अटल बिहारी वाजपेयी का लंबी बीमारी के बाद 16 अगस्त को निधन हो गया. कहा जा रहा है कि उनके साथ एक युग का अंत हो गया. इसकी वजह शायद यह है कि अटल जी आज के दौर के इकलौते व्यक्ति थे, जिनके साथ उस दौर के तमाम नेताओं और पत्रकारों का अपना कोई न कोई किस्सा जुड़ा है. वाजपेयी के गुजर जाने के बाद तमाम लोग उन बातों का भी जिक्र कर रहे हैं जिससे एक बड़े समाज को धक्का लगा था.
बहुजन समाज के एक बड़े हिस्से और सवर्ण बुद्धिजीवियों के बीच अटल जी को लेकर सोशल मीडिया पर वैचारिक बहस भी छिड़ गई.
अटलजी को याद करते हुए बहुजन समाज कई ऐसी बातों का जिक्र कर रहा है, जिससे सवर्ण समाज गुस्से में है. मसलन, वाजपेयी ने अपने शासन में पेंशन योजना को खत्म कर दिया, जिसका खामियाजा देश के नौकरीपेशा मध्यम वर्ग को आज तक भुगतना पर रहा है. अटल जी के शासन में ही सरकारी कंपनियों को धड़ाधड़ बेचा गया. तो ऐसे ही उनके शासनकाल में संविधान समीक्षा की कोशिश भी की गई थी, जिसकी वजह से देश का एक बड़ा समाज उनका विरोधी रहा. मंडल कमीशन के खिलाफ निकाली गई सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा को भी हरी झंडी वाजपेयी जी ने ही दिखाई. इस यात्रा के रास्ते में हुए दंगों में कई लोगों की जान चली गई थी. गुजरात के दंगों के समय भी वाजपेयी ही प्रधानमंत्री थे, लेकिन उन्होंने मोदी के खिलाफ कोई भी कठोर निर्णय नहीं लिया. कहा जाता है कि उन्हें मना लिया गया, लेकिन यह सवाल अब भी कायम है कि आखिर वो मान कैसे गए. अयोध्या की कहानी अलग है.
परमाणु विस्फोट को अटलजी ने “बुद्ध मुस्कुराए” कहा. चूंकि बुद्ध शांति के अग्रदूत हैं और दुनिया भर में माने जाते हैं. परमाणु विस्फोट जैसी घटना से बुद्ध का नाम जोड़ने से बौद्ध मत को मानने वाले तमाम देशों के लोगों ने वाजपेयी के इस कथन को गलत बताया था.
लेकिन इस सबके अलावा भी अटल जी से जुड़े कई किस्से हैं. हम आपको ऐसे ही चुनिंदा किस्से सुना रहे हैं, जिससे आप अटल जी के व्यक्तित्व के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं.
Ø बात 1984-1989 के दौर की है जब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और अटल बिहारी वाजपेयी किडनी संबंधी बीमारी से जूझ रहे थे. तब भारत में इस बीमारी के लिए उत्तम चिकित्सा व्यस्था उपलब्ध न थी. और आर्थिक वजहों से वाजपेयी अमेरिका जा पाने में सक्षम नहीं थे.
यह बात राजीव गांधी तक पहुंची. एक दिन राजीव गांधी ने उन्हें अपने दफ्तर में बुलाया और कहा कि उन्हें भारत की तरफ से एक प्रतिनिधिमंडल के साथ संयुक्त राष्ट्र भेजा जा रहा है. राजीव गांधी ने वाजपेयी से कहा कि उन्हें उम्मीद है कि इस मौके का लाभ लेते हुए वे न्यूयॉर्क में अपना इलाज भी करवा लेंगे. इस तरह वाजपेयी न्यूयॉर्क गए और उनका इलाज हो सका. जब तक राजीव गांधी जिंदा रहे दोनों में से किसी ने इस बात को सार्वजनिक नहीं किया. बाद में राजीव गांधी की मौत पर प्रतिक्रिया देते हुए अटल जी ने खुद इस बात का जिक्र किया था कि वे जिंदा हैं तो सिर्फ राजीव गांधी की वजह से.
Ø जब अटलजी पहली बार सांसद बने थे तो वह वक्त सांसदों की ऐश का वक्त नहीं था. सुविधाएं भी काफी कम थी. भाजपा नेता जगदीश प्रसाद माथुर और अटलजी दोनों एक साथ चांदनी चौक में रहते थे. दोनों साथ-साथ पैदल ही संसद जाते-आते थे. छह महीने बाद अटलजी ने रिक्शे से चलने को कहा तो माथुरजी को आश्चर्य हुआ. असल में उस दिन उन्हें बतौर सांसद छह महीने की तनख्वाह एक साथ मिली थी. अटलजी के लिए यही उनकी ऐश थी.
Ø चुनाव हारने के बाद अटलजी फिल्म देखने चले जाते थे. लालकृष्ण आडवाणी ने एकबार एक किस्सा सुनाया था. उसके मुताबिक, दिल्ली में नयाबांस का उपचुनाव था. हमने बड़ी मेहनत की, लेकिन हम हार गए. हम दोनों खिन्न थे. दुखी थे. अटलजी ने मुझसे कहा कि चलो, कहीं सिनेमा देख आएं. अजमेरी गेट में हमारा कार्यालय था और पास ही पहाड़गंज में थिएटर. नहीं मालूम था कि कौन-सी फिल्म लगी है. पहुंचकर देखा तो राज कपूर की फिल्म थी- ‘फिर सुबह होगी’. मैंने अटलजी से कहा, ‘आज हम हारे हैं, लेकिन आप देखिएगा सुबह जरूर होगी.’
Ø वाजपेयी भी नेहरू जी की काफी इज्जत करते थे. 1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभालने साउथ ब्लॉक के अपने दफ़्तर गए तो उन्होंने नोट किया कि दीवार पर लगा नेहरू का एक चित्र ग़ायब है. वाजपेयी ने तुरंत अपने सचिव से पूछा कि नेहरू का चित्र कहां है, जो यहां लगा रहता था. वाजपेयी ने आदेश दिया कि उस चित्र को वापस लाकर उसी स्थान पर लगाया जाए जहां वह पहले लगा हुआ था.
Ø जब अटल बिहारी वाजपेयी संसद पहुंचे और धीरे-धीरे उनकी सक्रियता बढ़ती रही तो कहा जाने लगा था कि हिन्दी में वाजपेयी से अच्छा वक्ता कोई नहीं है. वाजपेयी जब लोकसभा में बोलते तो हर कोई उनको ध्यान से सुनता था. नेहरू भी. किंगशुक नाग की वाजपेयी पर लिखे एक किताब के मुताबिक एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था, “इनसे मिलिए. ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं. हमेशा मेरी आलोचना करते हैं लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूँ.” तो वहीं एक बार एक दूसरे विदेशी मेहमान से नेहरू ने वाजपेयी का परिचय संभावित भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी कराया था.
Ø बात 1996 की है. वाजपेयी ने पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी. तब नरसिम्हा राव ने चुपके से वाजपेयी के हाथ में एक पर्ची पकड़ाई. इस तरह कि कोई देख न पाए. इस पर्ची में राव ने वे तमाम बिंदु लिखे थे जो वह खुद बतौर प्रधानमंत्री करना चाहते थे, किंतु चाहकर भी न कर पाए. आज के दौर में इस तरह की राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती.
Ø अटल जी ने हमेशा पत्रकारों और आलोचकों को संबल दिया. वह आलोचनाओं से घबराते नहीं थे, बल्कि उसका स्वागत करते थे. आज के दौर में जिस तरह मीडिया पर लगातार पाबंदियां लगाई जा रही है, अटल जी के समय ऐसा नहीं था. उन्होंने अपने खिलाफ या सरकार के खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों को कभी रोका-टोका नहीं, बल्कि उनकी हौंसला अफजाई की. अटल जी को अपना गुरू बताने वाले वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उनसे यह बात सिखनी चाहिए.
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विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।