खाने और सोने के लिए यहां आ जाते थे. तब वो रक्षा मंत्री थे. एक बार दोपहर में रामविलास ने मुझे बुलावाया. पहुंचा तो देखा कि घर के बाहर 25-30 लोग पड़े हुए हैं. सबको बहुत चोट आई थी, सब खून से लथपथ थे. मैं ड्राइंग रूम में पहुंचा. हमारी बात होने लगी तो मैने कहा कि नंदू राम तो आपसे कभी भी मिल सकता है, लेकिन जो गेट के बाहर 25-30 लोग बैठे हैं, सब चोट खाएं हैं उनसे मिलना ज्यादा जरूरी था. रामविलास ने कहा कि मैं मिलता हूं. मैंने टोका- कहां मिलते हो, मिलते होते तो वो क्यों इस तरह बाहर होते? रामविलास ने कहा कि वो सिक्योरिटी रिजन के चलते देर होती है. मैं हंस पड़ा कि जो लोग खुद ही पीट-पीटा कर अपने समाज के नेता के पास आएं हैं, उनसे भला कैसी असुरक्षा. तो राजनीति का तो यही हाल है. यह बहुत बेमानी हो गई है. बतौर समाज विज्ञानी, आप मायावती की हार का आकलन कैसे करते हैं? उनसे क्या गलती हो गई? मायावती से यह गलती हो गई कि वो जनता से कट गई. और उनको दलितों से अलग करने में उनसे जुड़े रहने वाले गैर दलितों का हाथ ज्यादा था. मुझे लगता है कि ये सब योजना के तहत हुआ है. वरना मायावती इतनी बुरी तरह नहीं हारती. दलित बुद्धिजिवियों को साथ न लेना भी एक कारण रहा है. कांशीराम या फिर मायावती के साथ थिंक टैंक नहीं रहा. ये लोग इनसे दूर ही रहते आए हैं. दलित राजनीतिज्ञ के सामने बल्कि सिर्फ राजनीतिज्ञ ही नहीं दलित स्कॉलर के सामने भी ये दिक्कत रहती है कि उसको लगता है कि दूसरा हमसे आगे ना निकल जाए. एक-दूसरे की तारीफ नहीं करते. राजनीति की हालत भी वही है. मुझे नहीं लगता कि दलित राजनेता पार्टी लाइन से हटकर एक-दूसरे से बात करते होंगे, साथ आते होंगे. गैर दलित नेता जरूर एक-दूसरे के यहां चले जाते हैं. आपस में मिलते रहते हैं. लेकिन दलित राजनीतिज्ञ कभी इकठ्ठा नहीं होते. ये सबसे बड़ी समस्या है. 26 अलीपुर रोड को लेकर एक कमेटी बनी है, आप भी उस कमेटी में है. तो वहां क्या हो रहा है? 26 अलीपुर रोड जहां पर बाबा साहेब की मृत्यु हुई थी, उसके बारे में एक स्ट्रक्चर हमने सोचा है कि उसे कैसे बनाना है. यह है कि इसे बुद्धिस्ट पैटर्न पर बनाना है. हमने कहा है कि बाबा साहेब के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी चीजें आनी चाहिए. अभी एक बड़ा प्रोजेक्ट रह गया है. अंबेडकर मेमोरियल बनना है. मेरे सहित कुछ लोगों का मानना है कि अंबेडकर फाउंडेशन को अंब्रेला मानकर हर गतिविधि इसके तहत होनी चाहिए. हालांकि इस बारे में अभी कई बैठकें बाकी है. वर्तमान में क्या कर रहे हैं और भविष्य की क्या योजना हैं? फिलहाल तो कुछ सेंट्रल यूनिवर्सिटी की काउंसिल का मेंबर हूं. त्रिपुरा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के एकेडमिक काउंसिल का मेंबर हूं. मध्यप्रदेश के अमर कंटक में इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी है, वहां प्रेसिडेंट की ओर से एक्जीक्यूटिव काउंसिल के मेंबर के तौर पर नामित हूं. कई और जगहों पर ऐसे ही चल रहा है. जहां तक भविष्य की बात है तो अभी पांच पुस्तकें अधूरी पड़ी हुई है. उसे पूरा करना है. इसके बाद सोशल एक्सक्लूजन एंड इनक्लूजन पर एक किताब लिखनी है. फिर उसके बाद अपनी आत्मकथा पर हाथ डालेंगे. (मैं टोकता हूं- कब तक उम्मीद करें, नंदू राम कहते हैं-2013-2014 तक) आपके बाद के तमाम लोग अखबारों में लिखते रहते हैं, छपते रहते हैं. लोग इस वजह से उन्हें जानते हैं. लेकिन आप इन सबसे दूर रहे हैं, क्यों? मैं पब्लिसिटी में यकीन नहीं करता हूं. कभी-कभी मजाक में मैं लोगों से कहता भी हूं कि मैं जो कुछ भी लिखता रहा हूं यह स्वांत सुखाय है. तो मैं अपनी संतुष्टि के लिए लिखता हूं इसलिए आम जनता से कटा हूं. भाषा भी दूसरी है. मैं अंग्रेजी में लिखता हूं. वो भी समाजशास्त्रीय भाषा में. तो एक तो वो कारण है. दूसरा, मेरा जो लिखने-छपने का मकसद रहा है वह यह है कि जो स्कॉलर लोग हैं इनको कन्वींस करने की जरूरत ज्यादा है. हम ये करते रहे हैं. इसलिए अखबारों में लिखने के लिए वक्त भी नहीं निकाल पाते हैं. आत्मकथा किस भाषा में होगी? – हंसते हुए….. जाहिर है अंग्रेजी में होगी. लेकिन जब लिखेंगे तो देखेंगे. घंटे भर किसी से बात करके उसके जीवन के बारे में सबकुछ नहीं जाना जा सकता. कोई ऐसी बात जो मुझसे पूछने से रह गई हो और आप कहना चाहते हों? जो लोग यह कहते हैं कि जाति महत्वपूर्ण नहीं है, वह झूठ बोलते हैं. इसको तोड़ने की बात बहुतों ने की लेकिन बहुत गंभीरता से इस ओर काम नहीं हुआ. बाबा साहेब ने अपने जीवन में एक नया प्रयोग करते हुए दूसरी शादी एक ब्राह्मण लड़की से की. उन्होंने शादी तो कर ली लेकिन महाराष्ट्र के महारों ने सविता ताई को स्वीकार नहीं किया. मेरा कहना है कि जितनी भी दलित जातियां हैं वह आपस में जातिय भेदभाव को खत्म करें. आपस में शादी-विवाह करें. दलितों को इस लाइन पर गंभीरता से सोचना चाहिए. अगर वो आपस में जाति को खतम कर लेंगें तो बहुत बड़ी ताकत बन जाएंगे. फिर गैर दलित एकदम से डर कर पीछे हट जाएंगे. नई पीढ़ी की जिम्मेदारी ज्यादा है. सर आपने वक्त दिया, इतनी बातें शेयर की, बहुत धन्यवाद. धन्यवाद….  मुझे भी अच्छा लगा. आते रहिएगा.

मूलनिवासी की बात पर वो डिफेंसिव हो जाते हैं- बोरकर

प्रोन्नति में आरक्षण पर हंगामा बरपा है. बामसेफ इस पूरे मसले को कैसे देखती है? – रिजर्वेशन इन प्रोमोशन हमारा फंडामेंटल राइट (मूलभूत अधिकार) है, और फंडामेंटल राइट होने की वजह से ये हमें मिलना जरूरी है. अगर उन्होंने प्रोन्नति में रिजर्वेशन नहीं दिया तो उचित प्रतिनिधित्व की बात अधूरी रह जाएगी. इस बारे में बाबासाहेब ने लिखा है. हमारे विरोधी कह रहे हैं कि नियुक्ति तक तो ठीक है लेकिन वो प्रोमोशन में नहीं देना चाहते. संविधान में उचित प्रतिनिधित्व की बात है वो कोई शुरुआती चरण में नहीं है. यह हर स्टेज पे है. अगर यह नहीं मिलता है तो बाबासाहेब जो जीवन के हर क्षेत्र में बराबरी की व्यवस्था लागू करना चाहते थे वो नहीं आएगी.  बामसेफ अपने स्तर पर इस मामले में क्या कर रही है.  – बामसेफ इस मसले के ऊपर 20 राज्यों में जन जागरण के कार्यक्रम कर रही है. इसमे यह मुद्दा उठा रहे हैं. इन मुद्दों के ऊपर मूलनिवासी संघ के सीईसी की मीटिंग बुलाई है, जिसमें हम धरना-आंदोलन का कार्यक्रम तय करेंगे.  जिस तरह ज्यादातर राजनीतिक दल इस पर गोल-मोल बातें कर रहे हैं, क्या संसद में यह बिल पास हो पाएगा. – मुझे ऐसा लगता है कि हो पाएगा. ओबीसी को इसमें शामिल कर के यह हो पाएगा. बामसेफ ने इसे सबसे पहले उठाया. आपने देखा होगा कि एनडीए औऱ यूपीए के घटक दलों ने इस मुद्दे पर ओपनली स्टैंड लिया है. कांग्रेस भी राजनीति कर रही है. भले ही यूपी में अनुसूचित जाति के लोग मायावती के साथ हैं, मगर देश भर में यह समाज आज भी कांग्रेस के साथ है. इसलिए कांग्रेस अनुसूचित जातियों को प्रोन्नति में आरक्षण देना चाहती है मगर ओबीसी को नहीं देना चाहती है. अगर ओबीसी को भी आरक्षण देने की बात पुरजोर तरीके से उठाई जाती है तो इसका पोलराइजेशन (ध्रुवीकरण) होगा. मैं आशावादी हूं कि पदोन्नति में आरक्षण मिलेगा.  बामसेफ वंचित तबके का संगठन है. एससी/एसटी अधिकारियों पर आरोप है कि ये समाज से कट जाते हैं और इनका अपना एक क्लास बन गया है. – ये इस आंदोलन के प्रति बेईमान किस्म के लोग हैं. मैं बहुत सख्त शब्द बोल रहा हूं. लेकिन सारे लोग ऐसे नहीं है. अब मैं यहां बोल रहा हूं, कृष्णा साब (आनंद श्रीकृष्ण, रेवेन्यू सर्विस) भी यहीं पर हैं, उनको देखिए. समस्या यह है कि बड़ा तबका इसे नौकरी समझता है. उसमें अहम का भाव है कि मैने अपनी मेहनत से पाया, मैं बहुत ज्ञानी हूं. लेकिन ऐसा नहीं है. अगर ये प्रावधान नहीं होता तो ऐसा नहीं मिलता. मुझे यह बताइए कि हमारे समाज के लोग जो अफसर बने बैठे हैं और खुद को ज्ञानी (meritorious) समझ रहे हैं, उन्हें यह सब इसलिए मिल पाया है क्योंकि बाबासाहेब ने संविधान में प्रावधान किया. तो इसलिए हम एक्जीक्यूटिव में अपने समाज का रिप्रेंसेंटेशन कर रहे हैं. यह केवल नौकरी नहीं है. अगर हम सेक्रेट्री बनते तो अपने समाज के हित में काम करते. लेकिन नौकरी समझ के बैठ गए इसलिए दिक्कत है. आरक्षण में क्रिमिलेयर की बात से आप कितना इत्तेफाक रखते हैं – हमने बहुत पहले ही इसका विरोध कर दिया है. जस्टिस कोलसे पाटिल को हमने अपने मंच पर बुलाया. हमने उनसे कहा कि सावंत साहब ने जो लिखा है वो गलत है. क्रिमिलेयर का जो क्राएटेरिया है, वह इकोनॉमिक क्राइटेरिया है और यह बैकडोर से लाया गया है. जो कंस्टीट्यूशंस की प्रेमोलॉजी है, उसमें सोशल एंड एजुकेशनली बैकवर्ड लिखा है. और क्रिमिलेयर का मामला income के साथ जुड़ा हुआ है, तो एक तो ये संविधान के नजरिए से गलत है. दूसरा, अगर इसे Social Aspect  से देखा जाए तो हमारे समाज का नेतृत्व तो बाबासाहेब ने ही न किया, किसी मजदूर ने तो नहीं किया. तो इसका मतलब कि बैकवर्ड क्लास का नेतृत्व करने वाला जो वर्ग है, उसे अगर आप क्रिमिलेयर बोलकर हटा देते हैं तो ऐसे में पढ़े-लिखे वर्ग में कुछ लेन-देन नहीं रहेगा. ऐसी स्थिति में वंचित तबके में नेतृत्व बनने की प्रक्रियी ही खत्म हो जाएगी. अगर नेतृत्व नहीं होगा तो फिर यह वर्ग गुलामी की ओर चला जाएगा. इसलिए क्रिमिलेयर की जो बात है वो सामाजिक दृष्टि से भी ठीक नहीं है और संविधान की दृष्टि से भी ठीक नहीं है. आप हिंदुत्व पर काफी चोट करते हैं, ओबीसी तक को हिंदू नहीं मानते. लेकिन महाराष्ट्र को छोड़ ज्यादातर हिस्सों में एससी/एसटी समुदाय का व्यक्ति खुद को हिंदुत्व के बंधन से मुक्त नहीं कर पाया है. ऐसा क्यों ? – वो इसलिए है क्योंकि हमारे समाज का सांस्कृतिक फोरम अभी तक तैयार नहीं हुआ है. जबकि हिंदुत्व कल्चराइज्ड हो गया है. तो लोगों को इससे निकालने के लिए अल्टरनेटिव कल्चर तैयार करना जरूरी है. इसलिए हमने अपने समाज के कुछ रिसर्च स्कॉलर को कहा है कि मूलनिवासी कल्चर को विशेष रूप से डिफाइन करो और ताकि इस कल्चर को समाज के सामने लेकर जाया जा सके. फिर हम मूलनिवासी मेलाओं के माध्यम से लोगों को इस बारे में समझाएंगे. अभी भी मेला लगा रहे हैं. पिछड़े वर्ग के लोग भी आ रहे हैं. लेकिन जिस अनुपात में लोगों को आना चाहिए, नहीं आ रहे हैं. हमें उन्हें बताना है कि अपना कल्चर क्या है, यह ब्राह्मणों से भिन्न है. मूलनिवासियों का खान-पान से लेकर, रहन-सहन और बातचीत से लेकर शादी-ब्याह तक का तरीका ब्राह्मणों से अलग है. हमारे Tribal भाई ऐसा नहीं करते हैं, पर उनको भी वो हिंदू बोलते हैं. आज इसका इतना घालमेल हो गया है कि अब यह पानी और दूध को अलग करने जैसा मामला है. जिस दिन हमारे रिसर्च स्कॉलर इसको अलग कर देंगे हम मूलनिवासी कल्चर को फोकस में लाएंगे. जिस तरह दलित राजनीति बिखरी हुई है, वैसे ही दलित आंदोलन भी बिखरा हुआ है. राजनीतिक तौर पर रिपब्लिकन पार्टी और संगठन के तौर पर बामसेफ के कई टुकड़े इसके उदाहरण हैं. इसने दलित राजनीति और दलित आंदोलन को कितना नुकसान पहुंचाया है ? – इतना ज्यादा नुकसान पहुंचाया है कि जो लोग इस ढ़ंग की राजनीति कर रहे हैं उनके लिए मेरे पास अपशब्द भी इस्तेमाल करने को नहीं है. ये इसलिए है कि अपने समाज के हित में संगठित रहने की प्रबल भावना इस समाज में नहीं है. मेरा मानना है कि अगर हमारे सोचने के ढ़ंग में कुछ अंतर है भी तब भी समाज के हित में हमें साथ ही रहना चाहिए. आगे चलकर हमारे विचार एक हो सकते हैं. इसलिए हमें समाज के हित में किसी भी हालात में एक रहना चाहिए. यह भावना नहीं रहने से दिक्कत होती है. लेकिन जब अपनों में ही चुनाव करना पड़े तो लोग किस ओर जाए, किसे सही और किसे गलत कहे. यह सवाल राजनीतिक पार्टियों और बामसेफ जैसे संगठनों, दोनों से है? – आम आदमी की तार्किक शक्ति उस स्तर की नहीं बढ़ाई गई है कि वो सही और गलत की पहचान करें. हम जो दलील दे रहे हैं वो सही और गलत की पहचान करने को लेकर दे रहे हैं. हम लोगों की तार्किक शक्ति को उस स्तर तक ले जाना चाहते हैं, जहां वो सही-गलत की पहचान कर सके. लेकिन इस काम को करने के लिए जितने लोग चाहिए होते हैं, मीडिया चाहिए होता हो वह हमारे समाज के पास नहीं है. इसलिए सारी परेशानी है. लेकिन आज तो हमारे पास तमाम संसाधन हैं, एक प्रदेश में सरकार भी रही, फिर क्यों नहीं हम अपना मीडिया खड़ा कर पाएं? – संसाधन तो हैं लेकिन वह व्यक्तिगत तौर पर कुछ लोगों के पास है, समाज के पास संसाधन नहीं है. मेरे पास जो पैसा है, या फिर आपके पास जो पैसा हो वो मेरा और आपका है, समाज का नहीं है. न ही समाज का आंदोलन चलाने वाले लोगों के पास पैसा है. अगर उन्हें मीडिया के ताकत या फिर उसकी समझ नहीं है तो सरकार आने ना आने का इससे कोई वास्ता नहीं है. अब जैसे आफिसर्स लोगों के पास भी पैसा है. बिजनेस मैन के पास भी पैसा है, आखिर वो इस दिशा में क्यों नहीं उतर रहे हैं? वह इसलिए नहीं उतर रहे हैं क्योंकि उनको यह डर है कि इन क्षेत्रों में अपना पैसा लगाने के बाद वापस आएगा या नहीं आएगा. उन्हें इसकी चिंता है. क्योंकि आदमी वहां पैसा लगाता है, जहां से पैसा निकलता है. जो पावर में आएं उन्होंने इसका महत्व ही नहीं समझा. जो दूसरे राजनीतिक दल हैं उनको देखिए, उन्होंने सत्ता में आते ही अपनी मीडिया खड़ी कर ली. दक्षिण को देखिए, सबके पास अपने अखबार और चैनल है. अब अगर ऐसे लोग पावर में आते हैं, तो क्या मतलब है? पावर में उनलोगों को आना चाहिए, जिनमें अपने समाज के प्रति प्रतिबद्धता और समझ दोनो है. हम अपने संगठन के माध्यम से इस तरह के वर्कर तैयार कर रहे हैं. माना जाता है कि राजनीतिक दल एक साथ नहीं आ सकते, क्योंकि उनके अपने स्वार्थ हैं. लेकिन संगठन साथ क्यों नहीं आ जाते, क्या उनके भी स्वार्थ हैं? – क्या है कि संगठन बनाने की जो प्रक्रिया है वह अलग ढ़ंग की है. जैसे- अगर आप अकेले हैं तो संगठन नहीं है, मैं अकेला हूं तो संगठन नहीं है. अब मैने यह सोचा कि मेरे समाज के सामने फलां-फलां समस्या है और इसे फलां तरीके से दूर करना चाहिए. पर मैं अकेला हूं. फिर मैने आपको बताया. आपने भी कहा कि करना चाहिए. बस हमारा संगठन बन गया. मगर अगले दिन आप कहते हैं कि कल मैने जो कहा था, उससे सहमत नहीं हूं. बस, संगठन टूट गया. यह बात साबित करता है कि जब हमने संगठन बनाया, आपका अपने अब्जेक्टिव के प्रति शत्-प्रतिशत कमिटमेंट नहीं था. तो जो लोग संगठन बनाने की प्रक्रिया में सामने आते हैं, अगर वो अपने अब्जेक्टिव के प्रति फोकस नहीं करते हैं, तो आदमी का दिमाग भटकता है. यह इसलिए होता है क्योंकि आप अकेले फिल्ड में नहीं हो. फिल्ड में बहुत सारी ताकतें काम करती हैं जो आपको प्रभावित करती है. इसलिए तो आप सुबह उठते ही मन बदल देते है. इसलिए हमें कुछ मुद्दों पर मतभेद होने के बावजूद एक रहना है. तभी संगठन चल सकता है.  क्या केंद्र में कभी वंचित तबके की सरकार बन पाएगी. – बिल्कुल बन पाएगी. हम जो काम कर रहे हैं इसीलिए कर रहे हैं. जिस दिन ओबीसी तबका हमारे साथ आ गया, हम केंद्र की सत्ता पर काबिज हो जाएंगे. 1948 में लखनऊ में दिए अपने राजनीतिक भाषण में बाबासाहेब ने भी यह बात कही थी. बाबसाहेब ने कहा कि सोशल प्लेटफार्म पर भले ही हम अलग हों, मगर धरातल पर हम एक हैं. और जिस दिन ऐसा हो गया. अपने आप को बड़ा कहने वाले लोग हमारे जूते का फीता बांधने में गौरव का अनुभव करेंगे. मायावती के मामले में हम यह देख चुके हैं. आपका कहना है कि ओबीसी के साथ आने पर हमारी सरकार बन जाएगी. लेकिन आप देखिए तो तमाम स्टेट में ओबीसी की सरकार है. बिहार में, नीतीश, यूपी में अखिलेश, गुजरात मे मोदी सब ओबीसी हैं, तो यह क्या है. क्या ब्राह्मणवादी ताकतें ओबीसी को सत्ता देकर खुद पीछे से राज कर रही हैं ? – आपने बिल्कुल ठीक समझा. असल में यह ओबीसी की सरकार नहीं है. यह ब्राह्मणों की सरकार है, जिसे वो ओबीसी को सामने कर के चला रहे है. इसलिए यह उनकी कठपुतली है. क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो हमें सड़क पर आने की जरूरत नहीं पड़ती. इनकी जितनी भी आर्थिक नीतियों का आप अध्ययन करेंगे, यह साफ पता चल जाएगा कि यह सब दलित विरोधी हैं. राज्यों में ओबीसी को प्रतिनिधित्व इसलिए दिया गया, उन्हें सत्ता इसलिए सौपी गई ताकि वो केंद्र में बने रहें. यह ‘GIVE AND TAKE’ जैसा है. अपने बचपन के बारे में बताइए. आप दलित आंदोलन से कब परिचित हुए? – मैं मजदूर का लड़का हूं. पिताजी की पढ़ाने की हैसियत नहीं थी. लेकिन हर बार अव्वल रहने के कारण मैं आगे पढ़ता गया. चूकि मैने फर्स्ट क्लास से पास किया इसलिए अंबेडकर कॉलेज, दीक्षाभूमि पर मैने दाखिला लिया. यहां से मैने बीएससी किया. चूकि मैने फर्स्ट क्लास में बीएससी किया इसलिए एमएससी कर पाया. मैं नागपुर विवि का थर्ड मेरिट हूं. जब मैं कॉलेज में था तो हमारे समाज के शिक्षकों ने मेरी पढ़ाई को देखते हुए मुझे फ्री में ट्यूशन दिया. मुझे उसका फायदा हुआ. तब मुझे लगा कि ये लोग तो मेरे कोई सगे नहीं है, बावजूद इसके उन्होंने मेरी मदद की. तो इसी तरह मेरा भी उत्तरदायित्व बनता है कि मुझे भी अपने समाज के लिए कुछ करना चाहिए. 1977 में जब मैं कस्टम में क्लास-2 आफिसर के तौर पर नौकरी में आया, उसी साल बामसेफ शुरू हुआ था और मैने बामसेफ ज्वाइन किया. तब कांशीराम अध्यक्ष थे. तब से लगा हूं. इतने सालों के बाद आप बामसेफ में क्या परिवर्तन देखते हैं? – तब से कई बदलाव आया है. वैचारिक तौर पर बदलाव आया है. आप देखेंगे कि जब हम कांशी राम जी के नेतृत्व में काम कर रहे थे तब आटोक्रेट (तानाशाह) लीडरशीप थी, आज डेमोक्रेटिक लिडरशिप है. कांशीराम जी के समय में एससी/एसटी/पिछड़ा वर्ग और इससे धर्म परिवर्तित लोगों को इकठ्ठा करने की कोशिश थी. तब मूलनिवासी की बात नहीं थी. हमने इसको ट्रांसफर्म किया और इसे मूलनिवासी की पहचान दी. इसको होमोजिनियस आइडेंटिटी (एक जैसी पहचान) दी. संगठन अगर होमोजिनियस होता है तो यह ज्यादा आगे बढ़ता है. क्योंकि जब तक एससी/एसटी और ओबीसी जैसी बातें रहेंगी, दिक्कत रहेगी. लोग कार्यक्रमों में तो आते हैं लेकिन यहां से जाते ही वह एससी/एसटी और ओबीसी हो जाते हैं. मेरा मानना है कि वह यहां आएं तो मूलनिवासी बनकर, घर भी जाएं तो मूलनिवासी ही बने रहे. यह जरूरी है. यह बदलाव आया है. बामसेफ के अलग-अलग गुटों में बंटने की क्या वजह है? – स्वार्थ। बामसेफ में बिखराव विचारों में मतभेद से ज्यादा स्वार्थ के कारण हुआ. यह कांशी राम जी के समय से ही शुरू हुआ. मायावती की तरफ कांशीराम का झुकाव होने की वजह से समर्पित कार्यकर्ताओं का अनादर हुआ. क्योंकि वह अध्यक्ष थे और उन्हें मायावती के नाम को प्रस्तावित करना था. मायावती उनके ऊपर हावी हो गई थी. नेतृत्व के ऊपर कोई हावी नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसा हुआ. ऐसा होने से हमने कांशीराम जी के सामने सवाल उठाया. 20-22 लोग उनसे मिले थे. 1985 की बात है. हमने उन्हें समझाया कि आइंदा से आप संगठन का निर्णय अकेले नहीं लेंगे. लेकिन वो नहीं माने. उन्होंने कहा कि मैं ऐसा ही करूंगा. हमारे साथ रहना है तो रहो वरना मत रहो. तब हम अलग हो गए. आज बामसेफ चल रही है लेकिन बीएसपी का भविष्य अच्छा नहीं दिख रहा. क्योंकि जिस तरह का नेतृत्व होना चाहिए वैसा नहीं है. कांशीराम जी को कैसे याद करते हैं? – मैं अपने सार्वजनिक जीवन में आने का श्रेय कांशीराम जी को ही देता हूं. मैने आंदोलन उन्हीं से सिखा. मैं महाराष्ट्र के अंबेडकर कॉलेज का प्रोडक्ट हूं. मगर वहां की रिपल्बिकन पार्टी से नहीं सीखा. लेकिन आज की तारीख में मैं उन्हें इससे ज्यादा महत्व नहीं देता. क्योंकि हमें तैयार करने का श्रेय तो उन्हें जाता है लेकिन इस आंदोलन को तोड़ने के लिए भी मैं उन्हें ही जिम्मेदार मानता हूं. हालांकि ऐसा कहने के लिए कई लोग मुझे कोसते भी हैं.  दो दशक बाद दलित राजनीति और दलित आंदोलन को आप कहां देखते हैं – हम तो ऊंचाई पर रहेंगे. वैसे मैं ‘दलित’ शब्द से परहेज करता हूं. क्योंकि हमारा दुश्मन भी हमें दलित कहता है और हम भी खुद को दलित कहते हैं, मतलब मामला तो सेटल्ड है. वह तो यही चाहते हैं. अब जैसे हमने खुद को मूलनिवासी कहना शुरू किया है तो वो बचाव की मुद्रा में हैं. हमने कहना शुरू किया है कि वो बाहर के हैं. पहचान किसी भी आंदोलन के लिए बहुत जरूरी है. वह हम कर रहे हैं. आपकी नजर में दलित आंदोलन से जुड़ी हुई खामियां क्या-क्या है? – आंदोलन की खामियां तो मैं आपको नहीं बता पाऊंगा लेकिन इतना कह सकता हूं कि आंदोलन चलाने के लिए नेतृत्व लगता है. हमारे समाज में लिडर्स ऑफ कैरेक्टर नहीं आ रहे हैं. कैरेक्टर बिल्डिंग की जो प्रक्रिया है, वह हो नहीं रही है. इसी वजह से सारी दिक्कते हैं. हम अपने संगठन के माध्यम से इसकी कोशिश कर रहे हैं.
बोरकर जी से संपर्क करने के लिए और इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया पहुंचाने के लिए आप उनके मोबाइल नंबर 09930337444 पर संपर्क कर सकते हैं। अशोक दास से संपर्क करने के लिए आप 09711666056 पर फोन कर सकते हैं या ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।

माता सावित्रीबाई फुले को सलाम

आप टीना डॉबी के लिए उत्साहित होइए. उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा में टॉप किया है. यूपी बोर्ड का रिजल्ट भी आ गया है. हाई स्कूल की परीक्षा में रायबरेली की सौम्या पटेल और इंटर में बाराबंकी की साक्षी वर्मा टॉपर रही है. ऐसे ही आईसीएसई बोर्ड की परीक्षा में 96.40 प्रतिशत लाकर अपने क्षेत्र और समाज का नाम रौशन किया है. आप सब इन नामों की सफलता को लेकर गर्व कर सकते हैं. लेकिन मैं इन सारी सफलताओं के लिए माता सावित्रीबाई फुले को सलाम करुंगा, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर वह राह तैयार की, जिस पर चलकर ये बेटियां इस मुकाम को हासिल कर सकी. जब ज्योतिबा फुले ने स्त्री शिक्षा की नींव रखी होगी और माता सावित्रीबाई फुले लोगों के ताने सुनकर, खुद पर कीचड़ फेके जाने के बावजूद लड़कियों को पढ़ाने जाती होंगी तो उनके मन में बस इतनी सी बात होगी कि स्त्रियों को कुछ ज्ञान मिल जाए. तब उन्होंने कल्पना तक नहीं की होगी कि एक वक्त ऐसा भी आएगा जब लगातार दो साल ये लड़कियां यूपीएससी की परीक्षा में टॉपर होंगी. जिन लड़कियों का नाम ऊपर लिया गया है, उनमें से कितनी लड़कियां फुले दंपत्ति के योगदान को जानती होगी ये तो नहीं कहा जा सकता लेकिन अगर जानती भी होंगी तो उनके लिए उस दर्द और त्याग को महसूस कर पाना शायद संभव नहीं होगा, जिसने उनकी सफलता की नींव रखी है. और टॉपर करने वाली कोई लड़की जब वंचित तबके की हो तब तो इसका महत्व और बढ़ जाता है, क्योंकि फुले दंपत्ति जब संघर्ष कर रहे होंगे तब वह यह जरूर सोचते होंगे कि उनका संघर्ष उसी दिन पूरा होगा जब वंचित तबके से ताल्लुक रखने वाली कोई लड़की शीर्ष मुकाम को हासिल कर लेगी. ऐसे में कहा जा सकता है कि आज ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का सपना साकार हो गया है.

बसपा की तैयारी और विपक्षी दलों की बेचैनी

उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर बहुजन समाज पार्टी ने अपने पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं. पार्टी की अध्यक्ष मायावती जिस तरीके से उत्तर प्रदेश के मुद्दों को लेकर लगातार मुखर हैं, उसने विपक्षी दलों की बेचैनी बढ़ा दी है. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर की जयंती 14 अप्रैल के दिन लखनऊ में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधन के बाद से मायावती लगातार प्रेस के माध्यम से सक्रिय हैं. उन्होंने हर मुद्दे पर अपनी राय रखनी शुरू कर दी है. चाहे अब स्मारक की बजाय सिर्फ विकास कार्यों पर जोर देने की बात हो या फिर विश्वविद्यालयों में ओबीसी वर्ग का आरक्षण रद्द करने का विरोध हो या फिर तीस्ता सीतलवाड़ के पक्ष में आने की बात. उन्होंने साफ कर दिया है कि वह हर वर्ग को लेकर विकास की राह पर चलना चाहती हैं. चुनाव पूर्व होने वाले सर्वे में मीडिया द्वारा बसपा को पहले ही सबसे बड़ी पार्टी बताया जा चुका है. इसकी जायज वजह भी है. जहां विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और भाजपा अब तक अपनी रणनीति को लेकर पसोपेश में हैं तो वहीं बसपा ने जमीन पर काम करना शुरू कर दिया है. पार्टी के कार्यकर्ता गांव-गांव में सक्रिय हैं. जबकि भाजपा और समाजवादी पार्टी अंदरुनी आपसी गठजोड़ के जरिए कैराना जैसे मुद्दों के भरोसे अपनी चुनावी नैया पार करने की सोच रही है. लेकिन उत्तर प्रदेश में यह संभव होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि प्रदेश की जनता भाजपा-सपा गठजोड़ को समझ चुकी है और उसने कहीं न कहीं बसपा को सत्ता में लाने का मन बना लिया है. विकास और भ्रष्टाचार के साथ वर्तमान में प्रदेश में सबसे बड़ा मुद्दा सुरक्षा और कानून व्यवस्था का बन चुका है. प्रदेश में यह चर्चा आम है कि समाजवादी पार्टी की सरकार कानून व्यवस्था और सुरक्षा से जुड़े मामले पर पूरी तरह से विफल रही है. और जब सरकार से जुड़े लोग ही गुंडागर्दी पर उतर आएं तो फिर स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है. सर्वसमाज के विकास के मायावती और बसपा के संकल्प ने भी उत्तर प्रदेश में माहौल बसपा के पक्ष में किया है. पार्टी के एक दलित कार्यकर्ता द्वारा फेसबुक पर ब्राह्मण समाज के खिलाफ उग्र टिप्पणी करने पर मायावती ने उसे पार्टी से बाहर कर दिया. उनके इस कदम की आलोचना भी हुई लेकिन इससे बेफिक्र मायावती ने साफ कर दिया कि उनकी सोच किसी दूसरे वर्ग के खिलाफ नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलना है. हालांकि धर्म और पाखंड पर मायावती ने 14 अप्रैल को लखनऊ में दिए अपने भाषण में करारा प्रहार किया था. उन्होंने साफ कहा था कि दलितों का असली तीर्थ स्थल काशी और मथुरा नहीं बल्कि लखनऊ का यह सामाजिक परिवर्तन स्थल है, जो बहुजन महापुरुषों की स्थली है. इन सारे तथ्यों के बावजूद उत्तर प्रदेश में बसपा की कामयाबी इस बात पर निर्भर करेगी कि दलित और पिछड़ा समाज बसपा के पक्ष में कितना खड़ा होता है. क्योंकि लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज बहुजन समाज पार्टी को झटका दे चुका है. तमाम दावों और तैयारियों के बावजूद जमीन पर बसपा की चुनौती दलित-पिछड़े वोटरों को एकजुट करना होगा. यहां उसे भाजपा से चुनौती मिल सकती है, क्योंकि यादव वोट सपा को जाने के बाद पिछड़े वर्ग के अन्य समूहों के वोटों पर भाजपा की भी नजर है. उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूत ऐसे दो वर्ग हैं, जिन पर बसपा और भाजपा दोनों का दावा है. बसपा का ज्यादातर दारोमदार असल में दलित-पिछड़े वोटरों पर निर्भर है. बसपा की जीत के लिए इन दोनों समाज के वोटरों का बसपा के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना जरूरी है. लेकिन जाति-धर्म और चुनावी गणित से इतर बसपा के पक्ष में सबसे मजबूत बात पार्टी की मुखिया मायावती का कड़ा प्रशासन है. उत्तर प्रदेश में सपा सरकार में जिस तरह कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही है, सबकी जबान पर सिर्फ एक नाम मायावती ही है. चुनावी सर्वे में यही बात बहुजन समाज पार्टी के पक्ष में जा रही है और उसे बढ़त दिलवा रही है. वैसे तो उत्तर प्रदेश के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के अलावा समाजवादी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस पार्टी चुनाव लड़ रही है लेकिन यहां राजनीति के केंद्र में सिर्फ बसपा है. हर राजनीतिक दल बसपा को केंद्र में रखकर ही अपनी रणनीति बना रही हैं. भाजपा सहित तमाम दल चुनाव के पहले आक्रामक प्रचार में जुटेंगे. बसपा को इस चुनौती का सामना करना होगा और अपने वोटरों पर मजबूत पकड़ बनाए रखना होगा. चुनावी बिसात में बसपा बढ़त बनाए हुए है. उसके लिए चुनाव होने तक इस बढ़त को जारी रखने की चुनौती होगी.