Monday, February 3, 2025
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संवैधानिक मूल्यों के प्रति कितने सजग है हम!

किसी भी आजाद देश की जनता के गरिमापूर्ण जीवन और विकास का मूल आधार उस देश का संविधान होता है। ठीक ऐसे ही हमारे देश का संविधान है। हमारे संविधान का मूल प्रस्तावना है। प्रस्तावना इसलिए मूल है क्योंकि, इसमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता जैसे वे विभिन्न मूल्य वर्णित है। जिनकी झलक संविधान के विभिन्न भागों में दिखाई देती है। मगर हकीकत में संवैधानिक मूल्यों की धरातल पर क्या स्थिति है और हम इनके प्रति कितने सजग हैं? इसका एक अनुभव हमारे साथ मध्यप्रदेश के सागर जिले के कुछ छात्र साझा करते हैं।

एलएलबी (लॉ) के छात्र दीनदयाल अपने विचार ऐसे रखते हैं, देश जब आजाद हुया, और संविधान लागू हुआ। तब बहुत विकट परिस्थितियाँ थी। शिक्षा का बहुत अभाव था। जब व्यक्ति शिक्षित नहीं हो पाएगा, तो संवैधानिक मूल्यों को कैसे समझेगा। जैसे-जैसे शिक्षण संस्थाएं मजबूत हुई। संविधान और संवैधानिक मूल्यों के प्रति थोड़ी सी समझ आयी। तब सामाजिक तानों-वानों, कुप्रथाओं से लोग उभरने लगे। लेकिन, लोगों के मन से आज भी ऊच-नीच की भावनाएं नहीं गई है। जैसे, मैंने देखा है कि, अनुसूचित जाति में आने वाली विभिन्न जातियों के लोग एक दूसरे से छुआछूत मानते हैं। गाँव में, आज भी ये हालत है कि, ऊंची जाति के लोग नीची जाती के लोगों से जबरन मजदूरी करवाते हैं। ऐसे में बंधुआ मजदूरी जैसे स्थिति सामने आती है। ऐसे में लोगों के स्वतंत्रता जैसे संवैधानिक मूल्य का हनन होता है।

आगे कपिल हमें बताते हैं कि, मैने देखा और अनुभव किया है कि, शैक्षिणिक संस्थाएं बंधुता और एकता का सूत्रपात्र हैं। लेकिन, वहाँ पहुचकर भी छोटे-छोटे बच्चों के दिमाग में यह विराजा हुआ है कि, मैं ऊंची जाति का हूँ और वो नीची जाति का है, इसलिए हम नीची जाति के बच्चे के साथ अपना खाना साझा नहीं कर सकते हैं। ऐसे में यहाँ बंधुता जैसा संवैधानिक मूल्य प्रभावित होता है।

जब हम वीरू बात करते हैं, तब उनका अंदाज यूं होता है, राशन की दुकानों से लेकर बैंक तक हमें संवैधानिक मूल्यों का हनन नजर आता है।

वीरू का कहना है कि, जब हम कहीं सार्वजनिक कतारों में लगते है, तब हमें देखते हैं कि, जिसका आर्थिक दबदबा ज्यादा होता है उनकी कहानी ये होती है वो जहां से खड़े हो जाएं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है। ऐसे में हमारे अवसर की समानता जैसा संवैधानिक मूल्य दिखाई नहीं देता है।

फिर, इसके बाद सुनील अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि, मैने अपनी मध्यप्रदेश पब्लिक सर्विस कमिशन (mppsc) की सरकारी कोचिंग के दौरान अनुभव किया कि, बारहवीं क्लास के स्तर (योग्यता से कम) का टीचर (mppsc) की कोचिंग पड़ाता था। स्टूडेंट्स द्वारा उच्च शिक्षाधिकारी को शिकायत करने पर भी टीचर का फेरबदल नहीं किया गया। ऐसे में हमें लगता है की हमारे शिक्षा के अधिकार और न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य का हनन हुआ है।

जब हमने संवैधानिक मूल्यों को लेकर सोनू से बातचीत की तब सोनू बताते है कि, ग्रामीण स्तर पर संवैधानिक मूल्यों की काफी अनदेखी नजर आती है। मेरा तजुर्बा रहा है कि, गाँव में जब कोई धार्मिक आयोजन, मंदिर निर्माण होता है, तब चंदा गाँव के सभी लोगों से बिना भेदभाव के उगाया जाता है। लेकिन जब धार्मिक आयोजनों का भंडारा होता है तब वहाँ ऊंच-नीच, छुआछूत सब दिखाई देने लगता है। इस हाल में लोगों के समानता जैसे संवैधानिक मूल्य को चोट पहुचती है। व्यक्ति की गरिमा पर भी असर पड़ता है।

वहीं, प्रेम का मानना हैं कि, संविधान पड़ाने के लिए प्राथमिक शिक्षा से ही एक टीचर स्कूलों में होना चाहिए। तब सही मायनों में संवैधानिक मूल्यों की जड़े समाज में जमीनी स्तर तक पहुंचेगी। प्रेम हमें आप बीती बताते हैं, वह कहते हैं, मैने एक प्राइवेट नौकरी के दौरान देखा कि मेरे सहपाठी मेरे साथ शारीरिक रूप से भेदभाव नहीं करते थे, लेकिन मानसिक तौर पर मेरे प्रति भेदभाव पूर्ण नजरिया रखते थे। जिससे मेरा कार्य प्रभावित होता था। ऐसे में, मुझे आखिरकार अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। क्या प्रेम की यह आप बीती न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य पर संकट की ओर इशारा नहीं करती?

संवैधानिक मूल्य वास्तव में कहा जाय तो नैतिक मूल्यों के रूप में हैं। हमारी नैतिकता जितनी मजबूत होगी, उतना ही हम अपने संवैधानिक मूल्यों को पुख्ता बना सकते हैं। इसलिए आज हमें नैतिक शिक्षा की अत्यंत दरकार भी है। इसके अलावा हम सब का दायित्व भी है कि, हम संवैधानिक मूल्यों के प्रति जनमानस जागरूकता में इजाफा करें। जब हमारे देश में संवैधानिक मूल्यों का फैलाव धरातलीय स्तर तक होगा।, तब सही मायनों में देश प्रेम की भावनाओं का संचार व्यापक होगा और हमारे भारत में एकतत्व का सूत्रपात्र होगा।

(सतीश भारतीय एक स्वतंत्र‌ पत्रकार और विकास संवाद परिषद में संविधान फैलो है।)

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