एससी-एसटी एक्ट में बदलाव के विरोध में दो अप्रैल को दलित समाज के लोग जब सड़क पर उतरे थे तो किसी को भी यकीन नहीं था कि विरोध इतना बड़ा होगा. उस दिन जिस तरह बिना किसी संगठन या राजनीतिक दल के बुलावे के लोग अपने अधिकार को बचाने सड़क पर निकले थे, उसने दलित राजनीति की दिशा बदल कर रख दी थी. 2 अप्रैल के बंद में अगर राजनीतिक दलों की भूमिका की बात करें तो इस बंद को सिर्फ बहुजन समाज पार्टी ने अपना समर्थन दिया था, वो भी आखिरी वक्त में. तमाम दल और तमाम दलित नेता इस बंद का राजनीतिक फायदा उठाने से चूक गए थे. ऐसे में दलित राजनीति के उभार और 2019 के लोकसभा चुनाव और उससे पहले राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ चुनाव में दलित वोटरों का समर्थन हासिल करने की होड़ में एक बार फिर 9 अगस्त को बंद बुलाया गया है.
इस बंद को लेकर अखिल भारतीय अम्बेडकर महासभा का नाम आ रहा है और मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इसी बैनर तले यह बंद बुलाया गया है. राजनीतिक दलों की बात करें तो 9 अगस्त के बंद को लेकर रामविलास पासवान भी सक्रिय हैं. तो दूसरी ओर नई नवेली जनसम्मान पार्टी के अध्यक्ष और नैक्डोर के पूर्व अध्यक्ष अशोक भारती भी बंद को लेकर लगातार लोगों को संगठित करने में जुटे हैं.
हालांकि इस बंद को लेकर दलित समाज के भीतर ही ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है. सोशल मीडिया खंगालने पर यह साफ नजर आ रहा है कि तमाम लोग इस बंद में शामिल होने से बचने को कह रहे हैं और दलित नेताओं पर सवाल उठा रहे हैं. एक बड़ा धड़ा इस सवाल को उठा रहा है कि अगर एससी/एसटी सांसद सच में एससी/एसटी एक्ट में बदलाव के खिलाफ हैं तो संसद के भीतर आवाज उठाएं. लोगों का कहना है कि समाज सड़क पर अपनी लड़ाई 2 अप्रैल को लड़ चुका है, अब सांसदों और नेताओं की बारी है और उन्हें संसद के अंदर लड़ाई लड़नी चाहिए. अभी संसद का मानसून सत्र चल रहा है ऐसे में दल की राजनीति से ऊपर उठकर एससी/एसटी वर्ग के सभी सांसद एकजुट होकर सरकार के खिलाफ आ जाएं, ऐसे में सरकार इसी सत्र में अध्यादेश लाकर संशोधन को वापस लेने के लिए बाध्य होगी.
एक दूसरा सवाल 2 अप्रैल के बंद के दौरान देश के कई हिस्सों, खासकर उत्तर प्रदेश में दलित समाज के युवाओं के गिरफ्तारी की है. उस आंदोलन के दौरान गिरफ्तार हुए तमाम युवा अब भी जेल में है. तमाम युवाओं पर कई बड़ी धाराएं लगाकर उनका भविष्य खराब करने की साजिश रची गई. मेरठ और हापुड़ में तो 15-17 उम्र के कई बच्चे भी गिरफ्तार हुए. लेकिन किसी भी राजनैतिक दल या किसी बड़े दलित संगठन ने उनकी रिहाई के लिए कोई बड़ा आंदोलन अब तक नहीं किया. ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या 9 अगस्त को दुबारा बंद बुलाने वाले लोगों को जेलों में बंद दलित समाज के उन युवाओं के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
इस बंद को भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर रावण की रिहाई से भी जोड़ा जा रहा है, लेकिन चंद्रशेखर रावण के जेल जाने से लेकर उस पर रासुका की अवधि बढ़ाने तक इस मुद्दे को लेकर राजनीति ज्यादा हुई है और इस मुद्दे को उठाने वाले लोग तमाम दावों के बावजूद जमीन पर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा करने में सफल नहीं हो पाए हैं. ऐसे में 9 अगस्त के बंद को आम जनता का कितना समर्थन मिलता है, यह देखना होगा.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।