नई दिल्ली। वैसे तो पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में शुरू हुआ, ऐसा कहा जाता है. लेकिन जानकारों का यह भी कहना है कि उससे पहले 1855 में ही झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी थी और इसमें हमारे बीस हजार से अधिक आदिवासी क्रांतिकारी मारे गए थे. इस याद में हम हर साल हूल दिवस को मनाते हैं.
देश आज इनके शहादत याद कर रहा है.
30 जून, 1855 को 400 गांवों के करीब 50 हजार आदिवासी भगनाडीह गांव पहुंचे और आंदोलन की शुरुआत हुई. इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे. इसके बाद अंग्रेजों ने सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव- इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया. जिस दरोगा को चारों भाइयों को गिरफ्तार करने के लिए वहां भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी. इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय पैदा हो गया था.
आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया. आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने पुरस्कारों की भी घोषणा की थी. बहराइच में अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए. प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ रूलर बंगाल’ में लिखा है, ‘संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे.’ जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा. इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दी थी। सिद्धू और कान्हू के करीबी साथियों को पैसे का लालच देकर दोनों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई.
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शत शत नमन जिस आदिवासियों ने आज़ादी के लिए शहादत दी लेकिन ब्राह्मण साहित्यकारों ने षणयंत्र के तहित लिखा नहीं बहुजन समाज के लोगों को सावधान रहने की क्यो है जरूरत….