बैन के खिलाफ मायावती ने खोला मोर्चा, समर्थकों के लिए जारी की अपील

मायावती (फाइल फोटो)

नई दिल्ली। चुनावी रैलियों और मीडिया के बीच जाने से चुनाव आयोग द्वारा लगाए गए 48 घंटे की रोक के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने आयोग के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. 15 अप्रैल को चुनावी कार्यक्रम खत्म कर लखनऊ पहुंची मायावती देर रात चुनाव आयोग पर जमकर बरसीं और आयोग के फैसले को भाजपा के दबाव में लिया गया जातिवादी फैसला कहा. बसपा प्रमुख ने चुनाव आयोग पर मोदी और अमित शाह को खुली छूट देने का भी आरोप लगाया. उन्होंने चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि आयोग ने कारण बताओ नोटिस में कहीं नहीं लिखा था कि मैंने भड़काऊ भाषण दिया था.

उन्होंने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग ने बिना मेरा पक्ष सुने मुझ पर बैन लगा दिया. जबकि मोदी और अमित शाह को खुली छूट दे रखी है. नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनाव आयोग अब तक कोई कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है जबकि वे लोग बार-बार पाबंदी के बावजूद धर्म के साथ-साथ सेना का भी लगातार चुनावी स्वार्थ के लिए राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं. यह अति दुर्भाग्यपूर्ण है. यह आदेश भारत निर्वाचन आयोग के इतिहास में हमेशा के लिये एक काला दिवस के रूप में ही जाना जायेगा.

गौरतलब है कि आयोग ने मायावती के देवबंद में दिए जिस भाषण को आधार बनाकर उन पर बैन लगाया है, उसके बारे में बसपा प्रमुख ने कहा कि देवबन्द में बीजेपी को हराने के लिए की गई अपील ना तो धार्मिक आधार पर थी और ना दो धर्मों के बीच नफरत फैलाने के लिए, क्योंकि गठबंधन के साथ-साथ कांग्रेस का भी उम्मीदवार मुस्लिम ही है. बसपा प्रमुख पर 16 अप्रैल की सुबह 6 बजे से बैन लगा है जो 17 अप्रैल को पूरे दिन और रात जारी रहेगा.

गौरतलब है कि 16 अप्रैल को मायावती को आगरा में गठबंधन के अन्य नेताओं के साथ संयुक्त रैली को संबोधित करना था, लेकिन आयोग के बैन के कारण मायावती संयुक्त रैली को संबोधित नहीं कर पाएंगी. इसको देखते हुए बसपा प्रमुख ने आगरा और फतेहपुर की जनता से इसका बदला भाजपा को हरा कर लेने की अपील की.

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टीम इंडिया में सेलेक्शन के 3 घंटे बाद ही रवींद्र जडेजा ने किया BJP को समर्थन का ऐलान

नई दिल्ली। वर्ल्ड कप टीम में चयन होने के कुछ घंटे बाद ही भारतीय क्रिकेट टीम के ऑलराउंडर रवींद्र जडेजा ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) के समर्थन का ऐलान किया है. लोकसभा चुनाव के बीच किए गए इस ट्वीट में जडेजा ने बीजेपी का सिंबल भी शेयर किया है. साथ ही उन्होंने अपने ट्वीट में नरेंद्र मोदी को टैग करने के साथ अपनी पत्नी का हैशटैग इस्तेमाल किया है.

रवींद्र जडेजा का पूरा परिवार हाल ही में सक्रिय राजनीति में आया है. उनकी पत्नी रिवाबा जडेजा ने बीते मार्च बीजेपी ज्वाइन की थी. रिवाबा के बाद अब रवींद्र जडेजा के पिता और बहन राजनीति में उतर गए हैं और उन्होंने बीजेपी के मुख्य विरोधी दल कांग्रेस का हाथ थाम लिया है.

रवींद्र जडेजा के पिता अनिरुद्ध सिंह और नैना जडेजा ने बीते 14 अप्रैल को ही कांग्रेस ज्वाइन की है. दोनों ने जामनगर जिले के कालावाड़ में कांग्रेस की एक रैली के दौरान यह फैसला किया. जबकि पत्नी रिवाबा पहले ही बीजेपी में जा चुकी हैं. खबर ये भी था कि रिवाबा जडेजा ने जामनगर से चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की है, लेकिन जब टिकट घोषणा हुई तो मौजूदा सांसद पूनम माडम ने बाजी मार ली. लेकिन जजेडा परिवार आपस में बंट गया. रवींद्र जडेजा की पत्नी बीजेपी के साथ चली गईं, जबकि पिता व बहन ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया है. इस तरह रवींद्र जडेजा का परिवार बीजेपी और कांग्रेस दोनों के समर्थन में उतर गया.

लेकिन इंग्लैंड में इसी साल होने जा रहे वर्ल्ड कप के लिए 15 अप्रैल को जब 15 खिलाड़ियों की टीम में रवींद्र जडेजा के नाम की घोषणा हुई तो उसके महज तीन घंटे के अंदर ही जडेजा ने साफ कर दिया कि परिवार के दो धड़ो में वो किसके साथ हैं. उन्होंने सोमवार शाम बाकायदा ट्वीट कर भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के साथ ही अपनी पत्नी के समर्थन का ऐलान कर दिया. कहा जा रहा है कि जडेजा परिवार में राजनीतिक मतभेद हो गया था, जिसके बाद रवींद्र जडेजा ने अपनी स्थिति स्पष्ट की है. हालांकि, जडेजा के इस कदम की सोशल मीडिया पर काफी आलोचना भी हो रही है.

बता दें कि गुजरात की सभी 26 लोकसभा सीटों पर तीसरे चरण के तहत 23 अप्रैल को मतदान होना है और उससे पहले रवींद्र जडेजा का यह ट्वीट नई बहस को जन्म दे सकता है.

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48 घंटे के बैन पर बसपा प्रमुख मायावती द्वारा जारी बयान

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चुनाव आयोग द्वारा चुनाव प्रचार के लिए 48 घंटे की रोक के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने आयोग पर हमला बोल दिया है। इस पाबन्दी के कारण मायावती 16 अप्रैल को आगरा में आयोजित गठबंधन की संयुक्त रैली में भाग नहीं ले पायेंगी। आयोग के इस फैसले के बाद 15 अप्रैल को अलीगढ़ व अमरोहा में चुनावी जनसभाओं को सम्बोधित करने के बाद वापस लखनऊ लौटी बसपा प्रमुख मायावती ने रात 9.00 बजे प्रदेश के बसपा कार्यालय पर एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर अपना पक्ष रखा। इस दौरान उन्होंने आयोग की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए। साथ ही उन्होंने आगरा की जनता से बसपा उम्मीदवार मनोज सोनी को जीताकर इसका बदला लेने की भी अपील की।

हम यहां बहुजन समाज पार्टी द्वारा जारी प्रमुख मायावती के प्रेस कांफ्रेंस को हू-ब-हू दे रहे हैं। मायावती ने अपने प्रेस कांफ्रेस मे कहा कि –

इस आदेश में चुनाव आयोग ने कहा है कि हमने अपने भाषण दिनांक 7 अप्रैल 2019, जो कि देवबन्द, सहारनपुर में दिया गया था, उसमें मैंने चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया है और इसलिये चुनाव आयोग हमारे इस कार्य की कड़ी निन्दा करता है तथा प्रतिबन्धित करता है और चुनाव आयोग संविधान के आर्टिकल 324 के अन्तर्गत दिये गये अधिकार का उपयोग करते हुये यह निर्देश देता है कि 16 अप्रैल 2019 की प्रातः 6 बजे से लेकर, अगले 48 घन्टे तक कोई भी पब्लिक मीटिंग, पब्लिक रैली, रोड शो, इन्टरव्यू तथा मीडिया आदि से पब्लिक में बात करने, चाहे वह चैनल, प्रिन्ट या सोशल मीडिया हो रोका जाता है।

उक्त आदेश में यह कहा गया है कि मुझे देवबन्द, सहारनपुर में दिये गये भाषण के सम्बन्ध में 11 अप्रैल 2019 को एक शोकाज नोटिस दिया गया था जिसका कि जवाब मैने 24 घन्टे के भीतर 12 अप्रैल 2019 को दे दिया था। आदेश में यह कहा गया है कि हमारे जवाब को देखा और पढ़ा तथा भाषण का वीडियो भी देखा, जिसको देखने के बाद कमीशन संतुष्ट है कि मैने बहुत ही अति भड़काऊ भाषण दिया है, जिसका भाव एवं मंशा ऐसी थी जिससे कि जो पहले से मौजूद आपसी नफरत अलग अलग धार्मिक समुदायों के बीच में मौजूद है, उसे और भड़काने के उद्देश्य से दिया गया है। जोकि चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है। इसी आदेश में कमीशन द्वारा यह भी कहा गया है कि मुझे इस तरह के भाषण जिसमेे कि ऐसी क्षमता हो कि चुनाव में वोट एकतरफा हो जाये, नहीं देना चाहिये था।

इस सम्बन्ध में, मैं मीडिया बन्धुओं को यह भी बताना चाहूँगी कि आयोग द्वारा 11 अप्रैल 2019 की कारण बताओ नोटिस में कहीं भी यह आरोप नहीं लगाया गया था कि हमने कोई भड़काऊ भाषण दिया था, जिसकी वजह से विभिन्न समुदायों के बीच में पहले से चल रही नफरत और बढ़ जायेगी। कारण बताओ नोटिस में सिर्फ और सिर्फ एक ही आरोप लगाया गया था कि हम किसी एक समाज के नाम से वोट मांग रहे हैं। कारण बताओ नोटिस के जवाब में मैने स्पष्ट कर दिया था कि हमने अपने भाषण में कहंी भी जाति व धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगा है। बल्कि मैने स्पष्ट रूप से सभी वर्गों एवं धर्मों के लागों से गठबन्धन के प्रत्याशियों को वोट देनें की अपील की थी और मुस्लिम समाज से खासतौर से अपील की थी कि आप अपना वोट किसी नातेदार, रिश्तेदार के चक्कर में पड़कर बंटने न दें, जिसका कि यह स्पष्ट मंशा थी एवं एक ही निष्कर्ष निकलता है कि मुसलमानों को धार्मिक आधार पर या रिश्तेदारों और नातेदारों के चक्कर में पड़कर अपना वोट नहीं बांटना चाहिये और अपना वोट एकतरफा गठबन्धन के प्रत्याशी को देकर बीजेपी को हराना चाहिये।

कारण बताओ नोटिस के जवाब में मैंने ऊपर लिखी बात को पुनः स्पष्ट किया था कि पूरे भाषण में मैंने कहीं भी किसी प्रकार से धार्मिक भावनाओं को भड़काया नहीं है और न हीं किसी धर्म के प्रति कोई बयान दिया है। अपने जवाब में, मैंने यह भी लिखा कि भाषण की कोई सी डी मुझे उपलब्ध नहीं करायी गयी है तथा यह अनुरोध किया था कि पूरे भाषण को सुना जाये, जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि मैने किसी एक समाज व धर्म के लोगों से वोट नहीं मांगा है बल्कि सर्वसमाज से वोट देने की अपील की है। इन सभी बातों को पूर्णरूप से नजर अंदाज करके आज चुनाव आयोग ने दोपहर बाद अचानक एक आदेश दे करके दिनांक 16 अप्रैल 2019 यानी की कल सुबह 6 बजे से हमारे ऊपर 48 घन्टे का हर प्रकार का प्रतिबन्ध लगा दिया है, जिसके अन्तर्गत डा0 बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाये गये संविधान में जो इस देश के हर नागरिक को एक मूलभूत अधिकार अनुच्छेद 19 मे दिया गया है, उससे हमें वंचित किया जा रहा है, और वह भी बगैर किसी व्यक्तिगत सुनवाई के तथा बगैर कोई साक्ष्य सीडी वगैरह दिये हुये। संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा स्पष्ट रूप से हर नागरिक को मलभूत अधिकार दिया गया है कि उसको कहीं भी आने जाने से तथा अपनी बात रखने से वंचित नहीं किया जा सकता है।

परन्तु यहाँ भारत निर्वाचन आयोग द्वारा एक ऐसा अभूतपूर्व आदेश पारित किया गया है, जिसके तहत संविधान में दिये गये इन मूलभूत अधिकारों से मुझे पूर्ण रूप से गलत आधारों पर बगैर किसी सुनवाई के असंवैधानिक तरीके से तथा क्रूरतापूर्वक वंचित कर दिया गया है। यह आदेश भारत निर्वाचन आयोग के इतिहास में हमेशा के लिये एक काला दिवस के रूप में ही जाना जायेगा। जल्दबाजी में लिये हुये इस निर्णय को जो कि स्पष्ट तौर पर किसी दबाव में आकर लिया गया ही प्रतीत होता है इसको इस देश का गरीब, मजूलम, असहाय शोषित एवं वंचित समाज कभी भी भुला नहीं पायेगा इस आदेश के पीछे छुपी हुयी मंशा स्पष्ट है कि हम बहुजन समाज पार्टी की मुखिया के रूप में ऐसे समाज के लोगों से भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से उखाड़ फेंकने की अपील न कर सकें।

यह सब बातें इससे और भी स्पष्ट हो जाती हैं कि भारत निर्वाचन आयोग को यह भली भाँति ज्ञात है कि उत्तर प्रदेश में जो दूसरे चरण की पोलिंग है वह 18 अप्रैल को है और उसके प्रचार का अंतिम समय 16 अप्रैल को 5 बजे खत्म होता है और हमारी आगरा की जनसभा जिसकी कि पूर्व में हीं लिखित अनुमति ली जा चुकी है, कल दिनांक 16 अप्रैल को आगरा में निर्धारित थी। इस आदेश का नतीजा यह है कि आगरा, फतेहपुर सीकरी एवं मथुरा के लोगों से जो कल हम अपनी आगरा में होने वाली रैली में बहुजन समाज पार्टी एवं गठबन्धन के प्रत्याशियों से सम्बन्धित वोट देनें की अपील करने वाले थे उसे न कर सकें। मैं इसलिये इस बात को जोर देकर कह रही हूँ क्योंकि अगर भारत निर्वाचन आयोग की कोई ऐसी मंशा नहीं थी तो कल जो कि दूसरे चरण के प्रचार का अन्तिम दिवस है तो उस दिन से इस आदेश को लागू न किया गया होता, बल्कि इसको एक दिन बाद से लागू किया गया होता।

जहाँ तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी के सम्बन्ध में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा दिया गया आदेष की बात है, उससे भारतीय जनता पार्टी को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह पार्टी के अध्यक्ष नहीं हैं, जैसे कि मैं हूँ। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री अमित शाह एवं श्री नरेन्द्र मोदी को भारत निर्वाचन आयोग ने खुली छूट दे रखी है कि वह विभिन्न समुदायों में नफरत फैलाते रहे और इस देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करते रहें। पर अफसोस कि भारत निर्वाचन आयोग नें श्री नरेन्द्र मोदी एवं श्री अमित शाह और बीजेपी के अन्य नेताओं द्वारा दिये गये भाषण को सुनकर उनके खिलाफ कार्यवाही करने की जगह इस मामले में अपने कान व आंख दोनों को बन्द कर लिया है।

भारत वर्ष एक लोकतांत्रिक देश है जहाँ पर चुनाव में दिये गये भाषणों एवं सुनी हुयी बातों से यह आम जनता तय करती है और मन बनाती है कि किसको वोट देकर चुनना है, किसको बाहर का रास्ता दिखाना है, ऐसी स्थिति में इस तरह के आदेश को अचानक पारित किये जाने के कार्य को लोकतंत्र की हत्या नहीं कहा जायेगा तो और क्या कहा जायेगा।

परन्तु मुझे अपने समर्थकों एवं अनुयायियों पर पूर्णरूप से विश्वास एवं भरोसा भी है कि वह भारत निर्वाचन आयोग के इस आदेष के पीछे छुपे हुये उद्देश्य को जरूर समझेंगे और अब आने वाले हर चुनाव की तारीखों में पहले से भी ज्यादा जागरूकता के साथ एकतरफा बगैर डरे हुये या बगैर परेशान हुये अपना वोट निडर होकर बहुजन समाज पार्टी तथा गठबन्धन के सभी प्रत्याशियों को देकर भारतीय जनता पार्टी तथा अन्य विरोधी पार्टियों के प्रत्याशियों की जमानत जब्त कराने का कार्य करेंगे और हमारी आवाज की जगह अब यह सब लोग मेरी आवाज स्वयं बनकर अपनी बात समाज के बीच में रखते हुये बहुजन समाज पार्टी और गठबन्धन के प्रत्याशी को जिताने की अपील करेेगे तथा यही सही मायनों भारत निर्वाचन आयोग के इस असंवैधानिक और गैर कानूनी आदेश का जवाब होगा। मैं कल आगरा में होने वाली रैली के सम्बन्ध में भी अपने सभी समर्थकों से यह अनुरोध करूंगी कि वह निश्चित समय से पहले ही रैली स्थल पर जरूर पहुँच जायें, जहां पर निर्वाचन आयोग के असंवैधानिक आदेश के कारण मैं तो उपस्थित नहीं रहूगी, लेकिन हमारी पार्टी की तरफ से पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों द्वारा हमारे संदेश के रूप में भी आपके समक्ष जरूर रखी जायेंगी। और इसलिये सभी लोग कल की रैली में और भी ज्यादा संख्या में पहुँचकर अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज करायें, जहाँ पर कि गठबन्धन के वरिष्ठ नेतागणों के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव तथा राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष चैधरी अजीत सिंह भी जरुर मौजूद रहेंगे और महागठबन्धन से सम्बन्धित अपनी महत्वपूर्ण बातें रखेंगे।

मीडिया बन्धुओं पूरा देश यह जानता है कि केन्द्र में बीजेपी व श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार अपने पूरे 5 वर्षों के कार्यकाल में हर मोर्चे पर बुरी तरह से विफल रही है जिसकी वजह से अब वर्तमान में देश में लोकसभा के लिए हो रहे आमचुनाव में इनको जनता को जवाब देना बहुत मुश्किल हो रहा है जिनसे जनता का ध्यान बांटने के लिए अब इस चुनाव में बीजेपी के सभी छोटे-बड़े नेता इनके राष्ट्रीय अध्यक्ष व खुद प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भी खासकर पुलवामा में हुये आतंकी हमले मे जो हमारे जवान शहीद हुये हैं, एक तरफ इनको भुनाने में लगे हैं तो वहीं दूसरी तरफ लोगांे की धार्मिक भावनाओं को भड़काने का भी पूरा-पूरा प्रयास कर रहे हैं।

जबकि पूरा देश यह जानता है कि बीजेपी हर चुनाव में जनता की धार्मिक भावनाओं को भड़का के अपने पक्ष में हवा बनाने का पूरा-पूरा प्रयास करती है। जिसके तहत् ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यहाँ उत्तर प्रदेश में अपनी चुनावी जनसभाओं में खासकर अली व बजरंग-बली की बात करके लोगांे को धर्म के आधार पर बांटने का पूरा-पूरा प्रयास किया है जिससे जनता थोड़ी गुमराह भी होने लगी थी। ऐसी स्थिति में खासकर कमजोर वर्गों के लोगांे को गुमराह होने से रोकने के लिए तथा चुनाव आचार संहिता का भी पूरा पालन करते हुये, फिर मुझे मजबूरी में अपनी एक चुनावी जनसभा में यह बताना पड़ा है जिसको आज मैं मीडिया के माध्यम से फिर से यहाँ दोहराना चाहती हूँ।

मैंने अपनी चुनावी जनसभा में यह कहा कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जो दो धर्मो के बीच में अर्थात् अली व बजरंग-बली की आड़ में नफरत पैदा करके, इस चुनाव को जीतना चाहते हैं, तो इनके बहकावे में जनता को कतई भी नहीं आना है। जबकि इन दोनों के बारे में हमारा यह मानना है कि हमारे अली भी है और बजरंग बली भी है अर्थात् हमारे ये दोनों अपने ही हैं और इन दोनों में से हमारे लिए कोई भी गैर नहीं है इसलिए हमे अली भी चाहिये और बजरंग बली भी चाहिये, और खासकर हमें बजरंग बली इसलिए भी चाहिये क्योंकि यह मेरी अपनी खुद की दलित जाति से ही जुड़े है और इनकी जाति की खोज मैंने नहीं की है बल्किी खुद उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री योगी ने ही की है। और इन्होंने ही खुद जनता को यह बताया है कि बजरंग बली बनवासी व दलित जाति के ही हैं और इसके लिए वैसे मैं इनकी बहुत-बहुत आभारी भी हूँ कि इन्होंने हमारे वंशज के बारे में हमें यह खास जानकारी भी दी है।

ऐसी स्थिति में हमारे लिए खुशी (अच्छी) की बात यह है कि अब हमारे साथ अली भी हैं। और बजरंग बली भी हैं और इनके साथ-साथ यहाँ दुःखी व पीड़ित, अन्य पिछड़े वर्ग एवं अपरकास्ट समाज के लोग भी हैं जिनके गठजोड़ से अर्थात सर्वसमाज के गठजोड़ से हमें इस चुनाव में काफी अच्छा रिजल्ट भी मिलने वाला है और अब मेरा पुनः यही कहना है कि वर्तमान में देश में लोकसभा के लिए हो रहे आमचुनाव में यहाँ उत्तर प्रदेश में भी योगी को ना अली का और ना ही मेरी जाति से जुडे बजरंग बली का तथा ना ही यहाँ दुःखी व पीड़ित अन्य पिछड़े वर्ग एवं अपरकास्ट समाज का ही वोट मिलेगा और वैसे भी उत्तर प्रदेश में यहाँ बजरंग बली की जाति से जुड़े हमारे दलित वर्ग के लोग इनको बहुत पहले ही छोड़ चुके हैं और अच्छी बात यह है कि अब हमें इनके साथ-साथ यहाँ, इस चुनाव में अन्य सभी वर्गों व सभी धर्मों का भी वोट मिल रहा है जिनसे हमारी पार्टी धर्म व जाति के नाम पर, कभी भी वोट नहीं मांगती है बल्कि उनके विकास व उत्थान के नाम पर ही केवल उनसे वोट मांगती है।

अर्थात् हमारी पार्टी बीजेपी की तरह, कभी भी धर्म व जाति के नाम पर घिनौनी राजनीति नहीं करती है जैसाकि हर चुनाव में बीजेपी के लोग करते हैं और अभी भी कर रहे हैं जिसकी खास वजय से ही आज मुझे फिर से मजबूरी में यहाँ अली व बजरंग बली के प्रकरण को लेकर मीडिया में यह सब कुछ कहना पड़ा है। ताकि उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश के मतदाता इनके इस हथकण्डे के बहकावे में बिल्कुल भी ना आये। लेकिन मेरी कही गई इस बात से मुझे यह नहीं लगता है कि मैंने चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया है।

इसके साथ ही देवबन्द की रैली में भी मैंने दो अलग-अलग धर्मों के लोगों से वोट बांटने की अपील नहीं थी बल्कि एक ही धर्म के अर्थात् मुस्लिम समाज के ही दो उम्मीद्वारों में से एक उम्मीद्वार के लिए ही वोट देने की सलाह दी गई थी ताकि इनका वोट ना बंट सके और फिर बीजेपी के उम्मीद्वार को आसानी से हराया जा सके। इसलिए यह दो धर्मो के बीच में नफरत फैलाने की बात में कतई भी नहीं आता है और ना ही यह चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन करने के दायरे में ही आता है।

इसी प्रकार यदि एक जाति के दो अलग-अलग पार्टियों से उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं। और उन्हें खासकर बीजेपी के उम्मीदवार को हराने के लिए यह कहा जाता है कि आप लोग अपना वोट नहीं बांटेंगे बल्कि उस उम्मीदवार को एकतरफा अपना वोट देंगे जो बीजेपी के उम्मीदवार को चुनाव हराने में सक्षम है इसलिए यह भी जाति के आधार पर वोट मांगने के अन्तर्गत नहीं आता है और ना ही इससे चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन होता है अर्थात् इस मामले में चुनाव आचार संहिता उल्लंघन तब माना जायेगा, जब दो उम्मीदवार अलग- अलग जाति के हैं जबकि सही मायने पूरे देश में चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन बीजेपी के सभी छोटे-बड़े नेता इनका राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा खुद प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ही कर रहे हैं और खासकर श्री मोदी को तो मुख्य चुनाव आयोग ने एक बार नहीं बल्कि कई बार यह कहा है कि इनको अपनी चुनावी जनसभा में सेना का किसी भी रूप में इस्तेमाल नहीं करना और ना ही अन्य किसी और पार्टी को भी करना है। लेकिन फिर भी लगातार श्री नरेन्द्र मोदी अपने राजनैतिक लाभ के लिए, किसी ना किसी रूप में, अपनी चुनावी जनसभाओं में सेना का अभी तक भी लगातार इस्तेमाल कर रहे हैं जिस पर मुख्य चुनाव आयोग की नजर नहीं जाती है जबकि इस मामले में इनकी भी चुनावी जनसभाओं में आचार संहिता का उल्लंघन करने पर इनको रोक लगानी चाहिये थी और शायद इसी को ही लेकर यह मामला माननीय सुप्रीम कोर्ट में भी गया है।

लेकिन कल सुप्रीम कोर्ट में जवाब देने के लिए व अपने बचाव में कल से 48 घन्टे के लिए मेरी चुनावी जनसभाओं को करने पर तो मुख्य चुनाव आयोग ने तो रोक लगा दी है और दिखाने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पर भी कुछ घन्टों की रोक लगा दी है। लेकिन इस मामले में जो असली अपराधी है उसके विरुद्ध अर्थात् प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध अभी तक भी मुख्य चुनाव आयोग की इनको नोटिस जारी करने की हिम्मत नहीं हो पा रही है। इससे मुख्य चुनाव आयोग की दलित विरोधी मानसिकता साफ नजर आती है अर्थात् श्री नरेन्द्र मोदी व योगी एण्ड कम्पनी के लोग कुछ भी बोल दे तो वह जल्दी से चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं होता है। लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट में इनकी अपनी कमियों को छिपाने के लिए जबरन आज मुझे बलि का बकरा बनाया गया है।

ऐसी स्थिति में, जो मुझे कल आगरा की संयुक्त चुनावी जनसभा को सम्बोधित करने के लिए जाना था वहाँ मैं कल मुख्य चुनाव आयोग की दलित विरोधी मानसिकता होने की वजय से नहीं जा पा रही हूँ लेकिन कल यह संयुक्त रैली आगरा में जरूर होगी, जिसमें गठबन्धन के हमारे प्रमुख सहयोगी अर्थात् सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव व आर.एल.डी. के राष्ट्रीय अध्यक्ष चैधरी अजीत सिंह जी तथा बी.एस.पी. की ओर से पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव व राज्यसभा सांसद यहाँ अपने गठबन्धन के उम्मीदवारों को जिताने के लिए मतदाताओं से अपील करेंगे और साथ ही, इस मौके पर श्री आकाश आनन्द भी, मेरे ना जाने की स्थिती में पार्टी के लोगों से केवल हाथ जोड़कर, अपने उम्मीदवारों को जिताने की ही अपील करेंगे और ये सभी हमारे गठबन्धन के नेता भी मेरी ओर से वोट देने की भी यहाँ कि जनता से पुरजोर अपील करेंगे। लेकिन फिर भी आज मैं मीडिया के माध्यम से आगरा लोकसभा की रिजर्व सीट के व फतेहपुर लोकसभा की सामान्य सीट के भी लोगों से यह अपील करती हूँ कि वे चुनाव आयोग के आज लिये गये फैसले से, मेरे कल आगरा में ना पहुँचने की स्थिति में बिल्कुल भी निराश व उदास नहीं होंगे और इसकी ब्याज सहित पूरी भरपाई मैं आगे चलकर जरुर कर दूँगी। यदि हमें केन्द्र में अपनी सरकार बनाने का मौका मिल जाता है। और इसके लिए आज मैं एडवान्स में ही आगरा व फतेहपुर लोकसभा की सीट के लोगों से यह कहना चाहती हूँ कि केन्द्र में हमारी सरकार बनने पर, फिर मैं सबसे पहले, आगरा व फतेहपुर लोकसभा की सीट के लोगों को यहाँ आगरा पहुँचकर खुद इस बात के लिए आभार प्रकट करने के लिए आऊँगी कि इन्होंने चुनाव आयोग के जातिवादी रवैये का मुकाबला करके फिर भी यहाँ अपनी इन दोनों सीटों को जिताया है। अर्थात् सरकार बनने की स्थिति में फिर सबसे पहले मुझसे मिलने का सौभाग्य यहाँ आगरा व फतेहपुर लोकसभा की सीट के लोगों को ही मिलेगा और अब मेरा यही कहना है कि इन दोनों सीटों के क्षेत्र के लोगों को बी.एस.पी. के उम्मीदवार को हाथी चुनाव चिन्ह के सामने वाले बटने को दबावे इनको जरूर कामयाब बनाना है।

अंबानी के फेर में भाजपा तो डूबेगी ही, फ्रांस के राष्ट्रपति भी नपेंगे!

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राफेल विवाद ने खिसकाई मोदी सरकार के पांव तले से जमीन… सुप्रीम कोर्ट के राफेल डील में दायर पुनर्विचार याचिका की सुनवाई के लिए तैयार हो जाने से ही मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी के पांव तले से जमीन खिसक गई है. रही सही कसर फ्रांसीसी अखबार “ला मांद” ने एक खबर प्रकाशित करके पूरी कर दी है, जिसमें राफेल डील के बाद फ्रांस के अधिकारियों ने भारत के सबसे अमीर रईस मुकेश अंबानी के छोटे भाई अनिल अंबानी को फायदा पहुंचाने का रहस्य उजागर किया है. “ला मांद” का दावा है कि अंबानी के पक्ष में 143.7मिलियन यूरो यानी करीब 1100 करोड़ रुपए की कुल टैक्स वसूली रद्द कर दी. यह विवाद फरवरी और अक्टूबर 2015 के बीच सुलझाया गया था, उस समय जब भारत और फ्रांस 36 लड़ाकू विमानों की बिक्री पर बातचीत कर रहे थे.

गौरतलब है कि यूपीए 2 के सत्ता से बहर होने का एक बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही था. तब 2G,सीडब्ल्यूजी, कोयला,वाड्रा भूमि अधिग्रहण घोटाला आदि बड़े घोटाले थे. उन सब की जांच हुई. जेपीसी बैठी. मुक़दमा भी चला. बोफोर्स और ऑगस्टा वेस्टलैंड मामले की जांच हुई. यह अलग बात है कि बोफ़ोर्स मामले में कुछ नहीं निकला. ऑगस्टा मामले में सरकार को एक बड़ी सफलता मिली है कि क्रिश्चयन मिशेल सरकार को मिल गया है. उससे पूछताछ चल रही है.लेकिन इटली की अदालत से इसमें क्लीन चिट मिल गयी है. जब इन सब मामलों की जांच हो सकती है तो मोदी सरकार राफेल को ही क्यों इतना पवित्र मानर ही है कि उसकी जांच नहीं हो सकती है ? जांच से भागना, और सन्देह को और प्रबल बनाता है. लेकिन एक के बाद एक खुलासे से मोदी सरकार राफेल विवाद में बुरी तरह घिरती जा रही है,जो चुनाव में उसपर बहुत भारी पड रहा है.

राफेल विवाद में शनिवार को एक नया मोड़ आ गया है .फ्रांस के अख़बार ‘ला मांद’ ने लिखा है कि फ्रांस में मौजूद अनिल अंबानी की कंपनी को 2015 में 143.7मिलियन यूरो (अभी की कीमत के हिसाब से 1100 करोड़ से ज्यादा) का फायदा पहुंचाया गया. ये फायदा उन्हें टैक्स रद्द करके पहुंचाया गया.अनिल को ये टैक्स में छूट प्रधानमंत्री मोदी द्वारा राफेल सौदे के तहत 36लड़ाकू विमानों को हरी झंडी दे देने के छह महीने बाद दिया गया.गौरतलब है कि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस अप्रैल 2015 में पीएम मोदी द्वारा घोषित फ्रांस के साथ भारत के राफेल जेट सौदे में एक ऑफसेट साझेदार है.

“ला मांद” ने ये भी लिखा है कि अप्रैल 2015 के अंत में मोदी ने 36 राफेल विमानों की ख़रीद से जुड़े अपने इरादे को साफ किया. इसके कुछ दिनों बाद अनिल अंबानी ने अपनी रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड को पंजीकृत (रजिस्टर्ड) करवाया और डसॉल्ट के साथ अपना संयुक्त उपक्रम बनाया. ”ला मांद” ने यह भी सवाल उठाया है कि क्या अनुबंध पर दस्तख़त होने से पहले ही उन्हें पता था कि ऑफसेट उन्हीं के पास आएगा? ये एक साल बाद होगा? फरवरी से अक्टूबर 2015 के बीच अनिल अंबानी डसॉल्ट के नए पार्टनर ठीक तभी बनते हैं जब अपने असल दावे की जगह टैक्स प्राधिकारी151 मिलियन यूरो की जगह उनके 7.3 मिलियन यूरो के लेन-देन को स्वीकार कर लेते हैं.

रक्षा मंत्रालय ने अपने ताज़ा बयान में कहा है कि हमने ऐसी रिपोर्ट्स देखी हैं जिनमें अनुमान लगाया गया है कि भारत सरकार द्वारा राफेल फाइटर जेट की ख़रीद और एक निजी कंपनी को मिली टैक्स छूट के बीच संबंध है. ना तो टैक्स में मिली छूट का समय और ना ही रियायत का विषय किसी भी तरह से उस राफेल डील से जुड़ा है, जिसे वर्तमान सरकार के कार्यकाल में पूरा किया गया. टैक्स के मामले और राफेल डील के बीच कोई संबंध स्थापित करना बिल्कुल ग़लत, विवाद खड़ा करने का प्रयास और शैतानी से भरी झूठी जानकारी देने का प्रयास है. अब यह तो सर्वविदित है कि कोई भी अपनी गलती को स्वीकार नहीं करता और अपने को पाक साफ बताता है.

फ्रांस के अख़बार की रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए रिलायंस कम्युनिकेशन ने कहा कि टैक्स से जुड़ी मांग ग़लत और गैर कानूनी थी और ‘निबटारे के मामले में किसी पक्षपात या फायदे’ से इंकार किया. सवालों के घेरे में जो कंपनी थी उसका नाम रिलायंस फ्लैग एटलांटिक फ्रांस है. ये समुद्र के भीतर केबलिंग का काम करती है. फ्रांस के टैक्स प्राधिकारियों ने इसकी जांच की थी. . जांच के बाद उन्होंने पाया कि 2007 से 2010के बीच तक कंपनी पर 60 मिलियन यूरो का बकाया है.

यह था मामला

फ्रांसीसी टैक्स अधिकारियों द्वारा अनिल अंबानी की रिलायंस अटलांटिक फ्लैग फ्रांस कंपनी की कथित तौर पर जांच की गई थी. इसमें पाया गया कि साल 2007 से2010 की अवधि के लिए टैक्स के रूप में कंपनी को 60मिलियन यूरो का भुगतान करना था. जबकि कंपनी ने इसके उलट 7.6 मिलियन यूरो का भुगतान करने कीपेशकश की. फ्रांसीसी अधिकारियों ने पेशकश ठुकराकर फिर से एक और जांच शुरू कर दी. इस जांच में वर्ष2010 से 12 तक का भी टैक्स निकाला जिसमें अनिलअंबानी की कंपनी को अतिरिक्त 91 मिलियन यूरो का टैक्स देने के लिए कहा गया. कंपनी ने यह टैक्स भी जमा नहीं किया और कुल टैक्स की रकम 151 मिलियन यूरो हो गई. वर्ष 2015 में राफेल डील की घोषणा के छह महीने बाद फ्रांसीसी टैक्स अधिकारियों ने रिलायंस से टैक्स विवाद का निपटारे को अंतिम रूप दे दिया.इसके तहत कंपनी से 151 मिलियन यूरो की बहुत बड़ी राशि की बजाय 7.3 मिलियन यूरो ही लिए गए. यानी रिलायंस से सीधे 141 मिलियन यूरो या 1100 करोड़ रुपए छोड़ दिए गए.

फ्रांस में हो सकती है स्वतंत्र जांच

गौरतलब है कि फ्रांस में इसका खुलासा होने के बाद वहां की आर्थिक अपराध शाखा और प्रवर्तन शाखा मामले का स्वतंत्र जांच कर सकती है और इसमें ओलेंदे और वर्तमान राष्ट्रपति दोनों के फंसने की आशंका बहुत प्रबल है. 26 अक्तूबर 2018 को शेरपा नामक एक फ़्रांसिसी एनजीओ ने अधिकारिओं से राफेल में भ्रष्टाचार की शिकायत की थी और इस सौदे से जुड़े सभी व्यक्तियों की जांच की मांग की थी. इसी जांच में यह तथ्य सामने आया. अब वहां इस पर आगे कार्रवाई हो सकती है. यानी अनिल अंबानी के चक्कर में मोदी सरकार तो डूबने जा ही रही है, ये फ़्रांस की सरकार को डूब जाएगी.

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  साभार- भड़ास4मीडिया

सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ चुके बीजेपी नेता ने PM मोदी को लिखा पत्र-सही चुनाव हुए तो आप 400 नहीं, 40 सीटों पर सिमटेंगे

नई दिल्ली। 2014 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली से सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अजय अग्रवाल ने पीएम मोदी को चिट्ठी लिखकर उन्हें एहसान फरामोश बताया है. कहा है- अगर मैने गुजरात चुनाव के दौरान मणिशंकर अय्यर के जंगपुरा स्थित घर पर छह दिसंबर 2018 की शाम पाकिस्तानी अधिकारियों के साथ पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और पूर्व पीएम मनमोहन सिंह की हुई मीटिंग का खुलासा न किया होता तो बीजेपी यह चुनाव शर्तियां हार जाती. पीएम मोदी ने बाद में मणिशंकर अय्यर के घर हुई इस मीटिंग को देश की सुरक्षा से जोड़ते हुए चुनावी रैलियों में भुनाया था, उनके भाषणों में इसका जिक्र है. इसके चलते हुए ध्रुवीकरण के सहारे बीजेपी हारते हुए भी गुजरात चुनाव जीतने में सफल रही.”अग्रवाल के मुताबिक खुद संघ के शीर्ष नेता भी यह बात स्वीकार करते हैं.

अपने दावे के समर्थन में अजय अग्रवाल ने संघ के सह सर कार्यवाह दत्तात्रेय होशबोले के साथ फोन पर हुई कथित बातचीत का ऑडियो भी जारी किया है. जिसमें दत्तात्रेय कथित तौर पर यह कहते सुने जा सकते हैं कि उस खुलासे(पाक उच्चायुक्त के साथ मनमोहन की मीटिंग) ने बीजेपी को गुजरात जिता दिया. अजय अग्रवाल ने पीएम मोदी को लिख पत्र में दावा किया कि यदि निष्पक्ष चुनाव होंगे तो आप जो चार सौ सीटों का दावा कर रहे हैं, उसकी जग देशभर में सिर्फ 40 सीटों पर भी सिमट सकते है. यह सदमा झेलने के लिए आप तैयार रहें.एनडीटीवी से बातचीत में अजय अग्रवाल ने कहा कि उन्होंने बहुत दुखी मन से यह चिट्ठी पीएम मोदी को लिखी है.

पीएम मोदी को लिखे अपने खुले पत्र में अजय अग्रवाल ने उनसे अपने पुराने रिश्ते की दुहाई देते हुए कई आरोप लगाए हैं. कहा है कि 28 वर्षों के पुराने परिचय और बीजेपी के पुराने 11 अशोका रोड वाले दफ्तर पर आपके साथ कम से कम सौ बार भोजन करने के बाद मेरे साथ जो सलूक हुआ, वह बहुत बुरा है. नोटबंदी के दौरान हुए भ्रष्टाचार को लेकर कई बार आपको पत्र लिखकर जमीनी सच्चाई से रूबरू कराने की कोशिश की, मगर कार्रवाई की जगह उल्टे आपकी नाराजगी का शिकार हो गया. अजय अग्रवाल ने पीएम मोदी पर आरोप लगाया कि आप मेरे जैसे अन्य कार्यकर्ताओं को भी गुलाम की ही तरह इस्तेमाल करते हैं और कार्यकर्ता अपना घर द्वार छोड़कर 24 घंटे आप के जुमलों के झांसे में आकर काम करता रहता है और उसको वह सम्मान भी नहीं मिलता जिसका कि वह हकदार है. अजय अग्रवाल ने कहा है कि रायबरेली चुनाव इतिहास में बीजेपी की तरफ से सबसे ज्यादा एक लाख तिहत्तर हजार सात सौ इक्कीस वोट प्राप्त कर मैने गांधी परिवार के गढ़ में पार्टी की प्रतिष्ठा बढ़ाई. जबकि 2014 से पूर्व के चुनावों में बीजेपी प्रत्याशियों को बहुत कम वोट मिलते थे. नजीर के तौर पर देखें तो रायबरेली लोकसभा क्षेत्र में 2004 के चुनाव में बीजेपी प्रत्याशी गिरीश चन्द्र पाण्डेय को महज 31,290 वोट मिले, वहीं 2006 के उपचुनाव में बीजेपी प्रत्याशी विनय कटियार को महज 19,657 वोट नसीब हुए. जबकि 2009 में आर.बी. सिंह को भी सिर्फ 25,444 वोट मिले.फिर भी मेरा टिकट काटकर एक दागी छवि के प्रत्याशी को इस बार बीजेपी ने रायबरेली से टिकट दिया है. मेरा दावा है कि पार्टी प्रत्याशी को 50 हजार से ज्यादा वोट नहीं मिलेगा.

पढ़ें अजय अग्रवाल का पूरा पत्र

श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी, माननीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली।

मैं आपको यह खुला पत्र भाजपा के कार्यकर्ताओं और देशवासियों की आंखें खोलने के लिए लिख रहा हूं . आपसे मेरा व्यक्तिगत परिचय लगभग 28 वर्षों से है और 11 अशोका रोड (भाजपा पार्टी ऑफिस) पर मैंने और आपने कम से कम सौ बार साथ भोजन साथ किया होगा . नोट बंदी के समय मैंने आपको लगातार अनेक पत्र लिखे और उसमें बताया कि गरीब जनता को बेहद असुविधा हो रही है . बैंक वाले बड़े काले धन वाले लोगों के साथ मिलकर 30% रिश्वत लेकर थोक में पुराने नोट बदल रहे हैं और नोटबंदी कामयाब नहीं हो रही है .इससे खुलेआम भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है . जीएसटी की लागू करने के समय और उसकी खामियों को लेकर लगातार लिखता रहा, परंतु आपकी या आपके ऑफिस की ओर से आज तक किसी भी पत्र का कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ बल्कि मैं आपकी नाराजगी का शिकार अवश्य हो गया, क्योंकि आप देश के सबसे बुद्धिमान व्यक्ति है और आपको को किसी के सुझाव या कोई भी सलाह मशवरा की आवश्यकता नहीं है तभी तो आपने नोटबंदी का तुगलकी फरमान सरकार की बिना तैयारी के जारी कर दिया था और गरीब जनता को लाइन में लगवाकर मरने को मजबूर कर दिया.

आपको आशा थी कि कम से कम पांच लाख करोड़ रुपया वापस नहीं आएगा और यही सरकार की आय हो जायेगी परन्तु 99% पैसा वापस आ गया और उसमें बहुत बड़ी मात्रा नकली नोटों की थी जो कि बैंक वालों ने कुछ लोगों से मिलीभगत करके जमा करवा दिए थे जिसकी कोई जांच पड़ताल या शिनाख्त आज तक नहीं हो पाई . इस प्रकार बिना तयारी के आपके तुगलकी फरमान से देश को कई लाख करोड़ का चूना लगा और कुछ बेईमान भ्रष्ट और चोर लोगों ने बैंक के अधिकारियों को भ्रष्ट कर कई लाख करोड़ का नुकसान देश को लगा दिया. मै पार्टी के सच्चे सिपाही की तरह मुझे जब-जब लगा कि सुधार की आवश्यकता है, तो मैं सीधे आपको आपकी ईमेल पर लिखता रहा क्योंकि मेरा चापलूसी में विश्वास नहीं है और अपने नेता को, भले ही प्रधानमन्त्री ही क्यों न हो, को हकीकत बयान करने में कोई संकोच नहीं करता .

मैं आज जो भी हूं केवल अपने और अपने शुभचिंतकों के बलबूते पर हूं . जब भी कभी केन्द्रीय मंत्रियों से अथवा उत्तर प्रदेश के मंत्रियों से मिला हूं, केवल रायबरेली के विकास कार्यों के लिए मिला, कि वहां पर विकास कार्यों की अनदेखी हो रही है उसको गति दी जाए. परंतु मेरी एड़ियां केन्द्रीय मंत्रियों के पास घूमते घूमते घिस गयी तब जाकर थोडा बहुत काम मैं करा पाया. 2017 के दिसंबर माह में संपन्न हुए गुजरात विधानसभा चुनाव का जिक्र करना परम आवश्यक है क्योंकि उसी चुनाव के कारण माननीय लालकृष्ण आडवाणी जी की राजनीतिक बलि ले ली गई थी. पूरे देश की जनता यह चाहती थी कि माननीय लालकृष्ण आडवाणी जी को देश का राष्ट्रपति बनाया जाये.

भाजपा के अति वरिष्ठ पदाधिकारी ने मुझे बताया था कि आपको विभिन्न स्रोतों से यह फीडबैक मिला था कि आप गुजरात विधान सभा चुनाव हार जायेंगे और कांग्रेस की सरकार वहां पर बनेगी और इसी कारण चुनाव के कुछ महीनो पहले ही आपने अपने गुरु आडवाणी जी की के स्थान पर रामनाथ कोविंद जी को राष्ट्रपति बना दिया क्योंकि वह कोरी समाज से आते हैं और गुजरात में उन्हीं की जाति से मिलता जुलता कोली समाज का बहुत बड़ी संख्या में वोट है जो कि परम्परागत रूप से कांग्रेस का वोटर था और आपको लगा कि अगर रामनाथ कोविंद जी को राष्ट्रपति बना दिया जाए तो उस समाज का सारा का सारा वोट आपको मिल जाएगा. परंतु इसके बावजूद भी आप गुजरात विधानसभा चुनाव हार रहे थे, और इसकी झलक चुनाव प्रचार के दौरान आपके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी.

चुनाव के ऐन मौके 9 दिसम्बर को जब पहले चरण की वोटिंग चल रही थी मैंने ऐसा खुलासा किया कि आप दूसरे चरण 14 दिसम्बर को अनेको विधान सभा क्षेत्रों में जहां आपकी पहले हार निश्चित थी, चुनाव जीत गए और आपकी सरकार गुजरात में बन गई. आपको भली भांति पता है कि यह क्या खुलासा था. मगर देशवासिओं को पुन: बताने के लिए वीडीओ रिकॉर्डिंग और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठतम पदाधिकारियों में से एक संघ के सह-सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसाबले जी की मेरे साथ बातचीत की ऑडियो रिकॉर्डिंग भेज रहा हूँ जिसमे उन्होंने कहा है कि मेरे खुलासे के कारण ही गुजरात में पार्टी की “लटकी हुई हार जीत में बदल गई” और उन्होंने फिर कहा कि यही खुलासा हिट किया और हम“हारते हारते जीत गए”.

इस प्रकरण के बाद आपका मेरा दो बार आमना सामना हुआ. मैंने यह देखा कि आप मुझसे नजर चुरा रहे थे और यही व्यवहार मैंने राष्ट्रीय अध्यक्ष का भी देखा और तब मुझे विश्वास हो गया कि किसी को श्रेय न देना आपकी फितरत में है और इसी को खुदगर्जी या अहसानफरामोशी भी कहते हैं . मुझे फिर ऐसा भी महसूस हुआ कि इतने वर्षों के प्रगाढ़ परिचय के बाद भी आपका यह व्यवहार इसलिए तो नही कि आपको लग रहा हो कि मुझे कोई राजनीतिक लाभ न देना पड़े और चूकि आज पार्टी में कोई भी पद या दायित्व व्यक्ति की योग्यता नहीं वरन जात पात देखकर दिया जाता है और मैं व्यापारी समाज से आता हूं और आपकी सोच के अनुसार हम व्यापारी समाज आपका कोर वोटर ही नहीं , आपके गुलाम हैं और हमारा कोई राजनितिक महत्व ही नही है . आप मेरे जैसे अन्य कार्यकर्ताओं को भी गुलाम की ही तरह इस्तेमाल करते हैं और कार्यकर्ता अपना घर द्वार छोड़कर 24 घंटे आप के जुमलों के झांसे में आकर काम करता रहता है और उसको वह सम्मान भी नहीं मिलता जिसका कि वह हकदार है. अरे सोचिए कि अगर कांग्रेस सरकार आपके गृह राज्य में ही आरूढ़ हो गई होती जबकि आप देश के प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हैं तो आप देश को क्या मुंह दिखाते . इसके अलावा आपके या भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के ऊपर जो अपराधिक मुकदमे बंद भी हो गए थे उनकी फाइल भी कांग्रेस सरकार पुनः खोल देती और पुनः एक अभियुक्त की श्रेणी में खड़ा होना पड़ता और अपने को बचाने के लिए न्यायालयों का चक्कर लगा रहे होते.

इस पत्र को लिखने का मन्तव्य यह था कि अभी कुछ दिन पूर्व रायबरेली के भाजपा के टिकट की घोषणा हुई है जिसमें आपने एक अपराधिक छवि रखने वाले व्यक्ति को पार्टी का टिकट दे दिया, जबकि पिछले तीन चुनावों में मैंने भाजपा के रायबरेली चुनाव में इतिहास में सबसे ज्यादा 1,73,721 (एक लाख तिहत्तर हजार सात सौ इक्कीस) वोट प्राप्त कर भाजपा की गांधी परिवार के गढ़ में प्रतिष्ठा बढ़ाई. गुजरात में आपकी सरकार बनने के बाद मेरी भाजपा के तीन वरिष्ठ पदाधिकारियों जो मेरे मित्र भी हैं, से अलग अलग मुलाकात हुई और इन तीनों ने ही मुझे जमकर कोसा और कहा कि आपने गुजरात में इनकी सरकार बनवाने की गलती क्यों की, पूरी की पूरी पार्टी (भाजपा) इंतजार कर रही थी कि यह लोग (मोदी+शाह) गुजरात चुनाव हारें, जिससे कि इनका अहंकार टूट जाये. इन्होने आगे मुझसे यह भी कहा था कि आपने इनके लिए इतना बड़ा काम कर दिया परन्तु यह आपको भी नहीं पूछेंगे.रायबरेली में मेरी सर्व स्वीकार्यता और अधिकतर जनता द्वारा चाहने के बावजूद मेरा टिकट काटकर मेरा जो अपमान हुआ है उसी के चलते तथ्यों को आपके तथा देशवासिओं के समक्ष रखना मेरा कर्त्तव्य था और आप जो 400 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि यदि निष्पक्ष चुनाव होंगे तो आप देशभर में 40 सीटों पर भी सिमट सकते है और इसके लिए अपने को तैयार रखें ताकि कोई मानसिक आघात न हो.

-अजय अग्रवाल एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट रायबरेली लोकसभा भाजपा प्रत्याशी – 2014

साभार-  NDTVइडिंया

संकट-मुक्त होता आंबेडकरवाद

मंडल उत्तरकाल में जो ‘वाद’ सारे वादों को म्लान करते हुए नित्य नई बुलंदी छूते जा रहा है, वह और कोई नहीं आंबेडकरवाद है. इस बात को समझने के लिए पहले आंबेडकरवाद की परिभाषण समझ लेनी होगी. वैसे तो आंबेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभीन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति,नस्ल,लिंग,इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत  ही आंबेडकरवाद है.इस वाद का औंजार है: आरक्षण. भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों के द्वारा दया-खैरात के रूप में प्रचारित आरक्षण और कुछ नहीं, शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत गए लोगों को कानून के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का अचूक माध्यम मात्र है. बहरहाल दलित,आदिवासी और पिछड़ों से युक्त भारत का बहुजन समाज प्राचीन विश्व के उन गिने-चुने समाजों में से एक है,जिन्हें जन्मगत कारणों से शक्ति के समस्त स्रोतों से हजारों वर्षों तक बहिष्कृत रखा गया. ऐसा उन्हें सुपरिकल्पित रूप से धर्म के आवरण में लिपटी उस वर्ण- व्यवस्था के प्रावधानों के तहत किया गया जो विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था रही. इसमें अध्ययन-अध्यापन ,पौरोहित्य,भूस्वामित्व,राज्य संचालन,सैन्य वृत्ति,उद्योग-व्यापारादि सहित गगन स्पर्शी सामाजिक मर्यादा सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के मध्य वितरित की गयी. स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे कई समाज विज्ञानी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहते हैं .

हिन्दू आरक्षण ने चिरस्थाई तौर पर भारत को दो वर्गों में बांट कर रख दिया: एक विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी वर्ग(सवर्ण) और दूसरा शक्तिहीन बहुजन समाज! इस हिन्दू आरक्षण में शक्ति के सारे स्रोत सिर्फ और सिर्फ विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए आरक्षित रहे. इस कारण जहाँ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित,आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए. लेकिन दुनिया के दूसरे अशक्तों और गुलामों की तुलना में भारत के बहुजनों की स्थिति सबसे बदतर इसलिए हुई, क्योंकि उन्हें आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के साथ ही शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियों तक से भी बहिष्कृत रहना पड़ा. इतिहास गवाह है मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में किसी भी समुदाय के लिए शैक्षिक और धार्मिक गतिविधियां धर्मादेशों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध नहीं की गयीं, जैसा हिन्दू आरक्षण-व्यवस्था के तहत बहुजनों के लिए किया गया. यही नहीं इसमें उन्हें अच्छा नाम तक भी रखने का अधिकार नहीं रहा. इनमें सबसे बदतर स्थिति दलितों की रही. वे गुलामों के गुलाम रहे. इन्ही गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ.आंबेडकर के कन्धों पर सौंपी, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया.

 अगर जहर की काट जहर से हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट आंबेडकरी आरक्षण से हो सकती थी, जो हुई भी. इसी आंबेडकरी आरक्षण से सही मायने में सामाजिक अन्याय के खात्मे की प्रक्रिया शुरू हुई. हिन्दू आरक्षण के चलते जिन सब पेशों को अपनाना अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए दुसाहसपूर्ण सपना था, अब वे खूब दुर्लभ नहीं रहे. इससे धीरे-धीरे वे  सांसद -विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे. दलित –आदिवासियों पर आंबेडकरवाद के चमत्कारिक परिणामों ने जन्म के आधार पर शोषण का शिकार बनाये गए अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों के वंचितों के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए. संविधान में डॉ.आंबेडकर ने अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान किया, उससे परवर्तीकाल में मंडलवादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जिससे पिछड़ी जातियों के भी सामाजिक अन्याय से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त हुआ. और उसके बाद ही आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वाद म्लान पड़ते गए.

7 अगस्त, 1990  को प्रकाशित मंडल की रिपोर्ट स्वाधीनोत्तर भारत में सामाजिक न्याय के लिहाज से सबसे बड़ी घटना थी और यही बहुजनों के लिए काल भी बन गयी . मंडलवादी आरक्षण लागू होते ही पूना-पैक्ट के जमाने से आरक्षण का सुविधाभोगी तबका एक बार फिर शत्रुतापूर्ण मनोभाव लिए बहुजनों के खिलाफ मुस्तैद हो गया. इसके प्रकाशित होने के बाद 24 जुलाई,1991 हिन्दू आरक्षणवादियों द्वारा बहुजनों को नए सिरे से गुलाम बनाने के लिए निजीकरण, उदारीकरण, विनिवेशीकरण इत्यादि का उपक्रम चलाने साथ जो तरह-तरह की साजिशें की गयीं, उसके फलस्वरूप आज भारत का बहुजन प्रायः विशुद्ध गुलाम में तब्दील हो चुका है. 24जुलाई, 1991 के बाद शासकों की सारी आर्थिक नीतियाँ सिर्फ आंबेडकरवाद की धार कम करने अर्थात आरक्षण के खात्मे और धनार्जन के सारे स्रोतों हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में शिफ्ट करने पर केन्द्रित रहीं. इस दिशा में जितना काम नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी ने और मनमोहन सिंह ने 20 सालों  में किया, नरेंद्र मोदी ने उतना प्रायः चार सालों में कर डाला है. मोदी राज में देखते ही देखते १प्रतिशत लोगों का  देश की 73%  तो टॉप की 10% आबादी का देश की प्रायः 90% धन-दौलत दौलत पर कब्ज़ा हो गया. इनके साथ 90% वंचित आबादी जहां मात्र 10% धन पर वहीं आंबेडकर के लोग 1% धन-संपदा पर जीवन वसर करने के लिए विवश हो गए. आंबेडकर के लोगों  के लिए जो सरकारी नौकरियां धनार्जन का एकमात्र स्रोत थीं, वह स्रोत लगभग पूरी तरह रुद्ध कर दिया गया है. आने वाले दिनों में इस समुदाय से किसी को डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनते देखना एक सपना बनने जा रहा है. यह सब हालात बतातें है कि मोदी राज   आंबेडकरवाद संकटग्रस्त हो गया . बहरहाल मोदी राज में जिस तरह आरक्षण को शेष करने का अभूतपूर्व प्रयास हुआ, उससे आंबेडकरवाद पर संकट इतना गहरा गया कि पिछली आंबेडकर जयंती पर मैंने जो लेख लिखा उसका शीर्षक था ,’संकट में आंबेडकरवाद’. लेकिन इस बार जब यह लेख लिख रहा हूँ तब उसका वह शीर्षक बदलने से खुद को न रोक सका. उसके पीछे 2019 में आये कुछ बदलाव हैं.

2014 के मई में सत्ता में आने के आंबेडकर प्रेम में बाकी  दलों को पीछे छोड़ने के बावजूद मोदी ने जिस तरह आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने में अपने पूर्ववर्तियों को शिशु बनाया, उससे लगा 2019 में इससे विरत होकर चुनावी वर्ष में खुद को मुकाबले में बनाये रखने के लिए बहुजनों का समर्थन जीतने लायक कुछ काम करेंगे. किन्तु 2019 में तो वे और खूंखार रूप धारण कर लिए. इसलिए अपने कार्यकाल के स्लॉग ओवर में बहुजनों के भावनाओं से खेलते हुए सवर्ण और विभागवार आरक्षण लागू करवाने के कुछ दिनों बाद देश की सर्वोच्च अदालत के माध्यम से 10 लाख आदिवासी परिवारों को उन जंगलों से दूर खदेड़ दिए जिन जंगलों पर उनका जीवन निर्भर करता है. उनके इन कामों से आरक्षित वर्गों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई. सबसे पहले 7 जनवरी, 2019 को मोदी मंत्रीमंडल द्वारा आर्थिक आधार पर सवर्णों को नौकरियों और उच्चशिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा के साथ सोशल मीडिया पर ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा उभरने लगा, जो 9 जनवरी को राज्यसभा में आरक्षण का प्रस्ताव पारित होते ही सैलाब में बदल गया. जिसकी जितनी संख्या भारी का नारा सबसे पहले बहुजन बुद्धिजीवियों ने उठाया, उसके बाद एक-एक करके राजद के तेजस्वी यादव, सपा के धर्मेन्द्र यादव और विपक्ष की अनुप्रिया पटेल सहित कई अन्य नेताओं ने अपने-अपने तरीके से आरक्षण को 100 प्रतिशत तक बढ़ाकर सभी प्रमुख सामाजिक समूहों में बंटवारे की मांग उठाया. यह वह मांग थी जिसके लिए डाइवर्सिटी  समर्थक बुद्धिजीवी विगत डेढ़ दशक से प्रयास कर रहे थे . बाद में जब 13 पॉइंट रोस्टर के खिलाफ बहुजन छात्र और गुरुजन तथा लेखक –एक्टिविस्ट 5 मार्च को भारत बंद किये, संख्यानुपात में आरक्षण की मांग एवरेस्ट सरीखी बुलंदी अख्तियार कर ली. 5 मार्च के भारत बंद से जिस तरह सरकार 13 प्वाइंट रोस्टर का निर्णय वापस लेने के लिए मजबूर हुई,उससे बहुजन बुद्धिजीवियों की साईक में बड़ा बदलाव आ गया. उन्हें यकीन हो गया कि यदि संगठित होकर सड़कों  पर उतरा जाय तो सरकार को अपनी मांगे मनवाने के लिए बाध्य किया जा सकता है.

परवर्तीकाल में 5 मार्च के भारत बंद के पीछे अग्रणी भूमिका निभाने वाले छात्र और गुरुजनों ने 2 अप्रैल,2018 के भारत बंद के शहीदों की शहादत को याद करने के लिए 2 अप्रैल,2019  को ‘रामलीला मैदान चलों’ का आह्वान किया. उनके आह्वान पर भारी संख्या में छात्र-शिक्षक तथा लेखक-एक्टिविस्ट जमा हुए. उनकी उपस्थिति में उन्होंने 15 सूत्रीय एक दलित एजेंडा जारी किया. इस एजंडे में आरक्षण को 100 प्रतिशत तक विस्तार देते हुए सरकारी और निजीक्षेत्र की नौकरियों, न्यायपालिका, सप्लाई, ठेकों इत्यादि में जिसकी जितनी सख्या भारी का फार्मूला लागू करने की मांग उठाया गया. यहाँ तक कि बैंको द्वारा दिए जाने वाले लोन  में भी सामाजिक विविधता का सिद्धांत लागू करने की मांग उठाई गयी. दलित बुद्धिजीवियों ने दिल्ली के रामलीला मैदान से जारी दलित एजेंडा सभी राजनीतिक दलों के पास भेंजा  , ताकि वे उसे लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में शामिल कर सकें. भारी संतोष का विषय  है कि विगत कुछ दिन में विभिन्न पार्टियों के जो घोषणापत्र जारी हुए हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है राजनीतिक दलों ने बहुजन बुद्धिजीवियों के संख्यानुपात में सर्वव्यापी आरक्षण का सिद्धांत को सम्मान दिया है. जिन प्रमुख दलों के घोषणापत्रों में बहुजन बुद्धिजीवियों के एजेंडे को अच्छा स्पेस मिलता दिख रहा है,उनमे राजद और कांग्रेस सबसे आगे है. राजद के घोषणापत्र का थीम ही ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी’ है. इन दोनों के ही घोषणापत्र में जिस तरह आरक्षण को विस्तार दिया गया है, वैसा आजाद भारत में कभी नहीं हुआ. इनके घोषणापत्रों में जाति जनगणना कराने , प्रमोशन में आरक्षण लागू करने के साथ , निजीक्षेत्र की नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं व न्यायपालिका के साथ सप्लाई –ठेकों इत्यादि में संख्यानुपात में आरक्षण देने की बात कही गयी है. राजद-कांग्रेस के घोषणापत्र में आरक्षण का विस्तार दरअसल प्रधानमंत्री मोदी के आंबेडकरी आरक्षण के खिलाफ अपनाये गए क्रूर रवैये की परिणिति हैं,जिसकी प्रतिक्रिया में बहुजनों में आरक्षण की मात्रा 100 प्रतिशत तक बढाकर उसका वाजिब बंटवारे करने की उग्र चाह पैदा हुई है. बहुजन बुद्धिजीवियों के दलित एजेंडे तथा राजद-कांग्रेस के घोषणापत्र में बहुजनों की इस चाह का प्रतिबिम्बन हुआ है. इस चाह के पनपने के फलस्वरूप जिस तरह अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि में आरक्षण नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार फिल्म-मीडिया इत्यादि राष्ट्र के जीवन के हर क्षेत्र तक विस्तारलाभ किया, वैसा भारत में भी होता दिख रहा है.आरक्षण को लेकर दलित, आदिवासी ,पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबको के छात्र-गुरुजन,लेखक-एक्टिविस्टों और नेताओं में आये इस बदलाव को देखते हुए अब दावे के साथ कहा जा सकता है कि आंबेडकरवाद संकट-मुक्त हो गया है. यदि लोकसभा चुनाव में बहुजन मतदाता राजद-कांग्रेस इत्यादि को सत्ता में लाने में सफल हो जाते हैं, इसका सुफल जल्द मिलना मिलना शुरू हो जायेगा.

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.संपर्क-9654816191

अक्षय कुमार को खुला पत्र

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श्रीमान, अक्षय कुमार.

आपकी केसरी फिल्म देख कर आ रहा हूँ. क्या जबरदस्त फिल्माकंन है. फिल्म पर अच्छी मेहनत की गयी है. लोकेशन और ड्रेसिंग भी जबरदस्त है. आपकी कलाकारी ने तो फिल्म में 4 चाँद ही लगा दिए है. सायद इसी फिल्म के लिए आपने ये कला सीखी थी. मैने आपकी दर्जनों फिल्मे देखी है लेकिन सबसे बेहतरीन कला इस केसरी फिल्म में देखने को मिली. कलाकार के नाम पर आपको 5 स्टार मिलने चाहिए.

जब इसका ट्रैलर लांच हुआ या उससे पहले जब फिल्म की चर्चाएं मिडिया के माध्यम से आम जनता में आई तो बड़ी उत्सुकता थी की फिल्म में क्या दिखाया जायेगा, क्या संदेश फिल्म जनता को देगी. क्योंकि फिल्म एक ऐतिहासिक घटना पर बन रही थी. फ़िल्में दो तरह की होती है एक फिल्म कहानी पर आधारित और दूसरी इतिहास की सच्ची घटनाओं पर आधारित होती है.

कहानी पर आधारित फिल्म में जो मर्जी हो वो दिखाया जा सकता है. कल्पनाओं के घोड़े जितने दौड़ाना चाहो उतने दौड़ाये जा सकते है और ये सब किया भी जाता है. उसमें जिस कम्युनिटी को चाहे विलेन बनाओ या जिसको चाहे हीरो बनाओ. जैसे गदर – एक प्रेम कथा में भारत का हीरो तारा अकेला एक तरफ और पूरी पाकिस्तान की फ़ौज एक तरफ, अकेला तारा पूरी पाकिस्तानी फौज को खदेड़ देता है. फ़ौज हार जाती है, तारा जीत जाता है. फिल्म सुपरहिट हो जाती है. ऐसी अनेको फिल्मे बनी जो नफरत के कारोबार को बढ़ाने के लिए बनाई गई. फ़िल्मकार बड़े ही शातिर दिमाक से पड़ोसी मुल्क को नीचा दिखाकर, उसको हराकर अपने लोगो को चतुराई से अंधराष्ट्रवाद की तरफ ले जाता है. फ़िल्मकार द्वारा एक खास विचार से प्रेरित होकर एक खास मकसद के लिए ये सब किया जाता है. लेकिन वही दूसरी तरफ ऐसे फ़िल्मकार भी बहुत है जो अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ बिगुल बजाते हैं. वार छोड़ न यार, क्या दिल्ली-क्या लाहौर, वीर जारा जैसी फिल्में भी बनती है जो सच में बेहतरीन फिल्मे होती है. जो नफरत के कारोबार से ऊपर उठकर नफरत को हराने की बात करती है. जिनका मकसद भी बेहतरीन होता है.

इतिहास की फिल्म से अगर छेड़छाड़ करके अगर इतिहास के विपरीत फिल्म बनाई जाए तो ये इतिहास के साथ खिलवाड़ तो है ही, एक भयंकर साजिस और घटियापन भी होता है. ऐसी ही साजिस और घटियापन मुझे आपकी केसरी फिल्म देख कर महसूस हुई. इसलिए बड़े ही गुस्से से ये आपको खुला पत्र लिख रहा हूँ.

इतिहास से छेड़छाड़ के कारण आने वाली नस्ले आपको कभी माफ नही करेगी. वो सवाल करेगी आपसे की कैसे देश और अपनी मिटटी के लिए लड़ने वाले योद्धाओं को आपने बड़ी ही चतुराई से विलेन बना दिया. कैसे बड़ी चतुराई और शातिराना दिमाक से इस ऐतिहासिक घटना को आपने धर्म का चोला पहना कर धार्मिक रंग में रंग दिया. कैसे इस पूरी लड़ाई को क्रांतिकारी बनाम अंग्रेज सत्ता की जगह आपकी फिल्म ने मुस्लिम बनाम सिख बना कर दिखाया है.

मुझे लगता है कि अगर ऐसे ही इतिहास के साथ छेड़छाड़ चलती रही तो वो दिन दूर नही जब गदर पार्टी के क्रांतिकारियों को विलेन और अंग्रेजो की तरफ से गोलियां चलाने वाले सैनिको को सुपर हीरो दिखाया जायेगा या जलियाँ वाला बाग नरसंहार को, सुभाष चंद्र बोष की आजाद हिंद फौज के सैनिकों को मारने वाली बिर्टिश आर्मी जिसमे भारत के ही जवान थे उनको हीरो दिखाया जाएगा या मध्य भारत के आदिवासी जिनका नेतृत्व बिरसा मुंडा कर रहे थे, चटगांव के विद्रोहियों जो सूर्य सेन के नेतृत्व में लड़ रहे थे या अलग-अलग हिस्सो में लड़ने वाले और अपनी जान की कुर्बानियां देने वाले लाखों क्रांतिकारियों को विलेन और इनकी हत्या करने वाले बिर्टिश सैनिको को महान हीरो दिखाया जाएगा.

सारागढ़ी का इतिहास और केसरी फिल्म

सारागढ़ी जो अंग्रेज सरकार की एक महत्वपूर्ण पोस्ट थी जिस पर 36 सिख रेजिमेन्ट के 21 जवानों की तैनाती थी. ये 12 सितम्बर 1897 की बात है. जब ये ऐतिहासिक युद्ध हुआ. (ये भी याद रखना चाहिए की भारतीय जनता द्वारा 1857 का अंग्रेजो के खिलाफ महान विद्रोह हो चूका था.) सारागढ़ी के युद्ध में 21 सिख सैनिक अंग्रेज सरकार की तरफ से लड़ते हुए भारतीय क्रांतिकारी ताकतों के हाथों मारे गए. इस लड़ाई में अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने वाली जनता जो वहां के अफरीदी आदिवासी और पठान शामिल थे भी बड़ी तादात में शहीद हुए. इन शहीदों की याद में फिल्म बननी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य है कि इसके विपरीत इन शहीदों के खिलाफ फिल्म बनती है और इन शहीदों को विलेन दिखाया जाता है. पूरी फिल्म में थोड़ा सा भी आभास नही होने दिया गया कि अंग्रेज सरकार के खिलाफ लड़ने वाले ये क्रांतिकारी है जो जल-जंगल-जमीन को बचाने और गुलामी की बेड़िया तोड़ने के लिए लड़ रहे है. इसके विपरीत ये दिखाया गया कि ये लड़ने वाले वहसी धार्मिक दरिंदे है. ये मुस्लिम धर्म के लिए लड़ रहे है न की देश के लिए. इनका नेतृत्व करने वाला धार्मिक नेता तालिबानी है जो महिलाओं पर अत्याचार करता है.

क्रांतिकारियों को वहसी और तालिबानी साबित करने के लिए फ़िल्मकार ने फिल्म में कई सीन डाले है. एक सीन जो ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसकी चर्चा करना अनिवार्य है, जब 10 हजार क्रांतिकारी अंग्रेज सेना से लड़ने आते है. वो सारागढ़ी के मैदान में आकर एक महिला की सरेआम गर्दन कलम कर कत्ल करते है. क्योंकि उस महिला ने मुस्लिम धर्म के किसी नियम का उलघ्न किया है. इसलिए उसको ये सजा दी गयी है. महिला की मौत पर हजारों क्रांतिकारी खुशिया मनाते दिखाये गये हैं. फ़िल्मकार ने ऐसे कई काल्पनिक सीन के माध्यम से इनको दरिंदा और तालिबानी साबित करने की पुरजोर कोशिश की है. ये साबित करने के लिए की वो isisi की तरह थे.

फिल्म के संवाद बहुत कुछ बोलते है – विद्रोही गुट के नेता द्वारा बोलना की शाम तक सारे सिख सैनिको की पगड़िया मेरे पैरों में होगी. मुझे इस सिख की चींखें सुननी है लगा दो आग ईसर सिंह द्वारा युद्ध से पहले अपने सैनिकों से बोलना की आज हम ये लड़ाई अंग्रेजो के लिए नही लड़ेंगे आज हम ये लड़ाई धर्म के लिए लड़ेंगे. इस केसरी पगड़ी के लिए लड़ेंगे. इस पगड़ी के लिए लाखों शहीद हुए है हम उन शहीदों के लिए लड़ेंगे. सर पर केसरी पगड़ी बांध कर लड़ना.

श्रीमान क्या बताने का कष्ठ करोगे की, सारागढ़ी का युद्ध सिखों के खिलाफ था या अंग्रेजो के खिलाफ.

फ़िल्मकार द्वारा केसरी फिल्म एक राजनितिक साजिस के तहत बनाई गई फिल्म है. इस साजिस का अहम हिस्सा श्रीमान आप हो. क्योंकि एक कलाकार ही अपनी कला के माध्यम से किसी भी कहानी के पात्र को जीवंत करता है. आपने भी अपनी कला के माध्यम से इतिहास के साथ की गयी गड़बड़ी में अहम भूमिका निभाई है. इस पूरी फिल्म में जो शब्दो का इस्तेमाल किया गया है वो एक भयंकर साजिस की तरफ इशारा करती है. कैसे इस फिल्म को सिख धर्म के साथ जोड़ कर उनकी भावनाओं को कैश किया गया है.

सिख धर्म के झंडे के इस्तेमाल की बात हो या सिख गुरुओ की अनमोल वाणियो की बात हो. उन सबको अपने आर्थिक और साम्प्रदायिक राजनितिक फायदे के लिए इस फिल्म में इस्तेमाल किया गया है जो सरासर गलत है. जिसका व्यापक विरोध होना चाहिए. एक खास फासीवादी राजनितिक विचारधारा को फायदा पहुंचाने के लिए इस फिल्म का निर्माण किया गया है. इसी फायदे के लिए इस फिल्म की रिलीज की तारीख भी आचार सहिंता में तय की गयी है. इस शातिराना चाल का विरोध प्रत्येक भारतीय नागरिक को करना चाहिए.

इस पुरे मसले में एक बात समझने की ये भी है कि आदिवासियों और पठानों की फ़ौज जिसकी संख्या 10 हजार थी. अगर आज की जनसंख्या से उसका मूल्यांकन किया जाये तो ये 10 लाख बैठती है. 10 हजार क्रांतिकारी जो अपनी जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए अंग्रेज सरकार से लड़ रहे थे. जो गुलामी की बेड़िया तोड़ कर एक नई सुबह में आजादी की साँस लेना चाहते थे. ये एक जन विद्रोह था जिसको अंग्रेज सरकार ने ईशर सिंह जैसे सैनिको की मदद से इन क्रांतिकारियों के सपनों को अपने लोहे की एड़ियों से कुचला, इनका दमन किया. इस जन विद्रोह के 122 साल बाद 2019 में श्रीमान आपने भी अपनी कला के जरिये उनके सपनों को कुचलने की कोशिश की है.

मै ऐसे किसी भी ईशर सिंह जो किसी भी कौम से हो. वो चाहे कितना भी बहादुर क्यों न हो, को महान या योद्धा नही मानूँगा, जिसने अपनी बहादुरी साम्राज्यवाद की गुलामी की बेड़िया तोड़ने में न लगाकर बेड़ियों को ओर ज्यादा मजबूत करने में लगाई हो. महान योद्धा वो सैनिक नही थे जिन्होंने अंग्रेज सरकार की गुलामी की बेड़िया पहन कर अपनी बहादुरी जन विद्रोह को कुचलने में दिखाई. उनको बहादुरी की नही गद्दार की संज्ञा दी जायेगी.

महान और बहादुर योद्धा

1857 के महान विद्रोह के विद्रोही, गदर पार्टी के हजारों सिख योद्धा, सारागढ़ी के आदिवासी और पठान, बिरसा मुंडा, चटगांव के महान क्रांतिकारी सूर्यसेन, भगत सिंह, आजाद, लक्ष्मी बाई, लाखो बागी विद्रोही महान और बहादुर थे जिन्होंने विश्व की सबसे मजबूत साम्राज्यवादी ताकत जिनका कभी सूर्य अस्त नही होता था के खिलाफ लड़ते हुए अपनी जान की कुर्बानिया दी. ऐसे बहादुर योद्धाओं को सलाम.

आप और आपकी साम्प्रदायिक विचारधारा जितना चाहे जोर लगा ले इतिहास को बदलने का लेकिन आप उस खून को दबाने या मिटाने में कामयाब नही होंगे जिन्होंने आजाद साँस के लिए खून बहाया था और आज भी खून बहा रहे है. इंक़लाब जिंदाबाद…

Uday Che

जलियांवाला बाग के 100 साल और शहीद उधम सिंह

आज से सौ साल पहले 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर स्थिर जलियांवाला बाग में जो घटा उसने भारत को एक ऐसा दर्द दे दिया, जिसका दर्द अब भी रह-रह कर सालता है। इस दिन अंग्रेजों के रौलेट एक्ट के विरोध में जलियांवाला बाग में शांतिपूर्ण तरीके से सभा कर रहे निहत्थे निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसा दी गई थी। जनरल डायर ने खुद अपने एक संस्मरण में लिखा था, “1650 राउंड गोलियां चलाने में छह मिनट से ज्यादा ही लगे होंगे।” यह ऐसा दर्द था, जिसे भारत के लोग हर साल याद करते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस अंधाधुंध गोलीबारी में 337 लोगों के मरने और 1500 के घायल होने की बात कही जाती है, लेकिन सही आंकड़ा क्या है, वह आज तक सामने नहीं आ पाया है। अंग्रेजों की खूनी गोलियों से बचने के लिए सैकड़ों लोग बाग में स्थित कुएं में कूद गए। इसमें पुरुषों के अलावा महिलाएं और बच्चे भी थे। जब बाग में गोलीबारी हो रही थी, एक बालक उधम सिंह भी वहां मौजूद था। उसने अपनी आंखों के सामने अंग्रेजों के इस खूनी खेल को देखा था। उन्होंने उसी बाग की मिट्टी को हाथ में लेकर इसका बदला लेने की कसम खाई थी। 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को उधम सिंह ने अंग्रेजों से इसका बदला लिया।

उधम सिंह ने जो किया वह इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और जीवन का संघर्ष इतना बड़ा था कि ऐसी स्थिति में कोई इस तरह का फैसला लेने की सोच नहीं सकता था। क्रान्तिवीर शहीद उधमसिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरुर जिले के सुनाम गांव में हुआ था। उधम सिंह जब दस साल के हुए तब तक उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उधम सिंह अपने बड़े भाई मुक्तासिंह के साथ अनाथालय में रहने लगे। इस बीच उनके बड़े भाई की मृत्यु हो गई। इसके बाद उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए। तमाम क्रांतिकारियों के बीच उधम सिंह एक अलग तरह के क्रांतिकारी थे। वह जाति और धर्म से खुद को मुक्त कर दा चाहते थे। यही वजह है कि उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘राम मोहम्मद आजाद सिंह’ रख लिया था, जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है। धार्मिक एकता का संदेश देने वाले वो इकलौते क्रान्तिकारी थे।

गोली से बचने के लिए इस कुएं में कई महिला, पुरुष औऱ बच्चे कूद गए, जिसमें उनकी जान चली गई

13 अप्रैल 1919 को जब बैसाखी के दिन एक सभा रखी गई, जिस दौरान उन पर गोलीबारी हुई थी, उसी सभा में उधम सिंह अपने अन्य साथियों के साथ पानी पिलाने का काम कर रहे थे। इस सभा से तिलमिलाए पंजाब प्रांत के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिगेडियर जनरल डायर को आदेश दिया कि सभा कर रहे भारतीयों को सबक सिखाओ। इस पर उसी के हमनाम जनरल डायर ने सैकड़ों सैनिकों के साथ सभा स्थल जलियांवाला बाग में निहत्थे, मासूम व निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलीबारी कर दी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए।

उधम सिंह भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश हुकुमत द्वारा कराये गये सबसे बड़े नरसंहार, जालियावाला बाग के प्रत्यक्षदर्शी थे। इस घटना से तिलमिलाए उधमसिंह ने जलियावाला बाग की मिट्टी को हाथ में लेकर इस नरसंहार के दोषी माइकल ओ डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ली थी। अनाथ होने के बावजूद भी वीर उधम सिंह कभी विचलित नहीं हुए और देश की आजादी तथा माइकल ओ डायर को मारने की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए लगातार कोशिश करते रहें। उधम सिंह ने अपने काम को अंजाम देने के लिए कई देशों की यात्रा भी की। इसी रणनीति के तहत सन् 1934 में उधम सिंह लंदन पहुंचे। भारत के इस आजादी के दीवाने क्रान्तिवीर उधम सिंह को जिस मौके का इंतजार था वह मौका उन्हें जलियांवाला बाग नरसंहार के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को उस समय मिला जब माइकल ओ डायर लंदन के काक्सटेन सभागार में एक सभा में सम्मिलित होने गया। इस महान वीर सपूत ने एक मोटी किताब के पन्नों को रिवाल्वर के आकार में काटा और उसमें वहां खरीदी रिवाल्वर छिपाकर हाल के भीतर प्रवेश कर गए। मोर्चा संभालकर उन्होंने माइकल ओ डायर को निशाना बनाकर गोलियां दागनी शुरू कर दी जिससे वो वहीं ढ़ेर हो गया।

माइकल ओ डायर की मौत के बाद ब्रिटिश हुकुमत दहल गई। फांसी की सजा से पहले लंदन की कोर्ट में जज एटकिंग्सन के सामने जिरह करते हुए उधम सिंह ने कहा था- ‘मैंने ब्रिटिश राज के दौरान भारत में बच्चों को कुपोषण से मरते देखा है, साथ ही जलियांवाला बाग नरसंहार भी अपनी आंखों से देखा है। अतः मुझे कोई दुख नहीं है, चाहे मुझे 10-20 साल की सजा दी जाये या फांसी पर लटका दिया जाए। जो मेरी प्रतिज्ञा थी अब वह पूरी हो चुकी है। अब मैं अपने वतन के लिए शहीद होने को तैयार हूं.’ अदालत में जब उनसे पूछा गया कि वह डायर के अन्य साथियों को भी मार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? उधम सिंह ने जवाब दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं और वो महिलाओं पर हमला नहीं करते। फांसी की सजा की खबर सुनने के बाद आजादी के दीवाने इस क्रान्तिवीर ने ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाकर देश के लिए हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की अपनी मंशा जता दी। 31 जुलाई 1940 को ब्रिटेन के पेंटनविले जेल में उधम सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया, जिसे भारत के इस वीर सपूत ने हंसते-हंसते स्वीकार किया। उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दुनिया को संदेश दिया कि अत्याचारियों को भारतीय वीर कभी बख्शा नहीं करते।

परंतु अफसोस की बात यह है कि इस देश की सरकारें जिस शिद्दत के साथ बाकी क्रान्तिकारियों को याद करती हैं, उधम सिंह को नहीं करती. आजाद भारत की सरकारें उधम सिंह को आज तक वह सम्मान नहीं दे सकीं जिसके वह हकदार थे। हां, उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री मायावती ने शहीद उधम सिंह को उचित सम्मान देते हुए उत्तर प्रदेश में उनके नाम पर जिले का गठन किया।

अगड़ा-पिछड़ा केन्द्रित हुआ चुनाव का पहला चरण

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फाइल फोटो

सात चरणों में पूरा होने वाले 17 वीं लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 18 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों की 91सीटों पर मतदान संपन्न हो चुका है. कुछ जगहों पर छिटफुट हिंसा की घटनाओं के बावजूद जम्मू कश्मीर सहित सभी क्षेत्रों में चुनाव मोटामोटी शांतिपूर्ण रहा. पहले चरण में कुल 90 करोड़ वोटरों में से 14 करोड़ मतदान के पात्र रहे, जिनमें लगभग 60 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. बहरहाल पहले चरण के मतदान से विपक्ष एकाधिक कारणों से खासा उत्साहित है. खासकर जिस यूपी से देश की राजनीति की दिशा तय होती है, वहां के विपक्षी गठबंधन के नेता और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं है. पहले चरण के रुझान को देखकर उन्हें ऐसा लगता है मानो बहुजनवादी गठबंधन सत्ता में आ रहा है. उनकी ख़ुशी का सबसे बड़ा कारण यह है कि पश्चिमी यूपी की जिन सीटों पर भाजपा 2014 में विजयी रही, वहां इस बार चुनाव धर्म और सम्प्रदाय: हिन्दू –मुस्लिम की जगह अगड़ा-पिछड़ा पर केन्द्रित नजर आया जिसमें जातीय समीकरण ज्यादा प्रभावी नजर आया.

 यहाँ दस जिलों के आठ संसदीय क्षेत्रों में गत वर्ष के 65.76 के मुकाबले दो प्रतिशत कम, 63.69 मत कम पड़े, किन्तु मतदान की क़तार में खड़े लोगों की शक्लें देखने के बाद प्रतीत होता है कि जो दो प्रतिशत कम लोग बूथों पर पहुंचे वे अगड़े वर्गों के थे. बहरहाल यदि पश्चिमी यूपी में जातीय समीकरण काम कर जाता है, जिसका कयास राजनीति के अधिकांश जानकार लगा रहे हैं तो बसपा-सपा और रालोद गठबंधन चमत्कार घटित कर सकता है. यूपी की भाँति ही बिहार में भी चुनाव अगड़ा  बनाम पिछड़ा पर केन्द्रित होने जा रहा है, इसका साक्ष्य पहले चरण में 40 में से चार सीटों पर हुए चुनाव में दिखा. वहां पहले चरण के मतदान के बाद जिस तरह मौसम विज्ञानी के पुत्र के जमुई के बाद अब हाजीपुर से भी परचा भरने की खबर आई है, उससे लागता है एनडीए के लिए 17 वीं लोकसभा चुनाव दु:स्वप्न बनने जा रहा है. ऐसा कयास लगाने के पीछे भाजपा के कद्दावर नेता नितिन गडकरी में पहले चरण के चुनाव के बाद उपजा असुरक्षाबोध भी सहायक हो रहा है. कुल मिलाकर पहले चरण के चुनाव के बाद राजनितिक विश्लेषकों की जो राय सामने आ रही है उससे लग रहा है कि विपक्ष यदि इवीएम की गड़बड़ियों पर काबू पा ले तो उसके अच्छे दिन आना तय हैं.

                    विपक्ष को सोचना होगा इवीएम् से आगे 

बहरहाल इसमे कोई शक नहीं कि पहले चरण के मतदान के बाद विपक्षी गठबंधन के नेताओं और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को लगता है कि यदि इवीएम की गड़बड़ियों को रोक लें तो 23 मई को जो चुनाव परिणाम निकलेगा, उसमें वे विजेता के रूप में दिखेंगे. वैसे इवीएम को लेकर विपक्ष की चिंता जायज है ,क्योंकि कई जगह से ऐसी खबरे आई हैं. लेकिन इस लेखक का मानना है कि विपक्ष यदि सारा ध्यान-ज्ञान मुख्यतः इवीएम पर ही केन्द्रित करेगा तो गच्चा खा जायेगा. पहले चरण का रुझान सामने आने के बाद भाजपा सर्वशक्ति से अगले चरणों में उतरने का प्रयास करेगी. इसलिए जब पहले चरण के चुनाव विपक्ष के लिए सकारात्मक सन्देश लेकर आये हैं तब उसे चाहिए कि भाजपा के शक्ति के स्रोतों का नए सिरे से आंकलन कर बाकी के शेष चरणों में उसके अनुरूप रणनीति बनाये.

                    आरएसएस: भाजपा की शक्ति का सबसे बड़ा स्रोत

 अब जहाँ तक भाजपा की शक्ति के स्रोतों का सवाल है, विपक्ष को यह बात धयान में रखना होगा कि जिस  भाजपा के पास विश्व में सर्वाधिक,10 करोड़ से ज्यादे सदस्य हैं, उसके वर्तमान में 12 राज्यों में खुद के एवं 4 में गठबंधन के मुख्यमंत्री सरकार चला रहे हैं. केंद्र से लेकर राज्यों तक इतनी मजबूती से जिस भाजपा की सत्ता कायम है, उसका मातृ-संगठन आरएसएस ही उसकी शक्ति का प्रमुख स्रोत है, इससे हर कोई वाकिफ है. अपने किस्म के विश्व के इकलौते संगठन आरएसएस के भारतीय मजदूर संघ, सेवा भारती, राष्ट्रीय सेविका समिति, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, बजरंग दल, अनुसूचित जाति आरक्षण बचाओ परिषद, लघु उद्योग भारती, भारतीय विचार केंद्र , विश्व संवाद केंद्र, राष्ट्रीय सिख संगठन, विवेकानंद केंद्र और खुद भारतीय जनता पार्टी सहित दो दर्जन से अधिक आनुषांगिक संगठन हैं, जिनके साथ 28 हजार, 500 विद्यामंदिर, 2 लाख 80 हजार आचार्य, 48 लाख,59 हजार छात्र, 83 लाख,18 हजार, 348 मजदूर, 595 प्रकाशन समूह, 1 लाख पूर्व सैनिक, 6 लाख 85  हजार वीएचपी-बजरंग दल के सदस्य जुड़े हुए हैं. यही नहीं इसके साथ बेहद समर्पित व ईमानदार 4 हजार पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता हैं, जो देश भर में फैले 56 हजार, 859 शाखाओं में कार्यरत 55 लाख, 20 हजार स्वयंसेवकों के साथ मिलकर इसके राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी को बल प्रदान करते हैं. आज संघ के उसी राजनीतिक संगठन के मुखिया नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा अप्रतिरोध्य बनकर उभरी है. संघ के बाद भाजपा के दूसरे प्रमुख शक्ति के स्रोत में नजर आते हैं, वे साधु-संत जिनका चरण-रज लेकर देश के कई पीएम-सीएम और राष्ट्रपति-राज्यपाल तक खुद को धन्य महसूस करते रहे हैं.

मंडलोत्तर काल में गृह-त्यागी प्रायः 90 प्रतिशत साधु समाज का आशीर्वाद भाजपा के साथ रहा है. चूँकि संघ का लक्ष्य अपने राजनीतिक संगठन के जरिये ब्राह्मणों के नेतृत्व में सवर्ण-हित का पोषण करना रहा है और साधु-संत प्रधानतः सवर्ण समुदाय से आते हैं, इसलिए उन्होंने स्व-जाति हित के लिए परलोक सुख से ध्यान इहलोक की ओर करने में कोताही नहीं की, जिसका भरपूर लाभ  आजतक भाजपा को मिलता रहा है . अगर भाजपा साधु-संतों के प्रबल समर्थन से भाजपा पुष्ट नहीं होती,अप्रतिरोध्य बनना शायद उसके लिए दुष्कर होता. इन साधु-संतों में इतना दम है कि यदि ये चाह दें तो रातो-रात चुनाव अगड़ा-पिछड़ा के बजाय हिन्दू-मुस्लिम पर केन्द्रित कर भाजपा के अनुकूल हालात बना दें.

             विपक्ष को पार पाना होगा भाजपा का प्रवक्ता बने चैनलों से

    शक्ति के स्रोत के रूप में रूप में तीसरे नंबर पर मीडिया (प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक्स) को चिन्हित किये जाने से भी शायद कम ही लोगों को आपत्ति होगी. हालाँकि पिछली सदी में मीडिया मुख्यतः अख़बारों-रेडियो तक सीमित रहने के कारण बहुत प्रभावी भूमिका अदा करने में सक्षम नहीं थी.किन्तु नयी सदी में चैनलों के विस्तार के बाद  मीडिया ने सत्ता को प्रभावित करने की बेइंतहा शक्ति अर्जित कर ली है. चूँकि मीडिया में सवर्णों का एकाधिकार है और भाजपा सवर्ण हितों की चैम्पियन पार्टी के रूप में उभरी है, इसलिए आज चैनल भाजपा के प्रवक्ता की भूमिका में आ गए हैं. ऐसे में जनमत निर्माण में बेहद सक्षम सवर्णवादी मीडिया से भी निपटने के लिए विपक्ष को तैयार रहना होगा. शुरू से ही भाजपा की पहचान मुख्यतः ब्राहमण-क्षत्रिय –बनियों की पार्टी के रूप में  रही है. इनमें बनिया कौन! भारत का धनपति वर्ग ही तो ! भाजपा से बनियों के लगाव में आज भी रत्ती भर कमी नहीं आई है. ऐसे में कहा जा सकता है कि आज की तारीख में भारतीय पूंजीपति वर्ग से प्रायः 90 प्रतिशत उपकृत होने वाली राजनीतिक पार्टी भाजपा ही है. सिर्फ साधु-संत, लेखक-पत्रकार और पूंजीपति ही नहीं, खेल-कूद,फिल्म-टीवी जगत के प्रायः 90 सेलेब्रिटी भाजपा के साथ ही हैं. यह भाजपा की शक्ति का कितना बड़ा स्रोत है, इसका अंदाजा वे ही लगा सकते हैं, जिन्होंने अतीत में शत्रुघ्न सिन्हा,विनोद खन्ना,नवजोत सिंह सिद्धू के साथ हेमा मालिनी, चेतन चौहान, मनोज तिवारी, स्मृति ईरानी इत्यादि की सभाओं में जुटने वाली भीड़ का जायजा लिया है.

हालाँकि अब शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, सिद्धू की सेवाएँ भाजपा के साथ नहीं हैं, पर अब इसके साथ हिंदी पट्टी का निरहुआ जुड़ गया है. भाजपा की शक्ति का एक बड़ा स्रोत सवर्ण मतदाता हैं, जो एकाधिक मतदाताओं प्रभावित करने की क्षमता रखता है. इस मतदाता वर्ग का प्रायः 90-95 प्रतिशत हिस्सा इसी के साथ है, जो यह सोचकर साथ देता है कि भाजपा सत्ता में आयेगी तो आरक्षण का खत्मा कर देगी. मोदी ने उनकी यह प्रत्याशा पूरी करने के साथ, जिस तरह सवर्णों को आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण सुलभ कराया है, उससे यह वर्ग और मजबूती से उसके साथ खड़ा हो गया है. भाजपा के शक्ति के स्रोतों की तलाश में निकलने पर कोई भी उसके वक्ता-प्रवक्ताओं को नजरंदाज नहीं कर सकता. गोएबल्स सिद्धांत में निपुण संघ द्वारा प्रशिक्षित भाजपा के प्रवक्ता इतने कुशल होते हैं कि लोग उनके कुतर्कों को भी मुग्धभाव से सुनने के लिए बाध्य हो जाते हैं. संघ शाखाओं में सबसे ज्यादा जोर उन्हें इतना कुशल वक्ता बनाने पर दिया जाता है कि असत्य को भी सफलता से सत्य में परिणित कर लेते हैं. इनके समक्ष विपक्षी प्रवक्ता करुणा पात्र लगते हैं. लेकिन भाजपा की शक्ति के स्रोत के रूप में देश-विदेश का कोई भी व्यक्ति जिसकी अनदेखी नहीं कर सकता, उसका नाम है नरेंद्र मोदी. मोदी संघ से निकले ऐसे दुर्लभ रत्न हैं, जिन्हें अद्विति कहना कहीं से भी ज्यादती नहीं होगी. हालाँकि लोगों के खाते में 15 लाख जमा कराने,हर साल युवाओं को दो करोड़ नौकरियां सुलभ करने इत्यादि के मोर्चे पर बुरी तरह विफल होने के बाद मोदी पहले की तरह प्रभावी नहीं रह गए हैं. बावजूद इसके आज भी वे विपक्ष के नेताओं से मीलों आगे हैं.

भाजपा को खिलाना होगा सामाजिक न्याय की पिच पर   

भाजपा की शक्ति के उपरोक्त स्रोत बताते हैं कि अंतिम चरण का चुनाव शेष होने के पहले तक विपक्ष को संतुष्ट होने का जरा भी अवसर नहीं है, भले ही पहले चरण का रुझान उसके पक्ष में जाता क्यों न दिखाई दे रहा हो. दुनिया की सबसे शक्तिशाली पार्टी कभी भी चुनावी फिजा बदल सकती है. ऐसे में आज जबकि लगभग एक दशक बाद चुनाव अगड़ा-पिछड़ा अर्थात सामाजिक न्याय पर केन्द्रित होता दिख रहा है, विपक्ष को चाहिए अपनी सारी शक्ति भाजपा को सामाजिक न्याय के उस चुनावी पिच पर खिलाने में लगा दें, जिस पर स्कोर करने में वह कभी सफल नहीं हो पाई है. बिहार विधानसभा-2015 इसका एक उज्जवल मिसाल है. उस चुनाव में आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत ने सिर्फ आरक्षण की समीक्षा की बात उठाई थी, जिस पर लालू प्रसाद यादव ने पलटवार करते हुए कहा था, ’तुम आरक्षण का खात्मा करना चाहते हो, हम सत्ता में आयेंगे तो संख्यानुपात में आरक्षण बढ़ाएंगे.’ मोदी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर रहकर भी लालू के उस पलटवार का योग्य जवाब न दे सके और शर्मनाक हार झेलने के लिए विवश रहे. आज भाजपा के लिए स्थितियां और बदतर हुई हैं. पांच साल के अपने कार्यकाल में आरक्षण को कागजों की शोभा बनानेवाले मोदी की लोकप्रियता निम्नतर बिंदु पर पहुँच चुकी है.

 सवर्ण और विभागवार आरक्षण लागू कर वह सामाजिक न्याय के सबसे बड़े खलनायक बन चुके हैं. खासकर 9 जनवरी को संसद में पारित सवर्ण आरक्षण की प्रतिक्रिया में आरक्षित वर्गों के बुद्धिजीवियों से लेकर आमलोगों में रातो-रात संख्यानुपात में आरक्षण की तीव्र चाह पैदा हुई है, जिसका अनुमान लगाते हुए बहुजनवादी दलों के नेताओं ने जिसकी जितनी सख्या भारी के आधार पर आरक्षण की मांग उठाई. बात वहीँ तक सीमित नहीं रही. आज सामाजिक न्याय की सबसे बड़े प्रतीक तेजस्वी यादव ने जिसकी जीतनी संख्या भारी पर अपना घोषणापत्र केन्द्रित करते हुए निजीक्षेत्र, प्रमोशन और न्यायपालिका इत्यादि सहित अन्य कई क्षेत्रों में संख्यानुपात में आरक्षण की मांग उठा दी है. पूरा बहुजन समाज ही चाहता है कि तेजस्वी यादव की भाँति दूसरे बहुजनवादी नेता भी आरक्षण को विस्तार देने की बात करें. समय के मांग है कि लोगों की चाह का अनुमान लगाते हुए तमाम बहुजनवादी दल ही निजीक्षेत्र, प्रमोशन, न्यायपालिका, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों इत्यादि में संख्यानुपात में आरक्षण की बात उठावें. अगर वे ऐसा करते हैं, पहले चरण के चुनाव का जो रुझान आया है, वह अंत तक बना रहेगा, इसमें रत्ती भर भी संदेह ही नहीं है.

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क: 9654816191     

जयंती विशेष : वंचितों के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे महात्मा फुले

महात्मा जोतिबा फुले ऐसे महान विचारक, समाज सेवी तथा क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे जिन्होंने भारतीय सामाजिक संरचना की जड़ता को ध्वस्त करने का काम किया. महिलाओं, दलितों एवं शूद्रों की अपमानजनक जीवन स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए वे आजीवन संघर्षरत रहे. सन 1848 में क्रांतिकारी कदम उठाते हुए उन्‍होंने पुणे में अछूतों के लिए पहला स्कूल खोला. यह भारत के ज्ञात इतिहास में अपनी तरह का पहला स्‍कूल था. इसी तरह सन 1857 में उन्होंने लड़कियों के लिए स्‍कूल खोला जो भारत में लड़कियों का पहला स्कूल था. उस स्कूल में पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक न मिलने पर जोतिबा फुले की पत्नी सावित्रीबाई फुले आगे आईं. अपने इन क्रांतिकारी कार्यों की वजह से फुले और उनके सहयोगियों को तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े. उन्हें बार-बार घर बदलना पड़ा. फुले की हत्या करने की भी कोशिश की गई; पर वे अपनी राह पर डटे रहे. अपने इसी महान उद्देश्य को संस्थागत रूप देने के लिए जोतिबा फुले ने सन 1873 में महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया. उनकी एक महत्वपूर्ण स्थापना यह भी थी कि महार, कुनबी, माली आदि शूद्र कही जानेवाली जातियां कभी क्षत्रिय थीं, जो जातिवादी षड्यंत्र का शिकार हो कर दलित कहलाईं.

 जोतिबा ने समाज और जाति के बंटवारे को भी अपने तर्कों से समझने की कोशिश की. अपनी पुस्तक ‘गुलाम गिरी’ की प्रस्तावना में उन्होंने इसका विश्लेषण किया है. उन्होंने लिखा है, ‘सैकड़ों साल से आज तक शूद्रादि-अतिशूद्र (अछूत) समाज; जब से इस देश में ब्राह्मणों की सत्ता कायम हुई तब से लगातार जुल्म और शोषण से शिकार हैं. ये लोग हर तरह की यातनाओं और कठिनाइयों में अपने दिन गुजार रहे हैं. इसलिए इन लोगों को इन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और गंभीरता से सोचना चाहिए. ये लोग अपने आपको ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों की जुल्म-ज्यादतियों से कैसे मुक्त कर सकते हैं. यही आज हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण सवाल हैं; यही इस ग्रंथ का उद्देश्य है.’ जोतिबा ने लिखा है, ‘यह कहा जाता है कि इस देश में ब्राह्मण-पुरोहितों की सत्ता कायम हुए लगभग तीन हजार साल से भी ज्यादा समय बीत गया होगा. वे लोग परदेश से यहां आए. उन्होंने इस देश के मूल निवासियों पर बर्बर हमले करके इन लोगों को अपने घर-बार से, जमीन-जायदाद से वंचित करके अपना गुलाम (दास) बना लिया. उन्होंने इनके साथ बड़ी अमानवीयता का रवैया अपनाया था. ब्राह्मणों ने यहां के मूल निवासियों को घर-बार, जमीन-जायदाद से बेदखल कर इन्हें अपना गुलाम बनाया है, इस बात के प्रमाणों को ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों ने तहस-नहस कर दिया. दफना कर नष्ट कर दिया.’ अंग्रेजी शासन को जोतिबा ने दलित एवं वंचितों के हित के रूप में देखा. उनका मानना था कि इस देश में अंग्रेज सरकार आने की वजह से शूद्रादि-अतिशूद्रों की जिंदगी में एक नई रोशनी आई. उन्होंने कहा कि यह कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं है कि अंग्रेजों के शासनकाल में ही ये लोग ब्राह्मणों की गुलामी से मुक्त हुए.

 जोतिबा फुले का पूरा नाम जोतिराव गोविंदराव फुले था. उनका जन्‍म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में महाराष्‍ट्र के माली परिवार में हुआ. जोतिबा के पिता का नाम गोविन्‍द राव तथा माता का नाम विमला बाई था. एक साल की उम्र में ही जोतिबा फुले की माता का देहान्‍त हो गया. पिता गोविन्‍द राव जी ने आगे चल कर सुगणा बाई नामक विधवा जिसे वे अपनी मुंह बोली बहिन मानते थे उन्‍हें बच्‍चों की देख-भाल के लिए रख लिया. जोतिबा को पढ़ने की ललक से पिता ने उन्हें पाठशाला में भेजा था मगर सवर्णों के विरोध ने उन्‍हें स्‍कूल से वापिस बुलाने पर मजबूर कर दिया. अब जोतिबा अपने पिता के साथ माली का कार्य करने लगे. काम के बाद वे आस-पड़ोस के लोगों से देश-दुनिया की बातें करते और किताबें पढ़ते थे. उन्‍होंने मराठी शिक्षा सन् 1831 से 1838 तक प्राप्‍त की. सन् 1840 में तेरह साल की छोटी सी उम्र में ही जोतिबा का विवाह नौ साल की सावित्री बाई (1831-1897) से हुआ. आगे जोतिबा का दाखिला स्‍काटिश मिशन नाम के स्‍कूल (1841-1847) में हुआ, जहां पर उन्‍होंने थामसपेन की किताब ‘राइट्स ऑफ मेन’ एवं ‘दी एज ऑफ रीजन’ पढ़ी, जिसका उन पर काफी असर पड़ा.

 एक बार वह अपने स्‍कूल के एक ब्राह्मण मित्र की शादी में उसके घर गए. वहां उन्‍हें काफी अपमानित होना पड़ा था. इससे उनमें प्रतिरोध का भाव आ गया. बड़े होने पर उन्‍होंने इन रूढ़ियों के प्रतिकार का विचार पक्‍का कर लिया. 1848 में उन्‍होंने अछूतों के‍ लिए पहला स्‍कूल पुणे में खोला. यह भारत के तीन हजार साल के इतिहास में ऐसा पहला स्‍कूल था जो दलितों के लिए था. 1848 में यह स्‍कूल खोल कर महात्‍मा फुले ने उस वक्‍त के समाज के ठकेदारों को नाराज कर दिया था. जोतिबा के पिता गोविन्‍द राव जी भी उस वक्‍त के सामंती समाज के बहुत ही महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति थे. इस कारण उनके पिता पर काफी दबाव पड़ा तो उनके पिता ने उनसे आकर कहा कि या तो स्‍कूल बंद करो या घर छोड़ दो. तब जोतिबा फुलेएवं उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने सन् 1849 में घर छोड़ दिया. उस स्‍कूल में एक ब्राह्मण शिक्षक पढ़ाते थे. उनको भी दबाव में अपना घर छोड़ना पड़ा. सामाजिक बहिष्‍कार का जवाब महात्‍मा फुले ने 1851 में दो और स्‍कूल खोलकर दिया. सन् 1855 में उन्होंने पुणे में भारत की प्रथम रात्रि प्रौढ़शाला और 1852 में मराठी पुस्तकों के प्रथम पुस्तकालय की स्थापना की. जोतिबा ने भारत का पहला लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोला. जिसमें पढ़ाने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ तो उनकी पत्नी सावित्री ने ही स्‍वयं यह जिम्‍मेदारी उठाकर उस लड़कियों के स्‍कूल मे पढ़ाना आरंभ किया. इस तरह सावित्रीबाई फुले घर से बाहर आ पढ़ाने का काम करने वाली पहली शिक्षिका थीं. उन्हें तंग करने के लिए शुरू में उन पर गोबर और पत्थर फेंके जाते थे; पर वे पीछे नहीं हटी. यही वजह है कि बहुजन समाज 5 सितंबर को शिक्षक दिवस का विरोध करता रहा है और रुढ़िवादियों को चुनौती देकर वंचित तबके के लिए पहला स्कूल खोलने वाले जोतिबा फुले और प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के सम्मान में ‘शिक्षक दिवस’ की मांग करता रहा है.

 मुम्‍बई सरकार के अभिलेखों में जोतिबा फुले द्वारा पुणे एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में शुद्र बालक-बालिकाओं के लिए कुल 18 स्‍कूल खोले जाने का उल्‍लेख मिलता है. अपने समाज सुधारों के लिए पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य ने अंग्रेज सरकार के निर्देश पर उन्‍हें पुरस्‍कृत किया और वे चर्चा में आए. इससे चिढ़कर सवर्णों ने कुछ अछूतों को ही पैसा देकर उनकी हत्‍या कराने की कोशिश की गई पर वे उनके शिष्‍य बन गए. सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में ‘सत्य शोधक समाज’ नामक संस्था का गठन किया और इसी वर्ष उन‍की पुस्‍तक ‘गुलाम गिरी’ का प्रकाशन हुआ. महात्मा फुले एक समता मूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है. पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया. उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की. जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमद नगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था. इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया. स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे. मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं, लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा. उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया. फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की. प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था.

 जोतिबा ने शराब बंदी के लिए भी काम किया था. वह मानवता के वाहक थे. एक गर्भवती ब्राह्मण विधवा को आत्‍म हत्‍या करने से रोक उन्‍होंने उसके बच्‍चे को गोद ले लिया. जिसका नाम यशवंत रखा गया. अपनी वसीयत जोतिबा ने यशवंत के नाम ही की. सन् 1890 में जोतिबा के दाएं अंगों को लकवा मार गया. तब वे बाएं हाथ से ही सार्वजानिक सत्‍य धर्म नामक किताब लिखने में लग गये. 28 नवम्बर 1980 को उनका महापरिनिर्वाण हो गया.

 डॉ. अम्बेडकर महात्मा फुले के व्यक्तित्व-कृतित्व से अत्यधिक प्रभावित थे. वे महात्मा फुले को अपने सामाजिक आंदोलन की प्ररेणा का स्त्रोत मनाते थे. 28 अक्टूबर 1954 को पुरूदर स्टेडियम, मुम्बई में भाषण देते हुए उन्होंने महात्मा बुद्ध तथा कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरू माना है. डॉ. अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा, ‘मेरे तीसरे गुरू जोतिबा फुले हैं. केवल उन्होंने ही मानवता का पाठ पढाया. प्रारंभिक राजनीतिक आंदोलन में हमने जोतिबा के पथ का अनुसरण किया, मेरा जीवन उनसे प्रभावित हुआ है.’ डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘’शूद्र कौन थे?’’को 10 अक्टूबर 1946 को महात्मा फुले को समर्पित करते हुए लिखा- ‘‘‘जिन्होंने हिन्दु समाज की छोटी जातियों को, उच्च वर्णो के प्रति उनकी गुलामी की भावना के संबंध में जागृत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी ज्यादा सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को महत्व दिया, उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्‍मृति में सादर समर्पित. बहुजन समाज महात्मा जोतिबा फुले को ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा देता है.

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जानिए पहले चरण में कहां-कहां है चुनाव और किन बड़े नेताओं की किस्मत है दांव पर

नई दिल्ली। 11 अप्रैल को 17वीं लोकसभा चुनाव के लिए पहले चरण का मतदान हो रहा है। पहले चरण में 20 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की 91 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हो रहे हैं। इसमें कई केंद्रीय मंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री और नामी चेहरों की प्रतिष्ठा दांव पर है। जिन लोकसभा सीटों पर पहले चरण का मतदान हो रहा है, उसमें भाजपा के पास 32, कांग्रेस के पास 7 और क्षेत्रिय दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों के हिस्से में 52 सीटें हैं।

पहले चरण के मतदान में 14 करोड़ से अधिक मतदाता हिस्सा लेंगे। इसमें विभिन्न दलों और निर्दलीय मिलाकर कुल 1279 उम्मीदवार मैदान में हैं। पहले चरण में जिन 91 लोकसभा क्षेत्रों पर मतदान हो रहे हैं, उसमें उत्तर प्रदेश की 8 सीटों, उत्तराखंड की सभी 5 सीटों, आंध्रप्रदेश की सभी 25 सीटों, अरुणाचल की 2, असम की 5, बिहार की 4, छत्तीसगढ़ की 1, जम्मू और कश्मीर की 2, महाराष्ट्र की 7, मणिपुर की 1, मेघालय की 2, मिजोरम की 1, नागालैंड की 1, ओडिशा की 4, सिक्किम की 1, तेलंगाना की 17, त्रिपुरा की 1, पश्चिम बंगाल की 2, अंडमान और निकोबार की 1 और लक्ष्यद्वीप की 1 सीट शामिल है।

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फाइल फोटो

राजनैतिक तौर पर महत्वपूर्ण प्रमुख राज्यों की बात करें तो बिहार के औरंगाबाद, गया, नवादा और जमुई लोकसभा सीटों पर मतदान हो रहा है, जबकि उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर लोकसभा सीटों पर आज मतदान हो रहा है। इसी तरह छत्तीसगढ़ के बस्तर, महाराष्ट्र के वर्धा, रामटेक, नागपुर, भंडारा गोंदिया, गढ़चिरोली चैमूर, चंद्रपुर और यवतमाल लोकसभा सीट पर, उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल, गढ़वाल, अल्मोरा, नैनीताल-उधमसिंह नगर और हरिद्वार लोकसभा सीटों पर और ओडिसा के कालाहांडी, नबरंगपुर, बेरहामपुर, कोरापुट लोकसभा सीटों पर पहले चरण में मतदान हो रहा है।

फाइल फोटो

पहले चरण में शामिल बड़े चेहरों की बात करें तो नागपुर से केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी, अरुणाचल वेस्ट से किरण रिजिजू, गौतमबुद्ध नगर से केंद्रीय मंत्री महेश वर्मा, गाजियाबाद से मंत्री वीके सिंह, हैदराबाद से AIMIM के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी, नैनीताल उधमसिंह नगर से पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, हरिद्वार से पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक, कालियाबोर असम से गौरव गोगोई, जमुई से रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान, मुजफ्फरनगर से राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजीत सिंह और बागपत से उनके बेटे जयंत चौधरी मौदान में हैं।

पहले चरण में सबकी नजरें पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर लगी हुई है। यहां बाजी किसके हिस्से में होगी ये जाट, गुर्जर और मुस्लिम मतदाता तय करेंगे। फिलहाल पहले चरण के मतदान के साथ ही भारत के अगले प्रधानमंत्री की दौड़ शुरू हो गई है।

BJP को वोट मत देना, लिखकर किसान ने किया सुसाइड

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हरिद्वार के लक्सर में एक किसान ने कर्ज़ के दबाव में आकर आत्महत्या कर ली. पुलिस ने इस मामले में बैंक के एजेंट को गिरफ्तार किया है. लेकिन इस घटना ने राजनीतिक तूल इसलिए पकड़ लिया है क्योंकि किसान के पास से एक सुसाइड नोट बरामद हुआ है, जिसमें बीजेपी को वोट ना देने की बात लिखी हुई है.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, हरिद्वार के लक्सर में किसान ईश्वरचंद शर्मा ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली थी. किसान ने सुसाइड नोट में यह आरोप लगाया है कि लोन एजेंट अजित सिंह (राठी) ने उसे बैंक से लोन दिलवाने का दावा किया था. लोन दिलवाने के पहले एजेंट ने बैंक गारंटी के तौर पर किसान से ब्लैंक चेक ले लिया था. जैसे ही किसान के नाम पर लोन मिला वैसे ही एजेंट ने चेक से सारी रकम निकाल ली. जब यह बात किसान को पता लगी तो उसने सल्फास खाकर आत्महत्या कर ली.

किसान ने एक सुसाइड नोट भी अपने साथ छोड़ा है. इसमें लिखा गया है कि, ” पांच साल में भाजपा सरकार ने किसान को खत्म व नष्ट कर दिया है. इसे वोट मत देना वरना ये आपको चाय ही बिकवा देगी. पांच साल में हर काम बंद हो गया. भाजपा सरकार ने किसान को खत्म किया है. आज भाजपा से किसान दुखी हैं.”

इसके अलावा किसान ने अपने सुसाइड नोट में बैंक एजेंट अजित सिंह का नाम भी लिखा है. किसान ईश्वरचंद ने आरोप लगाया है कि कृषि कार्ड से 2012, 2013 और 2014 में एजेंट ने फर्जी तरीके से उसके नाम पर कई बैंकों से लाखों रुपये कर्ज लिया. उन्हें इस कर्ज से एक पैसा भी नहीं मिला. बल्कि उनके बेटे पर गलत आरोप लगाए गए.

फिलहाल पुलिस ने ईश्वरचंद के बेटे की शिकायत पर एजेंट अजित सिंह के ख़िलाफ़ धारा 306 के तहत केस दर्ज कर लिया है. पुलिस मामले की जांच कर रही है.

  • साभार आजतक

दलित दस्तक मैग्जीन का अप्रैल 2019 अंक ऑन लाइन पढ़िए

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दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2018 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए सांतवें साल का ग्यारहवां अंक लेकर आए हैं. अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है.

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फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ पर चला चुनाव आयोग का डंडा

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नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बायोपिक फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ को लेकर चुनाव आयोग ने एक बड़ा फैसला लिया है. चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बायोपिक फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ पर रोक लगा दी है. चुनाव आयोग ने कहा कि है कि जब तक लोकसभा चुनाव खत्म नहीं हो जाते, तब तक इस फिल्म पर रोक लगी रहेगी. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बायोपिक ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ की रिलीज पर रोक लगाने की मांग करने वाली याचिका को मंगलवार को खारिज कर दिया था. अदालत ने कहा था कि याचिकाकर्ता की चिंता का हल करने के लिए उचित संस्था निर्वाचन आयोग है, क्योंकि यह एक संवैधानिक निकाय है.

इसके बाद फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ की टीम ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने की मांग करने वाली याचिका को खारिज किए जाने पर न्यायपालिका के प्रति आभार जताया. अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता की चिंता का हल करने के लिए उचित संस्था निर्वाचन आयोग है जो कि एक संवैधानिक निकाय है. चुनाव आयोग को ही यह तय करना चाहिए कि आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर फिल्म की रिलीज चुनाव के दौरान किसी विशेष राजनीतिक पार्टी को फायदा या उसके लिए झुकाव तो पैदा नहीं करती. फिल्म में पीएम मोदी का किरदार निभा रहे अभिनेता विवेक ओबेरॉय ने सुप्रीम कोर्ट के रुख की सराहना की.

इससे पहले भी खबर थी कि चुनाव आयोग द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन पर बनी बायोपिक फिल्म की रिलीज को रोके जाने की संभावना नहीं है और इस मुद्दे को सीबीएफसी के विवेक पर छोड़ा जा सकता है. कांग्रेस सहित विपक्षी दलों का दावा था कि फिल्म चुनाव में भाजपा को अनुचित लाभ देगी और चुनाव समाप्त होने तक इसके रिलीज को टाल दिया जाना चाहिए. सात-चरण में होने वाले लोकसभा चुनाव 11 अप्रैल से शुरू होने हैं और 19 मई को समाप्त होंगे.

10 मार्च को चुनाव की घोषणा के साथ आदर्श आचार संहिता लागू हो गया था. संहिता सभी दलों और उम्मीदवारों को एक समान धरातल उपलब्ध कराने पर बल देती है. आयोग में एक राय है कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड मामले पर निर्णय लेने का सक्षम प्राधिकारण है. फिल्म ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ पहले चरण के मतदान की तारीख से एक सप्ताह पहले 5 अप्रैल को रिलीज होने वाली थी.

इसे भी पढ़ें-राफेल मामले में मोदी को सु्प्रीम कोर्ट का झटका

बुद्ध को मानने वाले देश में एक अनुभव

अपने देश पर गर्व करते हों तो गर्व करने के लिए और अपने देश पर गर्व करवाने के लिए अपने कर्तव्य को भी मानो और उसे निभाओ. आपके देश का नाम पूरी दुनियाँ जाने और कहे कि उस देश के नागरिक अतिथि की मदद करते हैं और अपने देश की शान ऊँची रखते हैं. ऐसे करने में हर नागरिक की भूमिका होती है. एक अनुभव आपके साथ साँझा कर रही हूँ. जापान का ये ओसाका शहर है जिसकी दूरी फ़्लाइट से एक घंटा पैंतीस मिनट्स में तय होती है टोक्यो से. यहाँ के लोग अपनी भाषा जापानी में ही बात करते है. आम लोगों में यहाँ इंग्लिश का चलन न के बराबर है. जैसे ही मैं एर्पॉर्ट से बाहर आयी तो मैंने किसी को मेरे होटेल का पता पूछा कि कैसे पहुँचा जाये.
उन्होंने बताया की ट्रेन या बस लीजिए. ट्रेन के तीन स्टॉप थे और बस का एक तो मैंने Texi लेने के बारे में पूछा तो उसने बताया की Texi इक्स्पेन्सिव है यहाँ. सुनते हुए मेरा ध्यान अपने समान और बताये हुए रास्ते से बस और मेट्रो बदलना चिंता का विषय था फिर भी मुझे लगा कि देखा जाएगा जो होगा. आज तो पूछते हुए ही पहुँचते है. मैंने उनसे पूछा कि बस कहाँ मिलेगी. वह स्वयं मुझे बस स्टॉप तक छोड़ने आया. ऐसी मेहमान नवाजी देखकर मन बाग़ बाग़ हो गया. भारत और जापान के बारे में भी बात की. फिर एक बात कहाँ छुटती. वो थी सेल्फ़ी लेना. झट ली. पहली तस्वीर में Katsutaka जी के साथ.
बस में बैठे तो पता चला कि ये बस होटेल तक नहीं जाएगी. ड्राइवर ने अपने फ़ोन से ऐड्रेस खोजा और बताया कि ये बस ओसाका स्टेशन तक जाएगी फिर वहाँ से दूसर रूट लेना होगा. उन्होंने मुझे रास्ते तक छोड़ा और फिर मुझे तय करना था कि कौन सा ऑप्शन लूँ. रास्ते की जानकारी तो थी नहीं तो मैंने फिर पूछ लिया. जिनसे पूछा वे ग्रूप में थे तीन लड़कियाँ और एक लड़का. उन लोग ने केवल Texi का रास्ता बताया बल्कि 10 minutes की वॉकिंग के साथ मुझे Texi स्टैंड तक लाये. फिर Texi वाले को समझकर मुझे Texi में बैठाया. इतना अपनापन एक अजनबी के साथ मैंने ज़िंदगी में पहली बार देखा.
इतने देशों की यात्रा के अनुभव के साथ इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि ये शायद बुद्ध की देशना हैं. मैं अपने तय स्थान पर पहुँची तो Texi वाले ने न केवल मेरा सामान उतारा बल्कि बुकिंग तक वही खड़ा रहा. और सबसे ज़्यादा कमाल की बात जिसके लिए इस पोस्ट को लिख रही हूँ कि उन्हें मुझसे पैसे लेने से मना कर दिया. मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि एक व्यक्ति अपने पेशे में भी इतना humble और नैतिक हो सकता है. मैंने पूछा तो उनका एक ही जवाब था कि उसने ये सर्विस की है. अवाक हूँ कि आज भी ऐसे व्यक्ति मिलते हैं. और भी विस्तार से लिखूँगी. अभी के लिए इतना ही
 डॉ. कौशल पंवार के फेसबुक वॉल से 

राफेल मामले में मोदी को सु्प्रीम कोर्ट का झटका

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नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के ठीक एक दिन पहले भाजपा और पीएम मोदी को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा झटका दिया है. सुप्रीम कोर्ट राफेल मामले पर सुनवाई करते हुए इस मामले की दुबारा सुनवाई के लिए तैयार हो गया है. इससे जहां भाजपा को झटका लगा है तो कांग्रेस को पीएम मोदी को घेरने का एक और बहाना मिल गया है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी राफेल के मुद्दे पर भाजपा पर लगातार हमलावर हैं.

 राफेल मामले पर बुधवार को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की दलीलों को खारिज कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने रक्षा मंत्रालय से लीक हुए दस्तावेजों की वैधता को मंजूरी दे दी है. कोर्ट के फैसले के मुताबिक याचिकाकर्ता के दिए दस्तावेज अब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के हिस्सा होंगे. शीर्ष न्यायालय का फैसला आने के बाद राफेल मामले पर सुप्रीम कोर्ट के दोबारा सुनवाई के फैसले से एक तरफ जहां बीजेपी को झटका लगा है, वहीं कांग्रेस के लिए राहत की खबर है. राफेल माले पर सुप्रीम कोर्ट के दोबारा सुनवाई के फैसले के बाद भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में राफेल मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ कर रही है.

66 पूर्व नौकरशाहों ने आचार संहिता उल्लंघन मामले में लिखा राष्ट्रपति को पत्र

electionनई दिल्ली। क्या हो जब देश के पूर्व नौकरशाहों को नियम और कानून बचाने के लिए सामने आना पड़े और इसके लिए राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखनी पड़े. जी हां, देश के 66 पूर्व नौकरशाहों ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन का मामला उठाया है और इसको रोकने के लिए गुहार लगाई है. साथ ही आगामी लोकसभा चुनाव को निष्पक्ष तरीके से उठाने की मांग की है. अपने पत्र में पूर्व नौकरशाहों ने चुनाव आयोग की भूमिका पर भी सवाल उठाया है.

File Photo: Courtesy PTI

राष्ट्रपति कोविंद को पत्र लिखने वालों में पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन, दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पंजाब के पूर्व डीजीपी जुलियो रिबेरो, प्रसार भारती के पूर्व सीईओ जवाहर सरकार और ट्राई के पूर्व चेयरमैन राजीव खुल्लर जैसे पूर्व नौकरशाह शामिल हैं. नौकरशाहों की ओर से लिखे पत्र में कहा गया है कि सत्तारूढ़ दल और केंद्र सरकार अपने रुतबे का दुरुपयोग मनमाने ढंग से करते हुए आचार संहिता की धज्जियां उड़ा रहे हैं. उनके ऐसे मनमाने कामकाज से साफ है कि चुनाव आयोग के प्रति भी उनके मन में कोई सम्मान नहीं है.

अपनी चिट्ठी में चुनाव आयोग की शिकायत करते हुए नौकरशाहों ने अपने पत्र में ‘ऑपरेशन शक्ति’ के दौरान एंटी सैटेलाइट मिसाइल के सफल परीक्षण के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के नाम संबोधन, नरेंद्र मोदी पर बनी बायोपिक फिल्म, वेब सीरीज और बीजेपी के कई नेताओं के आपत्तिजनक भाषणों का जिक्र भी किया गया है. जिन पर चुनाव आयोग को की गई शिकायत के बावजूद महज दिखावे की ही कार्रवाई हुई. गौरतलब है कि राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखने से पहले पूर्व नौकरशाहों ने चुनाव आयोग को भी पत्र लिखकर अपनी चिंता से अवगत कराया था.

   

गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में सामाजिक न्याय सप्ताह का आयोजन

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गांधीनगर। गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय गांधीनगर में बिरसा आम्बेडकर फुले छात्र संगठन (BAPSA-CUG) के द्वारा विश्वविद्यालयमें “सामाजिक न्याय सप्ताह” का आयोजन किया जा रहा है. यह कार्यक्रम 9 अप्रैल से 15 अप्रैल तक चलेगा. कार्यक्रम में बहुजन नायकों के सामाजिक न्याय संबंधी विचार पर विभिन्न कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार की गई है. कार्यक्रम के पहले दिन मान्यवर कांशीराम पर बनी फिल्म “द ग्रेट लीडर कांशीराम” का प्रदर्शन किया गया.

इस दौरान होने वाले अन्य कार्यक्रमों में 10 अप्रैल को व्हिसल ब्लोवर थियेटर ग्रुप द्वारा “उर्फे आलो” नाटक का आयोजन किया जाएगा जो मुख्य रूप से सफाई कामगारों के दयनीय जीवन पर आधारित है. कार्यक्रम में तीसरे दिन 11 अप्रैल को राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले के जन्मदिवस के मौके पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एन. सुकुमार ज्योतिबा फुले-आम्बेडकर और उनके सामाजिक न्याय पर अपनी बात रखेंगे. जबकि 12 अप्रैल को महिलाओं और आदिवासियों के सामाजिक न्याय को लेकर एक खुली परिचर्चा का भी आयोजन किया गया है, जिसमें गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और छात्र आपस में परिचर्चा करेंगे.

13 अप्रैल को बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की जयंती समारोह मनाया जाएगा जिसमें डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय औरंगाबाद, महाराष्ट्र के राजश्री शाहू महाराज अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. उमेश आर. बागडे होंगे जो ज्योतिबा फुले के शिक्षावादी सिद्धांत और उसके महत्व पर बात करेंगे साथ ही गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थी आकाश कुमार रावत ओबीसी आरक्षण से संबंधित मंडल कमिशन सिफारिश की पुर्नवलोकन पर बात करेंगे. 14 अप्रैल को बाबासाहेब के जन्मदिवस पर ‘एक शाम संविधान के नाम’ विष्य पर गीत-संगीत का कार्यक्रम तथा छात्रों द्वारा ‘संविधान बचाओ’ नामक नाटक का मंचन किया जाएगा. कार्यक्रम के अंतिम दिन 15 अप्रैल को मौलाना असीम बिहारी के जन्म जयंती के उपलक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली के शोधार्थी जुबैर आलम अपने व्याख्यान में ‘सामाजिक न्याय और पसमांदा मुस्लिम’ पर बात करेंगे.

  • रिपोर्टः संतोष बंजारे

बसपा ने यूपी के पांच और सीटों के लिए प्रत्याशी घोषित किया

नई दिल्ली। बहुजन समाज पार्टी ने एक प्रेस रिलिज जारी कर अपने पांच उम्मीदवारों के नाम की घोषणा की है.  इसमें धौरहरा से अरसद अहमद सिद्दीकी, सीतापुर से नकुल दुबे, मोहनलालगंज (सुरक्षित) सीट से सी.एल. वर्मा, फतेहपुर से सुखदेव प्रसाद, कैसरगंज से चन्द्रदेव राम यादव को टिकट दिया गया है. इसके साथ ही इन सीटों पर विभिन्न नामों को लेकर चल रही अटकलें समाप्त हो गई है. गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव को लेकर पहले चरण का मतदान 11 अप्रैल को होगा.  

भाजपा का चुनावी घोषणा पत्र जारी, मध्यम वर्ग, राम और राष्ट्रवाद के जरिए दुबारा सत्ता में आने की तैयारी

पार्टी का घोषणा पत्र जारी करते भाजपा नेता

नई दिल्ली। अपने पिछले कई बार के इतिहास की तरह भारतीय जनता पार्टी ने इस बार भी कांग्रेस का घोषणापत्र जारी होने के कुछ दिन बाद अपना घोषणा पत्र सोमवार 8 अप्रैल को जारी कर दिया. घोषणा पत्र में भाजपा की नजर मध्यम वर्ग पर है, तो वहीं पार्टी राम और राष्ट्रवाद के जरिए पार्टी एक बार फिर सत्ता में आने का मौका मांग रही है. बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया है कि 2019 में सरकार के आने पर वह इनकम टैक्स के स्लैब में बदलाव करेगी. ऐसी घोषणा कर पार्टी ने मध्यम वर्ग को अपने पाले में खिंचने की कोशिश की है. घोषणा पत्र का नाम भाजपा ने संकल्प पत्र रखा है.

 कांग्रेस के घोषणा पत्र जारी करने के बाद भी भाजपा के बड़े नेताओं ने कहा था कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में मध्यम वर्ग की अनदेखी की गई है. मध्यम वर्ग के अलावा भाजपा एक बार फिर अपने पसंदीदा एजेंडे राम मंदिर और राष्ट्रवाद को सामने लेकर आई है. घोषणा पत्र में कहा गया है कि राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता है और आतंकवाद के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस की नीति है. जब तक आतंकवाद समाप्त नहीं होगा यह नीति जारी रहेगी. वहीं राम मंदिर पर सभी संभावनाओं की तलाश करने की बात कही गई है और जल्द-से-जल्द सौहार्दपूर्ण वातावरण में मंदिर निर्माण की कोशिश की जाएगी.  घोषणा पत्र जारी करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को सभी क्षेत्रों में मजबूत बनाने में ‘राष्ट्रवाद हमारी प्रेरणा, अन्त्योदय दर्शन और सुशासन मंत्र’ की तरह है.

पांच साल में ऐसे बदल गया भाजपा का कवर पेज, सभी गायब सिर्फ मोदी छाए

हालांकि इस दौरान पूरे कार्यक्रम के केंद्र में मोदी और अमित शाह रहे. घोषणा पत्र जारी करने के दौरान मंच पर मोदी और अमित शाह के साथ सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह के अलावा थावर चंद गहलोत और एक अन्य नेता मौजूद थे. एक और तो देखने को मिली, उसमें साल 2014 के घोषणा पत्र में जहां कवर पेज पर अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली आदि नेताओं की भी तस्वीर थी तो इस पर कवर पेज पर सिर्फ मोदी ही छाए रहे.