नेहरू की जगह सरदार पटेल पी.एम. होते तो देश के हालात कुछ और होते। ये सवाल नेहरू या कांग्रेस से नाराज हर नेता या राजनीतिक दल खासकर संघी/ जनसंघी/ भाजपायी हमेशा उठाते रहे हैं। समय समय पर समाचार पत्र और पत्रिकाओं में भी इसकी चर्चा की जाती है। लेकिन इस सवाल को किसी ने कभी नहीं उठाया कि अगर नेहरू की जगह डॉ. आंबेडकर पी.एम. होते तो हालात कुछ और होते? यह सवाल न किसी राजनीतिक पार्टी ने उठाया और न तो समाचार पत्र /पत्रिकाओं में चर्चा का विषय बना। आजादी के कुछ वर्ष पूर्व गांधी ने कहा था कि आजादी के बाद वे देश के सर्वोच्च पद पर किसी हरिजन को देखना चाहते हैं । इसके बावजूद फिर भी डॉ. आंबेडकर पर चर्चा क्यों नहीं होती? आंबेडकर को या तो संविधान निर्माता या फिर दलितों के मसीहा के तौर पर कमोवेश हर राजनीतिक सत्ता ने देश के सामने पेश किया । ऐसे लोगों ने क्यों डॉक्टर अंबेडकर के राष्ट्रीय चरित्र, व्यक्तित्व और प्रतिभा को रिड्यूस (कमतर) करने का काम किया।
अगर इतिहास के पन्नों को पलटे कि आजादी से पहले या तुरंत बाद, देश के हालातों को लेकर डॉ. आंबेडकर तब क्या सोच रहे थे? क्यों आंबेडकर को राजनीतिक तौर पर उभारने की कोई कोशिश नहीं हुई? मौजूदा वक्त में भी बाबासाहेब आंबेडकर का नाम लेकर राजनीतिक सत्ता और राजनीतिज्ञ खूब प्रशंसा के पुल बांधते हैं। लेकिन यह कहने से बराबर बचते हैं कि अगर डॉ. आंबेडकर पी.एम. होते तो क्या होता? आईये, जरा डॉ. आंबेडकर के लेखन, आंबेडकर के कथन और आंबेडकर के अध्ययन को ही परख लें कि वह उस वक्त देश को लेकर क्या सोच रहे थे, जिस दौर में देश गढ़ा जा रहा था।
संविधान निर्माता की पहचान लिये आंबेडकर राइटिंगस और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 1216 के अनुसार 25 नवंबर 1949 को बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि ”26 जनवरी 1950 को हम अंतरविरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे लेकिन हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता का बोलबाला होगा। राजनीति में एक व्यक्ति : एक वोट और एक वोट : एक मूल्य का सिद्धांत होगा लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य को हम नकारते रहेंगे। हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को कब तक नकारते रहेंगे? हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? यदि हम लंबे समय तक इसे नकारते रहे तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। जितनी जल्दी हो सके हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिये। वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीडि़त है वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनीतिक लोकतंत्र के महल को ध्वस्त कर देंगे।”
सिर्फ संविधान देश में सामाजिक और आर्थिक समानता नहीं ला सकता है। संविधान में वर्णित सामाजिक और आर्थिक समानता को लाने की मुहिम चलानी होगी। इसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता है। डॉ. आंबेडकर असमानता के उस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे जिस सच से अभी भी राजनीतिक सत्ता आंखे मूंदे रहती है या फिर सत्ता पाने के लिये असमानता का जिक्र करती है।
संविधान के लक्ष्य और उद्देश्य के बारे में 17.12.1946 को नेहरू के प्रस्ताव भारत को “स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य” घोषित करने के बारे में बोलते हुए डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि “प्रस्ताव हालांकि यह कुछ अधिकारों का उल्लेख करता है लेकिन उपायों की बात नहीं करता है। हम सभी इस तथ्य से अवगत हैं कि अधिकार तब तक कुछ भी नहीं है जब तक की ऐसे उपाय न दिए जाएं जिनके माध्यम से लोग अधिकारों पर आक्रमण होने पर निवारण प्राप्त करने की मांग कर सकें।“
यानी जो व्यवस्था समानता की होनी चाहिये, वह नहीं है। इस बात की कुलबुलाहट आंबेडकर को उस दौर में इतनी ज्यादा थी कि 13 दिसंबर 1946 को जब जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया तो बिना देर किये आंबेडकर ने नेहरू के प्रस्ताव का विरोध किया। आंबेडकर राइटिंगस और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 8-9 में लिखा है कि आंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू पर भी कितना तीखा प्रहार किया। आंबेडकर ने कहा, “समाजवादी के रूप में इनकी जो ख्याति है उसे देखते हुये यह प्रस्ताव निराशाजनक है। मैं आशा करता था, कोई ऐसा प्रावधान होगा जिससे राज्यसत्ता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को यथार्थ रुप दे सके। उस नजरिए से मैं आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करे कि देश में सामाजिक-आर्थिक न्याय हो। इसके लिये उद्योग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा। जब तक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तबतक मैं नहीं समझता कि कोई भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है वह ऐसा कर सकेगी।”
डॉ. आंबेडकर उन हालातों को उसी दौर में बता रहे थे जिस दौर में कांग्रेस सत्ता के लिये बेचैन थी। बीते 75 बरस में हर नई राजनीतिक सत्ता पूर्व की सरकारों को लेकर यही सवाल खड़ा करते सत्ता पाती रही है। फिर सामाजिक – आर्थिक असमानता तले उन्हीं हालातों में काम करती रहती है। आंबेडकर राइटिंगस और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 60 में डॉ. आंबेडकर ने 4 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि “संविधान के स्वरूप को बदले बिना, केवल प्रशासन के स्वरूप को बदलकर उसे असंगत और संविधान की भावना के विरुद्ध बनाना पूरी तरह संभव है।” आज आंबेडकर की यह भविष्यवाणी सत्य साबित होती जा रही है।
9 साल पहले संसद में संविधान दिवस मनाये जाने के दौर को भी याद किया जा सकता है, जब 26 नवंबर 2015 को संविधान दिवस मनाते मनाते कांग्रेस हो या बीजेपी या अन्य सत्ताधारी, सभी ने एक सुर में माना कि आंबेडकर जिन सवालों को संविधान लागू होने से पहले उठा रहे थे, वही सवाल संविधान लागू होने के बाद देश के सामने मुंह बाये खड़े हैं।
यह अलग बात है कि कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ने खुद को डॉ. आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान की। लेकिन दोनों राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर आंबेडकर देश के पी.एम. होते तो देश के हालात कुछ और होते। क्योंकि आंबेडकर एक तरफ भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खडे होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे, और दूसरा उस दौर में आंबेडकर किसी भी राजनेता से सबसे ज्यादा पढ़े लिखे व्यक्तियों में से थे, जो अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी के विश्वविद्यालय में राजनीति और सामाजिक अध्ययन करने के साथ साथ भारत की अर्थ नीति कैसी हो इस पर भी लिख रहे थे। लेकिन डॉ. आंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी सोच कैसे दलित नेता और संविधान निर्माता के तौर पर मान्यता के तहत दब कर रह गई। जबकि डॉ. आंबेडकर आधुनिक भारत के अग्रीम पंक्ति के राष्ट्र निर्माता हैं।
जिस दौर में महात्मा गांधी ‘हिन्द स्वराज’ लिख रहे थे और हिन्द स्वराज के जरिये संसदीय प्रणाली या आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे, उस दौर में आंबेडकर भारत की पराधीन अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने के लिये स्वाधीन इकोनॉमिक ढांचे पर भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में कह-बोल रहे थे। साथ ही भारत के सामाजिक जीवन में झांकने के लिये संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और वेद संबंधी समूचा वाड्मंय अनुवाद में पढ़ रहे थे और भौतिक स्थापनायें लोगों के सामने रख रहे थे।
इसलिये जो दलित नेता आज सत्ता की गोद में बैठकर बाबासाहेब आंबेडकर को दलित नेता के तौर पर याद कर के नतमस्तक होते है, वह इस सच से आंखे चुराते हैं कि आंबेडकर ब्राह्मणी हिन्दू व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे एक राजनीतिक व्यवस्था मानते थे। 1936 में उनका बहुत साफ मानना था कि ब्राह्मण हिन्दू सिस्टम में अगर अछूत जाति का व्यक्ति भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा तो वह भी उसी अनुरुप काम करने लगेगा, जिस अनुरुप कोई ब्राह्मण करता।
अपनी किताब मार्क्स और बुद्ध में डॉ. आंबेडकर ने भारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरितियों को उभारा भी और समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश भी की है। जिस लकीर को गाहे बगाहे नेहरू से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजिनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में उठाते हैं। 1942 में आल इंडिया रेडियो पर एक कार्यक्रम में आंबेडकर कहते है, भारत में इस समय केवल मजदूर वर्ग ही सही नेतृत्व दे सकता है। मजदूर वर्ग में अनेक जातियों के लोग है जो छूत-अछूत का भेद मिटाती है। संगठन के लिये जाति प्रथा को आधार नहीं बनाते। उसी दौर में आंबेडकर अपनी किताब, “स्टेट्स एंड माइनारिटिज” में राज्यों के विकास का खाका भी खींचते नजर आते हैं । जिस यूपी को लेकर आज बहस हो रही है कि इतने बड़े सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिये। वहीं आजादी के बाद आंबेडकर यूपी को प्रशासनिक दृष्टि से बोझिल स्टेट कहते हुए यूपी को तीन हिस्से में बांटने की वकालत करते हैं।
फिर अपनी किताब “स्माल होल्डिग्स इन इंडिया” में किसानों के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं, जिन सवालों का जवाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है। आंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानों की क्षमता बढाने के तरीके उस वक्त बताते है। जबकि आज यूपी में किसानों के कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान है। कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढाने का जिक्र करती है। लेकिन ये होगा कैसे? इसका रास्ता बता नहीं पाती। जबकि डॉ. आंबेडकर “स्माल होल्डिग्स” में सभी उपाय बताते हैं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. आंबेडकर को कानून मंत्री के रूप में नियुक्त करते समय उन्हें कुछ समय बाद योजना आयोग का प्रभार देने का वायदा किया था। क्योंकि आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक – आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे, वैसे में उन्हें लगता रहा कि आजादी के बाद जिस इकोनॉमी को या जिस सिस्टम की जरुरत देश को है, वह उसे बाखूबी जानते समझते हैं। पर जवाहर लाल नेहरू आंबेडकर को योजना आयोग का प्रभार नहीं दिलवा सके। और अंत में डॉ. आंबेडकर ने उन्हीं सामाजिक हालातों की वजह से नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दिया, जिन परिस्थितियों को वह तब ठीक करना चाहते थे।
हिन्दू कोड बिल को लेकर जब संघ परिवार से लेकर हिन्दू महासभा और कई दूसरे संगठनों ने डॉ. आंबेडकर के खिलाफ सड़क पर विरोध प्रदर्शन शुरू किया। संसद में लंबी चर्चा के बाद भी देश की पहली राष्ट्रीय सरकार में भी जब आंबेडकर हिन्दू कोड बिल पर सहमत नहीं करा पाये तो 27 सितंबर 1951 को आंबेडकर ने नेहरू को इस्तीफा देते हुये लिखा “बहुत दिनों से इस्तीफा देने की सोच रहा था। एक चीज मुझे रोके हुये था, वह ये कि इस संसद के जीवनकाल में हिन्दू कोड बिल पास हो जाये । मैं बिल को तोड़कर विवाह और तलाक तक उसे सीमित करने पर सहमत हो गया था। इस आशा से कि कम से कम इन्हीं को लेकर हमारा श्रम सार्थक हो जाये। पर बिल के इस भाग को भी मार दिया गया है। मुझे आपके मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई कारण नहीं दिखता है।”
इतिहास के पन्नों को पलटिये तो गांधी और आंबेडकर कभी राजनीति करते हुए नजर नहीं आयेंगे बल्कि दोनों ही अपने-अपने तरह से देश को गढना चाहते थे। और आजादी के बाद संसदीय राजनीति के दायरे में दोनों को अपना बनाने की होड़ तो शुरु हुई लेकिन उनके विचार को ही खारिज कर दिया। उनके जीवित रहते हुए यह उन्हीं लोगों ने किया जो आंबेडकर को अपना बनाते या मानते नजर आये। इसलिये नेहरू या सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर तो हो सकता है, लेकिन आजादी के ठीक बाद के हालात को अगर परखे तो उस वक्त देश को कैसे गढ़ना है यही सवाल सबसे बड़ा था। लेकिन पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुए कश्मीर और रोजगार से होते हुए जाति-व्यवस्था और उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाये या उनसे दो चार होते वक्त जिन रास्तों को चुना, बीते 75 वर्ष में देश उन्हीं मुद्दों में आज भी उलझा हुआ है। राजनीतिक सत्ता जाति-व्यवस्था के दायरे से इतर सोच पाने में सक्षम नहीं है।
इस सवाल को आंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमडल की बैठक में ही उठा दिया था। इसलिये आंबेडकर ग्राम पंचायत प्रणाली का भी विरोध कर रहे थे। क्योंकि उनका साफ मानना था कि पंचायत चुनाव जाति में सिमटेंगे। जाति राजनीति को चलायेगी और असमानता भी एक वक्त देश की पहचान बना दी जायेगी। जिसके आधार पर बजट से लेकर योजना आयोग की नीतियां बनेंगी और ध्यान दें तो हुआ यही। अंतर सिर्फ यही आया है कि आंबेडकर आजादी के वक्त जब देश को गढ़ने के लिये तमाम सवालों को मथ रहे थे तब देश की आबादी 31 करोड़ थी और आज दलितों की तादात ही करीब 25 करोड़ हो चली है। शिक्षित चाहे 46 फ़ीसदी हो लेकिन ग्रेजुएट महज 4 फ़ीसदी है। इतना ही नहीं 70 फ़ीसदी दलितों के पास अपनी कोई जमीन नहीं है और 85 फ़ीसदी दलितों की आय 5 हजार रुपये महीने से भी कम है। आबादी 17 फ़ीसदी है लेकिन सरकारी नौकरियों में दलितों की तादाद औसतन सभी सेवाओं को मिलाकर महज 11.96 फ़ीसदी है। दलितों के लिये सरकार के तमाम मंत्रालयों का कुल बजट यानी उनकी आबादी की तुलना में आधे से भी कम है ।
जिस नजरिये का सवाल आंबेडकर आजादी से पहले और आजादी के ठीक बाद उठाते रहे उन सवालों के आईने में अगर बाबासाहेब आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है या दलितों के मसीहा के तौर पर देखता है तो समझना जरूरी है कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी पी.एम. ने ये क्यों नहीं कहा कि ऐसे विचारवान आंबेडकर को तो प्रधानमंत्री होना चाहिये था। क्योंकि ये बेहद महीन लकीर है कि महात्मा गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिये तैयार करते रहे और आंबेडकर नीतियों के आसरे जनसरोकार के संघर्ष को पैदा करना चाहते रहे।
देश की पॉलिसी ही अगर नीचे से ऊपर देखना शुरु कर देती तो अंग्रेजों का बना बनाया सिस्टम बहुत जल्द खत्म होता। जिस नेहरू मॉडल को कांग्रेस ने महात्मा गांधी से जोड़ने की कोशिश की, इन दोनों को आत्मसात करने वाली राजनीतिक सत्ताओं ने आंबेडकर मॉडल पर चर्चा करना तो दूर आंबेडकर को दलितों की रहनुमाई तले संविधान निर्माता का तमगा देकर ही उन्हें खत्म करने की कोशिश की। जो अब भी जारी है। आंबेडकर एक उच्च कोटि के राष्ट्रीय नेता और प्रधानमंत्री पद के सबसे सुयोग्य उम्मीदवार थे यह कहने की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल में क्यों नहीं है? यह एक गहन शोध का विषय है।
डॉ. आंबेडकर जातियों के उच्च और निम्न दृष्टिकोण की श्रेणीबद्धता की भावना को हिंदुत्व कहते थे। असमानतावाद और ब्राह्मणवाद हिन्दुत्व के अभ्यंतर में है। जाति और वर्ण हिंदुत्व का महत्वपूर्ण सार है। हिंदुत्व में जातियाँ हैं। ये जातियाँ राष्ट्र-विरोधी हैं। इसलिए क्योंकि वे सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं। जाति-व्यवस्था अमानवीयकरण की प्रक्रिया है। यह जाति उत्पीड़न का साधन है और नफरत फैलाती है। अस्पृश्यता, समाजीकरण के निषेध के साथ मानवीय घृणा की चरम अभिव्यक्ति है। इस कारण डॉ. आंबेडकर हिन्दुत्व के कटु आलोचक थे। आंबेडकर ने कहा कि जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना लोकतंत्र अर्थहीन है।
मेरा विश्वास है कि यदि डॉ. आंबेडकर प्रधान मंत्री होते या उनके सुझावों को अमल में लाया गया होता तो वह जाति व्यवस्था के उन्मूलन का प्रयास करते और जातिविहीन समाज की स्थापना के अग्रदूत बनते। जिससे न केवल जातिजनित भेदभाव और जातीय समस्याओं का हल निकलता बल्कि भारत की कम से कम 50% झगड़े और समस्याएं सुलझ जाती । सामाजिक-आर्थिक समानता लाने की गति बढ़ती । एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री होने के नाते डॉ. आंबेडकर देश की अर्थव्यवस्था को एक नया आयाम देते । बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन होता जिससे बेरोजगारी पर लगाम लगती। देश आर्थिक संपन्नता की ओर तेजी से बढ़ता।
क्या प्रधानमंत्री पद के लिए डॉ. अंबेडकर पर चर्चा नहीं करने का एकमात्र कारण उनका जाति-विरोधी रवैया है जो हिंदुत्व का मूल है? डॉ. आंबेडकर की एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति भेद के उच्छेद) नामक पुस्तक पर कभी भी गंभीर चर्चा होते हुए न तो समाजवादियों , साम्यवादियों को देखा -सुना जाता है न कांग्रेस को, तो भाजपा द्वारा इस पर चर्चा किए जाने के बारे में क्या सोचा जाए ? भाजपा को तो इस पर चर्चा करने का प्रश्न ही नहीं है। जो लोग अपने को भाजपाई, समाजवादी, साम्यवादी या दलित हितैषी कहते हैं उनमें से अधिकतर हिंदुत्ववादी मानसिकता से ग्रसित रहते हैं। इसलिए वोट के लालच में वे डॉ. आंबेडकर की ऊपर से खूब प्रशंसा करते हैं, फूल माला चढ़ाने में सबसे आगे रहते हैं पर अंदर से उनके सिद्धांतों की कब्र खोदते रहते हैं।

इं. राजेन्द्र प्रसाद सामाजिक चिंतक हैं। वे निरंतर लेखन के जरिये सक्रिय हैं। ‘संत गाडगे और उनका जीवन संघर्ष’ और ‘जगजीवन राम और उनका नेतृत्व’ उनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं। वे पटना में रहते हैं।