सम्राट अशोक और डॉ. अम्बेडकर के सपनों का भारत

ठीक से तो याद नहीं लेकिन शायद जब हम चौथी या पांचवीं में पढ़ रहे थे; तब पहली बार डॉ. अम्बेडकर का नाम सामने आया था. हम रट्टा मारा करते थे कि भारत का संविधान किसने बनाया और जवाब में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम याद करते थे. तब हमारे जहन में अम्बेडकर माने संविधान निर्माता बैठ गया था. और मुझे पता है कि लाखों लोग बाबासाहेब को इसी रूप में याद करते होंगे. तब मुझे पता नहीं था कि यही डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक दिन मेरे लिए बाबासाहेब हो जाएंगे. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को आप जितना जानने की कोशिश करते हैं, उनकी महानता, उनके द्वारा देश के हर वर्ग के लिए किए गए काम को जानकर आप हैरत में पड़ते जाते हैं. अप्रैल महीना जाहिर तौर पर अम्बेडकरमय होता है, बल्कि मार्च में मान्यवर कांशीराम जी की जयंती के साथ ही अम्बेडकर जयंती की तैयारियां शुरू हो जाती है. यह बात बार—बार खटकती रहती है कि डॉ. अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए, नौकरीपेशा लोगों के लिए, किसानों के लिए और हाशिए पर खड़े हर वर्ग की बेहतरी के लिए काम किया, बावजूद इसके उनको सिर्फ संविधान निर्माता के तौर पर ही क्यों पेश किया जाता रहा? उनके व्यक्तित्व को, उनकी महानता को कम करने की साजिश क्यों रची जाती रही? अब इन सवालों के जवाब मिलने लगे हैं. रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और सोशल मीडिया पर चल रही बहसों ने अम्बेडकरी-फुले विचारधारा को साजिशन दबाकर रखने की वजहों पर से पर्दा हटा दिया है. बहुजन समाज के ज्यादातर लोगों द्वारा बाबासाहेब और जोतिबा फुले सहित तमाम बहुजन नायकों पर अपना अधिकार जताया जाता रहा है. जाहिर है कि ये हमारे पूर्वज हैं और हमलोग अम्बेडकर, फुले, पेरियार और कबीर परंपरा के लोग हैं और उन पर सबसे पहला हक हमारा है. लेकिन बदले वक्त में तमाम अन्य विचारधाराओं के लोग बहुजन नायकों को अपने मंच से लोगों के बीच रखने लगे हैं. यहां फर्क यह है कि बाबासाहेब सहित तमाम बहुजन नायकों की बात करते वक्त वो उन्हें अपने तरीके से परिभाषित करने की कोशिश करते हैं. ऐसे में हमारा दायित्व भी बनता है कि हम बहुजन नायकों के जीवन से जुड़े उन तमाम पक्षों को तमाम मंचों से समाज के सभी वर्गों के बीच लेकर जाएं जिसने देश के हर आम इंसान की जिंदगी को बेहतर किया है. बाबासाहेब को संविधान निर्माता की सीमित भूमिका से निकाल कर उन्हें किसानों, महिलाओं, सरकारी कर्मियों और यहां तक की निजी सेवाओं में लगे लोगों के हितैषी के रूप में पुरजोर तरीके से स्थापित करने की जरूरत है. क्योंकि बाबासाहेब का काम किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं था. ‘दलित दस्तक’ और अन्य मंचों से प्रो. विवेक कुमार जी ने बाबासाहेब को ‘राष्ट्रनिर्माता’ के तौर पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसी तरह अब माता सावित्रीबाई फुले को देश की प्रथम शिक्षिका और उनके जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा भी बहुजनों के बीच शुरू हो गई है. हमें इस बात को और आगे बढ़ाना होगा. हमें बाबासाहेब, जोतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार, कबीर आदि समाज सुधारकों को उन सीमाओं से आजाद कराना होगा, जिसमें अब तक देश की सत्ता पर काबिज रहने वाले सत्ताधारियों ने उन्हें बांध रखा है. हमें बहुजन नायकों को देश की आम जनता के बीच स्थापित करना होगा. एक वक्त में सम्राट अशोक ने यही काम किया था. उन्होंने तथागत बुद्ध की विचारधारा को देश-दुनिया में पहुंचाने के लिए अपनी जिंदगी लगा दी. यहां तक की अपने बच्चों को धम्म प्रचार के लिए देश से बाहर भेज दिया. इस साल अप्रैल की 14 तारीख का महत्व और ज्यादा है, क्योंकि 14 अप्रैल को बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के साथ-साथ भारत के मानवतावादी और महान सम्राट अशोक की भी जयंती है. बाबासाहेब और अशोक महान दोनों ने एक ही सपना देखा था. सम्राट अशोक ने भारत को बुद्धमय बनाया था. भगवान बुद्ध के संदेश को प्रचारित प्रसारित करने के लिए 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया. जब भगवान बुद्ध का नाम भारत के इतिहास से मिटाने की साजिश रची जा रही थी, उसी समय बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने भारत में बुद्ध को आम जन तक पहुंचाया. जिस तरह भगवान बुद्ध का दिया धम्म संदेश हर आमजन के जीवन में बेहतरी लाता है उसी तरह बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा किया गए काम ने भी देश के हर व्यक्ति के जीवन को बेहतर किया और उनको विशेष अधिकार दिलवाया. इस वर्ष जब हम बाबासाहेब की जयंती मना रहे होंगे तो हमारे जहन में बाबासाहेब के साथ ही सम्राट अशोक के बुद्धमय भारत का ख्वाब भी रखना होगा.

बुद्धमय भारत के लिए निरंतर आंदोलन जरूरी

bheemबहुजन आंदोलन के लिए मार्च से लेकर मई तक तीन महीने बड़े महत्वपूर्ण होते हैं. मार्च में इस देश में सालों तक राज करने वाले सत्ताधिकारियों की सत्ता का गणित बिगाड़ देने वाले मान्यवर कांशीराम जी की जयंती होती है. अप्रैल में बहुजन समाज और महिलाओं के मुक्तिदाता बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर की जयंती होती है जबकि मई महीने में बुद्ध पूर्णिमा होता है. अप्रैल में बाबासाहेब की जयंती मनी है. और इस बार की जयंती बेजोड़ मनी है. दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक और लखनऊ से लेकर पटना तक जैसे सभी अंबेडकरवादी 14 अप्रैल को अपने उद्धारक की जयंती मनाने के लिए सड़कों पर थे. कहावत के शब्दों में पूरे देश को समेटने की बात करें तो कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक बाबासाहेब ही थे. बात सिर्फ भारत तक ही खत्म नहीं हुई, बल्कि न्यू जर्सी से लेकर दुबई तक में बाबासाहेब की जयंती मनाई गई. 14 के अलावा भी अप्रैल महीने के हर शनिवार और रविवार को जयंती का कार्यक्रम ही छाया रहा. चलो जश्न तो हो गया, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि मई महीने से लेकर अगले साल मार्च महीने तक आप क्या करेंगे? क्या आप बाबासाहेब के बताए रास्ते पर चलेंगे, उनकी कही बातों को मानेंगे, या फिर उन्हें ताले में बंद कर अपनी उसी जिंदगी में लौट आएंगे जिसे आप कल तक जी रहे थे. यह बात हर किसी के लिए नहीं है लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि जयंती मनाने वाले ज्यादातर लोग दोहरी जिंदगी जीते हैं. वो अपनी सुविधा के हिसाब से ‘नमो बुद्धाय’ और ‘नमस्कार’ के बीच झूलते रहते हैं. यह सारी बातें इसलिए क्योंकि महज जयंती मनाने भर से बात नहीं बनने वाली. बात उसके उद्देश्यों को जीवन में आत्मसात करने से बनेगी. आपका और आपके बच्चों का भविष्य वो ग्यारह महीने का संघर्ष तय करेगा जो आप बाबा साहेब की जयंती के बीतने के बाद से अगली जयंती आने के बीच करते हैं. मई महीना इसलिए भी महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इस महीने में दुनिया के तकरीबन 170 देशों में तथागत बुद्ध की जयंती मनाई जाती है. दुनिया उस महामानव को याद करती है जिसने प्रज्ञा, करुणा और शील का संदेश दिया. आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि उन्हें आधी दुनिया के लोग अपना ‘भगवान’ मानते हैं. आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि खूंखार डकैत अंगुलीमाल उनके सामने नतमस्तक हो गया, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि जापान जैसे देश उनके बताए रास्ते पर चलकर दुनिया के नक्शे पर चमकते रहते हैं, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि दुनिया के श्रेष्ठ विद्वानों में से एक डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने उनके रास्ते को चुना और अपने अनुयायियों को भी तथागत बुद्ध की शरण में जाने का निर्देश दिया, आखिर बुद्ध में ऐसा क्या है कि तमाम लोग ‘धम्म’ के रास्ते पर चलने के बाद ही शांति हासिल कर पाते हैं. इस सवाल का जवाब ढ़ूंढ़ने की जरूरत है, क्योंकि इसका जवाब आपको ‘अपने आप’ से मिलवाएगा. आप सोचने बैठेंगे तो यह सवाल भी आएगा कि जिस भारत देश से बुद्ध का संदेश दुनिया में फैला आखिर उस देश ने ही बुद्ध को पराया क्यों कर दिया? कहते हैं कि प्रजा उसी रास्ते पर चलती है जिस रास्ते पर उस देश का शासक हो. ऐसे में भारत के जिस शासक सम्राट अशोक ने खुद बौद्ध धम्म को अंगीकार कर लिया था, जाहिर है उसकी प्रजा भी उसी धम्म को मानने वाली होगी. फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि भारत देश बौद्ध धम्म से बिसर गया. इन सवालों को उठाने का मकसद बस इतना भर है कि जब आप इन सवालों का जवाब ढ़ूंढ़ने जाएंगे तो बौद्ध धम्म को मिटाने की साजिश स्वतः आपके सामने आ जाएगी. बाबासाहेब के तमाम अनुयायियों ने इन सवालों के जवाब ढ़ूंढ़ने शुरु कर दिए हैं. यही वजह है कि डॉ. आम्बेडकर द्वारा भारत में पुर्नजीवित किए जाने के बाद बौद्ध धम्म लगातार अपने पैर पसार रहा है. कालांतर में साजिश के तहत इस धम्म से बिसरा दिए गए लोग अब वापस अपने धम्म की शरण में आने लगे हैं. सत्ता और धर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं. उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के शासनकाल में यह बात साबित हो चुकी है. उत्तर प्रदेश में तमाम बहुजन नायकों सहित बुद्ध को स्थापित करने में बसपा की भूमिका अपने आप में अद्वितीय है. यह देश भी पहले की तरह ‘बुद्धमय’ तभी हो सकेगा जब इस देश में सत्ता के शीर्ष पर बाबासाहेब और भगवान बुद्ध के अनुयायी बैठेंगे. इसके लिए पूरे साल बाबासाहेब के बताए रास्ते पर बढ़ते रहने का आंदोलन चलाना होगा. जयंती के बीतने के बाद आंदोलन रुकना नहीं चाहिए.

हमें भी तुम्हारी देशभक्ति का सबूत चाहिए

कांशीराम जी कहा करते थे कि बहुजन समाज को एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि जब कभी भी ”ब्राह्मण समाज” देश संकट में है ऐसा कह कर शोर मचाये तो आपको समझ जाना चाहिए कि ”ब्राह्मण” सामाजिक तौर पर अकेला पड़ गया है. ऐसी स्थिति में वह अपनी रक्षा के लिए 3% से 90% बनने के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद का कवच या मुखौटा लगा लेता है. परन्तु जैसे ही उसके ऊपर से वह खतरा टल जाता है; वह फिर से जातिवाद का जहर घोलने मे लग जाता है. मौजूदा हालात को समझने के लिए कांशीराम जी का यह कथन अपने आप में पर्याप्त है. इन दिनों जिन लोगों द्वारा राष्ट्रभक्ति का स्वांग रचा जा रहा है, और जो लोग विरोधी विचारधाराओं से जुड़े लोगों को देश का दुश्मन बताने चले हैं, असल में देश, तिरंगा और संविधान के प्रति उनकी सोच क्या है, यह छुपी हुई बात नहीं है. उन्हें आज तक देश की गरीबी पर गुस्सा नहीं आया, उन्हें हर रोज महिलाओं के साथ हो रहे बलात्कार पर गुस्सा नहीं आया, उन्हें जातिवाद पर गुस्सा नहीं आया. उन्हें उन पूंजिपतियों पर गुस्सा नहीं आया जो देश के करोड़ो रुपये डकार कर बैठे हैं. इन्हें गुस्सा सिर्फ तब आता है जब कश्मीर की बात होती है. इन्हें गुस्सा तब आता है जब मुसलमानों की बात होती है. इन्हें गुस्सा तब आता है जब इस देश के दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक और गरीब किसान अपने हक की बात करते हैं. असल में इन्होंने कश्मीर और मुसलमानों को अपनी राजनीति का हथियार बना रखा है और जब भी इनकी राजनीति भोथरी होती है, उसे चमकाने के लिए वो कश्मीर और मुसलमानों के बहाने देश का मुद्दा उठाना शुरू कर देते हैं. और जब इससे भी दाल नहीं गलती तो ये किसी विश्वविद्यालय के छात्र को भी जबरन इस्तेमाल करने से नहीं चूकते. जेएनयू के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया के साथ इन्होंने यही किया है. असल में कन्हैया के बहाने ये रोहित वेमुला की चिता से उठी आग की लपटों को शांत करने में जुटे हैं. ये सारी कहानी जनवरी की 17 तारीख को हैदराबाद विश्वविद्यालय से शुरू हुई, जब उन्होंने रोहित वेमुला को गले में रस्सी बांधकर झूलने को विवश कर दिया था. इसके विरोध में देश भर का सारा बहुजन समाज और इंसाफ पसंद लोग रोहित के पक्ष में आकर खड़े हो गए. देश भर के विश्वविद्यालयों से रोहित को इंसाफ दिलाने की मांग उठने लगी. जब रोहित के गले का फंदा चुनाव हारने के बावजूद ठसक से देश की शिक्षा मंत्री बन कर बैठी 12वीं पास स्मृति ईरानी के गले की फांस बनने लगा तो सरकार में कोहराम मच गया. दलितों को छेड़ कर यह सरकार फंस चुकी थी और उसे निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था. लेकिन तभी जेएनयू में हुए एक प्रकरण ने देश की सत्ता में बैठे लोगों को मौका मुहैया करा दिया और संविधान को ना मानने वाले लोग कथित तौर पर देश को ना मानने वाले लोगों से भिड़ गए. इस भिड़ंत ने उन्हें देशभक्ति और राष्ट्रवाद के अपने पसंदीदा नारे को उछालने का भरपूर मौका दिया. हाथों में तख्तियां लिए रोहित वेमुला के लिए इंसाफ की मांग कर रहे युवाओं के हाथ में इन्होंने तिरंगा पकड़ाने की कोशिश की. एक वक्त ऐसा भी आया जब लगा कि इस शोरगुल में रोहित वेमुला के लिए न्याय की मांग धीमी पड़ने लगी है, लेकिन अब बहुजन समाज के युवाओं को कथित देशभक्तों की यह चाल समझ में आने लगी है. बहुजनों को एक बार फिर रोहित वेमुला को इंसाफ दिलाने की अपनी मांग पर लौटना होगा, क्योंकि सिर्फ रोहित को फांसी पर झूलने के लिए मजबूर नहीं किया गया, बल्कि रोहित के साथ बहुजन समाज के उन हजारों-लाखों युवाओं में दहशत फैलाने की कोशिश की गई जो उच्च शिक्षा हासिल कर देश और समाज के लिए कुछ करने का सपना संजोते हैं. अप्पाराव, बंडारू दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी जैसे लोगों ने यह खौफ पैदा करने का जिम्मा ले रखा है. फेसबुक, ट्विटर और इन जैसे तमाम सोशल साइट्स एक खास समाज और वर्ग के लोगों में भरे जहर को सामने ला रहा है. रोहित की मौत के बाद वो जिस तरह रोहित को गलत ठहराने में जुटे हैं वह हैरत में डालने वाला है. हर दलित की मौत के बाद होने वाले विरोध को राजनीति का हिस्सा बताया जाता है. मैं कहता हूं कि दलितों को ही क्यों मारा जाता है या फिर उन्हीं को मरने के लिए क्यों मजबूर किया जाता है? क्या पानी का मटका छूने पर किसी तथाकथित सवर्ण के हाथ काटे गए हैं? क्या अपनी शादी में घोड़ी पर चढ़ने की वजह से किसी सवर्ण के साथ मारपीट की गई है? क्या किसी सवर्ण आबादी की बस्तियों को रातों रात आग लगाई गई है? मिर्चपुर, खैरलांजी और भगाणा जैसी घटनाएं दलितों के साथ ही क्यों होती है? रोहित की मौत के बाद उठा गुस्सा इन सभी घटनाओं के बाद दबे हुए गुस्से का परिणाम है. और यह महज दलितों का ही गुस्सा नहीं है, बल्कि यह विरोध समाज के हर उस सभ्य व्यक्ति की ओर से हो रहा है; जो सही को सही और गलत को गलत कहने की हिम्मत रखता है. और अगर समाज नहीं संभला तो इस विरोध की गूंज बढ़ती जाएगी. एक खास किस्म के देशभक्तों और राष्ट्रवादियों से मेरे दो सवाल हैं. अगर तुम इतने बड़े देशभक्त हो तो सबसे पहले नागपुर में भगवे के ऊपर तिरंगा फहरा कर दिखाओ. और अगर तुम्हें सच में इस देश के संविधान पर गर्व है तो जयपुर हाईकोर्ट में लगी मनु की उस मूर्ति को जमींदोज कर दो जो इस देश के संविधान को मुंह चिढ़ाता है. क्योंकि जब तुम लोगों के गिरेबां पकड़ कर उनसे देशभक्ति का सबूत मांग रहे हो तो सबूत मांगने का हक हमें भी है.

जीत पक्की है, बस लड़ाई शुरू करना है

vemulaरोहित ने आत्महत्या कर ली है. रोहित होनहार छात्र था, आम्बेडकरवादी था, बावजूद उसने आत्महत्या कर ली, इस बात से मैं परेशान हूं. तमाम लोग रोहित के जाने को शहादत मान रहे हैं, मैं उसे लड़ाई से भागना मान रहा हूं. हो सकता है कि वो ज्यादा परेशान हो, लेकिन रोहित के साथ निकाले तो चार अन्य छात्र भी गए थे. वो तो लड़ रहे हैं. फिर आखिर रोहित ने क्योंकर हार मान लिया. हालांकि मेरा इस बात पर भी संदेह है कि रोहित ने आत्महत्या की है. इस तथ्य को मैं शक की नजर से देख रहा हूं. तमाम लोग कह सकते हैं कि दलित समाज पर काफी जुल्म होते हैं और रोहित उसी जुल्म का शिकार हुआ है. जो लोग सिर्फ दलित समाज की बेहाली का रोना रोते हैं, उनसे मुझे हमेशा से चिढ़ रही है. आप लोगों ने भी कभी न कभी इस कहावत को सुना होगा कि “यह देखने वाले पर निर्भर करता है कि गिलास आधा खाली है या फिर आधी भरी हुई.” मैं हमेशा से ही गिलास के आधे भरे हिस्से को महत्व देता हूं. शायद यही सोच काम करने की ताकत भी देती है. जब कोई मुझसे यह कहता है कि वंचित और शोषित समाज की स्थिति काफी बुरी है तो उसके जवाब में मैं यह कहता हूं कि हजारों साल की गुलामी के बाद महज 7 दशक में ही जो समाज प्रताड़ित करने वाले समाज को चुनौती देने की स्थिति में आ जाए वह कमजोर कैसे हो सकता है.? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सब कुछ ठीक हो गया, लेकिन मैं ठीक होने की गति को देखकर काफी आशान्वित हूं. मैं इस स्थिति को बहुत बड़ा अजूबा मानता हूं. यह वंचित समाज की मेहनत, कमर्ठता और जिद्द है, जिसके बूते वह तेज गति से आगे की ओर दौड़ रहा है. देश की अर्थव्यवस्था, शिक्षण केंद्र, राजनीति और न्याय व्यवस्था में जन्म से ही आरक्षण लेकर पैदा हुए देश की आबादी में मौजूद ‘मुट्ठी भर’ लोगों ने जिस तरह सत्ता के तमाम केंद्रों पर कब्जा किया हुआ है, वहां पहुंच कर उन्हें चुनौती देने का जज्बा यही वंचित समाज दिखा रहा है. दलित अत्याचार के विरोध को लेकर भी यही स्थिति है. हर रोज घटने वाली अत्याचार की घटनाओं के बीच अब सबकुछ चुपचाप सहने की बजाय जिस तरह लोग विरोध में सामने आ रहे हैं, वह भी गौर करने वाली बात है. हालांकि विरोध का स्तर अभी और तेज होना है और मेरा मानना है कि जैसे जैसे यह समाज शिक्षित और आत्मनिर्भर होगा, विरोध का स्तर जरूर बढ़ेगा. देखने में यह भी आ रहा है कि दलित अत्याचार के खिलाफ अब लोगों ने संगठित होकर लड़ना शुरू कर दिया है. हाल ही में मध्यप्रदेश की सड़कों पर ‘मेघ सेना’ के सैकड़ों लोगों ने संगठित होकर रोड शो के द्वारा अपनी ताकत का प्रदर्शन किया. आने वाले दिनों में इस संगठन का प्रभाव देखना बाकी है. लेकिन इस संगठन ने ‘दलित पैंथर’ की याद को ताजा कर दिया है, जिसने एक समय में नामदेव ढ़साल की अगुवाई में महाराष्ट्र में सामंतवादियों में दहशत पैदा कर दिया था. तमाम मौकों पर देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय अन्य संगठनों की बात सामने आती रहती है. यानि आज का युवा एकजुट हो रहा है. जो विरोध करने की स्थिति में है, वह विरोध कर रहा है और जो नहीं है वो छटपटा तो जरूर रहा है. एक छटपटाहट बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के विरोधी विचारधारा वाले लोगों में भी है. इस छटपटाहट की वजह यह है कि जैसे जैसे बाबासाहेब के लोग मजबूत होंगे, विरोधी विचारधारा के लोग कमजोर होंगे. शह मात के इसी खेल में बाबासाहेब के विरोधी अब अपने मुंह पर बाबासाहेब का मुखौटा पहनकर उनके अनुयायियों के बीच जा रहे हैं. सिक्के जारी करने से लेकर सेल्फी तक खिंचाई जा रही है. और ‘फिक्की’ से आगे निकलने की होड़ में जो बड़े-बड़े उद्योगपति अभिभूत दिख रहे हैं वो कुछ दिन पहले तक किसी ‘दूसरे’ दरवाजे पर भी यूं ही हाथ बांधे खड़े थे. खैर यह उद्योगपतियों की फितरत होती है और पैसा कमाना उनका अधिकार. खैर, किसी के ‘अधिकार’ पर ऊंगली उठाने का मेरा कोई इरादा नहीं है. लेकिन आम अम्बेडकरवादी को सचेत करना भी जरूरी है. आने वाले दिनों में यह सब और बढ़ने वाला है. वजह उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा के चुनाव है, जहां सीधे सीधे बाबासाहेब के अनुयायियों और बाबासाहेब के विरोधियों के बीच मुकाबला होना है. एक बार फिर गिलास के आधा भरे हिस्से की बात. यह खुशी तो देता है लेकिन चिंता का विषय यह भी है कि यह कहीं न कहीं स्थिर जैसा है. देश के विभिन्न हिस्सों से एकजुटता की खबर तो आ रही है. सफलता और संघर्ष की कहानियां भी सुनने को मिलती है लेकिन यह प्यासे के मुंह में पानी की कुछ बूंद जैसा है. यहां सफल और आत्मनिर्भर लोगों का दायित्व बनता है कि वह समाज के पिछड़े हिस्से को आगे लाने में अपनी भागीदारी निभाए. यह एक और तरीके से लाई जा सकती है. देश और विभिन्न प्रदेशों में बाबासाहेब की विचारधारा वाले राजनीतिक दल को सत्ता में लाकर इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जा सकता है. ध्यान रखने की बात यह है कि डॉ. अम्बेडकर को मानने वालों को एकजुट रहना होगा. क्योंकि जिस विचारधारा को बाबासाहेब वर्षों पहले खारिज कर चुके हैं, वह कभी हमारी हितैषी नहीं हो सकती. बाबासाहेब के सिपाहियों को चाहिए कि वो सिक्के और सेल्फी में ना फंसे. ‘शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, जाल में फंसना मत.’ मुझे यकीन है कि बचपन की यह कहानी भ्रम को दूर करने के लिए काफी होगी.

50 बहुजन नायक

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हिंदुत्व की राजनैतिक ताकतों को हराने के लिए बसपा अंतिम विकल्पः भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी राजस्थान के प्रगतिशील दलित आंदोलन के एक प्रमुख स्तम्भ है और आज के हालातो पर उनकी लेखनी बेबाक जारी है. उन्होंने देश भर के जन आंदोलनों के साथ लगातार हिस्सेदारी की है और गांव-गांव साम्प्रदायिकता, जातिवाद, महिला हिंसा, वैश्वीकरण, विस्थापन आदि के प्रश्नों पर जनजागरण किया है. राजस्थान में भीलवाड़ा जिले के एक छोटे से गांव सिरडीयास में 25 फरवरी 1975 को दलित बुनकर परिवार में जन्मे भंवर मेघवंशी को महज 13 साल की उम्र में ही कट्टरपंथी आर एस एस जैसे संगठन ने अपने साथ जोड़ लिया ,जिसके साथ उन्होंने तकरीबन पांच साल तक सक्रिय रूप से काम किया .वे अपने गांव की शाखा के मुख्य शिक्षक रहे ,बाद में कार्यवाह बने और अंततः जिला कार्यालय प्रमुख के पद तक भी पंहुचे .उन्होंने बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए हुई पहली कारसेवा में भी शिरकत की, मगर अयोध्या पंहुचने से पहले ही गिरफ्तार हुए तथा 10 दिन आगरा की जेल में रहे. बाद में एक घटना से उनका आरएसएस की दलित विरोधी सोच और नफरत एवं कट्टरता की विचारधारा से मोहभंग हो गया और उन्होंने संघ से अपना नाता तोड़ लिया और खुलकर आरएसएस का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया . आरएसएस छोड़ने के बाद मेघवंशी ने एक फुल टाइम कार्यकर्ता के रूप कौमी एकता, भाईचारे और शांति एवं सद्भाव के लिए काम शुरू किया जो आज तक जारी है. उन्होंने 2002 में गुजरात में हुए अल्पसंख्यकों के नरसंहार के विरुद्ध जमकर आवाज उठाई, गुजरात पीड़ितों के लिए बने पीपुल्स ट्रिब्यूनल के सदस्यों के साथ दस्तावेजीकरण किया और लेख लिखे. साम्प्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ जमकर संघर्ष करते हुए उन्होंने 2000 से वर्ष 2012 तक डायमण्ड इंडिया नामक मासिक पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन किया. भंवर मेघवंशी ने एक स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सदैव अपनी कलम शांति, आपसी सद्भाव, भाईचारे और सोहार्द्र के लिए काम किया. उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में व्याप्त स्टीरियो टाईप मिथ्स को तोड़ने और सच्चाई को सामने लाने का काम किया है. भंवर जी से आज के ज्वलंत प्रश्नों पर मैंने विस्तारपूर्वक बातचीत की जो यहां प्रस्तुत है. -भंवर जी, आज के दौर में दलित आंदोलन की सबसे बड़ी चुनौती क्या है ? भंवर मेघवंशी: आज दलित आन्दोलन को कई प्रकार की चुनोतियों को झेलना पड़ रहा है, यह बाहरी चुनौतियां भी है और भीतरी भी. जिस प्रकार से साम्प्रदायिक शक्तियां दलित आन्दोलन को हजम कर रही है, वह चिंताजनक स्थिति है. आज बड़े पैमाने पर दलित नेतृत्व संघ भाजपा द्वारा बिछाये गए जाल में फंस गया है. सत्ता का झूठा लालच देकर उनकी जुबानें बंद कर दी गई है. दलितों के चुने हुए प्रतिनिधि दलितों की बात नहीं करते. नौकरशाही ओर सत्ता में बैठे लोग दलित आवाजों के दमन में लगे हुये है. अभी संघ का एक एजेंडा चल रहा है कि या तो अपने साथ ले लो, अगर नहीं आये तो उन्हें फंसा दो. इस तरह हम देख रहे है कि दलितों का दमन और तीव्र होता जा रहा है. दलित आन्दोलन अपनी स्वाभाविक उग्रता को खो रहा है, वह कई बार भ्रमित नजर आता है, उसे समझ नहीं आता है कि वो किनके साथ खड़ा हो. उसे अपने दोस्तों और दुश्मनों की शिनाख्त करने में आज काफी मुश्किल हो रही है. समुदाय के बीच में पनप आये दलाल लोगों ने आन्दोलन की मूल भावना को ही विकृत कर दिया है. अधिकांश दलित लीडर उम्र के थका देने वाले पड़ाव पर पंहुच गए है. चुनौतियां बेहद नई है ओर समाधान पुरातन है. नई पीढ़ी का दलित आन्दोलन कुछ अलग चाहता है, पर उसे दिशा नहीं मिल पा रही है. भीतरी चुनौतियां भी उभर रही है, दलितों के मध्य के जातिय अंतर को अब जातिवाद का रूप दिया जा रहा है. कई दलित जातियां स्वयं को इस हद तक मजबूत करने में लगी है कि उन्होंने जाति उच्छेद के काम से लगभग मुंह ही मोड़ लिया है. दलित समुदाय के भीतर जातियों को मजबूती देने का काम जाति तोड़ने के बड़े उद्देश्य की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा बनकर उभर रहा है. यह हमारे आन्दोलन को कमजोर बना रहा है. संघ की विघटनकारी राजनीति के लिए यह स्थिति मुफीद है, इसलिए वो दलितों के मध्य के छोटे मोटे फर्क को दुश्मनी के स्थायी भाव में बदलने की कोशिश में लगा रहता है. -रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद लगा के अम्बेडकरी और वामपंथी ताकते साथ आएंगी लेकिन JNU के चुनावों ने दोनों के बीच में खायी को और बड़ा बना दिया है. आप क्या सोचते हैं इस सन्दर्भ में? भंवर मेघवंशी: हां यह बात सही है कि रोहित वेमुला के सांस्थानिक मर्डर के बाद अम्बेडकरी और वामपंथी ताकतें एक साथ आई. जय भीम ओर लाल सलाम का नारा एक साथ गुंजायमान हुआ. उम्मीद जगी कि यह जुगलबंदी आगे बढ़ेगी. यह समय की मांग भी रही. यह संतोष का विषय रहा कि भारत के वामपंथियों ने जाति के सवाल को स्वीकारना शुरू किया और वे अम्बेडकरवादी आन्दोलन के साथ खड़े दिखाई देने लगे. मगर हाल ही में जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी छात्र संघ चुनाव में लेफ्ट यूनिटी और बापसा के आमने सामने आने से लोगों को लगा कि रोहित के मामले में बनी एकता ख़त्म हो गई है. जिस पर कई लोगों ने चिंता व्यक्त की है, लेकिन मैं थोड़ा अलग तरह से इस पूरे घटनाक्रम को देखता हूं. हमें समझना होगा कि भारत के वामपंथी कभी भी अम्बेडकरवादी समूहों के स्वाभाविक दोस्त नहीं रहे है, सदैव ही ये दो धाराएं रही है. रोहित के मुद्दे पर ये सडकों पर संघर्ष में एक साथ थे. इसका मतलब यह तो नहीं कि उनके मध्य कोई वैचारिक एकता बन गई. मेरे ख्याल से वह एक मुद्दे पर तात्कालिक एकता थी, जिसे एक न एक दिन खत्म होना ही था. फिर ऐसे मुद्दे आयेंगे तो ऐसी क्षणिक एकता फिर से बनेगी ओर बिगड़ेगी भी. रही बात जेएनयू चुनाव की तो इसे विचारधाराओं के संघर्ष के रूप में देखना अभी जल्दबाजी होगी. इससे वामपंथियों को अपने भीतर देखने का मौका मिलेगा. बापसा और लेफ्ट यूनिटी को न्यूनतम सांझे मिलन बिंदु ढूंढने चाहिए. चुनावी संघर्ष दोस्त ओर दुश्मन की विभाजक रेखा नहीं बननी चाहिए. -वामपंथियो ने तो बहुत गलतियां की है. न केवल जाति की स्वीकार्यता के विषय में बल्कि वर्ग चरित्र में भी उनका नेतृत्व कभी भी गरीबो के हाथ में नहीं था. लेकिन जब हम राजनैतिक आंदोलन करते है तो हर एक आंदोलन की एक स्वस्थ आलोचना होनी चाहिए क्योंकि अगर हम सभी में कमिया नहीं होती तो ब्राह्मणवाद कभी इतना मज़बूत नहीं होता. इसलिए ये भी जरुरी है के अम्बेडकरवादी या दलित आंदोलनों के जो विभिन्न ध्रुव है उनकी भी कमियों और अवसरवाद पर बोला जाये. आज का समय केवल कम्युनिस्टों की कमी निकालने से नहीं होगा बल्कि स्वस्थ रूप से सभी सम्बंधित आंदोलनों के कमियों को समझकर एक नए आंदोलन की रुपरेखा बनाने का होना चाहिए. भंवर मेघवंशीः आपकी बात से मेरी सहमति है कि आज का वक्त सिर्फ वामपंथियों की कमियां निकालने का नहीं है, पर सवाल जरुर उठाये जाने चाहिए .इसका जवाब कौन देगा कि वामपंथियों ने जाति के सवाल को कालीन के नीचे क्यों दबाये रखा आज तक ,उनके यहाँ नेतृत्व में दलित आदिवासी लोग क्यों नहीं आगे आ पाए. आप वर्ग की बात तो करेंगे लेकिन वर्ण की बात को नहीं स्वीकारेंगे यह नहीं चल सकता है. आप गरीबी का ढोल तो पीटेंगे मगर जाति की तरफ से आंख मूंद लेंगे ,यह नहीं चल सकता है .भारतीय  वामपंथ को ईमानदारी से इस देश के परिप्रेक्ष्य में उसी तरह से ब्राह्मणवाद से भी लड़ना होगा ,जिस तरह वे पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से लड़ने की बात करते है . मुझे भी लगता है कि दलित बहुजन आन्दोलन को भी अपने भीतर झांकना होगा ,अगर वह अपनी स्वस्थ आलोचना स्वयं कर सके तो उसके हक़ में यह बहुत अच्छा होगा ,अम्बेडकरी आन्दोलन को भी अपने जातिवादी चरित्र से छुटकारा पाना होगा तथा उसे ब्राह्मणवाद से भी बचना होगा . -दलित बहुजन आंदोलन की बहुत चर्चा होती है लेकिन उसका मेल बिंदु केवल गैर ब्राह्मणवाद है. दोनों ध्रुवो को साथ आने के लिए क्या कोई सकारात्मक कार्यक्रम की जरूरत नहीं है. जैसे कम्युनिस्तो ने जाति को नहीं माना वैसे ही अगर हम ये सोच ले के बहुजन ध्रुवीकरण के अंदर सारे तत्त्व एक से हैं तो बहुत बड़ी भूल होगी. बाबा साहेब ने जातियो के वर्गीकरण के बारे में साफ़ कहा था के ये ””ग्रेडेड इनएक्वलिटी”” है, हर एक जाति एक एक ऊपर चढ़ी है और अपने को दूसरे से बड़ी मानती है. अपने आपसी संबंधों के बारे में जब हमारी समानता का कोई सिद्धांत नहीं बनेगा तो एकता कैसी ? भंवर मेघवंशी: दलित बहुजन एकता के सारे तत्व एक से नहीं है, सिर्फ मंचीय ध्रुवीकरण परिलक्षित होता है जो गाहे बगाहे ब्राह्मणवाद को कोसते रहते है. मगर इस मिलन बिंदु से आज कुछ भी उम्मीद नहीं लगाई जा सकती है. बहुजन विचार में शामिल जो पिछड़ा तबका है, वह आज मनुवाद का सबसे बड़ा संवाहक बना नजर आता है. पाखंड, पूजा पाठ तथा धर्म कर्म में आकंठ डूबा हुआ. वह जो आज ब्राह्मणवाद का हरावल दस्ता है, उससे ब्राह्मण से लड़ने की उम्मीद करना बचकानी बात होगी. दलित अत्याचार के प्रकरणों को उठाकर देखिये कई इलाकों में 90 प्रतिशत मामलों के मुख्य अभियुक्त ओबीसी से आते है. जो पिछड़ा रोज दलित को जूता मार रहा है, उसके साथ कैसी एकता? धरातल के हालात तो बेहद भयंकर है ओर हमारे आसमानी नेता है जो कभी दलित पिछड़ा एकता ओर कभी मूलनिवासी एकता का राग अलापते रहते है. बहुजन ध्रुवीकरण एक कोरी कल्पना है. अब तो बहुजन के नाम से जाने जाने वाले संगठन ही ब्राह्मण नेता चलाते है. पिछड़े जब तक मनुवाद के अग्रिम मोर्चे पर खड़े दिखेंगे ओर दलितों पर अत्याचार करेंगे तब तब वे हमारे उतने ही बड़े दुश्मन है ,जितने कि कथित उच्च वर्णीय लोग है. -रोहित वेमुला के मामले को मीडिया ने बहुत उछाला. बहुतो को लगा शायद अब मीडिया दलित प्रश्नों पर बहुत संवेदनशील हो गया है लेकिन डेल्टा मामले को तो लगभग दबा दिया गया.  अभी गांवों में बहुत क्रूर घटनाक्रम होता है और मीडिया भूल जाता है. भागना के लोग पिछले 4 वर्ष से आंदोलन कर रहे हैं लेकिन अभी भी न्याय के इंतजार में हैं और अब उनके पास न दलित संगठन आते न वामपंथी? मीडिया तो खैर गया ही नहीं? क्यों हो रहा है ऐसा? भंवर मेघवंशीः रोहित के मामले को मुख्यधारा मीडिया ने कोई खास तव्वजो दी हो ऐसा मैं नहीं मानता, हां जब सोशल मीडिया ने इस मुद्दे को बहुत बड़ा बना दिया तब प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक माध्यमों ने अपने जातिवादी चरित्र के मुताबिक नेगेटिव रिपोर्टिंग शुरू की. रोहित की जाति पर भ्रम पैदा किया, उसे गोमांस भक्षी देश विरोधी तत्व के रूप में निरुपित किया. हर संभव कोशिश यह की कि कैसे भी करके रोहित वेमुला को बदनाम कर दिया जाये, लेकिन अच्छा यह हुआ कि वैकल्पिक मीडिया ने इस मनुवादी मीडिया को धूल चटा दी ओर वे रोहित के मामले को दबा नहीं पाये. रही बात डेल्टा मेघवाल मामले की, तो यहां भी मीडिया की भूमिका नकारात्मक ही रही. पहले डेल्टा का चरित्र हनन का प्रयास हुआ और बाद में मामले को ठन्डे बस्ते में फेंक दिया. रोहित के मामले में आरोपी सरकारी लोग थे, मगर डेल्टा के मामले में विज्ञापन देने वाले समुदाय के लोग थे. जिनका अखबारों ओर टीवी चैनल्स पर मालिकाना हक है, उन्हीं की जमात के लोग जब आरोपी बने तो मीडिया उनके आगे पूंछ हिलाने लग गया. दलितों पर होने वाले अत्याचार सेक्सी स्टोरी नहीं होते. दलित महिलाओं का बलात्कार जातिवादी मीडिया की संवेदनाओं को नहीं जगाता. भगाना हो चाहे डांगावास, डेल्टा हो या उना दलित अत्याचार, सिर्फ सोशल मीडिया ही इन मुद्दों को आगे बढ़ा रहा है. वैसे भी मीडिया ज्ञापन देने वालों से ज्यादा विज्ञापन देने वालों की परवाह करता है. -आप तो राजस्थान के बहुत से आंदोलनों से जुड़े रहे हैं जैसे मज़दूर किसान शक्ति संगठन, भोजन का अधिकार अभियान, पीयूसीएल इत्यादि. क्या तथाकथित मुख्यधारा के आंदोलनों में दलितों की जगह बची है या उनका केवल एक लेबल की तरह इस्तेमाल हो रहा है? भंवर मेघवंशी: मुख्यधारा की किसी भी चीज़ में दलितों के लिए कभी जगह नहीं थी और न ही आज है. सभी जगह दलित सिर्फ दिखाने की वस्तु भर होते है. सामाजिक आंदोलनों का चरित्र भी इससे भिन्न नजर नहीं आता. कहीं पर भी स्वतंत्र दलित नेतृत्व को स्वीकारा नहीं जाता. पिछलग्गू दलित सबको प्रिय है, बोलनेवाले. सवाल उठानेवाले दलित कहीं भी पसंद नहीं किये जाते. मेरा मानना है कि सिविल सोसाइटी को भी लोकतान्त्रिक और समावेशी बनना होगा तथा दलितों को सिर्फ लेबल की तरह इस्तेमाल करने से बचना होगा. -राजस्थान में अम्बेडकरवादी या दलित आंदोलनों की क्या स्थिति है। भंवर मेघवंशी: राजस्थान पारम्परिक रूप से एक सामन्ती स्टेट रहा है. यहां विद्रोह की कोई भी सामाजिक राजनीतिक या सांस्कृतिक धारा नहीं रही है. यहां तक कि भक्तिकाल में भी यहां कबीर या रैदास जैसे लोग नहीं पैदा हुए. यहां तो दास्य भाव शाश्वत रहा है. तो मानसिक दासता सदियों से बरकरार रही है. दलित मुक्ति की लड़ाई में भी राजस्थान का योगदान नगण्य रहा है. पूना पैक्ट के वक़्त राजस्थान के कतिपय दलित नेता बाबा साहब के विरोध में पर्चे बांट रहे थे. यहां कबीर, फुले और अम्बेडकर के दलित के बजाय गांधी के हरिजन और पार्टियों के बंधुआ दलित लीडर ही ज्यादा रहे है. आज़ादी के बाद हेडगेवार-गोलवलकर के भक्त दलित ओर गांधी नेहरु को पूजने वाले दलितों के हाथ में दलित आन्दोलन की बागडोर रही. फिर समाजवादी किस्म के राजनीतिक दलित आन्दोलन पैदा हुये, जिन्होंने सामाजिक न्याय के नारे तो लगाये. पर उसके नेतृत्व में वही जातियां प्रमुखता से आगे रही जो शोषक जमातें थी. 1992 में कुम्हेर भरतपुर में दलितों के सामूहिक नरसंहार के बाद राजनीती से परे एक दलित आन्दोलन उभरने लगा ,जो बाद में एनजीओकरण का शिकार हो गया. प्रोजेक्ट बेस्ड दलित आन्दोलन ने भी दलित आन्दोलन की स्थितियां ख़राब की है. आज राजस्थान का दलित आन्दोलन बिखराव का शिकार है. व्यक्तिवादी अहम की लड़ाइयों के चलते कई छोटे छोटे खेमे बन गये है. कुछ लोग तो दलित के नाम पर सिर्फ अपनी जाति या परिवार का समूह बना बैठे हैं जबकि आज राजस्थान दलित अत्याचार, छुआछुत और भेदभाव का सबसे बड़ा गढ़ बन गया है. पर संतोष की बात यह है कि डांगावास दलित संहार के पश्चात दलित युवा पीढ़ी ने स्वतः स्फूर्त आन्दोलन खड़ा किया तथा संघर्ष कर विजय पाई है. राजस्थान के दलित युवा आन्दोलन ने अपने खामोश राजनीतिक नेतृत्व को पूना पैक्ट की खरपतवार करार दिया है तथा जातिवादी समूहों को भी नकारने का काम किया है. सामाजिक संगठनों के नाम से दशकों से दुकानदारी चला रहे लोगों को भी बहुत सारे सवालों का सामना करना पड़ा है. धीरे-धीरे ही सही परन्तु डांगावास से लेकर डेल्टा तक के मामलों में एक आत्मनिर्भर दलित अम्बेडकरवादी आन्दोलन का उभर एक सुखद घटना मानी जा सकती है. -क्या दलित संगठनों को बिलकुल अलग होकर काम चलना चाहिए आवश्यकता अनुसार निर्णय लेने चाहिए क्योंकि- जब वामपंथी शक्तियां साथ न दे तो क्या विकल्प है या दलित बहुजन अल्पसंख्यको को अब एक नयी पहल करनी होगी ताकि उनकी बुनियाद मज़बूत हो और वे राजनैतिक तौर पर अपनी ताकत का एहसास करवा सके. भंवर मेघवंशी: दलित संगठनों को अलगाव के साथ काम करने की जरूरत नहीं है. उन्हें स्वतंत्र ओर आत्मनिर्भर होने की जरूरत है. उन्हें अपने फैसले खुद लेने ही चाहिए. वामपंथी हो या अन्य किसी प्रगतिशील धारा के लोग हो, अगर वे साथ नहीं दे तब भी दलित संगठनों को अपने बूते सब कुछ कर पाने का माद्दा रखना होगा. दलित, आदिवासी, घुमंतू ओर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को एक साथ आ जाना चाहिए, हमें पिछड़ों को साथ लेने का मोह फिलहाल छोड़ देना चाहिए. अभी तमाम उत्पीड़ित तबको की एकता कायम करने की जरूरत है. अगर हम ऐसा कर पाते है तो हम राजनीतिक रूप से भी बड़ी ताकत निर्मित कर सकते है. -अस्मिताओं की राजनीति जरुरी है या विचारधारा की? हालांकि लोग कहते हैं के अस्मिताओं में भी विचारधारा होती है- लेकिन ऐसा गलत भी है, क्योंकि अस्मिताओं का इस्तेमाल करने में संघ परिवार सबसे आगे है. लोग कैसे समझे के सामने वाला आदमी मेरा है. वो सजातीय हो सकता है लेकिन अपने समुदायों के हितो का दलाल भी? भंवर मेघवंशी: मुझे लगता है कि दलित आन्दोलन का अस्मितादर्शी राजनीति का काल बीत चुका है. अस्मिता राजनीति का आज सर्वाधिक फायदा संघ गिरोह के लोग उठा ले जाते है. वे अस्मिताओं का हमसे बेहतर इस्तेमाल करना जानते है. हमें अब अपनी राजनीति विचारधारा पर केन्द्रित करनी होगी. अगर हम दीर्घजीवी बदलाव चाहते है तो यह जरुरी हो जाता है कि हम बुद्ध, फुले, शाहू, कबीर, रैदास और अम्बेडकर की मानवतावादी समानतावादी विचारधारा को स्थापित करने का काम करना होगा. अब सजातीय से आगे बढ़कर समविचारी से नाता जोड़ना होगा. -आपकी आत्मकथा एक बेहतरीन दस्तावेज है के जहां हमें ””””अपनों”””” को समझने की जरुरत होती है. मैं समझता हूं हमारे देश में हर एक का अपना राष्ट्रवाद है और उसके ताकतवर लोग उसे इस्तेमाल करते रहते हैं.  हम सब अपने अपने समूहों को नियंत्रित करना चाहते हैं और उसके लिए सिद्धांत गढ़ते हैं जिसमे विलन दूसरी जाति, धर्म या देश होता है. ये विलन सुविधा के अनुसार बनाये जाते हैं लेकिन ज्यादातर मामलो में हम स्वयं ही विलन रहते हैं? भंवर मेघवंशी: शायद आत्मकथा के लिहाज से यह जल्दबाजी कही जायेगी क्योंकि अभी बहुत कुछ करना बाकी है, लेकिन इस आपबीती को कहना भी बहुत जरुरी है. हालांकि उसे कोई भी प्रकाशक छापने का साहस नहीं कर पाया. नए दौर के मीडिया ने उसे लोगों तक पंहुचाया है. हिन्दू तालिबान में मैंने अपनों पर भी और अपने पर भी सवाल उठाये है. आपका यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि हम अपनी सुविधा के अनुसार खलनायक गढ़ लेते है जो कि प्रायः किसी अन्य जाति, धर्म या संप्रदाय के होते है. नियंत्रण की राजनीति जिसे वर्चस्व का संघर्ष कहना मुझे ज्यादा ठीक लगता है. वह हमारी कमजोरियों तथा महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किये जाने वाले गलत फैसलों को भी सिद्धांतों का बाना पहना देता है. दलित नेतृत्व ओर दलित संगठनों को अपने आलोचकों का आदर करना सीखना चाहिए. कोई तो होना चाहिए जो हमारे अन्दर के खलनायक पर भी सवाल खड़े कर सके. राष्ट्र की पूरी अवधारणा ही ताकत ओर सत्ता के बेजा इस्तेमाल से जुडी हुयी है. इसलिए हर दौर में हर समूह का अलग राष्ट्रवाद होगा और उसका उपयोग भी सब अपनी सुविधा के अनुसार ही करेंगे. अंततः राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की पूरी बहस ही एक किस्म का फर्जीवाड़ा ही है. -आप एक लेखक है और बहुत नया लेखन आ रहा है. कैसे देखते नए दौर के दलित लेखन को? भंवर मेघवंशीः यह ख़ुशी की बात है कि बहुत सारा दलित लेखन आ रहा है. उसमे अब भी पीड़ा का भाव बेहद घनीभूत है. आत्मकथाएं अब भी आत्मव्यथाएं ही बनी हुई है. आज प्रतिरोध का साहित्य विपुलता से आ रहा है. कई भाषाओँ में आ रहा है. फिर भी वह कथित मुख्यधारा साहित्य को टक्कर नहीं दे पा रहा है. हमें दलित साहित्य को मानवता का साहित्य बनाना होगा. वह सिर्फ दलितों का, दलितों द्वारा, दलितों के लिए साहित्य नहीं होना चाहिए. हर भारतीय उसे चाव से पढ़े. सबको लगे कि इसे पढ़ना बेहद जरुरी है. हमें प्रतिरोध के साहित्य को भी लोकप्रिय बनाना होगा और उसकी पंहुच का दायरा विस्तृत करना होगा. हिंदी पट्टी के दलित लेखकों को नवाचार करने चाहिए. आनंद नीलकंठन के पौराणिक उपन्यास असुर तथा अजेय को पढ़िए. आपको लगेगा कि किसी केडर केम्प में बैठकर आप बात सुन रहे है. नीलकंठन ने रावण, दुर्योधन, कर्ण जैसे पात्रों के ज़रिये ब्राह्मणवाद पर भारी चोट मारी है. यह तो एक उदहारण मात्र है. मेरा मत है कि हमें दलित साहित्य जो कि वस्तुत समतावादी साहित्य है. उसके स्वरों को मुख्यधारा के स्वरों में तब्दील करना होगा. -क्या हम बहुत ज्यादा ””चिंतक ””तो नहीं हो गए क्योंकि भूमिहीन किसानों, मज़दूरों, गांव में मैला ढोने वालों, बाल श्रमिको, आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण के मुद्दे धीरे-धीरे हमारे आंदोलनों से गायब हो गए हैं. ये सारे प्रश्न तो आंबेडकरवादियो के एजेंडे में होनी चाहिए? भंवर मेघवंशीः हम चिन्तक हो पाते तब भी हम समाज के लिए उपयोगी जीव साबित होते. मगर हम चिंतित प्राणी हो गए है. सदैव रुदन, शाश्वत रुदन करनेवाले. जो बुद्धिजीवी है हमारे समाज के उनको इतना ज्ञानाभिमान हो गया है कि वो किसी और ही लोक में जीते है. आज भी हमारे करोड़ों भाई बहन रोटी के अभाव में भीख मांगने पर मजबूर है. लाखों लोग आज भी मैला उठा रहे है. हमारी बहुत बड़ी आबादी घर, खेती या शमशान की भूमि तक से महरूम है. हमारे लाखों बच्चे कूड़ा-कचरा बीन रहे है, सड़कों पर ज़िन्दगी बसर कर रहे है तो हमें सोचना पड़ेगा कि आखिर इस आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण ने हमको क्या दिया है. अगर जनता के ये मुद्दे हमारे विमर्श और आन्दोलनों से गायब है तो मानकर चलिये कि हम किसी और ही युग में जी रहे है. इस देश के तमाम वंचित, पीड़ित गरीब जन के बुनियादी मुद्दे अम्बेडकरी आन्दोलन के एजेंडे में लाने होंगे तभी हमारा आन्दोलन जन आन्दोलन होगा. -जो बाबा साहेब को सही ढंग से मानता होगा तो उसके लिए मनुवाद और पूंजीवाद सबसे बड़े दुश्मन हैं. आज दलित खड़ा हुआ है. नये युवा आ रहे हैं लेकिन आंदोलन एक ””””रिएक्शन भी है. हालांकि जो हमारे साथ घटित हो रहा है उसका मुंहतोड़ जवाब तो देना होगा और गुजरात, हैदराबाद आदि की घटनाओ ने साबित कर दिया है के दलित अब चुप नहीं रहेंगे लेकिन समाज बदलाव की अम्बेडकरवादी मुहीम तो चलती रहनी चाहिए ताकि एक प्रबुद्ध भारत का निर्माण हो सके. आपको इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या लगता है? भंवर मेघवंशीः प्रतिक्रिया भी जरुरी है ओर तात्कालिक जवाब देना भी कभी कभार बहुत आवश्यक हो जाता है. इसलिए उना और हैदराबाद के मुद्दों पर हुयी त्वरित प्रतिक्रियाओं का मैं तहेदिल से इस्तकबाल करता हूं. यह संकेत है कि दलितों की नई पीढ़ी बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करेगी. लेकिन इसके पीछे कि साजिश को भी समझना होगा कि कहीं वे हमें अत्याचारों के चक्रव्यूह में तो नहीं फंसा रहे है ताकि हम अपनी सारी उर्जा सिर्फ इसी के विरोध में खर्च करते रहे ओर वे लोग आराम से हम पर राज करते रहे. मनुवाद और पूंजीवाद एक दूसरे के पूरक है. दोनों ही हमारे दुश्मन है. हम मनुवाद से तो लडाई करते है और पूंजीवाद का समर्थन करते है, तब लडाई भौंथरी हो जाती है. बाज़ार और ब्राह्मणवाद एक दूसरे से जुड़े हुए है. किसी भी एक का साथ देना दूसरे को प्राण वायु पंहुचाने जैसा है .हमें प्रबुद्ध और समृद्ध भारत बनाना है सिर्फ आर्थिक समृद्धि मात्र नहीं. हर तरह से सक्षम और आत्मनिर्भर ,प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक चेतना से लेश भारत बनाना होगा ,जो मनु और पूंजी के गुलामों से पूर्णत मुक्त भारत होगा. इसके लिए हमें सांस्कृतिक एवं आर्थिक मोर्चों पर अपनी भागीदारी के लिए काम करना होगा ,अभी हमारी सारी लड़ाई राजनीतिक बराबरी और सामाजिक समानता के लिए चल रही है पर इस शास्त्रीय गुलामी और आर्थिक गैरबराबरी को ख़त्म करने की दिशा में हमारे प्रयास अभी भी नाकाफी दिखाई पड़ते है. इन मोर्चों पर ध्यान देना होगा. -आप आरएसएस के संपर्क में कैसे आये. क्या उन्होंने आपको ढूंढा या आप कौतूहलवश उसमें गए ? भंवर मेघवंशीः बचपन में खेलकूद की इच्छा ने अनायास ही मुझे आरएसएस तक पहुंचा दिया. मैं जब सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था, तब हमारे भूगोल के अध्यापक जी ने मेरे गांव में आ कर हम बच्चों को इकट्ठा करके खेल खिलाना शुरू किया. बाद में वे गीत भी सिखाने लगे. थोड़े दिन बाद उन्होंने हर दिन बिठाकर कुछ बातें भी बतानी शुरू कर दी. बाद में भगवा ध्वज भी लगाया जाने लगा. हमने खाकी निकर और काली टोपी पहनना शुरू कर दिया. हमें यह बताया गया कि हम इश्वर की योजना से संघ की शाखा के लिये चुने गये है. हम भाग्यशाली है कि हमें अपनी मातृभूमि की सेवा करने का अवसर मिला है. शुरू में तो कौतुहलवश तथा खेलकूद के लालच में ही मैं उन तक गया, पर बाद में उन्होंने मेरी क्षमताओं को पहचानते हुये मुख्यशिक्षक, कार्यवाह बनाते हुये जिला कार्यालय प्रमुख तक बनाया. -संघ में गैर मुस्लिमों को शामिल करने का एक उत्साह बना रहता है, कुछ इमोशन, कुछ देश भक्ति और कुछ धर्म की रक्षा का नाटक. भंवर मेघवंशी: राष्ट्रवाद की भावना तथा धर्मो रक्षति रक्षित: की बातें तो महज दिखावा है. असल में मुस्लिमों का डर दिखा कर तथा इसाईयों के प्रति नफरत का भाव पैदा करके वे लोगों को शामिल कर लेते है. -मुझे आज भी याद है के बाबरी मस्जिद के ध्वंश से करीब दो दिन पूर्व में एक सज्जन के पास हरियाणा गया था और जो शब्द आपने कहे वही उस वक़्त उन्होंने कहे कि अब की बार कार सेवा अच्छे से होगी. क्या आपको पता था के अबकी बार मस्जिद गिरनी ही है? भंवर मेघवंशीः बिल्कुल पता था. यह तो पूर्वनियोजित ही था. बाबरी मस्जिद तोड़ना ही कारसेवा का असली मकसद था. -संघ आज भी दलितों और आदिवासी गांवों की ओर जा रहा है. राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, उसका उदहारण है.  क्या कारण है कि लोग उनके कार्यक्रमो में भाग लेते हैं. क्या अम्बेडकरवादी, बहुजनवादी, समाजवादी, वामपंधी और कोई वादी लोगो के पास जनता की सांस्कृतिक महत्वाकांक्षा को लेकर कोई कार्यक्रम नहीं है या हमने लोगों के पास जाना छोड़ दिया है.  ये बात सही है के हिंदुत्व के लोगो के पास पैसो की कमी नहीं है लेकिन उसका जो कर्मठ कार्यकर्ता है, जो दूर दराज से आता है वो तो अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ काम करता है. भंवर मेघवंशी: संघ के लोग मिशनरीज लोगों की तर्ज पर आज सुदूर दुर्गम इलाकों तक में फैल गये है. वे शहरों की वाल्मीकि बस्तियों में मौजूद होते है तो जंगल पहाड़ों में आदिवासियों के बीच भी. सेवा के काम के जरिये वे अपनी विचारधारा को स्थापित करते है.लोगों के सुख दुख में साथ दिखाई पड़ते है. वे लोगों की जरूरतों को समझकर उनकी पूर्ति करते है, जबकि हम लोग सिर्फ सिद्धांत बताते है और भाषण पिलाते है. हमारी धरातल पर उपस्थिति निरंतर घट रही है, जबकि संघ सम्प्रदाय के प्रचारक गण लोगों के बीच घुलमिल गये है. वामपंथ, अम्बेडकवाद, समाजवाद, बहुजनवाद तथा अन्य गैरसंघवादी ताकतों के लोगों ने वाकई आम जन के बीच जाना छोड़ दिया. ये लोग या तो चुनावी बहसों में नजर आते है या खोखले बौद्धिक विमर्शों में. बात केवल पैसे की नहीं है, प्रतिबद्धता की भी है. आरएसएस के पास आज पैसे की कमी नहीं है, यह सर्वमान्य सत्य है. मगर हमें यह भी याद रखना है कि चाहिये कि उसके पास समर्पित कैडर का संख्याबल भी है. उसका कैडर कहीं भी जाने के लिये तैयार है. -अम्बेडकरवादी सांस्कृतिक परिवर्तन की धारा आपके राज्यों मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान में कितनी मज़बूत है. भंवर मेघवंशी: ग़ुजरात तो अभी बदलाव का संवाहक बना हुआ ही है. मध्यप्रदेश और राजस्थान में अन्दर ही अन्दर बहुत उबाल आया हुआ. सांस्कृतिक परिवर्तन की धारा का तेज बहाव आने को तत्पर है.सही पहल करने वाले ईमानदार नेतृत्व की जरूरत है. -संघी प्रोपगंडे का मुकाबला कैसे हो, कभी गाय, कभी बीफ, कभी भारत माता, कभी गंगा और पाकिस्तान और मुसलमान तो चौबीस घंटे उनके जुबान पर रहता है. ज्यादातर ये राष्ट्र और सांस्कृतिक प्रश्न है जिसमें लोग आसानी से बहक जाते हैं क्योंकि लोगों को लगता है देश की और संस्कृति की बात है. दलित, पिछड़े, आदिवासी इसको कैसे रेस्पोंड करे. भंवर मेघवंशी: हम प्रोपेगंडे का मुकाबला तथ्य और सत्य पर आधारित कथ्य से ही कर सकते है. संघ झूठ बनाने तथा उसे सच की पैंकिंग करके फैलाने की विश्व की सबसे बड़ी फैक्ट्री है. गाय, गंगा, गायत्री, गौमाता, भारतमाता, बीफ ,राष्ट्रवाद, देशभक्ति, वंदेमातरम् ये सब इनके उपकरण मात्र है. असल मकसद तो इस देश के मेहनतकश गरीब गुरबा का शोषण करते रहना है. उन्होनें संघ और राष्ट्र को एक दूसरे का पूरक बना दिया है. भाजपा को वोट देने को राष्ट्रभक्ति से जोड़ दिया है. गाय जैसे जानवरों की रक्षा को संस्कृति का सवाल बना दिया है. हमें अपने लोगों तक असली बात को पहुंचाना होगा. देश, समाज और संस्कृति के मूल्यों की गैर साम्प्रदायिक व्याख्या करनी होगी. जनता के मध्य सीधी बहस करनी होगी. मुझे पक्का यकीन है कि इस हिन्दुत्व के जहरीले राजनीतिक विषाणु को मात सिर्फ दलित विचारधारा ही दे सकती है. हमें पूरी शिद्दत से संघ सम्प्रदाय को एक्सपोज करना चाहिये. -आपने कहा के वामपंथियो ने जाति को कभी समझा नहीं इसलिए उनके और दलितों के बीच में गैप रहेगा.  इस पूरे राजनैतिक परिदृश्य में तो ब्राह्मणवादी फासीवादी ताकतों को हराने के लिए एक समझ तो विकसित करनी होगी. कई स्थानों पर दलित मुसलमानो की अच्छी संख्या है और कई जगह पर नहीं. इसलिए वैचारिक तौर पर हमें अपने साथी तो बनाने पड़ेंगे और ये एक लंबी लड़ाई है जो जैसा आपने कहा विचारधारा की मबबूती से आएगी. लंबे समय में आप दलितों, आदिवासियों की लड़ाई में किस प्रकार के लोगो का साथ चाहते हैं. भंवर मेघवंशी: ब्राहमणवादी फासीवाद से मुकाबला करने के लिये कई प्रकार के एलायंस बनाने होंगे. जहां-जहां हम न्यूनतम सांझे मिलन बिन्दूओं के जरिये वामपंथ के साथ चल सकते है. हमें बेहिचक वामपंथ के साथ चलना चाहिये. जहां हमारे पास बहुजन विकल्प हो, उनके साथ जाने में भी कोई बुराई नहीं है. अगर हम कहीं धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ स्वयं को सहज पाते है तो उनके साथ भी चलने पर विचार करना चाहिये. हमारा विचार शत्रु बहुत व्यापक और विशाल है. उससे कई मोर्चों पर कई सारे समूहों के साथ मिलकर लड़ना होगा. -आपने कहा के दलितों पे अत्याचार के मामलो में पिछड़ी जातियो का ज्यादा रोल है. मैं ये मानता हूं के ये भी एक सिंपल स्टेटमेंट है के क्योंकि पिछडो की categorization देखेंगे तो इसमें भूमिहीन तबका वो दलितों का नेचुरल साथी है. जो थोड़ा जमीन जायदाद के मामले में धनी है वो भले ही ब्राह्मण ठाकुरो को गरियाले लेकिन दलितों के नेतृत्व में काम करने को तैयार नहीं लेकिन ये तो ग्रेडेड इन एक़ुअलिविटी वाली बात है जब हम ऊपर वाले के साथ जुड़ना चाहते है लेकिन नीचे वाले के नेत्रेत्व में आने को तैयार नहीं ?  क्या आप पिछडो में बदलाव की उम्मीद नहीं करते? भंवर मेघवंशी: दलितों पर दबंग पिछड़ों का अत्याचार महज सिंपल स्टेटमेंट नहीं है. यह ग्रासरूट की सच्चाई है. आप एट्रोसिटी एक्ट के तहत दर्ज मुकदमों का विश्लेषण कर लीजिये, आप मेरी स्थापना को तथ्यात्मक पायेंगे. मैं हवा में बात नहीं कर रहा हूं. पिछड़ों का भूमिहीन तबका भले ही आर्थिक तल पर दलितों के नजदीक दिखाई देता हो, मगर वह सामाजिक स्तर पर उसी ब्राहम्णवादी ऊंच नीच की मानसिकता से ग्रस्त है. दलितों का नेतृत्व जिस दिन पिॆछड़ों द्वारा स्वीकार लिया जायेगा तथा भेदभाव व अन्याय अत्याचार बंद कर दिया जायेगा, तब ही बदलाव की उम्मीद बलवती होगी. -जैसे के मैंने कहा, कोई भी राजनैतिक लड़ाई केवल नकारात्मक नहीं हो सकती. बुद्ध ने अपना रास्ता दिखाया और पूरी दुनिया में बौद्ध धर्म फैल गया और उसने बड़े बदलाव दिखाए.  बुद्ध ने तो दुश्मनो का नाम तक नहीं लिया. बाबा साहेब ने राजनैतिक लड़ाई लड़ी, हमें अधिकार दिलवाये लेकिन आखिर में ये भी समझ आया के सांस्कृतिक परिवर्तनों के बिना हम राजनैतिक लड़ाई भी नहीं जीत सकते.  क्या आप समझते हैं के बौद्ध संस्कृति की और गए बिना हमारी लड़ाई अधूरी है और केवल राजनैतिक परिवर्तन प्रबुद्ध भारत के निर्माण के लिए नाकाफी है. भंवर मेघवंशी: राजनीतिक बदलावों को स्थाई करने के लिये सांस्कृतिक परिवर्तनों की आवश्यकता पड़ती है. बु्द्ध का मार्ग वैज्ञानिक चेतना और शांति का सम्यक मार्ग है. यहीं दलितों के लिये श्रेयकर भी है .इसको अंगीकार किये बिना ब्राह्मणवाद से मुक्ति संभव ही नहीं है. -उत्तर प्रदेश का चुनाव देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. क्या कहेंगे इस प्रश्न पर? भंवर मेघवंशी: उत्तरप्रदेश का चुनाव इस अंधकार के समय में एक रोशनी ला सकता है. बाज़ार और मनुवाद की ताकतों को अगर वहां से मात मिल सके तो यह हमारे देश की सेहत के लिए बहुत अच्छा होगा. यह सिर्फ चुनाव नहीं है, इसे जनमत संग्रह के रूप में लेना चाहिए. यह बड़बोले पंतप्रधान के आधे कार्यकाल के प्रति रायशुमारी भी हो सकता है. इसलिए इस चुनाव का अपना एक महत्व है. सारी पार्टियां भी इसे युद्ध की तरह लड़ रही है. इसे राजनीतिक दलों के मध्य चुनावी संघर्ष से ज्यादा विचारधाराओं के बीच का संघर्ष बनाना होगा. मुझे तो लगता है कि नफरत की राजनीति करनेवालों को इसमें हारना ही चाहिये. -उत्तर प्रदेश के चुनावो को आप नरेंद्र मोदी और हिंदुत्व के लिए रेफेरेंडम मान रहे है. वह बसपा और समाजवादी पार्टी आमने सामने हैं. आप किस और लोगो को वोट के लिए कहेंगे. मैं जानता हूं ये एक कठिन प्रश्न हो सकता है लेकिन जैसा मेरा मानना है लोगो को ””बीजेपी”” को हराने वाली पार्टी को वोट देने के लिए कहने का मतलब है उनको भ्रमित करना. इसलिए हम सभी साथियों से साफगोई से अपील करने को कह रहे हैं. लोग किसको चुने और क्यों ? भंवर मेघवंशी: इसमें कोई कठिनाई नहीं है. पहला लक्ष्य तो बीजेपी को हराना चाहिये, दूसरा जीतने वाली गैर भाजपाई पार्टी को वोट देना होना चाहिये. सपा और बसपा आमने सामने है. हालांकि भाजपा बार बार यह कह रही है कि उसका मुकाबला समाजवादी पार्टी से है. सारे मीडिया हाउसेज की नजर मे भी यूपी के मुख्य प्लेयर सपा, भाजपा और कांग्रेस है. उनकी नजर में बसपा कहीं है ही नहीं. क्या यह आंकलन ठीक है. मैं तमाम अंतर्विरोधों व असहमतियों के बावजूद उत्तरप्रदेश की जनता से अपील करना चाहता हूं कि वह बहन मायावती को राज में लाने के लिये हाथी पर बटन दबायें. ऐसा इसलिये कह रहा हूं, क्योंकि सपा अपनों की वजह से इस बार अपने आप ही हार रही है. कांग्रेस की खटिया तो बिछ गई है. राहुल गांधी मेहनत भी कर रहे है, पर बहुत ज्यादा हासिल होने वाला है नहीं. भाजपा को जीतने नहीं देना है, ऐसे में फिलहाल बसपा ही अंतिम विकल्प बचता है.

मीडिया में सहारनपुर कहां है?

सहारनपुर से लौटे एक युवा रिपोर्टर ने यह कहकर मुझे चौंका दिया कि जिन दिनों वहां पुलिस मौजूदगी में सवर्ण-दबंगों का तांडव चल रहा था, दिल्ली स्थित ज्यादातर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और अखबारों के संवाददाता या अंशकालिक संवाददाता अपने कैमरे के साथ शब्बीरपुर और आसपास के इलाके में मौजूद थे, लेकिन ज्यादातर चैनलों और अखबारों में शब्बीरपुर की खबर नहीं दिखी.

उन दिनों ज्यादातर चैनलों की खबरों में जस्टिन बीबर छाये हुए थे और लाखों रुपये खर्चकर उनके कार्यक्रम में मुंबई जाने वालों के इंटरव्यू दिखाये जा रहे थे. देश के कथित राष्ट्रीय मीडिया के मुख्यालयों से सहारनपुर की दूरी महज 180 किमी की है. पर मीडिया दिल्ली सरकार के हटाये गये एक बड़बोले मंत्री की बागी अदाओं पर फिदा था. तीन तलाक़ की उबाऊ बहसों से टीवी चैनल अटे पड़े थे. गोया कि भारतीय मुसलमान की सबसे बड़ी समस्या तीन तलाक़ ही हो, जबकि इस समुदाय में महज 0.56 फ़ीसद तलाक़ होते हैं.

दूसरी तरफ, पश्चिम यूपी के शब्बीरपुर को जलाया जा रहा था. पुलिस की मौजूदगी में घर के घर उजाड़े गये. घरों में कुछ भी नहीं बचा. साइकिलें, चारपाइयां, कुछ छोटे-बड़े डब्बों में रखा राशन, कढ़ाई में बनी सब्जियां, अंबेडकर की किताबें और बच्चों के स्कूली बस्ते भी जलकर ख़ाक हो गए. महज बीस दिनों में तीसरी बार सहारनपुर का यह इलाक़ा सुलग रहा था. पर देश के बड़े न्यूज़ चैनलों और ज़्यादातर अख़बारों के लिये यह ख़बर नहीं थी.

अगर कुछ खास चैनलों और न्यूज वेबसाइटों ने इसे न कवर किया होता तो देश को सहारनपुर की सच्चाई शायद ही पता चल पाती.

‘जंगलराज’ का कोरस ग़ायब यूपी या देश के कई प्रदेशों में ऐसी घटनाएं पहले से होती रही हैं और सिलसिला आज तक जारी है. पर हिंदी पट्टी के राज्यों में जब कभी किसी दलित या पिछड़े वर्ग के नेता की अगुवाई वाली सरकारें होती हैं, ऐसी घटनाओं के कवरेज में मीडिया, ख़ासकर न्यूज़ चैनल और हिन्दी अख़बार ‘बेहद सक्रिय’ दिखते रहे हैं-अच्छी तथ्यपरक रिपोर्टिंग मे नहीं, ‘जंगलराज’ का कोरस गाने में.

हर किसी आपराधिक घटना, हादसे या उपद्रव को मीडिया का बड़ा हिस्सा उक्त सरकारों की नाकामी से उपजे ‘जंगलराज’ के रूप में पेश करता आ रहा है. पर्दे और पृष्ठों पर बार-बार उभरता रहा है-जंगलराज! लेकिन उत्तर प्रदेश में सरकार क्या बदली, मीडिया का वह ‘जंगलराज’ ग़ायब! योगी जी के ‘रामराज’ को भला ‘जंगलराज’ कहने का दुस्साहस कौन करे!

सहारनपुर में सामुदायिक और सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं पहले भी होती रही हैं. लेकिन इस बार एक फ़र्क़ नज़र आता है. ख़बर के बजाय तमाशे पर टिके रहने वाले न्यूज़ चैनलों की छोड़िये, पश्चिम उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक प्रसारित हिन्दी अख़बारों ने भी इस पहलू को प्रमुखता से नहीं कवर किया. सांप्रदायिक-सामुदायिक तनाव की घटना की शुरुआत इस बार अंबेडकर जयंती के जुलूस से हुई. तब तक यूपी में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार आ चुकी थी. भाजपा के स्थानीय सांसद, कई-कई विधायक और नेता इस जुलूस के साथ थे.

जुलूस के ज़रिये दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच तनाव और टकराव पैदा करने की भरपूर कोशिश की गई. स्थानीय पुलिस अधिकारियों ने कड़ाई से निपटना चाहा तो उन्मादी भीड़ ने एसएसपी के बंगले पर हमला कर दिया. बाद में उक्त एसएसपी का तबादला कर दिया गया, मानो सारे घटनाक्रम के लिए वह अफ़सर ही दोषी रहा हो! भाजपा या राज्य सरकार ने स्थानीय सांसद, विधायक या नेताओं के ख़िलाफ़ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की.

आंबेडकर के नाम पर भाजपा-समर्थकों का यह जुलूस एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश कर रहा था. दलितों में यह भ्रम पैदा करने की कि सवर्ण वर्चस्व की ‘हिन्दुत्व-पार्टी’ अब दलितों के प्रिय नेता अंबेडकर को तवज्जो देने लगी है और दूसरा कि मुसलमान इस आयोजन में बाधा बन रहे हैं.

देश के किसी कथित राष्ट्रीय या क्षेत्रीय टीवी चैनल ने उस वक्त इस पहलू पर अपने सांध्यकालीन सत्र में बहस नहीं कराई. तब सारे चैनलों पर ‘यूपी में योगी-योगी’ का जयगान चल रहा था. ऊपरी तौर पर हाल के उपद्रव या हिंसक हमले की जड़ में था-महाराणा प्रताप की शोभा यात्रा और उक्त जूलूस के दौरान तेज़ आवाज़ में ‘डीजे’ का बजना. बताया जाता है कि यह आयोजन बिल्कुल झारखंड में रामनवमी के जूलूसों की तरह था. गाजे-बाजे के साथ हथियारों से लैस उन्मादी युवाओं का सैलाब. इसमें एक ख़ास दबंग सवर्ण जाति के लोगों की संख्या ज़्यादा थी.

गांव और आसपास के इलाक़े में खेती-बाड़ी और अन्य काम-धंधे पर इन जातियों का ही वर्चस्व है. दलितों के पास यहां खेती-बाड़ी की ज़मीन बहुत कम है. अनेक परिवार पशुपालक भी हैं. कुछ लोग छोटे-मोटे धंधे से जीवन-यापन करते हैं, जबकि कुछ नौकरियों में हैं. सामाजिक-राजनीतिक रूप से वे अपेक्षाकृत जागरूक और मुखर माने जाते हैं.

‘भीम सेना-भारत एकता मिशन’ इनका एक उभरता हुआ नया मंच है. चंद्रशेखर नामक एक युवा वकील इसके प्रमुख नेताओं में हैं. अलग-अलग नाम से इस तरह के संगठन देश के अन्य हिस्सों में भी बन रहे हैं. बसपा से निराश दलितों के बीच ये तेज़ी से लोकप्रिय भी हो रहे हैं.

जयंतियों पर हथियारबंद जूलूस क्यों? सहारनपुर में हिंसा और उपद्रव के संदर्भ में सबसे पहला सवाल जो मीडिया को उठाना चाहिए था, वह ये कि 14 अप्रैल को यहां भाजपा नेताओं की अगुवाई में निकाले गए जुलूस के दौरान भारी हिंसा हुई थी और उन्मादी भीड़ ने कुछ लोगों के उकसावे पर जिले के एसएसपी के बंगले तक पर हमला किया, ऐसे में प्रशासन ने फिर किसी ऐसे जुलूस को निकलने ही क्यों दिया?

बीते 5 मई को महाराणा प्रताप जयंती के नाम पर सवर्ण दबंगों को पारंपरिक हथियारों और आग्नेयास्त्रों के साथ जुलूस निकालने क्यों दिया गया? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका सहारनपुर के जिला प्रशासन या समूची योगी सरकार के पास कोई भी तर्कसंगत जवाब नहीं.

इन शोभा यात्राओं और जूलूसों पर प्रशासन की तरह मीडिया का बड़ा हिस्सा भी ख़ामोश रहता है, या तो वह इन्हें बढ़चढ़ कर कवर करता है या इन्हें सामान्य घटना के रूप में लेता है. समाज को बांटने और टकराव बढ़ाने वाले ऐसे जुलूसों को वह सिरे से ख़ारिज क्यों नहीं करता? अगर मीडिया ऐसा करता तो प्रशासन पर इसका भारी दबाव पड़ता और वह ऐसे जुलूसों को रोकने के लिए मजबूर हो जाता.

मीडिया ऐसा करके निहित स्वार्थ से प्रेरित उन्मादी जुलूसों के ख़िलाफ़ पब्लिक ओपिनियन बना सकता था. पर देश के ज़्यादातर हिस्सों में सांप्रदायिक य़ा सामुदायिक तनाव पैदा करने वाले ऐसे जूलूस एक तरह का दैनन्दिन कर्मकांड बनते जा रहे हैं और मीडिया का बड़ा हिस्सा उनके शांतिपूर्ण समापन या रक्तरंजित होने का मानो इंतज़ार करता है!

दूसरा अहम सवाल 5 मई के घटनाक्रम को लेकर उठना चाहिए था. जिस दिन शब्बीरपुर गांव में दलितों पर हमला हुआ, पूरे पांच घंटे हमला जारी रहा. घटनास्थल से लौटे पत्रकारों के मुताबिक उस वक्त पुलिस भारी मात्रा में वहां मौजूद थी. फिर उसने दबंग हमलावरों को रोका क्यों नहीं? क्या पुलिस-प्रशासन का उस दिन सवर्ण समुदाय के दबंग हमलावरों को समर्थन था? पुलिस ने बाद में दलितों की पंचायत रोकी. पर पांच घंटे का हमला क्यों नहीं रोका? मीडिया में यह सवाल कितनी शिद्दत से उठा?

सहारनपुर के दलित वकील चंद्रशेखर सवाल उठाते हैः ’ख़ून तो सबका एक सा है फिर यह पूर्वाग्रह क्यों?’ समाज में जो पूर्वाग्रह हैं, उनकी अभिव्यक्ति सिर्फ़ शासन और सियासत तक सीमित नहीं है, वह मीडिया में भी है. अब कुछ चैनलों को चंद्रशेखर में दलित-आक्रोश के पीछे का चेहरा नज़र आ रहा है. पता नहीं, उसे नायक बनाना है या खलनायक?

सहारनपुर में सांप्रदायिक और सामुदायिक तनाव व हिंसा को लेकर तीसरा सवाल है- इसके राजनीतिक संदर्भ का. क्या इस तरह की जातीय गोलबंदी के पीछे कुछ शक्तियों के कोई सियासी स्वार्थ भी हैं? कुछ माह बाद होने वाले स्थायी निकाय चुनावों से तो इनका कोई रिश्ता नहीं? दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच एकता की संभावना से किसे परेशानी है? क्या कुछ लोगों को ऐसी एकता से किसी तरह का राजनीतिक भय है?

क्या यह सब किसी योजना के तहत शुरू हुआ, जो बाद के दिनों में अनियंत्रित हो गया. और अब शांति की बात हो रही है! मीडिया के बड़े हिस्से ने सहारनपुर के संदर्भ में ऐसे सवालों को नहीं छुआ.

– लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह आलेख न्यूज वेबसाइट ”द वायर” से साभार प्रकाशित

दलित एजेंडा 2050

Writer : प्रो. विवेक कुमार Pages : 125 Laguage : Hindi Stock : In Stock Rs.125/- Name : Das Publication Bank Name :Punjab National Bank AC- :1518002100509569 Bank Address : Punjab National Bank Branch- Patparganj, Delhi – 110092, IFSC- PUNB0151800

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स्वच्छता अभियान के बजाय शिक्षा पर जोर होना चाहिये

जब से केन्द्र में नई सरकार बनी है, चारों तरफ स्वच्छता की ही चर्चा है। यहाँ तक कि नये नोटों पर भी स्वच्छ भारत और एक कदम स्वच्छता की ओर लिखा हुआ मिल जायेगा। शहरों और गाँवों को भी स्वच्छता की रैंकिंग दी जा रही है। लेकिन सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर हम पाते हैं कि यह उसी तरह है जिस तरह जड़ों को छोड़कर पत्तों और टहनियों को पानी देना। इसमें कोई दोराय नहीं है कि मनुष्य को स्वच्छ रहना चाहिये, साफ-सफाई रखना चाहिये, गन्दगी नहीं फैलाना चाहिये और पर्यावरण प्रदूशित होने से बचाना चाहिये। ये सब बहुत अच्छी बातें हैं और इनसे किसी का कोई विरोध नहीं होना चाहिये, मेरा भी कोई विरोध नहीं है। परन्तु राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार इस बात को रखकर अन्य प्रभावशाली मुद्दों को पीछे धकेला गया है, बल्कि जनता का ध्यान भटकाया गया है, वह सही नहीं है। व्यक्ति के स्वस्थ रहने के लिये आवश्यक है कि वह स्वच्छ रहे। विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों में भी स्वच्छता और शुचिता को उचित स्थान दिया गया है। अतः स्वच्छता का मामला हमारे स्वास्थ्य के साथ-साथ धार्मिक क्रिया-कलापों से भी जुड़ा हुआ है। कोई धार्मिक कार्यक्रम करने से पहले स्थान को झाड़-पोंछकर साफ-सुथरा कर लिया जाता है और अपेक्षा की जाती है कि सब कोई नहा-धोकर साफ-सुथरे कपड़े पहन कर ही कार्यक्रम में शामिल हों। यह दर्शाता है कि हमें व्यक्तिगत और धार्मिक रूप से स्वच्छ रहना चाहिये। बात स्वच्छता को जानने, पहचानने और जीवन में धारण करने की है। किसी भी बात को अच्छी तरह जानने और पहचानने के लिये शिक्षा का होना अति आवश्यक है। भारत देश में शिक्षा के क्या हालात हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। अतः मुद्दा स्वच्छता का न होकर शिक्षा का होता तो अधिक अच्छा रहता।’सन 2025 तक प्रत्येक भारतीय शिक्षित होगा’, अगर यह संकल्प होता तो स्वच्छता पीछे-पीछे चली आती। बच्चों से लेकर किशोरावस्था तक के युवकों को अनिवार्य रूप से शिक्षा की व्यवस्था होती और इनके तमाम कागज़ात (जाति प्रमाण पत्र, मूल निवास प्रमाण पत्र, मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड आदि) विद्यालयों के माध्यम से ही बनते तो अधिकतम लोग शिक्षा से जुड़ते। स्वच्छता की शिक्षा और इसके प्रति जागरुकता भी साथ-साथ ही चलती। यदि विद्यालयों में शिक्षकों के सारे पद भरे हुए हों, इनको अन्य किसी कार्य में व्यस्त नहीं किया जाये और ये पूरे समय रुककर विद्याध्ययन करवायें, पूरे देश में एकसमान पाठ्यक्रम लागू हो तो कुछ साल बाद परिदृश्य बदल सकता है। लेकिन कोई नहीं चाहता कि सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर सुधरे, क्योंकि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सबके हित इसके खिलाफ जाते हैं। शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पर्यावरण में व्याप्त गन्दगी (जिसके खिलाफ स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है) के साथ-साथ लोगों के दिलो-दिमाग़ में व्याप्त गन्दगी भी साफ की जा सकती है। शिक्षा रूपी एक तीर से कई शिकार हो सकते है- देश को स्वच्छ रखा जा सकता है (क्योंकि स्वच्छता जागृति से आती है और बिना शिक्षा के जागृति सम्भव नहीं है), छुआछूत मिटाई जा सकती है, समाज में समरसता की भावना पैदा की जा सकती है, हर प्रकार की चेतना उत्पन्न की जा सकती है, बेरोजगारी मिटाई जा सकती है, अच्छे नागरिक बनाये जा सकते हैं और साथ ही देश को साक्षर बनाया जा सकता है। लेकिन सरकार ने इस बारे में अधिक विचार किये बिना स्वच्छता को अत्यधिक तूल दे दिया ईमानदारी से देखा जाये तो यह योजना मात्र सफाईकर्मियों अथवा मेहतर समाज से ही जुड़ी हुई लगती है, क्योंकि अधिकतर सफाई का कार्य उनको ही करना होता है।   प्रोफेसर विवेक कुमार के अनुसार वास्तविक सार्वजनिक जीवन में सफाई की नींव में कम से कम सात परतें होती हैं- 1.सार्वजनिक सड़कों पर झाड़ू लगाना, 2.सार्वजनिक नाले और नालियों के कीचड़ की सफाई करना, 3.मेनहोल और गहरे गटर के अन्दर उतर कर मल-मूत्र एवं कीचड़ की सफाई करना, 4.सार्वजनिक कूड़ा स्थलों से हाथ एवं मोटरगाड़ियों से कूड़ा उठाना, 5.मल की सफाई करना (यथा शुश्क मलों का सिर पर उठाना {जो कि कानूनन अपराध भी घोशित किया जा चुका है}, पानी से मल को बहाकर सफाई करना एवं फ्लेश टॉयलेट की सफाई), 6.रेलवे प्लेटफॉर्म की रेल लाईनों पर पड़े मल-मूत्र एवं कूड़े की सफाई, एवं 7.मरे हुए जानवरों की सफाई। स्वच्छता प्रेमी जरा सोचकर बतायें- उपरोक्त में से कौन-कौनसी सफाई वे अपने हाथों से करना पसंद करेंगें और कौन-कौनसी सफाईकर्मियों के लिये छोड़ देंगे? शायद ही अधिकतम दो नम्बर के आगे की सफाई कोई भी स्वच्छता प्रेमी करना पसंद करेगा। इसके आगे की सफाई तो सफाईकर्मियों को ही करनी है। अतः ज्यो-ज्यों स्वच्छता अभियान का फैलाव होता जायेगा, अधिक से अधिक सफाईकर्मियों की आवश्यकता होगी, जिनकी पूर्ति निश्चित रूप से मेहतर समाज से ही होनी है। तो क्या स्वच्छता अभियान प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मेहतर समाज को उनके पुश्तैनी धन्धे से जोड़े रखने की योजना है ? बाबा साहेब की सोच अलग थी। उनका विचार था कि शिक्षा से ही मानव का विकास होता है, अतः प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित होना ही चाहिये। तभी तो उनके सिद्धांत त्रयी में शिक्षित बनों सबसे ऊपर है। तब भी और आज भी, सबसे अधिक गन्दगी यदि कही रही है तो वह मूल निवासी समाज की बस्तियों में रही है। बाबा साहेब भी इस बात से वाकिफ थे, वे अपने भाषणों में लोगों को स्वच्छ रहने को कहते भी थे (1921 व 1925 में दिये गये भाषणों से), लेकिन उनकी नजर में शिक्षा का स्थान स्वच्छता से कहीं अधिक था, अतः उन्होनें शिक्षा के जरिये घृणित काम-धन्धे वालों के औजार छीने और सबको कलम पकड़ाई, झाड़ू नहीं। जिन लोगों ने उनकी यह बात समझी, आज वे सम्मान की जिन्दगी जी रहे हैं। लेकिन दलित समाज की कई जातियों ने उनकी बात नहीं मानी और आज भी घृणित पुश्तैनी धन्धा किये जा रहे हैं। इसका नुकसान यह हो रहा है कि उनके लिये आरक्षित पदों पर अन्य समाजों के और सामान्य वर्ग के लोग नौकरिया पा रहे हैं और आरक्षण के प्रति बढ़ती उदासीनता से कई विभाग के विभाग समाप्त हो रहे हैं और अधिक बैकलॉग होने पर सरकार द्वारा सारे पद ही समाप्त कर दिये जाते है, जैसा कि कुछ माह पूर्व राजस्थान में किये गये। कहने को तो अनुसूचित जाति को 16 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को 12 प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है परन्तु आजादी से लेकर आज तक आरक्षण का आँकड़ा 3-4 प्रतिशत से अधिक नहीं है। अतःसभी वर्गों के हित को ध्यान रखते हुए आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाये और साथ ही जागरुकता पर भी, ताकि एक काम के साधने मात्र से कई कार्य सध जाये। ​                                                                                                                                                                                                                                                                                           लेखक अपने विचार

संकलन 2015

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