नई दिल्ली। आज (27 जुलाई) को धम्मचक्र प्रवर्तन दिन है. आषाढ़ पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने आषाढ़ पूर्णिमा के दिन 29 वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन का त्याग किया था. आषाढ़ पूर्णिमा को धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस भी कहा जाता है, क्योंकि सन् 528 इसवी पूर्व इसी दिन सारनाथ में सम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्खुओं को प्रथम धम्म प्रवचन दे कर धम्म चक्र प्रवर्तन सूत्र की देशना की थी.
धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस को बहुत महत्व पूर्ण माना जाता है क्योंकि यदि सम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध धम्म देशना नहीं करते तो आने वाली पीढियों को धम्म लाभ नहीं मिलता और हम लोग इस से वंचित रह जाते. बुद्ध ने पांच परिव्राजकों को संबोधित करते हुए कहा-भिक्खुओं, जो परिव्रजित हैं उन्हें दो अतियों से बचना चाहिए, पहली अति है कामभोगों में लिप्त रहने वाले जीवन की, यह कमजोर बनाने वाला है, गंवारु है, तुच्छ है और किसी काम का नहीं है, दूसरी अति है आत्मपीङाप्रधान जीवन जो कि दुःखद होता है, व्यर्थ होता है और बेकार होता है.
इन दोनों अतियों से बचे रहकर ही तथागत ने मध्यम मार्ग का अविष्कार किया है, यह मध्यम मार्ग साधक को अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाला है, बुद्धि देने वाला है, ज्ञान देने वाला है, शांति देने वाला है, संबोधि देने वाला है और पूर्ण मुक्ति अर्थात निर्वाण तक पहुंचा देने वाला है, यह मध्यम मार्ग श्रेष्ठ आष्टांगिक मार्ग है.
इस आर्य आष्टांगिक मार्ग के अंग हैं, सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि.
बुद्ध ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा- भिक्खुओं, पहला आर्यसत्य यह है कि दुःख है. जन्म लेना दुःख है, बुढ़ापा आना दुःख है, बीमारी दुःख है, मुत्यु दुःख है, अप्रिय चीजों से संयोग दुःख है, प्रिय चीजों से वियोग दुःख है, मनचाहा न होना दुःख है, अनचाहा होना दुःख है, संक्षेप में पांच स्कंधों से उपादान (अतिशय तृष्णा का होना) दुःख है.
अब हे भिक्खुओं, दूसरा आर्यसत्य यह है कि इस दुःख का कारण हैः राग के कारण पुनर्भव अर्थात पुनर्जन्म होता है, जिससे इस और उस जन्म के प्रति अतिशय लगाव पैदा होता है, यह लगाव काम-तृष्णा के प्रति होता है, भव-तृष्णा के प्रति होता है और विभव तृष्णा के प्रति होता है.
अब हे भिक्खुओं, तीसरा आर्यसत्य है दुःख निरोध आर्यसत्य, इस तृष्णा को जङ से पूर्णतः उखाङ देने से इस दुःख का, जीवन-मरण का जङ से निरोध हो जाता है,
और अब हे भिक्खुओं चौथा आर्यसत्य है दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा (दुःख से मुक्ति का मार्ग), इस दुःख को जङ से समाप्त किया जा सकता है और जिसके लिए तथागत ने आठ अंगों वाला आर्य आष्टांगिक मार्ग खोज निकाला है जो सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि हैं.
आर्य आष्टांगिक मार्ग
आर्य आष्टांगिक मार्ग भगवान बुद्ध की अद्भुत खोज थी. सभी दु:खों से वर्तमान जीवन में ही मुक्ति पाने के लिए तथा इसी जीवन में वास्तिवक सुख-शांति को प्राप्त करने के लिए भगवान बुद्ध ने आर्य आष्टांगिक मार्ग बताया है
यह आष्टांंगिक मार्ग किसी एक संप्रदाय का न होकर सार्वजनीन मार्ग है क्योंकि यह प्रकृति के नियमों पर आधारित है. जो भी व्याक्ति इस मार्ग पर चलेगा दु:खों से मुक्ति होगी ही. इसे स्वयं अनुभव कर जानना आवश्यक है. इसके आठ अंग इस प्रकार है:
(1) सम्यक् दृष्टि: सम्यक् दृष्टि् अर्थात सम्यक् दर्शन. यहां दर्शन शब्द का सही और वास्तविक अर्थ है – जो बात, जो वस्तु जैसी है, उसे वैसे ही उसके गुण-धर्म –स्वभाव में देखना अर्थात अनुभव से जानना. अत: सम्यक् दृष्टि अर्थात शुद्ध दर्शन, वास्तविक दर्शन, प्रत्येक वस्तु , व्यक्तिृ तथा स्थिति का यथाभूत दर्शन, सत्य दर्शन, यथाभूत ज्ञान दर्शन ही सम्य्क् दृष्टि कहलाती है. इसका अनुभव विपस्सना साधना द्वारा किया जा सकता है.
(2) सम्यक संकल्प- संकल्प अर्थात चिंतन, मनन. हमारा संकल्प हमारी सोच् सही व सकारातमक होनी चाहिए. अर्थात बुरे, दुषित विचारों से मुक्त , रागरहित, द्वेश रहित, व मोह –रहित चिंतन –मनन सम्यक् संकल्प् कहलाता है. सम्यक् स्मृ,ति का अभ्यास करते-करते विपस्सना साधना द्वारा सम्यक् संकल्प का अभ्या्स किया जा सकता है.
(3) सम्यक वचन: हमारी वाणी सम्यक् हो अर्थात हम झुठ न बोलें, कड़वी (कटु) भाषा बोलकर किसी का मन न दुखाएं, किसी की निंदा न करें, किसी की चुगली न करें, व्यर्थ बयान न करें, गाली-गलौच न करें. मधुर बोलें, सत्यवादी हों. वाणी मृदु और संयमति हो. वाणी ऐसी हो जो दो पक्षों को जोड़ने का मार करे, प्रेम भाव, मैत्री भाव, बंधुभाव बढ़ाने का काम करे, ऐसी वाणी को सम्यक् वाणी कहते है.
(4) सम्यक कर्म: मन, वचन और शरीर द्वारा किये जाने वाले कार्य-सम्यक् रहें अर्थात ठीक रहें. मिथ्याचार, परस्त्री गमन, व्यभिचार असम्यक् कर्म है. किसी दूसरे की वस्तु चुराना, चोरी करना असम्यक् कर्म है, नशा करना, गांजा, अफीम आदि लेना असम्यक् कर्म है. शरीर, वचन और मन से इन दुष्कर्मों से विरत रहें तो ही सम्यक् कर्म होगा.
(5) सम्यक आजीविका: हर व्याक्ति को अपने व परिवार के भरण-पोष्ण के लिए कोई न कोई कार्य करना आवश्यक हे. हमारी आजीविका का रास्ता सम्यक अर्थात सही होना चाहिए. आजीविका के साधन में किसी व्यक्ति को हानि नहीं होनी चाहिए. किसी को धोखा नहीं देना चाहिए. दूसरों को हानि पहुंचाकर, लूट कर, चोरी कर, ठगकर या धोखा देकर यदि जीविका चलाई जाती है तो वह असम्यक् आजीविका है. केवल पैसा कमाने के लिए ऐसे व्यापार-धंधे या कार्य क करें जो अन्य लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नुकसान पहूंचाते हैं. नशीले व मादक पदार्थों का व्यापार जहरीलें पदार्थों का व्यापार असम्यक् है. मांस- मदिरा का व्याापार, प्राणियों का व्यांपार, अस्त्र-शस्त्र का व्याकपा असम्यक है.
(6) सम्यक व्यायाम: मन की कमजोरी दूर करने के लिए, उसके विकार दूर करने के लिए मन का व्यायाम आवश्यक है. मन का स्वयं परीक्षण करें. यदि इस तथ्य का अनुभव हो कि मन में कुछ बुराई या दुर्गुण हैं तो उन्हें निकालने का प्रयास करें. किसी भी तरह के दुगुर्ण हममें न आने पाएं इस बात से स्वयं सजग रहें. मन में अच्छाइयों- सद्गुणों को घर करने दें. सद्गुणोंपार्जन के लिए हमेंशा तत्पर रहें, अपने सद्गुणों में हमेशा वृद्धि करने का प्रयास करें. दूसरों में कुछ अच्छे गुण नजर आए तो उसे ग्रहण करने का प्रयास करें. अपने चित्त को सद्गुणों की ओर अग्रसरित करने वाले इस मानसिक प्रयास को सम्यक् व्यायाम कहते हैं.
(7) सम्यक समृति: स्मृति का अर्थ है, जागरूकता, सजगता. वर्तमान क्षण में शरीर में होने वाली संदेवनाओं के प्रति सजगता व जागरूकता. शरीर और चित्त में स्वभावगत तौर पर होने वाली क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के प्रति सचेत रहकर, जागरूक रहकर उस वास्तविकता को, उस वर्तमान सच्चा-ई को समता भाव से देखना-परखना, यही सम्यक् स्मृति है , शरीर में जिस समय जो भी और जैसी भी संवेदना हो रही है, उसका यथाभूत ज्ञान दर्शन. विपस्ससना के द्वारा ही इसका अभयास किया जा सकता है.
(8) सम्यक समाधि: समाधि अर्थात मन की एकाग्रता. चित्त की एकाग्रता लाभदायक होती है. मन किसी भी आलंबन से एकाग्र हो सकता है. विकारों से भरा मन भी एकाग्र हो सकता है. अत: मन की केवल एकाग्रता सम्यक् समाधि नहीं है, अपितु जिस आलंबन के द्वारा मन एकाग्र किया जा रहा है. उसे लेकर यदि हम राग पैदा करें, द्वेष पैदा करें, मोह पैदा करें, तो यह सम्यक समाधि नहीं हुई. आलंबन रागविहीन, द्वेषविहीन और मोहविहीन होना आवश्य क है. यही सम्यक समाधि है. अत: कुशल चित्त और निर्मल चित्त की एकाग्रता को ही सम्यक समाधि कहते हैं. आनापान सति के अभ्यास से सम्यक् समाधि उपलब्ध हो सकती है. विपस्सना साधना द्वारा सम्यक् समाधि का योग्य अभ्यास किया जा सकता है. सम्यक का अर्थ है कि सही, सम्यक् का अर्थ है सचमुच.
यह आर्य आष्टांगिक मार्ग सभी दुखों से मुक्ति पाने व वास्तविक सुख:शांति से जीवन जीने का अनमोल रास्ता है. यह वर्तमान जीवन में ही निर्वाण का साक्षात्कार करा सकता है. इसमें मन को वश में रखने और निर्मल रखने पर विशेष जोर दिया गया है क्योंकि सभी अवस्थाएं पहले मन में उत्पन्न होती हैं. मन ही प्रधान है. मलिन व दूषित मन से बोलने पर या कार्य करने पर दुख पीछे-पीछे ऐसे ही हो लेता है जैसे बैलगाड़ी के पहिए बैलगाड़ी के बैलों के पीछे. जब मनुष्य स्वच्छ निर्मल मन से बोलता है या कर्म करता है तो सुख उसके पीछे ऐसे ही हो लेता है, जैसे आपका अपना साया.
इस प्रकार हे भिक्खुओं, इन चीजों के बारे में मैंने पहले कभी सुना नहीं था, मुझमें अंतदृष्टि जागी, ज्ञान जागा, प्रज्ञा जागी, अनुभूति जागी और प्रकाश जागा.
बुद्ध ने अपनी बात पूरी करते हुए आगे कहा, हे भिक्खुओं जब मैंने अपनी अनुभूति पर इन चारों आर्य सत्यों को इनके तीनों रूपों के साथ, और उनकी बारह कङियों के साथ, पूर्ण रूप से सत्य के साथ जान लिया, पूरी तरह समझ लिया और पूरी तरह अनुभव कर लिया, उसके बाद ही मैंने कहा कि मैंने सम्यक सम्बोधि प्राप्त कर ली है, इस तरह मुझमें ज्ञान की अंतर्दृष्टि जागी, मेरा चित्त सारे विकारों से मुक्त हो गया है, हे भिक्खुओं जब मैंने अपने स्वयं के प्रत्यक्ष अनुभवों से और पूर्ण ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ इन चारों आर्यसत्यों को जान लिया, यह मेरा अंतिम जन्म है अब इसके बाद कोई नया जन्म नहीं होगा.
बुद्ध के इन चार आर्यसत्य और आर्यअष्टांगिक मार्ग को सुनकर कौंङन्न के धर्मचक्षु जागे और उन्हें यह प्रत्यक्ष अनुभव हो गया कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह नष्ट होता है, जिसका उत्पाद होता है उसका व्यय होता है, कौंङन्न के चेहरे के भावों को देखकर बुद्ध ने कहा- कौंङन्न् ने जान लिया. कौंङन्न ने जान लिया. इसलिए कौंङन्न का नाम ज्ञानी कौंङन्न पङ गया. बुद्ध के इस उपदेश से कौंङन्न के अंदर भवसंसार चक्र, धम्म चक्र में परिवर्तित हो गया, इसलिए इस प्रथम उपदेश को धम्मचक्र प्रवर्तन सुत्त कहते हैं.
पांचों पंचवर्गीय भिक्खु बुद्ध के चरणों में नत मस्तक हो गए और उनसे अनुरोध किया कि वह इन पांचों भिक्खु्ओ को अपना शिष्य स्वीकार करे. बुद्ध ने “भिक्खु आओ” कह कर उन्हें अपना शिष्यु स्वीकार किया. चूंकि पांचो भिक्खुओं ने इसी दिन बुद्ध को अपना गुरू स्वीकार किया था इसलिए आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. बुद्ध ने यह उपदेश आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन दिया था, इसलिए बौद्धों में आषाढ़ पूर्णिमा पवित्र दिन माना जाता है.
आषाढ़ पूर्णिमा से भिक्खुओं का वस्सावास (वर्षावास/ चातुर्मास अर्थात वर्षा ऋतु में एक ही स्थान पर वास करना) आरंभ होता है, इस दिन बौद्ध उपासक-उपासिकाओं द्वारा महाउपोसथ व्रत रखा जाता है. बौद्ध विहारों में धम्म देशना के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं.
सबका मंगल हो!
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उत्तर प्रदेश के निवासी आनंद श्रीकृष्ण लेखक, चिंतक, साहित्यकार और बौद्ध विद्वान हैं। भगवान बुद्ध और उनके धम्म पर उनकी कई पुस्तकें तमाम बड़े प्रकाशन संस्थानों से प्रकाशित हो चुकी है। भगवान बुद्धः धम्म सार एवं चर्या उनकी चर्चित पुस्तक है। वर्तमान में दिल्ली में रहते हैं।